"श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/पूर्वार्धः/अध्यायः ४५" इत्यस्य संस्करणे भेदः

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पङ्क्तिः १३६:
 
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अयं नेता सुरम्यांगः सर्वसल्लक्षणान्वितः ।
रुचिरस्तेजसा युक्तो बलीयान् वयसान्वितः ।।२३।।
विविधाद्भुतभाषावित् सत्यवाक्यः प्रियंवदः।।
वावदूकः सुपाण्डित्यो बुद्धिमान् प्रतिभाऽन्वितः ।।२४।।
विदग्धश्चतुरो दक्षः कृतज्ञः सुदृढव्रतः।।
देशकालसुपात्रज्ञः शास्त्रचक्षुः शुचिर्वशी ।।२५।।
स्थिरो दान्तः क्षमाशीलो गम्भीरो धृतिमान् समः ।
वदान्यो धार्मिकः शूरः करुणो मान्यमानकृत् ।।२६।।
दक्षिणो विनयी ह्रीमान् शरणागतपालकः ।
सुखी भक्तसुहृत् प्रेमवश्यः सर्वशुभंकरः ।।२७।।
प्रतापी कीर्तिमान् रक्तलोक: साधुसमाश्रयः । |
नारीगणमनोहारी सर्वाराध्यः समृद्धिमान् ।।२८ ।।
वरीयानीश्वरश्चेति गुणास्तस्यानुकीर्तिताः ।।
समुद्रा इव पञ्चाशद् दुर्विगाहा हरेरमी। २६ ।।
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यह नायक श्रीकृष्ण-(१) सुरम्यांगअर्थात् इनका अंगसन्निवेश अत्यन्त रमणीय है; (२) यह सर्वसल्लक्षणयुक्त हैं; (३) रुचिर- अर्थात् इनकी सुन्दरता नेत्रों को आनन्द देने वाली है; (8) तेजसान्वित- अर्थात् या तेज राशि तथा अतिशय प्रभावयुक्त हैं; (५) बलीयान्-अतिशय बलयुक्त हैं; (६) वयसान्वित-नानाविध विलासमय नवकिशोरावस्थायुक्त हैं।।23।। कृष्ण (७) विविध अद्भुत भाषावित्–नानादेशीय भाषाओं के सुपण्डित हैं, (८) सत्यवाक्य-उनके वचन कभी मिथ्या नहीं होते। (6) प्रियंवद-अपराधी के प्रति भी प्रिय वाक्य बोलने वाले हैं; (१०) वावदूक्—उनके वाक्य कानों को प्रिय हैं एवं वे रसभावादियुक्त हैं; (११) सुपाण्डित्य-वे विद्वान् एवं नीतिज्ञ हैं; (१२) बुद्धिमान्मेधावी एवं सूक्ष्म-बुद्धि हैं; (१३) प्रतिभान्वितनवनवोल्लेखि ज्ञानयुक्त हैं तथा नूतन-नूतन विषय के उद्भावन में समर्थ हैं; (१४) विदग्ध-चौंसठ विद्याओं एवं विलासादि में निपुण हैं; (१५) चतुर–एक ही समय में अनेक कार्य साधन करने वाले हैं; (१६) दक्ष-दुष्कर कार्यों को भी अति शीघ्र सम्पादन करने वाले हैं; (१७) कृतज्ञ-दूसरे के द्वारा की हुई सेवा को जानने वाले हैं; (१८) सुदृढ़व्रत-उनकी प्रतिज्ञा एवं नियम सदा सत्य होते हैं; (१६) देशकाल सुपात्रज्ञ-देश-काल-पात्रानुसार कार्य करने में निपुण हैं; (२०) शास्त्रचक्षु-वे शास्त्रानुसार कार्य करने वाले हैं; (२१) शुचि-पापनाशक एवं दोषरहित हैं; (२२) वशी-जितेन्द्रिय हैं; (२३) स्थिर-फलोदय न देखकर कार्य से निवृत्त होने वाले नहीं हैं; (२४) दान्त-दुःसह होते हुए भी उपयुक्त क्लेश सहन करने वाले हैं; (२५) क्षमाशील-दूसरों के अपराध क्षमा करने वाले हैं; (२६) गम्भीर—उनका अभिप्राय दूसरों के पक्ष में दुर्बोध हैं; (२७) धृतिमान्–क्षोभ का तीव्र कारण होते हुए भी वे क्षोभशून्य हैं; (२८) सम–रागद्वेषशून्य हैं; (२९) वदान्य—दानवीर हैं; (३०) धार्मिक वे स्वयं धर्म का आचरण कर दूसरों को भी धर्माचरण कराने वाले हैं; (३१) शूर-युद्ध के उत्साही तथा अस्त्र प्रयोग में निपुण हैं; (३२) करुण-वे दूसरे का दु:ख सहन नहीं कर सकते; (३३) मान्यमानकृत्-गुरु, ब्राह्मण एवं वृद्धजनों का सम्मान करने वाले हैं; (३४) दक्षिण–सुस्वभाववश कोमल चित्त हैं; (३५) विनयी-उद्धताशून्य हैं; (३६) हीमान–दूसरों के द्वारा स्तुत्य होने पर संकुचित होने वाले हैं; (३७) शरणागत पालक-शरण में आये हुए का पालन करते हैं; (३८) सुखी–वे सुख-भोग करने वाले हैं एवं उन्हें दुःख की गन्धमात्र भी स्पर्श नहीं करती; (३६) भक्त–सुहृद्-सुसेव्य एवं बन्धुभेद से वे दो प्रकार से भक्तसुहृद् हैं। चुल्लू भर जल एवं तुलसीदल अर्पण करने वाले भक्तों को श्रीकृष्ण आत्म-समर्पण करने वाले हैं, यह उनका सुसेव्यत्व है। अपनी प्रतिज्ञा को भंग करके भी श्रीकृष्ण भक्तों की प्रतिज्ञा की रक्षा करते हैं-यह उनका दास-बन्धुत्व है। (४०) प्रेमवशीभूत; (४१) सर्वशुभंकर सबके मंगलकारी हैं; (४२) प्रतापी–वे अपने प्रभाव से शत्रु को ताप देने में प्रसिद्ध हैं; (४३) कीर्तिमान् वे निर्मल यश राशि में विख्यात हैं; (४४) रक्तलोक-वे समस्त लोकों के अनुराग के पात्र हैं; (४५) साधुसमाश्रय–साधु भक्तों के प्रति विशेष कृपा के कारण उनका वे पक्षपात करने वाले हैं; (४६) नारीगण-मनोहारी-सौन्दर्य, माधुर्य, वैदग्ध्यादि के द्वारा वे रमणीवृन्द का चित्त हरने वाले हैं; (४७) सर्वाराध्य सभी के आराध्य हैं; (४८) समृद्धिमान् वे अत्यन्त सम्पत्शाली हैं; (४६) वरीयान्-वे ब्रह्मा, शिवादि से भी श्रेष्ठ हैं; (५०) ईश्वर–वे स्वतन्त्र, अन्यनिरपेक्ष हैं तथा उनकी आज्ञा दुर्लङ्घ्य है; ये पचास गुण श्रीकृष्ण में समुद्रवत् असीम-रूप से नित्य विराजमान रहते हैं।।२४-२६ ।।
 
