महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-161
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कदाचन गरुडपक्षवातानीताद्भुताम्बुजदर्शिन्या द्रौपद्या तादृशबहुपुष्पानयनं तथा दुष्टयक्षराक्षसक्षपणं च प्रार्थितेन भीमेन तदर्थं गन्धमादनशिखरारोहणम् ।। 1 ।। तथा स्वीयशङ्खध्वनिश्रवणेनाभिद्रुतवतां मणिमदादीनां युद्धे हननम् ।। 2 ।।
जनमेजय उवाच। | 3-161-1x |
आर्ष्टिषेणाश्रमे तस्मिन्मम पूर्वपितामहाः। पाण्डोः पुत्रा महात्मान सर्वे दिव्यपराक्रमाः ।। | 3-161-1a 3-161-1b |
कियन्तं कालमवसन्पर्वते गन्धमादने। किंच चक्रुर्महावीर्याः सर्वेऽतिबलपौरुषाः ।। | 3-161-2a 3-161-2b |
कानि चाभ्यवहार्याणि तत्र तेषां महात्मनाम्। वसतां लोकवीराणामासंस्तद्ब्रूहि सत्तम ।। | 3-161-3a 3-161-3b |
विस्तरेण च मे शंस भीमसेनपराक्रमम्। यद्यच्चक्रे महाबाहुस्तस्मिन्हैमवते गिरौ ।। | 3-161-4a 3-161-4b |
न खल्वासीत्पुनर्युद्धं तस् यक्षैर्द्विजोत्तम। `धनदाध्युषिते नित्यं वसतस्तत्र पर्वते' ।। | 3-161-5a 3-161-5b |
कच्चित्समागमस्तेषामासीद्वैश्रवणस्य च। तत्र ह्यायाति धनद आर्ष्टिषेणो यथाऽब्रवीत् ।। | 3-161-6a 3-161-6b |
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं रविस्तरेण तपोधन। न हि मे शृण्वतस्तृप्तिरस्ति तेषां विचेष्टितम् ।। | 3-161-7a 3-161-7b |
वैशंपायन उवाच। | 3-161-8x |
एतदात्महितं श्रुत्वा तस्याप्रतिमतेजसः। शासनं सततं चक्रुस्तथैव भरतर्षभाः ।। | 3-161-8a 3-161-8b |
भुञ्जाना मुनिभोज्यानि रसवन्ति फलानि च। शुद्धबाणहतानां च मृगाणां पिशितान्यपि ।। | 3-161-9a 3-161-9b |
मेध्यानि हिमवत्पृष्ठे मधूनि विविधानि च। एवं ते न्यवसंस्तत्र पाण्डवा भरतर्षभाः ।। | 3-161-10a 3-161-10b |
तथा निवसतां तेषां पञ्चमं वर्षमभ्यगात्। शृण्वतां लोमशोक्तानि वाक्यानि विविधान्युत ।। | 3-161-11a 3-161-11b |
कृत्यकाल उपस्तास्य इति चोक्त्वा घटोत्कचः। राक्षसैः सह सर्वैश्च पूर्वमेव गतः प्रभो ।। | 3-161-12a 3-161-12b |
आर्ष्टिषेणाश्रमे तेषां वसतां वै महात्मनाम्। अगच्छन्बहवो मासाः पश्यतां महदद्भुतम् ।। | 3-161-13a 3-161-13b |
तैस्तत्रविहरद्भिश्च रममाणैश्च पाण्डवैः। प्रीतिमन्तो महाभागा मुनयश्चारणास्तथा ।। | 3-161-14a 3-161-14b |
आजग्मुः पाण्डवान्द्रष्टुं शुद्धात्मानो यतव्रताः। ते तैः सह कथां चक्रुर्द्रिव्यां भरतसत्तमाः ।। | 3-161-15a 3-161-15b |
