महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-263
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कादाचन शिष्यायुतसहितेन दुर्वाससा दुर्योधनगृहंप्रति गमनम् ।। 1 ।। दुर्योधनन स्वपरिचर्यासंतुष्टं तप्रति ब्राह्मणादीनां द्रौपद्याश्च भोजनावसाने भोजनाय पाण्डवान्प्रति गमनप्रार्थना ।। 2 ।। दुर्वाससा तस्मै तद्वरदानपूर्वकं पाण्डवान्प्रति प्रस्थानम् ।। 3 ।।
जनमेजय उवाच। | 3-263-1x |
वसत्स्वेवं वने तेषु पाण्डवेषु महात्मसु। रममाणएषु चित्राबिः कथाभिर्मुनिभिः सह ।। | 3-263-1a 3-263-1b |
सूर्यदत्ताक्षयान्नेन कृष्णाया भोजनावधि। ब्राह्मणांस्तर्पमाणेषु ये चान्नार्थमुपागताः। आरण्यानां मृगाणां च मांसैर्नानाविधैरपि ।। | 3-263-2a 3-263-2b 3-263-2c |
धार्तराष्ट्रा दुरात्मानः सर्वे दुर्योधनादयः। कथं तेष्वन्ववर्तन्त पापाचारा महामुने ।। | 3-263-3a 3-263-3b |
दःशासनस्य कर्णस्य शकुनेश्च मते स्थिताः। एतदाचक्ष्व भगवन्वैशंपायन पृच्छतः ।। | 3-263-4a 3-263-4b |
वैशंपायन उवाच। | 3-263-5x |
श्रुत्वा तेषां तथा वृत्तिं नगरे वसतामिव। दुर्योधनो महाराज तेषु पापमरोचयत् ।। | 3-263-5a 3-263-5b |
तथा तैर्निकृतिप्रज्ञैः कर्णदुःशासनादिभिः। नानोपायैरधं तेषु चिन्तयत्सु दुरात्मसु ।। | 3-263-6a 3-263-6b |
अभ्यागच्छत्स धर्मात्मा तपस्वी कसुमहायशाः। शिष्यायुतसमोपेतो दुर्वासा नाम कामतः ।। | 3-263-7a 3-263-7b |
तमागतमभिप्रेक्ष्य मुनिं परमकोपनम्। सहितो भ्रातृभिः श्रीमानातिथ्येन न्यमन्त्रयत् ।। | 3-263-8a 3-263-8b |
विधिवत्पूजयामास स्वयं किंकरवत्स्थितः। अहानि कतिचित्तत्र तस्थौ स मुनिसत्तमः ।। | 3-263-9a 3-263-9b |
तं च पर्यचरद्राजा दिवारात्रमतन्द्रितः। दुर्योधनो महाराज शापात्तस्य विशङ्कितः ।। | 3-263-10a 3-263-10b |
क्षुधितोऽस्मि ददस्वान्नं शीघ्रं मम नराधिप। इत्युक्त्वा गच्छति स्नातुं प्र्यागच्चति वै चिरात् ।। | 3-263-11a 3-263-11b |
न भोक्ष्याम्यद्यमे नास्ति क्षुधेत्युक्त्वैत्यदर्शनम्। अकस्मादेत्य च ब्रूते भोजनयास्मांस्त्वरान्वितः ।। | 3-263-12a 3-263-12b |
कदाचिच्च निशीथे स उत्थाय निकृतौ स्थितः। पूर्ववत्कारयित्वाऽन्नं न भुङ्क्ते गर्हयन्स्म सः ।। | 3-263-13a 3-263-13b |
वर्तमाने तथा तस्मिन्यदा दुर्योधनो नृपः। विकृतिं नैति न क्रोधं तदा तुष्टोऽभवन्मुनिः ।। | 3-263-14a 3-263-14b |
आहचैनं दुराधर्षो वरदोऽस्मीति भारत ।। | 3-263-15a |
वरं वरय भद्रं ते यत्ते मनसि वर्तते। मयि प्रीते तु यद्धर्म्यं नालभ्यं विद्यते तव ।। | 3-263-16a 3-263-16b |
वैशंपायन उवाच। | 3-263-17x |
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य महर्षेर्भावितात्मनः। अमन्यत पुनर्जातमात्मानं स सुयोधनः ।। | 3-263-17a 3-263-17b |
प्रागेव मन्त्रितं चासीत्कर्णदुःशासनादिभिः। याचनीयं मुनेस्तुष्टादिति निश्चित्य दुर्मतिः ।। | 3-263-18a 3-263-18b |
अतिहर्षान्वितो राजन्वरमेनमयाचत। शिष्यैः सह मम ब्रह्मन्यथा जातोऽतिथिर्भवान् ।। | 3-263-19a 3-263-19b |
अस्मत्कुले महाराजो ज्येष्ठः श्रेष्ठो युधिष्ठिरः। वने वसति धर्मात्मा भ्रातृभिः परिवारितः। गुणवाञ्शीलसंपन्नस्तस्य त्वमतिथिर्भव ।। | 3-263-20a 3-263-20b 3-263-20c |
यदा च राजपुत्री सा सुकुमारी यशस्विनी। भोजयित्वा द्विजान्सर्वान्पतींश्च वरवर्णिनी ।। | 3-263-21a 3-263-21b |
विश्रान्ता च स्वयं भुक्त्वा सुखासीना भवेद्यदा। तदा त्वं तत्रगच्छेथा यद्यनुग्राह्यता मयि ।। | 3-263-22a 3-263-22b |
तथा करिष्ये त्वत्प्रीत्येत्येवमुक्त्वा सुयोधनम्। दुर्वासा अपिविप्रेन्द्रो यथागतमगात्ततः ।। | 3-263-23a 3-263-23b |
कृतार्थमपि चात्मानं तदा मेने सुयोधनः। करेण च करं गृह्य कर्णस्य मुदितो भृशम् ।। | 3-263-24a 3-263-24b |
कर्णोपि भ्रातृसहितमित्युवाच नृपं मुदा। दुष्ट्या कामः सुसंवृत्तोदिष्ट्या कौरव वर्धसे। दिष्ट्या ते शत्रवो मग्ना दुस्तरे व्यसनार्णवे ।। | 3-263-25a 3-263-25b 3-263-25c |
दुर्वासःक्रोधजे वह्नौ पतिताः पाण्डुनन्दनाः। स्वैरेव ते महापापैर्गता वै दुस्तरं तमः ।। | 3-263-26a 3-263-26b |
वैशंपायु उवाच। | 3-263-27x |
इत्थं ते निकृतिप्रज्ञा राजन्दुर्योधनादयः। हसन्तः प्रीतमनसो जग्मुः स्वंस्वं निकेतनम् ।। | 3-263-27a 3-263-27b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि द्रौपदीहरणपर्वणि त्रिषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 263 ।। |
- इतः परं दुर्वासउपाख्यानात्मकमध्यायद्वयं झ. पुस्तकएव दृश्यते।
3-263-6 अध दुःखम् ।। 3-263-16 धर्म्ये धर्मादनपेतम् ।।
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