महाभारतम्-12-शांतिपर्व-354
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नरनारायणाभ्यां नारदाय श्रीभगवन्महिमानुवर्णनम्।। 1।।
वदर्थाश्रमे नरादेन चिरतरं तपश्चर्या।। 2।।
नरनारायणावूचतुः। | 12-354-1x |
धन्योस्यनुगृहीतोसि यत्ते दृष्टः स्वयंप्रभुः। न हि तं दृष्टवान्कश्चित्पद्मयोनिरपि स्वयम्।। | 12-354-1a 12-354-1b |
अव्यक्तयोनिर्भगवान्दुर्दर्शः पुरुषोत्तमः। नारदैतद्धि नौ सत्यं वचनं समुदाहृतम्।। | 12-354-2a 12-354-2b |
नास्य भक्तात्प्रियतरो लोके कश्चन विद्यते। ततः स्वयं दर्शितवान्स्वमात्मानं द्विजोत्तम।। | 12-354-3a 12-354-3b |
तपो हि तप्यतस्तस्य यत्स्थानं परमात्मनः। न तत्संप्राप्नुते कश्चिदृते ह्यावां द्वितोत्तम।। | 12-354-4a 12-354-4b |
या हि सूर्यसहस्रस्य समस्तस्य भवेद्द्युतिः। स्थानस्य सा भवेत्तस्य स्वयं तेन विराजता।। | 12-354-5a 12-354-5b |
तस्मादुत्तिष्ठते विप्र देवाद्विश्वभुवः पतेः। क्षमा क्षमावतां श्रेष्ठ यया भूमिस्तु युज्यते।। | 12-354-6a 12-354-6b |
तस्माच्चोत्तिष्ठते देवात्सर्वभूतहिताद्रसः। आपो हि तेन युज्यन्ते द्रवत्वं प्राप्नुवन्ति च।। | 12-354-7a 12-354-7b |
तस्मादेव समुद्भूतं तेजो रूपगुणात्मकम्। येन संयुज्यते सूर्यस्ततो लोके विराजते।। | 12-354-8a 12-354-8b |
तस्माद्देवात्समुद्भूतः स्पर्शस्तु पुरुषोत्तमात्। येन स्म युज्यते वायुस्ततो लोकान्विवात्यसौ।। | 12-354-9a 12-354-9b |
तस्माच्चोत्तिष्ठते शब्दः सर्वलोकेश्वरात्प्रभोः। आकाशं युज्यते येन ततस्तिष्ठत्यसंवृतम्।। | 12-354-10a 12-354-10b |
तस्माच्चोत्तिष्ठते देवात्सर्वभूतगतं मनः। चन्द्रमा येन संयुक्तः प्रकाशगुणधारणः।। | 12-354-11a 12-354-11b |
सद्भूतोत्पादकं नाम तत्स्थानं वेदसंज्ञितम्। विद्यासहायो यत्रास्ते भगवान्हव्यकव्यभुक्।। | 12-354-12a 12-354-12b |
ये हि निष्कल्मषा लोके पुण्यपापविवर्जिताः। तेषां वै क्षेममध्वानं गच्छतां द्विजसत्तम।। | 12-354-13a 12-354-13b |
सर्वलोके तमोहन्ता आदित्यो द्वारमुच्यते। ` ज्वालामाली महातेजा येनेदं धार्यते जगत्।।' | 12-354-14a 12-354-14b |
आदित्यदग्धसर्वाङ्गा अदृश्याः केनचित्क्वचित्। परमाणुभूता भूत्वा तु तं देवं प्रविशन्त्युत।। | 12-354-15a 12-354-15b |
तस्मादपि च निर्मुक्ता अनिरुद्धतनौ स्थिताः। मनोभूतास्ततो भूत्वा प्रद्युम्नं प्रविशन्त्युत।। | 12-354-16a 12-354-16b |
प्रद्युम्नाच्चापि निर्मुक्ता जीवं संकर्षणं ततः। विशन्ति विप्रप्रवराः साङ्ख्या भागवतैः सह।। | 12-354-17a 12-354-17b |
ततस्त्रैगुण्यहीनास्ते परमात्मानमञ्जसा। प्रविशन्ति द्विजश्रेष्ठाः क्षेत्रज्ञं निर्गुणात्मकम्। सर्वावासं वासुदेवं क्षेत्रज्ञं विद्धि तत्त्वतः।। | 12-354-18a 12-354-18b 12-354-18c |
समाहितमनस्काश्च नियताः संयतेन्द्रियाः। एकान्तभावोपगता वासुदेवं विशन्ति ते।। | 12-354-19a 12-354-19b |
आवामपि च धर्मस्य गुहे जातौ द्विजोत्तम। रम्यां विशालामाश्रित्य तप उग्रं समास्थितौ।। | 12-354-20a 12-354-20b |
ये तु तस्यैव देवस्य प्रादुर्भावाः सुरप्रियाः। भविष्यन्ति त्रिलोकस्थास्तेषां स्वस्तीत्यथो द्विज।। | 12-354-21a 12-354-21b |
विधिना स्वेन युक्ताभ्यां यथापूर्वं द्विजोत्तम। आस्थिताभ्यां सर्वकृच्छ्रं व्रतं सम्यगनुत्तमम्।। | 12-354-22a 12-354-22b |
`स्वार्थेन विधिना युक्तः सर्वकृच्छ्रव्रते स्थितः।' आवाभ्यामपि दृष्टस्त्वं श्वेतद्वीपे तपोधन।। | 12-354-23a 12-354-23b |
समागतो भगवता संकल्पं कृतवांस्तथा। सर्वं हि नौ संविदितं त्रैलोक्ये सचराचरे।। | 12-354-24a 12-354-24b |
यद्भविष्यति वृत्तं वा वर्तते वा शुभाशुभम्। सर्वं स ते कथितवान्देवदेवो महामुने।। | 12-354-25a 12-354-25b |
वैशंपायन उवाच। | 12-354-26x |
एतच्छ्रुत्वा तयोर्वाक्यं तपस्युग्रे च वर्ततोः। नारदः प्राञ्जलिर्भूत्वा नारायणपरायणः।। | 12-354-26a 12-354-26b |
जजाप विधिवन्मन्त्रान्नारायणगतान्बहून्। दिव्यं वर्षसहस्रं हि नरनारायणाश्रमे।। | 12-354-27a 12-354-27b |
अवसत्स महातेजा नारदो भगवानृषिः। तावेवाभ्यर्चयन्देवौ नरनारायणौ च तौ।। | 12-354-28a 12-354-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नारायणीये चतुःपञ्चादशधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 354।। |
12-354-2 आकाशयोनिर्भगवानिति ध. पाठः।। 12-354-7 सर्वभूतहितोरस इति थ. पाठः।। 12-354-15 परमाण्वात्मभूतास्तु तं देशं प्रतिसन्त्युतेति थ. पाठः।। 12-354-17 विप्रप्रवरास्तेषां शुद्धा गतिर्हिसेति ध. पाठः।। 12-354-20 विशालां बदरीम्।।
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