श्रीकृष्ण के अनन्त गुण हैं, उनमें चौंसठ गुण विशेषरूप से श्रीगोस्वामिपाद ने निरूपण किये हैं; जिनमें से यहाँ पहले पचास गुणों का वर्णन किया गया है। उपर्युक्त कारिका में छ: गुण कहे गये हैं। । श्रीकृष्ण के शारीरिक सल्लक्षण भी दो प्रकार के हैं—१. गुणोत्थ तथा २. अंगोत्थ। लालिमा, गुणोत्थ-सल्लक्षण हैं। उनमें नेत्रान्त, पादतल, करतल, तालु अधरोष्ठ, जिह्वा तथा नख-इन सात स्थानों पर लालिमा है। वक्ष, स्कन्ध, नख, नासिका, कटि एवं वदन-इन छः स्थानों पर तुंगता-उच्चता है। कटि, ललाट एवं वक्षःस्थल-इन तीनों पर विशालता है। ग्रीवा, जंघा एवं मेहन-इन तीन स्थानों पर गम्भीरता है। नासिका, भुज, नेत्र, हनु तथा जानु-इन पाचों पर दीर्घता है। त्वक्, केश, लोम, दन्त एवं अंगुलियों के पोटे-इन पर सूक्ष्मता है। नाभि, स्वर एवं बुद्धि-इन तीनों में गभीरता है; ये बत्तीस सल्लक्षण गुणोत्थ हैं।
 
करतल एवं पदतलों में जो रेखामय चक्रादि चिह्न हैं, उन्हें ‘अंकोत्थ-सल्लक्षण कहा जाता है। श्रीकृष्ण के वामचरण में शंख, आकाश, ज्या-हीन धनुष, गोष्पद, त्रिकोण, चार कलश, अर्द्धचन्द्र एवं मत्स्य के चिह्न हैं। दक्षिणपद में चक्र, ध्वजा, अंकुश, वज्र, यव, ऊर्ध्वरेखा, छत्र, चार स्वास्तिक, जम्बुफल एवं अष्टकोण के चिह्न हैं। इसी प्रकार उनके दाहिने हाथ में परमायु रेखा, सौभाग्य रेखा, भोग रेखा एवं पांच अंगुलियों के पुरों पर पांच शंख, जौ, चक्र, गदा, ध्वजा, तलवार, बरछी, अंकुश, कल्पवृक्ष तथा बाण के चिह्न हैं। बायें हाथ में परमायु, सौभाग्य एवं भोग रेखाएँ, नन्द्यावर्त, कमल तथा छत्र, हल, यूप, स्वास्तिक, प्रत्यञ्चारहित धनुष, अर्द्धचन्द्र तथा मत्स्य के चिह्न हैं-ये सब् श्रीकृष्ण में अंकोत्थ-गुण हैं।।२३।। - भक्तिरसामृतसिन्धु(दक्षिणविभाग, प्रथमलहरी), टीका - श्रीश्यामदास(प्रकाशक - श्रीहरिनाम संकीर्तन मण्डल, वृन्दावन)
 
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* चौंसठ कलाएँ ये हैं