ततः कतिपयाहस्सु महाह्रदनिवासिनम्। ऋद्धिमन्तं महानागं सुपर्णः सहसाऽहरत् ।। | 3-161-16a 3-161-16b |
प्राकम्पत महाशैलः प्रामृद्यन्त महाद्रुमाः। ददृशुः सर्वभूतानि पाणअडवाश्च तदद्भुतम् ।। | 3-161-17a 3-161-17b |
ततः शैलोत्तमस्याग्रात्पाण्डवान्प्रति मारुतः। अवहत्सर्वमाल्यानि गन्धवन्ति शुभानि च ।। | 3-161-18a 3-161-18b |
तत्रपुष्पाणि दिव्यानि सुहृद्भिः सह पाण्डवाः। ददृशुः पञ्चवर्णानि द्रौपदी च यशस्विनी ।। | 3-161-19a 3-161-19b |
भीमसेनं ततः कृष्णा काले वचनमब्रवीत्। विविक्ते पर्वतोद्देशे सुखासीनं महाभुजम् ।। | 3-161-20a 3-161-20b |
सुपर्णानिलवेगेन श्वसनेन महाबलात्। पञ्चवर्णानि पात्यन्ते पुष्पाणि भरतर्षभ ।। | 3-161-21a 3-161-21b |
`दिव्यावर्णानि दिव्यानि दिव्यगन्धवहानि च। मदयन्तीव गन्धेन मनो मे भरतर्षभ ।। | 3-161-22a 3-161-22b |
येषां तु दर्शनात्स्पर्शान्सौरभ्याच्च तथैव च। नश्यतीव मनोदुःखं ममेदं शत्रुतापन ।। | 3-161-23a 3-161-23b |
ईदृशैः कुसुमैर्दिव्यैर्दिव्यगन्धवहैः शुभैः। देवतान्यर्चयित्वाऽहमिच्छेयं सङ्गमं त्वया ।। | 3-161-24a 3-161-24b |
इदं तु पुरुषव्याघ्र विशेषेणाम्बुजं शुभम्। गन्धसंस्थानसंपन्नं मम मानसवर्धनम्' ।। | 3-161-25a 3-161-25b |
प्रत्यक्षं सर्वलोकस् नह्यदृश्यत मां प्रति ।। | 3-161-26a |
`वासुदेवसहायेन वासुदेवप्रियेण च'। खाण्डवे सत्यसन्धेन भ्रात्रा तव महात्मना ।। | 3-161-27a 3-161-27b |
गन्धर्वोरगरक्षांसि वासवश्च पराजितः। हता मायाविनश्चोग्रा धनुः प्राप्तं च गाण्डिवं ।। | 3-161-28a 3-161-28b |
तवापि सुमहत्तेजो महद्बाहुबलं च ते। अविषह्यमनाधृष्यं शक्रतुल्यपराक्रम ।। | 3-161-29a 3-161-29b |
त्वद्बाहुबलवेगेन त्रासिताः सर्वराक्षसाः। हित्वा शैलं प्रपद्यन्तां भीमसेन दिशो दश ।। | 3-161-30a 3-161-30b |
ततः शैलोत्तमस्याग्रं चित्रमाल्यधरं शिवम्। व्यपेतभयसंमोहाः पश्यन्तु सुहृदस्तव ।। | 3-161-31a 3-161-31b |
एवं प्रणिहितं भीम चिरात्प्रभृतिमे मनः। द्रष्टुमिच्छामि शैलाग्रं त्वद्बाहुबलमाश्रिता ।। | 3-161-32a 3-161-32b |
`इच्छामि च नरव्याघ्र पुष्पं प्रत्यक्षमीदृशम्। आनीयमानं क्षिप्रं वै त्वया भरतसत्तम' ।। | 3-161-33a 3-161-33b |
ततः क्षिप्तमिवात्मानं द्रौपद्या स परंतपः। नामृष्यत महाबाहुः प्रहारमिवसद्गजः ।। | 3-161-34a 3-161-34b |
सिंहर्षभगतिः श्रीमानुदारः कनकप्रभः। मनस्वी बलवान्दृष्टो मानी भूरश्च पाण्डवः ।। | 3-161-35a 3-161-35b |
