"रामायण बालकाण्ड" इत्यस्य संस्करणे भेदः

पङ्क्तिः ३०:
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१०० ॥
जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई.
महामुनिन्ह सो सब करवाई ॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी.
भवहि समरपीं जानि भवानी ॥
पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा.
हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा ॥
बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं.
जय जय जय संकर सुर करहीं ॥
बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना.
सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना ॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू.
सकल भुवन भरि रहा उछाहू ॥
दासीं दास तुरग रथ नागा.
धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा ॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना.
दाइज दीन्ह न जाइ बखाना ॥
छं\.छं॰ दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो.
का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो ॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो.
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो ॥
दो\.दो॰ नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु.
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु ॥
 
१०१ ॥
बहु बिधि संभु सास समुझाई.
गवनी भवन चरन सिरु नाई ॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही.
लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही ॥
करेहु सदा संकर पद पूजा.
नारिधरमु पति देउ न दूजा ॥
बचन कहत भरे लोचन बारी.
बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी ॥
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं.
पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं ॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी.
धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी ॥
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना.
परम प्रेम कछु जाइ न बरना ॥
सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी.
जाइ जननि उर पुनि लपटानी ॥
छं\.छं॰ जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं.
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई ॥
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले.
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले ॥
दो\.दो॰ चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु.
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु ॥
 
१०२ ॥
तुरत भवन आए गिरिराई.
सकल सैल सर लिए बोलाई ॥
आदर दान बिनय बहुमाना.
सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना ॥
जबहिं संभु कैलासहिं आए.
सुर सब निज निज लोक सिधाए ॥
जगत मातु पितु संभु भवानी.
तेही सिंगारु न कहउँ बखानी ॥
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा.
गनन्ह समेत बसहिं कैलासा ॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ.
एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ ॥
तब जनमेउ षटबदन कुमारा.
तारकु असुर समर जेहिं मारा ॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना.
षन्मुख जन्मु सकल जग जाना ॥
छं\.छं॰ जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा.
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा ॥
यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं.
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं ॥
दो\.दो॰ चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु.
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु ॥
 
१०३ ॥
संभु चरित सुनि सरस सुहावा.
भरद्वाज मुनि अति सुख पावा ॥
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी.
नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी ॥
प्रेम बिबस मुख आव न बानी.
दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी ॥
अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा.
तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा ॥
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं.
रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं ॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू.
राम भगत कर लच्छन एहू ॥
सिव सम को रघुपति ब्रतधारी.
बिनु अघ तजी सती असि नारी ॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई.
को सिव सम रामहि प्रिय भाई ॥
दो\.दो॰ प्रथमहिं मै कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार.
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार ॥
 
१०४ ॥
मैं जाना तुम्हार गुन सीला.
कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला ॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें.
कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें ॥
राम चरित अति अमित मुनिसा.
कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा ॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी.
सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी ॥
सारद दारुनारि सम स्वामी.
रामु सूत्रधर अंतरजामी ॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी.
कबि उर अजिर नचावहिं बानी ॥
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा.
बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा ॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू.
सदा जहाँ सिव उमा निवासू ॥
दो\.दो॰ सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद.
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद ॥
 
१०५ ॥
हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं.
ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं ॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला.
नित नूतन सुंदर सब काला ॥
त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया.
सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया ॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ.
तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ ॥
निज कर डासि नागरिपु छाला.
बैठै सहजहिं संभु कृपाला ॥
कुंद इंदु दर गौर सरीरा.
भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा ॥
तरुन अरुन अंबुज सम चरना.
नख दुति भगत हृदय तम हरना ॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी.
आननु सरद चंद छबि हारी ॥
दो\.दो॰ जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल.
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल ॥
 
१०६ ॥
बैठे सोह कामरिपु कैसें.
धरें सरीरु सांतरसु जैसें ॥
पारबती भल अवसरु जानी.
गई संभु पहिं मातु भवानी ॥
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा.
बाम भाग आसनु हर दीन्हा ॥
बैठीं सिव समीप हरषाई.
पूरुब जन्म कथा चित आई ॥
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी.
बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी ॥
कथा जो सकल लोक हितकारी.
सोइ पूछन चह सैलकुमारी ॥
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी.
त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी ॥
चर अरु अचर नाग नर देवा.
सकल करहिं पद पंकज सेवा ॥
दो\.दो॰ प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम ॥
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम ॥
 
१०७ ॥
जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी.
जानिअ सत्य मोहि निज दासी ॥
तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना.
कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना ॥
जासु भवनु सुरतरु तर होई.
सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई ॥
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी.
हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी ॥
प्रभु जे मुनि परमारथबादी.
कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी ॥
सेस सारदा बेद पुराना.
सकल करहिं रघुपति गुन गाना ॥
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती.
सादर जपहु अनँग आराती ॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई.
की अज अगुन अलखगति कोई ॥
दो\.दो॰ जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि.
देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि ॥
 
१०८ ॥
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ.
कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू.
जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू ॥
मै बन दीखि राम प्रभुताई.
अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई ॥
तदपि मलिन मन बोधु न आवा.
सो फलु भली भाँति हम पावा ॥
अजहूँ कछु संसउ मन मोरे.
करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें ॥
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा.
नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा ॥
तब कर अस बिमोह अब नाहीं.
रामकथा पर रुचि मन माहीं ॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा.
भुजगराज भूषन सुरनाथा ॥
दो\.दो॰ बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि.
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि ॥
 
१०९ ॥
जदपि जोषिता नहिं अधिकारी.
दासी मन क्रम बचन तुम्हारी ॥
गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं.
आरत अधिकारी जहँ पावहिं ॥
अति आरति पूछउँ सुरराया.
रघुपति कथा कहहु करि दाया ॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी.
निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी ॥
पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा.
बालचरित पुनि कहहु उदारा ॥
कहहु जथा जानकी बिबाहीं.
राज तजा सो दूषन काहीं ॥
बन बसि कीन्हे चरित अपारा.
कहहु नाथ जिमि रावन मारा ॥
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला.
सकल कहहु संकर सुखलीला ॥
दो\.दो॰ बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम.
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम ॥
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११० ॥
पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी.
जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी ॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा.
पुनि सब बरनहु सहित बिभागा ॥
औरउ राम रहस्य अनेका.
कहहु नाथ अति बिमल बिबेका ॥
जो प्रभु मैं पूछा नहि होई.
सोउ दयाल राखहु जनि गोई ॥
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना.
आन जीव पाँवर का जाना ॥
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई.
छल बिहीन सुनि सिव मन भाई ॥
हर हियँ रामचरित सब आए.
प्रेम पुलक लोचन जल छाए ॥
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा.
परमानंद अमित सुख पावा ॥
दो\.दो॰ मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह.
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह ॥
१११ ॥
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें.
जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें ॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई.
जागें जथा सपन भ्रम जाई ॥
बंदउँ बालरूप सोई रामू.
सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू ॥
मंगल भवन अमंगल हारी.
द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी ॥
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी.
हरषि सुधा सम गिरा उचारी ॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी.
तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी ॥
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा.
सकल लोक जग पावनि गंगा ॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी.
कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी ॥
दो\.दो॰ रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं.
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं ॥
११२ ॥
तदपि असंका कीन्हिहु सोई.
कहत सुनत सब कर हित होई ॥
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना.
