"महाभारतम्-01-आदिपर्व-002" इत्यस्य संस्करणे भेदः

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पङ्क्तिः १:
समन्तपञ्चकाख्यानं।। 1 ।।
:ऋषय ऊचुः ।
अक्षौहिण्यादिपरिमाण।। 2 ।।
:समन्तपञ्चकमिति यदुक्तं सूतनन्दन ।
आदिपर्वादिसर्वपर्वणां संक्षेपेण वृत्तान्तकथनं।। 3 ।।
:एतत्सर्वं यथातत्त्वं श्रोतुमिच्छामहे वयम् ॥१॥
नारतश्रवणफलकथनं।। 4 ।।
<table>
<tr><td><p> <B>ऋषय ऊचुः।</B> <td> 1-2-1x </p></tr>
<tr><td><p> समन्तपञ्चकमिति यदुक्तं सूतनन्दन।<BR>एतत्सर्वं यथातत्त्वं श्रोतुमिच्छामहे वयम्।। <td> 1-2-1a<BR>1-2-1b </p></tr>
<tr><td><p> <B>सौतिरुवाच।</B> <td> 1-2-2x </p></tr>
<tr><td><p> शृणुध्वं मम भो विप्रा ब्रुवतश्च कथाः शुभाः।<BR>समन्तपञ्चकाख्यं च श्रोतुमर्हथ सत्तमाः।। <td> 1-2-2a<BR>1-2-2b </p></tr>
<tr><td><p> त्रेताद्वापरयोः सन्धौ रामः शस्त्रभृतां वरः।<BR>असकृत्पार्थिवं क्षत्रं जघानामर्षचोदितः।। <td> 1-2-3a<BR>1-2-3b </p></tr>
<tr><td><p> स सर्वं क्षत्रमुत्साद्य स्ववीर्येणानलद्युतिः।<BR>समन्तपञ्चके पञ्च चकार रुधिरह्रदान्।। <td> 1-2-4a<BR>1-2-4b </p></tr>
<tr><td><p> स तेषु रुधिराम्भःसु ह्रदेषु क्रोधमूर्च्छितः।<BR>पितॄन्संतर्पयामास रुधिरेणेति नः श्रुतम्।। <td> 1-2-5a<BR>1-2-5b </p></tr>
<tr><td><p> अथर्चीकादयोऽभ्येत्य पितरो राममब्रुवन्।<BR>राम राम महाभाग प्रीताः स्म तव भार्गव।। <td> 1-2-6a<BR>1-2-6b </p></tr>
<tr><td><p> अनया पितृभक्त्या च विक्रमेण तव प्रभो।<BR>वरं वृणीष्व भद्रं ते यमिच्छसि महाद्युते।। <td> 1-2-7a<BR>1-2-7b </p></tr>
<tr><td><p> <B>राम उवाच।</B> <td> 1-2-8x </p></tr>
<tr><td><p> यदि मे पितरः प्रीता यद्यनुग्राह्यता मयि।<BR>यच्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया।। <td> 1-2-8a<BR>1-2-8b </p></tr>
<tr><td><p> अतश्च पापान्मुच्येऽहमेष मे प्रार्थितो वरः।<BR>ह्रदाश्च तीर्थभूता मे भवेयुर्भुवि विश्रुताः।। <td> 1-2-9a<BR>1-2-9b </p></tr>
<tr><td><p> एवं भविष्यतीत्येवं पितरस्तमथाब्रुवन्।<BR>तं क्षमस्वेति निषिषिधुस्ततः स विरराम ह।। <td> 1-2-10a<BR>1-2-10b </p></tr>
<tr><td><p> तेषां समीपे यो देशो ह्रदानां रुधिराम्भसाम्।<BR>समन्तपञ्चकमिति पुण्यं तत्परिकीर्तितम्।। <td> 1-2-11a<BR>1-2-11b </p></tr>
<tr><td><p> येन लिङ्गेन यो देशो युक्तः समुपलक्ष्यते।<BR>तेनैव नाम्ना तं देशं वाच्यमाहुर्मनीषिणः।। <td> 1-2-12a<BR>1-2-12b </p></tr>
<tr><td><p> अन्तरे चैव संप्राप्ते कलिद्वापरयोरभूत्।<BR>समन्तपञ्चके युद्धं कुरुपाण्डवसेनयोः।। <td> 1-2-13a<BR>1-2-13b </p></tr>
<tr><td><p> तस्मिन्परमधर्मिष्ठे देशे भूदोषवर्जिते।<BR>अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया।। <td> 1-2-14a<BR>1-2-14b </p></tr>
<tr><td><p> समेत्य तं द्विजास्ताश्च तत्रैव निधं गताः।<BR>एतन्नामाभिनिर्वृत्तं तस्य देशस्य वै द्विजाः।। <td> 1-2-15a<BR>1-2-15b </p></tr>
<tr><td><p> पुण्यश्च रमणीयश्च स देशो वः प्रकीर्तितः।<BR>तदेतत्कथितं सर्वं मया ब्राह्मणसत्तमाः।।<BR>यथा देशः स विख्यातस्त्रिषु लोकेषु सुव्रताः।। <td> 1-2-16a<BR>1-2-16b<BR>1-2-16c </p></tr>
<tr><td><p> <B>ऋषय ऊचुः।</B> <td> 1-2-17x </p></tr>
<tr><td><p> अक्षौहिण्य इति प्रोक्तं यत्त्वया सूतनन्दन।<BR>एतदिच्छामहे श्रोतुं सर्वमेव यथातथम्।। <td> 1-2-17a<BR>1-2-17b </p></tr>
<tr><td><p> अक्षौहिण्याः परीमाणं नराश्वरथदन्तिनाम्।<BR>यथावच्चैव नो ब्रूहि सर्वं हि विदितं तव।। <td> 1-2-18a<BR>1-2-18b </p></tr>
<tr><td><p> <B>सौतिरुवाच।</B> <td> 1-2-19x </p></tr>
<tr><td><p> एको रथो गजश्चैको नराः पञ्च पदातयः।<BR>त्रयश्च तुरगास्तज्ज्ञैः पत्तिरित्यभिधीयते।। <td> 1-2-19a<BR>1-2-19b </p></tr>
<tr><td><p>पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहुः सेनामुखं बुधाः। <BR> त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते।।<td> 1-2-20a<BR>1-2-20b </p></tr>
<tr><td><p> त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रयः।<BR>स्मृतास्तिस्रस्तु वाहिन्यः पृतनेति विचक्षणैः।। <td> 1-2-21a<BR>1-2-21b </p></tr>
<tr><td><p> <BR>अनीकिनीं दशगुणां प्राहुरक्षौहिणीं बुधाः।। <td> 1-2-22a<BR>1-2-22b </p></tr>
<tr><td><p> अक्षौहिण्याः प्रसंख्याता रथानां द्विजसत्तमाः।<BR>संख्यागणिततत्त्वज्ञैः सहस्राण्येकविंशतिः।। <td> 1-2-23a<BR>1-2-23b </p></tr>
<tr><td><p> शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्च सप्ततिः।<BR>गजानां च परीमाणमेतदेव विनिर्दिशेत्।। <td> 1-2-24a<BR>1-2-24b </p></tr>
<tr><td><p> ज्ञेयं शतसहस्रं तु सहस्राणि नवैव तु।<BR>नराणामपि पञ्चाशच्छतानि त्रीणि चानघाः।। <td> 1-2-25a<BR>1-2-25b </p></tr>
<tr><td><p> पञ्च षष्टिसहस्राणि तथाश्वानां शतानि च।<BR>दशोत्तराणि षट् प्राहुर्यथावदिह संख्यया।। <td> 1-2-26a<BR>1-2-26b </p></tr>
<tr><td><p> एतामक्षौहिणीं प्राहुः संख्यातत्त्वदितो जनाः।<BR>यां वः कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधनाः।। <td> 1-2-27a<BR>1-2-27b </p></tr>
<tr><td><p> एतया संख्यया ह्यासन्कुरुपाण्डवसेनयोः।<BR>अक्षौहिण्यो द्विजश्रेष्ठाः पिण्डिताष्टादशैव तु।। <td> 1-2-28a<BR>1-2-28b </p></tr>
<tr><td><p> <BR>कौरवान्कारणं कृत्वा कालेनाद्भुतकर्मणा।। <td> 1-2-29a<BR>1-2-29b </p></tr>
<tr><td><p> अहानि युयुधे भीष्मो दशैव परमास्त्रवित्।<BR>अहानि पञ्च द्रोणस्तु ररक्ष कुरुवाहिनीम्।। <td> 1-2-30a<BR>1-2-30b </p></tr>
 
<tr><td><p> अहनी युयुधे द्वे तु कर्णः परबलार्दनः।<BR>शल्योऽर्धदिवसं चैव गदायुद्धमतः परम्।। <td> 1-2-31a<BR>1-2-31b </p></tr>
:सौतिरुवाच ।
:शृणुध्वं मम भो विप्रा ब्रुवतशच कथाः शुभाः
<tr><td><p> तस्यैव दिवसस्यान्ते द्रौणिहार्दिक्यगौतमाः।<BR>प्रसुप्तं निशि विश्वस्तं जघ्नुर्यौधिष्ठिरं बलम्।। <td> 1-2-32a<BR>1-2-32b </p></tr>
:समन्तपञ्चकाख्यं च श्रोतुमर्हथ सत्तमाः ॥२॥
<tr><td><p> यत्तु शौनक सत्रे ते भारताख्यानमुत्तमम्।<BR>जनमेजयस्य तत्सत्रे व्यासशिष्येण धीमता।। <td> 1-2-33a<BR>1-2-33b </p></tr>
<tr><td><p> कथितं विस्तरार्थं च यशो वीर्यं महीक्षिताम्।<BR>पौष्यं तत्र च पौलोममास्तीकं चादितः स्मृतम्।। <td> 1-2-34a<BR>1-2-34b </p></tr>
<tr><td><p> विचित्रार्थपदाख्यानमनेकसमयान्वितम्।<BR>प्रतिपन्नं नरैः प्राज्ञैर्वैराग्यमिव मोक्षिभिः।। <td> 1-2-35a<BR>1-2-35b </p></tr>
<tr><td><p> आत्मेव वेदितव्येषु प्रियेष्विव हि जीवितम्।<BR>इतिहासः प्रधानार्थः श्रेष्ठः सर्वागमेष्वयम्।। <td> 1-2-36a<BR>1-2-36b </p></tr>
<tr><td><p> अनाश्रित्येदमाख्यानं कथा भुवि न विद्यते।<BR>आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम्।। <td> 1-2-37a<BR>1-2-37b </p></tr>
<tr><td><p> तदेतद्भारतं नाम कविभिस्तूपजीव्यते।<BR>उदयतेप्सुभिर्भृत्यैरभिजात इवेश्वरः।। <td> 1-2-38a<BR>1-2-38b </p></tr>
<tr><td><p> इतिहासोत्तमे यस्मिन्नर्पिता बुद्धिरुत्तमा।<BR>स्वरव्यञ्जनयोः कृत्स्ना लोकवेदाश्रयेव वाक्।। <td> 1-2-39a<BR>1-2-39b </p></tr>
<tr><td><p> तस्य प्रज्ञाभिपन्नस्य विचित्रपदपर्वणः।<BR>सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थैर्भूषितस्य च।। <td> 1-2-40a<BR>1-2-40b </p></tr>
<tr><td><p> भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रहः।<BR>पर्वानुक्रमणी पूर्वं द्वितीयः पर्वसंग्रहः।। <td> 1-2-41a<BR>1-2-41b </p></tr>
