महाभारतम्-12-शांतिपर्व-215
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति वार्ष्णेयाध्यात्मानुवादः।। 1।।
गुरुरुवाच। | 12-215-1x |
रजसा साध्यते मोहस्तमश्च भरतर्षभ। क्रोधलोभौ भयं दर्प एतेषां सादनाच्छुचिः।। | 12-215-1a 12-215-1b |
परमं परमात्मानं देवमक्षयमव्ययम्। विष्णुमव्यक्तसंस्थानं विदुस्तं देवसत्तमम्।। | 12-215-2a 12-215-2b |
तस्य मायापिनद्धाङ्गा ज्ञान भ्रष्टा निराशिषः। मानवा ज्ञानसंमोहात्ततः कामं प्रयान्ति वै।। | 12-215-3a 12-215-3b |
कामात्क्रोधमवाप्याथ लोभमोहौ च मानवाः। मानदर्पावहंकारमहंकारात्ततः क्रियाः।। | 12-215-4a 12-215-4b |
क्रियाभिः स्नेहसंबन्धः स्नेहाच्छोकमनन्तरम्। अथ दुःखसमारम्भा जराजन्मकृतक्षणाः।। | 12-215-5a 12-215-5b |
जन्मतो गर्भवासं तु शुक्रशोणितसंभवम्। पुरीषमूत्रविक्लेदं शोणितप्रभवाविलम्।। | 12-215-6a 12-215-6b |
तृष्णाभिभूतस्तैर्वद्धस्तानेवाभिपरिप्लवन्। ` तथा नरकगर्तस्थस्तृष्णारज्जुभिराचितः। पुण्यपापप्रणुन्नाङ्गो जायते स यथा कृमिः।। | 12-215-7a 12-215-7b 12-215-7c |
मशकैर्मत्कुणैर्दष्टस्तथा चित्रवधार्दितः। नानाव्याधिभिराकीर्णः कथंचिद्यौवनं गतः।। | 12-215-8a 12-215-8b |
कूर्मोत्सृजति भूयश्च रज्जुः स्वस्वमुखेप्सया। योषितं नरकं गृह्य जन्मकर्मवशानुगः।। | 12-215-9a 12-215-9b |
पुरक्षेत्रनिमित्तं यद्दुःखं वक्तुं न शक्यते। कस्तत्र निन्दकश्चैव नरके पच्यते भृशम्।। | 12-215-10a 12-215-10b |
वार्धक्यमनुलङ्घेत तत्र कर्मारभेत्पुनः। भगवान्संस्तुतः पश्चात्किं प्रवक्ष्यामि ते भृशम्'।। | 12-215-11a 12-215-11b |
संसारतन्त्रवाहिन्यस्तत्र बुद्ध्येत योषितः। प्रकृत्याः क्षेत्रभूतास्ता नराः क्षेत्रज्ञलक्षणाः। तस्मादेवाविशेषेण नरोऽतीयाद्विशेषतः।। | 12-215-12a 12-215-12b 12-215-12c |
कृत्या ह्येता घोररूपा मोहयन्त्यविचक्षणान्। रजस्यन्तर्हिता मूर्तिरिन्द्रियाणां सनातनी।। | 12-215-13a 12-215-13b |
तस्मात्तर्षात्मकाद्रागाद्बीजाज्जायन्ति जन्तवः। स्वदेहजानस्वसंज्ञान्यद्वदङ्गात्कृमींस्त्यजेत्। स्वसंज्ञानस्वकांस्तद्वत्सुतसंज्ञान्कृमींस्त्यजेत्।। | 12-215-14a 12-215-14b 12-215-14c |
शुक्रतो रसतश्चैव देहाज्जायन्ति जन्तवः। स्वभावात्कर्मयोगाद्वा तानुपेक्षेत बुद्धिमान्।। | 12-215-15a 12-215-15b |
रजस्तमसि पर्यस्तं सत्वं च रजसि स्थितम्। ज्ञानाधिष्ठानमज्ञानं बुद्ध्यंहंकारलक्षणम्।। | 12-215-16a 12-215-16b |
तद्बीजं देहिनामाद्दुस्तद्बीजं जीवसंज्ञितम्। कर्मणा कालयुक्तेन संसारपरिवर्तनम्।। | 12-215-17a 12-215-17b |
रमत्ययं यथा स्वप्ने मनसा देहवानिव। कर्मगर्भैर्गुणैर्देही गर्भे तदुपलभ्यते।। | 12-215-18a 12-215-18b |
कर्मणा बीजभूतेन चोद्यते यद्यदिन्द्रियम्। जायते तदहंकाराद्रागयुक्तेन चेतसा।। | 12-215-19a 12-215-19b |
शब्दरागाच्छ्रोत्रमस्य जायते भावितात्मनः। रूपरागात्तथा चक्षुर्घ्राणं गन्धजिघृक्षया।। | 12-215-20a 12-215-20b |
संस्पर्शेभ्यस्तथा वायुः प्राणापानव्यपाश्रयः। व्यानोदानौ समानश्च पञ्चधा देहयापनम्।। | 12-215-21a 12-215-21b |
संजातैर्जायते गात्रैः कर्मजैर्ब्रह्मणा वृतः। दुःखाद्यन्तैर्दुःखमध्यैर्नरः शारीरमानसैः।। | 12-215-22a 12-215-22b |
दुःखं विद्यादुपादानादभिमानाच्च वर्धते। त्यागात्तेभ्यो निरोधः स्यान्निरोधज्ञो विमुच्यते।। | 12-215-23a 12-215-23b |
इन्द्रियाणां रजस्येव प्रलयप्रभवावुभौ। परीक्ष्य संचरेद्विद्वान्यथावच्छास्त्रचक्षुषा।। | 12-215-24a 12-215-24b |
ज्ञानेन्द्रियाणीन्द्रियार्थान्नोपसर्पन्त्यतर्षुलम्। ज्ञानैश्च करणैर्देही न देहं पुननर्हति।। | 12-215-25a 12-215-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 215।। |
12-215-12 तस्मादेव विशेषेण विनश्येयुर्विपश्चितः इति थ. पाठः। तस्मादेता विशेषेण नरा नैयुर्विपश्चितः इति थ. पाठः।। 12-215-13 शत्रुमारणार्थं मन्त्रमयी शक्तिः कृत्या सैव एताः।। 12-215-14 स्नहोज्जायन्ति जन्तव इति थ. ध. पाठः।। 12-215-17 तद्वीजं वीजसंज्ञितमिति ध. पाठः। तत्संस्थं देहबन्धनमिति थ. पाठः। तज्ज्ञानं जीवसंस्थितमिति ट. पाठः।।
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