महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-086
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चारमुखादर्जुनस्य तुरगसंचारणात्पुनर्नगरं प्रत्यागमनश्रवणहृष्टस्य युधिष्ठिरस्य निदेशाद्भीमेन यज्ञशालादिनिर्मापणम्।। 1 ।। तथा नानादेशेभ्यो ब्राह्मणाद्यानयनपूर्वकं तेषामन्नदानादिव्यवस्थाकरणम्।। 2 ।।
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वैशम्पायन उवाच। | 14-86-1x |
न्यवर्तत ततो वाजी येन नागाह्वयं पुरम्। तं निवृत्तं तु शुश्राव चारेणैव युधिष्ठिरः। श्रुत्वाऽर्जुनं कुशलिनं स च हृष्टमनाऽभवत्।। | 14-86-1a 14-86-1b 14-86-1c |
विजयस्य च तत्कर्म गान्धारविषये तदा। श्रुत्वा चान्येषु देशेषु स सुप्रीतोऽभवत्तदा।। | 14-86-2a 14-86-2b |
एतस्मिन्नेव काले तु द्वादशीं माघमासिकीम्। इष्टं गृहीत्वा नक्षत्रं धर्मराजो युधिष्ठिरः।। | 14-86-3a 14-86-3b |
समानीय महातेजाः सर्वान्भ्रातॄन्महीपतिः। भीमं च नकुलं चैव सहदेवं च कौरव।। | 14-86-4a 14-86-4b |
प्रोवाचेदं वचः काले तदा धर्मभृतांवरः। आमन्त्र्य वदतां श्रेष्ठो भीमं प्रहरतां वरम्।। | 14-86-5a 14-86-5b |
आयाति भीमसेनासौ सहाश्वेन तवानुजः। यथा मे पुरुषाः प्राहुर्ये धनंजयसारिणः।। | 14-86-6a 14-86-6b |
उपस्थितश्च कालोऽयमभितो वर्तते हयः। माघी च पौर्णमासीयं मासः शेषो वृकोदर।। | 14-86-7a 14-86-7b |
तत्प्रस्थाप्यन्तु विद्वांसो ब्राह्मणा वेदपारगाः। वाजिमेधार्थसिद्ध्यर्थं देशं पश्यन्तु यज्ञियम्।। | 14-86-8a 14-86-8b |
इत्युक्तः स तु तच्चक्रे भीमो नृपतिशासनम्। हृष्टः श्रुत्वा गुडोकेशमायान्तं पुरुषर्षभम्।। | 14-86-9a 14-86-9b |
ततो ययौ भीमसेनः प्राज्ञैः स्थपतिभिः सह। ब्राह्मणानग्रतः कृत्वा कुशलान्यज्ञकर्मणि।। | 14-86-10a 14-86-10b |
तं ससालचयं श्रीमत्सप्रतोलीसुघट्टितम्। मापयामास कौरव्यो यज्ञवाटं यताविधि।। | 14-86-11a 14-86-11b |
प्रासादशतसम्बन्धं मणिप्रवरकुट्टिमम्। `सदः स पत्नीसदनं साग्नीध्रमपि चोत्तरम्।' कारयामास विदिवद्धेमरत्नविभूषितम्।। | 14-86-12a 14-86-12b 14-86-12c |
स्तंभान्कनकचित्रांश्च तोरणानि बृहन्ति च। यज्ञायतनदेशेशु दत्त्वा शुद्धं च काञ्चनम्।। | 14-86-13a 14-86-13b |
अन्तःपुराणां राज्ञां च नानादेशसमीयुषाम्। कारयामास धर्मात्मा तत्रतत्र यथाविधि।। | 14-86-14a 14-86-14b |
ब्राह्मणानां न वेश्मानि नानादेशसमीयुषाम्। कारयामास कौन्तेयो विधिवत्तान्यनेकशः।। | 14-86-15a 14-86-15b |
तथा सम्प्रेषयामास दूतान्नृपतिशासनात्। भीमसेनो महाबाहो राज्ञामक्लिष्टकर्मणाम्।। | 14-86-16a 14-86-16b |
ते प्रियार्थं कुरुपतेराययुर्नृपसत्तम। रत्नान्यनेकान्यादाय स्त्रियोऽश्वानायुधानि च।। | 14-86-17a 14-86-17b |
तेषां निर्विशतां तेषु शिबिरेषु महात्मनाम्। नर्दतः सागरस्येव दिवस्पृगभवत्स्वनः।। | 14-86-18a 14-86-18b |
`प्रत्युद्गम्य नमस्कृत्य ब्राह्मणांश्च न्यवेदयत्।।' | 14-86-19a |
तेषामभ्यागतानां च स राजा कुरुवर्धनः। व्यादिदेशान्नपानानि शय्याश्चाप्यतिमानुषाः।। | 14-86-20a 14-86-20b |
वाहनानां च विविधाः शालाः शालीक्षुगोरसैः। उपेता भरतश्रेष्ठो व्यादिदेश स धर्मराट्।। | 14-86-21a 14-86-21b |