<tr><td><p> भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रहः।<BR>पर्वानुक्रमणी पूर्वं द्वितीयः पर्वसंग्रहः।। <td> 1-2-41a<BR>1-2-41b </p></tr>
<tr><td><p> पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम्।<BR>ततः संभवपर्वोक्तमद्भुतं रोमहर्षणम्।। <td> 1-2-42a<BR>1-2-42b </p></tr>
<tr><td><p> दाहो जतुगृहस्यात्र हैडिम्बं पर्व चोच्यते।<BR>ततो बकवधः पर्व पर्व चैत्ररथं ततः।। <td> 1-2-43a<BR>1-2-43b </p></tr>
<tr><td><p> ततः स्वयंवरो देव्याः पाञ्चाल्याः पर्व चोच्यते।<BR>क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम्।। <td> 1-2-44a<BR>1-2-44b </p></tr>
<tr><td><p> विदुरागमनं पर्व राज्यलाभस्तथैव च।<BR>अर्जुनस्य वने वासः सुभद्राहरणं ततः।। <td> 1-2-45a<BR>1-2-45b </p></tr>
<tr><td><p> सुभद्राहरणादूर्ध्वं ज्ञेया हरणहारिका।<BR>ततः खाण्डवदाहाख्यं तत्रैव मयदर्शनम्।। <td> 1-2-46a<BR>1-2-46b </p></tr>
<tr><td><p> सभापर्व ततः प्रोक्तं मन्त्रपर्व ततः परम्।<BR>जरासन्धवधः पर्व पर्व दिग्विजयं तथा।। <td> 1-2-47a<BR>1-2-47b </p></tr>
<tr><td><p> पर्व दिग्विजयादूर्ध्वं राजसूयिकमुच्यते।<BR>ततश्चार्घाभिहरणं शिशुपालवधस्ततः।। <td> 1-2-48a<BR>1-2-48b </p></tr>
<tr><td><p> द्यूतपर्व ततः प्रोक्तमनुद्यूतमः परम्।<BR>तत आरण्यकं पर्व किर्मीरवध एवच।। <td> 1-2-49a<BR>1-2-49b </p></tr>
<tr><td><p> अर्जुनस्याभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम्।<BR>ईश्वरार्जुनयोर्युद्धं पर्व कैरातसंज्ञितम्।। <td> 1-2-50a<BR>1-2-50b </p></tr>
<tr><td><p> इन्द्रलोकाभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम्।<BR>नलोपाख्यानमपि च धार्मिकं करुणोदयम्।। <td> 1-2-51a<BR>1-2-51b </p></tr>
<tr><td><p> तीर्थयात्रा ततः पर्व कुरुराजस्य धीमतः।<BR>जटासुरवधः पर्व यक्षयुद्धमतः परम्।। <td> 1-2-52a<BR>1-2-52b </p></tr>
<tr><td><p> निवातकवचैर्युद्धं पर्व चाजगरं ततः।<BR>मार्कण्डेयसमास्या च पर्वानन्तरमुच्यते।। <td> 1-2-53a<BR>1-2-53b </p></tr>
 
<tr><td><p> संवादश्च ततः पर्व द्रौपदीसत्यभामयोः।<BR>घोषयात्रा ततः पर्व ततः प्रायोपवेशनेम्।<BR>मन्त्रस्य निश्चयं चैव मृगस्वप्नोद्भवं ततः।। <td> 1-2-54a<BR>1-2-54b<BR>1-2-54c </p></tr>
:त्रेतादवापरयॊः संधौ रामः शस्त्रभृतां वरः ।
:असकृत्पार्थिवं क्षत्रं जघानामर्षचॊदितः ॥३॥
<tr><td><p> व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमैन्द्रद्युम्नं तथैव च।<BR>द्रौपदीहरणं पर्व जयद्रथविमोक्षणम्।। <td> 1-2-55a<BR>1-2-55b </p></tr>
<tr><td><p> रामोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम्।<BR>पतिव्रताया माहात्म्यं सावित्र्याश्चैवमद्भुतम्।। <td> 1-2-56a<BR>1-2-56b </p></tr>
 
<tr><td><p> कुण्डलाहरणं पर्व ततः परमिहोच्यते।<BR>आरणेयं ततः पर्व वैराटं तदनन्तरम्।।<BR>पाण्डवानां प्रवेशश्च समयस्य च पालनम्।। <td> 1-2-57a<BR>1-2-57b<BR>1-2-57c </p></tr>
:स सर्वं क्षत्रमुत्साद्य सववीर्येणानलदयुतिः ।
:समन्तपञ्चके पञ्च चकार रुधिरह्रदान् ॥४॥
<tr><td><p> कीचकानां वधः पर्व पर्व ग्रोग्रहणं ततः।<BR>अभिमन्योश्च वैराट्याः पर्व वैवाहिकं स्मृतम्।। <td> 1-2-58a<BR>1-2-58b </p></tr>
<tr><td><p> उद्योगपर्व विज्ञेयमत ऊर्ध्वं महाद्भुतम्।<BR>ततः संजययानाख्यं पर्व ज्ञेयमतः परम्।। <td> 1-2-59a<BR>1-2-59b </p></tr>
<tr><td><p> प्रजागरं तथा पर्व धृतराष्ट्रस्य चिन्तया।<BR>पर्व सानत्सुजातं वै गुह्यमध्यात्मदर्शनम्।। <td> 1-2-60a<BR>1-2-60b </p></tr>
<tr><td><p> यानसन्धिस्ततः पर्व भगवद्यानमेव च।<BR>मातलीयमुपाख्यानं चरितं गालवस्य च।। <td> 1-2-61a<BR>1-2-61b </p></tr>
<tr><td><p> सावित्रं वामदेव्यं च वैन्योपाख्यानमेव च।<BR>जामदग्न्यमुपाख्यानं पर्व षोडशराजकम्।। <td> 1-2-62a<BR>1-2-62b </p></tr>
<tr><td><p> सभाप्रवेशः कृष्णस्य विदुलापुत्रशासनम्।<BR>उद्योगः सैन्यनिर्याणं विश्वोपाख्यानमेव च।। <td> 1-2-63a<BR>1-2-63b </p></tr>
<tr><td><p> ज्ञेयं विवादपर्वात्र कर्णस्यापि महात्मनः।<BR>`मन्त्रस्य निश्चयं कृत्वा कार्यस्य समनन्तरम्।। <td> 1-2-64a<BR>1-2-64b </p></tr>
<tr><td><p> श्वेतस्य वासुदेवेन चित्रं बहुकथाश्रयम्।'<BR>निर्याणं च ततः पर्व कुरुपाण्डवसेनयोः।। <td> 1-2-65a<BR>1-2-65b </p></tr>
<tr><td><p> रथातिरथसंख्या च पर्वोक्तं तदनन्तरम्।<BR>उलूकदूतागमनं पर्वामर्षविवर्धनम्।। <td> 1-2-66a<BR>1-2-66b </p></tr>
<tr><td><p> अम्बोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम्।।<BR>भीष्माभिषेचनं पर्व ततश्चाद्भुतमुच्यते।। <td> 1-2-67a<BR>1-2-67b </p></tr>
<tr><td><p> जम्बूखम्डविनिर्माणं पर्वोक्तं तदनन्तरम्।।<BR>भूमिपर्व ततः प्रोक्तं द्वीपविस्तारकीर्तनम्।। <td> 1-2-68a<BR>1-2-68b </p></tr>
 
<tr><td><p> `दिव्यं चक्षुर्ददौ यत्र संजयाय महामुनिः।'<BR>पर्वोक्तं भगवद्गीता पर्व भीष्मवधस्ततः।<BR>द्रोणाभिषेचनं पर्व संशप्तकवधस्ततः।। <td> 1-2-69a<BR>1-2-69b<BR>1-2-69c </p></tr>
:स तेषु रुधिराम्भःसु ह्रदेषु करॊधमूर्च्छितः ।
:पितॄन्संतर्पयामास रुधिरेणेति नः श्रुतम् ॥५॥
<tr><td><p> अभिमन्युवधः पर्व प्रतिज्ञा पर्व चोच्यते।<BR>जयद्रथवधः पर्व घटोत्कचवधस्ततः।। <td> 1-2-70a<BR>1-2-70b </p></tr>
<tr><td><p> ततो द्रोणवधः पर्व विज्ञेयं लोमहर्षणम्।<BR>मोक्षो नारायणास्त्रस्य पर्वानन्तरमुच्यते।। <td> 1-2-71a<BR>1-2-71b </p></tr>
<tr><td><p> कर्णपर्व ततो ज्ञेयं शल्यपर्व ततः परम्।<BR>ह्रदप्रवेशनं पर्व गदायुद्धमतः परम्।। <td> 1-2-72a<BR>1-2-72b </p></tr>
<tr><td><p> सारस्वतं ततः पर्व तीर्थवंशानुकीर्तनम्।<BR>अत ऊर्ध्वं सुबीभत्सं पर्व सौप्तिकमुच्यते।। <td> 1-2-73a<BR>1-2-73b </p></tr>
<tr><td><p> ऐषीकं पर्व चोद्दिष्टमत ऊर्ध्वं सुदारुणम्।<BR>जलप्रदानिकं पर्व स्त्रीविलापस्ततः परम्।। <td> 1-2-74a<BR>1-2-74b </p></tr>
<tr><td><p> श्राद्धपर्व ततो ज्ञेयं कुरूणामौर्ध्वदेहिकम्।<BR>चार्वाकनिग्रहः पर्व रक्षसो ब्रह्मरूपिणः।। <td> 1-2-75a<BR>1-2-75b </p></tr>
<tr><td><p> आभिषेचनिकं पर्व धर्मराजसर्य धीमतः।<BR>प्रविभागो गृहाणां च पर्वोक्तं तदनन्तरम्।। <td> 1-2-76a<BR>1-2-76b </p></tr>
<tr><td><p> शान्तिपर्व ततो यत्र राजधर्मानुशासनम्।<BR>आपद्धर्मश्च पर्वोक्तं मोक्षधर्मस्ततः परम्।। <td> 1-2-77a<BR>1-2-77b </p></tr>
<tr><td><p> शुकप्रश्नाभिगमनं ब्रह्मप्रश्नानुशासनम्।<BR>प्रादुर्भावश्च दुर्वासःसंवादश्चैव मायया।। <td> 1-2-78a<BR>1-2-78b </p></tr>
<tr><td><p> ततः पर्व परिज्ञेयमानुशासनिकं परम्।<BR>स्वर्गारोहणिकं चैव ततो भीष्मस्य धीमतः।। <td> 1-2-79a<BR>1-2-79b </p></tr>
<tr><td><p> पर्व चाश्रमवासाख्यं पुत्रदर्शनमेव च।<BR>नारदागमनं पर्व ततः परमिहोच्यते।। <td> 1-2-81a<BR>1-2-81b </p></tr>
<tr><td><p> मौसलं पर्व चोद्दिष्टं ततो घोरं सुदारुणम्।<BR>महाप्रस्थानिकं पर्व स्वर्गारोहणिकं ततः।। <td> 1-2-82a<BR>1-2-82b </p></tr>
<tr><td><p> हरिवंशस्ततः पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम्।<BR>विष्णुपर्व शिशोश्चर्या विष्णोः कंसवधस्तथा।। <td> 1-2-83a<BR>1-2-83b </p></tr>
<tr><td><p> भविष्यं पर्व चाप्युक्तं खिलेष्वेवाद्भुतं महत्।<BR>एतत्पर्वशतं पूर्णं व्यासेनोक्तं महात्मना।। <td> 1-2-84a<BR>1-2-84b </p></tr>
<tr><td><p> यथावत्सूतपुत्रेण रौमहर्षणिना ततः।<BR>उक्तानि नैमिशारण्ये पर्वाण्यष्टादशैव तु।। <td> 1-2-85a<BR>1-2-85b </p></tr>
<tr><td><p> समासो भारतस्यायमत्रोक्तः पर्वसंग्रहः।<BR>पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम्।। <td> 1-2-86a<BR>1-2-86b </p></tr>
