महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-254
← आरण्यकपर्व-253 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-254 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-255 → |
भीष्मेण दुर्योधनंप्रति पाण्डवप्रशंसनपूर्वकं तैःसह सन्धिविधानम् ।। 1 ।। तथा कर्णस्य गर्हणम् ।। 2 ।। दुर्योधनानुमत्या कर्णेन दिग्विजयाया निर्गमनम् ।। 3 ।।
जनमेजय उवाच। | 3-254-1x |
एवं गतेषु पार्थेषु वने तस्मिन्महात्मसु। धार्तराष्ट्रा महेष्वासाः किमकुर्वत सत्तमाः ।। | 3-254-1a 3-254-1b |
कर्णो वैकर्तनश्चैव शकुनिश्च महाबलः। भीष्मद्रोणकृपाश्चैव तन्मे शंसितुमर्हसि ।। | 3-254-2a 3-254-2b |
वैशंपायन उवाच। | 3-254-3x |
एवं गतेषु पार्थेषु विसृष्टे च सुयोधने। आगते हास्तिनपुरं मोक्षिते पाण्डुनन्दनैः। भीष्मोऽब्रवीन्महाराज धार्तराष्ट्रमिदं वच ।। | 3-254-3a 3-254-3b 3-254-3c |
उक्तं तात मया पूर्वं गच्छतस्ते तपोवनम्। वचनं ते न रुचितं मम तन्न कृतं च ते ।। | 3-254-4a 3-254-4b |
ततः प्राप्तं त्वया वीर ग्रहणं शत्रुभिर्बलात्। मोक्षितश्चासि धर्मज्ञैः पाण्डवैर्न च लज्जसे ।। | 3-254-5a 3-254-5b |
प्रत्यक्षं तव गान्धारे ससैन्यस् विशांपते। सूतपुत्रोऽपयाद्भीतो गन्धर्वाणां तदा रणात् ।। | 3-254-6a 3-254-6b |
क्रोशतस्तव राजेन्द्र ससैन्यस्य नृपात्मज। `व्यपायात्पृष्ठतस्तस्मात्प्रेक्षमाणः पुनःपुनः ।।' | 3-254-7a 3-254-7b |
दृष्टस्ते विक्रमश्चैव पाण्डवानां महात्मनाम्। कर्णस्य च महाबाहो सूतपुत्रस्य दुर्मते ।। | 3-254-8a 3-254-8b |
न चापि पादभाक्कर्णः पाण्डवानां महात्मनाम्। धनुर्वेदे च शौर्ये च धर्मे वा धर्मवत्सल ।। | 3-254-9a 3-254-9b |
तस्मादहं क्षमं मन्ये पाण्डवैस्तैर्महात्मभिः। रसन्धिं सन्धिविदांश्रेष्ठ कुलस्यास्य विवृद्धये ।। | 3-254-10a 3-254-10b |
एवमुक्तश्च भीष्मेण धार्तराष्ट्रो जनेश्वरः। प्रहस्य सहसा राजन्विप्रतस्थे ससौबलः ।। | 3-254-11a 3-254-11b |
तं तु प्रस्थितमाज्ञाय कर्णदुःशासनादयः। अनुजग्मुर्महेष्वासा धार्तराष्ट्रं महाबलम् ।। | 3-254-12a 3-254-12b |
तांस्तु संप्रस्थितान्दृष्ट्वा भीष्मः कुरुपितामहः। लज्जया व्रीडितो राजञ्जगाम स्वं निवेशनम् ।। | 3-254-13a 3-254-13b |
गते भीष्मे महाराज धार्तराष्ट्रो जनेश्वरः। पुनरागम्य तं देशममन्त्रयत मन्त्रिभिः ।। | 3-254-14a 3-254-14b |
किमस्माकं भवेच्छ्रेयः किं कार्यमवशिष्यते। कथं च सुकृतं तत्स्यान्मन्त्रयामास भारत ।। | 3-254-15a 3-254-15b |
