"रामायण बालकाण्ड" इत्यस्य संस्करणे भेदः
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पङ्क्तिः ३०:
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१०० ॥
जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई
महामुनिन्ह सो सब करवाई ॥ गहि गिरीस कुस कन्या पानी
भवहि समरपीं जानि भवानी ॥ पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा
हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा ॥ बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं
जय जय जय संकर सुर करहीं ॥ बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना
सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना ॥ हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू
सकल भुवन भरि रहा उछाहू ॥ दासीं दास तुरग रथ नागा
धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा ॥ अन्न कनकभाजन भरि जाना
दाइज दीन्ह न जाइ बखाना ॥ का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो ॥ सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो ॥ छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु ॥ १०१ ॥
बहु बिधि संभु सास समुझाई
गवनी भवन चरन सिरु नाई ॥ जननीं उमा बोलि तब लीन्ही
लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही ॥ करेहु सदा संकर पद पूजा
नारिधरमु पति देउ न दूजा ॥ बचन कहत भरे लोचन बारी
बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी ॥ कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं
पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं ॥ भै अति प्रेम बिकल महतारी
धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी ॥ पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना
परम प्रेम कछु जाइ न बरना ॥ सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी
जाइ जननि उर पुनि लपटानी ॥ फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई ॥ जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले ॥ बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु ॥ १०२ ॥
तुरत भवन आए गिरिराई
सकल सैल सर लिए बोलाई ॥ आदर दान बिनय बहुमाना
सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना ॥ जबहिं संभु कैलासहिं आए
सुर सब निज निज लोक सिधाए ॥ जगत मातु पितु संभु भवानी
तेही सिंगारु न कहउँ बखानी ॥ करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा
गनन्ह समेत बसहिं कैलासा ॥ हर गिरिजा बिहार नित नयऊ
एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ ॥ तब जनमेउ षटबदन कुमारा
तारकु असुर समर जेहिं मारा ॥ आगम निगम प्रसिद्ध पुराना
षन्मुख जन्मु सकल जग जाना ॥ तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा ॥ यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं ॥ बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु ॥ १०३ ॥
संभु चरित सुनि सरस सुहावा
भरद्वाज मुनि अति सुख पावा ॥ बहु लालसा कथा पर बाढ़ी
नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी ॥ प्रेम बिबस मुख आव न बानी
दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी ॥ अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा
तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा ॥ सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं
रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं ॥ बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू
राम भगत कर लच्छन एहू ॥ सिव सम को रघुपति ब्रतधारी
बिनु अघ तजी सती असि नारी ॥ पनु करि रघुपति भगति देखाई
को सिव सम रामहि प्रिय भाई ॥ सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार ॥ १०४ ॥
मैं जाना तुम्हार गुन सीला
कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला ॥ सुनु मुनि आजु समागम तोरें
कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें ॥ राम चरित अति अमित मुनिसा
कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा ॥ तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी
सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी ॥ सारद दारुनारि सम स्वामी
रामु सूत्रधर अंतरजामी ॥ जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी
कबि उर अजिर नचावहिं बानी ॥ प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा
बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा ॥ परम रम्य गिरिबरु कैलासू
सदा जहाँ सिव उमा निवासू ॥ बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद ॥ १०५ ॥
हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं
ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं ॥ तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला
नित नूतन सुंदर सब काला ॥ त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया
सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया ॥ एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ
तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ ॥ निज कर डासि नागरिपु छाला
बैठै सहजहिं संभु कृपाला ॥ कुंद इंदु दर गौर सरीरा
भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा ॥ तरुन अरुन अंबुज सम चरना
नख दुति भगत हृदय तम हरना ॥ भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी
आननु सरद चंद छबि हारी ॥ नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल ॥ १०६ ॥
बैठे सोह कामरिपु कैसें
धरें सरीरु सांतरसु जैसें ॥ पारबती भल अवसरु जानी
गई संभु पहिं मातु भवानी ॥ जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा
बाम भाग आसनु हर दीन्हा ॥ बैठीं सिव समीप हरषाई
पूरुब जन्म कथा चित आई ॥ पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी
बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी ॥ कथा जो सकल लोक हितकारी
सोइ पूछन चह सैलकुमारी ॥ बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी
त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी ॥ चर अरु अचर नाग नर देवा
सकल करहिं पद पंकज सेवा ॥ जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम ॥
१०७ ॥
जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी
जानिअ सत्य मोहि निज दासी ॥ तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना
कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना ॥ जासु भवनु सुरतरु तर होई
सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई ॥ ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी
हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी ॥ प्रभु जे मुनि परमारथबादी
कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी ॥ सेस सारदा बेद पुराना
सकल करहिं रघुपति गुन गाना ॥ तुम्ह पुनि राम राम दिन राती
सादर जपहु अनँग आराती ॥ रामु सो अवध नृपति सुत सोई
की अज अगुन अलखगति कोई ॥ देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि ॥ १०८ ॥
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ
कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ ॥ अग्य जानि रिस उर जनि धरहू
जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू ॥ मै बन दीखि राम प्रभुताई
अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई ॥ तदपि मलिन मन बोधु न आवा
सो फलु भली भाँति हम पावा ॥ अजहूँ कछु संसउ मन मोरे
करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें ॥ प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा
नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा ॥ तब कर अस बिमोह अब नाहीं
रामकथा पर रुचि मन माहीं ॥ कहहु पुनीत राम गुन गाथा
भुजगराज भूषन सुरनाथा ॥ बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि ॥ १०९ ॥
जदपि जोषिता नहिं अधिकारी
दासी मन क्रम बचन तुम्हारी ॥ गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं
आरत अधिकारी जहँ पावहिं ॥ अति आरति पूछउँ सुरराया
रघुपति कथा कहहु करि दाया ॥ प्रथम सो कारन कहहु बिचारी
निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी ॥ पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा
बालचरित पुनि कहहु उदारा ॥ कहहु जथा जानकी बिबाहीं
राज तजा सो दूषन काहीं ॥ बन बसि कीन्हे चरित अपारा
कहहु नाथ जिमि रावन मारा ॥ राज बैठि कीन्हीं बहु लीला
सकल कहहु संकर सुखलीला ॥ प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम ॥ </pre>
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११० ॥
पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी
जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी ॥ भगति ग्यान बिग्यान बिरागा
पुनि सब बरनहु सहित बिभागा ॥ औरउ राम रहस्य अनेका
कहहु नाथ अति बिमल बिबेका ॥ जो प्रभु मैं पूछा नहि होई
सोउ दयाल राखहु जनि गोई ॥ तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना
आन जीव पाँवर का जाना ॥ प्रस्न उमा कै सहज सुहाई
छल बिहीन सुनि सिव मन भाई ॥ हर हियँ रामचरित सब आए
प्रेम पुलक लोचन जल छाए ॥ श्रीरघुनाथ रूप उर आवा
