महाभारतम्-12-शांतिपर्व-020
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युधिष्ठिरंप्रति देवस्थानस्य वचनम्।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-20-1x |
अस्मिन्वाक्यान्तरे वक्ता देवस्थानो महातपाः। अभिनीततरं वाक्यमित्युवाच युधिष्ठिरम्।। | 12-20-1a 12-20-1b |
देवस्थान उवाच। | 12-20-2x |
यद्वचः फल्गुनेनोक्तं न ज्यायोऽस्ति धनादिति। अत्र ते वर्तयिष्यामि तदेकान्तमनाः शृणु।। | 12-20-2a 12-20-2b |
अजातशत्रो धर्मेण कृत्स्ना ते वसुधा जिता। तां जित्वा च वृथा राजन्न परित्यक्तुमर्हसि।। | 12-20-3a 12-20-3b |
चतुष्पदी हि निःश्रेणी ब्रह्मण्येषा प्रतिष्ठिता। तां क्रमेण महाबाहो यथावज्जय पार्थिव। तस्मात्पार्थ महायज्ञैर्यजस्व बहुदक्षिणैः।। | 12-20-4a 12-20-4b 12-20-4c |
स्वाध्याययज्ञा ऋषयो ज्ञानयज्ञास्तथाऽपरे। कर्मनिष्ठाश्च बुद्ध्यर्थास्तपोनिष्ठाश्च पार्थिव।। | 12-20-5a 12-20-5b |
वैखानसानां कौन्तेय वचनं श्रूयते यथा।। | 12-20-6a |
ईहेत धनहेतोर्यस्तस्यानीहा गरीयसी। भूयान्दोषो हि वर्धेत यस्तत्कर्म समाश्रयेत्।। | 12-20-7a 12-20-7b |
कृत्स्नं च धनसंहारं कुर्वन्ति विधिकारणात्। आत्मना तृपितो बुद्ध्या भ्रूणहत्यां न बुध्यते।। | 12-20-8a 12-20-8b |
अनर्हते यद्ददाति न ददाति यदर्हते। अर्हानर्हापरिज्ञानाद्दानधर्मोऽपि दुष्करः।। | 12-20-9a 12-20-9b |
यज्ञाय सृष्टानि धनानि धात्रा यज्ञादिष्टः पुरुषो रक्षिता च। तस्मात्सर्वं यज्ञ एवोपयोज्यं धनं ततोऽनन्तर एव कामः।। | 12-20-10a 12-20-10b 12-20-10c 12-20-10d |
यज्ञैरिन्द्रो विविधै रत्नवद्भि र्देवान्सर्वानभ्ययाद्भूरितेजाः। तेनेन्द्रत्वं प्राप्य विभ्राजतेऽसौ तस्माद्यज्ञे सर्वमेवोपयोज्यम्।। | 12-20-11a 12-20-11b 12-20-11c 12-20-11d |
महादेवः सर्वयज्ञे महात्मा हुत्वाऽऽत्मानं देवदेवो बभूव। विश्वाँल्लोकान्व्याप्य विष्टभ्य कीर्त्या विराजते द्युतिमान्कृत्तिवासाः।। | 12-20-12a 12-20-12b 12-20-12c 12-20-12d |
आविक्षितः पार्थिवोऽसौ मरुत्तो वृद्ध्या शक्रं योऽजयद्देवराजम्। यज्ञे यस्य श्रीः स्वयं सन्निविष्टा यस्मिन्भाण्डं काञ्चनं सर्वमासीत्।। | 12-20-13a 12-20-13b 12-20-13c 12-20-13d |
हरिश्चन्द्रः पार्थिवेन्द्रः श्रुतस्ते यज्ञैरिष्ट्वा पुण्यभाग्वीतशोकः। ऋद्ध्या शक्रं योऽजयन्मानुषः सं स्तस्माद्यज्ञे सर्वमेवोपयोज्यम्।। | 12-20-14a 12-20-14b 12-20-14c 12-20-14d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि विंशोऽध्यायः।। 20।। |
12-20-1 वाक्यान्तरे वाक्यावसरे। अभिनीततरं युक्तिमत्तरम्।। 12-20-4 चतुष्पदी चतुराश्रमी।। 12-20-5 क्रमाद्ब्रह्मचारियतिगृहस्थवानप्रस्था इत्यर्थः।। 12-20-7 धनं हेतुः कारणं यस्य तस्य यज्ञादेर्यज्ञाद्यर्थम् ईहेत धनं तस्यानीहैव गरीयसी। प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरमिति न्यायात्तमिमं परधर्मं यः क्षत्रिय उपाश्रयेत स दूष्येतेत्याह भूयानिति।। 12-20-10 यज्ञार्थमेव आज्ञप्तो वेदेन।। 12-20-13 भाण्डमुपकरणं पात्रादि।।
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