महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-043
← आरण्यकपर्व-042 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-043 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-044 → |
इन्द्रेणार्जुनस्य सबहुमानं स्वार्धासनारोपणम् ।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-43-1x |
ददर्श स पुरीं रम्यां सिद्धचारणसेविताम्। सर्वर्तुकुसुमैः पुण्यैः पादपैरुपशोभिताम् ।। | 3-43-1a 3-43-1b |
तत्र सौगन्धिकानां च पुष्पाणां पुण्यगन्धिनाम्। उपवीज्यमानो मिश्रेण वायुना पुण्यगन्धिना ।। | 3-43-2a 3-43-2b |
नन्दनं च वनं दिव्यमप्सरोगणसेवितम्। ददर्श दिव्यकुसुमैराह्वयद्भिरिव द्रुमैः ।। | 3-43-3a 3-43-3b |
नातप्ततपसा शक्यो द्रष्टुं नानाहिताग्निना। स लोकः पुण्यकर्तॄणां नापि युद्धे पराङ्युखैः ।। | 3-43-4a 3-43-4b |
नायज्वभिर्नाव्रतिकैर्न वेदश्रुतिवर्जितैः। नानाप्लुताङ्गैस्तीर्थेषु यज्ञदानबहिष्कृतैः ।। | 3-43-5a 3-43-5b |
नापि यज्ञहनैः क्षुद्रैर्द्रष्टुं शक्यः कथंचन। पानपैर्गुरुतल्पैश्च मांसादैर्वा दुरात्मभिः ।। | 3-43-6a 3-43-6b |
स तद्दिव्यं वनं पश्यन्दिव्यगीतनिनादितम्। प्रविवेश महाबाहुः शक्रस्य दयितां पुरीम् ।। | 3-43-7a 3-43-7b |
तत्र देवविमानानि कामगानि सहस्रशः। संस्थितान्यभियातानि ददर्शायुतशस्तदा ।। | 3-43-8a 3-43-8b |
संस्तूयमानो गन्धर्वैरप्सरोभिश्च पाण्डवः। पुष्पगन्धवहैः पुण्यैर्वायुभिश्चानुवीजितः ।। | 3-43-9a 3-43-9b |
ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः। हृष्टाः संपूजयामासुः पार्थमक्लिष्टकारिणम् ।। | 3-43-10a 3-43-10b |
आसीर्वादैः स्तूयमानो दिव्यवादित्रनिःस्वनैः। प्रतिपेदे महाबाहुः शङ्खदुन्दुभिनादितम् ।। | 3-43-11a 3-43-11b |
नक्षत्रमार्गं विपुलं सुरवीथीति विश्रुतम्। इन्द्राज्ञया ययौ पार्थः स्तूयमानः समन्ततः ।। | 3-43-12a 3-43-12b |
तत्र साध्यास्तथा विश्वे मरुतोऽथाश्विनौ तथा। आदित्या वसवो रुद्रास्तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः ।। | 3-43-13a 3-43-13b |
राजर्षयश्च बहवो दिलीपप्रमुखा नृपाः। तम्बुरुर्नारदश्चैव गन्धर्वौ च हाहा हूहूः ।। | 3-43-14a 3-43-14b |
तान्स सर्वान्समागम्य विधिवत्कुरुनन्दनः। ततोऽपश्यद्देवराजं शतक्रतुमरिंदमः ।। | 3-43-15a 3-43-15b |
ततः पार्थो महाबाहुरवतीर्य रथोत्तमात्। ददर्श साक्षाद्देवेशं पितरं पाकशासनम् ।। | 3-43-16a 3-43-16b |
पाण्डुरेणातपत्रेण हेमदण्डेन चारुणा। दिव्यगन्धाधिवासेन व्यजनेन विधूयता ।। | 3-43-17a 3-43-17b |
विश्वावसुप्रभृतिनिर्गन्धर्वैः स्तुतिवन्दिभिः। स्तूयमानं द्विजाग्र्यैश्च ऋग्यजुःसामसंस्तवैः ।। | 3-43-18a 3-43-18b |
ततोऽभिगम्य कौन्तेयः शिरसाऽभ्यगमद्बली। स चैनं वृत्तपीनाभ्यां बाहुभ्यां प्रत्यगृह्णत ।। | 3-43-19a 3-43-19b |
ततः शक्रासने पुण्ये देवर्षिगणसेविते। शक्रः पाणौ गृहीत्वैनमुपावेशयदन्तिके ।। | 3-43-20a 3-43-20b |
मूर्धि चैनमुपाघ्राय देवेन्द्रः परवीरहा। अङ्कमारोपयामास प्रश्रयावनतं तदा ।। | 3-43-21a 3-43-21b |
सहस्राक्षनियोगात्स पार्थः शक्रासनं तदा। आरुरुक्षुरमेयात्मा द्वितीय इववासवः ।। | 3-43-22a 3-43-22b |
