"यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः १/मन्त्रः १५" इत्यस्य संस्करणे भेदः

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{{यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः १}}
 
'''अग्नेस्तनूरित्यस्य ऋषिः स एव। यज्ञो देवता। निचृज्जगती छन्दः। निषादः स्वरः। हविष्कृदिति याजुषी पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥<span lang="EN-GB"></span>'''
 
'''पुनः स यज्ञः कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते॥कीदृशो भवतीत्युपदिश्यते॥<span lang="EN-GB"></span>'''
 
फिरउक्त भीयज्ञ यहकिस यज्ञप्रकार कैसाका होता है, सोइस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥<span lang="EN-GB"></span>
 
 
'''अ॒ग्नेस्त॒नूर॑सि वा॒चो वि॒सर्ज॑नं दे॒ववी॑तये त्वा गृह्णामि बृ॒हद् ग्रा॑वासि वानस्प॒त्यः सऽइ॒दं दे॒वेभ्यो॑ ह॒विः श॑मीष्व सु॒शमि॑ शमीष्व। हवि॑ष्कृ॒देहि॒ हवि॑ष्कृ॒देहि॑॥१५॥<span lang="EN-GB"></span>'''
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'''भावार्थः—''' जब मनुष्य वेद आदि शास्त्रों के द्वारा यज्ञक्रिया और उसका फल जान के शुद्धि और उत्तमता के साथ यज्ञ को करते हैं, तब वह सुगन्धि आदि पदार्थों के होम द्वारा परमाणु अर्थात् अति सूक्ष्म होकर वायु और वृष्टि जल में विस्तृत हुआ सब पदार्थों को उत्तम कर के दिव्य सुखों को उत्पन्न करता है। जो मनुष्य सब प्राणियों के सुख के अर्थ पूर्वोक्त तीन प्रकार के यज्ञ को नित्य करता है, उस को सब मनुष्य हविष्कृत् अर्थात् यह यज्ञ का विस्तार करने वाला, यज्ञ का विस्तार करने वाला उत्तम मनुष्य है, ऐसा वारम्वार कहकर सत्कार करें॥१५॥<span lang="EN-GB"></span>
 
'''कुक्कुटोऽसीत्यस्य ऋषिः स एव। वायुर्देवता। [स्वराड्] ब्राह्मी त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥देवो वः सवितेत्यस्य ऋषिः स एव। सविता देवता। विराड् गायत्री छन्दः। षड्जः स्वरः॥<span lang="EN-GB"></span>'''
 
'''पुनः स यज्ञः कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते॥<span lang="EN-GB"></span>'''
 
फिर भी यह यज्ञ कैसा है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥<span lang="EN-GB"></span>