महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-198
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मार्कण्डेयेन पाण्डवान्प्रति विप्राय गोप्रदानरूपयवातिचरितकथनम् ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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[*मार्कण्डेय उवाच। | 3-198-1x |
इदमन्यच्छ्रूतां ययातिर्नाहुषो राजा राज्यस्थः पौरजनावृत आसांचक्रे ।। गुर्वर्थी ब्राह्मण उपेत्याब्रवीत् भो राजन्गुर्वर्थं भिक्षेयं समयादिति राजोवाच ।। | 3-198-1a |
ब्रवीतु भगवान्समयमिति ।। | 3-198-2a |
ब्राह्मण उवाच। | 3-198-3x |
विद्वेषणं परमं जीवलोके कुर्यान्नरः पार्थिव याच्यमानः। तं त्वां पृच्छामि कथं तु राज- न्दद्याद्वान्दयितं च मेऽद्य ।। | 3-198-3a 3-198-3b 3-198-3c 3-198-3d |
राजोवाच। | 3-198-4x |
नचानुकीर्तये दद्य दत्त्वा अयाच्यमर्थं न च संशृणोमि। प्राप्यमर्थं च संश्रुत्य तं चापि दत्त्वा सुसुखी भवामि ।। | 3-198-4a 3-198-4b 3-198-4c 3-198-4d |
ददामि ते रोहिणीनां सहस्रं प्रियो हि मे ब्राह्मणो याचमानः। न मे मनः कुप्यति याचमाने दत्तं न शोचामि कदाचिदर्थम् ।। | 3-198-5a 3-198-5b 3-198-5c 3-198-5d |
इत्युक्त्वा ब्राह्मणा राजा गोसहस्रं ददौ। प्राप्तवांश्च गवां सहस्रं ब्राह्मण इति ।। | 3-198-6a 3-198-6b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि अष्टनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 198 ।। |
3-198-3 विद्वेषणं याचकस्य द्वेषम्। प्रीत्यैव ददासि चेत् ग्रहीष्यामीत्यर्थः ।। 3-198-4 हे दद्य ददो हानं तदर्ह ।। 3-198-5 रोहिणीनां गवाम् ।।
- - एतदाद्यध्यायत्रयं षोढशगद्याधिकं झ. पुस्तकएव दृश्यते नेतरकोशेषु।
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