महाभारतम्-12-शांतिपर्व-098
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति सुदेवस्य युद्धेन देवलोकप्राप्तिप्रतिपादकेन्द्राम्बरीषसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-98-1x |
के लोका युध्यमानानां शूराणामनिवर्तिनाम्। भवन्ति निधनं प्राप्य तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-98-1a 12-98-1b |
भीष्म उवाच। | 12-98-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। अम्बरीपस्य संवादमिन्द्रस्य च युधिष्ठिर।। | 12-98-2a 12-98-2b |
अम्बरीषो हि नाभागः स्वर्गं गत्वा सुदुर्लभम्। ददर्श सुर--कस्थं शक्रेण सचिवैः सह।। | 12-98-3a 12-98-3b |
सर्वतेजोमयं दिव्यं विमानवरमास्थितम्। उ---गच्छन्तं स्थानं सेनापतिं शुभम्।। | 12-98-4a 12-98-4b |
स दष्ट्वापरि गच्छन्तं सेनापतिमुदारधीः। `शूरस्थानमनुप्राप्तं सुदेवं नाम नामतः।' ऋद्धिं दृष्ट्वा सुदेवस्य विस्मितः प्राह वासवम्।। | 12-98-5a 12-98-5b 12-98-5c |
अम्बरीप उवाच। | 12-98-6x |
सागरान्तां महीं कृत्स्नामनुशास्य यथाविधि। चातुर्वर्ण्ये यथाशास्त्रं प्रवृत्तो धर्मकाम्यया।। | 12-98-6a 12-98-6b |
ब्रह्मचर्येण घोरेण गुर्वाचारेण सेवया। वेदानधीत्य धर्मेण राजशास्त्रं च केवलम्।। | 12-98-7a 12-98-7b |
अतिथीनन्नपानेन पितॄंश्च स्वधया तथा। ऋषीन्स्वाध्यायदीक्षाभिर्देवान्यज्ञैरनुत्तमैः।। | 12-98-8a 12-98-8b |
क्षत्रध—स्थितो भूत्वा यथाशास्त्रं यथाविधि। उदीक्षमाणः पृतनां जयामि युधि वासव।। | 12-98-9a 12-98-9b |
दे--ज सुदेवोऽयं मम सेनापतिः पुरा। आसाद्योधः प्रशान्तात्मा सोऽयं कस्मादतीव माम्। विमानं सूर्यसङ्काशमास्थितो मोदते दिवि।। | 12-98-10a 12-98-10b 12-98-10c |
अनेन ऋतुभिर्मुख्यैर्नेष्टं नापि द्विजातयः। तर्पिता विधिवच्छक्र सोऽयं कस्मादतीत्य माम्।। | 12-98-11a 12-98-11b |
ऐश्वर्यमीदृशं प्राप्तः सर्वदेवैः सुदुर्लभम्। | 12-98-12a |
इन्द्र उवाच। | 12-98-12x |
`यदनेन कृतं कर्म प्रत्यक्षं ते महीपते। पुरा पालयतः सम्यक्पृथिवीं धर्मतो नृप।। | 12-98-12b 12-98-12c |
शत्रवो निर्जिताः सर्वे ये तवाहितकारिणः। संयमो वियमश्चैव सुयमश्च नहाबलः।। | 12-98-13a 12-98-13b |
राक्षसा दुर्जया लोके त्रयस्ते युद्धदुर्मदाः। पुत्रास्ते शतशृङ्गस्य राक्षसस्य महीपतेः।। | 12-98-14a 12-98-14b |
तथा तस्मिञ्शुभे काले तव यज्ञं वितन्वतः। अश्वमेधं महायागं देवानां हितकाम्यया।। | 12-98-15a 12-98-15b |
तस्य ते खलु विघ्नार्थमागता राक्षसास्त्रयः। कोटीशतपरीवारां राक्षसानां महाचमूम्। परिगृह्य ततः सर्वाः प्रजा वन्दीकृतास्तव।। | 12-98-16a 12-98-16b 12-98-16c |
विह्वलाश्च प्रजाः सर्वाः सर्वे च तव सैनिकाः। निराकृतस्तु यच्चासीत्सुदेवः सैन्यनायकः।। | 12-98-17a 12-98-17b |
तत्रामात्यवचः श्रुत्वा निरस्तः सर्वकर्मसु। श्रुत्वा तेषां वचो भूयः सोपधं वसुधाधिपः।। | 12-98-18a 12-98-18b |