परमानंद अमित सुख पावा ॥ रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह ॥ १११ ॥
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें
जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें ॥ जेहि जानें जग जाइ हेराई
जागें जथा सपन भ्रम जाई ॥ बंदउँ बालरूप सोई रामू
सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू ॥ मंगल भवन अमंगल हारी
द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी ॥ करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी
हरषि सुधा सम गिरा उचारी ॥ धन्य धन्य गिरिराजकुमारी
तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी ॥ पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा
सकल लोक जग पावनि गंगा ॥ तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी
कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी ॥ सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं ॥ ११२ ॥
तदपि असंका कीन्हिहु सोई
कहत सुनत सब कर हित होई ॥ जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना
श्रवन रंध्र अहिभवन समाना ॥ नयनन्हि संत दरस नहिं देखा
लोचन मोरपंख कर लेखा ॥ ते सिर कटु तुंबरि समतूला
जे न नमत हरि गुर पद मूला ॥ जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी
जीवत सव समान तेइ प्रानी ॥ जो नहिं करइ राम गुन गाना
जीह सो दादुर जीह समाना ॥ कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती
सुनि हरिचरित न जो हरषाती ॥ गिरिजा सुनहु राम कै लीला
सुर हित दनुज बिमोहनसीला ॥ सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि ॥ ११३ ॥
रामकथा सुंदर कर तारी
संसय बिहग उडावनिहारी ॥ रामकथा कलि बिटप कुठारी
सादर सुनु गिरिराजकुमारी ॥ राम नाम गुन चरित सुहाए
जनम करम अगनित श्रुति गाए ॥ जथा अनंत राम भगवाना
तथा कथा कीरति गुन नाना ॥ तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी
कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी ॥ उमा प्रस्न तव सहज सुहाई
सुखद संतसंमत मोहि भाई ॥ एक बात नहि मोहि सोहानी
जदपि मोह बस कहेहु भवानी ॥ तुम जो कहा राम कोउ आना
जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना ॥ पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच ॥ ११४ ॥
अग्य अकोबिद अंध अभागी
काई बिषय मुकर मन लागी ॥ लंपट कपटी कुटिल बिसेषी
सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी ॥ कहहिं ते बेद असंमत बानी
जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी ॥ मुकर मलिन अरु नयन बिहीना
राम रूप देखहिं किमि दीना ॥ जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका
जल्पहिं कल्पित बचन अनेका ॥ हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं
तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं ॥ बातुल भूत बिबस मतवारे
ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे ॥ जिन्ह कृत महामोह मद पाना
तिन कर कहा करिअ नहिं काना ॥ सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम ॥ ११५ ॥
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा
गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ॥ अगुन अरुप अलख अज जोई
भगत प्रेम बस सगुन सो होई ॥ जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें
जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें ॥ जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा
तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा ॥ राम सच्चिदानंद दिनेसा
नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा ॥ सहज प्रकासरुप भगवाना
नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना ॥ हरष बिषाद ग्यान अग्याना
जीव धर्म अहमिति अभिमाना ॥ राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना
परमानन्द परेस पुराना ॥ रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ ॥
११६ ॥
निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी
प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी ॥ जथा गगन घन पटल निहारी
झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी ॥ चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ
प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ ॥ उमा राम बिषइक अस मोहा
नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा ॥ बिषय करन सुर जीव समेता
सकल एक तें एक सचेता ॥ सब कर परम प्रकासक जोई
राम अनादि अवधपति सोई ॥ जगत प्रकास्य प्रकासक रामू
मायाधीस ग्यान गुन धामू ॥ जासु सत्यता तें जड माया
भास सत्य इव मोह सहाया ॥ जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि ॥ ११७ ॥
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई
जदपि असत्य देत दुख अहई ॥ जौं सपनें सिर काटै कोई
बिनु जागें न दूरि दुख होई ॥ जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई
गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई ॥ आदि अंत कोउ जासु न पावा
मति अनुमानि निगम अस गावा ॥ बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना
कर बिनु करम करइ बिधि नाना ॥ आनन रहित सकल रस भोगी
बिनु बानी बकता बड़ जोगी ॥ तनु बिनु परस नयन बिनु देखा
ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ॥ असि सब भाँति अलौकिक करनी
महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ॥ सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान ॥
११८ ॥
कासीं मरत जंतु अवलोकी
जासु नाम बल करउँ बिसोकी ॥ सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी
रघुबर सब उर अंतरजामी ॥ बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं
जनम अनेक रचित अघ दहहीं ॥ सादर सुमिरन जे नर करहीं
भव बारिधि गोपद इव तरहीं ॥ राम सो परमातमा भवानी
तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी ॥ अस संसय आनत उर माहीं
ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं ॥ सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना
मिटि गै सब कुतरक कै रचना ॥ भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती
दारुन असंभावना बीती ॥ बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि ॥ ११९ ॥
ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी
मिटा मोह सरदातप भारी ॥ तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ
राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ ॥ नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा
सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा ॥ अब मोहि आपनि किंकरि जानी
जदपि सहज जड नारि अयानी ॥ प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू
जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू ॥ राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी
सर्ब रहित सब उर पुर बासी ॥ नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू
मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू ॥ उमा बचन सुनि परम बिनीता
रामकथा पर प्रीति पुनीता ॥ </pre>
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१२०(क) ॥
नवान्हपारायन,पहला विश्राम मासपारायण, चौथा विश्राम
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड ॥ १२०(ख) ॥
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब
सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ ॥ १२०(ग) ॥
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु ॥ १२०(घ ॥
सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए
बिपुल बिसद निगमागम गाए ॥ हरि अवतार हेतु जेहि होई
इदमित्थं कहि जाइ न सोई ॥ राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी
मत हमार अस सुनहि सयानी ॥ तदपि संत मुनि बेद पुराना
जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना ॥ तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही
समुझि परइ जस कारन मोही ॥ जब जब होइ धरम कै हानी
बाढहिं असुर अधम अभिमानी ॥ करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी
सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी ॥ तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा
हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा ॥ जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु ॥ १२१ ॥
सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं
कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं ॥ राम जनम के हेतु अनेका
परम बिचित्र एक तें एका ॥ जनम एक दुइ कहउँ बखानी
सावधान सुनु सुमति भवानी ॥ द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ
जय अरु बिजय जान सब कोऊ ॥ बिप्र श्राप तें दूनउ भाई
तामस असुर देह तिन्ह पाई ॥ कनककसिपु अरु हाटक लोचन
जगत बिदित सुरपति मद मोचन ॥ बिजई समर बीर बिख्याता
धरि बराह बपु एक निपाता ॥ होइ नरहरि दूसर पुनि मारा
जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा ॥ कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान ॥ १२२ ।