`वर्णाः पृथक्सन्निविष्टा ह्युत्तरोत्तरपूजिताः'। तथा तस्मिन्महायज्ञे धर्मराजस्य धीमतः। समाजग्मुर्मुनिगणा बहवो ब्रह्मवादिनः।। | 14-86-22a 14-86-22b 14-86-22c |
ये च द्विजातिप्रवरास्तत्रासन्पृथिवीपते। समाजग्मुः सशिष्यांस्तान्प्रतिजग्राह कौरवः।। | 14-86-23a 14-86-23b |
सर्वांश्च ताननुययौ यावदावसथान्प्रति। स्वयमेव महातेजा दंभं त्यक्त्वा युधिष्ठिरः।। | 14-86-24a 14-86-24b |
ततः कृत्वा स्थपतयः शिल्पिनोऽन्ये च ये तदा। कृत्स्नं यज्ञविधिं राजन्धर्मराजे न्यवेदयन।। | 14-86-25a 14-86-25b |
तच्छ्रुत्वा धर्मराजस्तु कृतं सर्वमतन्द्रितः। हृष्टरूपोऽभवद्राजन्सह भ्रातृभिरादृतः।। | 14-86-26a 14-86-26b |
तस्मिन्यज्ञे प्रवृत्ते तु वाग्मिनो हेतुवादिनः। हेतुवादान्बहूनाहुः परस्परजिगीषवः।। | 14-86-27a 14-86-27b |
ददृशुस्तं नृपतयो यज्ञस्य विधिमुत्तमम्। देवेन्द्रस्येव विहितं भीमसेनेन भारत।। | 14-86-28a 14-86-28b |
ददृशुस्तोरणान्यत्र शातकुंभमयानि ते। शय्यासनविहारांश्च सुबहून्रत्नसंचयान्।। | 14-86-29a 14-86-29b |
घटान्पात्रीः कटाहानि कलशान्वर्धमानकान्। न हि किञ्चिदसौवर्णमपश्यन्वसुधाधिपाः।। | 14-86-30a 14-86-30b |
यूपांश्च शास्त्रपठितान्दारवान्हेमभूषितान्। उपक्लृप्तान्यथाकालं विधिवद्भूरिवर्चसः।। | 14-86-31a 14-86-31b |
स्थलजाक जलजा ये च पशवः केचन प्रभो। सर्वानेव समानीतानपश्यंस्तत्र ते नृपाः।। | 14-86-32a 14-86-32b |
गाश्चैव महिषीश्चैव तथा वृद्धस्त्रियोपि च। औदकानि च सत्वानि श्वापदानि वयांसि च।। | 14-86-33a 14-86-33b |
जरायुजाण्डजातानि स्वेदजान्युद्भिदानि च। पर्वतानूपजातानि भूतानि ददृशुश्च ते।। | 14-86-34a 14-86-34b |
एवं प्रमुदितं सर्वं पशुगोधनधान्यतः। यज्ञवाटं नृपा दृष्ट्वा परं विस्मयमागताः।। | 14-86-35a 14-86-35b |
`अनिशं दीयते च स्म तत्र भोज्यं पृथग्विधम्।।' ब्राह्मणानां विशां चैव बहुमृष्टान्नमृद्धिमत्।। | 14-86-36a 14-86-36b |
पूर्णे शतसहस्रे तु विप्राणां तत्रि भुञ्जताम्। दुन्दुभिर्मेघनिर्घोषो मुहुर्मुहुरताड्यत। विननादासकृच्चापि दिवसेदिवसे गते।। | 14-86-37a 14-86-37b 14-86-37c |
एवं स ववृते यज्ञो धर्मराजस्य धीमतः। अन्नस्य सुबहून्राजन्नुत्सर्गान्पर्वतोपमान्। दधिकुल्याशअच ददृशुः सर्पिषश्च ह्रदाञ्जनाः।। | 14-86-38a 14-86-38b 14-86-38c |
जंबूद्वीपो हि सकलो नानजनपदायुतः। राजन्नदृस्यतैकस्थो राज्ञस्तस्य महामखे।। | 14-86-39a 14-86-39b |
तत्र जातिसहस्राणि पुरुषाणां ततस्ततः। गृहीत्वा धमाजग्मुर्बहूनि भरतर्षभ।। | 14-86-40a 14-86-40b |
स्रग्विणश्तापि ते सर्वे सुमुष्टमणिकुण्डलाः। पर्यवेषन्द्विजातींस्ताञ्शतशोऽथ सहस्रशः।। | 14-86-41a 14-86-41b |
विविधान्यन्नपानानि पुरुषा येऽनुयायिनः। ते वै नृपोपभोज्यानि ब्राह्मणानां ददुश्च ह।। | 14-86-42a 14-86-42b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि षडशीतितमोऽध्यायः।। 86 ।। |
14-86-3 इष्टं नक्षत्रं पुष्यम्।। 14-86-8 प्रस्थाप्यन्तु प्रस्थापयन्तु। स्वार्थे णिच्। प्रतिष्ठन्त्वित्यर्थः।।
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