महाभारतम्-02-सभापर्व-039
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अभिषेचनदिने ब्राह्मणादीनामन्तर्वेदिप्रवेशः।। 1।।
भूभारक्षपणे नारदचिन्तनम्।। 2।।
पूर्वं सङ्क्षिप्योक्तायाः कृष्णागमनकथायाः किञ्चिद्विस्तरेण कथनम्।। 3।।
सहदेवेन श्रीकृष्णस्याग्रपूजाकरणम्।। 4।।
शिशुपालेन श्रीकृष्णस्याग्रपूजाऽसहनम्।। 5।।
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वैशम्पायन उवाच।। | 2-39-1x |
ततोऽभिषेचनीयेऽह्नि ब्राह्मणा राजभिः सह। अन्तर्वेदीं प्रविविशुः सत्कारार्हा महर्षयः।। | 2-39-1a 2-39-1b |
नारदप्रमुखास्तस्यामन्तर्वेद्यां महात्मनः। समासीनाः शुशुभिरे सहराजर्षिभिस्तदा।। | 2-39-2a 2-39-2b |
समेता ब्रह्मभवने देवा देवर्षयस्तथा। कर्मान्तरमुपासन्तो जजल्पुरमितौजसः।। | 2-39-3a 2-39-3b |
एवमेतन्न चाप्येवमेवं चैतन्न चान्यथा। इत्यूचुर्बहवस्तत्र वितण्डां वै परस्परम्।। | 2-39-4a 2-39-4b |
कृशानर्थांस्ततः केचिदकृशांस्तत्र कुर्वते। अकृशांश्च कृशांश्चक्रुर्हेतुभिः शास्त्रनिश्चयैः।। | 2-39-5a 2-39-5b |
तत्र मेधाविनः केचिदर्थमन्यैरुदीरितम्। विचिक्षिपुर्यथा श्येना नभोगतमिवामिषम्।। | 2-39-6a 2-39-6b |
केचिद्धर्मार्थकुशलाः केचित्तत्र महाव्रताः। रेमिरे कथयन्तश्च सर्वभाष्यविदां वराः।। | 2-39-7a 2-39-7b |
सा वेदिर्वेदसम्पन्नैर्देवद्विजमहर्षिभिः। आबभासे समाकीर्णा नक्षत्रैर्द्यौरिवायता।। | 2-39-8a 2-39-8b |
न तस्यां सन्निधौ शूद्रः कश्चिदासीन्न चाव्रती। अन्तर्वेद्यां तदा राजन्युधिष्ठिरनिवेशने।। | 2-39-9a 2-39-9b |
तां तु लक्ष्मीवतो लक्ष्मीं तदा यज्ञविधानजाम्। तुतोष नारदः पश्यन्धर्मराजस्य धीमतः।। | 2-39-10a 2-39-10b |
अथ चिन्तां समापेदे स मुनिर्मनुजाधिप। नारदस्तु तदा पश्यन्सर्वक्षत्रसमागमम्।। | 2-39-11a 2-39-11b |
सस्मार च पुरावृत्तां कथां तां पुरुषर्षभ। अंशावतरणे याऽसौ ब्रह्मणो भवनेऽभवत्।। | 2-39-12a 2-39-12b |
देवानां सङ्गमं तं तु विज्ञाय कुरुनन्दन। नारदः पुण्डरीकाक्षं सस्मार मनसा हरिम्।। | 2-39-13a 2-39-13b |
साक्षात्स विबुधारिघ्नः क्षत्रे नारायणो विभुः। प्रतिज्ञां पालयंश्चेमां जातः परपुरञ्जयः।। | 2-39-14a 2-39-14b |
न्दिदेश पुरा योऽसौ विबुधान्भूतकृत्स्वयम्। न्योन्यमभिनिघ्नन्तः पुनर्लोकानवाप्स्यथ।। | 2-39-15a 2-39-15b |
इति नारायणः शम्भुर्भगवान्भूतभावनः। आदिश्य विबुधान्सर्वानजायत यदुक्षये।। | 2-39-16a 2-39-16b |
क्षितावन्धकवृष्णीनां वंशे वंशभृतां वरः। परया शुशुभे लक्ष्म्या नक्षत्राणामिवोडुराट्।। | 2-39-17a 2-39-17b |
यस्य बाहुबलं सेन्द्राः सुराः सर्व उपासते। सोयं मानुषवन्नाम हरिरास्तेऽरिमर्दनः।। | 2-39-18a 2-39-18b |
अहो बत महद्भूतं स्वयम्भूर्यदिदं स्वयम्। आदास्यति पुनः क्षत्रमेवं बलसमन्वितम्।। | 2-39-19a 2-39-19b |