श्रवन रंध्र अहिभवन समाना ॥
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा.
लोचन मोरपंख कर लेखा ॥
ते सिर कटु तुंबरि समतूला.
जे न नमत हरि गुर पद मूला ॥
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी.
जीवत सव समान तेइ प्रानी ॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना.
जीह सो दादुर जीह समाना ॥
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती.
सुनि हरिचरित न जो हरषाती ॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला.
सुर हित दनुज बिमोहनसीला ॥
दो\.दो॰ रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि.
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि ॥
११३ ॥
रामकथा सुंदर कर तारी.
संसय बिहग उडावनिहारी ॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी.
सादर सुनु गिरिराजकुमारी ॥
राम नाम गुन चरित सुहाए.
जनम करम अगनित श्रुति गाए ॥
जथा अनंत राम भगवाना.
तथा कथा कीरति गुन नाना ॥
तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी.
कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी ॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई.
सुखद संतसंमत मोहि भाई ॥
एक बात नहि मोहि सोहानी.
जदपि मोह बस कहेहु भवानी ॥
तुम जो कहा राम कोउ आना.
जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना ॥
दो\.दो॰ कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच.
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच ॥
११४ ॥
अग्य अकोबिद अंध अभागी.
काई बिषय मुकर मन लागी ॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी.
सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी ॥
कहहिं ते बेद असंमत बानी.
जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी ॥
मुकर मलिन अरु नयन बिहीना.
राम रूप देखहिं किमि दीना ॥
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका.
जल्पहिं कल्पित बचन अनेका ॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं.
तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं ॥
बातुल भूत बिबस मतवारे.
ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे ॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना.
तिन कर कहा करिअ नहिं काना ॥
सो\.सो॰ अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद.
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम ॥
११५ ॥
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा.
गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ॥
अगुन अरुप अलख अज जोई.
भगत प्रेम बस सगुन सो होई ॥
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें.
जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें ॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा.
तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा ॥
राम सच्चिदानंद दिनेसा.
नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा ॥
सहज प्रकासरुप भगवाना.
नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना ॥
हरष बिषाद ग्यान अग्याना.
जीव धर्म अहमिति अभिमाना ॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना.
परमानन्द परेस पुराना ॥
दो\.दो॰ पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ ॥
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ ॥
११६ ॥
निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी.
प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी ॥
जथा गगन घन पटल निहारी.
झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी ॥
चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ.
प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ ॥
उमा राम बिषइक अस मोहा.
नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा ॥
बिषय करन सुर जीव समेता.
सकल एक तें एक सचेता ॥
सब कर परम प्रकासक जोई.
राम अनादि अवधपति सोई ॥
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू.
मायाधीस ग्यान गुन धामू ॥
जासु सत्यता तें जड माया.
भास सत्य इव मोह सहाया ॥
दो\.दो॰ रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि.
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि ॥
११७ ॥
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई.
जदपि असत्य देत दुख अहई ॥
जौं सपनें सिर काटै कोई.
बिनु जागें न दूरि दुख होई ॥
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई.
गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई ॥
आदि अंत कोउ जासु न पावा.
मति अनुमानि निगम अस गावा ॥
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना.
कर बिनु करम करइ बिधि नाना ॥
आनन रहित सकल रस भोगी.
बिनु बानी बकता बड़ जोगी ॥
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा.
ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी.
महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ॥
दो\.दो॰ जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान ॥
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान ॥
११८ ॥
कासीं मरत जंतु अवलोकी.
जासु नाम बल करउँ बिसोकी ॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी.
रघुबर सब उर अंतरजामी ॥
बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं.
जनम अनेक रचित अघ दहहीं ॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं.
भव बारिधि गोपद इव तरहीं ॥
राम सो परमातमा भवानी.
तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी ॥
अस संसय आनत उर माहीं.
ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं ॥
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना.
मिटि गै सब कुतरक कै रचना ॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती.
दारुन असंभावना बीती ॥
दो\.दो॰ पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि.
बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि ॥
११९ ॥
ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी.
मिटा मोह सरदातप भारी ॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ.
राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ ॥
नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा.
सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा ॥
अब मोहि आपनि किंकरि जानी.
जदपि सहज जड नारि अयानी ॥
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू.
जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू ॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी.
सर्ब रहित सब उर पुर बासी ॥
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू.
मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू ॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता.
रामकथा पर प्रीति पुनीता ॥
दो\.दो॰ हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान ॥
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१२०(क) ॥
नवान्हपारायन,पहला विश्राम मासपारायण, चौथा विश्राम सो\.सो॰ सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल.
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड ॥
१२०(ख) ॥
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब.
सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ ॥
१२०(ग) ॥
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित.
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु ॥
१२०(घ ॥
सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए.
बिपुल बिसद निगमागम गाए ॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई.
इदमित्थं कहि जाइ न सोई ॥
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी.
मत हमार अस सुनहि सयानी ॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना.
जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना ॥
तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही.
समुझि परइ जस कारन मोही ॥
जब जब होइ धरम कै हानी.
बाढहिं असुर अधम अभिमानी ॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी.
सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी ॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा.
हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा ॥
दो\.दो॰ असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु.
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु ॥
१२१ ॥
सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं.
कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं ॥
राम जनम के हेतु अनेका.
परम बिचित्र एक तें एका ॥
जनम एक दुइ कहउँ बखानी.
सावधान सुनु सुमति भवानी ॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ.
जय अरु बिजय जान सब कोऊ ॥
बिप्र श्राप तें दूनउ भाई.
तामस असुर देह तिन्ह पाई ॥
कनककसिपु अरु हाटक लोचन.
जगत बिदित सुरपति मद मोचन ॥
बिजई समर बीर बिख्याता.
धरि बराह बपु एक निपाता ॥
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा.
जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा ॥
दो\.दो॰ भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान.
कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान ॥
१२२ ।
१२२ . मुकुत न भए हते भगवाना. तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना ॥
मुकुत न भए हते भगवाना ।
एक बार तिन्ह के हित लागी. धरेउ सरीर भगत अनुरागी ॥
१२२ . मुकुत न भए हते भगवाना. तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना ॥
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता. दसरथ कौसल्या बिख्याता ॥
एक बार तिन्ह के हित लागी. धरेउ सरीर भगत अनुरागी ॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा. चरित्र पवित्र किए संसारा ॥
धरेउ सरीर भगत अनुरागी ॥
एक कलप सुर देखि दुखारे. समर जलंधर सन सब हारे ॥
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता. दसरथ कौसल्या बिख्याता ॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा. दनुज महाबल मरइ न मारा ॥
दसरथ कौसल्या बिख्याता ॥
परम सती असुराधिप नारी. तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी ॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा ।
दो\. छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह ॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा. चरित्र पवित्र किए संसारा ॥
एक कलप सुर देखि दुखारे. समर जलंधर सन सब हारे ॥
समर जलंधर सन सब हारे ॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा. दनुज महाबल मरइ न मारा ॥
दनुज महाबल मरइ न मारा ॥
परम सती असुराधिप नारी ।
परम सती असुराधिप नारी. तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी ॥
दो\.दो॰ छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह ॥
जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह ॥
१२३ ॥
तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना.
कौतुकनिधि कृपाल भगवाना ॥
तहाँ जलंधर रावन भयऊ.
रन हति राम परम पद दयऊ ॥
एक जनम कर कारन एहा.
जेहि लागि राम धरी नरदेहा ॥
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी.
सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी ॥
नारद श्राप दीन्ह एक बारा.
कलप एक तेहि लगि अवतारा ॥
गिरिजा चकित भई सुनि बानी.
नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि ॥
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा.
का अपराध रमापति कीन्हा ॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी.
मुनि मन मोह आचरज भारी ॥
दो\.दो॰ बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ.
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ ॥
१२४(क) ॥
सो\.सो॰ कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु.
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद ॥
१२४(ख) ॥
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि.
बह समीप सुरसरी सुहावनि ॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा.
देखि देवरिषि मन अति भावा ॥
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा.
भयउ रमापति पद अनुरागा ॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी.
सहज बिमल मन लागि समाधी ॥
मुनि गति देखि सुरेस डेराना.
कामहि बोलि कीन्ह समाना ॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू.
चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू ॥
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा.
चहत देवरिषि मम पुर बासा ॥
जे कामी लोलुप जग माहीं.
कुटिल काक इव सबहि डेराहीं ॥
दो\.दो॰ सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज.
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज ॥
१२५ ॥
तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ.
निज मायाँ बसंत निरमयऊ ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा.
कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा ॥
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी.
काम कृसानु बढ़ावनिहारी ॥
रंभादिक सुरनारि नबीना .
सकल असमसर कला प्रबीना ॥
करहिं गान बहु तान तरंगा.
बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा ॥
देखि सहाय मदन हरषाना.
कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना ॥
काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी.
निज भयँ डरेउ मनोभव पापी ॥
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु.
बड़ रखवार रमापति जासू ॥
दो\.दो॰ सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन.
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन ॥
१२६ ॥
भयउ न नारद मन कछु रोषा.
कहि प्रिय बचन काम परितोषा ॥
नाइ चरन सिरु आयसु पाई.
गयउ मदन तब सहित सहाई ॥
मुनि सुसीलता आपनि करनी.
सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी ॥
सुनि सब कें मन अचरजु आवा.
मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा ॥
तब नारद गवने सिव पाहीं.
जिता काम अहमिति मन माहीं ॥
मार चरित संकरहिं सुनाए.
अतिप्रिय जानि महेस सिखाए ॥
बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं.
जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं ॥
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ.
चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ ॥
दो\.दो॰ संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान.
भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान ॥
१२७ ॥
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई.
करै अन्यथा अस नहिं कोई ॥
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए.
तब बिरंचि के लोक सिधाए ॥
एक बार करतल बर बीना.
गावत हरि गुन गान प्रबीना ॥
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा.
जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा ॥
हरषि मिले उठि रमानिकेता.
बैठे आसन रिषिहि समेता ॥
बोले बिहसि चराचर राया.
बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया ॥
काम चरित नारद सब भाषे.
जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे ॥
अति प्रचंड रघुपति कै माया.
जेहि न मोह अस को जग जाया ॥
दो\.दो॰ रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान .
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान ॥
१२८ ॥
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें.
ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके ॥
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा.
तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा ॥
नारद कहेउ सहित अभिमाना.
कृपा तुम्हारि सकल भगवाना ॥
करुनानिधि मन दीख बिचारी.
उर अंकुरेउ गरब तरु भारी ॥
बेगि सो मै डारिहउँ उखारी.
पन हमार सेवक हितकारी ॥
मुनि कर हित मम कौतुक होई.
अवसि उपाय करबि मै सोई ॥
तब नारद हरि पद सिर नाई.
चले हृदयँ अहमिति अधिकाई ॥
श्रीपति निज माया तब प्रेरी.
सुनहु कठिन करनी तेहि केरी ॥
दो\.दो॰ बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार.
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार ॥
१२९ ॥
बसहिं नगर सुंदर नर नारी.
जनु बहु मनसिज रति तनुधारी ॥
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा.
अगनित हय गय सेन समाजा ॥
सत सुरेस सम बिभव बिलासा.
रूप तेज बल नीति निवासा ॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी.
श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी ॥
सोइ हरिमाया सब गुन खानी.
सोभा तासु कि जाइ बखानी ॥
करइ स्वयंबर सो नृपबाला.
आए तहँ अगनित महिपाला ॥
मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ.
पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ ॥
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए.
करि पूजा नृप मुनि बैठाए ॥
दो\.दो॰ आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि.
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि ॥
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१३० ॥
देखि रूप मुनि बिरति बिसारी.
बड़ी बार लगि रहे निहारी ॥
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने.
हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने ॥
जो एहि बरइ अमर सोइ होई.
समरभूमि तेहि जीत न कोई ॥
सेवहिं सकल चराचर ताही.
बरइ सीलनिधि कन्या जाही ॥
लच्छन सब बिचारि उर राखे.
कछुक बनाइ भूप सन भाषे ॥
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं.
नारद चले सोच मन माहीं ॥
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी.
जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी ॥
जप तप कछु न होइ तेहि काला.
हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला ॥
दो\.दो॰ एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल.
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल ॥
१३१ ॥
हरि सन मागौं सुंदरताई.
होइहि जात गहरु अति भाई ॥
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ.
एहि अवसर सहाय सोइ होऊ ॥
बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला.
प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला ॥
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने.
होइहि काजु हिएँ हरषाने ॥
अति आरति कहि कथा सुनाई.
करहु कृपा करि होहु सहाई ॥
आपन रूप देहु प्रभु मोही.
आन भाँति नहिं पावौं ओही ॥
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा.
करहु सो बेगि दास मैं तोरा ॥
निज माया बल देखि बिसाला.
हियँ हँसि बोले दीनदयाला ॥
दो\.दो॰ जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार.
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार ॥
१३२ ॥
कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी.
बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी ॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ.
कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ ॥
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा.
समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा ॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई.
जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई ॥
निज निज आसन बैठे राजा.
बहु बनाव करि सहित समाजा ॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें.
मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें ॥
मुनि हित कारन कृपानिधाना.
दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना ॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा.
नारद जानि सबहिं सिर नावा ॥
दो\.दो॰ रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ.
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ ॥
१३३ ॥
जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई.
हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई ॥
तहँ बैठ महेस गन दोऊ.
बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ ॥
करहिं कूटि नारदहि सुनाई.
नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई ॥
रीझहि राजकुअँरि छबि देखी.
इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी ॥
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ.
हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी.
समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी ॥
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा.
सो सरूप नृपकन्याँ देखा ॥
मर्कट बदन भयंकर देही.
देखत हृदयँ क्रोध भा तेही ॥
दो\.दो॰ सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल.
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल ॥
१३४ ॥
जेहि दिसि बैठे नारद फूली.
सो दिसि देहि न बिलोकी भूली ॥
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं.
देखि दसा हर गन मुसकाहीं ॥
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला.
कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला ॥
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा.
नृपसमाज सब भयउ निरासा ॥
मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी.
मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी ॥
तब हर गन बोले मुसुकाई.
निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई ॥
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी.
बदन दीख मुनि बारि निहारी ॥
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा.
तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा ॥
दो\.दो॰ होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ.
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ ॥
१३५ ॥
पुनि जल दीख रूप निज पावा.
तदपि हृदयँ संतोष न आवा ॥
फरकत अधर कोप मन माहीं.
सपदी चले कमलापति पाहीं ॥
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई.
जगत मोर उपहास कराई ॥
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी.
संग रमा सोइ राजकुमारी ॥
बोले मधुर बचन सुरसाईं.