<tr><td><p> संभवो जतुवेश्माख्यं हिडिम्बबकयोर्वधः।<BR>तथा चैत्ररथं देव्याः पाञ्चाल्याश्च स्वयंवरः।। <td> 1-2-87a<BR>1-2-87b </p></tr>
<tr><td><p> क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम्।<BR>विदुरागमनं चैव राज्यलाभस्तथैव च।। <td> 1-2-88a<BR>1-2-88b </p></tr>
<tr><td><p> वनवासोऽर्जुनस्यापि सुभद्राहरणं ततः।<BR>हरणाहरणं चैव दहनं खाण्डवस्य च।। <td> 1-2-89a<BR>1-2-89b </p></tr>
<tr><td><p> पौलोमे भृगुवंशस्य विस्तारः परिकीर्तितः।<BR>आस्तीके सर्वनागानां गरुडस्य च संभवः।। <td> 1-2-91a<BR>1-2-91b </p></tr>
<tr><td><p> क्षीरोदमथं चैव जन्मोच्चैःश्रवसस्तथा।<BR>यजतः सर्पसत्रेण राज्ञः पारिक्षितस्य च।। <td> 1-2-92a<BR>1-2-92b </p></tr>
<tr><td><p> कथेयमभिनिर्वृत्ता भारतानां महात्मनाम्।<BR>विविधाः संभवा राज्ञामुक्ताः संभवपर्वणि।। <td> 1-2-93a<BR>1-2-93b </p></tr>
<tr><td><p> अन्येषां चैव शूराणामृषेर्द्वैपायनस्य च।<BR>अंशावतरणं चात्र देवानां परिकीर्तितम्।। <td> 1-2-94a<BR>1-2-94b </p></tr>
<tr><td><p> दैत्यानां दानवानां च यक्षाणां च महौजसाम्।<BR>नागानामथ सर्पाणां गन्धर्वाणां पतत्त्रिणाम्।। <td> 1-2-95a<BR>1-2-95b </p></tr>
<tr><td><p> अन्येषां चैव भूतानां विविधानां समुद्भवः।<BR>महर्षेराश्रमपदे कण्वस्य च तपस्विनः।। <td> 1-2-96a<BR>1-2-96b </p></tr>
<tr><td><p> शकुन्तलायां दुष्यन्ताद्भरतश्चापि जज्ञिवान्।<BR>यस्य लोकेषु नाम्नेदं प्रथितं भारतं कुलम्।। <td> 1-2-97a<BR>1-2-97b </p></tr>
<tr><td><p> वसूनां पुनरुत्पत्तिर्भागीरथ्यां महात्मनाम्।<BR>शन्तनोर्वेश्मनि पुनस्तेषां चारोहणं दिवि।। <td> 1-2-98a<BR>1-2-98b </p></tr>
<tr><td><p> तेजोंशानां च संपातो भीष्मस्याप्यत्र संभवः।<BR>राज्यान्निवर्तनं तस्य ब्रह्मचर्यव्रते स्थितिः।। <td> 1-2-99a<BR>1-2-99b </p></tr>
<tr><td><p> प्रतिज्ञापालनं चैव रक्षा चित्राङ्गदस्य च।<BR>हते चित्राङ्गदे चैव रक्षा भ्रातुर्यवीयसः।। <td> 1-2-100a<BR>1-2-100b </p></tr>
<tr><td><p> विचित्रवीर्यस्य तथा राज्ये संप्रतिपादनम्।<BR>धर्मस्य नृषु संभूतिरणीमाण्डव्यशापजा।। <td> 1-2-101a<BR>1-2-101b </p></tr>
<tr><td><p> कृष्णद्वैपायनाच्चैव प्रसूतिर्वरदानजा।<BR>धृतराष्ट्रस्य पाण्डोश्च पाण्डवानां च संभवः।। <td> 1-2-102a<BR>1-2-102b </p></tr>
<tr><td><p> वारणावतयात्रा च मन्त्रो दुर्योधनस्य च।<BR>कूटस्य धार्तराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्प्रति।। <td> 1-2-103a<BR>1-2-103b </p></tr>
<tr><td><p> हितोपदेशश्च पथि धर्मराजस्य धीमतः।<BR>विदुरेण कृतो यत्र हितार्थं म्लेच्छभाषया।। <td> 1-2-104a<BR>1-2-104b </p></tr>
<tr><td><p> विदुरस्य च वाक्येन सुरुङ्गोपक्रमक्रिया।<BR>निषाद्याः पञ्चपुत्रायाः सुप्ताया जतुवेश्मनि।। <td> 1-2-105a<BR>1-2-105b </p></tr>
<tr><td><p> पुरोचनस्य चात्रैव दहनं संप्रकीर्तितम्।<BR>पाण्डवानां वने घोरे हिडिम्बायाश्च दर्शनम्।। <td> 1-2-106a<BR>1-2-106b </p></tr>
<tr><td><p> तत्रैव च हिडिम्बस्य वधो भीमान्महाबलात्।<BR>घटोत्कचस्य चोत्पत्तिंरत्रैव परिकीर्तिता।। <td> 1-2-107a<BR>1-2-107b </p></tr>
<tr><td><p> महर्षेर्दर्शनं चैव व्यासस्यामिततेजसः।<BR>तदाज्ञयैकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने।। <td> 1-2-108a<BR>1-2-108b </p></tr>
<tr><td><p> अज्ञातचर्यया वासो यत्र तेषां प्रकीर्तितः।<BR>बकस्य निधनं चैव नागराणां च विस्मयः।। <td> 1-2-109a<BR>1-2-109b </p></tr>
<tr><td><p> संभवश्चैव कृष्णाया धृष्टद्युम्नस्य चैव ह।<BR>ब्राह्मणात्समुपश्रुत्य व्यासवाक्यप्रचोदिताः।। <td> 1-2-110a<BR>1-2-110b </p></tr>
 
<tr><td><p> द्रौपदीं प्रार्थयन्तस्ते स्वयंवरदिदृक्षया।<BR>पञ्चालानभितो जग्मुर्यत्र कौतूहलान्विताः।। <td> 1-2-111a<BR>1-2-111b </p></tr>
:अथर्चीकादयॊऽभयेत्य पितरॊ राममब्रुवन् ।
:राम राम महाभाग प्रीताः स्म तव भार्गव ॥६॥
<tr><td><p> अङ्गारपर्णं निर्जित्य गङ्गाकूलेऽर्जुनस्तदा।<BR>सख्यं कृत्वा ततस्तेन तस्मादेव च शुश्रुवे।। <td> 1-2-112a<BR>1-2-112b </p></tr>
<tr><td><p> तापत्यमथ वासिष्ठमौर्वं चाख्यानमुत्तमम्।<BR>भ्रातृभिः सहितः सर्वैः पञ्चालानभितो ययौ।। <td> 1-2-113a<BR>1-2-113b </p></tr>
<tr><td><p> पाञ्चालनगरे चापि लक्ष्यं भित्त्वा धनञ्जयः।<BR>द्रौपदीं लब्धवानत्र मध्ये सर्वमहीक्षिताम्।। <td> 1-2-114a<BR>1-2-114b </p></tr>
<tr><td><p> भीमसेनार्जुनौ यत्र संरब्धान्पृथिवीपतीन्।<BR>शल्यकर्णौ च तरसा जितवन्तौ महामृधे।। <td> 1-2-115a<BR>1-2-115b </p></tr>
<tr><td><p> दृष्ट्वा तयोश्च तद्वीर्यमप्रमेयममानुषम्।<BR>शङ्कमानौ पाण्डवांस्तान् रामकृष्णौ महामती।। <td> 1-2-116a<BR>1-2-116b </p></tr>
<tr><td><p> जग्मतुस्तैः समागन्तुं शालां भार्गववेश्मनि।<BR>पञ्चानामेकपत्नीत्वे विमर्शो द्रुपदस्य च।। <td> 1-2-117a<BR>1-2-117b </p></tr>
<tr><td><p> पञ्चेन्द्राणामुपाख्यानमत्रैवाद्भुतमुच्यते।<BR>द्रौपद्या देवविहीतो विवाहश्चाप्यमानुषः।। <td> 1-2-118a<BR>1-2-118b </p></tr>
<tr><td><p> क्षत्तुश्च धार्तराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्प्रति।<BR>विदुरस्य च संप्राप्तिर्दर्शनं केशवस्य च।। <td> 1-2-119a<BR>1-2-119b </p></tr>
<tr><td><p> खाण्डवप्रस्थवासश्च तथा राज्यार्धसर्जनम्।<BR>नारदस्याज्ञया चैव द्रौपद्याः समयक्रिया।। <td> 1-2-120a<BR>1-2-120b </p></tr>
<tr><td><p> सुन्दोपसुन्दयोस्तद्वदाख्यानं परिकीर्तितम्।<BR>अनन्तरं च द्रौपद्या सहासीनं युधिष्ठिरम्।। <td> 1-2-121a<BR>1-2-121b </p></tr>
<tr><td><p> अनु प्रविश्य विप्रार्थे फाल्गुनो गृह्य चायुधम्।<BR>मोक्षयित्वा गृहं गत्वा विप्रार्थं कृतनिश्चयः।। <td> 1-2-122a<BR>1-2-122b </p></tr>
<tr><td><p> समयं पालयन्वीरो वनं यत्र जगाम ह।<BR>पार्थस्य वनवासे च उलूप्या पथि सङ्गमः।। <td> 1-2-123a<BR>1-2-123b </p></tr>
<tr><td><p> पुण्यतीर्थानुसंयानं बभ्रुवाहनजन्म च।<BR>तत्रैव मोक्षयामास पञ्च सोऽप्सरसः शुभाः।। <td> 1-2-124a<BR>1-2-124b </p></tr>
<tr><td><p> शापाद्ग्राहत्वमापन्ना ब्राह्मणस्य तपस्विनः।<BR>प्रभासतीर्थे पार्थेन कृष्णस्य च समागमः।। <td> 1-2-125a<BR>1-2-125b </p></tr>
<tr><td><p> द्वारकायां सुभद्रा च कामयानेन कामिनी।<BR>वासुदेवस्यानुमते प्राप्ता चैव किरीटिना।। <td> 1-2-126a<BR>1-2-126b </p></tr>
<tr><td><p> गृहीत्वा हरणं प्राप्ते कृष्णे देवकिनन्दने।<BR>अभिमन्योः सुभद्रायां जन्म चोत्तमतेजसः।। <td> 1-2-127a<BR>1-2-127b </p></tr>
<tr><td><p> द्रौपद्यास्तनयानां च संभवोऽनुप्रकीर्तितः।<BR>विहारार्थं च गतयोः कृष्णयोर्यमुनामनु।। <td> 1-2-128a<BR>1-2-128b </p></tr>
<tr><td><p> संप्राप्तिश्चक्रधनुषोः खाण्डवस्य च दाहनम्।<BR>मयस्य मोक्षो ज्वलनाद्भुजङ्गस्य च मोक्षणम्।। <td> 1-2-129a<BR>1-2-129b </p></tr>
<tr><td><p> महर्षेर्मन्दपालस्य शार्ङ्ग्या तनयसंभवः।<BR>इत्येतदादिपर्वोक्तं प्रथमं बहु विस्तरम्।। <td> 1-2-130a<BR>1-2-130b </p></tr>
<tr><td><p> अध्यायानां शते द्वे तु संख्याते परमर्षिणा।<BR>सप्तविंशतिरध्याया व्यासेनोत्तमतेजसा।। <td> 1-2-131a<BR>1-2-131b </p></tr>
<tr><td><p> अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च।<BR>श्लोकाश्च चतुराशीतिर्मुनिनोक्ता महात्मना।। <td> 1-2-132a<BR>1-2-132b </p></tr>
<tr><td><p> द्वितीयं तु सभापर्व बहुवृत्तान्तमुच्यते।<BR>सभाक्रिया पाण्डवानां किङ्कराणां च दर्शनम्। <td> 1-2-133a<BR>1-2-133b </p></tr>