सर्वसैन्यसमायुक्तः सुदेवः प्रेरितस्त्वया। साक्षसानां वधार्थाय दुर्जयानां नराधिप।। | 12-98-19a 12-98-19b |
नाजित्वा राक्षसीं सेनां पुनरागमनं तव। बन्दीमोक्षमकृत्वा च न चागमनमिष्यते।। | 12-98-20a 12-98-20b |
सुदेवस्तद्वचः श्रुत्वा प्रस्थानमकरोन्नृप। संप्राप्तश्च स तं देशं यत्र बन्दीकृताः प्रजाः।। | 12-98-21a 12-98-21b |
पश्यति स्म महाघोरां राक्षसानां महाचमूम्। दृष्ट्वा सुचिन्तयामास सुदेवो वाहिनीपतिः।। | 12-98-22a 12-98-22b |
नेयं शक्या चमूर्जेतुमपि सेन्द्रैः सुरासुरैः। नाम्बरीषः कलामेकामेषां क्षपयितुं क्षमः। दिव्यास्त्रबलभूयिष्ठः किमहं पुनरीदृशः।। | 12-98-23a 12-98-23b 12-98-23c |
ततः सेनां पुनः सर्वां प्रेषयामास पार्थिव। यत्र त्वं सचिवैः सर्वैर्मन्त्रिभिः सोपधैर्नृप।। | 12-98-24a 12-98-24b |
ततो रुद्रं महादेवं प्रपन्नो जगतः पतिम्। श्मशाननिलयं देवं तुष्टाव वृषभध्वजम्।। | 12-98-25a 12-98-25b |
स्तुत्वा शस्त्रं समादाय स्वशिरश्छेत्तुमुद्यतः।। | 12-98-26a |
कारुण्याद्देवदेवेन गृहीतस्तस्य दक्षिणः। स पाणिः सह शस्त्रेण दृष्ट्वा चेदमुवाच ह।। | 12-98-27a 12-98-27b |
किमिदं साहसं पुत्र कुर्तकामो वदस्व मे। स उवाच महादेवं शिरसा त्ववनीं गतः।। | 12-98-28a 12-98-28b |
भगवन्वाहिनीमेनां राक्षसानां सुरेश्वर। अशक्तोऽहं रणे जेतुं तस्मात्त्यक्ष्यामि जीवितम्। गतिर्भव महादेव ममार्तस्य जगत्पते।। | 12-98-29a 12-98-29b 12-98-29c |
नागन्तव्यमजित्वा च मामाह जगतीपतिः। अम्बरीषो महादेव क्षारितः सचिवैः सह।। | 12-98-30a 12-98-30b |
तमुवाच महादेवः सुदेवं पतितं क्षितौ। अधोमुखं महात्मानं सत्वानां हितकाम्यया।। | 12-98-31a 12-98-31b |
धनुर्वेदं समाहूय सगणं सहविग्रहम्। रथनागाश्वकलिलं दिव्यास्त्रसमलंकृतम्।। | 12-98-32a 12-98-32b |
रथं च सुमहाभागं येन तन्त्रिपुरं हतम्। धनुः पिनाकं खङ्गं च रौद्रमस्त्रं च शंकरः। निजघानासुरान्सर्वान्येन देवस्त्रियम्बकः।। | 12-98-33a 12-98-33b 12-98-33c |
उवाच च महादेवः सुदेवं वाहिनीपतिम्। रथादस्मात्सुदेव त्वं दुर्जयः स सुरासुरैः।। | 12-98-34a 12-98-34b |
मायया मोहितो भूमौ न पदं कर्तुमर्हसि। रथस्थस्त्रिदशान्सर्वाञ्जेष्यसि त्वं सदानवान्।। | 12-98-35a 12-98-35b |
राक्षसाश्च पिशाचाश्च न शक्ता द्रष्टुमीदृशम्। रथं सूर्यसहस्राभं किमु योद्धुं त्वया सह।। | 12-98-36a 12-98-36b |
स जित्वा राक्षसान्सर्वान्कृत्वा बन्दीविमोक्षणम्। घातयित्वा च तान्सर्वान्बाहुयुद्धे त्वयं हतः। वियमं प्राप्य भूपाल वियमश्च निपातितः।।' | 12-98-37a 12-98-37b 12-98-37c |
तस्य विक्रमतस्तात सुदेवस्य बभूव ह। संग्रामयज्ञः सुमहान्यश्चान्यो युध्यते नरः।। | 12-98-38a 12-98-38b |
सन्नद्धो दीक्षितः सर्वो योधः प्राप्य चमूमुखम्। युद्धयज्ञाधिकारस्थो भवतीति विनिश्चयः।। | 12-98-39a 12-98-39b |