मुनि कहँ चले बिकल की नाईं ॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा.
माया बस न रहा मन बोधा ॥
पर संपदा सकहु नहिं देखी.
तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी ॥
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु.
सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु ॥
दो\.दो॰ असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु.
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु ॥
१३६ ॥
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई.
भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई ॥
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू.
बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू ॥
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू.
अति असंक मन सदा उछाहू ॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा.
अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा ॥
भले भवन अब बायन दीन्हा.
पावहुगे फल आपन कीन्हा ॥
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा.
सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा ॥
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी.
करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी ॥
मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी.
नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी ॥
दो\.दो॰ श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि.
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि ॥
१३७ ॥
जब हरि माया दूरि निवारी.
नहिं तहँ रमा न राजकुमारी ॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना.
गहे पाहि प्रनतारति हरना ॥
मृषा होउ मम श्राप कृपाला.
मम इच्छा कह दीनदयाला ॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे.
कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे ॥
जपहु जाइ संकर सत नामा.
होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा ॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें.
असि परतीति तजहु जनि भोरें ॥
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी.
सो न पाव मुनि भगति हमारी ॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई.
अब न तुम्हहि माया निअराई ॥
दो\.दो॰ बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान ॥
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान ॥
१३८ ॥
हर गन मुनिहि जात पथ देखी.
बिगतमोह मन हरष बिसेषी ॥
अति सभीत नारद पहिं आए.
गहि पद आरत बचन सुनाए ॥
हर गन हम न बिप्र मुनिराया.
बड़ अपराध कीन्ह फल पाया ॥
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला.
बोले नारद दीनदयाला ॥
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ.
बैभव बिपुल तेज बल होऊ ॥
भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ.
धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ.
समर मरन हरि हाथ तुम्हारा.
होइहहु मुकुत न पुनि संसारा ॥
चले जुगल मुनि पद सिर नाई.
भए निसाचर कालहि पाई ॥
दो\.दो॰ एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार.
सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार ॥
१३९ ॥
एहि बिधि जनम करम हरि केरे.
सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे ॥
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं.
चारु चरित नानाबिधि करहीं ॥
तब तब कथा मुनीसन्ह गाई.
परम पुनीत प्रबंध बनाई ॥
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने.
करहिं न सुनि आचरजु सयाने ॥
हरि अनंत हरिकथा अनंता.
कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता ॥
रामचंद्र के चरित सुहाए.
कलप कोटि लगि जाहिं न गाए ॥
यह प्रसंग मैं कहा भवानी.
हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी ॥
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी ॥
सेवत सुलभ सकल दुख हारी ॥
सो\.सो॰ सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल ॥
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि ॥
</pre>
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<pre>
१४० ॥
अपर हेतु सुनु सैलकुमारी.
कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी ॥
जेहि कारन अज अगुन अरूपा.
ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा ॥
जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा.
बंधु समेत धरें मुनिबेषा ॥
जासु चरित अवलोकि भवानी.
सती सरीर रहिहु बौरानी ॥
अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी.
तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी ॥
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा.
सो सब कहिहउँ मति अनुसारा ॥
भरद्वाज सुनि संकर बानी.
सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी ॥
लगे बहुरि बरने बृषकेतू.
सो अवतार भयउ जेहि हेतू ॥
दो\.दो॰ सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई ॥
राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ ॥
१४१ ॥
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा.
जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा ॥
दंपति धरम आचरन नीका.
अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका ॥
नृप उत्तानपाद सुत तासू.
ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू ॥
लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही.
बेद पुरान प्रसंसहि जाही ॥
देवहूति पुनि तासु कुमारी.
जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी ॥
आदिदेव प्रभु दीनदयाला.
जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला ॥
सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना.
तत्व बिचार निपुन भगवाना ॥
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला.
प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला ॥
सो\.सो॰ होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन.
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु ॥
१४२ ॥
बरबस राज सुतहि तब दीन्हा.
नारि समेत गवन बन कीन्हा ॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता.
अति पुनीत साधक सिधि दाता ॥
बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा.
तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा ॥
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा.
ग्यान भगति जनु धरें सरीरा ॥
पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा.
हरषि नहाने निरमल नीरा ॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी.
धरम धुरंधर नृपरिषि जानी ॥
जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए.
मुनिन्ह सकल सादर करवाए ॥
कृस सरीर मुनिपट परिधाना.
सत समाज नित सुनहिं पुराना . दो\.
दो॰ द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग.
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग ॥
१४३ ॥
करहिं अहार साक फल कंदा.
सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा ॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे.
बारि अधार मूल फल त्यागे ॥
उर अभिलाष निंरंतर होई.
देखा नयन परम प्रभु सोई ॥
अगुन अखंड अनंत अनादी.
जेहि चिंतहिं परमारथबादी ॥
नेति नेति जेहि बेद निरूपा.
निजानंद निरुपाधि अनूपा ॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना.
उपजहिं जासु अंस तें नाना ॥
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई.
भगत हेतु लीलातनु गहई ॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा.
तौ हमार पूजहि अभिलाषा ॥
दो\.दो॰ एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार.
संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार ॥
१४४ ॥
बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ.
ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥
बिधि हरि तप देखि अपारा.
मनु समीप आए बहु बारा ॥
मागहु बर बहु भाँति लोभाए.
परम धीर नहिं चलहिं चलाए ॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा.
तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा ॥
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी.
गति अनन्य तापस नृप रानी ॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी.
परम गभीर कृपामृत सानी ॥
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई.
श्रबन रंध्र होइ उर जब आई ॥
ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए.
मानहुँ अबहिं भवन ते आए ॥
दो\.दो॰ श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात.
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात ॥
१४५ ॥
सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु.
बिधि हरि हर बंदित पद रेनू ॥
सेवत सुलभ सकल सुख दायक.
प्रनतपाल सचराचर नायक ॥
जौं अनाथ हित हम पर नेहू.
तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू ॥
जो सरूप बस सिव मन माहीं.
जेहि कारन मुनि जतन कराहीं ॥
जो भुसुंडि मन मानस हंसा.
सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा ॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन.
कृपा करहु प्रनतारति मोचन ॥
दंपति बचन परम प्रिय लागे.
मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे ॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना.
बिस्वबास प्रगटे भगवाना ॥
दो\.दो॰ नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम.
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥
१४६ ॥
सरद मयंक बदन छबि सींवा.
चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा ॥
अधर अरुन रद सुंदर नासा.
बिधु कर निकर बिनिंदक हासा ॥
नव अबुंज अंबक छबि नीकी.
चितवनि ललित भावँती जी की ॥
भुकुटि मनोज चाप छबि हारी.
तिलक ललाट पटल दुतिकारी ॥
कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा.
कुटिल केस जनु मधुप समाजा ॥
उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला.
पदिक हार भूषन मनिजाला ॥
केहरि कंधर चारु जनेउ.
बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ ॥
करि कर सरि सुभग भुजदंडा.
कटि निषंग कर सर कोदंडा ॥
दो\.दो॰ तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि ॥
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि ॥
१४७ ॥
पद राजीव बरनि नहि जाहीं.
मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं ॥
बाम भाग सोभति अनुकूला.
आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला ॥
जासु अंस उपजहिं गुनखानी.
अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ॥
भृकुटि बिलास जासु जग होई.
राम बाम दिसि सीता सोई ॥
छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी.
एकटक रहे नयन पट रोकी ॥
चितवहिं सादर रूप अनूपा.
तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा ॥
हरष बिबस तन दसा भुलानी.
परे दंड इव गहि पद पानी ॥
सिर परसे प्रभु निज कर कंजा.
तुरत उठाए करुनापुंजा ॥
दो\.दो॰ बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि.
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि ॥
१४८ ॥
सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी.
धरि धीरजु बोली मृदु बानी ॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे.
अब पूरे सब काम हमारे ॥
एक लालसा बड़ि उर माही.
सुगम अगम कहि जात सो नाहीं ॥
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं.
अगम लाग मोहि निज कृपनाईं ॥
जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई.
बहु संपति मागत सकुचाई ॥
तासु प्रभा जान नहिं सोई.
तथा हृदयँ मम संसय होई ॥
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी.
पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी ॥
सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि.
मोरें नहिं अदेय कछु तोही ॥
दो\.दो॰ दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ ॥
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ ॥
१४९ ॥
देखि प्रीति सुनि बचन अमोले.
एवमस्तु करुनानिधि बोले ॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई.
नृप तव तनय होब मैं आई ॥
सतरूपहि बिलोकि कर जोरें.
देबि मागु बरु जो रुचि तोरे ॥
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा.
सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा ॥
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई.
जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई ॥
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी.
ब्रह्म सकल उर अंतरजामी ॥
अस समुझत मन संसय होई.
कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई ॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं.
जो सुख पावहिं जो गति लहहीं ॥
दो\.दो॰ सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु ॥
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु ॥
</pre>
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१५० ॥
सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना.
कृपासिंधु बोले मृदु बचना ॥
जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं.
मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं ॥
मातु बिबेक अलोकिक तोरें.
कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें .
बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी.
अवर एक बिनति प्रभु मोरी ॥
सुत बिषइक तव पद रति होऊ.
मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ ॥
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना.
मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना ॥
अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ.
एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ ॥
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी.
बसहु जाइ सुरपति रजधानी ॥
सो\.सो॰ तहँ करि भोग बिसाल तात गउँ कछु काल पुनि.
होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत ॥
१५१ ॥
इच्छामय नरबेष सँवारें.
होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे ॥
अंसन्ह सहित देह धरि ताता.
करिहउँ चरित भगत सुखदाता ॥
जे सुनि सादर नर बड़भागी.
भव तरिहहिं ममता मद त्यागी ॥
आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया.
सोउ अवतरिहि मोरि यह माया ॥
पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा.
सत्य सत्य पन सत्य हमारा ॥
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना.
अंतरधान भए भगवाना ॥
दंपति उर धरि भगत कृपाला.
तेहिं आश्रम निवसे कछु काला ॥
समय पाइ तनु तजि अनयासा.
जाइ कीन्ह अमरावति बासा ॥
दो\.दो॰ यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु.
भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु ॥
१५२ ॥
मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी.
जो गिरिजा प्रति संभु बखानी ॥
बिस्व बिदित एक कैकय देसू.
सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू ॥
धरम धुरंधर नीति निधाना.
तेज प्रताप सील बलवाना ॥
तेहि कें भए जुगल सुत बीरा.
सब गुन धाम महा रनधीरा ॥
राज धनी जो जेठ सुत आही.
नाम प्रतापभानु अस ताही ॥
अपर सुतहि अरिमर्दन नामा.
भुजबल अतुल अचल संग्रामा ॥
भाइहि भाइहि परम समीती.
सकल दोष छल बरजित प्रीती ॥
जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा.
हरि हित आपु गवन बन कीन्हा ॥
दो\.दो॰ जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस.
प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस ॥
१५३ ॥
नृप हितकारक सचिव सयाना.
नाम धरमरुचि सुक्र समाना ॥
सचिव सयान बंधु बलबीरा.
आपु प्रतापपुंज रनधीरा ॥
सेन संग चतुरंग अपारा.
अमित सुभट सब समर जुझारा ॥
सेन बिलोकि राउ हरषाना.
अरु बाजे गहगहे निसाना ॥
बिजय हेतु कटकई बनाई.
सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई ॥
जँह तहँ परीं अनेक लराईं.
जीते सकल भूप बरिआई ॥
सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे.
लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें ॥
सकल अवनि मंडल तेहि काला.
एक प्रतापभानु महिपाला ॥
दो\.दो॰ स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु.
अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु ॥
१५४ ॥
भूप प्रतापभानु बल पाई.
कामधेनु भै भूमि सुहाई ॥
सब दुख बरजित प्रजा सुखारी.
धरमसील सुंदर नर नारी ॥
सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती.
नृप हित हेतु सिखव नित नीती ॥
गुर सुर संत पितर महिदेवा.
करइ सदा नृप सब कै सेवा ॥
भूप धरम जे बेद बखाने.
सकल करइ सादर सुख माने ॥
दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना.
सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना ॥
नाना बापीं कूप तड़ागा.
सुमन बाटिका सुंदर बागा ॥
बिप्रभवन सुरभवन सुहाए.
सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए ॥
दो\.दो॰ जँह लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग.
बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग ॥
१५५ ॥
हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना.
भूप बिबेकी परम सुजाना ॥
करइ जे धरम करम मन बानी.
बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी ॥
चढ़ि बर बाजि बार एक राजा.
मृगया कर सब साजि समाजा ॥
बिंध्याचल गभीर बन गयऊ.
मृग पुनीत बहु मारत भयऊ ॥
फिरत बिपिन नृप दीख बराहू.
जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू ॥
बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं.
मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं ॥
कोल कराल दसन छबि गाई.
तनु बिसाल पीवर अधिकाई ॥
घुरुघुरात हय आरौ पाएँ.
चकित बिलोकत कान उठाएँ ॥
दो\.दो॰ नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु.
चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु ॥
१५६ ॥
आवत देखि अधिक रव बाजी.
चलेउ बराह मरुत गति भाजी ॥
तुरत कीन्ह नृप सर संधाना.
महि मिलि गयउ बिलोकत बाना ॥
तकि तकि तीर महीस चलावा.
करि छल सुअर सरीर बचावा ॥
प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा.
रिस बस भूप चलेउ संग लागा ॥
गयउ दूरि घन गहन बराहू.
जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू ॥
अति अकेल बन बिपुल कलेसू.
तदपि न मृग मग तजइ नरेसू ॥
कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा.
भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा ॥
अगम देखि नृप अति पछिताई.
फिरेउ महाबन परेउ भुलाई ॥
दो\.दो॰ खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत.
खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत ॥
१५७ ॥
फिरत बिपिन आश्रम एक देखा.
तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा ॥
जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई.
समर सेन तजि गयउ पराई ॥
समय प्रतापभानु कर जानी.
आपन अति असमय अनुमानी ॥
गयउ न गृह मन बहुत गलानी.
मिला न राजहि नृप अभिमानी ॥
रिस उर मारि रंक जिमि राजा.
बिपिन बसइ तापस कें साजा ॥
तासु समीप गवन नृप कीन्हा.
यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा ॥
राउ तृषित नहि सो पहिचाना.
देखि सुबेष महामुनि जाना ॥
उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा.
परम चतुर न कहेउ निज नामा ॥
दो० भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ.
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ ॥
१५८ ॥
गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ.
निज आश्रम तापस लै गयऊ ॥
आसन दीन्ह अस्त रबि जानी.
पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी ॥
को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें.
सुंदर जुबा जीव परहेलें ॥
चक्रबर्ति के लच्छन तोरें.
