"रामायण बालकाण्ड" इत्यस्य संस्करणे भेदः

No edit summary
पङ्क्तिः १:
=== 2.0 ===
 
<div class="verse>
<pre>
१०० ॥
जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई. महामुनिन्ह सो सब करवाई ॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी. भवहि समरपीं जानि भवानी ॥
पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा. हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा ॥
बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं. जय जय जय संकर सुर करहीं ॥
बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना. सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना ॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू. सकल भुवन भरि रहा उछाहू ॥
दासीं दास तुरग रथ नागा. धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा ॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना. दाइज दीन्ह न जाइ बखाना ॥
छं\. दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो. का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो ॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो. पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो ॥
दो\. नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु. छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु ॥
१०१ ॥
बहु बिधि संभु सास समुझाई. गवनी भवन चरन सिरु नाई ॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही. लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही ॥
करेहु सदा संकर पद पूजा. नारिधरमु पति देउ न दूजा ॥
बचन कहत भरे लोचन बारी. बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी ॥
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं. पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं ॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी. धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी ॥
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना. परम प्रेम कछु जाइ न बरना ॥
सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी. जाइ जननि उर पुनि लपटानी ॥
छं\. जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं. फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई ॥
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले. सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले ॥
दो\. चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु. बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु ॥
१०२ ॥
तुरत भवन आए गिरिराई. सकल सैल सर लिए बोलाई ॥
आदर दान बिनय बहुमाना. सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना ॥
जबहिं संभु कैलासहिं आए. सुर सब निज निज लोक सिधाए ॥
जगत मातु पितु संभु भवानी. तेही सिंगारु न कहउँ बखानी ॥
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा. गनन्ह समेत बसहिं कैलासा ॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ. एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ ॥
तब जनमेउ षटबदन कुमारा. तारकु असुर समर जेहिं मारा ॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना. षन्मुख जन्मु सकल जग जाना ॥
छं\. जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा. तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा ॥
यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं. कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं ॥
दो\. चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु. बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु ॥
१०३ ॥
संभु चरित सुनि सरस सुहावा. भरद्वाज मुनि अति सुख पावा ॥
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी. नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी ॥
प्रेम बिबस मुख आव न बानी. दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी ॥
अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा. तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा ॥
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं. रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं ॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू. राम भगत कर लच्छन एहू ॥
सिव सम को रघुपति ब्रतधारी. बिनु अघ तजी सती असि नारी ॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई. को सिव सम रामहि प्रिय भाई ॥
दो\. प्रथमहिं मै कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार. सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार ॥
१०४ ॥
मैं जाना तुम्हार गुन सीला. कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला ॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें. कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें ॥
राम चरित अति अमित मुनिसा. कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा ॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी. सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी ॥
सारद दारुनारि सम स्वामी. रामु सूत्रधर अंतरजामी ॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी. कबि उर अजिर नचावहिं बानी ॥
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा. बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा ॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू. सदा जहाँ सिव उमा निवासू ॥
दो\. सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद. बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद ॥
१०५ ॥
हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं. ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं ॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला. नित नूतन सुंदर सब काला ॥
त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया. सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया ॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ. तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ ॥
निज कर डासि नागरिपु छाला. बैठै सहजहिं संभु कृपाला ॥
कुंद इंदु दर गौर सरीरा. भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा ॥
तरुन अरुन अंबुज सम चरना. नख दुति भगत हृदय तम हरना ॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी. आननु सरद चंद छबि हारी ॥
दो\. जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल. नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल ॥
१०६ ॥
बैठे सोह कामरिपु कैसें. धरें सरीरु सांतरसु जैसें ॥
पारबती भल अवसरु जानी. गई संभु पहिं मातु भवानी ॥
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा. बाम भाग आसनु हर दीन्हा ॥
बैठीं सिव समीप हरषाई. पूरुब जन्म कथा चित आई ॥
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी. बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी ॥
कथा जो सकल लोक हितकारी. सोइ पूछन चह सैलकुमारी ॥
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी. त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी ॥
चर अरु अचर नाग नर देवा. सकल करहिं पद पंकज सेवा ॥
दो\. प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम ॥
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम ॥
१०७ ॥
जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी. जानिअ सत्य मोहि निज दासी ॥
तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना. कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना ॥
जासु भवनु सुरतरु तर होई. सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई ॥
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी. हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी ॥
प्रभु जे मुनि परमारथबादी. कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी ॥
सेस सारदा बेद पुराना. सकल करहिं रघुपति गुन गाना ॥
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती. सादर जपहु अनँग आराती ॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई. की अज अगुन अलखगति कोई ॥
दो\. जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि. देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि ॥
१०८ ॥
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ. कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू. जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू ॥
मै बन दीखि राम प्रभुताई. अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई ॥
तदपि मलिन मन बोधु न आवा. सो फलु भली भाँति हम पावा ॥
अजहूँ कछु संसउ मन मोरे. करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें ॥
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा. नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा ॥
तब कर अस बिमोह अब नाहीं. रामकथा पर रुचि मन माहीं ॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा. भुजगराज भूषन सुरनाथा ॥
दो\. बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि. बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि ॥
१०९ ॥
जदपि जोषिता नहिं अधिकारी. दासी मन क्रम बचन तुम्हारी ॥
गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं. आरत अधिकारी जहँ पावहिं ॥
अति आरति पूछउँ सुरराया. रघुपति कथा कहहु करि दाया ॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी. निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी ॥
पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा. बालचरित पुनि कहहु उदारा ॥
कहहु जथा जानकी बिबाहीं. राज तजा सो दूषन काहीं ॥
बन बसि कीन्हे चरित अपारा. कहहु नाथ जिमि रावन मारा ॥
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला. सकल कहहु संकर सुखलीला ॥
दो\. बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम. प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम ॥
</pre>
</div>
 
=== 2.1 ===
<div class="verse>
<pre>
११० ॥
पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी. जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी ॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा. पुनि सब बरनहु सहित बिभागा ॥
औरउ राम रहस्य अनेका. कहहु नाथ अति बिमल बिबेका ॥
जो प्रभु मैं पूछा नहि होई. सोउ दयाल राखहु जनि गोई ॥