<tr><td><p> लोकपालसभाख्यानं नारदाद्देवदर्शिनः।<BR>राजसूयस्य चारम्भो जरासन्धवधस्तथा।। <td> 1-2-134a<BR>1-2-134b </p></tr>
<tr><td><p> गिरिव्रजे निरुद्धानां राज्ञां कृष्णेन मोक्षणम्।<BR>तथा दिग्विजयोऽत्रैव पाम्डवानां प्रकीर्तितः।। <td> 1-2-135a<BR>1-2-135b </p></tr>
<tr><td><p> राज्ञामागमनं चैव सार्हणानां महक्रतौ।<BR>राजसूयेऽर्घसंवादे शिशुपालवधस्तथा।। <td> 1-2-136a<BR>1-2-136b </p></tr>
<tr><td><p> यज्ञे विभूतिं तां दृष्ट्वा दुःखामर्षान्वितस्य च।<BR>दुर्योधनस्यावहासो भीमेन च सभातले।। <td> 1-2-137a<BR>1-2-137b </p></tr>
<tr><td><p> यत्रास्य मन्युरुद्भूतो येन द्यूतमकारयत्।<BR>यत्र धर्मसुतं द्यूते शकुनिः कितवोऽजयत्।। <td> 1-2-138a<BR>1-2-138b </p></tr>
<tr><td><p> यत्र द्यूतार्णवे मग्नां द्रौपदीं नौरिवार्णवात्।<BR>धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः स्नुषां परमदुःखिताम्।। <td> 1-2-139a<BR>1-2-139b </p></tr>
<tr><td><p> तारयामास तांस्तीर्णाञ्ज्ञात्वा दुर्योधनो नृपः।<BR>पुनरेव ततो द्यूते समाह्वयत पाण्डवान्।। <td> 1-2-140a<BR>1-2-140b </p></tr>
<tr><td><p> जित्वा स वनवासाय प्रेषयामास तांस्ततः।<BR>एतत्सर्वं सभापर्व समाख्यातं महात्मना।। <td> 1-2-141a<BR>1-2-141b </p></tr>
<tr><td><p> अध्यायाः सप्ततिर्ज्ञेयास्तथा चाष्टौ प्रसंख्यया।<BR>श्लोकानां द्वे सहस्रे तु पञ्च श्लोकशतानि च।। <td> 1-2-142a<BR>1-2-142b </p></tr>
<tr><td><p> श्लोकाश्चैकादश ज्ञेयाः पर्वण्यस्मिन्द्विजोत्तमाः।<BR>अतः परं तृतीयं तु ज्ञेयमारण्यकं महत्।। <td> 1-2-143a<BR>1-2-143b </p></tr>
<tr><td><p> वनवासं प्रयातेषु पाण्डवेषु महात्मसु।<BR>पौरानुगमनं चैव धर्मपुत्रस्य धीमतः।। <td> 1-2-144a<BR>1-2-144b </p></tr>
<tr><td><p> अन्नौषधीनां च कृते पाण्डवेन महात्मना।<BR>द्विजानां भरणार्थं च कृतमाराधनं रवेः।। <td> 1-2-145a<BR>1-2-145b </p></tr>
<tr><td><p> धौम्योपदेशात्तिग्मांशुप्रसादादन्नसंभः।<BR>हितं च ब्रुवतः क्षत्तुः परित्यागोऽम्बिकासुतात्।। <td> 1-2-146a<BR>1-2-146b </p></tr>
<tr><td><p> त्यक्तस्य पाण्डुपुत्राणां समीपगमनं तथा।<BR>पुनरागमनं चैव धृतराष्ट्रस्य शासनात्।। <td> 1-2-147a<BR>1-2-147b </p></tr>
<tr><td><p> कर्णप्रोत्साहनाच्चैव धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः।<BR>वनस्थान्पाण्डवान्हन्तुं मन्त्रो दुर्योधनस्यच।। <td> 1-2-148a<BR>1-2-148b </p></tr>
<tr><td><p> तं दुष्टभावं विज्ञाय व्यासस्यागमनं द्रुतम्।<BR>निर्याणप्रतिषेधश्च सुरभ्याख्यानमेव च।। <td> 1-2-149a<BR>1-2-149b </p></tr>
<tr><td><p> मैत्रेयागमनं चात्र राज्ञश्चैवानुशासनम्।<BR>शापोत्सर्गश्च तेनैव राज्ञो दुर्योधनस्य च।। <td> 1-2-150a<BR>1-2-150b </p></tr>
<tr><td><p> किर्मीरस्य वधश्चात्र भीमसेनेन संयुगे।<BR>वृष्णीनामागमश्चात्र पाञ्चालानां च सर्वशः।। <td> 1-2-151a<BR>1-2-151b </p></tr>
<tr><td><p> श्रुत्वा शकुनिना द्यूते निकृत्या निर्जितांश्च तान्।<BR>क्रुद्धस्यानुप्रशमनं हरेश्चैव किरीटिना।। <td> 1-2-152a<BR>1-2-152b </p></tr>
<tr><td><p> परिदेवनं च पाञ्चाल्या वासुदेवस्य सन्निधौ।<BR>आश्वासनं च कृष्णेन दुःखार्तायाः प्रकीर्तितम्।। <td> 1-2-153a<BR>1-2-153b </p></tr>
<tr><td><p> तथा सौभवधाख्यानमत्रैवोक्तं महर्षिणा।<BR>सुभद्रायाः सपुत्रायाः कृष्णेन द्वारकां पुरीम्।। <td> 1-2-154a<BR>1-2-154b </p></tr>
<tr><td><p> नयनं द्रौपदेयानां धृष्टद्युम्नेन चैव ह।<BR>प्रवेशः पाण्डवेयानां रम्ये द्वैतवने ततः।। <td> 1-2-155a<BR>1-2-155b </p></tr>
<tr><td><p> धर्मराजस्य चात्रैव संवादः कृष्णया सह।<BR>संवादश्च तथा राज्ञा भीमस्यापि प्रकीर्तितः।। <td> 1-2-156a<BR>1-2-156b </p></tr>
<tr><td><p> समीपं पाण्डुपुत्राणां व्यासस्यागमनं तथा।<BR>प्रतिश्रुत्याथ विद्याया दानं राज्ञो महर्षिणा।। <td> 1-2-157a<BR>1-2-157b </p></tr>
<tr><td><p> गमनं काम्यके चापि व्यासे प्रतिगते ततः।<BR>अस्त्रहेतोर्विवासश्च पार्थस्यामिततेजसः।। <td> 1-2-158a<BR>1-2-158b </p></tr>
<tr><td><p> महादेवेन युद्धं च किरातवपुषा सह।<BR>दर्शनं लोकपालानामस्त्रप्राप्तिस्तथैव च।। <td> 1-2-159a<BR>1-2-159b </p></tr>
<tr><td><p> महेन्द्रलोकगमनमस्त्रार्थे च किरीटिनः।<BR>यत्र चिन्ता समुत्पन्ना धृतराष्ट्रस्य भूयसी।। <td> 1-2-160a<BR>1-2-160b </p></tr>
<tr><td><p> दर्शनं बृहदश्वस्य महर्षेर्भावितात्मनः।<BR>युधिष्ठिरस्य चार्तस्य व्यसने परिदेवनम्।। <td> 1-2-161a<BR>1-2-161b </p></tr>
<tr><td><p> नलोपाख्यानमत्रैव धर्मिष्ठं करुणोदयम्।<BR>दमयन्त्याः स्थितिर्यत्र नलस्य चरितं तथा।। <td> 1-2-162a<BR>1-2-162b </p></tr>
<tr><td><p> तथाक्षहृदयप्राप्तिस्तस्मादेव महर्षितः।<BR>लोमशस्यागमस्तत्र स्वर्गात्पाण्डुसुतान्प्रति।। <td> 1-2-163a<BR>1-2-163b </p></tr>
<tr><td><p> वनवासगतानां च पाण्डवानां महात्मनाम्।<BR>स्वर्गे प्रवृत्तिराख्याता लोमशेनार्जुनस्य वै।। <td> 1-2-164a<BR>1-2-164b </p></tr>
<tr><td><p> संदेशादर्जुनस्यात्र तीर्थाभिगमनक्रिया।<BR>तीर्थानां च फलप्राप्तिः पुण्यत्वं चापि कीर्तितम्।। <td> 1-2-165a<BR>1-2-165b </p></tr>
<tr><td><p> पुलस्त्यतीर्थयात्रा च नारदेन महर्षिणा।<BR>तीर्थयात्रा च तत्रैव पाण्डवानां महात्मनां।। <td> 1-2-166a<BR>1-2-166b </p></tr>
<tr><td><p> तथा यज्ञविभूतिश्च गयस्यात्र प्रकीर्तिता।। <td> 1-2-167a </p></tr>
<tr><td><p> आगस्त्यमपि चाख्यानं यत्र वातापिभक्षणम्।<BR>लोपामुद्राभिपमनमपत्यार्थमृषेस्तथा।। <td> 1-2-168a<BR>1-2-168b </p></tr>
<tr><td><p> ऋश्यशृङ्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिणः।<BR>जामदग्न्यस्य रामस्य चरितं भूरितेजसः।। <td> 1-2-169a<BR>1-2-169b </p></tr>
<tr><td><p> कार्तवीर्यवधो यत्र हैहयानां च वर्ण्यते।<BR>प्रभासतीर्थे पाण्डूनां वृष्णिभिश्च समागमः।। <td> 1-2-170a<BR>1-2-170b </p></tr>
<tr><td><p> सौकन्यमपि चाख्यानं च्यवनो यत्र भार्गवः।<BR>शर्यातियज्ञे नासत्यौ कृतवान्सोमपीथिनौ।। <td> 1-2-171a<BR>1-2-171b </p></tr>
<tr><td><p> ताभ्यां च यत्र स मुनिर्यौवनं प्रतिपादितः।<BR>मान्धातुश्चाप्युपाख्यानं राज्ञोऽत्रैवप्रकीर्तितं।। <td> 1-2-172a<BR>1-2-172b </p></tr>
<tr><td><p> जन्तूपाख्यानमत्रैव यत्र पुत्रेण सोमकः।<BR>पुत्रार्थमयजद्राजा लेभे पुत्रशतं च सः।। <td> 1-2-173a<BR>1-2-173b </p></tr>
<tr><td><p> ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनुत्तमम्।<BR>इन्द्राग्नी यत्र धर्मश्चाप्यजिज्ञासञ्शिबिं नृपम्।। <td> 1-2-174a<BR>1-2-174b </p></tr>
<tr><td><p> अष्टावक्रीयमत्रैव विवादो यत्र बन्दिना।<BR>अष्टावक्रस्य विप्रर्षेर्जनकस्याध्वरेऽभवत्।। <td> 1-2-175a<BR>1-2-175b </p></tr>
<tr><td><p> नैयायिकानां मुख्येन वरुणस्यात्मजेन च।<BR>पराजितो यत्र बन्दी विवादेन महात्मना।। <td> 1-2-176a<BR>1-2-176b </p></tr>
<tr><td><p> विजित्य सागरं प्राप्तं पितरं लब्धवानृषिः।<BR>यवक्रीतस्य चाख्यानं रैभ्यस्य च महात्मनः।<BR>गन्धमादनयात्रा च वासो नारायणाश्रमे।। <td> 1-2-177a<BR>1-2-177b<BR>1-2-177c </p></tr>
<tr><td><p> नियुक्तो भीमसेनश्च द्रौपद्या गन्धमादने।<BR>व्रजन्पथि महाबाहुर्दृष्टवान्पवनात्मजम्।। <td> 1-2-178a<BR>1-2-178b </p></tr>
<tr><td><p> कदलीषण्डमध्यस्थं हनूमन्तं महाबलम्।<BR>यत्र मन्दारपुष्पार्थे नलिनीं तामधर्षयत्।। <td> 1-2-179a<BR>1-2-179b </p></tr>
<tr><td><p> यत्रास्य युद्धमभवत्सुमहद्राक्षसैः सह।<BR>यक्षैश्चैव महावीर्यैर्मणिमत्प्रमुखैस्तथा।। <td> 1-2-180a<BR>1-2-180b </p></tr>