देखत दया लागि अति मोरें ॥
नाम प्रतापभानु अवनीसा.
तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा ॥
फिरत अहेरें परेउँ भुलाई.
बडे भाग देखउँ पद आई ॥
हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा.
जानत हौं कछु भल होनिहारा ॥
कह मुनि तात भयउ अँधियारा.
जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा ॥
दो\.दो॰ निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान.
बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान ॥
१५९(क) ॥
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ.
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ ॥
१५९(ख) ॥
भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा.
बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा ॥
नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही.
चरन बंदि निज भाग्य सराही ॥
पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई.
जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई ॥
मोहि मुनिस सुत सेवक जानी.
नाथ नाम निज कहहु बखानी ॥
तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना.
भूप सुह्रद सो कपट सयाना ॥
बैरी पुनि छत्री पुनि राजा.
छल बल कीन्ह चहइ निज काजा ॥
समुझि राजसुख दुखित अराती.
अवाँ अनल इव सुलगइ छाती ॥
सरल बचन नृप के सुनि काना.
बयर सँभारि हृदयँ हरषाना ॥
दो\.दो॰ कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत.
नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेति ॥
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१६० ॥
कह नृप जे बिग्यान निधाना.
तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना ॥
सदा रहहि अपनपौ दुराएँ.
सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ ॥
तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें.
परम अकिंचन प्रिय हरि केरें ॥
तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा.
होत बिरंचि सिवहि संदेहा ॥
जोसि सोसि तव चरन नमामी.
मो पर कृपा करिअ अब स्वामी ॥
सहज प्रीति भूपति कै देखी.
आपु बिषय बिस्वास बिसेषी ॥
सब प्रकार राजहि अपनाई.
बोलेउ अधिक सनेह जनाई ॥
सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला.
इहाँ बसत बीते बहु काला ॥
दो\.दो॰ अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु.
लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु ॥
१६१(क) ॥
सो\.सो॰ तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर.
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ॥
१६१(ख) तातें गुपुत रहउँ जग माहीं.
हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं ॥
प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ.
कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ ॥
तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें.
प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें ॥
अब जौं तात दुरावउँ तोही.
दारुन दोष घटइ अति मोही ॥
जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा.
तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा ॥
देखा स्वबस कर्म मन बानी.
तब बोला तापस बगध्यानी ॥
नाम हमार एकतनु भाई.
सुनि नृप बोले पुनि सिरु नाई ॥
कहहु नाम कर अरथ बखानी.
मोहि सेवक अति आपन जानी ॥
दो\.दो॰ आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि.
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि ॥
१६२ ॥
जनि आचरुज करहु मन माहीं.
सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं ॥
तपबल तें जग सृजइ बिधाता.
तपबल बिष्नु भए परित्राता ॥
तपबल संभु करहिं संघारा.
तप तें अगम न कछु संसारा ॥
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा.
कथा पुरातन कहै सो लागा ॥
करम धरम इतिहास अनेका.
करइ निरूपन बिरति बिबेका ॥
उदभव पालन प्रलय कहानी.
कहेसि अमित आचरज बखानी ॥
सुनि महिप तापस बस भयऊ.
आपन नाम कहत तब लयऊ ॥
कह तापस नृप जानउँ तोही.
कीन्हेहु कपट लाग भल मोही ॥
सो\.सो॰ सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप.
मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव ॥
१६३ ॥
नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा.
सत्यकेतु तव पिता नरेसा ॥
गुर प्रसाद सब जानिअ राजा.
कहिअ न आपन जानि अकाजा ॥
देखि तात तव सहज सुधाई.
प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई ॥
उपजि परि ममता मन मोरें.
कहउँ कथा निज पूछे तोरें ॥
अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं.
मागु जो भूप भाव मन माहीं ॥
सुनि सुबचन भूपति हरषाना.
गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना ॥
कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें.
चारि पदारथ करतल मोरें ॥
प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी.
मागि अगम बर होउँ असोकी ॥
दो\.दो॰ जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ.
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ ॥
१६४ ॥
कह तापस नृप ऐसेइ होऊ.
कारन एक कठिन सुनु सोऊ ॥
कालउ तुअ पद नाइहि सीसा.
एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा ॥
तपबल बिप्र सदा बरिआरा.
तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा ॥
जौं बिप्रन्ह सब करहु नरेसा.
तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा ॥
चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई.
सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई ॥
बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला.
तोर नास नहि कवनेहुँ काला ॥
हरषेउ राउ बचन सुनि तासू.
नाथ न होइ मोर अब नासू ॥
तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना.
मो कहुँ सर्ब काल कल्याना ॥
दो\.दो॰ एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि.
मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि ॥
१६५ ॥
तातें मै तोहि बरजउँ राजा.
कहें कथा तव परम अकाजा ॥
छठें श्रवन यह परत कहानी.
नास तुम्हार सत्य मम बानी ॥
यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा.
नास तोर सुनु भानुप्रतापा ॥
आन उपायँ निधन तव नाहीं.
जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं ॥
सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा.
द्विज गुर कोप कहहु को राखा ॥
राखइ गुर जौं कोप बिधाता.
गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता ॥
जौं न चलब हम कहे तुम्हारें.
होउ नास नहिं सोच हमारें ॥
एकहिं डर डरपत मन मोरा.
प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा ॥
दो\.दो॰ होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ.
तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउँ ॥
१६६ ॥
सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं.
कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं ॥
अहइ एक अति सुगम उपाई.
तहाँ परंतु एक कठिनाई ॥
मम आधीन जुगुति नृप सोई.
मोर जाब तव नगर न होई ॥
आजु लगें अरु जब तें भयऊँ.
काहू के गृह ग्राम न गयऊँ ॥
जौं न जाउँ तव होइ अकाजू.
बना आइ असमंजस आजू ॥
सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी.
नाथ निगम असि नीति बखानी ॥
बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं.
गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं ॥
जलधि अगाध मौलि बह फेनू.
संतत धरनि धरत सिर रेनू ॥
दो\.दो॰ अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल.
मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल ॥
१६७ ॥
जानि नृपहि आपन आधीना.
बोला तापस कपट प्रबीना ॥
सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही.
जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही ॥
अवसि काज मैं करिहउँ तोरा.
मन तन बचन भगत तैं मोरा ॥
जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ.
फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ ॥
जौं नरेस मैं करौं रसोई.
तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई ॥
अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई.
सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई ॥
पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ.
तव बस होइ भूप सुनु सोऊ ॥
जाइ उपाय रचहु नृप एहू.
संबत भरि संकलप करेहू ॥
दो\.दो॰ नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार.
मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं&#६५५३३;करिब जेवनार ॥
१६८ ॥
एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें.
होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें ॥
करिहहिं बिप्र होम मख सेवा.
तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा ॥
और एक तोहि कहऊँ लखाऊ.
मैं एहि बेष न आउब काऊ ॥
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया.
हरि आनब मैं करि निज माया ॥
तपबल तेहि करि आपु समाना.
रखिहउँ इहाँ बरष परवाना ॥
मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा.
सब बिधि तोर सँवारब काजा ॥
गै निसि बहुत सयन अब कीजे.
मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे ॥
मैं तपबल तोहि तुरग समेता.
पहुँचेहउँ सोवतहि निकेता ॥
दो\.दो॰ मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि.
जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि ॥
१६९ ॥
सयन कीन्ह नृप आयसु मानी.