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना. आन जीव पाँवर का जाना ॥
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई. छल बिहीन सुनि सिव मन भाई ॥
हर हियँ रामचरित सब आए. प्रेम पुलक लोचन जल छाए ॥
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा. परमानंद अमित सुख पावा ॥
दो\. मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह. रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह ॥
१११ ॥
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें. जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें ॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई. जागें जथा सपन भ्रम जाई ॥
बंदउँ बालरूप सोई रामू. सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू ॥
मंगल भवन अमंगल हारी. द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी ॥
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी. हरषि सुधा सम गिरा उचारी ॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी. तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी ॥
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा. सकल लोक जग पावनि गंगा ॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी. कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी ॥
दो\. रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं. सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं ॥
११२ ॥
तदपि असंका कीन्हिहु सोई. कहत सुनत सब कर हित होई ॥
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना. श्रवन रंध्र अहिभवन समाना ॥
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा. लोचन मोरपंख कर लेखा ॥
ते सिर कटु तुंबरि समतूला. जे न नमत हरि गुर पद मूला ॥
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी. जीवत सव समान तेइ प्रानी ॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना. जीह सो दादुर जीह समाना ॥
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती. सुनि हरिचरित न जो हरषाती ॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला. सुर हित दनुज बिमोहनसीला ॥
दो\. रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि. सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि ॥
११३ ॥
रामकथा सुंदर कर तारी. संसय बिहग उडावनिहारी ॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी. सादर सुनु गिरिराजकुमारी ॥
राम नाम गुन चरित सुहाए. जनम करम अगनित श्रुति गाए ॥
जथा अनंत राम भगवाना. तथा कथा कीरति गुन नाना ॥
तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी. कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी ॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई. सुखद संतसंमत मोहि भाई ॥
एक बात नहि मोहि सोहानी. जदपि मोह बस कहेहु भवानी ॥
तुम जो कहा राम कोउ आना. जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना ॥
दो\. कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच. पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच ॥
११४ ॥
अग्य अकोबिद अंध अभागी. काई बिषय मुकर मन लागी ॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी. सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी ॥
कहहिं ते बेद असंमत बानी. जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी ॥
मुकर मलिन अरु नयन बिहीना. राम रूप देखहिं किमि दीना ॥
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका. जल्पहिं कल्पित बचन अनेका ॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं. तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं ॥
बातुल भूत बिबस मतवारे. ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे ॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना. तिन कर कहा करिअ नहिं काना ॥
सो\. अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद. सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम ॥
११५ ॥
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा. गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ॥
अगुन अरुप अलख अज जोई. भगत प्रेम बस सगुन सो होई ॥
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें. जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें ॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा. तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा ॥
राम सच्चिदानंद दिनेसा. नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा ॥
सहज प्रकासरुप भगवाना. नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना ॥
हरष बिषाद ग्यान अग्याना. जीव धर्म अहमिति अभिमाना ॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना. परमानन्द परेस पुराना ॥
दो\. पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ ॥
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ ॥
११६ ॥
निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी. प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी ॥
जथा गगन घन पटल निहारी. झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी ॥
चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ. प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ ॥
उमा राम बिषइक अस मोहा. नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा ॥
बिषय करन सुर जीव समेता. सकल एक तें एक सचेता ॥
सब कर परम प्रकासक जोई. राम अनादि अवधपति सोई ॥
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू. मायाधीस ग्यान गुन धामू ॥
जासु सत्यता तें जड माया. भास सत्य इव मोह सहाया ॥
दो\. रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि. जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि ॥
११७ ॥
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई. जदपि असत्य देत दुख अहई ॥
जौं सपनें सिर काटै कोई. बिनु जागें न दूरि दुख होई ॥
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई. गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई ॥
आदि अंत कोउ जासु न पावा. मति अनुमानि निगम अस गावा ॥
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना. कर बिनु करम करइ बिधि नाना ॥
आनन रहित सकल रस भोगी. बिनु बानी बकता बड़ जोगी ॥
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा. ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी. महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ॥
दो\. जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान ॥
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान ॥
११८ ॥
कासीं मरत जंतु अवलोकी. जासु नाम बल करउँ बिसोकी ॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी. रघुबर सब उर अंतरजामी ॥
बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं. जनम अनेक रचित अघ दहहीं ॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं. भव बारिधि गोपद इव तरहीं ॥
राम सो परमातमा भवानी. तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी ॥
अस संसय आनत उर माहीं. ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं ॥
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना. मिटि गै सब कुतरक कै रचना ॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती. दारुन असंभावना बीती ॥
दो\. पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि. बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि ॥
११९ ॥
ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी. मिटा मोह सरदातप भारी ॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ. राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ ॥
नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा. सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा ॥
अब मोहि आपनि किंकरि जानी. जदपि सहज जड नारि अयानी ॥
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू. जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू ॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी. सर्ब रहित सब उर पुर बासी ॥
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू. मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू ॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता. रामकथा पर प्रीति पुनीता ॥
दो\. हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान ॥
</pre>
</div>
 
 
=== 2.2 ===
<div class="verse>
<pre>
१२०(क) ॥
नवान्हपारायन,पहला विश्राम मासपारायण, चौथा विश्राम सो\. सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल. कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड ॥
१२०(ख) ॥
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब. सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ ॥
१२०(ग) ॥
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित. मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु ॥
१२०(घ ॥
सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए. बिपुल बिसद निगमागम गाए ॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई. इदमित्थं कहि जाइ न सोई ॥
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी. मत हमार अस सुनहि सयानी ॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना. जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना ॥
तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही. समुझि परइ जस कारन मोही ॥
जब जब होइ धरम कै हानी. बाढहिं असुर अधम अभिमानी ॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी. सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी ॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा. हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा ॥
दो\. असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु. जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु ॥
१२१ ॥
सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं. कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं ॥
राम जनम के हेतु अनेका. परम बिचित्र एक तें एका ॥
जनम एक दुइ कहउँ बखानी. सावधान सुनु सुमति भवानी ॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ. जय अरु बिजय जान सब कोऊ ॥
बिप्र श्राप तें दूनउ भाई. तामस असुर देह तिन्ह पाई ॥
