महाभारतम्-12-शांतिपर्व-125
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आशानिरूपणं प्रार्थितेन भीष्मेण तदुपोद्धाततया ऋषभसुमित्रचरित्रकीर्तनारम्भः।। 1।। मृगयासक्तेन सुमित्रेण निजशरानुवेधे शरेण सह वनं प्रविष्टं मृगं प्रत्यनुधावनम्।। 2।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-125-1x |
शीलं प्रधानं पुरुषे कथितं ते पितामह। कथमाशा समुत्पन्ना का च सा तद्वदस्व मे।। | 12-125-1a 12-125-1b |
संशयो मे महानेष समुत्पन्नः पितामह। छेत्ता च तस्य नान्योऽस्ति त्वत्तः परपुरंजय।। | 12-125-2a 12-125-2b |
पितामहाशा महती ममासीद्धि सुयोधने। प्राप्ते युद्धे तु तद्युक्तं तत्कर्ताऽयमिति प्रभो।। | 12-125-3a 12-125-3b |
सर्वस्याशा सुमहती पुरुषस्योपजायते। स्यां विहन्यमानायां दुःखो मृत्युर्न संशयः।। | 12-125-4a 12-125-4b |
ऽहं हताशो दुर्बुद्धिः कृतस्तेन दुरात्मना। र्तराष्ट्रेण राजेन्द्र पश्य मन्दात्मतां मम।। | 12-125-5a 12-125-5b |
आशां बृहत्तरीं मन्ये पर्वतादपि सद्रुमात्। आकाशादपि वा राजन्नप्रमेयाऽथवा पुनः।। | 12-125-6a 12-125-6b |
एषा चैव कुरुश्रेष्ठ दुर्विचिन्त्या सुदुर्लभा। दुर्लभत्वाच्च पश्यामि किमन्यद्दुर्लभं ततः।। | 12-125-7a 12-125-7b |
भीष्म उवाच। | 12-125-8x |
अत्र ते वर्तयिष्यामि युधिष्ठिर निबोध मे। इतिहासं सुमित्रस्य निर्वृत्तमृषभस्य च।। | 12-125-8a 12-125-8b |
सुमित्रो नाम राजर्षिर्हैहयो मृगयां गतः। ससार च मृगं विद्ध्वा बाणेनानतपर्वणा।। | 12-125-9a 12-125-9b |
स मृगो बाणमादाय ययावतिपराक्रमः। स च राजा बली तूर्णं ससार मृगमन्तिकात्।। | 12-125-10a 12-125-10b |
ततो निम्नं स्थलं चैव समृगोऽद्रवदाशुगः। मुहूर्तमिव राजेन्द्र समेन स पथाऽगमत्।। | 12-125-11a 12-125-11b |
ततः स राजा तारुण्यादौरसन बलेन च। चचार बाणासनभृत्सखङ्गो हंसवत्तदा।। | 12-125-12a 12-125-12b |
ततो नदान्नदीश्चैव पल्वलानि वनानि च। अतिक्रम्याभ्यतिक्रम्य ससारैको वनेचरः।। | 12-125-13a 12-125-13b |
स तु तावन्मृगो राजन्नासाद्यासाद्य पार्थिवम्। पुनरभ्येति जवनो जवेन महता ततः।। | 12-125-14a 12-125-14b |
स तस्य बाणैर्बहुभिः समभ्यस्तो वनेचरः। प्रक्रीडन्निव राजेन्द्र पुनरभ्येति चान्तिकम्।। | 12-125-15a 12-125-15b |
पुनश्च जवमास्थाय जवनो मृगयूथपः। [अतीत्यातीत्य राजेन्द्र पुनरभ्येति चान्तिकम्।।] | 12-125-16a 12-125-16b |
तस्य मर्मच्छिदं घोरं सुमित्रोऽमित्रकर्शनः। समादाय शरं श्रेष्ठं कार्मुकान्निरवासयत्।। | 12-125-17a 12-125-17b |
[ततो गव्यूतिमात्रेण मृगयूथपयूथपः।] तस्य बाणपथं मुक्त्वा तस्थिवान्प्रहसन्निव।। | 12-125-18a 12-125-18b |
तस्मिन्निपतिते बाणे भूमौ ज्वलिततेजसि। प्रविवेश मृगोऽरण्यं मृगं राजाऽप्यभिद्रवत्।। | 12-125-19a 12-125-19b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि पञ्चविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 125।। |
12-125-3 युक्तं युद्धं विनैव राज्यार्धदानम्। कर्ता करिष्यति।। 12-125-7 दुर्लभा दुर्जया।। 12-125-12 बाणासनभृद्धनुर्धरः।। 12-125-15 समभ्यस्तो बिद्धः।।
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