महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-270
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मृगयागतैः पाण्डवैर्दुर्निमित्तदर्शनाद्विपदाशङ्कया सत्वरं स्वाश्रमाभिगमनम् ।। 1 ।। तदा दास्या द्रौपदीवृत्तान्तावगमेन जयद्रथपथानुगतैस्तदवलोकनेन कोपात्समुत्क्रोशनम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-270-1x |
ततो दिशः संपरिवृत्य पार्था मृगान्वराहान्महिपांस्च हन्वा। धनुर्धराः श्रेष्ठतमाः पृथिव्यां पृथक्चरन्तः सहिता बभूवुः ।। | 3-270-1a 3-270-1b 3-270-1c 3-270-1d |
ततो मृगव्यालजनानुकीर्णं महावनं तद्विहगोपघुष्टम्। भ्रातॄंश्च तानभ्यवदद्युधिष्ठिरः श्रुत्वा गिरो व्याहरतां मृगाणाम् ।। | 3-270-2a 3-270-2b 3-270-2c 3-270-2d |
आदित्यदीप्तां दिशमभ्युपेत्य मृगा द्विजाः क्रूरमिमे वदन्ति। आयासमुग्रं प्रतिवेदयन्तो महाभयं शत्रुभिर्वाऽवमानम् ।। | 3-270-3a 3-270-3b 3-270-3c 3-270-3d |
क्षिप्रं निवर्तध्वमलं मृगैर्नो मनो हि मे दूयति दह्यते च। बुद्धिं समाच्छाद्य च मे समन्यु- रुद्धूयते प्राणपतिः शरीरे ।। | 3-270-4a 3-270-4b 3-270-4c 3-270-4d |
सरः सुपर्णन हृतोरगेन्द्र- मराजकं राष्ट्रमिवेह शान्तम्। एवंविधं मे प्रतिभाति काम्यकं शौण्डैर्यथा पीतसुरश्च कुम्भः ।। | 3-270-5a 3-270-5b 3-270-5c 3-270-5d |
ते सैन्धवैरग्न्यनिलोग्रवेगै- र्महाजवैर्वाजिभिरुह्यमानाः। युक्तैर्बृहद्भिः सुरथैर्नृवीरा- स्तदाश्रमायाभिमुखा बभूवुः ।। | 3-270-6a 3-270-6b 3-270-6c 3-270-6d |
तेषां तु गोमायुरनल्पघोषो निवर्ततां वाममुपेत्य पार्श्वम्। प्रव्याहरत्तत्प्रविमृश्य राजा प्रोवाच भीमं च धनंजयं च ।। | 3-270-7a 3-270-7b 3-270-7c 3-270-7d |
यथा वदत्येप विहीनयोनिः सालावृकोवाममुपेत्य पार्स्वम्। सुव्यक्तमस्मानवमत्य पापैः कृतोऽभिमर्दः कुरुभिः प्रसह्य ।। | 3-270-8a 3-270-8b 3-270-8c 3-270-8d |
एत्याथ ते तद्वनमाविशन्तो महत्यरण्ये मृगयां चरित्वा। बालामपश्यन्त तदा रुदन्तीं धात्रेयिकां प्रेष्यवधूं प्रियायाः ।। | 3-270-9a 3-270-9b 3-270-9c 3-270-9d |
तामिन्द्रसेनस्त्वरितोऽभिसृत्य रथादवप्लुत्य ततोऽभ्यधावत्। प्रोवाच चैनां वचनं नरेन्द्र धात्रेयिकामार्ततरस्तदानीम् ।। | 3-270-10a 3-270-10b 3-270-10c 3-270-10d |
कच्चित्परैर्नापकृतं वनेऽस्मिन् ।। | 3-270-11f |
पर्याकुला साधु समीक्ष्यसूत- मभ्यापतन्तं द्रुतमिन्द्रसेनम्। उरो घ्नती कष्टतरं तदानी- मुच्चैः प्रचुक्रोश हृतेति देवी ।। | 3-270-12a 3-270-12b 3-270-12c 3-270-12d |
