महाभारतम्-12-शांतिपर्व-201
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति मनुबृहस्पतिसंवादानुवादः।। 1।।
मनुरुवाच। | 12-201-1x |
यदिन्द्रियैस्तूपगतैः पुरस्ता त्प्राप्तान्गुणान्संस्मरते चिराय। तेष्विन्द्रियेषूपहतेषु पश्चा त्स बुद्धिरूपः परमः स्वभावः।। | 12-201-1a 12-201-1b 12-201-1c 12-201-1d |
य इन्द्रियार्थान्युगपत्समन्ता न्नावेक्षते कृत्स्नशस्तुल्यकालम्। यथाक्रमं संचरते स विद्वां स्तस्मात्स एकः परमः शरीरी।। | 12-201-2a 12-201-2b 12-201-2c 12-201-2d |
हुताशनं वायुरिवेन्धनस्थम्।। | 12-201-3f |
न चक्षुषा पश्यति रूपमात्मनो न पश्यति स्पर्शनमिन्द्रियेन्द्रियम्। न श्रोत्रलिङ्गं श्रवणेन दर्शनं तथा कृतं पश्यति तद्विनश्यति।। | 12-201-4a 12-201-4b 12-201-4c 12-201-4d |
श्रोत्रादीनि न पश्यन्ति स्वंस्वमात्मानमात्मना। सर्वज्ञः सर्वदर्शी च क्षेत्रज्ञस्तानि पश्यति।। | 12-201-5a 12-201-5b |
यथा हिमवतः पार्श्वे पृष्ठं चन्द्रमसो यथा। न दृष्टपूर्वं मनुजैर्न च तन्नास्ति तावता।। | 12-201-6a 12-201-6b |
तद्वद्भूतेषु भूतात्मा सूक्ष्मो ज्ञानात्मवानसौ। अदृष्टपूर्वश्चक्षुर्म्यां न चासौ नास्ति तावता।। | 12-201-7a 12-201-7b |
पश्यन्नपि यथा लक्ष्म जनः सोमेन विन्दति। एवमस्ति न चोत्पन्नं न च तन्न परायणम्।। | 12-201-8a 12-201-8b |
रूपवन्तमरूपत्वादुदयास्तमने बुधाः। धिया समनुपश्यन्ति तद्गताः सवितुर्गतिम्।। | 12-201-9a 12-201-9b |
तथा बुद्धिप्रदीपेन दूरस्थं सुविपश्चितः। प्रत्यासन्नं निषीदन्ति ज्ञेयं ज्ञानाभिसंहितम्।। | 12-201-10a 12-201-10b |
न हि स्वल्वनुपायेन कश्चिदर्थोऽभिसिद्ध्यति। सूत्रजालैर्यथा मत्स्यान्बध्नन्ति जलजीविनः।। | 12-201-11a 12-201-11b |
मृगैर्मृगाणां ग्रहणं पक्षिणां पक्षिभिर्यथा। गजानां च गजैरेव ज्ञेयं ज्ञानेन गृह्यते।। | 12-201-12a 12-201-12b |
अहिरेव ह्यहेः पादान्पश्यतीति निदर्शनम्। तद्वन्मूर्तिषु मूर्तिस्थं ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यति।। | 12-201-13a 12-201-13b |
नोत्सहन्ते यथा वेत्तुमिन्द्रियैरिन्द्रियाण्यपि। तथैवेह परा बुद्धिः परं बुद्ध्या न पश्यति।। | 12-201-14a 12-201-14b |
यथा चन्द्रो ह्यमावास्यामलिङ्गत्वान्न दृश्यते। न च नाशोऽस्य भवति तथा विद्धि शरीरिणम्।। | 12-201-15a 12-201-15b |
क्षीणकोशो ह्यमावास्यां चन्द्रमा न प्रकाशते। तद्वन्मूर्तिविमुक्तोऽसौ शरीरी नोपलभ्यते।। | 12-201-16a 12-201-16b |
यथा कोशान्तरं प्राप्य चन्द्रमा भ्राजते पुनः। तद्वल्लिङ्गान्तरं प्राप्य शरीरी भ्राजते पुनः।। | 12-201-17a 12-201-17b |
जन्म बुद्धिः क्षयश्चास्य प्रत्यक्षेणोपलभ्यते। सा तु चन्द्रमसो व्यक्तिर्न तु तस्य शरीरिणः।। | 12-201-18a 12-201-18b |
उत्पत्तिवृद्धिव्ययतो यथा स इति गृह्यते। चन्द्र एव त्वमावास्यां तथा भवति मूर्तिमान्।। | 12-201-19a 12-201-19b |
नाभिसर्पद्विमुञ्चद्वा शशिनं दृश्यते तमः। विसृजंश्चोपसर्पंश्च तद्वत्पश्य शरीरिणम्।। | 12-201-20a 12-201-20b |
यथा चन्द्रार्कसंयुक्तं तमस्तदुपलभ्यते। तद्वच्छरीरसंयुक्तं ज्ञानं तदुपलभ्यते।। | 12-201-21a 12-201-21b |
यथा चन्द्रार्कनिर्मुक्तः स राहुर्नोपलभ्यते। तद्वच्छरीरनिर्मुक्तः शरीरी नोपलभ्यते।। | 12-201-22a 12-201-22b |
यथा चन्द्रो ह्यमावास्यां नक्षत्रैर्युज्यते गतः। तद्वच्छरीरनिर्मुक्तः फलैर्युज्यति कर्मणः।। | 12-201-23a 12-201-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 201।। |
12-201-4 स्पर्शनमिन्द्रियाणामिति ध. पाठः।। 12-201-8 एवमस्ति नवेत्यन्यो न वेत्ति न परायणम् इति ध. पाठः।। 12-201-13 ज्ञानेन गृह्यते इति ट.ड.थ.पाठः।।
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