महाभारतम्-12-शांतिपर्व-093
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति वामदेवसुमनस्संवादानुवादः।। 1।।
वामदेव उवाच। | 12-93-1x |
यत्राधर्मं प्रणयते दुर्बले बलवत्तरः। तां वृत्तिमुपजीवन्ति ये भवन्ति तदन्वयाः।। | 12-93-1a 12-93-1b |
राजानमनुवर्तन्ते तं पापाभिप्रवर्तकम्। अविनीतमनुष्यं तत्क्षिप्रं राष्ट्रं विनश्यति।। | 12-93-2a 12-93-2b |
यद्वॄत्तमुपजीवन्ति प्रकृतिस्थस्य मानवाः। तदेव विषमस्थस्य स्वजनोऽपि न मृष्यते।। | 12-93-3a 12-93-3b |
साहसप्रवृत्ते र्यत्र किंचिदुल्वणमाचरेत्। अशास्त्रलक्षणो राजा क्षिप्रमेव विनश्यति।। | 12-93-4a 12-93-4b |
सद्वॄत्ताचरितां वृत्तिं क्षत्रियो नानुवर्तते। जितानामजितानां च क्षत्रधर्मादपैति सः।। | 12-93-5a 12-93-5b |
द्विषन्तं कृतकल्याणं गृहीत्वा नृपतिं रणे। यो न नयते द्वेषात्क्षत्रधर्मादपैति सः।। | 12-93-6a 12-93-6b |
शक्तः आत्सुसुखो राजा कुर्यात्तारणमापदि। प्रियो अति भूतानां न च विभ्रश्यते श्रियः।। | 12-93-7a 12-93-7b |
अप्रियं यस्य कुर्वीत भूयस्तस्य प्रियं चरेत्। अचिरेण प्रियः स स्याद्योऽप्रिये प्रियमाचरेत्।। | 12-93-8a 12-93-8b |
मृषावादं परिहरेत्कुर्यात्प्रियमयाचितः। न कामान्न च संरम्भान्न द्वेषाद्धर्ममुत्सृजेत्।। | 12-93-9a 12-93-9b |
`अमाययैव वर्तेत न च सत्यं त्यजेद्बुधः। दमं धर्मं च शीलं च क्षत्रधर्मं प्रजाहितम्।।' | 12-93-10a 12-93-10b |
नापत्रपेत प्रश्नेषु नाभिभाविगिरं सृजेत्। न त्वरेत न चासूयेत्तथा संगृह्यते परः।। | 12-93-11a 12-93-11b |
प्रिये नातिभृशं हृष्येदप्रिये न च संज्वरेत्। न तप्येदर्थकृच्छ्रेषु प्रजाहितमनुस्मरन्।। | 12-93-12a 12-93-12b |
यः प्रियं कुरुते नित्यं गुणतो वसुधाधिपः। तस्य कर्माणि सिद्ध्यन्ति न च संत्यज्यते श्रिया।। | 12-93-13a 12-93-13b |
निवृत्तं प्रतिकूलेभ्यो वर्तमानमनुप्रिये। भक्तं भजेत नृपतिस्तद्वै वृत्तं सतामिह।। | 12-93-14a 12-93-14b |
अप्रकीर्णेन्द्रियग्राममत्यन्तानुगतं शुचिम्। शक्तं चैवानुरक्तं च युञ्ज्यान्महति कर्मणि।। | 12-93-15a 12-93-15b |
`श्रेयसो लक्षणं चैतद्विक्रमो यत्र दृश्यते। कीर्तिप्रधानो यश्च स्यात्समये यश्च तिष्ठति। समर्थान्पूजयेद्यश्च न च स्पर्धेत यश्चतैः।। | 12-93-16a 12-93-16b 12-93-16c |
एवमेतैर्गुणैर्युक्तो योऽनुरज्यति भूमिपम्। भर्तुरर्थेष्वप्रमत्तं नियुञ्ज्यादर्थकर्मणि।। | 12-93-17a 12-93-17b |
मूढमैन्द्रियकं लुब्धमनार्यचरितं शठम्। अनतीतोपधं हिंस्रं दुर्बुद्धिमबहुश्रुतम्।। | 12-93-18a 12-93-18b |
त्यक्तोपात्तं मद्यरतं द्यूतस्त्रीमृगयापरम्। कार्ये महति युञ्जानो हीयते नृपतिः श्रिया।। | 12-93-19a 12-93-19b |
रक्षितात्मा च यो राजा रक्ष्यान्यश्चानुरक्षति। प्रजाश्च तस्य वर्धन्ते सुखं च महदश्नुते।। | 12-93-20a 12-93-20b |
ये केचिद्भूमिपतयः सर्वांस्तानन्ववेक्षयेत्। सुहृद्भिरनभिख्यातैस्तेन राजा न रिष्यते।। | 12-93-21a 12-93-21b |
अपकृत्य बलस्थस्व दूरस्थोऽस्मीति नाश्वसेत्। श्येनाभिपतनैरेते निपतन्ति प्रमाद्यतः।। | 12-93-22a 12-93-22b |
दृढमूलस्त्वदुष्टात्मा विदित्वा बलमात्मनः। अबलानभियुञ्जीत न तु ये बलवत्तराः।। | 12-93-23a 12-93-23b |
विक्रमेण महीं लब्ध्वा प्रजा धर्मेण पालयेत्। आहवे निधनं कुर्याद्राजा धर्मपरायणः।। | 12-93-24a 12-93-24b |
