महाभारतम्-02-सभापर्व-082
← सभापर्व-081 | महाभारतम् द्वितीयपर्व महाभारतम्-02-सभापर्व-082 वेदव्यासः |
सभापर्व-083 → |
दुर्योधनम्प्रति शकुनिना द्यूताय प्रोत्साहनम्।। 1।। धृतराष्ट्राज्ञया शिल्पिभिः सभानिर्माणम्।। 2।। धृतराष्ट्रेण पाण्डवानयनाय विदुरप्रेषणम्।। 3।।
|
शकुनिरुवाच।। | 2-82-1x |
यां त्वमेतां श्रियं पाण्डुपुत्रे युधिष्ठिरे। तप्यसे तां हरिष्यामि द्यूतेन जयतां वर।। | 2-82-1a 2-82-1b |
आहूयतां परं राजन्कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। अगत्वा संशयमहमयुद्ध्वा च चमूमुखे।। | 2-82-2a 2-82-2b |
अक्षान्क्षिपन्नक्षतः सन्विद्वानविदुषो जये। ग्लहान्धनूंषि मे विद्धि शरानक्षांश्च भारत।। | 2-82-3a 2-82-3b |
अक्षाणां हृदयं मे ज्यां रथं विद्धि ममास्फुरम्।। | 2-82-4a |
दुर्योधन उवाच। | 2-82-5x |
अयमुत्सहते राजच्छ्रियमाहर्तुमक्षवित्। द्यूतेन पाण्डुपुत्रेभ्यस्तदनुज्ञातुमर्हसि।। | 2-82-5a 2-82-5b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 2-82-6x |
स्थितोऽस्मि शासने भ्रातुर्विदुरस्य महात्मनः। तेन सङ्गम्य वेत्स्यामि कार्यस्यास्य विनिश्चयम्।। | 2-82-6a 2-82-6b |
दुर्योधन उवाच।। | 2-82-7x |
`कृष्णादभ्याधिकः सोऽपि क्षत्ता बोद्धा विशाम्पते। केवलं धर्ममेवाह न तद्विजयसाधकम्।। | 2-82-7a 2-82-7b |
जयश्च धर्मतोपेतस्तथैव भरतर्षभ। तस्माद्विनयतो जेता तावुभौ च विरोधिनौ'।। | 2-82-8a 2-82-8b |
व्यपनेष्यति ते बुद्धिं विदुरो मुक्तसंशयः। पाण्डवानां हिते युक्तो न तथा मम कौरव।। | 2-82-9a 2-82-9b |
नारभेतान्यसामर्थ्यात्पुरुषः कार्यमात्मनः। मतिसाम्यं द्वयोर्नास्ति कार्येषु कुरुनन्दन।। | 2-82-10a 2-82-10b |
भयं परिहरन्मत्त आत्मानं परिपालयन्। वर्षासु क्लिन्नवटवत्तिष्ठन्नैवावसीदति।। | 2-82-11a 2-82-11b |
न व्याधयो नापि यमः प्राप्तुं श्रेयः प्रतीक्षते। यावदेव भवेत्कल्पस्तावच्छ्रेयः समाचरेत्।। | 2-82-12a 2-82-12b |
धृतराष्ट्र उवाच।। | 2-82-13x |
सर्वथा पुत्र बलिभिर्विग्रहो मे रोचते। वैरं विकारं सृजति तद्वै शस्त्रमनायसम्।। | 2-82-13a 2-82-13b |
अनर्थमर्थं मन्यसे राजपुत्र सङ्ग्रन्थनं कलहस्यातियाति। तद्वै प्रवृत्तं तु यथाकथञ्चित् सृजेदसीन्निशितान्सायकांश्च।। | 2-82-14a 2-82-14b 2-82-14c 2-82-14d |
दुर्योधन उवाच।। | 2-82-15x |
द्यूते पुराणैर्व्यवहारः प्रणीत- स्तत्रात्ययो नास्ति न सम्प्रहारः। तद्रोचतां शकुनेर्वाक्यमद्य सभां क्षिप्रं त्वमिहाज्ञापयस्व।। | 2-82-15a 2-82-15b 2-82-15c 2-82-15d |
स्वर्गद्वारं दीव्यतां नो विशिष्टं तद्वर्तिनां चापि तथैव युक्तम्। भवेदेवं ह्यात्मना तुल्यमेव दुरोदरं पाण्डवैस्त्वं कुरुष्व।। | 2-82-16a 2-82-16b 2-82-16c 2-82-16d |
धृतराष्ट्र उवाच। | 2-82-17x |