कनककसिपु अरु हाटक लोचन. जगत बिदित सुरपति मद मोचन ॥
बिजई समर बीर बिख्याता. धरि बराह बपु एक निपाता ॥
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा. जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा ॥
दो\. भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान. कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान ॥
१२२ . मुकुत न भए हते भगवाना. तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना ॥
एक बार तिन्ह के हित लागी. धरेउ सरीर भगत अनुरागी ॥
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता. दसरथ कौसल्या बिख्याता ॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा. चरित्र पवित्र किए संसारा ॥
एक कलप सुर देखि दुखारे. समर जलंधर सन सब हारे ॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा. दनुज महाबल मरइ न मारा ॥
परम सती असुराधिप नारी. तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी ॥
दो\. छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह ॥
जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह ॥
१२३ ॥
तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना. कौतुकनिधि कृपाल भगवाना ॥
तहाँ जलंधर रावन भयऊ. रन हति राम परम पद दयऊ ॥
एक जनम कर कारन एहा. जेहि लागि राम धरी नरदेहा ॥
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी. सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी ॥
नारद श्राप दीन्ह एक बारा. कलप एक तेहि लगि अवतारा ॥
गिरिजा चकित भई सुनि बानी. नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि ॥
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा. का अपराध रमापति कीन्हा ॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी. मुनि मन मोह आचरज भारी ॥
दो\. बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ. जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ ॥
१२४(क) ॥
सो\. कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु. भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद ॥
१२४(ख) ॥
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि. बह समीप सुरसरी सुहावनि ॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा. देखि देवरिषि मन अति भावा ॥
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा. भयउ रमापति पद अनुरागा ॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी. सहज बिमल मन लागि समाधी ॥
मुनि गति देखि सुरेस डेराना. कामहि बोलि कीन्ह समाना ॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू. चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू ॥
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा. चहत देवरिषि मम पुर बासा ॥
जे कामी लोलुप जग माहीं. कुटिल काक इव सबहि डेराहीं ॥
दो\. सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज. छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज ॥
१२५ ॥
तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ. निज मायाँ बसंत निरमयऊ ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा. कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा ॥
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी. काम कृसानु बढ़ावनिहारी ॥
रंभादिक सुरनारि नबीना . सकल असमसर कला प्रबीना ॥
करहिं गान बहु तान तरंगा. बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा ॥
देखि सहाय मदन हरषाना. कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना ॥
काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी. निज भयँ डरेउ मनोभव पापी ॥
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु. बड़ रखवार रमापति जासू ॥
दो\. सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन. गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन ॥
१२६ ॥
भयउ न नारद मन कछु रोषा. कहि प्रिय बचन काम परितोषा ॥
नाइ चरन सिरु आयसु पाई. गयउ मदन तब सहित सहाई ॥
मुनि सुसीलता आपनि करनी. सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी ॥
सुनि सब कें मन अचरजु आवा. मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा ॥
तब नारद गवने सिव पाहीं. जिता काम अहमिति मन माहीं ॥
मार चरित संकरहिं सुनाए. अतिप्रिय जानि महेस सिखाए ॥
बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं. जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं ॥
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ. चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ ॥
दो\. संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान. भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान ॥
१२७ ॥
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई. करै अन्यथा अस नहिं कोई ॥
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए. तब बिरंचि के लोक सिधाए ॥
एक बार करतल बर बीना. गावत हरि गुन गान प्रबीना ॥
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा. जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा ॥
हरषि मिले उठि रमानिकेता. बैठे आसन रिषिहि समेता ॥
बोले बिहसि चराचर राया. बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया ॥
काम चरित नारद सब भाषे. जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे ॥
अति प्रचंड रघुपति कै माया. जेहि न मोह अस को जग जाया ॥
दो\. रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान . तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान ॥
१२८ ॥
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें. ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके ॥
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा. तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा ॥
नारद कहेउ सहित अभिमाना. कृपा तुम्हारि सकल भगवाना ॥
करुनानिधि मन दीख बिचारी. उर अंकुरेउ गरब तरु भारी ॥
बेगि सो मै डारिहउँ उखारी. पन हमार सेवक हितकारी ॥
मुनि कर हित मम कौतुक होई. अवसि उपाय करबि मै सोई ॥
तब नारद हरि पद सिर नाई. चले हृदयँ अहमिति अधिकाई ॥
श्रीपति निज माया तब प्रेरी. सुनहु कठिन करनी तेहि केरी ॥
दो\. बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार. श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार ॥
१२९ ॥
बसहिं नगर सुंदर नर नारी. जनु बहु मनसिज रति तनुधारी ॥
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा. अगनित हय गय सेन समाजा ॥
सत सुरेस सम बिभव बिलासा. रूप तेज बल नीति निवासा ॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी. श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी ॥
सोइ हरिमाया सब गुन खानी. सोभा तासु कि जाइ बखानी ॥
करइ स्वयंबर सो नृपबाला. आए तहँ अगनित महिपाला ॥
मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ. पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ ॥
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए. करि पूजा नृप मुनि बैठाए ॥
दो\. आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि. कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि ॥
</pre>
</div>
 
 
=== 2.3 ===
<div class="verse>
<pre>
१३० ॥
देखि रूप मुनि बिरति बिसारी. बड़ी बार लगि रहे निहारी ॥
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने. हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने ॥
जो एहि बरइ अमर सोइ होई. समरभूमि तेहि जीत न कोई ॥
सेवहिं सकल चराचर ताही. बरइ सीलनिधि कन्या जाही ॥
लच्छन सब बिचारि उर राखे. कछुक बनाइ भूप सन भाषे ॥
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं. नारद चले सोच मन माहीं ॥
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी. जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी ॥
जप तप कछु न होइ तेहि काला. हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला ॥
दो\. एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल. जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल ॥
१३१ ॥
हरि सन मागौं सुंदरताई. होइहि जात गहरु अति भाई ॥
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ. एहि अवसर सहाय सोइ होऊ ॥
बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला. प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला ॥
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने. होइहि काजु हिएँ हरषाने ॥
अति आरति कहि कथा सुनाई. करहु कृपा करि होहु सहाई ॥
आपन रूप देहु प्रभु मोही. आन भाँति नहिं पावौं ओही ॥
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा. करहु सो बेगि दास मैं तोरा ॥
निज माया बल देखि बिसाला. हियँ हँसि बोले दीनदयाला ॥
दो\. जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार. सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार ॥
१३२ ॥
कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी. बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी ॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ. कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ ॥
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा. समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा ॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई. जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई ॥
निज निज आसन बैठे राजा. बहु बनाव करि सहित समाजा ॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें. मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें ॥
मुनि हित कारन कृपानिधाना. दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना ॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा. नारद जानि सबहिं सिर नावा ॥
दो\. रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ. बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ ॥
१३३ ॥
जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई. हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई ॥
तहँ बैठ महेस गन दोऊ. बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ ॥
करहिं कूटि नारदहि सुनाई. नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई ॥
रीझहि राजकुअँरि छबि देखी. इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी ॥