आसन जाइ बैठ छलग्यानी ॥
श्रमित भूप निद्रा अति आई.
सो किमि सोव सोच अधिकाई ॥
कालकेतु निसिचर तहँ आवा.
जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा ॥
परम मित्र तापस नृप केरा.
जानइ सो अति कपट घनेरा ॥
तेहि के सत सुत अरु दस भाई.
खल अति अजय देव दुखदाई ॥
प्रथमहि भूप समर सब मारे.
बिप्र संत सुर देखि दुखारे ॥
तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा.
तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा ॥
जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ.
भावी बस न जान कछु राऊ ॥
दो\.दो॰ रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु.
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु ॥
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१७० ॥
तापस नृप निज सखहि निहारी.
हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी ॥
मित्रहि कहि सब कथा सुनाई.
जातुधान बोला सुख पाई ॥
अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा.
जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा ॥
परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई.
बिनु औषध बिआधि बिधि खोई ॥
कुल समेत रिपु मूल बहाई.
चौथे दिवस मिलब मैं आई ॥
तापस नृपहि बहुत परितोषी.
चला महाकपटी अतिरोषी ॥
भानुप्रतापहि बाजि समेता.
पहुँचाएसि छन माझ निकेता ॥
नृपहि नारि पहिं सयन कराई.
हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई ॥
दो\.दो॰ राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि.
लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि ॥
१७१ ॥
आपु बिरचि उपरोहित रूपा.
परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा ॥
जागेउ नृप अनभएँ बिहाना.
देखि भवन अति अचरजु माना ॥
मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी.
उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी ॥
कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं.
पुर नर नारि न जानेउ केहीं ॥
गएँ जाम जुग भूपति आवा.
घर घर उत्सव बाज बधावा ॥
उपरोहितहि देख जब राजा.
चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा ॥
जुग सम नृपहि गए दिन तीनी.
कपटी मुनि पद रह मति लीनी ॥
समय जानि उपरोहित आवा.
नृपहि मते सब कहि समुझावा ॥
दो\.दो॰ नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत.
बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत ॥
१७२ ॥
उपरोहित जेवनार बनाई.
छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई ॥
मायामय तेहिं कीन्ह रसोई.
बिंजन बहु गनि सकइ न कोई ॥
बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा.
तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा ॥
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए.
पद पखारि सादर बैठाए ॥
परुसन जबहिं लाग महिपाला.
भै अकासबानी तेहि काला ॥
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू.
है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू ॥
भयउ रसोईं भूसुर माँसू.
सब द्विज उठे मानि बिस्वासू ॥
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी.
भावी बस आव मुख बानी ॥
दो\.दो॰ बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार.
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार ॥
१७३ ॥
छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई.
घालै लिए सहित समुदाई ॥
ईस्वर राखा धरम हमारा.
जैहसि तैं समेत परिवारा ॥
संबत मध्य नास तव होऊ.
जलदाता न रहिहि कुल कोऊ ॥
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा.
भै बहोरि बर गिरा अकासा ॥
बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा.
नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा ॥
चकित बिप्र सब सुनि नभबानी.
भूप गयउ जहँ भोजन खानी ॥
तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा.
फिरेउ राउ मन सोच अपारा ॥
सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई.
त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई ॥
दो\.दो॰ भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर.
किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर ॥
१७४ ॥
अस कहि सब महिदेव सिधाए.
समाचार पुरलोगन्ह पाए ॥
सोचहिं दूषन दैवहि देहीं.
बिचरत हंस काग किय जेहीं ॥
उपरोहितहि भवन पहुँचाई.
असुर तापसहि खबरि जनाई ॥
तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए.
सजि सजि सेन भूप सब धाए ॥
घेरेन्हि नगर निसान बजाई.
बिबिध भाँति नित होई लराई ॥
जूझे सकल सुभट करि करनी.
बंधु समेत परेउ नृप धरनी ॥
सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा.
बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा ॥
रिपु जिति सब नृप नगर बसाई.
निज पुर गवने जय जसु पाई ॥
दो\.दो॰ भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम.
धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम ॥
.१७५ ॥
काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा.
भयउ निसाचर सहित समाजा ॥
दस सिर ताहि बीस भुजदंडा.
रावन नाम बीर बरिबंडा ॥
भूप अनुज अरिमर्दन नामा.
भयउ सो कुंभकरन बलधामा ॥
सचिव जो रहा धरमरुचि जासू.
भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू ॥
नाम बिभीषन जेहि जग जाना.
बिष्नुभगत बिग्यान निधाना ॥
रहे जे सुत सेवक नृप केरे.
भए निसाचर घोर घनेरे ॥
कामरूप खल जिनस अनेका.
कुटिल भयंकर बिगत बिबेका ॥
कृपा रहित हिंसक सब पापी.
बरनि न जाहिं बिस्व परितापी ॥
दो\.दो॰ उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप.
तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप ॥
१७६ ॥
कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई.
परम उग्र नहिं बरनि सो जाई ॥
गयउ निकट तप देखि बिधाता.
मागहु बर प्रसन्न मैं ताता ॥
करि बिनती पद गहि दससीसा.
बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा ॥
हम काहू के मरहिं न मारें.
बानर मनुज जाति दुइ बारें ॥
एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा.
मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा ॥
पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ.
तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ ॥
जौं एहिं खल नित करब अहारू.
होइहि सब उजारि संसारू ॥
सारद प्रेरि तासु मति फेरी.
मागेसि नीद मास षट केरी ॥
दो\.दो॰ गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु.
तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु ॥
१७७ ॥
तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए.
हरषित ते अपने गृह आए ॥
मय तनुजा मंदोदरि नामा.
परम सुंदरी नारि ललामा ॥
सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी.
होइहि जातुधानपति जानी ॥
हरषित भयउ नारि भलि पाई.
पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई ॥
गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी.
बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी ॥
सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा.
कनक रचित मनिभवन अपारा ॥
भोगावति जसि अहिकुल बासा.
अमरावति जसि सक्रनिवासा ॥
तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका.
जग बिख्यात नाम तेहि लंका ॥
दो\.दो॰ खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव.
कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव ॥
१७८(क) ॥
हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ.
सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ ॥
१७८(ख) ॥
रहे तहाँ निसिचर भट भारे.
ते सब सुरन्ह समर संघारे ॥
अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे.
रच्छक कोटि जच्छपति केरे ॥
दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई.
सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई ॥
देखि बिकट भट बड़ि कटकाई.
जच्छ जीव लै गए पराई ॥
फिरि सब नगर दसानन देखा.
गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा ॥
सुंदर सहज अगम अनुमानी.
कीन्हि तहाँ रावन रजधानी ॥
जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे.
सुखी सकल रजनीचर कीन्हे ॥
एक बार कुबेर पर धावा.
पुष्पक जान जीति लै आवा ॥
दो\.दो॰ कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ.
मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ ॥
१७९ ॥
सुख संपति सुत सेन सहाई.
जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई ॥
नित नूतन सब बाढ़त जाई.
जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई ॥
अतिबल कुंभकरन अस भ्राता.
जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता ॥
करइ पान सोवइ षट मासा.
जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा ॥
जौं दिन प्रति अहार कर सोई.
बिस्व बेगि सब चौपट होई ॥
समर धीर नहिं जाइ बखाना.
तेहि सम अमित बीर बलवाना ॥
बारिदनाद जेठ सुत तासू.
