महाभारतम्-12-शांतिपर्व-263
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स्थाणुवचनाद्ब्रह्मणा लोकदाहककोपाग्नेरन्तर्नियमनम्।। 1।। तथा स्वचक्षुरादीन्द्रियेभ्यो जातां मृत्युदेवींप्रति प्रजासंहारे नियोजनम्।। 2।।
स्थाणुरुवाच। | 12-263-1x |
प्रजासर्गनिमित्तं मे कार्यवत्तामिमां प्रभो। विद्धि सृष्टास्त्वया हीमा मा कुप्यासां पितामह।। | 12-263-1a 12-263-1b |
तव तेजोग्निना देव प्रजा दह्यन्ति सर्वशः। ता दृष्ट्वा मम कारुण्यं मा कुप्यासां जगत्प्रभो।। | 12-263-2a 12-263-2b |
प्रजापतिरुवाच। | 12-263-3x |
न कुप्ये न च मे कामो नभवेयुः प्रजा इति। लाघवार्थं धरण्यास्तु ततः संहार इष्यते।। | 12-263-3a 12-263-3b |
इयं हि मां सदा देवी भारार्ता समचोदयत्। संहारार्थं महादेव भारेणाप्सु निमज्जती।। | 12-263-4a 12-263-4b |
यदाऽहं नाधिगच्छामि बुद्ध्या बहु विचारयन्। संहारमासां वृद्धानां ततो मां क्रोध आविशत्।। | 12-263-5a 12-263-5b |
स्थाणुरुवाच। | 12-263-6x |
संहारात्त्वं निवर्तस्य मा क्रुधो विवुधेश्वर। मा प्रजाः स्थावरं चैव जङ्गमं च व्यनीनशः।। | 12-263-6a 12-263-6b |
पल्वलानि च सर्वाणि सर्वं चैव तृणीलपम्। स्थावरं जङ्गमं चैव भूतग्रामं चतुर्विधम्।। | 12-263-7a 12-263-7b |
अकाले भस्मसाद्भूतं जगत्सर्वमुपप्लुतम्। प्रसीद भगवन्साधो वर एष वृतो मया।। | 12-263-8a 12-263-8b |
नष्टा न पुनरेष्यन्ति प्रजा ह्येताः कथंचन। तस्मान्निवर्ततामेतत्तेन स्वेनेव तेजसा।। | 12-263-9a 12-263-9b |
उपायमन्यं संपश्य भूतानां हितकाम्यया। यथामी जन्तवः सर्वे न दह्येरन्पितामह।। | 12-263-10a 12-263-10b |
अभावं हि न गच्छेयुरुत्सन्नप्रजनाः प्रजाः। `पुत्रत्वेनानुसंकल्प्ये तदाऽहं तप्य दानवैः।' अधिदैवे नियुक्तोस्मि त्वया लोकहितेप्सुना।। | 12-263-11a 12-263-11b 12-263-11c |
त्वद्भवं हि जगन्नाथ एतत्स्थावरजङ्गमम्। प्रसाद्य त्वां महादेव याचाम्यावृत्तिजाः प्रजाः।। | 12-263-12a 12-263-12b |
नारद उवाच। | 12-263-13x |
श्रुत्वा तु वचनं देवः स्थाणोर्नियतवाङ्भनाः। तेजस्तत्सन्निजग्राह पुनरेवान्तरात्मनि।। | 12-263-13a 12-263-13b |
ततोऽग्निमुपसंगृह्य भगवाँल्लोकपूजितः। प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कल्पयामास वै प्रभुः।। | 12-263-14a 12-263-14b |
उपसंहरतस्तस्य तमग्निं रोषजं तदा। प्रादुर्बभूव विश्वेभ्यः खेभ्यो नारी महात्मनः।। | 12-263-15a 12-263-15b |
कृष्णरक्ताम्बरधरा कृष्णनेत्रतलान्तरा। दिव्यकुण्डलसंपन्ना दिव्याभरणभूषिता।। | 12-263-16a 12-263-16b |
सा विनिःसृत्य वै खेभ्यो दक्षिणामाश्रिता दिशम्। ददृशाते च तां कन्यां देवौ विश्वेश्वरावुभौ।। | 12-263-17a 12-263-17b |
तामाहूय तदा देवो लोकानामादिरीश्वरः। मृत्यो इति महीपाल जहि चेमाः प्रजा इति।। | 12-263-18a 12-263-18b |
त्वं हि संहारबुद्ध्या मे चिन्तिता रुषितेन च। तस्मात्संहर सर्वास्त्वं प्रजाः सजडपण्डिताः।। | 12-263-19a 12-263-19b |
अविशेषेण चैव त्वं प्रजाः संहर कामिनि। मम त्वं हि नियोगेन श्रेयः परमवाप्स्यसि।। | 12-263-20a 12-263-20b |
एवमुक्ता तु या देवी मृत्युः कमलमालिनी। प्रदध्यौ दुःखिता बाला साश्रुपातमतीव च।। | 12-263-21a 12-263-21b |
पाणिभ्यां चैव जग्राह तान्यश्रूणि जनेश्वरः। मानवानां हितार्थाय ययाचे पुनरेव ह।। | 12-263-22a 12-263-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि त्रिषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 263।। |
12-263-1 कार्यवत्तामर्थित्वम्। मा कुप्य कोपं मा कुरु। आसां आसु।। 12-263-3 नभवेयुर्नश्येयुः।। 12-263-7 उलयं तृणविशेषः।। 12-263-10 निवर्तेरन्परंतपेति ध. पाठः थ. ध. पाठः।। 12-263-11 अधिदैवे अहंकाराधिष्ठातृत्वे।। 12-263-12 आवृत्तिजाः प्रजा याचामि याचे। आवृत्त्या जाताः। मृत्वा मृत्वा पुनर्जायन्तामित्यर्थः।। 12-263-13 संनिजग्राह संहृतवान्।। 12-263-14 प्रवृत्तिं जन्म। निवृत्तिं मरणम् अनेन नात्यन्तं प्रजानामुच्छेदो नाप्यत्यन्तं भूमेर्भार इति दर्शितम्।। 12-263-17 उभौ ब्रह्मरुद्रौ।। 12-263-22 मृत्योरश्रुपातेयुगपत् सर्वभूतक्षयो माभूदिति भावः।।
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