इन्द्रसेन उवाच। | 3-270-13x |
अनिन्द्यरूपा तु विशालनेत्रा शरीरतुल्या कुरुपुङ्गवानाम्। `केनात्मनाशाय यदापनीता छिद्रं समासाद्य नरेन्द्रपत्नी' ।। | 3-270-13a 3-270-13b 3-270-13c 3-270-13d |
यद्येव देवीं पृथिवीं प्रविष्टा दिवं प्रपन्नाऽप्यथवा समुद्रम्। तस्या गमिष्यन्ति पदे हि पार्था- स्तथा हि संतप्यति धर्मराजः ।। | 3-270-14a 3-270-14b 3-270-14c 3-270-14d |
को हीदृशानामरिमर्दनानां क्लेशक्षमाणामपराजितानाम्। प्राणैः समामिष्टतमां जिहीर्षे- दनुत्तमं रत्नमिव प्रमूढः ।। | 3-270-15a 3-270-15b 3-270-15c 3-270-15d |
न बुध्यते नाथवतीमिहाद्य बहिश्चरं हृदयं पाण्डवानाम्। कस्याद्य कायं प्रतिभिद्य घोरा महीं प्रवेक्ष्यन्ति शिताः शराग्र्याः ।। | 3-270-16a 3-270-16b 3-270-16c 3-270-16d |
मा त्वं शुचस्तां प्रति भीरु विद्धि यथाऽद्य कृष्णा पुनरेष्यतीति। निहत्य सर्वान्द्विषतः समग्रा- न्पार्थाः समेष्यनत्यथ याज्ञसेन्या ।। | 3-270-17a 3-270-17b 3-270-17c 3-270-17d |
अथाब्रवीच्चारुमुखं प्रसृज्य धात्रेयिका सारथिमिन्द्रसेनम्। जयद्रथेनापहृताप्रमथ्य पञ्चेन्द्रकल्पान्परिभूय कृष्णा ।। | 3-270-18a 3-270-18b 3-270-18c 3-270-18d |
तिष्ठन्ति वर्त्मानि नवान्यमूनि वृक्षाश्च न म्लान्ति तथैव भग्नाः। आवर्तयध्वं ह्यनुयात शीघ्रं न दूरयातैव हि राजपुत्री ।। | 3-270-19a 3-270-19b 3-270-19c 3-270-19d |
सन्नह्यध्वं सर्व एवेन्द्रकल्पा महान्ति चारूणि च दंशनानि। गृह्णीत चापानि महाधनानि शरांश्च शीघ्रं पदवीं व्रजध्वम् ।। | 3-270-20a 3-270-20b 3-270-20c 3-270-20d |
पुरा हि निर्भर्त्सनदण्डमोहिता प्रमूढचित्ता वदनेन शुष्यता। ददाति कस्मैचिदनर्हते तनुं वराज्यपूर्णामिव भस्मनि स्रुचम् ।। | 3-270-21a 3-270-21b 3-270-21c 3-270-21d |
पुरा तुषाग्नाविव हूयते हविः पुरा श्मशाने स्रगिवापविद्ध्यते। पुरा च सोमोऽध्वरगोऽवलिह्यते शुना यथा विप्रजने प्रमोहिते ।। | 3-270-22a 3-270-22b 3-270-22c 3-270-22d |
`पुरा हि पार्थाश्च दृतौ च कापिली प्रसिच्छते क्षीरधारा यतध्वम्'। महत्यरण्ये मृगयां चरित्वा पुरा सृगालो नलिनीं विगाहते ।। | 3-270-23a 3-270-23b 3-270-23c 3-270-23d |
`पुरा हि मन्त्राहुतिपूजितायां हुताग्निवेद्यां बलिभुङ्गिलीयते। श्रुतिं च सम्यक्प्रसृतां महाध्वरे ग्राम्यो जनो यद्वदसौ न नाशयेत्' ।। | 3-270-24a 3-270-24b 3-270-24c 3-270-24d |