<tr><td><p> जटासुरस्य च वधो राक्षसस्य वृकोदरात्।<BR>वृषपर्वणो राजर्षेस्ततोऽभिगमनं स्मृतम्।। <td> 1-2-181a<BR>1-2-181b </p></tr>
<tr><td><p> आर्ष्टिषेणाश्रमे चैषां गमनं वास एव च।<BR>प्रोत्साहनं च पाञ्चाल्या भीमस्यात्र महात्मनः।। <td> 1-2-182a<BR>1-2-182b </p></tr>
<tr><td><p> कैलासारोहणं प्रोक्तं यत्र यक्षैर्बलोत्कटैः।<BR>युद्धमासीन्महाघोरं मणिमत्प्रमुखैः सह।। <td> 1-2-183a<BR>1-2-183b </p></tr>
<tr><td><p> समागमश्च पाण्डूनां यत्र वैश्रवणेन च।<BR>समागमश्चार्जुनस्य तत्रैव भ्रातृभिः सह।। <td> 1-2-184a<BR>1-2-184b </p></tr>
<tr><td><p> अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थं सव्यसाचिना।<BR>निवातकवचैर्युद्धं हिरण्यपुरवासिभिः।। <td> 1-2-185a<BR>1-2-185b </p></tr>
<tr><td><p> निवातकवचैर्घोरैर्दानवैः सुरशत्रुभिः।<BR>पौलोमैः कालकेयैश्च यत्र युद्धं किरीटिनः।। <td> 1-2-186a<BR>1-2-186b </p></tr>
<tr><td><p> वधश्चैषां समाख्यातो राज्ञस्तेनैव धीमता।<BR>अस्त्रसंदर्शनारम्भो धर्मराजस्य सन्निधौ।। <td> 1-2-187a<BR>1-2-187b </p></tr>
<tr><td><p> पार्थस्य प्रतिषेधश्छ नारदेन सुरर्षिणा।<BR>अवरोहणं पुनश्चैव पाण्डूनां गन्धमादनात्।। <td> 1-2-188a<BR>1-2-188b </p></tr>
<tr><td><p> भीमस्य ग्रहणं चात्र पर्वताभोगवर्ष्मणा।<BR>भुजगेन्द्रेण बलिना तस्मिन्सुगहने वने।। <td> 1-2-189a<BR>1-2-189b </p></tr>
<tr><td><p> अमोक्षयद्यत्र चैनं प्रश्नानुक्त्वा युधिष्ठिरः।<BR>काम्यकागमनं चैव पुनस्तेषां महात्मनाम्।। <td> 1-2-190a<BR>1-2-190b </p></tr>
<tr><td><p> तत्रस्थांश्च पुनर्द्रष्टुं पाण्डवान्परुषर्षभान्।<BR>वासुदेवस्यागमनमत्रैव परिकीर्तितम्।। <td> 1-2-191a<BR>1-2-191b </p></tr>
<tr><td><p> मार्कण्डेयसमास्यायामुपाख्यानानि सर्वशः।<BR>पृथोर्वैन्यस्य यत्रोक्तमाख्यानं परमर्षिणा।। <td> 1-2-192a<BR>1-2-192b </p></tr>
<tr><td><p> संवादश्च सरस्वत्यास्तार्क्ष्यर्षेः सुमहात्मनः।<BR>मत्स्योपाख्यानमत्रैव प्रोच्यते तदनन्तरम्।। <td> 1-2-193a<BR>1-2-193b </p></tr>
<tr><td><p> मार्कण्डेयसमास्या च पुराणं परिकीर्त्यते।<BR>ऐन्द्रद्युम्नामुपाख्यानं तथैवाङ्गिरसं स्मृतम्।। <td> 1-2-194a<BR>1-2-194b </p></tr>
<tr><td><p> पतिव्रतायाश्चाख्यानं तथैवाङ्गिरसं स्मृतम्।<BR>द्रौपद्याः कीर्तितश्चात्र संवादः सत्यभामया।। <td> 1-2-195a<BR>1-2-195b </p></tr>
<tr><td><p> पुनर्द्वैतवनं चैव पाण्डवाः समुपागताः।<BR>घोषयात्रा च गन्धर्वैर्यत्र बद्धः सुयोधनः।। <td> 1-2-196a<BR>1-2-196b </p></tr>
<tr><td><p> ह्रियमाणस्तु मन्दात्मा मोक्षितोऽसौ किरीटिना।<BR>धर्मराजस्य चात्रैव मृगस्वप्ननिदर्शनात्।। <td> 1-2-197a<BR>1-2-197b </p></tr>
<tr><td><p> काम्यके काननश्रेष्ठे पुनर्गमनमुच्यते।<BR>व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम्।। <td> 1-2-198a<BR>1-2-198b </p></tr>
<tr><td><p> दुर्वाससोऽप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्।<BR>जयद्रथेनापहारो द्रौपद्याश्चाश्रमान्तरात्।। <td> 1-2-199a<BR>1-2-199b </p></tr>
<tr><td><p> यत्रैनमन्वयाद्भीमो वायुवेगसमो जवे।<BR>चक्रे चैनं पञ्चशिखं यत्र भीमो महाबलः।। <td> 1-2-200a<BR>1-2-200b </p></tr>
<tr><td><p> रामायणमुपाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम्।<BR>यत्र रामेण विक्रम्य निहतो रावणो युधि।। <td> 1-2-201a<BR>1-2-201b </p></tr>
<tr><td><p> सावित्र्याश्चाप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्।<BR>कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरंदरात्।। <td> 1-2-202a<BR>1-2-202b </p></tr>
<tr><td><p> यत्रास्य शक्तिं तुष्टोऽसावदादेकवधाय च।<BR>आरणेयमुपाख्यानं यत्र धर्मोऽन्वशात्सुतम्।। <td> 1-2-203a<BR>1-2-203b </p></tr>
<tr><td><p> जग्मुर्लब्धवरा यत्र पाण्डवाः पश्चिमां दिशम्।<BR>एतदारण्यकं पर्व तृतीयं परिकीर्तितम्।। <td> 1-2-204a<BR>1-2-204b </p></tr>
<tr><td><p> अत्राध्यायशते द्वे तु संख्यया परिकीर्तिते।<BR>एकोनसप्ततिश्चैव तथाऽध्यायाः प्रकीर्तिताः।। <td> 1-2-205a<BR>1-2-205b </p></tr>
<tr><td><p> एकादश सहस्राणि श्लोकानां षट् शतानि च।<BR>चतुःषष्टिस्तथा श्लोकाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः।। <td> 1-2-206a<BR>1-2-206b </p></tr>
<tr><td><p> अतः परं निबोधेदं वैराटं पर्व विस्तरम्।<BR>विराटनगरे गत्वा श्मशाने विपुलां शमीम्।। <td> 1-2-207a<BR>1-2-207b </p></tr>
<tr><td><p> दृष्ट्वा संनिदधुस्तत्र पाण्डवा ह्यायुधान्युत।<BR>यत्र प्रविश्य नगरं छद्मना न्यवसंस्तु ते।। <td> 1-2-208a<BR>1-2-208b </p></tr>
<tr><td><p> पाञ्चालीं प्रार्थयानस्य कामोपहतचेतसः।<BR>दुष्टात्मनो वधो यत्र कीचकस्य वृकोदरात्।। <td> 1-2-209a<BR>1-2-209b </p></tr>
<tr><td><p> पाण्डवान्वेषणार्थं च राज्ञो दुर्योधनस्य च।<BR>चाराः प्रस्थापिताश्चात्र निपुणाः सर्वतोदिशं।। <td> 1-2-210a<BR>1-2-210b </p></tr>
<tr><td><p> न च प्रवृत्तिस्तैर्लब्धा पाण्डवानां महात्मनाम्।<BR>गोग्रहश्च विराटस्य त्रिगर्तैः प्रथमं कृतः।। <td> 1-2-211a<BR>1-2-211b </p></tr>
<tr><td><p> यत्रास्य युद्धं सुमहत्तैरासील्लोमहर्षणम्।<BR>ह्रियमाणश्च यत्रासौ भीमसेनेन मोक्षितः।। <td> 1-2-212a<BR>1-2-212b </p></tr>
<tr><td><p> गोधनं च विराटस्य मोक्षितं यत्र पाण्डवैः।<BR>अनन्तरं च कुरुभिस्तस्य गोग्रहणं कृतम्।। <td> 1-2-213a<BR>1-2-213b </p></tr>
<tr><td><p> समस्ता यत्र पार्थेन निर्जिताः कुरवो युधि।<BR>प्रत्याहृतं गोधनं च विक्रमेण किरीटिना।। <td> 1-2-214a<BR>1-2-214b </p></tr>
<tr><td><p> विराटेनोत्तरा दत्ता स्नुषा यत्र किरीटिनः।<BR>अभिमन्युं समुद्दिश्य सौभद्रमरिघातिनम्।। <td> 1-2-215a<BR>1-2-215b </p></tr>
<tr><td><p> चतुर्थमेतद्विपुलं वैराटं पर्व वर्णितम्।<BR>अत्रापि परिसंख्याता अध्यायाः परमर्षिणा।। <td> 1-2-216a<BR>1-2-216b </p></tr>
<tr><td><p> सप्तषष्टिरथो पूर्णाः श्लोकानामपि मे शृणु।<BR>श्लोकानां द्वे सहस्रे तु श्लोकाः पञ्चाशदेव तु।। <td> 1-2-217a<BR>1-2-217b </p></tr>
<tr><td><p> उक्तानि वेदविदुषा पर्वण्यस्मिन्महर्षिणा।<BR>उद्योगपर्व विज्ञेयं पञ्चमं शृण्वतः परम्।। <td> 1-2-218a<BR>1-2-218b </p></tr>
<tr><td><p> उपप्लाव्ये निविष्टेषु पाण्डवेषु जिगीषया।<BR>दुर्योधनोऽर्जुनश्चैव वासुदेवमुपस्थितौ।। <td> 1-2-219a<BR>1-2-219b </p></tr>
<tr><td><p> साहाय्यमस्मिन्समरे भवान्नौ कर्तुमर्हति।<BR>इत्युक्ते वचने कृष्णो यत्रोवाच महामतिः।। <td> 1-2-220a<BR>1-2-220b </p></tr>
<tr><td><p> अयुध्यमानमात्मानं मन्त्रिणं पुरुषर्षभौ।<BR>अक्षौहिणीं वा सैन्यस्य कस्य किं वा ददाम्यहम्।। <td> 1-2-221a<BR>1-2-221b </p></tr>
<tr><td><p> वव्रे दुर्योधनः सैन्यं मन्दात्मा यत्र दुर्मतिः।<BR>अयुध्यभानं सचिवं वव्रे कृष्मं धनंजयः।। <td> 1-2-222a<BR>1-2-222b </p></tr>
<tr><td><p> मद्रराजं व राजानमायान्तं पाण्डवान्प्रति।<BR>उपहारैर्वञ्चायत्वा वर्त्मन्येव सुयोधनः।। <td> 1-2-223a<BR>1-2-223b </p></tr>
<tr><td><p> वरदं तं वरं वव्रे साहाय्यं क्रियतां मम।<BR>शल्यस्तस्मै प्रतिश्रुत्य जगामोद्दिश्य पाण्डवान्।। <td> 1-2-224a<BR>1-2-224b </p></tr>
<tr><td><p> शान्तिपूर्वं चाकथयद्यत्रेन्द्रविजयं नृपः।<BR>पुरोहितप्रेषणं च पाण्डवैः कौरवान्प्रति।। <td> 1-2-225a<BR>1-2-225b </p></tr>
<tr><td><p> वैचित्रवीर्यस्य वचः समादाय पुरोधसः।<BR>तथेन्द्रविजयं चापि यानं चैव पुरोधसः।। <td> 1-2-226a<BR>1-2-226b </p></tr>
