महाभारतम्-12-शांतिपर्व-314
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति श्रेयःसाधनधर्मप्रतिपादकजनकानुशासनानुवादः।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-314-1x |
मृगयां विचरन्कश्चिद्विजने जनकात्मजः। वने ददर्श विप्रेन्द्रमृषिं वंशधरं भृगोः।। | 12-314-1a 12-314-1b |
तमासीनमुपासीनः प्रणम्य शिरसा मुनिम्। पश्चादनुमतस्तेन पप्रच्छ वसुमानिदम्।। | 12-314-2a 12-314-2b |
भगवन्किमिदं श्रेयः प्रेत्य चापीह वा भवेत्। पुरुषस्याध्रुवे देहे कामस्य वशवर्तिनः।। | 12-314-3a 12-314-3b |
सत्कृत्य परिपृष्टः सन्सुमहात्मा महातपाः। निजगाद ततस्तस्मै श्रेयस्करमिदं वचः।। | 12-314-4a 12-314-4b |
ऋषिरुवाच। | 12-314-5x |
मनसः प्रतिकूलानि प्रेत्य चेह नचेच्छसि। भूतानां प्रतिकूलेभ्यो निवर्तस्य यतेन्द्रियः।। | 12-314-5a 12-314-5b |
धर्मः सदा हितः पुंसां धर्मश्चैवाश्रयः सताम्। धर्माल्लोकास्त्रयस्तात प्रवृत्ताः सचराचराः।। | 12-314-6a 12-314-6b |
स्वादुकामुक कामानां वैतृष्ण्यं किं न गच्छसि। मधु पश्यसि दुर्बुद्धे प्रपातं नानुपश्यसि।। | 12-314-7a 12-314-7b |
यथा ज्ञाने परिचयः कर्तव्यस्तत्फलार्थिना। तथा धर्मे परिचयः कर्तव्यस्तत्फलार्थिना।। | 12-314-8a 12-314-8b |
असता धर्मकामेन विशुद्धं कर्म दुष्करम्। सता तु धर्मकामेन सुकरं कर्म दुष्करम्।। | 12-314-9a 12-314-9b |
वने ग्राम्यसुखाचारो यथाग्राम्यस्तथैव सः। ग्रामे वनसुखाचारो यथा वनचरस्तथा।। | 12-314-10a 12-314-10b |
मनोवाक्कर्मगे धर्मे कुरु श्रद्धां समाहितः। निवृत्तौ वा प्रवृत्तौ वा संप्रधार्य गुणागुणान्।। | 12-314-11a 12-314-11b |
नित्यं च बहु दातव्यं साधुभ्यश्चानसूयता। प्रार्थितं ब्राह्मणेभ्यश्च सत्कृतं देशकालयोः।। | 12-314-12a 12-314-12b |
शुभेन विधिना लब्धमर्हाय प्रतिपादयेत्। क्रोधमुत्सृज्य दत्त्वाऽथ नानुतप्येन्न कीर्तयेत्।। | 12-314-13a 12-314-13b |
अनृशंसः शुचिर्दान्तः सत्यवागार्जवे स्थितः। योनिकर्मविशुद्धश्च पात्रं स्याद्वेदविद्द्विजः।। | 12-314-14a 12-314-14b |
संस्कृता चैकपत्नी च जात्या योनिरिहेष्यते। ऋग्यजुःसामगो विद्वान्षट्कर्मा पात्रमुच्यते।। | 12-314-15a 12-314-15b |
स एव धर्मः सोऽधर्मस्तं तं प्रति नरं भवेत्। पात्राकर्मविशेषेण देशकालाववेक्ष्य च।। | 12-314-16a 12-314-16b |
लीलयाऽल्पं यथा गात्रात्प्रमृज्यात्तु रजः पुमान्। बहुयत्नेन च महत्पापनिर्हरणं तथा।। | 12-314-17a 12-314-17b |
विरिक्तस्य यथा सम्यग्घृतं भवति भेषजम्। तथा निर्हृतदोषस्य प्रेत्य धर्मः सुखावहः।। | 12-314-18a 12-314-18b |
मानसं सर्वभूतेषु वर्तते वै शुभाशुभम्। अशुभेभ्यः समाक्षिप्य शुभेष्वेवावधारय।। | 12-314-19a 12-314-19b |
सर्वं सर्वेणा सर्वत्र क्रियमाणं च पूजय। स्वधर्मे यत्र रागस्ते कामं धर्मो विधीयताम्।। | 12-314-20a 12-314-20b |
अधृतात्मन्धृतौ तिष्ठ दुर्बद्धे बुद्धिमान्भव। अप्रशान्तः प्रशाम्य त्वमप्राज्ञः प्राज्ञवच्चर।। | 12-314-21a 12-314-21b |
तेजसा शक्यते प्राप्तुमुपायः सहचारिणा। इह च प्रेत्य च श्रेयस्तस्य मूलं धृतिः परा।। | 12-314-22a 12-314-22b |
राजर्षिरधृतिः स्वर्गात्पतितो हि महाभिषः। ययातिः क्षीणपुण्योपि धृत्या लोकानवाप्तवान्।। | 12-314-23a 12-314-23b |
तपस्विनां धर्मवतां विदुषां चोपसेवनात्। प्राप्स्यसे विपुलां बुद्धिं तथा श्रेयोऽभिपत्स्यसे।। | 12-314-24a 12-314-24b |
भीष्म उवाच। | 12-314-25x |
स तु स्वभावसंपन्नस्तच्छ्रुत्वा मुनिभाषितम्। विनिवर्त्य मनः कामाद्धर्मे बुद्धिं चकार ह।। | 12-314-25a 12-314-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि चतुर्दशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 314।। |
12-314-5 वैतृष्णं को न गच्छति इति ध. पाठः। किं न पृच्छसीति थ. पाठः।। 12-314-15 एकस्यैव पत्नी एकपत्नी नत्वन्यपूर्वा। जात्याः पुत्रोत्पत्तेः योनिः स्यतानम्।।
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