[*कर्ण उवाच। | 3-254-16x |
दुर्योधन निबोधेदं यत्त्वां वक्ष्यामि कौरव। भीष्मोस्मान्निन्दति सदा पाण्डवांश्च प्रशंसति ।। | 3-254-16a 3-254-16b |
त्वद्वेषाच्च महाबाहो मामपि द्वेष्टुमर्हति। विगर्हते च मां नित्यं त्वत्समीपे नरेश्वर ।। | 3-254-17a 3-254-17b |
सोऽहं भीष्मवचस्तद्वै न मृष्यामीह भारत। त्वत्समं यदुक्तं च भीष्मेणामित्रकर्शन ।। | 3-254-18a 3-254-18b |
पाण्डवानां यशो राजंस्तव निन्दां च भारत। अनुजानीहि मां राजन्सभृत्यबलवाहनम् ।। | 3-254-19a 3-254-19b |
जेष्यामि पृथिवीं राजन्सशैलवनकाननाम्। जिता च पाण्डवैर्भूमिश्चतुर्भिर्बलशालिभिः ।। | 3-254-20a 3-254-20b |
तामहं ते विजेष्यामि एक एव न संशयः। संपश्यतु सुदुर्बुद्धिर्भीष्मः कुरुकुलाधमः ।। | 3-254-21a 3-254-21b |
अनिन्द्यं निन्दते यो हि अप्रशंस्यं प्रशंसति। स पश्यतु बलं मेऽद्य आत्मानं तु विगर्हतु ।। | 3-254-22a 3-254-22b |
अनुजानीहि मां राजन्ध्रुवो हि विजयस्तव। प्रतिजानामि ते सत्यं राजन्नायुधमालभे ।। | 3-254-23a 3-254-23b |
तच्छ्रुत्वा तु वचो राजन्कर्णस्य भरतर्षभ। प्रीत्या परमया युक्तः कर्णमाह नराधिपः ।। | 3-254-24a 3-254-24b |
धन्योस्म्यनुगृहीतोस्मि यस्य मे त्वं महाबलः। हितेषु वर्तसे नित्यं सफलंजन्म चाद्य मे ।। | 3-254-25a 3-254-25b |
यदा च मन्यसे वीर सर्वशत्रुनिबर्हणम्। तदा निर्गच्छ भद्रं ते ह्यनुशाधि च मामिति ।। | 3-254-26a 3-254-26b |
एवमुक्तस्तदा कर्णो धार्तराष्ट्रेण धीमता। सर्वमज्ञापयामास प्रायात्रिकमरिंदम ।। | 3-254-27a 3-254-27b |
प्रययौ च महेष्वासो नक्षत्रे शुभदैवते। शुभेतिथौ मुहूर्ते च पुज्यमानो द्विजातिभिः ।। | 3-254-28a 3-254-28b |
मङ्गलैश्च शुभैः स्नातो वाग्भिश्चापि प्रपूजितः। नादयन्रथघोषेण त्रैलोक्यं सचराचरम् ।। | 3-254-29a 3-254-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि घोषयात्रापर्वणि चतुःपञ्चासदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 254 ।। |
3-254-6 अपयात् अपायात् पलायितः ।। 3-254-10 संधिं क्षमं युक्तं मन्ये ।। 3-254-15 मन्त्रयामोऽद्य यद्धितमिति झ. ध.पाठः ।। 3-254-27 प्रायात्रिकं प्रयातुं राज्ञोऽपेक्षितं शकटापणवीथ्यादि ।। 3-254-29 मङ्गलैः मङ्गलद्रव्यैः सुगन्धतैलादिभिः स्नातः। शुभैर्नीराजनादिभिः प्रययौ इति संबन्धः ।।
- एतदादिः सार्धोऽध्यायो झ. पुस्तकएव दृश्यते ।।
आरण्यकपर्व-253 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-255 |