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ. हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी. समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी ॥
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा. सो सरूप नृपकन्याँ देखा ॥
मर्कट बदन भयंकर देही. देखत हृदयँ क्रोध भा तेही ॥
दो\. सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल. देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल ॥
१३४ ॥
जेहि दिसि बैठे नारद फूली. सो दिसि देहि न बिलोकी भूली ॥
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं. देखि दसा हर गन मुसकाहीं ॥
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला. कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला ॥
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा. नृपसमाज सब भयउ निरासा ॥
मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी. मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी ॥
तब हर गन बोले मुसुकाई. निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई ॥
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी. बदन दीख मुनि बारि निहारी ॥
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा. तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा ॥
दो\. होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ. हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ ॥
१३५ ॥
पुनि जल दीख रूप निज पावा. तदपि हृदयँ संतोष न आवा ॥
फरकत अधर कोप मन माहीं. सपदी चले कमलापति पाहीं ॥
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई. जगत मोर उपहास कराई ॥
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी. संग रमा सोइ राजकुमारी ॥
बोले मधुर बचन सुरसाईं. मुनि कहँ चले बिकल की नाईं ॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा. माया बस न रहा मन बोधा ॥
पर संपदा सकहु नहिं देखी. तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी ॥
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु. सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु ॥
दो\. असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु. स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु ॥
१३६ ॥
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई. भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई ॥
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू. बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू ॥
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू. अति असंक मन सदा उछाहू ॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा. अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा ॥
भले भवन अब बायन दीन्हा. पावहुगे फल आपन कीन्हा ॥
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा. सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा ॥
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी. करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी ॥
मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी. नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी ॥
दो\. श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि. निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि ॥
१३७ ॥
जब हरि माया दूरि निवारी. नहिं तहँ रमा न राजकुमारी ॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना. गहे पाहि प्रनतारति हरना ॥
मृषा होउ मम श्राप कृपाला. मम इच्छा कह दीनदयाला ॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे. कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे ॥
जपहु जाइ संकर सत नामा. होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा ॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें. असि परतीति तजहु जनि भोरें ॥
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी. सो न पाव मुनि भगति हमारी ॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई. अब न तुम्हहि माया निअराई ॥
दो\. बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान ॥
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान ॥
१३८ ॥
हर गन मुनिहि जात पथ देखी. बिगतमोह मन हरष बिसेषी ॥
अति सभीत नारद पहिं आए. गहि पद आरत बचन सुनाए ॥
हर गन हम न बिप्र मुनिराया. बड़ अपराध कीन्ह फल पाया ॥
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला. बोले नारद दीनदयाला ॥
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ. बैभव बिपुल तेज बल होऊ ॥
भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ. धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ. समर मरन हरि हाथ तुम्हारा. होइहहु मुकुत न पुनि संसारा ॥
चले जुगल मुनि पद सिर नाई. भए निसाचर कालहि पाई ॥
दो\. एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार. सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार ॥
१३९ ॥
एहि बिधि जनम करम हरि केरे. सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे ॥
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं. चारु चरित नानाबिधि करहीं ॥
तब तब कथा मुनीसन्ह गाई. परम पुनीत प्रबंध बनाई ॥
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने. करहिं न सुनि आचरजु सयाने ॥
हरि अनंत हरिकथा अनंता. कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता ॥
रामचंद्र के चरित सुहाए. कलप कोटि लगि जाहिं न गाए ॥
यह प्रसंग मैं कहा भवानी. हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी ॥
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी ॥
सेवत सुलभ सकल दुख हारी ॥
सो\. सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल ॥
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि ॥
</pre>
</div>
 
 
=== 2.4 ===
<div class="verse>
<pre>
१४० ॥
अपर हेतु सुनु सैलकुमारी. कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी ॥
जेहि कारन अज अगुन अरूपा. ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा ॥
जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा. बंधु समेत धरें मुनिबेषा ॥
जासु चरित अवलोकि भवानी. सती सरीर रहिहु बौरानी ॥
अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी. तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी ॥
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा. सो सब कहिहउँ मति अनुसारा ॥
भरद्वाज सुनि संकर बानी. सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी ॥
लगे बहुरि बरने बृषकेतू. सो अवतार भयउ जेहि हेतू ॥
दो\. सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई ॥
राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ ॥
१४१ ॥
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा. जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा ॥
दंपति धरम आचरन नीका. अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका ॥
नृप उत्तानपाद सुत तासू. ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू ॥
लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही. बेद पुरान प्रसंसहि जाही ॥
देवहूति पुनि तासु कुमारी. जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी ॥
आदिदेव प्रभु दीनदयाला. जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला ॥
सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना. तत्व बिचार निपुन भगवाना ॥
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला. प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला ॥
सो\. होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन. हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु ॥
१४२ ॥
बरबस राज सुतहि तब दीन्हा. नारि समेत गवन बन कीन्हा ॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता. अति पुनीत साधक सिधि दाता ॥
बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा. तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा ॥
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा. ग्यान भगति जनु धरें सरीरा ॥
पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा. हरषि नहाने निरमल नीरा ॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी. धरम धुरंधर नृपरिषि जानी ॥
जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए. मुनिन्ह सकल सादर करवाए ॥
कृस सरीर मुनिपट परिधाना. सत समाज नित सुनहिं पुराना . दो\. द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग. बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग ॥
१४३ ॥
करहिं अहार साक फल कंदा. सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा ॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे. बारि अधार मूल फल त्यागे ॥
उर अभिलाष निंरंतर होई. देखा नयन परम प्रभु सोई ॥
अगुन अखंड अनंत अनादी. जेहि चिंतहिं परमारथबादी ॥
नेति नेति जेहि बेद निरूपा. निजानंद निरुपाधि अनूपा ॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना. उपजहिं जासु अंस तें नाना ॥
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई. भगत हेतु लीलातनु गहई ॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा. तौ हमार पूजहि अभिलाषा ॥
दो\. एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार. संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार ॥
१४४ ॥
बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ. ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥
बिधि हरि तप देखि अपारा. मनु समीप आए बहु बारा ॥
मागहु बर बहु भाँति लोभाए. परम धीर नहिं चलहिं चलाए ॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा. तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा ॥
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी. गति अनन्य तापस नृप रानी ॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी. परम गभीर कृपामृत सानी ॥
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई. श्रबन रंध्र होइ उर जब आई ॥
ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए. मानहुँ अबहिं भवन ते आए ॥
दो\. श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात. बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात ॥
१४५ ॥
सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु. बिधि हरि हर बंदित पद रेनू ॥
सेवत सुलभ सकल सुख दायक. प्रनतपाल सचराचर नायक ॥