मरणान्तमिदं सर्वं नेह किंचिदनामयम्। तस्माद्धर्मे स्थितो राजा प्रजा धर्मेम पालयेत्।। | 12-93-25a 12-93-25b |
रक्षाधिकरणं युद्धं तथा धर्मानुशासनम्। मन्त्रचिन्ता सुखं काले पञ्चभिर्वर्धते मही।। | 12-93-26a 12-93-26b |
एतानि यस्य गुप्तानि स राजा राजसत्तम। सततं वर्तमानोऽत्र राजा भुङ्क्ते महीमिमाम्।। | 12-93-27a 12-93-27b |
नैतान्येकेन शक्यानि सातत्येनानुवीक्षितुम्। एतेष्वाप्तान्प्रतिष्ठाप्य राजा भुङ्क्ते चिरं महीम्।। | 12-93-28a 12-93-28b |
दातारं संविभक्तारं मार्दवोपगतं शुचिम्। असंत्यक्तमनुष्यं च तं जनाः कुर्वते नृपम्।। | 12-93-29a 12-93-29b |
यस्तु नैःश्रेयसं श्रुत्वा ज्ञानं तत्प्रतिपद्यते। आत्मनो मतमुत्सृज्य तं लोकोऽनुविधीयते।। | 12-93-30a 12-93-30b |
योऽर्थकामस्य वचनं प्रातिकूल्यान्न मृष्यते। शृणोति प्रतिकूलानि सर्वदा विमना इव।। | 12-93-31a 12-93-31b |
अग्राम्यचरितां वृत्तिं यो न सेवेत नित्यदा। जितानामजितानां च क्षत्रधर्मादपैति सः।। | 12-93-32a 12-93-32b |
[निगृहीतादमात्याच्च स्त्रीभ्यश्चैव विशेषतः। पर्वताद्विषमाद्दुर्गाद्धस्तिनोऽश्वात्सरीसृपात्। एतेभ्यो नित्ययुक्तः सन्रक्षेदात्मानमेव तु।।] | 12-93-33a 12-93-33b 12-93-33c |
मुख्यानमात्यान्यो हित्वा निहीनान्कुरुते प्रियान्। स वै व्यसनमासाद्य साधुमार्गं न विन्दति।। | 12-93-34a 12-93-34b |
यः कल्याणगुणाञ्ज्ञातीन्प्रद्वेषान्नो बुभूषति। अदृढात्मा दृढक्रोधः नास्यार्थो वसतेऽन्तिके।। | 12-93-35a 12-93-35b |
अथ यो गुणसंपन्नान्हृदयस्य प्रियानपि। प्रियेण कुरुते वश्यांश्चिरं यशसि तिष्ठति।। | 12-93-36a 12-93-36b |
नाकाले प्रणयेदर्थान्नाप्रिये जातु संज्वरेत्। प्रिये नातिभृशं तुष्येद्युञ्जीतारोग्यकर्मणि।। | 12-93-37a 12-93-37b |
के वाऽनुरक्ता राजानः के भयात्समुपाश्रिताः। मध्यस्थदोषाः के चैषामिति नित्यं विचिन्तयेत्।। | 12-93-38a 12-93-38b |
न जातु बलवान्भूत्वा दुर्बले विश्वसेत्क्वचित्। भारुण्डसदृशा ह्येते निपतन्ति प्रमाद्यतः।। | 12-93-39a 12-93-39b |
अपि सर्वगुणैर्युक्तं भर्तारं प्रियवादिन। अभिद्रुह्यति पापात्मा न तस्माद्विश्वसेज्जनान्।। | 12-93-40a 12-93-40b |
एतद्राजोपनिषदं ययातिः स्माह नाहुषः। मनुष्यविषये युक्तो हन्ति शत्रून्सवासवान्।। | 12-93-41a 12-93-41b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि त्रिनवतितमोऽध्यायः।। 93।। |
12-93-1 यत्र राष्ट्रे। प्रणयते आरोपयति।। 12-93-2 अनुवर्तन्तेऽन्ये।। 12-93-3 प्रकृतिः स्वधर्मः। विषमः कुमार्गः।। 12-93-5 जित्तानामापन्नानाम्। अजितानां स्वस्थानाम्।। 12-93-6 कृतकल्याणं प्रागुपकारं कृतवन्तम्।। 12-93-12 प्रियं भृत्यादीनाम्।। 12-93-17 अनुरज्यत्यनुरञ्जयति। एवमेव गुणैर्युक्तो यो न रक्षति भूमिपम्। भर्तुरर्थेष्वसूयन्तं न तं युञ्जीत कर्मणि इति ड.थ.पाठः।। 12-93-21 सुहृद्भिश्चारैः। अनभिख्यातैः स्वेषां परेषां चाविदितैः।। 12-93-26 रक्षाधिकरणं दुर्गादि। सुखं सुखप्रदानम्।। 12-93-27 गुप्तानि मुरक्षितानि।। 12-93-32 अग्राम्यैर्बुद्धिमद्भिः। वृत्तिं लाभोपायम्।। 12-93-41 राजोपनिषदं राज्ञां रहस्यविद्याम्।।
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