<tr><td><p> संजयं प्रेषयामास शमार्थी पाण्डवान्प्रति।<BR>यत्र दूतं महाराजो धृतराष्ट्रः प्रतापवान्।। <td> 1-2-227a<BR>1-2-227b </p></tr>
<tr><td><p> श्रुत्वा च पाण्डवान्यत्र वासुदेवपुरोगमान्।<BR>प्रजागरः संप्रजज्ञे धृतराष्ट्रस्य चिन्तया।। <td> 1-2-228a<BR>1-2-228b </p></tr>
<tr><td><p> विदुरो यत्र वाक्यानि विचित्राणि हितानि च।<BR>श्रावयामास राजानं धृतराष्ट्रं मनीषिणम्।। <td> 1-2-229a<BR>1-2-229b </p></tr>
<tr><td><p> तथा सनत्सुजातेन यत्राध्यात्ममनुत्तमम्।<BR>मनस्तापान्वितो राजा श्रावितः शोकलालसः।। <td> 1-2-230a<BR>1-2-230b </p></tr>
<tr><td><p> प्रभाते राजसमितौ संजयो यत्र वा विभो।<BR>ऐकात्म्यं वासुदेवस्य प्रोक्तवानर्जुनस्य च।। <td> 1-2-231a<BR>1-2-231b </p></tr>
<tr><td><p> यत्र कृष्णो दयापन्नः सन्धिमिच्छन्महामतिः।<BR>स्वयमागाच्छणं कर्तुं नगरं नागसाह्वयम्।। <td> 1-2-232a<BR>1-2-232b </p></tr>
<tr><td><p> प्रत्याख्यानं च कृष्णस्य राज्ञा दुर्योधनेन वै।<BR>शमार्थे याचमानस्य पक्षयोरुभयोर्हितम्।। <td> 1-2-233a<BR>1-2-233b </p></tr>
<tr><td><p> दम्भोद्भवस्य चाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्।<BR>वरान्वेषणमत्रैव मातलेश्च महात्मनः।। <td> 1-2-234a<BR>1-2-234b </p></tr>
<tr><td><p> महर्षेश्चापि चरितं कथितं गालवस्य वै।<BR>विदुलायाश्च पुत्रस्य प्रोक्तं चाप्यनुशासनम्।। <td> 1-2-235a<BR>1-2-235b </p></tr>
<tr><td><p> कर्णदुर्योधनादीनां दुष्टं विज्ञाय मन्त्रितम्।<BR>योगेश्वरत्पं कृष्णेन यत्र राज्ञां प्रदर्शितम्।। <td> 1-2-236a<BR>1-2-236b </p></tr>
<tr><td><p> रथमारोप्य कृष्णेन यत्र कर्णोऽनुमन्त्रितः।<BR>उपायपूर्वं शौटीर्यात्प्रत्याख्यातश्च तेन सः।। <td> 1-2-237a<BR>1-2-237b </p></tr>
<tr><td><p> आगम्य हास्तिनपुरादुपप्लाव्यमरिंदमः।<BR>पाण्डवानां यथावृत्तं सर्वमाख्यातवान्हरिः।। <td> 1-2-238a<BR>1-2-238b </p></tr>
<tr><td><p> ते तस्य वचनं श्रुत्वा मन्त्रयित्वा च यद्धितम्।<BR>साङ्ग्रामिकं ततः सर्वं सञ्जं चक्रुः परंतपाः।। <td> 1-2-239a<BR>1-2-239b </p></tr>
<tr><td><p> ततो युद्धाय निर्याता नराश्वरथदन्तिनः।<BR>नगराद्धास्तिनपुराद्वलसंख्यानमेवच।। <td> 1-2-240a<BR>1-2-240b </p></tr>
 
<tr><td><p> यत्र राज्ञा ह्युलूकस्य प्रेषणं पाम्डवान्प्रति।<BR>श्वोभाविनि महायुद्धे दौत्येन कृतवान्प्रभुः।। <td> 1-2-241a<BR>1-2-241b </p></tr>
:अनया पितृभक्त्या च विक्रमेण तव प्रभो ।
:वरं वृणीष्व भद्रं ते यमिच्छसि महाद्युते ॥७॥
<tr><td><p> रथातिरथसंख्यानमम्बोपाख्यानमेव च।<BR>एतत्सुबहुवृत्तान्तं पञ्चमं पर्व भारते।। <td> 1-2-242a<BR>1-2-242b </p></tr>
<tr><td><p> उद्योगपर्व निर्दिष्टं सन्धिविग्रहमिश्रितम्।<BR>अध्यायानां शतं प्रोक्तं षडशीतिर्महर्षिणा।। <td> 1-2-243a<BR>1-2-243b </p></tr>
<tr><td><p> श्लोकानां षट् सहस्राणि तावन्त्येव शतानि च।<BR>श्लोकाश्च नवतिः प्रोक्तास्तथैवाष्टौ महात्मना।। <td> 1-2-244a<BR>1-2-244b </p></tr>
<tr><td><p> व्यासेनोदारमतिना पर्वण्यस्मिंस्तपोधनाः।<BR>अतः परं विचित्रार्थं भीष्मपर्व प्रचक्षते।। <td> 1-2-245a<BR>1-2-245b </p></tr>
<tr><td><p> जम्बूखण्डविनिर्माणं यत्रोक्तं संजयेन ह।<BR>यत्र यौधिष्ठिरं सैन्यं विषादमगमत्परम्।। <td> 1-2-246a<BR>1-2-246b </p></tr>
<tr><td><p> यत्र युद्धमभूद्धोरं दसाहानि सुदारुणम्।<BR>कश्मलं यत्र पार्थस्य वासुदेवो महामतिः।। <td> 1-2-247a<BR>1-2-247b </p></tr>
<tr><td><p> मोहजं नाशयामास हेतुभिर्मोक्षदर्शिभिः।<BR>समीक्ष्यादोक्षजः क्षिप्रं युधिष्ठिरहिते रतः।। <td> 1-2-248a<BR>1-2-248b </p></tr>
<tr><td><p> रथादाप्लुत्य वेगेन स्वयं कृष्ण उदारधीः।<BR>प्रतोदपाणिराधावद्भीष्मं हन्तुं व्यपेतभीः।। <td> 1-2-249a<BR>1-2-249b </p></tr>
<tr><td><p> वाक्यप्रतोदाभिहतो यत्र कृष्णेन पाण्डवः।<BR>गाण्डीवधन्वा समरे सर्वशस्त्रभृतां वरः।। <td> 1-2-250a<BR>1-2-250b </p></tr>
<tr><td><p> शिखण्डिनं पुरस्कृत्य यत्र पार्थो महाधनुः।<BR>विनिघ्नन्निशितैर्बाणै रथाद्भीष्ममपातयत्।। <td> 1-2-251a<BR>1-2-251b </p></tr>
<tr><td><p> शरतल्पगतश्चैव भीष्मो यत्र बभूव ह।<BR>षष्ठमेतत्समाख्यातं भारते पर्व विस्तृतम्।। <td> 1-2-252a<BR>1-2-252b </p></tr>
<tr><td><p> अध्यायानां शतं प्रोक्तं तथा सप्तदशापरे।<BR>पञ्च श्लोकसहस्राणि संख्ययाष्टौ शतानि च।। <td> 1-2-253a<BR>1-2-253b </p></tr>
<tr><td><p> श्लोकाश्च चतुराशीतिरस्मिन्पर्वणि कीर्तिताः।<BR>व्यासेन वेदविदुषा संख्याता भीष्मपर्वणि।। <td> 1-2-254a<BR>1-2-254b </p></tr>
<tr><td><p> द्रोणपर्व ततश्चित्रं बहुवृत्तान्तमुच्यते।<BR>सैनापत्येऽभिषिक्तोऽथ यत्राचार्यः प्रतापवान्।। <td> 1-2-255a<BR>1-2-255b </p></tr>
<tr><td><p> दुर्योधनस्य प्रीत्यर्थं प्रतिजज्ञे महास्त्रवित्।<BR>ग्रहणं धर्मराजस्य पाण्डुपुत्रस्य धीमतः।। <td> 1-2-256a<BR>1-2-256b </p></tr>
<tr><td><p> यत्र संशप्तकाः पार्थमपनिन्यू रणाजिरात्।<BR>भगदत्तो महाराजो यत्र शक्रसमो युधि।। <td> 1-2-257a<BR>1-2-257b </p></tr>
<tr><td><p> सुप्रतीकेन नागेन स हि शान्तः किरीटिना।<BR>यत्राभिमन्युं बहवो जघ्नुरेकं महारथाः।। <td> 1-2-258a<BR>1-2-258b </p></tr>
<tr><td><p> जयद्रथमुखा बालं शूरमप्राप्तयौवनम्।<BR>हतेऽभिमन्यौ क्रुद्धेन यत्र पार्थेन संयुगे।। <td> 1-2-259a<BR>1-2-259b </p></tr>
<tr><td><p> अक्षौहिणीः सप्त हत्वा हतो राजा जयद्रथः।<BR>यत्र भीमो महाबाहुः सात्यकिश्च महारथः।। <td> 1-2-260a<BR>1-2-260b </p></tr>
<tr><td><p> अन्वेषणार्थं पार्थस्य युधिष्ठिरनृपाज्ञया।<BR>प्रविष्टौ भारतीं सेनामप्रधृष्यां सुरैरपि।। <td> 1-2-261a<BR>1-2-261b </p></tr>
<tr><td><p> संशप्तकावशेषं च कृतं निःशेषमाहवे।<BR>संशप्तकानां वीराणां कोट्यो नव महात्मनाम्।। <td> 1-2-262a<BR>1-2-262b </p></tr>
<tr><td><p> किरीटिनाभिनिष्क्रम्य प्रापिता यमसादनम्।<BR>धृतराष्ट्रस्य पुत्राश्च तथा पाषाणयोधिनः।। <td> 1-2-263a<BR>1-2-263b </p></tr>
<tr><td><p> नारायणाश्च गोपालाः समरे चित्रयोधिनः।<BR>अलम्बुषः श्रुतायुश्च जलसन्धश्च वीर्यवान्।। <td> 1-2-264a<BR>1-2-264b </p></tr>
<tr><td><p> सौमदत्तिर्विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।<BR>घटोत्कचादयश्चान्ये निहता द्रोणपर्वणि।। <td> 1-2-265a<BR>1-2-265b </p></tr>
<tr><td><p> अश्वत्थामापि चात्रैव द्रोणे युधि निपातिते।<BR>अस्त्रं प्रादुश्चकारोग्रं नारायणममर्षितः।। <td> 1-2-266a<BR>1-2-266b </p></tr>
<tr><td><p> आग्नेयं कीर्त्यते यत्र रुद्रमाहात्म्यमुत्तमम्।<BR>व्यासस्य चाप्यागमनं माहात्म्यं कृष्णपार्थयोः।। <td> 1-2-267a<BR>1-2-267b </p></tr>
<tr><td><p> सप्तमं भारते पर्व महदेतदुदाहृतम्।<BR>यत्र ते पृथिवीपालाः प्रायशो निधनं गताः।। <td> 1-2-268a<BR>1-2-268b </p></tr>
<tr><td><p> द्रोणपर्वणि ये शऊरा निर्दिष्टाः पुरुषर्षभाः।<BR>अत्राध्यायशतं प्रोक्तं तथाध्यायाश्च सप्ततिः।। <td> 1-2-269a<BR>1-2-269b </p></tr>
<tr><td><p> अष्टौ श्लोकसहस्राणि तथा नव शतानि च।<BR>श्लोका नव तथैवात्र संख्यातास्तत्त्वदर्शिना।। <td> 1-2-270a<BR>1-2-270b </p></tr>
<tr><td><p> पाराशर्येण मुनिनां संचिन्त्य द्रोणपर्वणि।<BR>अतः परं कर्णपर्व प्रोच्यते परमाद्भुतम्।। <td> 1-2-271a<BR>1-2-271b </p></tr>
<tr><td><p> सारथ्ये विनियोगश्च मद्रराजस्य धीमतः।<BR>आख्यातं यत्र पौरामं त्रिपुरस्य निपातनम्।। <td> 1-2-272a<BR>1-2-272b </p></tr>
<tr><td><p> प्रयाणे परुषश्चात्र संवादः कर्णशल्ययोः।<BR>हंसकाकीयमाख्यानं तत्रैवाक्षेपसंहितम्।। <td> 1-2-273a<BR>1-2-273b </p></tr>
