"यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः २९/मन्त्रः ३५" इत्यस्य संस्करणे भेदः
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<p style="text-align: justify;"><strong>पदपाठः—</strong>उ॒पाव॑सृ॒जेत्युप॒ऽअव॑सृज। त्मन्या॑। स॒म॒ञ्जन्निति॑ सम्ऽअ॒ञ्जन्। दे॒वाना॑म्। पाथः॑। ऋ॒तु॒थेत्यृ॑तु॒ऽथा। ह॒वींषि॑। वन॒स्पतिः॑। श॒मि॒ता। दे॒वः। अ॒ग्निः। स्वद॑न्तु। ह॒व्यम्। मधु॑ना। घृ॒तेन॑॥३५॥</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>पदार्थः—</strong>(उपावसृज) यथावद्देहि (त्मन्या) आत्मना (समञ्जन्) सम्यक् मिश्रीकुर्वन् (देवानाम्) विदुषाम् (पाथः) भोग्यमन्नादिकम् (ऋतुथा) ऋतौ (हवींषि) आदातव्यानि (वनस्पतिः) किरणानां स्वामी (शमिता) शान्तिकरः (देवः) दिव्यगुणो मेघः (अग्निः) पावकः (स्वदन्तु) प्राप्नुवन्तु (हव्यम्) अत्तव्यम् (मधुना) मधुरादिरसेन (घृतेन) घृतादिना॥३५॥</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>अन्वयः—</strong>हे विद्वंस्त्वं देवानां पाथो मधुना घृतेन समञ्जन् त्मन्या हवींषि ऋतुथोपावसृज तेन त्वया दत्तं हव्यं वनस्पतिः शमिता देवोऽग्निश्च स्वदन्तु॥३५॥</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>भावार्थः—</strong>मनुष्यैः शुद्धानां पदार्थनामृतावृतौ होमः कर्त्तव्यो येन तद्धुतं द्रव्यं सूक्ष्मं भूत्वा क्रमेणाग्निसूर्यमेघान् प्राप्य वृष्टिद्वारा सर्वोपकारि स्यात्॥३५॥</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>पदार्थः—</strong>हे विद्वन् पुरुष! तू (देवानाम्) विद्वानों के (पाथः) भोगने योग्य अन्न आदि को (मधुना) मीठे कोमल आदि रसयुक्त (घृतेन) घी आदि से (समञ्जन्) सम्यक् मिलाते हुए (त्मन्या) अपने आत्मा से (हवींषि) लेने भोजन करने योग्य पदार्थों को (ऋतुथा) ऋतु-ऋतु में (उपावसृज) यथावत् दिया कर अर्थात् होम किया कर। उस तैने दिये (हव्यम्) भोजन के योग्य पदार्थ को (वनस्पतिः) किरणों का स्वामी सूर्य्य (शमिता) शान्तिकर्त्ता (देवः) उत्तम गुणों वाला मेघ और (अग्निः) अग्नि (स्वदन्तु) प्राप्त होवें अर्थात् हवन किया पदार्थ उनको पहुंचे॥३५॥</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>भावार्थः—</strong>मनुष्यों को चाहिए कि शुद्ध पदार्थों का ऋतु-ऋतु में होम किया करें, <span>जिससे वह द्रव्य सूक्ष्म हो और क्रम से अग्नि</span>, <span>सूर्य तथा मेघ को प्राप्त होके वर्षा के द्वारा सब का उपकारी होवे॥३५॥</span></p>
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