महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-084
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युधिष्ठिरेण धौम्यंप्रति अर्जुनेन विना स्वस्य काम्यकवनेऽनमिरुचिकथनपूर्वकं निवासाय स्थानान्तरकथनप्रार्थना ।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-84-1x |
भ्रातॄणां मतमाज्ञाय नारदस्य च धीमतः। पितामहसमं धौम्यं प्राह राजा युधिष्ठिरः ।। | 3-84-1a 3-84-1b |
मया स पुरुषव्याघ्रो जिष्णुः सत्यपराक्रमः। अस्त्रहेतोर्महाबाहुरमितात्मा विवासितः ।। | 3-84-2a 3-84-2b |
स हि वीरोऽनुरक्तश् समर्थश्च तपोधनः। कृती च भृशमप्यस्त्रे वासुदेव इव प्रभुः ।। | 3-84-3a 3-84-3b |
अहं ह्येतावुभौ ब्रह्मन्कृष्णावरिविघातिनौ। अभिजानामि विक्रान्तौ तथा व्यासः परन्तपौ ।। | 3-84-4a 3-84-4b |
त्रियुगौ पुण्डरीकाक्षौ वासुदेवधनंजयौ। नारदोऽपितथा वेद योष्यशंसत्सदा मम ।। | 3-84-5a 3-84-5b |
तथाऽहमपि जानामि नरनारायणावृषी। शक्तोऽयमित्यतो मत्वा मया स प्रेषितोऽर्जुनः ।। | 3-84-6a 3-84-6b |
इन्द्रादनवरः शक्रं सुरसूनुः सुराधिपम्। द्रष्टुमस्त्राणि चादातुमिन्द्रादिति विवासितः ।। | 3-84-7a 3-84-7b |
भीष्मद्रोणावतिरथौ कृपो द्रौणिश्च दुर्जयः। धृतराष्ट्रस्य पुत्रेण सुधृताः सुमहाबलाः ।। | 3-84-8a 3-84-8b |
सर्वे वेदविदः शूराः सर्वेऽस्त्रकुशलास्तथा। `सर्वे महारथा मुख्याः सर्वे जितपरिश्रमाः'। योद्धुकामाश्च पार्थेन सततं ये महाबलाः ।। | 3-84-9a 3-84-9b 3-84-9c |
स च दिव्यास्त्रवित्कर्णः सूतपुत्रो महारथः। योऽस्त्रवेगानिलबलः शरार्चिस्तलनिःस्वनः। रजोधूमोऽस्त्रसंपातो धार्तराष्ट्रानिलोद्धतः ।। | 3-84-10a 3-84-10b 3-84-10c |
निसृष्ट इव कालेन युगान्तज्वलनो यथा। मम सैन्यमयं कक्षं प्रधक्ष्यति न संशयः ।। | 3-84-11a 3-84-11b |
तं स कुष्णानिलोद्धूतो दिव्यास्त्रज्वलनो महान्। श्वेतवाजिबलाकाभृद्गण्डीवेन्द्रायुधोल्बणः ।। | 3-84-12a 3-84-12b |
संरब्धः शरधाराभिः सुधीप्तं कर्णपावकम्। उदीर्णोऽर्जुनमेघोऽयं शमयिष्यति संयुगे ।। | 3-84-13a 3-84-13b |
स साक्षादेव सर्वाणि शक्रात्परपुरंजयः। दिव्यान्यस्त्राणि वीभत्सुर्यथावत्प्रतिपत्स्यते ।। | 3-84-14a 3-84-14b |
अलं स तेषां सर्वेषामिति मे धीयते मतिः। नास्ति त्वतिक्रिया तस् रणेऽरीणां प्रतिक्रिया ।। | 3-84-15a 3-84-15b |
ते वयं पाण्डवं सर्वे गृहीतास्त्रमरिंदमम्। द्रष्टारो न हि बीभत्सुर्भारमुद्यम्य सीदति ।। | 3-84-16a 3-84-16b |
वयं तु तमृते वीरं वनेऽस्मिन्द्विपदांवर। अवधानं न गच्छामः काम्यके सह कृष्णया ।। | 3-84-17a 3-84-17b |
भवानन्यद्वनं साधु बह्वन्नं फलवच्छुचि। आख्यातु रमणीयं च सेवितं पुण्यक्रमभिः ।। | 3-84-18a 3-84-18b |
यत्रकंचिद्वयं कालं वसन्तः सत्यविक्रमम्। प्रतीक्षामोऽर्जुनं वरं वृष्टिकामा इवाम्बुदम् ।। | 3-84-19a 3-84-19b |
विविधानाश्रमान्कांश्चिद्द्विजातिभ्यः प्रतिश्रुतान्। सरांसि सरितश्चैव रमणीयांश्च पर्वतान् ।। | 3-84-20a 3-84-20b |
आचक्ष्व न हि मे ब्रह्मन्रोचते तमृतेऽर्जुनम्। वनेऽस्मिन्काम्यके वासो गच्छामोऽन्यां दिशंप्रति ।। | 3-84-21a 3-84-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि चतुरशीतितमोऽध्यायः ।। 84 ।। |
3-84-7 अनवरोऽन्यूनः ।। 3-84-10 रजःकार्यं क्रोधः स एव धूमो यस्य। धार्तराष्ट्रैरनिलैरिव उद्धत उद्दीपितः ।। 3-84-11 कक्षं तृणवनम् ।। 3-84-12 उल्वणो दुःसहः ।। 3-84-15 अलं जेतुं पर्याप्तः ।। 3-84-16 द्रष्टारो द्रक्ष्यामः ।। 3-84-17 अवधानं स्वास्थ्यम् ।। 3-84-18 ब्रह्माढ्यं जलवच्छुचीति क. घ. पाठः ।।
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