महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-055
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कृष्णेनोदङ्काय विश्वरूपप्रदर्शनपूर्वकं पिपासाकाले जललाभरूपवरदानम्।। 1 ।।
कृष्णेनोदङ्कायामृतदानं चोदितेनेन्द्रेण कदाचिद्वनमध्ये पिपासुमुदङ्कंप्रति चण्डालवेषेण जलस्वीकारप्रार्थने उदङ्केन चण्डालत्वबुद्ध्या तदधिक्षेपः।। 2 ।।
पश्चात्तस्य तिरोधानेन परितप्यन्तमुदङ्कंप्रति तत्र संनिहितेन कृष्णेनेन्द्रकृतवञ्चनानिवेदनपूर्वकं मरुप्रदेशे जललाभरूपवरदानम्।। 3 ।।
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उदङ्क उवाच। | 14-55-1x |
अभिजानामि जगतः कर्तारं त्वां जनार्दन। नूनं भवत्प्रसादोऽयमिति मे नास्ति संशयः।। | 14-55-1a 14-55-1b |
चित्तं च सुप्रसन्नं मे त्वद्भावगतमच्युत। विनिवृत्तश्च मे कोप इति विद्धि परंतप।। | 14-55-2a 14-55-2b |
यदि त्वनुग्रहं कञ्चित्त्वत्तोऽर्हामि जनार्दन। द्रष्टुमिच्छामि ते रूपं वैष्णवं तन्निदर्शय।। | 14-55-3a 14-55-3b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-55-4x |
ततः स तस्मै प्रीतात्मा दर्शयामास तद्वपुः। शाश्वतं वैष्णवं धीमान्ददृशे यद्धनंजयः।। | 14-55-4a 14-55-4b |
स ददर्श महात्मानं विश्वरूपं महाभुजम्। सहस्रसूर्यप्रतिमं दीप्तिमत्पावकोपमम्। सर्वमाकाशमावृत्य तिष्ठन्तं सर्वतोमुखम्।। | 14-55-5a 14-55-5b 14-55-5c |
तद्दृष्ट्वा परमं रूपं विष्णोर्वैष्णवमद्भुतम्। विस्मयं च ययौ विप्रस्तं दृष्ट्वा परमेश्वरम्।। | 14-55-6a 14-55-6b |
उदङ्क उवाच। | 14-55-7x |
`नमोनमस्ते सर्वात्मन्नारायण परात्मक। परमात्मन्पद्मनाभ पुण्डरीकाक्ष माधव।। | 14-55-7a 14-55-7b |
हिरण्यगर्भरूपाय संसारोत्तारणाय च। पुरुषाय पुराणाय शान्तश्यामाय ते नमः।। | 14-55-8a 14-55-8b |
अविद्यातिमिरादित्यं भवव्याधिमहौषधिम्। संसारार्णवसारं त्वां प्रणमामि गतिर्भव।। | 14-55-9a 14-55-9b |
सर्ववेदैकवेद्याय सर्ववेदमयाय च। वासुदेवाय नित्याय नमो भक्तप्रियाय ते।। | 14-55-10a 14-55-10b |
दयया दुःखमोहान्मां सुमुद्धर्तुमिहार्हसि। कर्मभिर्बहुभिः पापैर्बद्धं पाहि जनार्दन।।' | 14-55-11a 14-55-11b |
विश्वकर्मन्नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन्विश्वकसम्भव। पद्म्यां ते पृथिवी व्याप्ता शिरसा चावृतं नभः।। | 14-55-12a 14-55-12b |
द्यावापृथिव्योर्यन्मध्यं जठरेण तवावृतम्। भुजाभ्यामावृताश्चाशास्त्वमिदं सर्वमच्युत।। | 14-55-13a 14-55-13b |
संहरस्व पुनर्देव रूपमक्षय्यमुत्तमम्। पुनस्त्वां स्वेन रूपेण द्रष्टुमिच्छामि शाश्वतम्।। | 14-55-14a 14-55-14b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-55-15x |
तमुवाच प्रसन्नात्मा गोविन्दो जनमेजय। वरं वृणीष्वेति तदा तमुदङ्कोऽब्रवीदिदम्। | 14-55-15a 14-55-15b |
पर्याप्त एष एवाद्य वरस्त्वत्तो महाद्युते। यत्ते रूपमिदं कृष्ण पश्यामि प्रभवाप्ययम्।। | 14-55-16a 14-55-16b |
तमब्रकवीत्पुनः कृष्णो मा त्वमत्र विचारय। 0 | 14-55-17a अवश्यमेतत्कर्तव्यममोघं दर्शनं मम।। |
उदङ्कक उवाच। | 14-55-18x |
अवश्यं करणीयं च यद्येतन्मन्यसे विभो। तोयमिच्छामि यत्रेष्टं मरुष्वेतद्धि दुर्लभम्।। | 14-55-18a 14-55-18b |
ततः संहृत्य तत्तेजः प्रोवाचोदङ्कमीश्वरः। एष्टव्ये सति चिन्त्योऽहमित्युक्त्वा द्वारकां ययौ।। | 14-55-19a 14-55-19b |
ततः कदाचिद्भगवानुदङ्कस्तोयकाङ्क्षया। तृषितः परिचक्राम मरौ सस्मार चाच्युतम्।। | 14-55-20a 14-55-20b |