लोहिताक्षः पृथुव्यंसो मत्तवारणविक्रमः। सिंहदंष्ट्रो वृषस्कन्धः सालपोत इवोद्गतः ।। | 3-161-36a 3-161-36b |
महात्मा चारुसर्वाङ्ग कम्बुग्रीवो महाहनुः। रुक्मपृष्ठं धनुः खङ्गं तूणांश्चापि परामृशन् ।। | 3-161-37a 3-161-37b |
सकेसरीव चोत्सिक्तः प्रभिन्न इव वारणः। व्यपेतभयसंमोहः शैलमभ्यपतद्बली ।। | 3-161-38a 3-161-38b |
तं मृगेन्द्रमिवायान्तं प्रभिन्नमिव वारणम्। ददृशुः सर्वभूतानि पार्थं खङ्गधनुर्धरम् ।। | 3-161-39a 3-161-39b |
द्रौपद्या वर्धयन्हर्षं गदामादाय पाण्डवः। व्यपेतभयसंमोहः शैलराजं समाविशत् ।। | 3-161-40a 3-161-40b |
न ग्लानिर्न च कातर्यं न वैक्लव्यं न मत्सरः। कदाचिज्जुषते पार्थमात्मजं मातरिश्वनः ।। | 3-161-41a 3-161-41b |
तदेकायनमासाद्य विषमं भीमदर्शनम्। बहुतालोच्छ्रयं शृङ्गमारुरोह महाबलः ।। | 3-161-42a 3-161-42b |
स किन्नरमहानागमुनिगन्धर्वराक्षसान्। हर्षयन्पर्वतस्याग्रमारुरोह महाबलः ।। | 3-161-43a 3-161-43b |
ततो वैश्रवणावासं ददर्श भरतर्षभः। काञ्चनैः स्फाटिकैश्चैव वेश्मभिः समलंकृतम् ।। | 3-161-44a 3-161-44b |
[प्राकारेण परिक्षिप्तं सौवर्णेन समन्ततः। सर्वरत्नद्युतिमता सर्वोद्यानवता तथा ।। | 3-161-45a 3-161-45b |
शैलादभ्युच्छ्रयवता चयाट्टालकशोभिना। द्वारतोरणनिर्व्यूहध्वजसंवाहशोभिना ।। | 3-161-46a 3-161-46b |
विलासिनीभिरत्यर्थं नृत्यन्तीभिः समन्ततः। वायुना धूयमानाभिः पताकाभिरलंकृतम् ।। | 3-161-47a 3-161-47b |
धनुष्कोटिमवष्टभ्य वक्रभावेन बाहुना। पश्यमानः सखेदेन द्रविणाधिपतेः पुरम् ।।] | 3-161-48a 3-161-48b |
मोदयनसर्वभूतानि गन्धमादनसंभवः। सर्वगन्धवहस्तत्र मारुतः सुसुखो ववौ ।। | 3-161-49a 3-161-49b |
चित्रा विविधवर्णाभाश्चित्रमञ्जरिधारिणः। अचिन्त्या विविधास्तत्र द्रुमाः परमशोभिनः ।। | 3-161-50a 3-161-50b |
रत्नजालपरिक्षिप्तं चित्रमाल्यविभूषितम्। राक्षसाधिपतेः स्थानं ददृशे भरतर्षभः ।। | 3-161-51a 3-161-51b |
गदाखङ्गधनुष्पाणिः समभित्यक्तजीवितः। भीमसेनो महाबाहुस्तस्थौ गिरिवाचलः ।। | 3-161-52a 3-161-52b |
ततः शङ्खमुपाध्माय द्विषतां रोमहर्षणम्। ज्याघोषं तलशब्दं च कृत्वा भूतान्यमोहयत् ।। | 3-161-53a 3-161-53b |
ततः प्रहृष्टरोमाणस्तं शब्दमभिदुद्रुवुः। यक्षराक्षसगन्धर्वाः पाण्डवस्य समीपतः ।। | 3-161-54a 3-161-54b |
गदापरिघनिस्त्रिंशशूलशक्तिपरश्वथाः। प्रगृहीता व्यरोचन्त यक्षराक्षसबाहुभिः ।। | 3-161-55a 3-161-55b |
