महाभारतम्-12-शांतिपर्व-257
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति साधनसामग्रीप्रतिपादकव्यासवाक्यानुवादः।। 1।।
व्यास उवाच। | 12-257-1x |
#NAME? | 12-257-1a 12-257-1b 12-257-1c |
----नधीयीत शुश्रूषुर्ब्रह्मचर्यवान्। ऋवो यजूंषि सामानि वेदवेदाङ्गपारगः।। | 12-257-2a 12-257-2b |
ज्ञानी यः सर्वभूतानां सर्ववित्सर्वभूतवित्। नाकामो म्रियते जातु-------------।। | 12-257-3a 12-257-3b |
इष्टी------श्राप्य क्रतूश्चवाप्तदाक्षणान्। प्राप्नोति नैव ब्राह्मण्यमविज्ञानात्कथंचन।। | 12-257-4a 12-257-4b |
यदा चायं न बिभेति यदा चास्मान्न बियति। यदा नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म संपद्यते तदा।। | 12-257-5a 12-257-5b |
यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु पापकम्। कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म संपद्यते तदा।। | 12-257-6a 12-257-6b |
कामबन्धनमेवेदं नान्यदस्तीह बन्धनम्। कामबन्धनमुक्तो हि ब्रह्मभूयाय कल्पते।। | 12-257-7a 12-257-7b |
कामतो मुच्यमानस्तु धूमाभ्रादिव चन्द्रमाः। विरजाः कालमाकाङ्क्षन्धीरो धैर्येण वर्तते।। | 12-257-8a 12-257-8b |
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्। तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामः।। | 12-257-9a 12-257-9b 12-257-9c 12-257-9d |
क कामकान्तो न तु कामकामः स वै कामात्स्वर्गमुपैति देही।। | 12-257-10a 12-257-10b |
वेदस्योपनिषद्दानं दानस्योपनिषद्दमः। दमस्योपनिषद्दानं दानस्योपनिषत्तपः।। | 12-257-11a 12-257-11b |
तपसोपनिषत्त्यागस्त्यागस्योपनिषत्सुखम्। सुखस्योपनिषत्स्वर्गः स्वर्गस्योपनिषच्छमः।। | 12-257-12a 12-257-12b |
क्लेदनं शोकमनसोः संतीर्णं तृष्णया सह। सत्वमृच्छति संतोपाच्छान्तिलक्षणमुत्तमम्।। | 12-257-13a 12-257-13b |
विशोको निर्ममः शांतः प्रशांतात्माऽत्मविच्छुचिः। पङ्गिर्लक्षणवानेतैः समग्रः पुनरेष्यति।। | 12-257-14a 12-257-14b |
पङ्भिः सत्वगुणोपेतैः प्राज्ञैरधिगतं त्रिभिः। ये विदुः प्रत्यगात्मानमिहस्थानमृतान्विदुः।। | 12-257-15a 12-257-15b |
अकृत्रिममसंहार्यं प्राकृतं निरुपस्कृतम्। अध्यात्मवित्कृतप्रज्ञः सुखमव्ययमश्नुते।। | 12-257-16a 12-257-16b |
निष्प्रचारं मनः कृत्वा प्रतिष्ठाप्य च सर्वशः। यामयं लभते तुष्टिं सा न शक्याऽऽत्मनोन्यथा।। | 12-257-17a 12-257-17b |
येन तृप्यत्यभुञ्जानो येन तृप्यत्यवित्तवान्। येनास्नेहो बलं धत्ते यस्तं वेद स वेदवित्।। | 12-257-18a 12-257-18b |
असङ्गो ह्यात्मनो द्वाराण्यपिधाय विचिन्तयन्। यो ह्यास्ते ब्राह्मणः शिष्टः स आत्मरतिरुच्यते।। | 12-257-19a 12-257-19b |
समाहितं परे तत्त्वे क्षीणकाममवस्थितम्। सर्वतः सुखमन्वेति वपुश्चान्द्रमसं यथा।। | 12-257-20a 12-257-20b |
अविशेषाणि भूतानि गुणांश्च जहतो मुनेः। सुखेनापोह्यते दुःखं भास्करेण तमो यथा।। | 12-257-21a 12-257-21b |
तमतिक्रान्तकर्माणमतिक्रान्तगुणक्षयम्। ब्राह्मणं विपयाश्लिष्टं जरामृत्यू न विन्दतः।। | 12-257-22a 12-257-22b |
स यदा सर्वतो मुक्तः समः पर्यवतिष्ठते। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थांश्च शरीरस्थोऽतिवर्तते।। | 12-257-23a 12-257-23b |
कारणं परमं प्राप्य अतिक्रान्तस्य कार्यताम्। पुनरावर्तनं नास्ति संप्राप्तस्य परात्परम्।। | 12-257-24a 12-257-24b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि सप्तपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 257।। |
12-257-9 सकामकामो नतु कामकामः स वै लोकं स्वर्गमुपैति देहीति ट. ड. पाठः।। 12-257-16 अध्यात्मसुकूतप्रज्ञमिति ट.ड. पाठः।।
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