महाभारतम्-02-सभापर्व-103
← सभापर्व-102 | महाभारतम् द्वितीयपर्व महाभारतम्-02-सभापर्व-103 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व → |
धृतराष्ट्रसञ्जययोः संवादः।। 1।।
|
वैशम्पायन उवाच।। | 2-103-1x |
वनं गतेषु पार्थेषु निर्जितेषु दुरोदरे। धृतराष्ट्रं महाराज तदा चिन्ता समाविशत्।। | 2-103-1a 2-103-1b |
तं चिन्तयानमासीनं धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्। निः श्वसन्तमनेकाग्रमिति होवाच सञ्जयः।। | 2-103-2a 2-103-2b |
अवाप्य वसुसम्पूर्णां वसुधां वसुधाधिप। प्रव्राज्य पाण्डवान्राज्याद्राजन्किमनुशोचसि।। | 2-103-3a 2-103-3b |
धृतराष्ट्र उवाच।। | 2-103-4x |
अशोच्यत्वं कुतस्तेषां येषां वैरं भविष्यति। पाण्डवैर्युद्धशौण्डैर्हि बलवद्भिर्महारथैः।। | 2-103-4a 2-103-4b |
सञ्जय उवाच।। | 2-103-5x |
तवेदं सुकृतं राजन्महद्वैरमुपस्थितम्। विनाशो येन लोकस्य सानुबन्धो भविष्यति।। | 2-103-5a 2-103-5b |
वार्यमाणो हि भीष्मेण द्रोणेन विदुरेण च। पाण्डवानां प्रियां भार्यां द्रौपदीं धर्मचारिणीम्। | 2-103-6a 2-103-6b |
प्राहिणोदानयेहेति पुत्रो दुर्योधनस्तव। सूतपुत्रं सुमन्दात्मा निर्लज्जः प्रातिकामिनम्।। | 2-103-7a 2-103-7b |
यस्मै देवाः प्रयच्छन्ति पुरुषाय पराभवम्। बुद्धिं तस्यापकर्षन्ति सोऽवाचीनानि पश्यति।। | 2-103-8a 2-103-8b |
बुद्धौ कलुषभूतायां विनाशे समुपस्थिते। अनयो नयसङ्काशो हृदयान्नापसर्पति।। | 2-103-9a 2-103-9b |
अनर्थाश्चार्थरूपेण अर्थाश्चानर्थरूपिणः। उत्तिष्ठन्ति विनाशाय नूनं तच्चास्य रोचते।। | 2-103-10a 2-103-10b |
न कालो दण्डमुद्यम्य शिरः कृन्तति कस्यचित्। कालस्य बलमेतार्वाद्वपरीतार्थदर्शनम्।। | 2-103-11a 2-103-11b |
आसादितमिदं घोरं तुमुलं रोमहर्षणम्। पाञ्चालीमपकर्षद्भिः सभामध्ये तपस्विनीम्।। | 2-103-12a 2-103-12b |
अयोनिजां रूपवतीं कुले जातां विभावसोः। को नु तां सर्वधर्मज्ञां परिभूय यशस्विनीम्।। | 2-103-13a 2-103-13b |
पर्यानयेत्सभामध्ये विना दुर्द्यूतदेविनम्। स्त्रीधर्मिणी वरारोहा शोणितेन परिप्लुता।। | 2-103-14a 2-103-14b |
एकवस्त्राथ पाञ्चाली पाण्डवानभ्यवैक्षत। हृतस्वान्हृतराज्यांश्च हृतवस्त्रान्हृतश्रियः।। | 2-103-15a 2-103-15b |
विहीनान्सर्वकामेभ्यो दासभावमुपागतान्। धर्मपाशपरिक्षिप्तानशक्तानिव विक्रमे।। | 2-103-16a 2-103-16b |
क्रुद्धां चानर्हतीं कृष्णां दुःखितां कुरुसंसदि। दुर्योधनश्च कर्णश्च कटुकान्यभ्यभाषताम्।। | 2-103-17a 2-103-17b |
इति सर्वमिदं राजन्नाकुलं प्रतिभाति मे। | 2-103-18a |
धृतराष्ट्र उवाच।। | 2-103-18x |
तस्याः कृपणचक्षुर्भ्यां प्रदह्येतापि मेदिनी।। | 2-103-18b |
अपि शेषं भवेदद्य पुत्राणां मम सञ्जय। भरतानां स्त्रियः सर्वा गान्धार्या सह सङ्गताः।। | 2-103-19a 2-103-19b |