इत्येतां नारदश्चिन्तां चिन्तयामास सर्ववित्। हरिं नारायणं ज्ञात्वा यज्ञैरीज्यं तमीश्वरम्।। | 2-39-20a 2-39-20b |
तस्मिन्धर्मविदां श्रेष्ठो धर्मराजस्य धीमतः। महाध्वरे महाबुद्धिस्तस्थौ स बहुमानतः।। | 2-39-21a 2-39-21b |
`ततः समुदिता मुख्यैर्गुणैर्गुणवतां वराः। बहवो भावितात्मानः पृथक्पृथगरिन्दमाः।। | 2-39-22a 2-39-22b |
आत्मकृत्यमिति ज्ञात्वा पाञ्चालास्तत्र सर्वशः। समीयुर्वृष्णयश्चैव तदाऽनीकाग्रहारिणः।। | 2-39-23a 2-39-23b |
दाराः सजनामात्या वहन्तो रत्नसञ्चयान्। विकृष्टत्वाच्च देशस्य गुरुभारतया च ते।। | 2-39-24a 2-39-24b |
ययुः प्रमुदिताः पश्चाद्भगवन्तं समन्वयुः। बलशेषं समुदितं परिगृह्य समन्ततः।। | 2-39-25a 2-39-25b |
अजश्चक्रायुधः शौरिरमित्रगणमर्दनः। बलाधिकारे निक्षिप्य संमान्यानकदुन्दुभिम्।। | 2-39-26a 2-39-26b |
सम्प्रायाद्यादवश्रेष्ठो जयमाने युधिष्ठिरे। उच्चावचमुपादाय धर्मराजाय माधवः।। | 2-39-27a 2-39-27b |
धनौघं पुरतः कृत्वा खाण्डवप्रस्थमाययौ। तत्र यज्ञगतान्पश्यंश्चैद्यवर्गसमागतान्।। | 2-39-28a 2-39-28b |
भूमिपालगणान्सर्वान्सप्रभानिव तोयदान्। घकायान्निवसतो यूथपानिव यूथपः।। | 2-39-29a 2-39-29b |
बलिनः सिंहसङ्काशान्महीमावृत्य तिष्ठतः। ततो जनौघसम्बाधं राजसागरमव्ययम्।। | 2-39-30a 2-39-30b |
नादयन्रथघोषेण ह्युपायान्मधुसूदनः। असूर्यमिव सूर्येण निवातमिव वायुना।। | 2-39-31a 2-39-31b |
कृष्णेन समुपेतेन जहर्षे भारतं पुरम्। ब्राह्मणक्षत्रियाणां तु पूजार्थं ह्यर्थधर्मवित्।। | 2-39-32a 2-39-32b |
सहदेवो विशेषज्ञो माद्रीपुत्रः कृतोऽभवत्। भगवन्तं तु भूतानां भास्वन्तमिव तेजसा।। | 2-39-33a 2-39-33b |
विशन्तं यज्ञभूमिं तां सितस्यावरजं प्रभुम्। तेजोराशिमृषिं विप्रमदृश्यं वै विजानताम्।। | 2-39-34a 2-39-34b |
वयोधिकानां वृद्धानां मार्गमात्मनि तिष्ठताम्। जगतस्तस्थुषश्चैव प्रभवाप्ययमच्युतम्।। | 2-39-35a 2-39-35b |
अनन्तमन्तं शत्रूणाममित्रगणमर्दनम्। प्रभवं सर्वभूतानामापत्स्वभयमच्युतम्।। | 2-39-36a 2-39-36b |
भविष्यं भावनं भूतं द्वारवत्यामरिन्दमम्। स दृष्ट्वा कृष्णमायान्तं प्रतिपूज्यामितौजसम्।। | 2-39-37a 2-39-37b |
यथार्हं केशवे वृत्तिं प्रत्यपद्यत पाण्डवः। ज्यैष्ठ्यकानिष्ठ्यसंयोगं सम्प्रधार्य गुणागुणैः।। | 2-39-38a 2-39-38b |
आरिराधयिषुर्धर्मः पूजयित्वा द्विजोत्तमान्। महदादित्यसङ्काशमासनं च जगत्पतेः। ददौ नासादितं कैश्चित्तस्मिन्नुपविवेश सः'।। | 2-39-39a 2-39-39b 2-39-40c |
ततो भीष्मोऽब्रवीद्राजन्धर्मराजं युधिष्ठिरम्। क्रियतामर्हणं राज्ञां यथार्हमिति भारत।। | 2-39-40a 2-39-40b |
आचार्यमृत्विजं चैव संयुजं च युधिष्ठिर। स्नातकं च प्रियं प्राहुः षडर्घार्हान्नृपं तथा।। | 2-39-41a 2-39-41b |
