"यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः २९/मन्त्रः ३७" इत्यस्य संस्करणे भेदः

{{header | title = यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविर... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
 
No edit summary
 
पङ्क्तिः ११:
 
<br>
<p style="text-align: center;"><strong>सद्यकेतुमित्यस्य इत्यस्यमधुच्छन्छा जमदग्निर्ऋषिः।ऋषिः। अग्निर्देवता।विद्वांसो निचृत्देवताः। त्रिष्टुप्गायत्री छन्दः। धैवतःषड्जः स्वरः॥</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>कीदृग्जनःआप्ताः सर्वानन्दयतीत्याह॥कीदृशा इत्याह॥</strong></p>
<p style="text-align: center;">कैसाआप्त मनुष्यलोग सबकैसे को आनन्द कराताहोते हैहैं, <span>इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।है॥</span></p>
<p style="text-align: center;"><strong>के॒तुं कृ॒ण्वन्न॑के॒तवे॒ पेशो॑ मर्याऽअपे॒शसे॑। समु॒षद्भि॑रजायथाः॥३७॥</strong></p>
<p style="text-align: center;"><strong>स॒द्यो जा॒तो व्य॑मिमीत य॒ज्ञम॒ग्निर्दे॒वाना॑मभवत् पुरो॒गाः।</strong></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>पदपाठः&mdash;</strong>के॒तुम्। कृ॒ण्वन्। अ॒के॒तवे॑। पेशः॑। म॒र्याः॒। अ॒पे॒शसे॑। सम्। उ॒षद्भि॒रित्यु॒षत्ऽभिः॑। अ॒जा॒य॒थाः॒॥३७॥</p>
<p style="text-align: center;"><strong>अ॒स्य होतुः॑ प्र॒दिश्यृ॒तस्य॑ वा॒चि स्वाहा॑कृतꣳ ह॒विर॑दन्तु दे॒वाः॥३६॥</strong></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>पदार्थः&mdash;</strong>(केतुम्) प्रज्ञाम्। केतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्॥ (निघ॰३।९) (कृण्वन्) कुर्वन् (अकेतवे) अविद्यमानप्रज्ञाय जनाय (पेशः) हिरण्यम्। पेश इति हिरण्यनामसु पठितम्॥ (निघ॰१।२) (मर्याः) मनुष्याः (अपेशसे) अविद्यमानं पेशः सुवर्णं यस्य तस्मै नराय (सम्) सम्यक्। (उषद्भिः) य उषन्ति हविर्दहन्ति तैर्यजमानैः (अजायथाः)॥३७॥</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>पदपाठः&mdash;</strong>स॒द्यः। जा॒तः। वि। अ॒मि॒मी॒त॒। य॒ज्ञम्। अ॒ग्निः। दे॒वाना॑म्। अ॒भ॒व॒त्। पु॒रो॒गा इति॑ पुरः॒ऽगाः। अ॒स्य। होतुः॑। प्र॒दिशीति॑ प्र॒ऽदिशि॑। ऋ॒तस्य॑। वा॒चि। स्वाहा॑कृतमिति॒ स्वाहा॑ऽकृतम्। ह॒विः। अ॒द॒न्तु॒। दे॒वाः॥३६॥</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>अन्वयः&mdash;</strong>हे विद्वन्! यथा मर्या अपेशसे पेशोऽकेतवे केतुं कुर्वन्ति, <span>तैरुषद्भिः सह प्रज्ञां श्रियं च कृण्वन् सँस्त्वं समजायथाः॥३७॥</span></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>पदार्थः&mdash;</strong>(सद्यः) शीघ्रम् (जातः) प्रकटीभूतः सन् (वि) विशेषेण (अमिमीत) मिमीते (यज्ञम्) अनेकविधव्यवहारम् (अग्निः) विद्याप्रकाशितो विद्वान् (देवानाम्) विदुषाम् (अभवत्) भवति (पुरोगाः) अग्रगामी (अस्य) (होतुः) आदातुः (प्रदिशि) प्रदिशन्ति यया तस्याम् (ऋतस्य) सत्यस्य (वाचि) वाण्याम् (स्वाहाकृतम्) सत्येन निष्पादितं कृतहोमं वा (हविः) अत्तव्यमन्नादिकम् (अदन्तु) भुञ्जताम् (देवाः) विद्वांसः॥