जौं अनाथ हित हम पर नेहू. तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू ॥
जो सरूप बस सिव मन माहीं. जेहि कारन मुनि जतन कराहीं ॥
जो भुसुंडि मन मानस हंसा. सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा ॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन. कृपा करहु प्रनतारति मोचन ॥
दंपति बचन परम प्रिय लागे. मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे ॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना. बिस्वबास प्रगटे भगवाना ॥
दो\. नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम. लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥
१४६ ॥
सरद मयंक बदन छबि सींवा. चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा ॥
अधर अरुन रद सुंदर नासा. बिधु कर निकर बिनिंदक हासा ॥
नव अबुंज अंबक छबि नीकी. चितवनि ललित भावँती जी की ॥
भुकुटि मनोज चाप छबि हारी. तिलक ललाट पटल दुतिकारी ॥
कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा. कुटिल केस जनु मधुप समाजा ॥
उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला. पदिक हार भूषन मनिजाला ॥
केहरि कंधर चारु जनेउ. बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ ॥
करि कर सरि सुभग भुजदंडा. कटि निषंग कर सर कोदंडा ॥
दो\. तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि ॥
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि ॥
१४७ ॥
पद राजीव बरनि नहि जाहीं. मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं ॥
बाम भाग सोभति अनुकूला. आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला ॥
जासु अंस उपजहिं गुनखानी. अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ॥
भृकुटि बिलास जासु जग होई. राम बाम दिसि सीता सोई ॥
छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी. एकटक रहे नयन पट रोकी ॥
चितवहिं सादर रूप अनूपा. तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा ॥
हरष बिबस तन दसा भुलानी. परे दंड इव गहि पद पानी ॥
सिर परसे प्रभु निज कर कंजा. तुरत उठाए करुनापुंजा ॥
दो\. बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि. मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि ॥
१४८ ॥
सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी. धरि धीरजु बोली मृदु बानी ॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे. अब पूरे सब काम हमारे ॥
एक लालसा बड़ि उर माही. सुगम अगम कहि जात सो नाहीं ॥
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं. अगम लाग मोहि निज कृपनाईं ॥
जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई. बहु संपति मागत सकुचाई ॥
तासु प्रभा जान नहिं सोई. तथा हृदयँ मम संसय होई ॥
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी. पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी ॥
सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि. मोरें नहिं अदेय कछु तोही ॥
दो\. दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ ॥
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ ॥
१४९ ॥
देखि प्रीति सुनि बचन अमोले. एवमस्तु करुनानिधि बोले ॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई. नृप तव तनय होब मैं आई ॥
सतरूपहि बिलोकि कर जोरें. देबि मागु बरु जो रुचि तोरे ॥
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा. सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा ॥
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई. जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई ॥
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी. ब्रह्म सकल उर अंतरजामी ॥
अस समुझत मन संसय होई. कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई ॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं. जो सुख पावहिं जो गति लहहीं ॥
दो\. सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु ॥
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु ॥
</pre>
</div>
 
 
=== 2.5 ===
<div class="verse>
<pre>
१५० ॥
सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना. कृपासिंधु बोले मृदु बचना ॥
जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं. मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं ॥
मातु बिबेक अलोकिक तोरें. कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें . बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी. अवर एक बिनति प्रभु मोरी ॥
सुत बिषइक तव पद रति होऊ. मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ ॥
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना. मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना ॥
अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ. एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ ॥
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी. बसहु जाइ सुरपति रजधानी ॥
सो\. तहँ करि भोग बिसाल तात गउँ कछु काल पुनि. होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत ॥
१५१ ॥
इच्छामय नरबेष सँवारें. होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे ॥
अंसन्ह सहित देह धरि ताता. करिहउँ चरित भगत सुखदाता ॥
जे सुनि सादर नर बड़भागी. भव तरिहहिं ममता मद त्यागी ॥
आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया. सोउ अवतरिहि मोरि यह माया ॥
पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा. सत्य सत्य पन सत्य हमारा ॥
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना. अंतरधान भए भगवाना ॥
दंपति उर धरि भगत कृपाला. तेहिं आश्रम निवसे कछु काला ॥
समय पाइ तनु तजि अनयासा. जाइ कीन्ह अमरावति बासा ॥
दो\. यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु. भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु ॥
१५२ ॥
मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी. जो गिरिजा प्रति संभु बखानी ॥
बिस्व बिदित एक कैकय देसू. सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू ॥
धरम धुरंधर नीति निधाना. तेज प्रताप सील बलवाना ॥
तेहि कें भए जुगल सुत बीरा. सब गुन धाम महा रनधीरा ॥
राज धनी जो जेठ सुत आही. नाम प्रतापभानु अस ताही ॥
अपर सुतहि अरिमर्दन नामा. भुजबल अतुल अचल संग्रामा ॥
भाइहि भाइहि परम समीती. सकल दोष छल बरजित प्रीती ॥
जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा. हरि हित आपु गवन बन कीन्हा ॥
दो\. जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस. प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस ॥
१५३ ॥
नृप हितकारक सचिव सयाना. नाम धरमरुचि सुक्र समाना ॥
सचिव सयान बंधु बलबीरा. आपु प्रतापपुंज रनधीरा ॥
सेन संग चतुरंग अपारा. अमित सुभट सब समर जुझारा ॥
सेन बिलोकि राउ हरषाना. अरु बाजे गहगहे निसाना ॥
बिजय हेतु कटकई बनाई. सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई ॥
जँह तहँ परीं अनेक लराईं. जीते सकल भूप बरिआई ॥
सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे. लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें ॥
सकल अवनि मंडल तेहि काला. एक प्रतापभानु महिपाला ॥
दो\. स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु. अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु ॥
१५४ ॥
भूप प्रतापभानु बल पाई. कामधेनु भै भूमि सुहाई ॥
सब दुख बरजित प्रजा सुखारी. धरमसील सुंदर नर नारी ॥
सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती. नृप हित हेतु सिखव नित नीती ॥
गुर सुर संत पितर महिदेवा. करइ सदा नृप सब कै सेवा ॥
भूप धरम जे बेद बखाने. सकल करइ सादर सुख माने ॥
दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना. सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना ॥
नाना बापीं कूप तड़ागा. सुमन बाटिका सुंदर बागा ॥
बिप्रभवन सुरभवन सुहाए. सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए ॥
दो\. जँह लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग. बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग ॥
१५५ ॥
हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना. भूप बिबेकी परम सुजाना ॥
करइ जे धरम करम मन बानी. बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी ॥
चढ़ि बर बाजि बार एक राजा. मृगया कर सब साजि समाजा ॥
बिंध्याचल गभीर बन गयऊ. मृग पुनीत बहु मारत भयऊ ॥
फिरत बिपिन नृप दीख बराहू. जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू ॥
बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं. मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं ॥
कोल कराल दसन छबि गाई. तनु बिसाल पीवर अधिकाई ॥
घुरुघुरात हय आरौ पाएँ. चकित बिलोकत कान उठाएँ ॥
दो\. नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु. चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु ॥
१५६ ॥
आवत देखि अधिक रव बाजी. चलेउ बराह मरुत गति भाजी ॥
तुरत कीन्ह नृप सर संधाना. महि मिलि गयउ बिलोकत बाना ॥
तकि तकि तीर महीस चलावा. करि छल सुअर सरीर बचावा ॥
प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा. रिस बस भूप चलेउ संग लागा ॥
गयउ दूरि घन गहन बराहू. जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू ॥
अति अकेल बन बिपुल कलेसू. तदपि न मृग मग तजइ नरेसू ॥
कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा. भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा ॥
अगम देखि नृप अति पछिताई. फिरेउ महाबन परेउ भुलाई ॥
दो\. खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत. खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत ॥
१५७ ॥
फिरत बिपिन आश्रम एक देखा. तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा ॥
जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई. समर सेन तजि गयउ पराई ॥
समय प्रतापभानु कर जानी. आपन अति असमय अनुमानी ॥
गयउ न गृह मन बहुत गलानी. मिला न राजहि नृप अभिमानी ॥
रिस उर मारि रंक जिमि राजा. बिपिन बसइ तापस कें साजा ॥
तासु समीप गवन नृप कीन्हा. यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा ॥
राउ तृषित नहि सो पहिचाना. देखि सुबेष महामुनि जाना ॥
उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा. परम चतुर न कहेउ निज नामा ॥
दो० भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ. मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ ॥
१५८ ॥
गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ. निज आश्रम तापस लै गयऊ ॥
आसन दीन्ह अस्त रबि जानी. पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी ॥
को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें. सुंदर जुबा जीव परहेलें ॥
चक्रबर्ति के लच्छन तोरें. देखत दया लागि अति मोरें ॥
नाम प्रतापभानु अवनीसा. तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा ॥
फिरत अहेरें परेउँ भुलाई. बडे भाग देखउँ पद आई ॥
हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा. जानत हौं कछु भल होनिहारा ॥
कह मुनि तात भयउ अँधियारा. जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा ॥
दो\. निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान. बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान ॥
१५९(क) ॥
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ. आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ ॥
१५९(ख) ॥
भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा. बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा ॥
नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही. चरन बंदि निज भाग्य सराही ॥
पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई. जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई ॥
मोहि मुनिस सुत सेवक जानी. नाथ नाम निज कहहु बखानी ॥
तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना. भूप सुह्रद सो कपट सयाना ॥
बैरी पुनि छत्री पुनि राजा. छल बल कीन्ह चहइ निज काजा ॥
समुझि राजसुख दुखित अराती. अवाँ अनल इव सुलगइ छाती ॥
सरल बचन नृप के सुनि काना. बयर सँभारि हृदयँ हरषाना ॥
दो\. कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत. नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेति ॥
</pre>
</div>
 
 
=== 2.6 ===
<div class="verse>
<pre>
१६० ॥
कह नृप जे बिग्यान निधाना. तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना ॥
सदा रहहि अपनपौ दुराएँ. सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ ॥
तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें. परम अकिंचन प्रिय हरि केरें ॥
तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा. होत बिरंचि सिवहि संदेहा ॥
जोसि सोसि तव चरन नमामी. मो पर कृपा करिअ अब स्वामी ॥
सहज प्रीति भूपति कै देखी. आपु बिषय बिस्वास बिसेषी ॥
सब प्रकार राजहि अपनाई. बोलेउ अधिक सनेह जनाई ॥
सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला. इहाँ बसत बीते बहु काला ॥
दो\. अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु. लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु ॥
१६१(क) ॥
सो\. तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर. सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ॥
१६१(ख) तातें गुपुत रहउँ जग माहीं. हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं ॥
प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ. कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ ॥
तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें. प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें ॥
अब जौं तात दुरावउँ तोही. दारुन दोष घटइ अति मोही ॥
जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा. तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा ॥
देखा स्वबस कर्म मन बानी. तब बोला तापस बगध्यानी ॥
नाम हमार एकतनु भाई. सुनि नृप बोले पुनि सिरु नाई ॥
कहहु नाम कर अरथ बखानी. मोहि सेवक अति आपन जानी ॥
दो\. आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि. नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि ॥
१६२ ॥
जनि आचरुज करहु मन माहीं. सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं ॥
तपबल तें जग सृजइ बिधाता. तपबल बिष्नु भए परित्राता ॥
तपबल संभु करहिं संघारा. तप तें अगम न कछु संसारा ॥
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा. कथा पुरातन कहै सो लागा ॥
करम धरम इतिहास अनेका. करइ निरूपन बिरति बिबेका ॥
उदभव पालन प्रलय कहानी. कहेसि अमित आचरज बखानी ॥
सुनि महिप तापस बस भयऊ. आपन नाम कहत तब लयऊ ॥
कह तापस नृप जानउँ तोही. कीन्हेहु कपट लाग भल मोही ॥
सो\. सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप. मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव ॥
१६३ ॥
नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा. सत्यकेतु तव पिता नरेसा ॥
गुर प्रसाद सब जानिअ राजा. कहिअ न आपन जानि अकाजा ॥
देखि तात तव सहज सुधाई. प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई ॥
उपजि परि ममता मन मोरें. कहउँ कथा निज पूछे तोरें ॥
अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं. मागु जो भूप भाव मन माहीं ॥
सुनि सुबचन भूपति हरषाना. गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना ॥
कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें. चारि पदारथ करतल मोरें ॥
प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी. मागि अगम बर होउँ असोकी ॥
दो\. जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ. एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ ॥
१६४ ॥
कह तापस नृप ऐसेइ होऊ. कारन एक कठिन सुनु सोऊ ॥
कालउ तुअ पद नाइहि सीसा. एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा ॥
तपबल बिप्र सदा बरिआरा. तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा ॥
जौं बिप्रन्ह सब करहु नरेसा. तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा ॥
चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई. सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई ॥
बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला. तोर नास नहि कवनेहुँ काला ॥
हरषेउ राउ बचन सुनि तासू. नाथ न होइ मोर अब नासू ॥
तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना. मो कहुँ सर्ब काल कल्याना ॥
दो\. एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि. मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि ॥
१६५ ॥
तातें मै तोहि बरजउँ राजा. कहें कथा तव परम अकाजा ॥
छठें श्रवन यह परत कहानी. नास तुम्हार सत्य मम बानी ॥
यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा. नास तोर सुनु भानुप्रतापा ॥
आन उपायँ निधन तव नाहीं. जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं ॥
सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा. द्विज गुर कोप कहहु को राखा ॥
राखइ गुर जौं कोप बिधाता. गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता ॥
जौं न चलब हम कहे तुम्हारें. होउ नास नहिं सोच हमारें ॥
एकहिं डर डरपत मन मोरा. प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा ॥
दो\. होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ. तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउँ ॥
१६६ ॥
सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं. कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं ॥
अहइ एक अति सुगम उपाई. तहाँ परंतु एक कठिनाई ॥
मम आधीन जुगुति नृप सोई. मोर जाब तव नगर न होई ॥
आजु लगें अरु जब तें भयऊँ. काहू के गृह ग्राम न गयऊँ ॥
जौं न जाउँ तव होइ अकाजू. बना आइ असमंजस आजू ॥
सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी. नाथ निगम असि नीति बखानी ॥
बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं. गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं ॥
जलधि अगाध मौलि बह फेनू. संतत धरनि धरत सिर रेनू ॥
दो\. अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल. मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल ॥
१६७ ॥
जानि नृपहि आपन आधीना. बोला तापस कपट प्रबीना ॥
सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही. जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही ॥
अवसि काज मैं करिहउँ तोरा. मन तन बचन भगत तैं मोरा ॥
जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ. फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ ॥
जौं नरेस मैं करौं रसोई. तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई ॥
अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई. सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई ॥
पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ. तव बस होइ भूप सुनु सोऊ ॥
जाइ उपाय रचहु नृप एहू. संबत भरि संकलप करेहू ॥
दो\. नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार. मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं&#६५५३३;करिब जेवनार ॥
१६८ ॥
एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें. होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें ॥
करिहहिं बिप्र होम मख सेवा. तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा ॥
और एक तोहि कहऊँ लखाऊ. मैं एहि बेष न आउब काऊ ॥
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया. हरि आनब मैं करि निज माया ॥
तपबल तेहि करि आपु समाना. रखिहउँ इहाँ बरष परवाना ॥
मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा. सब बिधि तोर सँवारब काजा ॥
गै निसि बहुत सयन अब कीजे. मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे ॥
मैं तपबल तोहि तुरग समेता. पहुँचेहउँ सोवतहि निकेता ॥
दो\. मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि. जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि ॥
१६९ ॥
सयन कीन्ह नृप आयसु मानी. आसन जाइ बैठ छलग्यानी ॥
श्रमित भूप निद्रा अति आई. सो किमि सोव सोच अधिकाई ॥
कालकेतु निसिचर तहँ आवा. जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा ॥
परम मित्र तापस नृप केरा. जानइ सो अति कपट घनेरा ॥
तेहि के सत सुत अरु दस भाई. खल अति अजय देव दुखदाई ॥
प्रथमहि भूप समर सब मारे. बिप्र संत सुर देखि दुखारे ॥
तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा. तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा ॥
जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ. भावी बस न जान कछु राऊ ॥
दो\. रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु. अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु ॥
</pre>
</div>
 
 
=== 2.7 ===
<div class="verse>
<pre>
१७० ॥
तापस नृप निज सखहि निहारी. हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी ॥
