महाभारतम्-02-सभापर्व-093
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कुप्यतोऽर्जुनस्य युधिष्ठिरेण परिसान्त्वनम्।। 1।। धृतराष्ट्रेण वरं वरयेति द्रौपदीम्प्रति चोदनम्।। 2।। तत्प्रार्थनया धृतराष्ट्रेण युधिष्ठिरादीनामदासत्ववरदानम्।। 3।।
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वैशम्पायन उवाच।। | 2-93-1x |
द्रौपद्या वचनं श्रुत्वा चुकोपाथ धनञ्जयः। स तदा क्रोधताम्राक्ष इदं वचनमब्रवीत्।। | 2-93-1a 2-93-1b |
अयं तु मां वारयते धर्मराजो युधिष्ठिरः। इत्युक्त्वा क्रोधताम्राक्षो धनुरादाय वीर्यवान्।। | 2-93-2a 2-93-2b |
सव्यसाची समुत्पत्य ताञ्छत्रून्समुदैक्षत। उद्यतं फल्गुनं तत्र ददृशुः सर्वपार्थिवाः।। | 2-93-3a 2-93-3b |
युगान्ते सर्वलोकांस्तु दहन्तमिव पावकम्। वीक्षमाणं धनुष्पामिं हन्तुकामं मुहुर्मुहुः।। | 2-93-4a 2-93-4b |
हन्तुकामं पशून्क्रुद्धं रुद्रं दक्षक्रतौ यथा। तथाभूतं नरं दृष्ट्वा विषेदुस्तत्र मानवाः।। | 2-93-5a 2-93-5b |
धनञ्जयस्यव वीर्यज्ञा निराशा जीविते तदा। मृतभूता भवन्सर्वे नेत्रैरनिमिषैरिव।। | 2-93-6a 2-93-6b |
अर्जुनं धर्मपुत्रं च समुदैक्षन्त पार्थिवाः। क्रुद्धं तदाऽर्जुनं दृष्ट्वा पृथिवी च चचाल ह।। | 2-93-7a 2-93-7b |
खेचराणि च भूतानि वित्रेसुर्वै भयार्दिताः। नादित्यो विरराजाथ नापि वान्ति च मारुताः। | 2-93-8a 2-93-8b |
न चन्द्रो न च नक्षत्रं द्यौर्दिशोन न विभान्ति ह। सर्वमाविद्धमभवज्जगत्स्थावरजङ्गमम्।। | 2-93-9a 2-93-9b |
उत्पतन्स वभौ पार्तो दिवाकर इवाम्बरे। | 2-93-10a |
पार्थं दृष्ट्वा क्रुद्धं कालान्तकयमोपमम्। भीमसेनो मुदा युक्तो युद्धायैव मनो दधे।। | 2-93-11a 2-93-11b |
पाञ्चाली च ददर्शाथ सुसङ्क्रुद्धं धनञ्जयम्। हन्तुकामं रिपून्मर्वान्सुपर्णमिव पन्नगान्।। | 2-93-12a 2-93-12b |
दुष्प्रेक्षः सोऽभवत्क्रुद्धो युगान्ताग्निरिव ज्वलन्। तं दृष्ट्वा तेजसा युक्तं विव्यधुः पुरवासिनः।। | 2-93-13a 2-93-13b |
उत्पतन्तं तु वेगेन ततो दृष्ट्वा धनञ्जयम्। जग्राह स तदा राजा पुरुहूतो यथा हरिम्।। | 2-93-14a 2-93-14b |
उवाच स घृणी ज्येष्ठो धर्मराजो युधिष्ठिरः। मा पार्थ साहसं कार्षीर्मा विनाशं गमेद्यशः।। | 2-93-15a 2-93-15b |
अहमेतान्पापकृतो द्यूतज्ञान्दग्धुमुत्सहे। कन्त्त्वसत्यगतिं दृष्ट्वा क्रोधो नाशमुपैति मे।। | 2-93-16a 2-93-16b |
त्वमिमं जगतोऽर्थे वै कोपं संयच्छ पाण्डव।। | 2-93-17a |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-93-18x |
एवमुक्तस्तदा राज्ञा पाण्डवोऽथ धनञ्जयः। क्रोधं संशमयन्पार्थो धार्तराष्ट्रं प्रति स्थितः।। | 2-93-18a 2-93-18b |
तस्मिन्वीरे प्रशान्ते तु पाण्डवे फल्गुने पुनः। सुसम्प्रहृष्टमभवज्जगत्स्थावरजङ्गमम्।। | 2-93-19a 2-93-19b |
वारितं च तथा दृष्ट्वा भ्रात्रा पार्थं वृकोदरः। बभूव विमना राजन्नभून्निश्शब्दमत्र वै।। | 2-93-20a 2-93-20b |