<tr><td><p> वधः पाण्ड्यस्य च तथा अश्वत्थाम्ना महात्मना।<BR>दण्डसेनस्य च ततो दण्डस्य च वधस्तथा।। <td> 1-2-274a<BR>1-2-274b </p></tr>
<tr><td><p> द्वैरथे यत्र कर्णेन धर्मराजो युधिष्टिरः।<BR>संशयं गमितो युद्धे मिषतां सर्वधन्विनाम्।। <td> 1-2-275a<BR>1-2-275b </p></tr>
<tr><td><p> अन्योन्यं प्रति च क्रोधो युधिष्ठिरकिरीटिनोः।<BR>यत्रैवानुनयः प्रोक्तो माधवेनार्जुनस्य हि।। <td> 1-2-276a<BR>1-2-276b </p></tr>
<tr><td><p> प्रतिज्ञापूर्वकं चापि वक्षो दुःशासनस्य च।<BR>भित्त्वा वृकोदरो रक्तं पीतवान्यत्र संयुगे।। <td> 1-2-277a<BR>1-2-277b </p></tr>
<tr><td><p> द्वैरथे यत्र पार्थेन हतः कर्णो महारथः।<BR>अष्टमं पर्व निर्दिष्टमेतद्भारतचिन्तकैः।। <td> 1-2-278a<BR>1-2-278b </p></tr>
<tr><td><p> एकोनसप्ततिः प्रोक्ता अध्यायाः कर्णपर्वणि।<BR>चत्वार्येव सहस्राणि नव श्लोकशतानि च।। <td> 1-2-279a<BR>1-2-279b </p></tr>
<tr><td><p> चतुःषष्टिस्तथा श्लोकाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः।<BR>अतः परं विचित्रार्थं शल्यपर्व प्रकीर्तितम्।। <td> 1-2-280a<BR>1-2-280b </p></tr>
<tr><td><p> हतप्रवीरे सैन्ये तु नेता मद्रेश्वरोऽभवत्।<BR>यत्र कौमारमाख्यानमभिषेकस्य कर्म च।। <td> 1-2-281a<BR>1-2-281b </p></tr>
<tr><td><p> वृत्तानि चाथ युद्धानि कीर्त्यन्ते यत्र भागशः।<BR>विनाशः कुरुमुख्यानां शल्यपर्वणि कीर्त्यते।। <td> 1-2-282a<BR>1-2-282b </p></tr>
<tr><td><p> शल्यस्य निधनं चात्र धर्मराजान्महात्मनः।<BR>शकुनेश्च वधोऽत्रैव सहदेवेन संयुगे।। <td> 1-2-283a<BR>1-2-283b </p></tr>
<tr><td><p> सैन्ये च हतभूयिष्ठे किंचिच्छिष्टे सुयोधनः।<BR>ह्रदं प्रविश्य यत्रासौ संस्तभ्यापोव्यवस्थितः।। <td> 1-2-284a<BR>1-2-284b </p></tr>
<tr><td><p> प्रवृत्तिस्तत्र चाख्याता यत्र भीमस्य लुब्धकैः।<BR>क्षेपयुक्तैर्वचोभिश्च धर्मराजस्य धीमतः।। <td> 1-2-285a<BR>1-2-285b </p></tr>
<tr><td><p> ह्रदात्समुत्थितो यत्र धार्तराष्ट्रोऽत्यमर्षणः।<BR>भीमेन गदया युद्धं यत्रासौ कृतवान्सह।। <td> 1-2-286a<BR>1-2-286b </p></tr>
<tr><td><p> समवाये च युद्धस्य रामस्यागमनं स्मृतम्।<BR>सरस्वत्याश्च तीर्थानां पुण्यता परिकीर्तिता।। <td> 1-2-287a<BR>1-2-287b </p></tr>
<tr><td><p> गदायुद्धं च तुमुलमत्रैव परिकीर्तितम्।<BR>दुर्योधनस्य राज्ञोऽथ यत्र भीमेन संयुगे।। <td> 1-2-288a<BR>1-2-288b </p></tr>
<tr><td><p> ऊरू भग्नौ प्रसह्याजौ गदया भीमवेगया।<BR>नवमं पर्व निर्दिष्टमेतदद्भुतमर्थवत्।। <td> 1-2-289a<BR>1-2-289b </p></tr>
<tr><td><p> एकोनपष्टिरध्यायाः पर्वण्यत्र प्रकीर्तिताः।<BR>संख्याता बहुवृत्तान्ताः श्लोकसंख्याऽत्र कथ्यते।। <td> 1-2-290a<BR>1-2-290b </p></tr>
<tr><td><p> त्रीणि श्लोकसहस्राणि द्वे शते विंशतिस्तथा।<BR>मुनिना संप्रणीतानि कौरवाणां यशोभृता।। <td> 1-2-291a<BR>1-2-291b </p></tr>
<tr><td><p> अतः परं प्रवक्ष्यामि सौप्तिकं पर्व दारुणम्।<BR>भग्नोरुं यत्र राजानं दुर्योधनममर्षणम्।। <td> 1-2-292a<BR>1-2-292b </p></tr>
<tr><td><p> अपयातेषु पार्थेषु त्रयस्तेऽभ्याययू रथाः।<BR>कृतवर्मा कृपो द्रौणिः सायाह्ने रुधिरोक्षितम्।। <td> 1-2-293a<BR>1-2-293b </p></tr>
<tr><td><p> समेत्य ददृशुर्भूमौ पतितं रणमूर्धनि।<BR>प्रतिजज्ञे दृढक्रोधो द्रौणिर्यत्र महारथः।। <td> 1-2-294a<BR>1-2-294b </p></tr>
<tr><td><p> अहत्वा सर्वपाञ्चालान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान्।<BR>पाण्डवांश्च सहामात्यान्न विमोक्ष्यामि दंशनं।। <td> 1-2-295a<BR>1-2-295b </p></tr>
<tr><td><p> यत्रैवमुक्त्वा राजानमपक्रम्य त्रयो रथाः।<BR>सूर्यास्तमनवेलायामासेदुस्ते महद्वनम्।। <td> 1-2-296a<BR>1-2-296b </p></tr>
<tr><td><p> न्यग्रोधस्याथ महतो यत्राधस्ताद्व्यवस्थिताः।<BR>ततः काकान्बहून्रात्रौ दृष्ट्वोलूकेन हिंसितान्।। <td> 1-2-297a<BR>1-2-297b </p></tr>
<tr><td><p> द्रौणिः क्रोधसमाविष्टः पितुर्वधमनुस्मरन्।<BR>पाञ्चालानां प्रसुप्तानां वधं प्रति मनो दधे।। <td> 1-2-298a<BR>1-2-298b </p></tr>
<tr><td><p> गत्वा च शिबिरद्वारि दुर्दर्शं तत्र राक्षसम्।<BR>घोररूपमपश्यत्स दिवामावृत्य धिष्ठिरम्।। <td> 1-2-299a<BR>1-2-299b </p></tr>
<tr><td><p> तेन व्याघातमस्त्राणां क्रियमाणमवेक्ष्य च।<BR>द्रौणिर्यत्र विरूपाक्षं रुद्रमाराध्य सत्वरः।। <td> 1-2-300a<BR>1-2-300b </p></tr>
<tr><td><p> प्रसुप्तान्निशि विश्वस्तान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान्।<BR>पाञ्चालान्सपरीवारान्द्रौपदेयांश्च सर्वशः।। <td> 1-2-301a<BR>1-2-301b </p></tr>
<tr><td><p> कृतवर्मणा च सहितः कृपेण च निजघ्निवान्।<BR>यत्रामुच्यन्त ते पार्थाः पञ्च कृष्णबलाश्रयात्।। <td> 1-2-302a<BR>1-2-302b </p></tr>
<tr><td><p> सात्यकिश्च महेष्वासः शेषाश्च निधनं गताः।<BR>पाञ्चालानां प्रसुप्तानां यत्र द्रोणसुताद्वधः।। <td> 1-2-303a<BR>1-2-303b </p></tr>
<tr><td><p> धृष्टद्युम्नस्य सूतेन पाण्डवेषु निवेदितः।<BR>द्रौपदी पुत्रशोकार्ता पितृभ्रातृवधार्दिता।। <td> 1-2-304a<BR>1-2-304b </p></tr>
<tr><td><p> कृतानशनसंकल्पा यत्र भर्तृनुपाविशत्।<BR>द्रौपदीवचनाद्यत्र भीमो भीमपराक्रमः।। <td> 1-2-305a<BR>1-2-305b </p></tr>
<tr><td><p> प्रियं तस्याश्चिकीर्षन्वै गदामादाय वीर्यवान्।<BR>अन्वधावत्सुसंक्रुद्धो भारद्वाजं गुरोः सुतम्।। <td> 1-2-306a<BR>1-2-306b </p></tr>
<tr><td><p> भीमसेनभयाद्यत्र दैवेनाभिप्रचोदितः।<BR>अपाण्डवायेति रुषा द्रौणिरस्त्रमवासडदत्।। <td> 1-2-307a<BR>1-2-307b </p></tr>
<tr><td><p> मैवमित्यब्रवीत्कृष्णः शमयंस्तस्य तद्वचः।<BR>यत्रास्त्रमस्त्रेण च तच्छमयामास फाल्गुनः।। <td> 1-2-308a<BR>1-2-308b </p></tr>
<tr><td><p> द्रौणेश्च द्रोहबुद्धित्वं वीक्ष्य पापात्मनस्तदा।<BR>द्रौणिद्वैपायनादीनां शापाश्चान्योन्यकारिताः।। <td> 1-2-309a<BR>1-2-309b </p></tr>
<tr><td><p> मणिं तथा समादाय द्रोणपुत्रान्महारथात्।<BR>पाण्डवाः प्रददुर्हृष्टा द्रौपद्यै जितकाशिनः।। <td> 1-2-310a<BR>1-2-310b </p></tr>
<tr><td><p> एतद्वै दशमं पर्व सौप्तिकं समुदाहृतम्।<BR>अष्टादशास्मिन्नद्यायाः पर्वम्युक्ता महात्मना।। <td> 1-2-311a<BR>1-2-311b </p></tr>
<tr><td><p> श्लोकानां कथितान्यत्र शतान्यष्टौ प्रसंख्यया।<BR>श्लोकाश्च सप्ततिः प्रोक्ता मुनिना ब्रह्मवादिना।। <td> 1-2-312a<BR>1-2-312b </p></tr>
<tr><td><p> सौप्तिकैषीकसंबन्धे पर्वण्युत्तमतेजसी।<BR>अत ऊर्ध्वमिदं प्राहुः स्त्रीपर्व करुणोदयम्।। <td> 1-2-313a<BR>1-2-313b </p></tr>
<tr><td><p> पुत्रशोकाभिसंतप्तः प्रज्ञाचक्षुर्नराधिपः।<BR>कृष्णोपनीतां यत्रासावायसीं प्रतिमां दृढां।। <td> 1-2-314a<BR>1-2-314b </p></tr>
<tr><td><p> भीमसेनद्रोहबुद्धिर्धृतराष्ट्रो बभञ्जह।<BR>तथा शोकाभितप्तस्य धृतराष्ट्रस्य धीमतः।। <td> 1-2-315a<BR>1-2-315b </p></tr>
<tr><td><p> संसारदहनं बुद्ध्या हेतुभिर्मोक्षदर्शनैः।<BR>विदुरेण च यत्रास्य राज्ञ आश्वासनं कृतम्।। <td> 1-2-316a<BR>1-2-316b </p></tr>
<tr><td><p> धृतराष्ट्रस्य चात्रैव कौरवायोधनं तथा।<BR>सान्तःपुरस्य गमनं शोकार्तस्य प्रकीर्तितम्।। <td> 1-2-317a<BR>1-2-317b </p></tr>
<tr><td><p> विलापो वीरपत्नीनां यत्रातिकरुणः स्मृतः।<BR>क्रोधावेशः प्रमोहश्च गान्धारीधृतराष्ट्रयोः।। <td> 1-2-318a<BR>1-2-318b </p></tr>
<tr><td><p> यत्र तान्क्षत्रियाः शूरान्सङ्ग्रामेष्वनिवर्तिनः।<BR>पुत्रान्भ्रातृन्पितॄंश्चैव ददृशुर्निहतान्रणे।। <td> 1-2-319a<BR>1-2-319b </p></tr>