१२२ . मुकुत न भए हते भगवाना. तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना ॥▼
मुकुत न भए हते भगवाना ।
एक बार तिन्ह के हित लागी. धरेउ सरीर भगत अनुरागी ॥▼
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता. दसरथ कौसल्या बिख्याता ॥▼
एक कलप एहि बिधि अवतारा. चरित्र पवित्र किए संसारा ॥▼
धरेउ सरीर भगत अनुरागी ॥
एक कलप सुर देखि दुखारे. समर जलंधर सन सब हारे ॥▼
संभु कीन्ह संग्राम अपारा. दनुज महाबल मरइ न मारा ॥▼
दसरथ कौसल्या बिख्याता ॥
परम सती असुराधिप नारी. तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी ॥▼
एक कलप एहि बिधि अवतारा ।
दो\. छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह ॥▼
समर जलंधर सन सब हारे ॥
दनुज महाबल मरइ न मारा ॥
परम सती असुराधिप नारी ।
जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह ॥
१२३ ॥
तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना
कौतुकनिधि कृपाल भगवाना ॥ तहाँ जलंधर रावन भयऊ
रन हति राम परम पद दयऊ ॥ एक जनम कर कारन एहा
जेहि लागि राम धरी नरदेहा ॥ प्रति अवतार कथा प्रभु केरी
सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी ॥ नारद श्राप दीन्ह एक बारा
कलप एक तेहि लगि अवतारा ॥ गिरिजा चकित भई सुनि बानी
नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि ॥ कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा
का अपराध रमापति कीन्हा ॥ यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी
मुनि मन मोह आचरज भारी ॥ जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ ॥ १२४(क) ॥
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद ॥ १२४(ख) ॥
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि
बह समीप सुरसरी सुहावनि ॥ आश्रम परम पुनीत सुहावा
देखि देवरिषि मन अति भावा ॥ निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा
भयउ रमापति पद अनुरागा ॥ सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी
सहज बिमल मन लागि समाधी ॥ मुनि गति देखि सुरेस डेराना
कामहि बोलि कीन्ह समाना ॥ सहित सहाय जाहु मम हेतू
चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू ॥ सुनासीर मन महुँ असि त्रासा
चहत देवरिषि मम पुर बासा ॥ जे कामी लोलुप जग माहीं
कुटिल काक इव सबहि डेराहीं ॥ छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज ॥ १२५ ॥
तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ
निज मायाँ बसंत निरमयऊ ॥ कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा
कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा ॥ चली सुहावनि त्रिबिध बयारी
काम कृसानु बढ़ावनिहारी ॥ रंभादिक सुरनारि नबीना
सकल असमसर कला प्रबीना ॥ करहिं गान बहु तान तरंगा
बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा ॥ देखि सहाय मदन हरषाना
कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना ॥ काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी
निज भयँ डरेउ मनोभव पापी ॥ सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु
बड़ रखवार रमापति जासू ॥ गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन ॥ १२६ ॥
भयउ न नारद मन कछु रोषा
कहि प्रिय बचन काम परितोषा ॥ नाइ चरन सिरु आयसु पाई
गयउ मदन तब सहित सहाई ॥ मुनि सुसीलता आपनि करनी
सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी ॥ सुनि सब कें मन अचरजु आवा
मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा ॥ तब नारद गवने सिव पाहीं
जिता काम अहमिति मन माहीं ॥ मार चरित संकरहिं सुनाए
अतिप्रिय जानि महेस सिखाए ॥ बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं
जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं ॥ तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ
चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ ॥ भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान ॥ १२७ ॥
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई
करै अन्यथा अस नहिं कोई ॥ संभु बचन मुनि मन नहिं भाए
तब बिरंचि के लोक सिधाए ॥ एक बार करतल बर बीना
गावत हरि गुन गान प्रबीना ॥ छीरसिंधु गवने मुनिनाथा
जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा ॥ हरषि मिले उठि रमानिकेता
बैठे आसन रिषिहि समेता ॥ बोले बिहसि चराचर राया
बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया ॥ काम चरित नारद सब भाषे
जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे ॥ अति प्रचंड रघुपति कै माया
जेहि न मोह अस को जग जाया ॥ तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान ॥ १२८ ॥
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें
ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके ॥ ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा
तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा ॥ नारद कहेउ सहित अभिमाना
कृपा तुम्हारि सकल भगवाना ॥ करुनानिधि मन दीख बिचारी
उर अंकुरेउ गरब तरु भारी ॥ बेगि सो मै डारिहउँ उखारी
पन हमार सेवक हितकारी ॥ मुनि कर हित मम कौतुक होई
अवसि उपाय करबि मै सोई ॥ तब नारद हरि पद सिर नाई
चले हृदयँ अहमिति अधिकाई ॥ श्रीपति निज माया तब प्रेरी
सुनहु कठिन करनी तेहि केरी ॥ श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार ॥ १२९ ॥
बसहिं नगर सुंदर नर नारी
जनु बहु मनसिज रति तनुधारी ॥ तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा
अगनित हय गय सेन समाजा ॥ सत सुरेस सम बिभव बिलासा
रूप तेज बल नीति निवासा ॥ बिस्वमोहनी तासु कुमारी
श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी ॥ सोइ हरिमाया सब गुन खानी
सोभा तासु कि जाइ बखानी ॥ करइ स्वयंबर सो नृपबाला
आए तहँ अगनित महिपाला ॥ मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ
पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ ॥ सुनि सब चरित भूपगृहँ आए
करि पूजा नृप मुनि बैठाए ॥ कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि ॥ </pre>
</div>
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१३० ॥
देखि रूप मुनि बिरति बिसारी
बड़ी बार लगि रहे निहारी ॥ लच्छन तासु बिलोकि भुलाने
हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने ॥ जो एहि बरइ अमर सोइ होई
समरभूमि तेहि जीत न कोई ॥ सेवहिं सकल चराचर ताही
बरइ सीलनिधि कन्या जाही ॥ लच्छन सब बिचारि उर राखे
कछुक बनाइ भूप सन भाषे ॥ सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं
नारद चले सोच मन माहीं ॥ करौं जाइ सोइ जतन बिचारी
जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी ॥ जप तप कछु न होइ तेहि काला
हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला ॥ जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल ॥ १३१ ॥
हरि सन मागौं सुंदरताई
होइहि जात गहरु अति भाई ॥ मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ
एहि अवसर सहाय सोइ होऊ ॥ बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला
प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला ॥ प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने
होइहि काजु हिएँ हरषाने ॥ अति आरति कहि कथा सुनाई
करहु कृपा करि होहु सहाई ॥ आपन रूप देहु प्रभु मोही
आन भाँति नहिं पावौं ओही ॥ जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा
करहु सो बेगि दास मैं तोरा ॥ निज माया बल देखि बिसाला
हियँ हँसि बोले दीनदयाला ॥ सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार ॥ १३२ ॥
कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी
बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी ॥ एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ
कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ ॥ माया बिबस भए मुनि मूढ़ा
समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा ॥ गवने तुरत तहाँ रिषिराई
जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई ॥ निज निज आसन बैठे राजा
बहु बनाव करि सहित समाजा ॥ मुनि मन हरष रूप अति मोरें
मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें ॥ मुनि हित कारन कृपानिधाना
दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना ॥ सो चरित्र लखि काहुँ न पावा
नारद जानि सबहिं सिर नावा ॥ बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ ॥ १३३ ॥
जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई
हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई ॥ तहँ बैठ महेस गन दोऊ
बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ ॥ करहिं कूटि नारदहि सुनाई
नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई ॥ रीझहि राजकुअँरि छबि देखी
इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी ॥ मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ
हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ ॥ जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी
समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी ॥ काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा
सो सरूप नृपकन्याँ देखा ॥ मर्कट बदन भयंकर देही
देखत हृदयँ क्रोध भा तेही ॥ देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल ॥ १३४ ॥
जेहि दिसि बैठे नारद फूली
सो दिसि देहि न बिलोकी भूली ॥ पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं
देखि दसा हर गन मुसकाहीं ॥ धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला
कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला ॥ दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा
नृपसमाज सब भयउ निरासा ॥ मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी
मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी ॥ तब हर गन बोले मुसुकाई
निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई ॥ अस कहि दोउ भागे भयँ भारी
बदन दीख मुनि बारि निहारी ॥ बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा
तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा ॥ हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ ॥ १३५ ॥
पुनि जल दीख रूप निज पावा
तदपि हृदयँ संतोष न आवा ॥ फरकत अधर कोप मन माहीं
सपदी चले कमलापति पाहीं ॥ देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई
जगत मोर उपहास कराई ॥ बीचहिं पंथ मिले दनुजारी
संग रमा सोइ राजकुमारी ॥ बोले मधुर बचन सुरसाईं
मुनि कहँ चले बिकल की नाईं ॥ सुनत बचन उपजा अति क्रोधा
माया बस न रहा मन बोधा ॥ पर संपदा सकहु नहिं देखी
तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी ॥ मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु
सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु ॥ स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु ॥ १३६ ॥
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई
भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई ॥ भलेहि मंद मंदेहि भल करहू
बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू ॥ डहकि डहकि परिचेहु सब काहू
अति असंक मन सदा उछाहू ॥ करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा
अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा ॥ भले भवन अब बायन दीन्हा
पावहुगे फल आपन कीन्हा ॥ बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा
सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा ॥ कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी
करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी ॥ मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी
नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी ॥ निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि ॥ १३७ ॥
जब हरि माया दूरि निवारी
नहिं तहँ रमा न राजकुमारी ॥ तब मुनि अति सभीत हरि चरना
गहे पाहि प्रनतारति हरना ॥ मृषा होउ मम श्राप कृपाला
मम इच्छा कह दीनदयाला ॥ मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे
कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे ॥ जपहु जाइ संकर सत नामा
होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा ॥ कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें
असि परतीति तजहु जनि भोरें ॥ जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी
सो न पाव मुनि भगति हमारी ॥ अस उर धरि महि बिचरहु जाई
अब न तुम्हहि माया निअराई ॥ सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान ॥
१३८ ॥
हर गन मुनिहि जात पथ देखी
बिगतमोह मन हरष बिसेषी ॥ अति सभीत नारद पहिं आए
गहि पद आरत बचन सुनाए ॥ हर गन हम न बिप्र मुनिराया
बड़ अपराध कीन्ह फल पाया ॥ श्राप अनुग्रह करहु कृपाला
बोले नारद दीनदयाला ॥ निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ
बैभव बिपुल तेज बल होऊ ॥ भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ
धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ समर मरन हरि हाथ तुम्हारा होइहहु मुकुत न पुनि संसारा ॥ चले जुगल मुनि पद सिर नाई
भए निसाचर कालहि पाई ॥ सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार ॥ १३९ ॥
एहि बिधि जनम करम हरि केरे
सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे ॥ कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं
चारु चरित नानाबिधि करहीं ॥ तब तब कथा मुनीसन्ह गाई
परम पुनीत प्रबंध बनाई ॥ बिबिध प्रसंग अनूप बखाने
करहिं न सुनि आचरजु सयाने ॥ हरि अनंत हरिकथा अनंता
कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता ॥ रामचंद्र के चरित सुहाए
कलप कोटि लगि जाहिं न गाए ॥ यह प्रसंग मैं कहा भवानी
हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी ॥ प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी ॥
सेवत सुलभ सकल दुख हारी ॥
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि ॥
</pre>
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<pre>
१४० ॥
अपर हेतु सुनु सैलकुमारी
कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी ॥ जेहि कारन अज अगुन अरूपा
ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा ॥ जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा
बंधु समेत धरें मुनिबेषा ॥ जासु चरित अवलोकि भवानी
सती सरीर रहिहु बौरानी ॥ अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी
तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी ॥ लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा
सो सब कहिहउँ मति अनुसारा ॥ भरद्वाज सुनि संकर बानी
सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी ॥ लगे बहुरि बरने बृषकेतू
सो अवतार भयउ जेहि हेतू ॥ राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ ॥
१४१ ॥
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा
जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा ॥ दंपति धरम आचरन नीका
अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका ॥ नृप उत्तानपाद सुत तासू
ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू ॥ लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही
बेद पुरान प्रसंसहि जाही ॥ देवहूति पुनि तासु कुमारी
जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी ॥ आदिदेव प्रभु दीनदयाला
जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला ॥ सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना
तत्व बिचार निपुन भगवाना ॥ तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला
प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला ॥ हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु ॥ १४२ ॥
बरबस राज सुतहि तब दीन्हा
नारि समेत गवन बन कीन्हा ॥ तीरथ बर नैमिष बिख्याता
अति पुनीत साधक सिधि दाता ॥ बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा
तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा ॥ पंथ जात सोहहिं मतिधीरा
ग्यान भगति जनु धरें सरीरा ॥ पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा
हरषि नहाने निरमल नीरा ॥ आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी
धरम धुरंधर नृपरिषि जानी ॥ जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए
मुनिन्ह सकल सादर करवाए ॥ कृस सरीर मुनिपट परिधाना
सत समाज नित सुनहिं पुराना दो॰ द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग ॥ १४३ ॥
करहिं अहार साक फल कंदा
सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा ॥ पुनि हरि हेतु करन तप लागे
बारि अधार मूल फल त्यागे ॥ उर अभिलाष निंरंतर होई
देखा नयन परम प्रभु सोई ॥ अगुन अखंड अनंत अनादी
जेहि चिंतहिं परमारथबादी ॥ नेति नेति जेहि बेद निरूपा
निजानंद निरुपाधि अनूपा ॥ संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना
उपजहिं जासु अंस तें नाना ॥ ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई
भगत हेतु लीलातनु गहई ॥ जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा
तौ हमार पूजहि अभिलाषा ॥ संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार ॥ १४४ ॥
बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ
ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥ बिधि हरि तप देखि अपारा
मनु समीप आए बहु बारा ॥ मागहु बर बहु भाँति लोभाए
परम धीर नहिं चलहिं चलाए ॥ अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा
तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा ॥ प्रभु सर्बग्य दास निज जानी
गति अनन्य तापस नृप रानी ॥ मागु मागु बरु भै नभ बानी
परम गभीर कृपामृत सानी ॥ मृतक जिआवनि गिरा सुहाई
श्रबन रंध्र होइ उर जब आई ॥ ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए
मानहुँ अबहिं भवन ते आए ॥ बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात ॥ १४५ ॥
सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु
बिधि हरि हर बंदित पद रेनू ॥ सेवत सुलभ सकल सुख दायक
प्रनतपाल सचराचर नायक ॥ जौं अनाथ हित हम पर नेहू
तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू ॥ जो सरूप बस सिव मन माहीं