वाक्यं न मे रोचते यत्त्वयोक्तं यत्ते प्रियं तत्क्रियतां नरेन्द्र। पश्चात्तप्स्यसे तदुपाक्रम्य वाक्यं न हीदृशं भावि वचो हि धर्म्यम्।। | 2-82-17a 2-82-17b 2-82-17c 2-82-17d |
दृष्टं ह्येतद्विदुरेणै सर्वं विपश्चिता बुद्धिविद्यानुगेन। तदेवैतदवशस्याभ्युपैति महद्भयं क्षत्रियजीवघाति।। | 2-82-18a 2-82-18b 2-82-18c 2-82-18d |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-82-19x |
एवमुक्त्वा धृतराष्ट्रो मनीषी दैवं मत्वा परमं दुस्तरं च। शशासोच्चैः पुरुषान्पुत्रवाक्ये स्थितो राजा दैवसंमूढचेताः।। | 2-82-19a 2-82-19b 2-82-19c 2-82-19d |
सहस्रस्तम्भां हेमवैदूर्यचित्रां शतद्वारां तोरणस्फाटिकाढ्याम्। सभामग्र्यां क्रोशमात्रायतां मे तद्विस्तारामाशु कुर्वन्तु युक्ताः।। | 2-82-20a 2-82-20b 2-82-20c 2-82-20d |
श्रुत्वा तस्य त्वरिता निर्विशङ्काः प्राज्ञा दक्षास्तां तदा चक्रुराशु। सर्वद्रव्याण्युपजह्रुः सभायां सहस्रशः शिल्पिनश्चैव युक्ताः।। | 2-82-21a 2-82-21b 2-82-21c 2-82-21d |
कालेनाल्पेनाथ निष्ठां गतां तां सभां रम्यां बहुरत्नां विचित्राम्। चित्रैर्हैमैरासनैरभ्युपेता- माचख्युस्ते तस्य राज्ञः प्रतीताः।। | 2-82-22a 2-82-22b 2-82-22c 2-82-22d |
ततो विद्वान्विदुरं मन्त्रिमुख्य- मुवाचेदं धृतराष्ट्रो नरेन्द्रः। युधिष्ठिरं राजपुत्रं च गत्वा मद्वाक्येन क्षिप्रमिहानयस्व।। | 2-82-23a 2-82-23b 2-82-23c 2-82-23d |
सभेयं मे बहुरत्ना विचित्रा शय्यासनैरुपपन्ना महार्हैः। सा दृश्यतां भ्रातृभिः सार्धमेत्य मुहृद्द्यूतं वर्ततामत्र चेति।। | 2-82-24a 2-82-24b 2-82-24c 2-82-24d |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-82-25x |
मतमाज्ञाय पुत्रस्य धृतराष्ट्रो नराधिपः। मत्वा च दुस्तरं दैवमेतद्राजंश्चकार ह।। | 2-82-25a 2-82-25b |
अन्यायेन तथोक्तस्तु विदुरो विदुषां वरः। नाभ्यनन्दद्वचो भ्रातुर्वचनं चेदमब्रवीत्।। | 2-82-26a 2-82-26b |
विदुर उवाच।। | 2-82-27x |
नाभिनन्दे नृपते प्रैषमेतं मैवं कृथाः कुलनाशाद्बिभेमि। पुत्रैर्भिन्नः कलहस्ते ध्रुवं स्या- देतच्छङ्के द्यूतकृते नरेन्द्र।। | 2-82-27a 2-82-27b 2-82-27c 2-82-27d |
धृतराष्ट्र उवाच। | 2-82-28x |
नेह क्षत्तः कलहस्तप्स्यते मां न चेद्दैवं प्रतिलोमं भविष्यत्। छात्रा तु दिष्टस्य वशे किलेदं सर्वं जगच्चेष्टति न स्वतन्त्रम्।। | 2-82-28a 2-82-28b 2-82-28c 2-82-28d |
तदद्य विदुर प्राप्य राजानं मम शासनात्। क्षिप्रमानय दुर्धर्षं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।। | 2-82-29a 2-82-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि द्व्यशीतितमोऽध्यायः।। 82 ।। |
2-82-3 ग्लहान् पणान्।।
2-82-4 आस्फुरमक्षविन्यासपातनादिस्थानम् ।। 2-82-8 विनयतः अनयात्।। 2-82-16 दुरोदरं द्यूतम्।।
सभापर्व-081 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सभापर्व-083 |