मित्रहि कहि सब कथा सुनाई. जातुधान बोला सुख पाई ॥
अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा. जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा ॥
परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई. बिनु औषध बिआधि बिधि खोई ॥
कुल समेत रिपु मूल बहाई. चौथे दिवस मिलब मैं आई ॥
तापस नृपहि बहुत परितोषी. चला महाकपटी अतिरोषी ॥
भानुप्रतापहि बाजि समेता. पहुँचाएसि छन माझ निकेता ॥
नृपहि नारि पहिं सयन कराई. हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई ॥
दो\. राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि. लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि ॥
१७१ ॥
आपु बिरचि उपरोहित रूपा. परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा ॥
जागेउ नृप अनभएँ बिहाना. देखि भवन अति अचरजु माना ॥
मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी. उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी ॥
कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं. पुर नर नारि न जानेउ केहीं ॥
गएँ जाम जुग भूपति आवा. घर घर उत्सव बाज बधावा ॥
उपरोहितहि देख जब राजा. चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा ॥
जुग सम नृपहि गए दिन तीनी. कपटी मुनि पद रह मति लीनी ॥
समय जानि उपरोहित आवा. नृपहि मते सब कहि समुझावा ॥
दो\. नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत. बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत ॥
१७२ ॥
उपरोहित जेवनार बनाई. छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई ॥
मायामय तेहिं कीन्ह रसोई. बिंजन बहु गनि सकइ न कोई ॥
बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा. तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा ॥
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए. पद पखारि सादर बैठाए ॥
परुसन जबहिं लाग महिपाला. भै अकासबानी तेहि काला ॥
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू. है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू ॥
भयउ रसोईं भूसुर माँसू. सब द्विज उठे मानि बिस्वासू ॥
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी. भावी बस आव मुख बानी ॥
दो\. बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार. जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार ॥
१७३ ॥
छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई. घालै लिए सहित समुदाई ॥
ईस्वर राखा धरम हमारा. जैहसि तैं समेत परिवारा ॥
संबत मध्य नास तव होऊ. जलदाता न रहिहि कुल कोऊ ॥
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा. भै बहोरि बर गिरा अकासा ॥
बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा. नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा ॥
चकित बिप्र सब सुनि नभबानी. भूप गयउ जहँ भोजन खानी ॥
तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा. फिरेउ राउ मन सोच अपारा ॥
सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई. त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई ॥
दो\. भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर. किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर ॥
१७४ ॥
अस कहि सब महिदेव सिधाए. समाचार पुरलोगन्ह पाए ॥
सोचहिं दूषन दैवहि देहीं. बिचरत हंस काग किय जेहीं ॥
उपरोहितहि भवन पहुँचाई. असुर तापसहि खबरि जनाई ॥
तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए. सजि सजि सेन भूप सब धाए ॥
घेरेन्हि नगर निसान बजाई. बिबिध भाँति नित होई लराई ॥
जूझे सकल सुभट करि करनी. बंधु समेत परेउ नृप धरनी ॥
सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा. बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा ॥
रिपु जिति सब नृप नगर बसाई. निज पुर गवने जय जसु पाई ॥
दो\. भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम. धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम ॥
.१७५ ॥
काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा. भयउ निसाचर सहित समाजा ॥
दस सिर ताहि बीस भुजदंडा. रावन नाम बीर बरिबंडा ॥
भूप अनुज अरिमर्दन नामा. भयउ सो कुंभकरन बलधामा ॥
सचिव जो रहा धरमरुचि जासू. भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू ॥
नाम बिभीषन जेहि जग जाना. बिष्नुभगत बिग्यान निधाना ॥
रहे जे सुत सेवक नृप केरे. भए निसाचर घोर घनेरे ॥
कामरूप खल जिनस अनेका. कुटिल भयंकर बिगत बिबेका ॥
कृपा रहित हिंसक सब पापी. बरनि न जाहिं बिस्व परितापी ॥
दो\. उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप. तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप ॥
१७६ ॥
कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई. परम उग्र नहिं बरनि सो जाई ॥
गयउ निकट तप देखि बिधाता. मागहु बर प्रसन्न मैं ताता ॥
करि बिनती पद गहि दससीसा. बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा ॥
हम काहू के मरहिं न मारें. बानर मनुज जाति दुइ बारें ॥
एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा. मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा ॥
पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ. तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ ॥
जौं एहिं खल नित करब अहारू. होइहि सब उजारि संसारू ॥
सारद प्रेरि तासु मति फेरी. मागेसि नीद मास षट केरी ॥
दो\. गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु. तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु ॥
१७७ ॥
तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए. हरषित ते अपने गृह आए ॥
मय तनुजा मंदोदरि नामा. परम सुंदरी नारि ललामा ॥
सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी. होइहि जातुधानपति जानी ॥
हरषित भयउ नारि भलि पाई. पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई ॥
गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी. बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी ॥
सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा. कनक रचित मनिभवन अपारा ॥
भोगावति जसि अहिकुल बासा. अमरावति जसि सक्रनिवासा ॥
तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका. जग बिख्यात नाम तेहि लंका ॥
दो\. खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव. कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव ॥
१७८(क) ॥
हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ. सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ ॥
१७८(ख) ॥
रहे तहाँ निसिचर भट भारे. ते सब सुरन्ह समर संघारे ॥
अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे. रच्छक कोटि जच्छपति केरे ॥
दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई. सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई ॥
देखि बिकट भट बड़ि कटकाई. जच्छ जीव लै गए पराई ॥
फिरि सब नगर दसानन देखा. गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा ॥
सुंदर सहज अगम अनुमानी. कीन्हि तहाँ रावन रजधानी ॥
जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे. सुखी सकल रजनीचर कीन्हे ॥
एक बार कुबेर पर धावा. पुष्पक जान जीति लै आवा ॥
दो\. कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ. मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ ॥
१७९ ॥
सुख संपति सुत सेन सहाई. जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई ॥
नित नूतन सब बाढ़त जाई. जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई ॥
अतिबल कुंभकरन अस भ्राता. जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता ॥
करइ पान सोवइ षट मासा. जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा ॥
जौं दिन प्रति अहार कर सोई. बिस्व बेगि सब चौपट होई ॥
समर धीर नहिं जाइ बखाना. तेहि सम अमित बीर बलवाना ॥
बारिदनाद जेठ सुत तासू. भट महुँ प्रथम लीक जग जासू ॥
जेहि न होइ रन सनमुख कोई. सुरपुर नितहिं परावन होई ॥
दो\. कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय. एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय ॥
</pre>
</div>
 
 
=== 2.8 ===
<div class="verse>
<pre>
१८० ॥
कामरूप जानहिं सब माया. सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया ॥
दसमुख बैठ सभाँ एक बारा. देखि अमित आपन परिवारा ॥
सुत समूह जन परिजन नाती. गे को पार निसाचर जाती ॥
सेन बिलोकि सहज अभिमानी. बोला बचन क्रोध मद सानी ॥
सुनहु सकल रजनीचर जूथा. हमरे बैरी बिबुध बरूथा ॥
ते सनमुख नहिं करही लराई. देखि सबल रिपु जाहिं पराई ॥
तेन्ह कर मरन एक बिधि होई. कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई ॥
द्विजभोजन मख होम सराधा ॥
सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा ॥
दो\. छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ. तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ ॥
१८१ ॥
मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा. दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा ॥
जे सुर समर धीर बलवाना. जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना ॥
तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी. उठि सुत पितु अनुसासन काँधी ॥
एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही. आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही ॥
चलत दसानन डोलति अवनी. गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी ॥
रावन आवत सुनेउ सकोहा. देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा ॥
दिगपालन्ह के लोक सुहाए. सूने सकल दसानन पाए ॥
पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी. देइ देवतन्ह गारि पचारी ॥
रन मद मत्त फिरइ जग धावा. प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा ॥
रबि ससि पवन बरुन धनधारी. अगिनि काल जम सब अधिकारी ॥
किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा. हठि सबही के पंथहिं लागा ॥
ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी. दसमुख बसबर्ती नर नारी ॥
आयसु करहिं सकल भयभीता. नवहिं आइ नित चरन बिनीता ॥
दो\. भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र. मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र ॥
१८२(ख) ॥
देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि. जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि ॥
१८२ख ॥
इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ. सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ ॥
