महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-253
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पातालवासिभिर्दैत्यदानवैर्दुर्योधनंप्रति हेतूपन्यासपूर्वकं प्रायोपवेशनिश्चयान्निवर्तनम् ।। 1 ।। पुनः कृत्यया दुर्योधनस्य पूर्वस्थानंप्रत्यानयनम् ।। 2 ।। परेद्युः कर्णादिप्रार्थनया दुर्योधनेन सर्वैः सह स्वपुरंपरत्यागमनम् ।। 3 ।।
दानवा ऊचुः। | 3-253-1x |
भोः सुयोधन राजेन्द्र भरतानां कुलोद्वह। शूरैः परिवृतो नित्यं तथैव च महात्मभिः ।। | 3-253-1a 3-253-1b |
अकार्षीः साहसमिदं कस्मात्प्रायोपवेशनम्। आत्मत्यागी ह्यधो याति वाच्यतां चायशस्करीम् ।। | 3-253-2a 3-253-2b |
न हि कार्यविरुद्धेषु बहुपापेषु कर्मसु। मूलघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः ।। | 3-253-3a 3-253-3b |
नियच्छैनां मतिं राजन्धर्मार्थसुखनाशिनीम्। यशःप्रतापवीर्यघ्नीं शत्रूणां हर्षवर्धनीम् ।। | 3-253-4a 3-253-4b |
श्रूयतां तु प्रभो तत्त्वं दिव्यतां चात्मनो नृप। निर्माणं च रशरीरस्य ततो धैर्यमवाप्नुहि ।। | 3-253-5a 3-253-5b |
पुरा त्व तपसाऽस्माभिर्लब्धो राजन्महेश्वरात्। पूर्वकायश्च ते सर्वो निर्मितो वज्रसंचयैः ।। | 3-253-6a 3-253-6b |
अस्त्रैरभेद्यः शस्त्रैश्चाप्यधःकायश्च तेऽनघ। कृतः पुष्पमयो देव्या रूपतस्त्रीमनोहरः ।। | 3-253-7a 3-253-7b |
एवमीश्वरसंयुक्तस्तव देहो नृपोत्तम। देव्या च राजशार्दूल दिव्यस्त्वं हि न मानुषः ।। | 3-253-8a 3-253-8b |
क्षत्रियाश्च महावीर्या भगदत्तपुरोगमाः। दिव्यास्त्रविदुषः शूराः क्षपयिष्यन्ति ते रिपून् ।। | 3-253-9a 3-253-9b |
तदलं ते विषादेन भयं तव न विद्यते। सहायार्थं च ते वीराः संभूता बुवि दानवाः ।। | 3-253-10a 3-253-10b |
भीष्मद्रोणकृपादींश्च प्रवेक्ष्यन्त्यपरेऽसुराः। यैराविष्टा घृणां त्यक्त्वा योत्स्यन्ते तव वैरिभिः ।। | 3-253-11a 3-253-11b |
नैव पुत्रान्न च भ्रातॄन्न पितॄन्न च बान्धवान्। नैव शिष्यान्न च ज्ञातीन्न बालान्त्यविरान्न च। युधि संप्रहरिष्यन्तो मोक्ष्यन्ति कुरुसत्तम ।। | 3-253-12a 3-253-12b 3-253-12c |
निःस्नेहा दानवाविष्टाः समाक्रान्तेऽन्तरात्मनि। प्रहरिष्यन्ति बन्धुभ्यः स्नेहमुत्सृज्य दूरतः ।। | 3-253-13a 3-253-13b |
हृष्टाः पुरुषशार्दूलाः कलुषीकृतमानसाः। अनभिज्ञातमूलाश्च दैवाच्च विधिनिर्मितात्। व्याभाषमाणाश्चान्योन्यं न मे जीवन्विमोक्ष्यसे ।। | 3-253-14a 3-253-14b 3-253-14c |
सर्वे शस्त्रास्त्रमोक्षेण पौरुषे समवस्थिताः। श्लाघमानाः कुरुश्रेष्ठ करिष्यन्ति जनक्षयम् ।। | 3-253-15a 3-253-15b |
तेपि पञ्च महात्मानः प्रतियोत्सन्ति पाण्डवाः। वधं चैषां करिष्यन्ति दैवयुक्ता महाबलाः ।। | 3-253-16a 3-253-16b |
दैत्यरक्षोगणाश्चैव संभूताः क्षत्रयोनिषु। योत्स्यन्ति युधि विक्रम्य शत्रुभिस्तव पार्थिव ।। | 3-253-17a 3-253-17b |