ततः प्रववृते युद्धं तेषां तस्य च भारत ।। | 3-161-56a |
तैः प्रयुक्तान्महामायैः शूलशक्तिपरश्वथान्। भल्लैर्भीमः प्रचिच्छेद भीमवेगतरैस्ततः ।। | 3-161-57a 3-161-57b |
अन्तरिक्षगतानां च भूमिष्ठानां च गर्जताम्। शरैर्विव्याध गात्राणइ राक्षसानां महाबलः ।। | 3-161-58a 3-161-58b |
`शोणितस्य ततः पेतुर्घनानामिव भारत।' गात्रेभ्यः प्रच्युता धारा राक्षसानां समन्ततः'। स लोहितमहावष्टिमभ्यवर्षन्महाबलः ।। | 3-161-59a 3-161-59b 3-161-59c |
गदापरिघपाणीनां रक्षसां कायसंभवा। कायेभ्यः प्रच्युता धारा राक्षसानां समन्ततः ।। | 3-161-60a 3-161-60b |
भीमबाहुबलोत्सृष्टैरायुधैर्यक्षरक्षसाम्। विनिकृत्तानि दृश्यन्ते शरीराणि शिरांसि च ।। | 3-161-61a 3-161-61b |
प्रच्छाद्यमानं रक्षोभिः पाण्डवं प्रियदर्शनम्। ददृशुः सर्वभूतानि सूर्यमभ्रगणैरिव ।। | 3-161-62a 3-161-62b |
स रश्मिभिरिवादित्यः शरैररिनिपातिभिः। सर्वानार्च्छन्महाबाहुर्बलवान्सत्यविक्रमः ।। | 3-161-63a 3-161-63b |
अभितर्जयमानाश्च रुवन्तश् महारवान्। सन्नाहं भीमसेनस्य ददृशुः सर्वराक्षसाः ।। | 3-161-64a 3-161-64b |
ते हि विक्षतसर्वाङ्गा भीमसेनभयार्दिताः। भीममार्तस्वरं चक्रुर्विप्रकीर्णमहायुधाः ।। | 3-161-65a 3-161-65b |
उत्सृज्य ते गदाशूलानसिशक्तिपरश्वथान्। दक्षिणां दिशमाजग्मुस्त्रासिता दृढधन्वना ।। | 3-161-66a 3-161-66b |
तत्र शूलगदापाणिर्व्यूढोरस्को महाभुजः। सखा वैश्रवणस्यासीन्मणिमान्नाम राक्षसः ।। | 3-161-67a 3-161-67b |
दर्शयन्स प्रतीकारं पौरुषं च महाबलः। स तान्दृष्ट्वा परावृत्तान्स्मयमान इवाब्रवीत् ।। | 3-161-68a 3-161-68b |
एकेन बहवः सङ्ख्ये मानुषेण पराजिताः। प्राप्य वैश्रवणावासं किं वक्ष्यथ धनेश्वरम् ।। | 3-161-69a 3-161-69b |
एवमाभाष् तान्सर्वानभ्यवर्तत राक्षसः। शक्तिशूलगदापाणिरभ्यधावत्स पाण्डवम् ।। | 3-161-70a 3-161-70b |
तमापतन्तं वेगेन प्रभिन्नमिव वारणम्। वत्सदन्तैस्त्रिभिः पार्श्वे भीमसेनः समार्दयत् ।। | 3-161-71a 3-161-71b |
मणिमानपि संक्रुद्धः प्रगृह्य महतीं गदाम्। प्राहिणोद्भीमसेनाय परिगृह्य महाबलः ।। | 3-161-72a 3-161-72b |
विद्युद्रूपां महाघोरामाकाशे महतीं गदाम्। शरैर्बहुभिरानर्छद्भीमसेनः शिलाशितैः ।। | 3-161-73a 3-161-73b |
प्रत्यहन्यन्त ते सर्वेगदामासाद्य सायकाः। न वेगं धारयामासुर्गदावेगस्य वेगिताः ।। | 3-161-74a 3-161-74b |
गदायुद्धसमाचारं बुध्यमानः स वीर्यवान्। व्यंसयामास तं तस्य प्रहारं भीमविक्रमः ।। | 3-161-75a 3-161-75b |