ततः प्रेम्णा वृत्रशत्रुरर्जुनस्य शुभं मुखम्। पस्पर्श पुण्यगन्धेन करेण परिसान्त्वयन् ।। | 3-43-23a 3-43-23b |
प्रमार्जमानः शनकैर्बाहू चास्यायतौ शुभौ। ज्याशरक्षेपकिनौ स्तम्भाविव हिरण्मयौ ।। | 3-43-24a 3-43-24b |
वज्रग्रहणचिह्नेन करेण परिसान्त्वयन्। मुहुर्मुहुर्वज्रधरो बाहू चास्फोटयञ्शनैः ।। | 3-43-25a 3-43-25b |
स्मयन्निव गुडाकेशं प्रेक्षमाणः सहस्रदृक्। हर्षेणोत्फुल्लनयनो न चातृप्यत वृत्रहा ।। | 3-43-26a 3-43-26b |
एकासनोपविष्टौ तौ शोभयांसचक्रतुः सभाम्। सूर्याचन्द्रमसौ व्योम चतुर्दश्यामिवोदितौ ।। | 3-43-27a 3-43-27b |
तत्र स्म गाथा गायन्ति साम्ना परमवल्गुना। गन्धर्वास्तुम्बुरुश्रेष्ठाः कुशला गीतसामसु ।। | 3-43-28a 3-43-28b |
घृताची मेनका रम्भा पूर्वचित्तिः स्वयंप्रभा। उर्वशी मिश्रकेशी च दण्डगौरी वरूथीनि ।। | 3-43-29a 3-43-29b |
गोपाली सहजन्या च कुम्भयोनिः प्रजागरा। चित्रसेना चित्रलेखा सहा च मधुरस्वरा ।। | 3-43-30a 3-43-30b |
एताश्चान्याश्च ननृतुस्तत्रतत्र शुचिस्मिताः। चत्तप्रमथने युक्ताः सिद्धानां पद्मलोचनाः ।। | 3-43-31a 3-43-31b |
महाकटितटश्रोण्यः कम्पमानैः पयोधरैः। कटाक्षहावमाधुर्यैश्चेतोबुद्धिमनोहरैः ।। | 3-43-32a 3-43-32b |
[ततो देवाः सगन्धर्वाः समादायार्घ्यमुत्तमम्। शक्रस्य मतमाज्ञाय पार्थमानर्चुरञ्जसा ।। | 3-43-33a 3-43-33b |
पाद्यमाचमनीयं च प्रतिग्राह्य नृपात्मजम्। प्रवेशयामासुरथो पुरंदरनिवेशनम् ।। | 3-43-34a 3-43-34b |
एवं संपूजितो जिष्णुरुवास भवने पितुः। उपशिक्षन्महास्राणि ससंहाराणि पाण्डवः ।। | 3-43-35a 3-43-35b |
शक्रस्य हस्ताद्दयितं वज्रमस्त्रं च दुःसहम्। अशनीश्च महानादा मेघबर्हिणलक्षणाः ।। | 3-43-36a 3-43-36b |
गृहीतास्त्रस्तु कौन्तेयो भ्रातॄन्सस्मार पाण्डवः। पुरंदरनियोगाच्च पञ्चाब्दानवसत्सुखी ।। | 3-43-37a 3-43-37b |
ततः शक्रोऽब्रवीत्पार्थं कृतास्त्रं काल आगते। नृत्यं गीतं च कौन्तेय चित्रसेनादवाप्नुहि ।। | 3-43-38a 3-43-38b |
वादित्रं देवविहितं नृलोके यन्न विद्यते। तदर्जयस्व कौन्तेय श्रेयो वै ते भविष्यति ।। | 3-43-39a 3-43-39b |
सखायं प्रददौ चास्य चित्रसेनं पुरंदरः। स तेन सह संगम्य रेमे पार्थो निरामयः ।। | 3-43-40a 3-43-40b |
गीतवादित्रनृत्यानि भूय एवादिदेश ह। तथाऽपि नालभच्छर्म तरस्वी द्यूतकारितम् ।। | 3-43-41a 3-43-41b |
दुःशासनवधामर्षी शकुनेः सौबलस्य च। ततस्तेनातुलां प्रीतिमुपागम्य क्वचित्क्वचित्। गान्धऱ्वमतुलं नृत्यं वादित्रं चोपलब्धवान् ।। | 3-43-42a 3-43-42b 3-43-42c |
स शिक्षितो नृत्यगुणाननेका- न्वादित्रगीतार्थगुणांश्च सर्वान्। न शर्ण लेभे परवीरहन्ता भ्रातॄन्स्मरन्मातरं चैव कुन्तीम् ।। | 3-43-43a 3-43-43b 3-43-43c 3-43-43d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ।। 43 ।। |
टिप्पणी
सम्पाद्यताम्3-43-3 नन्दनं नामतः ।। 3-43-21 प्रश्रयावनतं विनयेन प्रह्वीभूतम् ।। 3-43-25 वज्रग्रहणस्य चिह्नं किणो यस्मिन् ।। 3-43-28 गीतानि अमन्त्रेपरि गानम्। साम मन्त्रोपरि गानम् ।। 3-43-32 चेतः अलोचनात्मिका चित्तवृत्तिः। बुद्धिरध्यवसायरूपा। मनः संकल्पविकल्पात्मकम्। कटाक्षादिभिः चित्तस्य वृत्त्यन्तरं हरन्तीत्यर्थः ।।
आरण्यकपर्व-042 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-044 |