महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-312
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युधिष्ठिरादिभिः काम्यकवनात्पुनर्द्वैतवनंप्रत्यागमनम् ।। 1 ।।
तत्रकेनचिन्मृगेण तरुसङ्घर्पवशात्स्वविपाणलग्नेन ब्राह्मणस्यारणिना सह पलायनम् ।।
ब्राह्मणप्रार्थनया तदानयनाय पाण्डवैस्तदनुधावनम् ।।
ततस्तौः सुदूरं स्वापकर्पणपूर्वकमन्तर्हिते तस्मिन्श्रान्त्या वटमूले समुपवेशनम् ।।
जनमेजय उवाच। | 3-312-1x |
एवं हृतायां भार्यायां प्राप्य क्लेशमनुत्तमम्। प्रतिपद्य ततः कृष्णां किमकुर्वत पाण्डवाः ।। | 3-312-1a 3-312-1b |
वैशंपायन उवाच। | 3-312-2x |
एवं हृतायां कृष्णायां प्राप्य क्लेशमनुत्तमम्। विहाय काम्यकं राजा सह भ्रातृभिरच्युतः ।। | 3-312-2a 3-312-2b |
पुनर्द्वैतवनं रम्यमाजगाम युधिष्ठिरः। स्वादुमूलफलं रम्यं विचित्रबहुपादपम् ।। | 3-312-3a 3-312-3b |
अनुभुक्तफलाहाराः सर्व एव मिताशनाः। न्यवसन्पाण्डवास्तत्रकृष्णया सह भार्यया ।। | 3-312-4a 3-312-4b |
वसन्द्वैतवने राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। भीमसेनोऽर्जुनश्चैव माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ।। | 3-312-5a 3-312-5b |
ब्राह्मणार्थे पराक्रान्ता धर्मात्मानो यतव्रताः। क्लेशमार्च्छन्त विपुलं सुखोदर्कं परंतपाः ।। | 3-312-6a 3-312-6b |
तस्मिन्प्रतिवसन्तस्ते यत्प्रापुः कुरुसत्तमाः। वने क्लेशं सुखोदर्कं तत्प्रवक्ष्यामि ते शृणु ।। | 3-312-7a 3-312-7b |
अरणीसहितं भाण्डं ब्राह्मणस्य तपस्विनः। मृगस् घर्षणस्य विपाणे समसज्जत ।। | 3-312-8a 3-312-8b |
तदादाय गतो राजंस्त्वरमाणो महामृगः। आश्रमान्तरितः शीघ्रं प्लवमानो महाजवः ।। | 3-312-9a 3-312-9b |
ह्रियमाणं तु तं दृष्ट्वा स विप्रः कुरुसत्तम। त्वरितोऽभ्यागमत्तत्रअग्निहोत्रपरीप्सया। `तेषां तु वसतां तत्र पाण्डवानां महारथम्' ।। | 3-312-10a 3-312-10b 3-312-10c |
अजातशत्रुमासीनं भ्रातृभिः सहितं वने। आगम्य ब्राह्मणस्तूर्णं संतप्तश्चेदमब्रवीत् ।। | 3-312-11a 3-312-11b |
अरणीसहितं भाण्डं समासक्तं वनस्पतौ। मृगस्य घऱ्षमाणस्य विषाणे समसज्जत ।। | 3-312-12a 3-312-12b |
तमादाय गतो राजंस्त्वरमाणो महामृगः। आश्रमात्त्वरितः शीघ्रं प्लवमानो महाजवः ।। | 3-312-13a 3-312-13b |
तस्य गत्वा पदं राजन्नासाद्य च महामृगम्। अग्निहोत्रं न लुप्येत तदानयत पाण्डवाः ।। | 3-312-14a 3-312-14b |
ब्राह्मणस्य वचः श्रुत्वा सन्तप्तोऽथ युधिष्ठिरः। धनुरादाय कौन्तेयः प्राद्रवद्भ्रातृभिः सह ।। | 3-312-15a 3-312-15b |
सन्नद्धा धन्विनः सर्वे प्राद्रवन्नरपुङ्गवाः। ब्राह्मणार्थे यतन्तस्ते शीघ्रमन्वगमन्मृगम् ।। | 3-312-16a 3-312-16b |
कर्णिनालीकनाराचानुत्सृजन्तो महारथाः। नाविध्यन्पाण्डवास्तत्र पश्यन्तो मृगमन्तिकात् ।। | 3-312-17a 3-312-17b |
तेषां प्रयतमानानां नादृश्यत महामृगः। अपश्यन्तोमृगं श्रान्ता दुःखं प्राप्ता मनस्विनः ।। | 3-312-18a 3-312-18b |
शीतलच्छायमागमय् न्यग्रोधं गहने वने। क्षुत्पिपासापरीताङ्गाः पाण्डवाः समुपाविशन् ।। | 3-312-19a 3-312-19b |
तेषां समुपविष्टानां नकुलो दुःखितस्तदा। अब्रवीद्भ्रातरं श्रेष्ठममर्षात्कुरुनन्दनम् ।। | 3-312-20a 3-312-20b |
नास्मिन्कुले जातु ममज्ज धर्मो न चालस्यादर्थलोपो बभूव। अनुत्तराः सर्वभूतेषु भूप संप्राप्ताः स्मः संशयं किंनु राजन् ।। | 3-312-21a 3-312-21b 3-312-21c 3-312-21d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि आरण्येयपर्वणि द्वादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।। 312 ।। |
3-312-8 अरणीसहितं मन्थं इति झय पाठः। अरणी उत्तराधरेऽग्निमथनकाष्ठे रताभ्यां रसहितं मन्थं निर्मथनदण्डम् ।। 3-312-9 आश्रमान्तरितः आश्रमदूरगतः ।। 3-312-14 पदं मार्गे चिह्नं गत्या प्राप्थ। तेनैव पथा तदानयत ।। 3-312-21 धर्मो न ममज्ज धर्मलोपोऽर्थलोपश्च नाभूत्। आलस्यादित्युपचर्यते। त्वयि अनुत्तराः प्रतिवाक्यरहिताः सर्वभूतेषु कार्यार्थे उपस्थिते ओमित्येव वदामो नतु वाक्यान्तरमित्यर्थः। संशयं ब्राह्मणस्य कर्मलोपनिमित्तं दोषम् ।।
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