महाभारतम्-12-शांतिपर्व-200
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति मनुबृहस्पतिसंवादानुवादः।। 1।।
मनुरुवाच। | 12-200-1x |
अक्षरात्खं ततो वायुस्ततो ज्योतिस्ततो जलम्। जलात्प्रसूता जगती जगत्या जायते जगत्।। | 12-200-1a 12-200-1b |
इमे शरीरैर्जलमेव गत्वा जलाच्च तेजः पवनान्तरिक्षम्। खाद्वै निवर्तन्ति न भाविनस्ते ये भाविनस्ते परमाप्नुवन्ति।। | 12-200-2a 12-200-2b 12-200-2c 12-200-2d |
नोष्णं न शीतं मृदु नापि तीक्ष्णं नाम्लं कषायं मधुरं न तिक्तम्। न शब्दवन्नापि च गन्धवत्त न्न रूपवत्तत्परमस्वभावम्।। | 12-200-3a 12-200-3b 12-200-3c 12-200-3d |
स्पर्शं तनुर्वेद रसं च जिह्वा घ्राणं च गन्धाञ्श्रवणे च शब्दान्। रूपाणि चक्षुर्नच तत्परं य द्गृह्णन्त्यनध्यात्मविदो मनुष्याः।। | 12-200-4a 12-200-4b 12-200-4c 12-200-4d |
निवर्तयित्वा रसनां रसेभ्यो घ्राणं च गन्धाच्छ्रवणे च शब्दात्। स्पर्शात्तनुं रूपगुणात्तु चक्षु स्ततः परं पश्यति तत्स्वभावम्।। | 12-200-5a 12-200-5b 12-200-5c 12-200-5d |
यतो गृहीत्वा हि करोति यच्च यस्मिंश्च यामारभते प्रवृत्तिम्। यस्मै च यद्येन च यश्च कर्ता यत्कारणं तं स्वमुपेयमाहुः।। | 12-200-6a 12-200-6b 12-200-6c 12-200-6d |
यद्वाऽप्यभूद्व्यापकं साधकं च यन्मन्त्रवत्स्थास्यति चापि लोके। यः सर्वहेतुः परमार्थकारी तत्कारणं कार्यमतो यदन्यत्।। | 12-200-7a 12-200-7b 12-200-7c 12-200-7d |
यथा हि कश्चित्सुकृतैर्मनुष्यः शुभाशुभं प्राप्नुते चाविरोधात्। एवं शरीरेषु शुभाशुभेषु स्वकर्मभिर्ज्ञानमिदं निवद्धम्।। | 12-200-8a 12-200-8b 12-200-8c 12-200-8d |
यथा प्रदीप्तः पुरतः प्रदीपः। प्रकाशमन्यस्य करोति दीप्यन्। तथेह पञ्चेन्द्रियदीपवृक्षा ज्ञानप्रदीप्ताः परवन्त एव।। | 12-200-9a 12-200-9b 12-200-9c 12-200-9d |
यथा च राज्ञो बहवो ह्यमात्याः पृथक् प्रमाणं प्रवदन्ति युक्ताः। तद्वच्छरीरेषु भवन्ति पञ्च ज्ञानैकदेशाः परमः स तेभ्यः।। | 12-200-10a 12-200-10b 12-200-10c 12-200-10d |
यथार्चिषोऽग्नेः पवनस्य वेगा मरीचयोऽर्कस्य नदीषु चापः। गच्छन्ति चायान्ति च संयताश्च तद्वच्छरीराणि शरीरिणां तु।। | 12-200-11a 12-200-11b 12-200-11c 12-200-11d |
यथा च कश्चित्परशुं गृहीत्वा धूमं न पश्येज्ज्वलनं च काष्ठे। तद्वच्छरीरोदरपाणिपादं छित्त्वा न पश्यन्ति ततो यदन्य।। | 12-200-12a 12-200-12b 12-200-12c 12-200-12d |