अम्बरीष उवाच। | 12-98-40x |
कानि यज्ञे हवींष्यस्मिन्किमाज्यं का च दक्षिणा। ऋत्विजश्चात्र क्रे प्रोक्तास्तन्मे ब्रूहि शतक्रतो।। | 12-98-40a 12-98-40b |
इन्द्र उवाच। | 12-98-41x |
ऋत्विजः कुञ्जरास्तत्र वाजिनोऽध्वर्यवस्तथा। हवींषि परमांसानि रुधिरं त्वाज्यमुच्यते।। | 12-98-41a 12-98-41b |
शृगालगृध्रकाकोलाः सदस्यास्तत्र पन्त्रिणः। आज्यशेषं पिबन्त्येते हविः प्राश्नन्ति चाध्वरे।। | 12-98-42a 12-98-42b |
प्रासतोमरसंघाताः खङ्गशक्तिपरश्वथाः। ज्वलन्तो निशिताः पीताः स्रुचस्तस्याथ सत्रिणः।। | 12-98-43a 12-98-43b |
चापवेगायतस्तीक्ष्णः परकायावभेदनः। ऋजुः सुनिशितः पीतः सायकश्च स्रुवो महान्।। | 12-98-44a 12-98-44b |
द्वीपिचर्मावनद्धश्च नागदन्तकृतत्सरुः। हस्तिहस्तहरः खङ्गः स्फयो भवेत्तस्य संयुगे।। | 12-98-45a 12-98-45b |
ज्वलितैर्निशितैः प्रासशक्त्यृष्टिसपरश्वथैः। शैक्यायसमयैस्तीक्ष्णैरभिघातो भवेद्वसु।। | 12-98-46a 12-98-46b |
[सङ्ख्यासमयविस्तीर्णमभिजातोद्भवं बहु।] आवेधाद्यच्च रुधिरं संग्रामे स्रवते भुवि। साऽस्य पूर्णाहुतिर्होत्रैः समृद्धा सर्वकामधुक्।। | 12-98-47a 12-98-47b 12-98-47c |
छिन्धि भिन्धीति यः शब्दः श्रूयते वाहिनीमुखे। सामानि सामगास्तस्य गायन्ति यमसादने।। | 12-98-48a 12-98-48b |
हविर्धानं तु तस्याहुः परेषां वाहिनीमुखम्।। | 12-98-49a |
कुञ्जराणां हयानां च वर्मिणां च समुच्चय। अग्निः श्येनचितो नाम यज्ञे तस्य विधीयते।। | 12-98-50a 12-98-50b |
उत्तिष्ठते कबन्धोऽत्र सहस्रे पतिते तु यः। स यूपस्तस्य शूरस्य खादिरोऽष्टाश्रिरुच्यते।। | 12-98-51a 12-98-51b |
इडोपहूताः क्रोशन्ति कुञ्जरास्त्वङ्कुशेरिताः। ज्याघुष्टतलतालेन वषट्कारेण पार्थिव।। | 12-98-52a 12-98-52b |
उद्गाता तत्र संग्रामे त्रिसामा दुन्दुभिर्नृप। ब्रह्मस्वे ह्रियमाणे तु त्यक्त्वा युद्धे प्रियां तनुम्। आत्मानं यूपमुच्छ्रित्य स यज्ञोऽनन्तदक्षिणः।। | 12-98-53a 12-98-53b 12-98-53c |
भर्तुरर्थे च यः शूरो निष्क्रामेद्वाहिनीमुखात्। न भयाद्विनिवर्तेत तस्य लोका यथा मम।। | 12-98-54a 12-98-54b |
द्वीपिचर्मावृतैः खङ्गैर्बाहुभिः परिघोपमैः। यस्य वेदिरुपस्तीर्णा तस्य लोका यथा मम।। | 12-98-55a 12-98-55b |
यस्तु नापेक्षते कंचित्सहायं विषमे स्थितः। विगाह्य वाहिनीमध्यं तस्य लोका यथा मम।। | 12-98-56a 12-98-56b |
यस्य शोणितसंघट्टा भेरीमण्डूककच्छपा। वीरास्थिशर्करा दुर्गा मांसशोणितकर्दमा।। | 12-98-57a 12-98-57b |
असिचर्मप्लवा घोरा केशशैवलशाद्वला। अश्वनागरथैश्चैव संछिन्नैः कृतसंक्रमा।। | 12-98-58a 12-98-58b |
पताकाध्वजवानीरा हतवाहनवारणा। शोणितोदकसंपूर्णा दुस्तरा पारगैर्नरैः।। | 12-98-59a 12-98-59b |
रहतनागमहानक्रा परलोकवहाऽशिवा। ऋष्टिखङ्गमहामीना गृध्रकङ्कबलप्लवा।। | 12-98-60a 12-98-60b |