गदाभिर्मुसलैः शूलैः शस्त्रैरुच्चावचैस्तथा। `प्रहरिष्यनति ते वीरास्तवारिषु महाबलाः' ।। | 3-253-18a 3-253-18b |
यच्च तेऽन्तर्गतं वीर भयमर्जुनसंभवम्। तत्रापि विहितोऽस्माभिर्वधोपायोऽर्जुनस्य वै ।। | 3-253-19a 3-253-19b |
हतस्य नरकस्यात्मा कर्णमूर्तिमुपाश्रितः। तद्वैरं संस्मरन्वीर योत्स्यते केशवार्जुनौ ।। | 3-253-20a 3-253-20b |
स ते विक्रमशौण्डीरो रणे पार्थं विजेष्यति। कर्णः प्रहरतांश्रेष्ठः सर्वांश्चारीन्महारथः ।। | 3-253-21a 3-253-21b |
ज्ञात्वैतच्छद्मना वज्री रक्षार्थं सव्यसाचिनः। कुण्डले कवचं चैव कर्णस्यापहरिष्यति ।। | 3-253-22a 3-253-22b |
तस्मादस्माभिरप्यत्र दैत्याः शतसहस्रशः। नियुक्ता राक्षसाश्चैव ये ते संशप्तका इति। प्रख्यातास्तेऽर्जुनं वीरं युधि हिंस्यन्ति मा शुचः ।। | 3-253-23a 3-253-23b 3-253-23c |
असपत्ना त्वया हीयं भोक्तव्या वसुधा नृप। मा विषादं गमस्तस्मान्नैतत्त्वय्युपपद्यते ।। | 3-253-24a 3-253-24b |
विनष्टे त्वयि चास्माकं पक्षो हीयेत कौरव। गच्छ वीर न ते बुद्धिरन्या कार्या कथंचन। त्वमस्माकं गतिर्नित्यं देवतानां च पाण्डवाः ।। | 3-253-25a 3-253-25b 3-253-25c |
वैशंपायन उवाच। | 3-253-26x |
एवमुक्त्वा परिष्वज्य दैत्यास्तं राजकुञ्जरम्। समाश्वास्य च दुर्धर्षं पुत्रवद्दानवर्षभाः ।। | 3-253-26a 3-253-26b |
स्थिरां कृत्वा बुद्धिमस्य प्रियाण्युक्त्वा च भारत। गम्यतामित्यनुज्ञाय जयमाप्नुहि चेत्यथ ।। | 3-253-27a 3-253-27b |
तैर्विसृष्टं महाबाहुं कृत्या सैवानयत्पुरः। तमेव देशं यत्रासौ तदा प्रायमुपाविशत् ।। | 3-253-28a 3-253-28b |
प्रतिनिक्षिप्यतं वीरं कृत्या समभिपूज्य च। अनुज्ञाता च राज्ञा सा तत्रैवान्तरधीयत ।। | 3-253-29a 3-253-29b |
गतायामथ तस्यां तु राजा दुर्योधनस्तदा। स्वप्नभूतमिदं सर्वमचिन्तयत भारत ।। | 3-253-30a 3-253-30b |
`संमृश्य तानि वाक्यानि दानवोक्तानि दुर्मतेः'। विजेष्यामि रणे पाण्डूनिति चास्याभवनमतिः ।। | 3-253-31a 3-253-31b |
कर्णं संशप्तकांश्चैव पार्थस्यामित्रघातिनः। अमन्यत वधे युक्तान्समर्थांश्च सुयोधनः ।। | 3-253-32a 3-253-32b |
एवमाशा दृढा तस् धार्तराष्ट्रस् दुर्मतेः। विनिर्जये पाण्डवानामभवद्भरतर्षभ ।। | 3-253-33a 3-253-33b |
कर्णोऽप्याविष्टचित्तात्मा नरकस्यान्तरात्मना। अर्जुनस्य वधे क्रूरां करोति स्म तदा मतिम् ।। | 3-253-34a 3-253-34b |
संशप्तकाश्च ते वीरा राक्षसाविष्टचेतसः। रजस्तमोभ्यामाक्रान्ताः फाल्गुनस्य वधैषिणः ।। | 3-253-35a 3-253-35b |
भीष्मद्रोणकृपाद्याश्च दानवाक्रान्तचेतसः। न तथा पाण्डुपुत्राणां स्नेहवन्तोऽभवंस्तदा ।। | 3-253-36a 3-253-36b |
न चाचचक्षे कस्मैचिदेतद्राजा सुयोधनः। `कृत्ययाऽऽनाय्यकथितं यदस्य निशि दानवैः' ।। | 3-253-37a 3-253-37b |
