महाभारतम्-12-शांतिपर्व-167
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति कृतघ्नमित्रद्रोहिलक्षणकथनाय दृष्टान्ततया गौतमकथाकथनारम्भः।। 1।। ब्राह्मणाधमेनकेनचिद्गौतमकुलजेन धनार्जनाय दस्युग्रामप्रवेशः।। 2।। तत्र केनचिद्दस्युवरेण भर्तृविरहितनारीसमर्पणादिना सत्कृतेन गौतमेन दस्युवृत्त्योपजीवनम्।। 3।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-167-1x |
विस्तरेणार्थसंबन्धं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः। मित्रद्रोही कृतघ्नश्च यः प्रोक्तस्तं च मे वद।। | 12-167-1a 12-167-1b |
भीष्म उवाच। | 12-167-2x |
हन्त ते वर्तयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम्। उदीच्यां दिशि यद्वृत्तं म्लेच्छेषु मनुजाधिप।। | 12-167-2a 12-167-2b |
ब्राह्मणो मध्यदेशीयः कृष्णाङ्गो ब्रह्मवर्जितः। ग्रामं दस्युगणाकीर्णं प्राविशद्धनतृष्णया।। | 12-167-3a 12-167-3b |
तत्र दस्युर्धनयुतः सर्ववर्णविशेषवित्। ब्रह्मण्यः सत्यसन्धश्च दाने च निरतोऽभवत्।। | 12-167-4a 12-167-4b |
तस्य क्षयमुपागम्य ततो भिक्षामयाचत। प्रतिश्रयं च वासार्थं भिक्षां चैवाथ वार्षिकीम्।। | 12-167-5a 12-167-5b |
प्रादात्तस्मै स विप्राय वस्त्रं च सदशं नवम्। नारीं चापि वयोपेतां भर्त्रा विरहितां तथा।। | 12-167-6a 12-167-6b |
एतत्संप्राप्य हृष्टात्मा गौतमोऽथ द्विजस्तथा। तस्मिन्गृहवरे राजंस्तया रेमे स गौतमः।। | 12-167-7a 12-167-7b |
कुटुस्बार्थं च दस्योश्च साहाय्यं चाप्यथाकरोत्। सोऽवसद्वर्षमेकं वै समृद्धे शबरालये।। | 12-167-8a 12-167-8b |
बाणवेधे परं यत्नमकरोच्चैव गौतमः। चक्राङ्गान्स च नित्यं वै सर्वतो वनगोचरान्। जघान गौतमो राजन्यथा दस्युगणास्तथा।। | 12-167-9a 12-167-9b 12-167-9c |
हिंसापटुर्घृणाहीनः सदा प्राणिवधे रतः। गौतमः सन्निकर्षेण दस्युभिः समतामियात्।। | 12-167-10a 12-167-10b |
तथा तु वसतस्तस्य दस्युग्रामे सुखं तदा। अगमन्बहवो मासा निघ्नतः पक्षिणो बहून्।। | 12-167-11a 12-167-11b |
ततः कदाचिदपरो द्विजस्तं देशमागतः। जटाचीराजिनधरः स्वाध्यायनिरतः शुचिः।। | 12-167-12a 12-167-12b |
विनीतो वेदशास्त्रेषु वेदान्तानां च पारगः। अदृश्यत ततस्तत्र सखा तस्यैव तु द्विजः। तं दस्युग्राममगमद्यत्रासौ गौतमोऽभवत्।। | 12-167-13a 12-167-13b 12-167-13c |
स तु विप्रगृहान्वेपी शूद्रान्नपरिवर्जकः। ग्रामे दस्युसमाकीर्णे व्यचरत्सर्वतो द्विजः।। | 12-167-14a 12-167-14b |
ततः स गौतमगृहं प्रविवेश द्विजोत्तमः। गौतमश्चापि संप्राप्तस्तावन्योन्येन संगतौ।। | 12-167-15a 12-167-15b |
चक्राङ्गभारस्कन्धं तं धनुष्पाणिं धृतायुधम्। रुधिरेणावसिक्ताङ्गं गृहद्वारमुपागतम्।। | 12-167-16a 12-167-16b |
तं दृष्ट्वा पुरुषादाभमपध्वस्तं क्षमागतम्। अभिज्ञाय द्विजो व्रीडन्निदं वाक्यमथाब्रवीत्।। | 12-167-17a 12-167-17b |
किमिदं कुरुपे मोहाद्विप्रस्त्वं हि कुलोद्भवः। मध्यदेशपरिज्ञातो दस्युभावं गतः कथम्।। | 12-167-18a 12-167-18b |
पूर्वान्स्मर द्विज ज्ञातीन्प्रख्यातान्वेदपारगान्। येषां वंशेऽभिजातस्त्वमीदृशः कुलपांसनः।। | 12-167-19a 12-167-19b |
अवबुध्यात्मनाऽऽत्मानं सत्वं शीलं श्रुतं दमम्। अनुक्रोशं च संस्मृत्य त्यज वासमिमं द्विज।। | 12-167-20a 12-167-20b |
स एवमुक्तः सुहृदा तेन तत्र हितैपिणा। प्रत्युवाच ततो राजन्विनिश्वस्य तदाऽऽर्तबत्।। | 12-167-21a 12-167-21b |
निर्धनोऽस्मि द्विजश्रेष्ठ नापि वेदविदप्यहम्। वित्तार्थमिह संप्राप्तं विद्धि मां द्विजसत्तम।। | 12-167-22a 12-167-22b |
त्वद्दर्शनात्तु विप्रेन्द्र कृतार्थोऽस्म्यद्य वै द्विज। अध्वानं सह यास्यावः श्वो वसस्वाद्य शर्वरीम्।। | 12-167-23a 12-167-23b |
स तत्र न्यवसद्विप्रो घृणी किंचिदसंस्पृशन्। क्षुधितश्छन्द्यमानोऽपि भोजनं नाभ्यनन्दत।। | 12-167-24a 12-167-24b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वनि आपद्धर्मपर्वणि सप्तषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 167।। |
12-167-3 ब्रह्म वेदस्तदुक्तं कर्म च तद्विवर्जितः ग्रामं वृद्धियुतं वीक्ष्य प्राविशद्भैक्ष्यकाङ्क्ष्येति झ. पाठः।। 12-167-5 क्षयं गृहम्।। 12-167-6 वयोपेतां युवतीम्। सन्धिरार्षः।। 12-167-9 चक्राङ्गान् हंसान्।।
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