पुरुषादानुचरिता भीरूणां कश्मलावहा। नदी योधस्य संग्रामे तदस्यावभृथं नृप।। | 12-98-61a 12-98-61b |
वेदिर्यस्य त्वमित्राणां शिरोभिर्व्यवकीर्यते। अश्वस्कन्धैर्गजस्कन्धैस्तस्य लोका यथा मम।। | 12-98-62a 12-98-62b |
पत्नी शालाकृता यस्य परेषां वाहिनीमुखम्। हविर्धानं स्ववाहिन्यास्तदस्याहुर्मनीषिणः।। | 12-98-63a 12-98-63b |
सदस्या दक्षिणा योधा आग्नीध्रश्चोत्तरां दिशम्। शत्रुसेना अलत्रस्य सर्वलोकानदूरतः।। | 12-98-64a 12-98-64b |
यस्य भयतो व्यूहे भवत्याकाशमग्रतः। सास्य वेदिस्तदा यज्ञैर्नित्यं व्यूहास्त्रयोऽग्नयः।। | 12-98-65a 12-98-65b |
यस्तु योधः परावृत्तः संत्रस्तो हन्यते परैः। अप्रतिष्ठः स नरकं याति नास्त्यत्र संशयः।। | 12-98-66a 12-98-66b |
यस्य शोणितवेगेण वेदिः स्यात्संपरिप्लुता। केशमांसास्थिसंपूर्णा स गच्छेत्परमां गतिम्।। | 12-98-67a 12-98-67b |
यस्तु सेनापतिं हत्वा तद्यानमधिरोहति। स विष्णुविक्रमक्रामी बृहस्पतिसमः प्रभुः।। | 12-98-68a 12-98-68b |
नायकं तत्कुमारं वा यो वा स्यात्तत्र पूजितः। जीवग्राहं प्रगृह्णाति तस्य लोका यथा मम।। | 12-98-69a 12-98-69b |
आहवे तु हतं शूरं न शोचेत कथंचन। अशोच्यो हि हतः शूरः स्वर्गलोके महीयते।। | 12-98-70a 12-98-70b |
न ह्यन्नं नोदकं तस्य न स्नानं नाप्यशौचकम्। हतस्य कर्तुमिच्छन्ति तस्य लोकाञ्शृणुष्व मे।। | 12-98-71a 12-98-71b |
वराप्सरः सहस्राणि शूरमत्योधने हतम्। त्वरमाणानि धावन्ति मम भर्ता भवेदिति।। | 12-98-72a 12-98-72b |
एतत्तपश्च पुण्यं च धर्मश्चैव सनातनः। चत्वारश्चाश्रमास्तस्य यो युद्धे न पलायते।। | 12-98-73a 12-98-73b |
वृद्धबालौ न हन्तव्यौ न च स्त्री नैव पृष्ठतः। तृणपूर्णमुखश्चैव तवास्मीति च यो वदेत्।। | 12-98-74a 12-98-74b |
अहं वृत्रं बलं पाकं महाकायं विरोचनम्। दुरावारं च नमुचिं शतमायं च शम्बरम्।। | 12-98-75a 12-98-75b |
विप्रचित्तिं च दैतेयं दनोः पुत्रांश्च सर्वशः। प्रह्वादं च निहत्याजौ ततो देवाधिपोऽभवम्।। | 12-98-76a 12-98-76b |
इत्येतच्छक्रवचनं निशम्य प्रतिपूज्य च। योधानामात्मनः सिद्धिमम्बरीषोऽभिपन्नवान्।। | 12-98-77a 12-98-77b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि अष्टनवतितमोऽध्यायः।। 98।। |
12-98-3 नाभागिः नाभागपुत्रः।। 12-98-38 यश्चान्योऽक्षत्रियोऽपि युध्यते नरस्तस्याप्ययं च यज्ञोऽस्ति।। 12-98-43 पीताः क्षारपानीयेन संभाविताः।। 12-98-45 स्फ्यः यागीयोपकरणविशेषः।। 12-98-46 शैक्यायसमयैः सर्वलोहमयैः। वसु यत्किंचिद्यज्ञियं द्रव्यम्।। 12-98-49 हविधानं हविषः स्थाप नस्थलम्।। 12-98-64 सदस्योत्तरयोधाग्निराग्नीध्रस्योत्तराथ दिक्। इति द. पाठः।। 12-98-68 बृहस्पतिसवः क्रतुः इति ड.द. पाठः।। 12-98-69 नायकं वा प्रमाणं वेति ड.द.पाठः।।
शांतिपर्व-097 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-099 |