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा. तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा ॥
देखत भीमरूप सब पापी. निसिचर निकर देव परितापी ॥
करहि उपद्रव असुर निकाया. नाना रूप धरहिं करि माया ॥
जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला. सो सब करहिं बेद प्रतिकूला ॥
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं. नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं ॥
सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई. देव बिप्र गुरू मान न कोई ॥
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना. सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना ॥
छं\. जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा. आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा ॥
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना. तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना ॥
सो\. बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं. हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति ॥
१८३ ॥
मासपारायण, छठा विश्राम बाढ़े खल बहु चोर जुआरा. जे लंपट परधन परदारा ॥
मानहिं मातु पिता नहिं देवा. साधुन्ह सन करवावहिं सेवा ॥
जिन्ह के यह आचरन भवानी. ते जानेहु निसिचर सब प्रानी ॥
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी. परम सभीत धरा अकुलानी ॥
गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही. जस मोहि गरुअ एक परद्रोही ॥
सकल धर्म देखइ बिपरीता. कहि न सकइ रावन भय भीता ॥
धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी. गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी ॥
निज संताप सुनाएसि रोई. काहू तें कछु काज न होई ॥
छं\. सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका. सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका ॥
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई. जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई ॥
सो\. धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु. जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति ॥
१८४ ॥
बैठे सुर सब करहिं बिचारा. कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा ॥
पुर बैकुंठ जान कह कोई. कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई ॥
जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति. प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती ॥
तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ. अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ ॥
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना. प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना ॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं. कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ॥
अग जगमय सब रहित बिरागी. प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी ॥
मोर बचन सब के मन माना. साधु साधु करि ब्रह्म बखाना ॥
दो\. सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर. अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर ॥
१८५ ॥
छं\. जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता. गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता ॥
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई. जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई ॥
जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा. अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा ॥
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा. निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा ॥
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा. सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा ॥
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा. मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा ॥
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना. जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना ॥
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा. मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा ॥
दो\. जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह. गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह ॥
१८६ ॥
जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा. तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा ॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा. लेहउँ दिनकर बंस उदारा ॥
कस्यप अदिति महातप कीन्हा. तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा ॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा. कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा ॥
तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई. रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई ॥
नारद बचन सत्य सब करिहउँ. परम सक्ति समेत अवतरिहउँ ॥
हरिहउँ सकल भूमि गरुआई. निर्भय होहु देव समुदाई ॥
गगन ब्रह्मबानी सुनी काना. तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना ॥
तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा. अभय भई भरोस जियँ आवा ॥
दो\. निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ. बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ ॥
१८७ ॥
गए देव सब निज निज धामा. भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा . जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा. हरषे देव बिलंब न कीन्हा ॥
बनचर देह धरि छिति माहीं. अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं ॥
गिरि तरु नख आयुध सब बीरा. हरि मारग चितवहिं मतिधीरा ॥
गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी. रहे निज निज अनीक रचि रूरी ॥
यह सब रुचिर चरित मैं भाषा. अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा ॥
अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ. बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ ॥
धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी. हृदयँ भगति मति सारँगपानी ॥
दो\. कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत. पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत ॥
१८८ ॥
एक बार भूपति मन माहीं. भै गलानि मोरें सुत नाहीं ॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला. चरन लागि करि बिनय बिसाला ॥
निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ. कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ ॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी. त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी ॥
सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा. पुत्रकाम सुभ जग्य करावा ॥
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें. प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें ॥
जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा. सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा ॥
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई. जथा जोग जेहि भाग बनाई ॥
दो\. तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ ॥
परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ ॥
१८९ ॥
तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं. कौसल्यादि तहाँ चलि आई ॥
अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा. उभय भाग आधे कर कीन्हा ॥
कैकेई कहँ नृप सो दयऊ. रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ ॥
कौसल्या कैकेई हाथ धरि. दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि ॥
एहि बिधि गर्भसहित सब नारी. भईं हृदयँ हरषित सुख भारी ॥
जा दिन तें हरि गर्भहिं आए. सकल लोक सुख संपति छाए ॥
मंदिर महँ सब राजहिं रानी. सोभा सील तेज की खानीं ॥
सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ. जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ ॥
दो\. जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल. चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल ॥
</pre>
</div>
 
 
=== 2.9 ===
<div class="verse>
<pre>
१९० ॥
नौमी तिथि मधु मास पुनीता. सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता ॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा. पावन काल लोक बिश्रामा ॥
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ. हरषित सुर संतन मन चाऊ ॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा. स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा ॥
सो अवसर बिरंचि जब जाना. चले सकल सुर साजि बिमाना ॥
गगन बिमल सकुल सुर जूथा. गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा ॥
बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी. गहगहि गगन दुंदुभी बाजी ॥
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा. बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा ॥
दो\. सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम. जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम ॥
१९१ ॥
छं\. भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी. हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी. भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी ॥
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता. माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता. सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता ॥
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै. मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै ॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै. कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥
माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा. कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा. यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ॥
दो\. बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार. निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ॥
</pre>
</div>
"https://sa.wikisource.org/wiki/रामायण_बालकाण्ड" इत्यस्माद् प्रतिप्राप्तम्