जेहि कारन मुनि जतन कराहीं ॥ जो भुसुंडि मन मानस हंसा
सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा ॥ देखहिं हम सो रूप भरि लोचन
कृपा करहु प्रनतारति मोचन ॥ दंपति बचन परम प्रिय लागे
मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे ॥ भगत बछल प्रभु कृपानिधाना
बिस्वबास प्रगटे भगवाना ॥ लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥ १४६ ॥
सरद मयंक बदन छबि सींवा
चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा ॥ अधर अरुन रद सुंदर नासा
बिधु कर निकर बिनिंदक हासा ॥ नव अबुंज अंबक छबि नीकी
चितवनि ललित भावँती जी की ॥ भुकुटि मनोज चाप छबि हारी
तिलक ललाट पटल दुतिकारी ॥ कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा
कुटिल केस जनु मधुप समाजा ॥ उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला
पदिक हार भूषन मनिजाला ॥ केहरि कंधर चारु जनेउ
बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ ॥ करि कर सरि सुभग भुजदंडा
कटि निषंग कर सर कोदंडा ॥ नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि ॥
१४७ ॥
पद राजीव बरनि नहि जाहीं
मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं ॥ बाम भाग सोभति अनुकूला
आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला ॥ जासु अंस उपजहिं गुनखानी
अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ॥ भृकुटि बिलास जासु जग होई
राम बाम दिसि सीता सोई ॥ छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी
एकटक रहे नयन पट रोकी ॥ चितवहिं सादर रूप अनूपा
तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा ॥ हरष बिबस तन दसा भुलानी
परे दंड इव गहि पद पानी ॥ सिर परसे प्रभु निज कर कंजा
तुरत उठाए करुनापुंजा ॥ मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि ॥ १४८ ॥
सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी
धरि धीरजु बोली मृदु बानी ॥ नाथ देखि पद कमल तुम्हारे
अब पूरे सब काम हमारे ॥ एक लालसा बड़ि उर माही
सुगम अगम कहि जात सो नाहीं ॥ तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं
अगम लाग मोहि निज कृपनाईं ॥ जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई
बहु संपति मागत सकुचाई ॥ तासु प्रभा जान नहिं सोई
तथा हृदयँ मम संसय होई ॥ सो तुम्ह जानहु अंतरजामी
पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी ॥ सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि
मोरें नहिं अदेय कछु तोही ॥ चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ ॥
१४९ ॥
देखि प्रीति सुनि बचन अमोले
एवमस्तु करुनानिधि बोले ॥ आपु सरिस खोजौं कहँ जाई
नृप तव तनय होब मैं आई ॥ सतरूपहि बिलोकि कर जोरें
देबि मागु बरु जो रुचि तोरे ॥ जो बरु नाथ चतुर नृप मागा
सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा ॥ प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई
जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई ॥ तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी
ब्रह्म सकल उर अंतरजामी ॥ अस समुझत मन संसय होई
कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई ॥ जे निज भगत नाथ तव अहहीं
जो सुख पावहिं जो गति लहहीं ॥ सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु ॥
</pre>
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<pre>
१५० ॥
सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना
कृपासिंधु बोले मृदु बचना ॥ जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं
मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं ॥ मातु बिबेक अलोकिक तोरें
कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी अवर एक बिनति प्रभु मोरी ॥ सुत बिषइक तव पद रति होऊ
मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ ॥ मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना
मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना ॥ अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ
एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ ॥ अब तुम्ह मम अनुसासन मानी
बसहु जाइ सुरपति रजधानी ॥ होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत ॥ १५१ ॥
इच्छामय नरबेष सँवारें
होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे ॥ अंसन्ह सहित देह धरि ताता
करिहउँ चरित भगत सुखदाता ॥ जे सुनि सादर नर बड़भागी
भव तरिहहिं ममता मद त्यागी ॥ आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया
सोउ अवतरिहि मोरि यह माया ॥ पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा
सत्य सत्य पन सत्य हमारा ॥ पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना
अंतरधान भए भगवाना ॥ दंपति उर धरि भगत कृपाला
तेहिं आश्रम निवसे कछु काला ॥ समय पाइ तनु तजि अनयासा
जाइ कीन्ह अमरावति बासा ॥ भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु ॥ १५२ ॥
मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी
जो गिरिजा प्रति संभु बखानी ॥ बिस्व बिदित एक कैकय देसू
सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू ॥ धरम धुरंधर नीति निधाना
तेज प्रताप सील बलवाना ॥ तेहि कें भए जुगल सुत बीरा
सब गुन धाम महा रनधीरा ॥ राज धनी जो जेठ सुत आही
नाम प्रतापभानु अस ताही ॥ अपर सुतहि अरिमर्दन नामा
भुजबल अतुल अचल संग्रामा ॥ भाइहि भाइहि परम समीती
सकल दोष छल बरजित प्रीती ॥ जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा
हरि हित आपु गवन बन कीन्हा ॥ प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस ॥ १५३ ॥
नृप हितकारक सचिव सयाना
नाम धरमरुचि सुक्र समाना ॥ सचिव सयान बंधु बलबीरा
आपु प्रतापपुंज रनधीरा ॥ सेन संग चतुरंग अपारा
अमित सुभट सब समर जुझारा ॥ सेन बिलोकि राउ हरषाना
अरु बाजे गहगहे निसाना ॥ बिजय हेतु कटकई बनाई
सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई ॥ जँह तहँ परीं अनेक लराईं
जीते सकल भूप बरिआई ॥ सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे
लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें ॥ सकल अवनि मंडल तेहि काला
एक प्रतापभानु महिपाला ॥ अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु ॥ १५४ ॥
भूप प्रतापभानु बल पाई
कामधेनु भै भूमि सुहाई ॥ सब दुख बरजित प्रजा सुखारी
धरमसील सुंदर नर नारी ॥ सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती
नृप हित हेतु सिखव नित नीती ॥ गुर सुर संत पितर महिदेवा
करइ सदा नृप सब कै सेवा ॥ भूप धरम जे बेद बखाने
सकल करइ सादर सुख माने ॥ दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना
सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना ॥ नाना बापीं कूप तड़ागा
सुमन बाटिका सुंदर बागा ॥ बिप्रभवन सुरभवन सुहाए
सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए ॥ बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग ॥ १५५ ॥
हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना
भूप बिबेकी परम सुजाना ॥ करइ जे धरम करम मन बानी
बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी ॥ चढ़ि बर बाजि बार एक राजा
मृगया कर सब साजि समाजा ॥ बिंध्याचल गभीर बन गयऊ
मृग पुनीत बहु मारत भयऊ ॥ फिरत बिपिन नृप दीख बराहू
जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू ॥ बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं
मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं ॥ कोल कराल दसन छबि गाई
तनु बिसाल पीवर अधिकाई ॥ घुरुघुरात हय आरौ पाएँ
चकित बिलोकत कान उठाएँ ॥ चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु ॥ १५६ ॥
आवत देखि अधिक रव बाजी
चलेउ बराह मरुत गति भाजी ॥ तुरत कीन्ह नृप सर संधाना
महि मिलि गयउ बिलोकत बाना ॥ तकि तकि तीर महीस चलावा
करि छल सुअर सरीर बचावा ॥ प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा
रिस बस भूप चलेउ संग लागा ॥ गयउ दूरि घन गहन बराहू
जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू ॥ अति अकेल बन बिपुल कलेसू
तदपि न मृग मग तजइ नरेसू ॥ कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा
भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा ॥ अगम देखि नृप अति पछिताई
फिरेउ महाबन परेउ भुलाई ॥ खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत ॥ १५७ ॥
फिरत बिपिन आश्रम एक देखा
तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा ॥ जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई
समर सेन तजि गयउ पराई ॥ समय प्रतापभानु कर जानी
आपन अति असमय अनुमानी ॥ गयउ न गृह मन बहुत गलानी
मिला न राजहि नृप अभिमानी ॥ रिस उर मारि रंक जिमि राजा
बिपिन बसइ तापस कें साजा ॥ तासु समीप गवन नृप कीन्हा
यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा ॥ राउ तृषित नहि सो पहिचाना
देखि सुबेष महामुनि जाना ॥ उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा
परम चतुर न कहेउ निज नामा ॥ दो० भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ ॥ १५८ ॥
गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ
निज आश्रम तापस लै गयऊ ॥ आसन दीन्ह अस्त रबि जानी
पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी ॥ को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें
सुंदर जुबा जीव परहेलें ॥ चक्रबर्ति के लच्छन तोरें
देखत दया लागि अति मोरें ॥ नाम प्रतापभानु अवनीसा
तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा ॥ फिरत अहेरें परेउँ भुलाई
बडे भाग देखउँ पद आई ॥ हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा
जानत हौं कछु भल होनिहारा ॥ कह मुनि तात भयउ अँधियारा
जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा ॥ बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान ॥ १५९(क) ॥
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ ॥ १५९(ख) ॥
भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा
बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा ॥ नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही
चरन बंदि निज भाग्य सराही ॥ पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई
जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई ॥ मोहि मुनिस सुत सेवक जानी
नाथ नाम निज कहहु बखानी ॥ तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना
भूप सुह्रद सो कपट सयाना ॥ बैरी पुनि छत्री पुनि राजा
छल बल कीन्ह चहइ निज काजा ॥ समुझि राजसुख दुखित अराती
अवाँ अनल इव सुलगइ छाती ॥ सरल बचन नृप के सुनि काना
बयर सँभारि हृदयँ हरषाना ॥ नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेति ॥ </pre>
</div>
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<pre>
१६० ॥
कह नृप जे बिग्यान निधाना
तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना ॥ सदा रहहि अपनपौ दुराएँ
सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ ॥ तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें
परम अकिंचन प्रिय हरि केरें ॥ तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा
होत बिरंचि सिवहि संदेहा ॥ जोसि सोसि तव चरन नमामी
मो पर कृपा करिअ अब स्वामी ॥ सहज प्रीति भूपति कै देखी
आपु बिषय बिस्वास बिसेषी ॥ सब प्रकार राजहि अपनाई
बोलेउ अधिक सनेह जनाई ॥ सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला
इहाँ बसत बीते बहु काला ॥ लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु ॥ १६१(क) ॥
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ॥ १६१(ख) तातें गुपुत रहउँ जग माहीं
हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं ॥ प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ
कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ ॥ तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें
प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें ॥ अब जौं तात दुरावउँ तोही
दारुन दोष घटइ अति मोही ॥ जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा
तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा ॥ देखा स्वबस कर्म मन बानी
तब बोला तापस बगध्यानी ॥ नाम हमार एकतनु भाई
सुनि नृप बोले पुनि सिरु नाई ॥ कहहु नाम कर अरथ बखानी
मोहि सेवक अति आपन जानी ॥ नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि ॥ १६२ ॥
जनि आचरुज करहु मन माहीं
सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं ॥ तपबल तें जग सृजइ बिधाता
तपबल बिष्नु भए परित्राता ॥ तपबल संभु करहिं संघारा
तप तें अगम न कछु संसारा ॥ भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा
कथा पुरातन कहै सो लागा ॥ करम धरम इतिहास अनेका
करइ निरूपन बिरति बिबेका ॥ उदभव पालन प्रलय कहानी
कहेसि अमित आचरज बखानी ॥ सुनि महिप तापस बस भयऊ
आपन नाम कहत तब लयऊ ॥ कह तापस नृप जानउँ तोही
कीन्हेहु कपट लाग भल मोही ॥ मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव ॥ १६३ ॥
नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा
सत्यकेतु तव पिता नरेसा ॥ गुर प्रसाद सब जानिअ राजा
कहिअ न आपन जानि अकाजा ॥ देखि तात तव सहज सुधाई
प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई ॥ उपजि परि ममता मन मोरें
कहउँ कथा निज पूछे तोरें ॥ अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं
मागु जो भूप भाव मन माहीं ॥ सुनि सुबचन भूपति हरषाना
गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना ॥ कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें
चारि पदारथ करतल मोरें ॥ प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी
मागि अगम बर होउँ असोकी ॥ एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ ॥ १६४ ॥
कह तापस नृप ऐसेइ होऊ
कारन एक कठिन सुनु सोऊ ॥ कालउ तुअ पद नाइहि सीसा
एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा ॥ तपबल बिप्र सदा बरिआरा
तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा ॥ जौं बिप्रन्ह सब करहु नरेसा
तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा ॥ चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई
सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई ॥ बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला
तोर नास नहि कवनेहुँ काला ॥ हरषेउ राउ बचन सुनि तासू
नाथ न होइ मोर अब नासू ॥ तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना
मो कहुँ सर्ब काल कल्याना ॥ मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि ॥ १६५ ॥
तातें मै तोहि बरजउँ राजा
कहें कथा तव परम अकाजा ॥ छठें श्रवन यह परत कहानी
नास तुम्हार सत्य मम बानी ॥ यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा
नास तोर सुनु भानुप्रतापा ॥ आन उपायँ निधन तव नाहीं
जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं ॥ सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा
द्विज गुर कोप कहहु को राखा ॥ राखइ गुर जौं कोप बिधाता
गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता ॥ जौं न चलब हम कहे तुम्हारें
होउ नास नहिं सोच हमारें ॥ एकहिं डर डरपत मन मोरा
प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा ॥ तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउँ ॥ १६६ ॥
सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं
कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं ॥ अहइ एक अति सुगम उपाई
तहाँ परंतु एक कठिनाई ॥ मम आधीन जुगुति नृप सोई
मोर जाब तव नगर न होई ॥ आजु लगें अरु जब तें भयऊँ
काहू के गृह ग्राम न गयऊँ ॥ जौं न जाउँ तव होइ अकाजू
बना आइ असमंजस आजू ॥ सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी
नाथ निगम असि नीति बखानी ॥ बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं
गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं ॥ जलधि अगाध मौलि बह फेनू
संतत धरनि धरत सिर रेनू ॥ मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल ॥ १६७ ॥
जानि नृपहि आपन आधीना
बोला तापस कपट प्रबीना ॥ सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही
जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही ॥ अवसि काज मैं करिहउँ तोरा
मन तन बचन भगत तैं मोरा ॥ जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ
फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ ॥ जौं नरेस मैं करौं रसोई
तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई ॥ अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई
सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई ॥ पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ
तव बस होइ भूप सुनु सोऊ ॥ जाइ उपाय रचहु नृप एहू
संबत भरि संकलप करेहू ॥ मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं&#६५५३३;करिब जेवनार ॥ १६८ ॥
एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें
होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें ॥ करिहहिं बिप्र होम मख सेवा
तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा ॥ और एक तोहि कहऊँ लखाऊ
मैं एहि बेष न आउब काऊ ॥ तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया
हरि आनब मैं करि निज माया ॥ तपबल तेहि करि आपु समाना
रखिहउँ इहाँ बरष परवाना ॥ मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा
सब बिधि तोर सँवारब काजा ॥ गै निसि बहुत सयन अब कीजे
मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे ॥ मैं तपबल तोहि तुरग समेता
पहुँचेहउँ सोवतहि निकेता ॥ जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि ॥ १६९ ॥
सयन कीन्ह नृप आयसु मानी
आसन जाइ बैठ छलग्यानी ॥ श्रमित भूप निद्रा अति आई
सो किमि सोव सोच अधिकाई ॥ कालकेतु निसिचर तहँ आवा
जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा ॥ परम मित्र तापस नृप केरा
जानइ सो अति कपट घनेरा ॥ तेहि के सत सुत अरु दस भाई
खल अति अजय देव दुखदाई ॥ प्रथमहि भूप समर सब मारे
बिप्र संत सुर देखि दुखारे ॥ तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा
तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा ॥ जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ
भावी बस न जान कछु राऊ ॥ अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु ॥ </pre>
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१७० ॥
तापस नृप निज सखहि निहारी
हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी ॥ मित्रहि कहि सब कथा सुनाई
जातुधान बोला सुख पाई ॥ अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा
जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा ॥ परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई
बिनु औषध बिआधि बिधि खोई ॥ कुल समेत रिपु मूल बहाई
चौथे दिवस मिलब मैं आई ॥ तापस नृपहि बहुत परितोषी
चला महाकपटी अतिरोषी ॥ भानुप्रतापहि बाजि समेता
पहुँचाएसि छन माझ निकेता ॥ नृपहि नारि पहिं सयन कराई
हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई ॥ लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि ॥ १७१ ॥
आपु बिरचि उपरोहित रूपा
परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा ॥ जागेउ नृप अनभएँ बिहाना
देखि भवन अति अचरजु माना ॥ मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी
उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी ॥ कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं
पुर नर नारि न जानेउ केहीं ॥ गएँ जाम जुग भूपति आवा
घर घर उत्सव बाज बधावा ॥ उपरोहितहि देख जब राजा
चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा ॥ जुग सम नृपहि गए दिन तीनी
कपटी मुनि पद रह मति लीनी ॥ समय जानि उपरोहित आवा
नृपहि मते सब कहि समुझावा ॥ बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत ॥ १७२ ॥
उपरोहित जेवनार बनाई
छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई ॥ मायामय तेहिं कीन्ह रसोई
बिंजन बहु गनि सकइ न कोई ॥ बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा
तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा ॥ भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए
पद पखारि सादर बैठाए ॥ परुसन जबहिं लाग महिपाला
भै अकासबानी तेहि काला ॥ बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू
है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू ॥ भयउ रसोईं भूसुर माँसू
सब द्विज उठे मानि बिस्वासू ॥ भूप बिकल मति मोहँ भुलानी
भावी बस आव मुख बानी ॥ जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार ॥ १७३ ॥
छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई
घालै लिए सहित समुदाई ॥ ईस्वर राखा धरम हमारा
जैहसि तैं समेत परिवारा ॥ संबत मध्य नास तव होऊ
जलदाता न रहिहि कुल कोऊ ॥ नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा
भै बहोरि बर गिरा अकासा ॥ बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा
नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा ॥ चकित बिप्र सब सुनि नभबानी
भूप गयउ जहँ भोजन खानी ॥ तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा
फिरेउ राउ मन सोच अपारा ॥ सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई
त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई ॥ किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर ॥ १७४ ॥
अस कहि सब महिदेव सिधाए
समाचार पुरलोगन्ह पाए ॥ सोचहिं दूषन दैवहि देहीं
बिचरत हंस काग किय जेहीं ॥ उपरोहितहि भवन पहुँचाई
असुर तापसहि खबरि जनाई ॥ तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए
सजि सजि सेन भूप सब धाए ॥ घेरेन्हि नगर निसान बजाई
बिबिध भाँति नित होई लराई ॥ जूझे सकल सुभट करि करनी
बंधु समेत परेउ नृप धरनी ॥ सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा
बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा ॥ रिपु जिति सब नृप नगर बसाई
निज पुर गवने जय जसु पाई ॥ धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम ॥ .१७५ ॥
काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा
भयउ निसाचर सहित समाजा ॥ दस सिर ताहि बीस भुजदंडा
रावन नाम बीर बरिबंडा ॥ भूप अनुज अरिमर्दन नामा
भयउ सो कुंभकरन बलधामा ॥ सचिव जो रहा धरमरुचि जासू
भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू ॥ नाम बिभीषन जेहि जग जाना
बिष्नुभगत बिग्यान निधाना ॥ रहे जे सुत सेवक नृप केरे
भए निसाचर घोर घनेरे ॥ कामरूप खल जिनस अनेका
कुटिल भयंकर बिगत बिबेका ॥ कृपा रहित हिंसक सब पापी
बरनि न जाहिं बिस्व परितापी ॥ तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप ॥ १७६ ॥
कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई
परम उग्र नहिं बरनि सो जाई ॥ गयउ निकट तप देखि बिधाता
मागहु बर प्रसन्न मैं ताता ॥ करि बिनती पद गहि दससीसा
बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा ॥ हम काहू के मरहिं न मारें
बानर मनुज जाति दुइ बारें ॥ एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा
मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा ॥ पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ
तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ ॥ जौं एहिं खल नित करब अहारू
होइहि सब उजारि संसारू ॥ सारद प्रेरि तासु मति फेरी
मागेसि नीद मास षट केरी ॥ तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु ॥ १७७ ॥
तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए
हरषित ते अपने गृह आए ॥ मय तनुजा मंदोदरि नामा
परम सुंदरी नारि ललामा ॥ सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी
होइहि जातुधानपति जानी ॥ हरषित भयउ नारि भलि पाई
पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई ॥ गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी
बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी ॥ सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा
कनक रचित मनिभवन अपारा ॥ भोगावति जसि अहिकुल बासा
अमरावति जसि सक्रनिवासा ॥ तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका
जग बिख्यात नाम तेहि लंका ॥ कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव ॥ १७८(क) ॥
हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ
सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ ॥ १७८(ख) ॥
रहे तहाँ निसिचर भट भारे
ते सब सुरन्ह समर संघारे ॥ अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे
रच्छक कोटि जच्छपति केरे ॥ दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई
सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई ॥ देखि बिकट भट बड़ि कटकाई
जच्छ जीव लै गए पराई ॥ फिरि सब नगर दसानन देखा
गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा ॥ सुंदर सहज अगम अनुमानी
कीन्हि तहाँ रावन रजधानी ॥ जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे
सुखी सकल रजनीचर कीन्हे ॥ एक बार कुबेर पर धावा
पुष्पक जान जीति लै आवा ॥ मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ ॥ १७९ ॥
सुख संपति सुत सेन सहाई
जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई ॥ नित नूतन सब बाढ़त जाई
जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई ॥ अतिबल कुंभकरन अस भ्राता
जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता ॥ करइ पान सोवइ षट मासा
जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा ॥ जौं दिन प्रति अहार कर सोई
बिस्व बेगि सब चौपट होई ॥ समर धीर नहिं जाइ बखाना
तेहि सम अमित बीर बलवाना ॥ बारिदनाद जेठ सुत तासू
भट महुँ प्रथम लीक जग जासू ॥ जेहि न होइ रन सनमुख कोई
सुरपुर नितहिं परावन होई ॥ एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय ॥ </pre>
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१८० ॥
कामरूप जानहिं सब माया
सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया ॥ दसमुख बैठ सभाँ एक बारा
देखि अमित आपन परिवारा ॥ सुत समूह जन परिजन नाती
गे को पार निसाचर जाती ॥ सेन बिलोकि सहज अभिमानी
बोला बचन क्रोध मद सानी ॥ सुनहु सकल रजनीचर जूथा
हमरे बैरी बिबुध बरूथा ॥ ते सनमुख नहिं करही लराई
देखि सबल रिपु जाहिं पराई ॥ तेन्ह कर मरन एक बिधि होई
कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई ॥ द्विजभोजन मख होम सराधा ॥
सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा ॥
तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ ॥ १८१ ॥
मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा
दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा ॥ जे सुर समर धीर बलवाना
जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना ॥ तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी
उठि सुत पितु अनुसासन काँधी ॥ एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही
आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही ॥ चलत दसानन डोलति अवनी
गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी ॥ रावन आवत सुनेउ सकोहा
देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा ॥ दिगपालन्ह के लोक सुहाए
सूने सकल दसानन पाए ॥ पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी
देइ देवतन्ह गारि पचारी ॥ रन मद मत्त फिरइ जग धावा
प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा ॥ रबि ससि पवन बरुन धनधारी
अगिनि काल जम सब अधिकारी ॥ किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा
हठि सबही के पंथहिं लागा ॥ ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी
दसमुख बसबर्ती नर नारी ॥ आयसु करहिं सकल भयभीता
नवहिं आइ नित चरन बिनीता ॥ मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र ॥ १८२(ख) ॥
देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि
जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि ॥ १८२ख ॥
इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ
सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ ॥ प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा
तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा ॥ देखत भीमरूप सब पापी
निसिचर निकर देव परितापी ॥ करहि उपद्रव असुर निकाया
नाना रूप धरहिं करि माया ॥ जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला
सो सब करहिं बेद प्रतिकूला ॥ जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं
नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं ॥ सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई
देव बिप्र गुरू मान न कोई ॥ नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना
सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना ॥ आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा ॥ अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना ॥ हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति ॥ १८३ ॥
मासपारायण, छठा विश्राम बाढ़े खल बहु चोर जुआरा
जे लंपट परधन परदारा ॥ मानहिं मातु पिता नहिं देवा
साधुन्ह सन करवावहिं सेवा ॥ जिन्ह के यह आचरन भवानी
ते जानेहु निसिचर सब प्रानी ॥ अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी
परम सभीत धरा अकुलानी ॥ गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही
जस मोहि गरुअ एक परद्रोही ॥ सकल धर्म देखइ बिपरीता
कहि न सकइ रावन भय भीता ॥ धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी
गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी ॥ निज संताप सुनाएसि रोई
काहू तें कछु काज न होई ॥ सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका ॥ ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई
जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई ॥ जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति ॥ १८४ ॥
बैठे सुर सब करहिं बिचारा
कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा ॥ पुर बैकुंठ जान कह कोई
कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई ॥ जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति
प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती ॥ तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ
अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ ॥ हरि ब्यापक सर्बत्र समाना
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना ॥ देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं
कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ॥ अग जगमय सब रहित बिरागी
प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी ॥ मोर बचन सब के मन माना
साधु साधु करि ब्रह्म बखाना ॥ अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर ॥ १८५ ॥
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता ॥ पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई ॥ जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा ॥ जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा ॥ जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा ॥ जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा ॥ सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना ॥ भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा ॥ गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह ॥ १८६ ॥
जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा
तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा ॥ अंसन्ह सहित मनुज अवतारा
लेहउँ दिनकर बंस उदारा ॥ कस्यप अदिति महातप कीन्हा
तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा ॥ ते दसरथ कौसल्या रूपा
कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा ॥ तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई
रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई ॥ नारद बचन सत्य सब करिहउँ
परम सक्ति समेत अवतरिहउँ ॥ हरिहउँ सकल भूमि गरुआई
निर्भय होहु देव समुदाई ॥ गगन ब्रह्मबानी सुनी काना
तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना ॥ तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा
अभय भई भरोस जियँ आवा ॥ बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ ॥ १८७ ॥
गए देव सब निज निज धामा
भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा हरषे देव बिलंब न कीन्हा ॥ बनचर देह धरि छिति माहीं
अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं ॥ गिरि तरु नख आयुध सब बीरा
हरि मारग चितवहिं मतिधीरा ॥ गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी
रहे निज निज अनीक रचि रूरी ॥ यह सब रुचिर चरित मैं भाषा
अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा ॥ अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ
बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ ॥ धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी
हृदयँ भगति मति सारँगपानी ॥ पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत ॥ १८८ ॥
एक बार भूपति मन माहीं
भै गलानि मोरें सुत नाहीं ॥ गुर गृह गयउ तुरत महिपाला
चरन लागि करि बिनय बिसाला ॥ निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ
कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ ॥ धरहु धीर होइहहिं सुत चारी
त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी ॥ सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा
पुत्रकाम सुभ जग्य करावा ॥ भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें
प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें ॥ जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा
सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा ॥ यह हबि बाँटि देहु नृप जाई
जथा जोग जेहि भाग बनाई ॥ परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ ॥
१८९ ॥
तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं
कौसल्यादि तहाँ चलि आई ॥ अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा
उभय भाग आधे कर कीन्हा ॥ कैकेई कहँ नृप सो दयऊ
रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ ॥ कौसल्या कैकेई हाथ धरि
दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि ॥ एहि बिधि गर्भसहित सब नारी
भईं हृदयँ हरषित सुख भारी ॥ जा दिन तें हरि गर्भहिं आए
सकल लोक सुख संपति छाए ॥ मंदिर महँ सब राजहिं रानी
सोभा सील तेज की खानीं ॥ सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ
जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ ॥ चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल ॥ </pre>
</div>
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<pre>
१९० ॥
नौमी तिथि मधु मास पुनीता
सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता ॥ मध्यदिवस अति सीत न घामा
पावन काल लोक बिश्रामा ॥ सीतल मंद सुरभि बह बाऊ
हरषित सुर संतन मन चाऊ ॥ बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा
स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा ॥ सो अवसर बिरंचि जब जाना
चले सकल सुर साजि बिमाना ॥ गगन बिमल सकुल सुर जूथा
गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा ॥ बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी
गहगहि गगन दुंदुभी बाजी ॥ अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा
बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा ॥ जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम ॥ १९१ ॥
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ॥ लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी ॥ कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ॥ करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता ॥ ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै ॥ उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥ माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ॥ सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ॥ निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ॥ </pre>
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