ततो दिग्वाससं धीमान्मातङ्गं मलपङ्किनम्। अपश्यत मरौ तस्मिञ्श्वयूथपरिवारितम्।। | 14-55-21a 14-55-21b |
भीषणं बद्धनिस्त्रिंशं बाणकार्मुकधारिणम्। तस्याधःस्रोतसोऽपश्यद्वारि भूरि द्विजोत्तमः।। | 14-55-22a 14-55-22b |
स्मरन्नेव च तं प्राह मातङ्गः प्रहसन्निव। एह्युदङ्क प्रतीच्छस्व मत्तो वारि भृगूद्वह। कृपा हि मे सुमहती त्वां दृष्ट्वा तृट्समाश्रितम्।। | 14-55-23a 14-55-23b 14-55-23c |
इत्युक्तस्तेन स मुनिस्तत्तोयं नाभ्यनन्दन। चिक्षेप च स तं धीमान्वाग्भिरुग्राभिरच्युतम्। | 14-55-24a 14-55-24b |
पुनःपुनश्च मातङ्ग पिबस्वेति तमब्रवीत्। न चापिबत्स सक्रोधः क्षुभितेनान्तरात्मना।। | 14-55-25a 14-55-25b |
स तथा निश्चयात्तेन प्रत्याख्यातो महात्मना। श्वभिः सह महाराज तत्रैवान्तरधीयत।। | 14-55-26a 14-55-26b |
उदङ्कस्तं तथा दृष्ट्वा ततो व्रीडितमानसः। मेने प्रलब्धमात्मानं कृष्णेनामित्रघातिना।। | 14-55-27a 14-55-27b |
अथ तेनैव मार्गेण शङ्कचक्रगदाधरः। आजगाम महाबाहुरुदङ्कश्चैनमब्रवीत्।। | 14-55-28a 14-55-28b |
न युक्तं तादृशं दातुं त्वया पुरुषसत्तम। सलिलं विप्रमुख्येभ्यो मातङ्गस्रोतसा विभो।। | 14-55-29a 14-55-29b |
इत्युक्तवचनं तं तु महाबुद्धिर्जनार्दनः। उदङ्कं श्लक्ष्णया वाचा सान्त्वयन्निदमब्रवीत्।। | 14-55-30a 14-55-30b |
यादृशेनेह रूपेण योग्यं दातुं धृतेन वै। तादृशं खलु ते दत्तं यच्च त्वं नावबुध्यथाः।। | 14-55-31a 14-55-31b |
मया त्वदर्थमुक्तो वै वज्रपाणिः पुरंदरः। उदङ्कायामृतं देहि तोयरूपमिति प्रभुः।। | 14-55-32a 14-55-32b |
स मामुवाच देवेन्द्र न मर्त्योऽमर्त्यतां व्रजेत्। अन्यमस्मै वरं देहीत्यसकृद्भृगुनन्दन।। | 14-55-33a 14-55-33b |
अमृतं देयमित्येव मयोक्तः स शचीपतिः। स मां प्रसाद्य देवेन्द्रः पुनरेवेदमब्रवीत्।। | 14-55-34a 14-55-34b |
यदि देयमवश्यं वै मातङ्गोऽहं महामते। भूत्वाऽमृतं प्रदास्यामि भार्गवाय महात्मने।। | 14-55-35a 14-55-35b |
यद्येवं प्रतिगृह्णाति भार्गवोऽमृतमद्य वै। प्रदातुमेष गच्छामि भार्गवस्यामृतं विभो। प्रत्याख्यातस्त्वहं तेन दास्यामि न कथञ्चन।। | 14-55-36a 14-55-36b 14-55-36c |
स तथा समयं कृत्वा तेन रूपेण वासवः। उपस्थितस्त्वया चापि प्रत्याख्यातोऽमृतं ददत्। चाण्डालरूपी भगवान्सुमहांस्ते व्यतिक्रमः।। | 14-55-37a 14-55-37b 14-55-37c |
यत्तु शक्यं मया कर्तुं भूय एव तवेप्सितम्। तोयेप्सां तव दुर्धर्षां करिष्ये सफलामहम्।। | 14-55-38a 14-55-38b |
येष्वहःसु च ते ब्रह्मन्सलिलेप्सा भविष्यति। तदा मरौ भविष्यन्ति जलपूर्णाः पयोधराः।। | 14-55-39a 14-55-39b |
रसवच्च प्रदास्यन्ति तोयं ते भृगुनन्दन। उदङ्गमेघा इत्युक्ताः ख्यातिं यास्यन्ति चापि ते।। | 14-55-40a 14-55-40b |
इत्युक्तः प्रीतिमान्विप्रः कृष्णेन स बभूव ह। अद्याप्युदङ्कमेघाश्च मरौ वर्षन्ति भारत।। | 14-55-41a 14-55-41b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि पञ्चपश्चाशोऽध्यायः।। 55 ।। |
14-55-3 ते रूपमैश्वरमिति झ.पाठः।।
14-55-19 एष्टव्ये जलेऽपेक्षिते सति।।
14-55-21 मातङ्गं चण्डालविशेषम्।।
14-55-22 अधः पाददेशे स्रोतसो दृतेर्वारीति संबन्धः। ततः शङ्कितमानस इति क.ट.थ.पाठः।।
14-55-24 चिक्षेप निन्दितवान्।।
14-55-27 प्रलब्धं वञ्चितम्।।
आश्वमेधिकपर्व-054 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-056 |