ततो राज्ञो धृतराष्ट्रस्य गेहे गोमायुरुच्चैर्व्याहरदग्निहोत्रे। तं रासभाः प्रत्यभाषन्त राज- न्समन्ततः पक्षिणश्चैव रौद्राः।। | 2-93-21a 2-93-21b 2-93-21c 2-93-21d |
तं वै शब्दं विदुरस्तत्त्ववेदी शुश्राव घोरं सुबलात्मजा च। भीष्मो द्रोणो गौतमश्चापि विद्वान् स्वस्तिस्वस्तीत्यपि चैवाहुरुच्चैः।। | 2-93-22a 2-93-22b 2-93-22c 2-93-22d |
ततो गान्धारी विदुरश्चापि विद्वां- स्तमुत्पातं घोरमालक्ष्य राज्ञे। निवेदयामासतुरार्तवत्तदा ततो राजा वाक्यमिदं बभाषे।। | 2-93-23a 2-93-23b 2-93-23c 2-93-23d |
धृतराष्ट्र उवाच।। | 2-93-24x |
हतोऽसि दुर्योधन मन्दबुद्धे यस्त्वं सभायां कुरुपुङ्गवानाम्। स्त्रियं समाभाषसि दुर्विनीत विशेषतो द्रौपदीं धर्मपत्नीम्।। | 2-93-24a 2-93-24b 2-93-24c 2-93-24d |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-93-25x |
एवमुक्त्वा धृतराष्ट्रो मनीषी हितान्वेषी बान्धवानामपायात्। कृष्णां पाञ्चालीमब्रवीत्सान्त्वपूर्वं | 2-93-25a 2-93-25b 2-93-25d |
विमृश्यैतत्प्रज्ञया तत्त्वबुद्धिः।। | 2-93-26a |
धृतराष्ट उवाच।। | 2-93-26x |
वरं वृणीष्व पाञ्चालि मत्तो यदभिवाञ्छसि। | 2-93-26b |
वधूनां हि विशिष्टा मे त्वं धर्मपरमा सती।। | 2-93-27a |
द्रौपद्युवाच।। | 2-93-27x |
ददासि चेद्वरं मह्यंवृणोमि भरतर्षभ। सर्वधर्मानुगः श्रीमानदासोऽस्तु युधिष्ठिरः।। | 2-93-27a 2-93-27b |
मनस्विनमजानन्तो मैवं ब्रूयुः कुमारकाः। एतं वै दासपुत्रेति प्रतिविन्ध्यं ममात्मजम्।। | 2-93-28a 2-93-28b |
राजपुत्रः पुरा भूत्वा यथा नान्यः पुमान्क्वचित्। लालितो दासपुत्रत्वं पश्यन्नश्येद्धि भारत।। | 2-93-29a 2-93-29b |
धृतराष्ट्र उवाच।। | 2-93-30x |
एवं भवतु कल्याणि यथा त्वमभिभाषसे। द्वितीयं ते वरं भद्रे ददानि वरयस्व ह। मनो हि मे वितरति नैकं त्वं वरमर्हसि।। | 2-93-30a 2-93-30b 2-93-30c |
द्रौपद्युवाच।। | 2-93-31x |
सरथौ सघनुष्कौ न भीमसेनधनञ्जयौ। यमौ च वरये राजन्नदासान्स्ववशानहम्।। | 2-93-31a 2-93-31b |
धृतराष्ट्र उवाच।। | 2-93-32x |
तथाऽस्तु ते महाभागे यथा त्वं नन्दिनीच्छसि। तृतीयं वरयास्मत्तो नासि द्वाभ्यां सुसंस्कृता। | 2-93-32a 2-93-32b |
त्वं हि सर्वस्नुषाणां मे श्रेयसी धर्मचारिणी ।। | 2-93-33a |
द्रौपद्युवाच। | 2-93-33x |
लोभो धर्मस्य नाशाय भगवन्नाहमुत्सहे। अनर्हा वरमादातुं तृतीयं राजसत्तम।। | 2-93-33a 2-93-33b |
एकामाहुर्वैश्यवरं द्वौ तु क्षत्रस्त्रियो वरौ। त्रयस्तु राज्ञो राजेन्द्र ब्राह्मणस्य शतं वराः।। | 2-93-34a 2-93-34b |
पापीयांस इमे भूत्वा सन्तीर्णाः पतयो मम। वेत्स्यन्ति चैव भद्राणि राजन्पुण्येन कर्मणा।। | 2-93-35a 2-93-35b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि त्रिनवतितमोऽध्यायः।।93 ।। |
2-93-21 अग्निहोत्रे गृह्याग्निसमीपे।।
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