प्राकोशन्भैरवं तत्र दृष्ट्वा कृष्णां सभागताम्। धर्मिष्टां धर्मपत्नीं च रूपयौवनशालिनीम्।। | 2-103-20a 2-103-20b |
प्रजाभिःसह सङ्गम्य ह्यनुशोचन्ति नित्यशः। अग्निहोत्राणि सायाह्ने च चाहूयन्त सर्वशः।। | 2-103-21a 2-103-21b |
ब्राह्मणाः कुपिताश्चासन्द्रौपद्याः परिकर्षणे। आसीन्निष्ठानको घोरो निर्घातश्च महानभूत्।। | 2-103-22a 2-103-22b |
दिव उल्काश्चापतन्त राहुश्चार्कमुपाग्रसत्। अपर्वणि महाघोरं प्रजानां जयन्भयम्।। | 2-103-23a 2-103-23b |
तथैव रथशालासु प्रादुरासीद्धुताशनः। ध्वजाश्चापि व्यशीर्यन्त भरतानामभूतये।। | 2-103-24a 2-103-24b |
दुर्योधनस्याग्निहोत्रे प्राक्रोशन्भैरवं शिवाः। तास्तदा प्रत्यभाषन्त रासभाः सर्वतो दिशः।। | 2-103-25a 2-103-25b |
प्रातिष्ठत ततो भीष्मो द्रोणेन सह सञ्जय। कृपश्च सोमदत्तश्च बाह्लीकश्च महामनाः।। | 2-103-26a 2-103-26b |
ततोऽहमब्रुवं तत्र विदुरेण प्रचोदितः। वरं ददानि कृष्णायै काङ्क्षितं यद्यदिच्छति।। | 2-103-27a 2-103-27b |
अवृणोत्तत्र पाञ्चाली पाण्डवाना --सताम्। सरथान्सधनुष्कांश्चाप्यनुज्ञासिषमप्यहम्।। | 2-103-28a 2-103-28b |
अथाब्रवीन्महाप्राज्ञो विदुरः सर्वधर्मवित्। एतदन्तास्तु भरता यद्व-कृष्णा सभां गता।। | 2-103-29a 2-103-29b |
यैषा पाञ्चालराजस्य सुता सा श्रीरनुत्तमा। पाञ्चाली पाण्डवानेतान्दैवसृष्टोपसर्पति।। | 2-103-30a 2-103-30b |
तस्याः पार्थाः परिक्लेशं न क्षंस्यन्ते ह्यमर्षणाः। वृष्णयो वा महेष्वासाः पाञ्चाला वा महारथाः।। | 2-103-31a 2-103-31b |
तेन सत्याभिसन्धेन वासुदेवेन रक्षिताः। आगमिष्यति बीभत्सुः पञ्चालैः परिवारितः।। | 2-103-32a 2-103-32b |
तेषां मध्ये महेष्वासो भीमसेनो महाबलः। आगमिष्यति धुन्वानो गदां दण्डमिवान्तकः।। | 2-103-33a 2-103-33b |
ततो गाण्डीवनिर्घोषं श्रुत्वा पार्थस्य धीमतः। गदावेगं च भीमस्य नालं सोढुं नराधिपाः।। | 2-103-34a 2-103-34b |
तत्र मे रोचते नित्यं पार्थैः साम न विग्रहः। कुरुभ्यो हि सदा मन्ये पाण्डवान्बलवत्तरान्।। | 2-103-35a 2-103-35b |
तथा हि बलवान्राजा जरासन्धो महाद्युतिः। बाहुप्रहरणेनैव भीमेन निहतो युधि। | 2-103-36a 2-103-36b |
तस्य ते शम एवास्तु पाण्डवैर्भरतर्षभ। उभयोः पक्षयोर्युक्तं क्रियतामविशङ्कया।। | 2-103-37a 2-103-37b |
एवं कृते महाराज परं श्रेयस्त्वमाप्स्यसि। एवं गावल्गणे क्षत्ता धर्मार्थसहितं वचः।। | 2-103-38a 2-103-38b |
उक्तवान्न गृहीतं वै मया पुत्रहितैषिणा।। | 2-103-39a |
।। इति श्रीमन्महाभारते शतसाहस्रयां संहितायां वैयासिक्यां सभापर्वणि अनुद्यूतपर्वणि व्यधिकशततमोऽध्यायः।। 103।। | |
।। समाप्तमनुद्यूतपर्व सभापर्व च।।
इतः परं वनपर्व भविष्यति तस्यायमाद्यः श्लोकः। |
टिप्पणी
सम्पाद्यताम्2-103-22 निष्ठानकः चण्डवात इत्यर्थः। निर्घातो वज्रशब्दः।।
सभापर्व-102 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व |