ततः शक्तिं महाघोरां रुक्मदण्डामयस्मयीम्। तस्मिन्नेवान्तरे धीमान्प्रचिक्षेप स राक्षसः ।। | 3-161-76a 3-161-76b |
सा भुजं भीमनिर्ह्रादा भित्त्वाभीमस् दक्षिणम्। साग्निज्वाला महारौद्रा पपात सहसा भुवि ।। | 3-161-77a 3-161-77b |
सोऽतिविद्धो महेष्वासः शक्त्याऽमितपराक्रमः। गदां जग्राह कौन्तेयो गदायुद्धविशारदः ।। | 3-161-78a 3-161-78b |
प्राहिणोद्भीमसेनाय वेगेन महता नदन् ।। | 3-161-80b |
भङ्क्त्वा शूलं गदाग्रेण गदायुद्धविभागवित्। अभिदुद्राव तं तूर्णं गरुत्मानिव पन्नगम् ।। | 3-161-81a 3-161-81b |
सोऽन्तरिक्षमवप्लुत्य विधूय सहसा गदाम्। प्रचिक्षेप महाबाहुर्विनद्य रणमूर्धनि ।। | 3-161-82a 3-161-82b |
सेन्द्राशनिरिवेन्द्रेण विसृष्टा वातरहसा। हत्वा रक्षः क्षितिं प्राप्य कृत्येव निपपात ह ।। | 3-161-83a 3-161-83b |
तं राक्षसं बीमबलं भीमसेनबलाहतम्। ददृशुः सर्वभूतानि सिंहेनेव गवांपतिम् ।। | 3-161-84a 3-161-84b |
तं प्रेक्ष्य निहतं भूमौ हतशेषा निशाचराः। भीममार्तस्वरं कृत्वा जग्मुः प्राचजीं दिशं प्रति ।। | 3-161-85a 3-161-85b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि यक्षयुद्धपर्वणि एकषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ।। |
3-161-34 सद्गव इति झ. पाठः ।। 3-161-36 पृथू विशिष्टौ अंसौ यस्यस पृथुव्यंसः ।। 3-161-41 ग्लानिः श्रमः. कातर्यं भयम्। वैक्लव्यमनुत्साहः। मत्सरः परोत्कर्षासहिष्णुत्वम् ।। 3-161-42 एकायनं वामदक्षिणसंचारशून्यम् ।। 3-161-45 परिक्षिप्तं परित आवृतम् ।। 3-161-46 चयाट्टालकशोभिना। चयः प्रकारस्य मूलबन्धः। अट्टालकः उपरिगृहम्। तोरणं वहिर्द्वारम्। निर्व्यूहः नागदन्ताख्यं गृहान्निर्गतं दारु ।। 3-161-48 वक्रभावेन वक्रेण बाहुना उपलक्षितः। खेदेन तद्दर्शनात्खसंपात्स्मरणं तेन. द्रविणाधिपतेः धनाधिपतेः ।। 3-161-51 ददृशे ददर्श ।। 3-161-64 न मोहं भीमसेनस्येति झ. पाठः ।। 3-161-68 अदर्शयदाधीकारमिति झ. पाठः ।। 3-161-69 सङ्ख्ये संग्रामे ।। 3-161-74 प्रत्यहन्यन्त प्रतिहताः। वेगिताः वेगवन्तोपि। गदावेगस्य गदायां वेगोऽत्यभ्यासो यस्य तस्य ।। 3-161-75 सः भीमः। व्यंसयामास व्यर्थीचकार ।। 3-161-76 अयस्मयी अयोमयीम् ।। 3-161-79 शैक्यां शीकयति शत्रुन्पराभवतीति शैक्या। शीकयतेर्ऋहलोर्ण्यदिति ण्यत्। ततः स्वार्थिकोण् ।।
आरण्यकपर्व-160 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-162 |