मा वः प्रियायाः सुनसं सुलोचनं चन्द्रप्रभाच्छं वदनं प्रसन्नम्। स्पृश्याच्छुभं कश्चिदकृत्यकारी श्वा वै पुरोडाशमिवाध्वरस्थम् ।। | 3-270-25a 3-270-25b 3-270-25c 3-270-25d |
एतानि वर्त्मान्यनुयात शीघ्रं मा वः कालः क्षिप्रमिहात्यगाद्वै ।। | 3-270-26a 3-270-26b |
`शीघ्रं प्रधावध्वमितो नरेन्द्रा यावन्न दूरं व्रजतीति पापः। प्रत्याहरध्वं द्विषतां सकाशा- ल्लक्ष्मीमिव स्वां दयितां नृसिंहाः' ।। | 3-270-27a 3-270-27b 3-270-27c 3-270-27d |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-270-28x |
भद्रे प्रतिक्राम नियच्छ वाचं माऽस्मत्सकाशे परुषाण्यवोचः। राजानो वा यदि वा राजपुत्रा बलेन मत्ताः पञ्चतां प्राप्नुवन्ति ।। | 3-270-28a 3-270-28b 3-270-28c 3-270-28d |
वैशंपायन उवाच। | 3-270-29x |
एतावदुक्त्वा प्रययुर्हि शीघ्रं तान्येव वर्त्मान्यनुवर्तमानाः। मुहुर्मुहुर्व्यालवदुच्छ्वसन्तो ज्यां विक्षिपन्तश्च महाधनुर्भ्यः ।। | 3-270-29a 3-270-29b 3-270-29c 3-270-29d |
ततोऽपश्यंस्तस्य सैन्यस्य रेणु- मुद्धूतं वै वाजिस्वुरप्रणुन्नम्। पदातीनां मध्यगतं च धौम्यं विक्रोशन्तं भीम पार्थेत्यभीक्ष्णम् ।। | 3-270-30a 3-270-30b 3-270-30c 3-270-30d |
ते सान्त्व्य धौम्यं परिदीनसत्वाः सुखं भवानेत्विति राजपुत्राः। श्येना यथैवामिषसंप्रयुक्ता जवेन तत्सैन्यमथाभ्यधावन् ।। | 3-270-31a 3-270-31b 3-270-31c 3-270-31d |
तेषां महेन्द्रोपमविक्रमाणां संरब्धानां धर्षणाद्याज्ञसेन्याः। क्रोधः प्रजज्वाल जयद्रथं च दृष्ट्वा प्रियां तस्य रथे स्थितां च ।। | 3-270-32a 3-270-32b 3-270-32c 3-270-32d |
प्रचुक्रुशुश्चाप्यथ सिन्धुराजं वृकोदरश्चैव धनंजयश्च। यमौ च राजा च महाधनुर्धरा- स्ततो दिशः संमुमुहुः परेषाम् ।। | 3-270-33a 3-270-33b 3-270-33c 3-270-33d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि द्रौपदीहरणपर्वणि सप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 270 ।। |
3-270-2 गृगव्यालगणानुकीर्णं इति झ. पाठः ।। 3-270-3 महावनं शत्रुभिर्बाध्यमानं इति झ. पाठः ।। 3-270-4 समाच्छाद्य नोहयित्वा। समन्युः दैन्यसहितः। प्राणानां आध्यात्मिकानामिन्द्रियाणां पतिर्मुख्यः प्राणः ।। 3-270-6 सिन्धुदेशजैर्वाजिभिरश्वैः। सुरथैः शोभनरथैः ।। 3-270-9 प्रेष्यवधूं दासीम् ।। 3-270-21 पुरा यावदनर्हते तनुं न ददाति तावच्छाघ्रमनुयातेत्युत्तरेण संबन्धः ।। 3-270-28 प्रतिक्राम दूरे भव। वरुषाणि अनर्हते तनुं ददातीत्यादीनि ।। 3-270-32 धर्षणात् पराभवात् ।।
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