एतानर्घ्यानभिगतानाहुः संवत्सरोषितान्। त इमे कालपूगस्य महतोऽस्मानुपागताः।। | 2-39-42a 2-39-42b |
एषामेकैकशो राजन्नर्घ आनीयतामिति। अथ तैषां वरिष्ठाय समर्थायोपनीयताम्।। | 2-39-43a 2-39-43b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-39-44x |
कस्मै भवान्मन्यतेऽर्घमेकस्मै कुरुनन्दन। उपनीयमानं युक्तं च तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 2-39-44a 2-39-44b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-39-45x |
ततो भीष्मः शान्तनवो बुद्ध्या निश्चित्य वीर्यवान्। वार्ष्णेयं मन्यते कृष्णमर्हणीयतमं भुवि।। | 2-39-45a 2-39-45b |
भीष्ण उवाच।। | 2-39-46x |
एष ह्येषां समस्तानां तेजोबलपराक्रमैः। मध्ये तपन्निवाभाति ज्योतिषामिव भास्करः।। | 2-39-46a 2-39-46b |
असूर्यमिव सूर्येण निर्वातमिव वायुना। भासितं ह्लादितं चैव कृष्णेनेदं सदो हि नः।। | 2-39-47a 2-39-47b |
तस्मै भीष्माभ्यनुज्ञातः सहदेवः प्रतापवान्। उपजह्रेऽथ विधिवद्वार्ष्णेयायार्घ्यमुत्तमम्।। | 2-39-48a 2-39-48b |
`गामर्घ्यं मधुपर्कं च ह्यानीयोपाहरत्तदा। एतस्मिन्नन्तरे राजन्निदमासीत्तदाऽद्भुतम्।। | 2-39-49a 2-39-49b |
तां दृष्ट्वा क्षत्रियाः सर्वे पूजां कृष्णस्य भूयसीम्। सम्प्रेक्ष्यान्योन्यमासीना हृदयैस्तामधारयन्'।। | 2-39-50a 2-39-50b |
प्रतिजग्राह तां कृष्णः शास्त्रदृष्टेन कर्मणा। शिशुपालस्तु तां पूजां वासुदेवे न चक्षमे।। | 2-39-51a 2-39-51b |
उपालभ्य स भीष्मं च धर्मराजं च संसदि। अवाक्षिपद्वासुदेवं चेदिराजो महाबलः।। | 2-39-52a 2-39-52b |
`तेषामाकारभावज्ञः सहदेवो न चक्षमे। मानिनां बलिनां राज्ञां पुरुः सन्दर्शिते पदे।। | 2-39-53a 2-39-53b |
पुष्पवृष्टिर्महत्यासीत्सहदेवस्य मूर्धनि। जन्मप्रभृति वृष्णीना सुनीथः शत्रुरब्रवीत्।। | 2-39-54a 2-39-54b |
प्रष्टा वियोनिजो राजा प्रतिवक्ता नदीसुतः। प्रतिग्रहीता गोपालः प्रदाता च वियोनिजः।। | 2-39-55a 2-39-55b |
सदस्या मूकवत्सर्वे आसतेऽत्र किमुच्यते। इत्युक्त्वा स विहस्याशु पाण्डुं पुनरब्रवीत्।। | 2-39-56a 2-39-56b |
अतिपश्यसि वा सर्वान्न वा पश्यसि पाण्डव। तिष्ठत्स्वन्येषु पूज्येषु गोपमर्चितवानसि।। | 2-39-57a 2-39-57b |
एते चैवोभये तात कार्यस्य तु विनाशके। अतिदृष्टिरदृष्टिर्वा तयोः किं त्वं समास्थितः'।। | 2-39-58a 2-39-58b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि दिग्विजयपर्वणि एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः।।39।। |
टिप्पणी
सम्पाद्यताम्2-39-41 संयुजं सम्बन्धिनं श्वशुरादिम्। प्रियं मित्रम्।। 2-39-52 अवाक्षिपद्दूषितवान्।।
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