तान्येव काष्ठानि यथा विमथ्य धूमं च पश्येज्ज्वलनं च योगात्। तद्वत्सुबुद्धिः सममिन्द्रियार्थै र्बुद्धः परं पश्यति तत्स्वभावम्।। | 12-200-13a 12-200-13b 12-200-13c 12-200-13d |
यथात्मनोऽङ्गं पतितं पृथिव्यां स्वप्नान्तरे पश्यति चात्मनोऽन्यत्। श्रोत्रादियुक्तः सुमनाः सुबुद्धि र्लिङ्गात्तथा गच्छति लिङ्गमन्यत्।। | 12-200-14a 12-200-14b 12-200-14c 12-200-14d |
उत्पत्तिवृद्धिक्षयमसन्निपातै र्न युज्यतेऽसौ परमः शरीरी। अनेन लिङ्गेन तु लिङ्गमन्य द्गच्छत्यदृष्टः प्रतिसन्धियोगात्।। | 12-200-15a 12-200-15b 12-200-15c 12-200-15d |
न चक्षुषा पश्यति रूपमात्मनो न चापि संस्पर्शमुपैति किंचित्। न चापि तैः साधयते स्वकार्यं ते तं न पश्यन्ति स पश्यते तान्।। | 12-200-16a 12-200-16b 12-200-16c 12-200-16d |
यथा समीपे ज्वलतोऽनलस्य संतापजं रूपमुपैति कश्चित्। न चान्तरा रूपगुणं बिभर्ति तथैव तद्दृश्यते रूपमस्य।। | 12-200-17a 12-200-17b 12-200-17c 12-200-17d |
तथा मनुष्यः परिमुच्य काय मदृश्यमन्यद्विशते शरीरम्। विसृज्य भूतेषु महत्सु देहं तदाश्रयं चैव बिभर्ति रूपम्।। | 12-200-18a 12-200-18b 12-200-18c 12-200-18d |
खं वायुमग्निं सलिलं तथोर्वी समन्ततोऽभ्याविशते शरीरी। नान्याश्रयाः कर्मसु वर्तमानाः श्रोत्रादयः पञ्चगुणाञ्श्रयन्ते।। | 12-200-19a 12-200-19b 12-200-19c 12-200-19d |
श्रोत्रं नभो घ्राणमथो पृथिव्या स्तेजोमयं रूपमथो विपाकः। जलाश्रयं तेज उक्तं रसं च वाय्वात्मकः स्पर्शकृतो गुणश्च।। | 12-200-20a 12-200-20b 12-200-20c 12-200-20d |
महत्सु भूतेषु च सन्ति पञ्च पञ्चेन्द्रियार्थेषु तथेन्द्रियाणि। सर्वाणि चैतानि मनोनुगानि बुद्धिं मनोऽन्वेति मतिः स्वभावम्।। | 12-200-21a 12-200-21b 12-200-21c 12-200-21d |
शुभाशुभं कर्म कृतं यदस्य तदेव प्रेत्याददतेऽन्यदेहे। मनोऽनुवर्तन्ति परावराणि जलौकसः स्रोत इवानुकूलम्।। | 12-200-22a 12-200-22b 12-200-22c 12-200-22d |
चलं यथा दृष्टिपथं परैति सूक्ष्मं महद्रूपमिवावभाति। तातप्यमानो न पतेच्च धीरः परं तथा बुद्धिपथं परैति।। | 12-200-23a 12-200-23b 12-200-23c 12-200-23d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि द्विशततमोऽध्यायः।। 200।। |
12-200-13 पृथक्परं पश्यति तत्स्वभावमिति ड. पाठः।। 12-200-20 श्रोत्रं खत इति झ. पाठः। जलाश्रयः स्वेद उक्तो रसश्चेति ध. पाठः। जलाश्रयं ज्ञानमुक्तमिति ट. ड. थ. पाठः।। 12-200-23 स्वरूपमालोचयते च रूपमिति झ. पाठः।।
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