दुर्योधनं निशन्ते च कर्णो वैकर्तनोऽब्रवीत्। स्मयन्निवाञ्जलिं कृत्वा पार्थिवं हेतुमद्वचः ।। | 3-253-38a 3-253-38b |
न मृतो जयते शत्रूञ्जीवन्भद्राणि पश्यति। मृतस्य भद्राणि कुतः कौरवेय कुतो जयः ।। | 3-253-39a 3-253-39b |
न कालाऽद्य विषादस्य भयस्य मरणस्य वा। परिष्वज्याब्रवीच्चैवनं भुजाभ्यां स महाभुजः ।। | 3-253-40a 3-253-40b |
उत्तिष्ठ राजन्किं शेषे कस्माच्छोचसि शत्रुहन्। शत्रून्प्रताप्य वीर्येण स कथं मर्तुमर्हसि ।। | 3-253-41a 3-253-41b |
अथवा ते भयं जातं दृष्ट्वाऽर्जुनपराक्रमम्। सत्यंते प्रतिजानामि वधिष्यामि रणेऽर्जुनम् ।। | 3-253-42a 3-253-42b |
गते त्रयोदशे वर्षे सत्येनायुधमालभे। आनयिष्याम्यहं पार्तान्वशं तव जनाधिप ।। | 3-253-43a 3-253-43b |
एवमुक्तस्तु कर्णेन दैत्यानां वचनात्तथा। प्रणिपातेन चाप्येषामुदतिष्ठत्सुयोधनः ।। | 3-253-44a 3-253-44b |
दैत्यानां तद्वचः श्रुत्वा हृदि कृत्वा स्थिरां मतिम्। ततो मनुजशार्दूलो योजयामास वाहिनीम्। रथनागाश्वफलिलां पदातिजनसंकुलाम् ।। | 3-253-45a 3-253-45b 3-253-45c |
गङ्गौघप्रतिमा चास्य प्रयाणे शुशुभे चमूः ।। | 3-253-46a |
श्वेतच्छत्रैः पताकाभिश्चामरैश्च सुपाण्डुरैः। रथैर्नागैः पदातैश्च शुशुभेऽतीव संकुला ।। | 3-253-47a 3-253-47b |
व्यपेताभ्रघने काले द्यौरिवासीत्तु शारदी। `हंसपङ्क्तिसमाकीर्णा भ्रमत्सारसशोभिता' ।। | 3-253-48a 3-253-48b |
जयाशीर्भिर्द्विजेन्द्रैः स स्तूयमानोऽधिराजवत्। गृह्णन्नञ्जलिमालाश्च धार्तराष्ट्रो जनाधिपः ।। | 3-253-49a 3-253-49b |
सुयोधनो ययावग्रे श्रिया परमया ज्वलम्। कर्णेन सार्धं राजेन्द्र सौबलेन च देविना ।। | 3-253-50a 3-253-50b |
दुःशासनादयश्चास्य भ्रातरः सर्व एव ते। भूरिश्रवाः सोमदत्तो माराजश्च बाह्लिकः ।। | 3-253-51a 3-253-51b |
रथैर्नानाविधाकारैर्हयैर्गजवरैस्तथा। प्रयान्तं नृपसिंहं तमनुजग्मुः कुरूद्वहाः ।। | 3-253-52a 3-253-52b |
`प्रहृष्टमनसः सर्वे दुर्योधनपुरोगमाः' ।। कालेनाल्पेन राजेन्द्र स्वपुरं विविशुस्तदा ।। | 3-253-53a 3-253-53b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि घोषयात्रापर्वणि त्रिपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 253 ।। |
3-253-21 विक्रमे शत्रुजये। शौण्डीरः समर्थः ।। 3-253-27 जयमाप्रुहि चेत्युक्त्वेति शेषः। अथ तैर्विसृष्टमिति संबन्धः ।। 3-253-34 अन्तरात्मना मनसा ।। 3-253-36 पाण्डुपुत्राणामुपरीति शेषः ।। 3-253-44 एषां दुःशासनादीनाम् ।। 3-253-48 व्यपेतः अभ्रघनः मेघ्नविस्तारो यस्मिन् शरदीत्यर्थः ।। 3-253-49 अधिराजा सार्वभौमो युधिष्ठिरस्तद्वत् ।। 3-253-50 देविना द्यूतरतेन ।।
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