भट महुँ प्रथम लीक जग जासू ॥
जेहि न होइ रन सनमुख कोई.
सुरपुर नितहिं परावन होई ॥
दो\.दो॰ कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय.
एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय ॥
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१८० ॥
कामरूप जानहिं सब माया.
सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया ॥
दसमुख बैठ सभाँ एक बारा.
देखि अमित आपन परिवारा ॥
सुत समूह जन परिजन नाती.
गे को पार निसाचर जाती ॥
सेन बिलोकि सहज अभिमानी.
बोला बचन क्रोध मद सानी ॥
सुनहु सकल रजनीचर जूथा.
हमरे बैरी बिबुध बरूथा ॥
ते सनमुख नहिं करही लराई.
देखि सबल रिपु जाहिं पराई ॥
तेन्ह कर मरन एक बिधि होई.
कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई ॥
द्विजभोजन मख होम सराधा ॥
सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा ॥
दो\.दो॰ छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ.
तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ ॥
१८१ ॥
मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा.
दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा ॥
जे सुर समर धीर बलवाना.
जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना ॥
तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी.
उठि सुत पितु अनुसासन काँधी ॥
एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही.
आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही ॥
चलत दसानन डोलति अवनी.
गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी ॥
रावन आवत सुनेउ सकोहा.
देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा ॥
दिगपालन्ह के लोक सुहाए.
सूने सकल दसानन पाए ॥
पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी.
देइ देवतन्ह गारि पचारी ॥
रन मद मत्त फिरइ जग धावा.
प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा ॥
रबि ससि पवन बरुन धनधारी.
अगिनि काल जम सब अधिकारी ॥
किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा.
हठि सबही के पंथहिं लागा ॥
ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी.
दसमुख बसबर्ती नर नारी ॥
आयसु करहिं सकल भयभीता.
नवहिं आइ नित चरन बिनीता ॥
दो\.दो॰ भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र.
मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र ॥
१८२(ख) ॥
देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि.
जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि ॥
१८२ख ॥
इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ.
सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ ॥
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा.
तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा ॥
देखत भीमरूप सब पापी.
निसिचर निकर देव परितापी ॥
करहि उपद्रव असुर निकाया.
नाना रूप धरहिं करि माया ॥
जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला.
सो सब करहिं बेद प्रतिकूला ॥
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं.
नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं ॥
सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई.
देव बिप्र गुरू मान न कोई ॥
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना.
सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना ॥
छं\.छं॰ जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा.
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा ॥
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना.
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना ॥
सो\.सो॰ बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं.
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति ॥
१८३ ॥
मासपारायण, छठा विश्राम बाढ़े खल बहु चोर जुआरा.
जे लंपट परधन परदारा ॥
मानहिं मातु पिता नहिं देवा.
साधुन्ह सन करवावहिं सेवा ॥
जिन्ह के यह आचरन भवानी.
ते जानेहु निसिचर सब प्रानी ॥
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी.
परम सभीत धरा अकुलानी ॥
गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही.
जस मोहि गरुअ एक परद्रोही ॥
सकल धर्म देखइ बिपरीता.
कहि न सकइ रावन भय भीता ॥
धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी.
गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी ॥
निज संताप सुनाएसि रोई.
काहू तें कछु काज न होई ॥
छं\.छं॰ सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका.
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका ॥
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई.
जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई ॥
सो\.सो॰ धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु.
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति ॥
१८४ ॥
बैठे सुर सब करहिं बिचारा.
कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा ॥
पुर बैकुंठ जान कह कोई.
कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई ॥
जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति.
प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती ॥
तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ.
अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ ॥
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना.
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना ॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं.
कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ॥
अग जगमय सब रहित बिरागी.
प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी ॥
मोर बचन सब के मन माना.
साधु साधु करि ब्रह्म बखाना ॥
दो\.दो॰ सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर.
अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर ॥
१८५ ॥
छं\.छं॰ जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता.
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता ॥
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई.
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई ॥
जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा.
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा ॥
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा.
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा ॥
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा.
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा ॥
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा.
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा ॥
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना.
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना ॥
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा.
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा ॥
दो\.दो॰ जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह.
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह ॥
१८६ ॥
जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा.
तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा ॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा.
लेहउँ दिनकर बंस उदारा ॥
कस्यप अदिति महातप कीन्हा.
तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा ॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा.
कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा ॥
तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई.
रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई ॥
नारद बचन सत्य सब करिहउँ.
परम सक्ति समेत अवतरिहउँ ॥
हरिहउँ सकल भूमि गरुआई.
निर्भय होहु देव समुदाई ॥
गगन ब्रह्मबानी सुनी काना.
तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना ॥
तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा.
अभय भई भरोस जियँ आवा ॥
दो\.दो॰ निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ.
बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ ॥
१८७ ॥
गए देव सब निज निज धामा.
भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा .
जो कछु आयसु
ब्रह्माँ दीन्हा.
हरषे देव बिलंब न कीन्हा ॥
बनचर देह धरि छिति माहीं.
अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं ॥
गिरि तरु नख आयुध सब बीरा.
हरि मारग चितवहिं मतिधीरा ॥
गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी.
रहे निज निज अनीक रचि रूरी ॥
यह सब रुचिर चरित मैं भाषा.
अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा ॥
अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ.
बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ ॥
धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी.
हृदयँ भगति मति सारँगपानी ॥
दो\.दो॰ कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत.
पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत ॥
१८८ ॥
एक बार भूपति मन माहीं.
भै गलानि मोरें सुत नाहीं ॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला.
चरन लागि करि बिनय बिसाला ॥
निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ.
कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ ॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी.
त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी ॥
सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा.
पुत्रकाम सुभ जग्य करावा ॥
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें.
प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें ॥
जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा.
सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा ॥
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई.
जथा जोग जेहि भाग बनाई ॥
दो\.दो॰ तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ ॥
परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ ॥
१८९ ॥
तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं.
कौसल्यादि तहाँ चलि आई ॥
अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा.
उभय भाग आधे कर कीन्हा ॥
कैकेई कहँ नृप सो दयऊ.
रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ ॥
कौसल्या कैकेई हाथ धरि.
दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि ॥
एहि बिधि गर्भसहित सब नारी.
भईं हृदयँ हरषित सुख भारी ॥
जा दिन तें हरि गर्भहिं आए.
सकल लोक सुख संपति छाए ॥
मंदिर महँ सब राजहिं रानी.
सोभा सील तेज की खानीं ॥
सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ.
जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ ॥
दो\.दो॰ जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल.
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल ॥
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१९० ॥
नौमी तिथि मधु मास पुनीता.
सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता ॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा.
पावन काल लोक बिश्रामा ॥
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ.
हरषित सुर संतन मन चाऊ ॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा.
स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा ॥
सो अवसर बिरंचि जब जाना.
चले सकल सुर साजि बिमाना ॥
गगन बिमल सकुल सुर जूथा.
गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा ॥
बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी.
गहगहि गगन दुंदुभी बाजी ॥
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा.
बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा ॥
दो\.दो॰ सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम.
जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम ॥
१९१ ॥
छं\.छं॰ भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी.
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी.
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी ॥
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता.
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता.
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता ॥
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै.
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै ॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै.
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥
माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा.
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा.
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ॥
दो\.दो॰ बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार.
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ॥
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