३६॥</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>भावार्थः&mdash;</strong>अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। त एव आप्ता ये स्वात्मवदन्येषामपि सुखमिच्छन्ति, <span>तेषामेव संगेन विद्याप्राप्तिरविद्याहानिः</span>, <span>श्रियो लाभो</span>, <span>दरिद्रताया विनाशश्च भवति॥३७॥</span></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>अन्वयः&mdash;</strong>हे मनुष्याः! यस्सद्योजातोऽग्निर्होतुर्ऋतस्य प्रदिशि वाचि यज्ञं व्यमिमीत, <span>देवानां पुरोगा अभवदस्य स्वाहाकृतं हविर्देवा अदन्तु</span>, <span>तं सर्वोपरि विराजमानं मन्यध्वम्॥३६॥</span></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>पदार्थः&mdash;</strong>हे विद्वान् पुरुष! जैसे (मर्याः) मनुष्य (अपेशसे) जिसके सुवर्ण नहीं है, <span>उसके लिए (पेशः) सुवर्ण को और (अकेतवे) जिस को बुद्धि नहीं है</span>, <span>उसके लिए (केतुम्) बुद्धि को करते हैं</span>, <span>उन (उषद्भिः) होम करने वाले यजमान पुरुषों के साथ बुद्धि और धन को (कृण्वन्) करते हुए आप (सम्</span>, <span>अजायथाः) सम्यक् प्रसिद्ध हूजिये॥३७॥</span></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>भावार्थः&mdash;</strong>अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यः सर्वेषां प्रकाशकानां मध्ये प्रकाशकोऽस्ति, <span>तथा यो विद्वत्सु विद्वान् सर्वोपकारी जनो भवति</span>, <span>स एव सर्वेषामानन्दस्य भोजयिता भवति॥३६॥</span></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>भावार्थः&mdash;</strong>इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वे ही आप्तजन हैं जो अपने आत्मा के तुल्य अन्यों का भी सुख चाहते हैं, <span>उन्हीं के सङ्ग से विद्या की प्राप्ति अविद्या की हानि</span>, <span>धन का लाभ और दरिद्रता का विनाश होता है॥३७॥</span></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>पदार्थः&mdash;</strong>हे मनुष्यो! जो (सद्यः) शीघ्र (जातः) प्रसिद्ध हुआ (अग्निः) विद्या से प्रकाशित विद्वान् (होतुः) ग्रहण करनेहारे पुरुष के (ऋतस्य) सत्य का (प्रदिशि) जिससे निर्देश किया जाता है, <span>उस (वाचि) वाणी में (यज्ञम्) अनेक प्रकार के व्यवहार को (वि</span>, <span>अमिमीत) विशेष कर निर्माण करता और (देवानाम्) विद्वानों में (पुरोगाः) अग्रगामी (अभवत्) होता है (अस्य) इसके (स्वाहाकृतम्) सत्य व्यवहार से सिद्ध किये वा होम किये से बचे (हविः) भोजन के योग्य अन्नादि को (देवाः) विद्वान् लोग (अदन्तु) खायें</span>, <span>उसको सर्वोपरि विराजमान मानो॥३६॥</span></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>भावार्थः&mdash;</strong>इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य सब प्रकाशक पदार्थों के बीच प्रकाशक है, <span>वैसे जो विद्वानों में विद्वान् सब का उपकारी जन होता है</span>, <span>वही सब को आनन्द का भुगवाने वाला होता है॥३६॥</span></p>