<tr><td><p> पुत्रपौत्रवधार्तायास्तथात्रैव प्रकीर्तिता।<BR>गान्धार्याश्चापि कृष्णेन क्रोधोपशमनक्रिया।। <td> 1-2-320a<BR>1-2-320b </p></tr>
<tr><td><p> यत्र राजा महाप्राज्ञः सर्वधर्मभृतां वरः।<BR>राज्ञांतानि शरीराणि दाहयामास शास्त्रतः।। <td> 1-2-321a<BR>1-2-321b </p></tr>
<tr><td><p> तोयकर्मणि चारब्धे राज्ञामुदकदानिके।<BR>गूढोत्पन्नस्य चाख्यानं कर्णस्य पृथयात्मनः।। <td> 1-2-322a<BR>1-2-322b </p></tr>
<tr><td><p> सुतस्यैतदिह प्रोक्तं व्यासेन परमर्षिणा।<BR>एतदेकादशं पर्व शोकवैक्लव्यकारणम्।। <td> 1-2-323a<BR>1-2-323b </p></tr>
<tr><td><p> प्रणीतं सज्जनमनोवैक्लव्याश्रुप्रवर्तकम्।<BR>सप्तविंशतिरध्यायाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः।। <td> 1-2-324a<BR>1-2-324b </p></tr>
<tr><td><p> श्लोकसप्तशती चापि पञ्चसप्ततिसंयुता।<BR>संख्यया भारताख्यानमुक्तं व्यासेन धीमता।। <td> 1-2-325a<BR>1-2-325b </p></tr>
<tr><td><p> अतः परं शान्तिपर्व द्वादशं बुद्धिवर्धनम्।<BR>यत्र निर्वेदमापन्नो धर्मराजो युधिष्ठिरः।। <td> 1-2-326a<BR>1-2-326b </p></tr>
<tr><td><p> घातयित्वा पितॄन्भ्रातॄन्पुत्रान्संबन्धिमातुलान्।<BR>शान्तिपर्वणि धर्माश्च व्याख्याताःशारतल्पिकाः।। <td> 1-2-327a<BR>1-2-327b </p></tr>
<tr><td><p> राजभिर्वेदितव्यास्ते सम्यग्ज्ञानबुभुत्सुभिः।<BR>आपद्धर्माश्च तत्रैव कालहेतुप्रदर्शिनः।। <td> 1-2-328a<BR>1-2-328b </p></tr>
<tr><td><p> यान्बुद्ध्वा पुरुषः सम्यक्सर्वज्ञत्वमवाप्नुयात्।<BR>मोक्षधर्माश्च कथिता विचित्रा बहुविस्तराः।। <td> 1-2-329a<BR>1-2-329b </p></tr>
<tr><td><p> द्वादशं पर्व निर्दिष्टमेतत्प्राज्ञजनप्रियम्।<BR>अत्र पर्वणि विज्ञेयमध्यायानां शतत्रयम्।। <td> 1-2-330a </p></tr>
<tr><td><p> विंशच्चैव तथाध्याया नव चैव तपोधाः।<BR>चतुर्दशसहस्राणि तथा सप्तशतानि च।। <td> 1-2-331a<BR>1-2-331b </p></tr>
<tr><td><p> सप्तश्लोकास्तथैवात्र पञ्चविंशतिसंख्यया।<BR>अत ऊर्ध्वं च विज्ञेयमनुशासनमुत्तमम्।। <td> 1-2-332a<BR>1-2-332b </p></tr>
<tr><td><p> यत्र प्रकृतिमापन्नः श्रुत्वा धर्मविनिश्चयम्।<BR>भीष्माद्भागीरथीपुत्रात्कुरुराजो युधिष्ठिरः।। <td> 1-2-333a<BR>1-2-333b </p></tr>
<tr><td><p> व्यवहारोऽत्र कार्त्स्न्येन धर्मार्थीयः प्रकीर्तितः।<BR>विविधानां च दानानां फलयोगाः प्रकीर्तिताः।। <td> 1-2-334a<BR>1-2-334b </p></tr>
<tr><td><p> तथा पात्रविशेषाश्च दानानां च परो विधिः।<BR>आचारविधियोगश्च सत्यस्य च परा गतिः।। <td> 1-2-335a<BR>1-2-335b </p></tr>
<tr><td><p> महाभाग्यं गवां चैव ब्राह्मणानां तथैव च।<BR>रहस्यं चैव धर्माणां देशकालोपसंहितम्।। <td> 1-2-336a<BR>1-2-336b </p></tr>
<tr><td><p> एतत्सुबहुवृत्तान्तमुत्तमं चानुशासनम्।<BR>भीष्मस्यात्रैव संप्राप्तिः स्वर्गस्य परिकीर्तिता।। <td> 1-2-337a<BR>1-2-337b </p></tr>
<tr><td><p> एतत्त्रयोदशं पर्व धर्मनिश्चयकारकम्।<BR>अध्यायानां शतं त्वत्र षट्चत्वारिंशदेव तु।। <td> 1-2-338a<BR>1-2-338b </p></tr>
<tr><td><p> श्लोकानां तु सहस्राणि प्रोक्तान्यष्टौ प्रसंख्यया।<BR>ततोऽश्वमेधिकं नाम पर्व प्रोक्तं चतुर्दशम्।। <td> 1-2-339a<BR>1-2-339b </p></tr>
<tr><td><p> तत्संवर्तमरुत्तीयं यत्राख्यानमनुत्तमम्।<BR>सुवर्णकोशसंप्राप्तिर्जन्म चोक्तं परीक्षितः।। <td> 1-2-340a<BR>1-2-340b </p></tr>
<tr><td><p> दग्धस्यास्त्राग्निना पूर्वं कृष्णात्संजीवनं पुनः।<BR>चर्यायां हयमुत्सृष्टं पाण्डवस्यानुगच्छतः।। <td> 1-2-341a<BR>1-2-341b </p></tr>
<tr><td><p> तत्र तत्र च युद्धानि राजपुत्रैरमर्षणैः।<BR>चित्राङ्गदायाः पुत्रेण स्वपुत्रेण धनंजयः।। <td> 1-2-342a<BR>1-2-342b </p></tr>
 
<tr><td><p> सङ्ग्रामे बभ्रुवाहेन संशयं चात्र जग्मिवान्।<BR>सुदर्शनं तथाऽऽख्यानं वैष्णवं धर्ममेव च।<BR>अश्वमेधे महायज्ञे नकुलाख्यानमेव च।। <td> 1-2-343a<BR>1-2-343b<BR>1-2-343c </p></tr>
:राम उवाच ।
:यदि मे पितरः प्रीता यद्यनुग्रह्यता मयि ।
<tr><td><p> इत्याश्वमेधिकं पर्व प्रोक्तमेतन्महाद्भुतम्।<BR>अध्यायानां शतं चैव त्रयोऽध्यायाश्च कीर्तिताः।। <td> 1-2-344a<BR>1-2-344b </p></tr>
:यच्चरोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया ॥८॥
<tr><td><p> त्रीणि श्लोकसहस्राणि तावन्त्येव शतानि च।<BR>विंशतिश्च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना।। <td> 1-2-345a<BR>1-2-345b </p></tr>
<tr><td><p> ततस्त्वाश्रमवासाख्यं पर्व पञ्चदशं स्मृतम्।<BR>यत्र राज्यं समुत्सृज्य गान्धार्या सहितो नृपः।। <td> 1-2-346a<BR>1-2-346b </p></tr>
<tr><td><p> धृतराष्ट्रोश्रमपदं विदुरश्च जगाम ह।<BR>यं दृष्ट्वा प्रस्थितं साध्वी पृथाप्यनुययौ तदा।। <td> 1-2-347a<BR>1-2-347b </p></tr>
<tr><td><p> पुत्रराज्यं परित्यज्य गुरुशुश्रूषणे रता।<BR>यत्र राजा हतान्पुत्रान्पौत्रानन्यांश्च पार्थिवान्।। <td> 1-2-348a<BR>1-2-348b </p></tr>
<tr><td><p> लाकान्तरगतान्वीरानपश्यत्पुनरागतान्।<BR>ऋषेः प्रसादात्कृष्णस्य दृष्ट्वाश्चर्यमनुत्तमम्।। <td> 1-2-349a<BR>1-2-349b </p></tr>
<tr><td><p> त्यक्त्वा शोकं सदारश्च सिद्धिं परमिकां गतः।<BR>यत्र धर्मं समाश्रित्य विदुरः सुगतिं गतः।। <td> 1-2-350a<BR>1-2-350b </p></tr>
<tr><td><p> संजयश्च सहामात्यो विद्वान्गावल्गणिर्वशी।<BR>ददर्श नारदं यत्र धर्मराजो युधिष्ठिरः।। <td> 1-2-351a<BR>1-2-351b </p></tr>
<tr><td><p> नारदाच्चैव शुश्राव वृष्णीनां कदनं महत्।<BR>एतदाश्रमवासाख्यं पर्वोक्तं महदद्भुतम्।। <td> 1-2-352a<BR>1-2-352b </p></tr>
<tr><td><p> द्विचत्वारिंशदध्यायाः पर्वैतदभिसङ्ख्यया।<BR>सहस्रमेकं श्लोकानां पञ्चश्लोकशतानि च।। <td> 1-2-353a<BR>1-2-353b </p></tr>
<tr><td><p> षडेव च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना।<BR>अतः परं निबोधेदं मौसलं पर्व दारुणम्।। <td> 1-2-354a<BR>1-2-354b </p></tr>
<tr><td><p> यत्र ते पुरुषव्याघ्राः शस्त्रस्पर्शहता युधि।<BR>ब्रह्मदण्डविनिष्पिष्टाः समीपे लवणाम्भसः।। <td> 1-2-355a<BR>1-2-355b </p></tr>
<tr><td><p> आपाने पानकलिता दैवेनाभिप्रचोदिताः।<BR>एरकारूपिभिर्वज्रैर्निजघ्नुरितरेतरम्।। <td> 1-2-356a<BR>1-2-356b </p></tr>
<tr><td><p> यत्र सर्वक्षयं कृत्वा तावुभौ रामकेशवौ।<BR>नातिचक्रामतुः कालं प्राप्तं सर्वहरं महत्।। <td> 1-2-357a<BR>1-2-357b </p></tr>
<tr><td><p> यत्रार्जुनो द्वारवतीमेत्य वृष्णिविनाकृताम्।<BR>दृष्ट्वा विपादमगमत्परां चार्तिं नरर्षभः।। <td> 1-2-358a<BR>1-2-358b </p></tr>
<tr><td><p> स संस्कृत्य नरश्रेष्ठं मातुलं शौरिमात्मनः।<BR>ददर्श यदुवीराणामापाने वैशसं महत्।। <td> 1-2-359a<BR>1-2-359b </p></tr>
<tr><td><p> शरीरं वासुदेवस्य रामस्य च महात्मनः।<BR>संस्कारं लम्भयामास वृष्णीनां च प्रधानतः।। <td> 1-2-360a<BR>1-2-360b </p></tr>
<tr><td><p> सवृद्धबालमादाय द्वारवत्यास्ततो जनम्।<BR>ददर्शापदि कष्टायां गाण्डीवस्य पराभवम्।। <td> 1-2-361a<BR>1-2-361b </p></tr>
<tr><td><p> सर्वेषां चैव दिव्यानामस्त्राणामप्रसन्नताम्।<BR>नाशं वृष्णिकलत्राणां प्रभावानामनित्यताम्।। <td> 1-2-362a<BR>1-2-362b </p></tr>
<tr><td><p> दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नो व्यासवाक्यप्रचोदितः।<BR>धर्मराजं समासाद्य संन्यासं समरोचयत्।। <td> 1-2-363a<BR>1-2-363b </p></tr>
<tr><td><p> इत्येतन्मौसलं पर्व षोडशं परिकीर्तितम्।<BR>अध्यायाष्टौ समाख्याताः श्लोकानां च शतत्रयम्।। <td> 1-2-364a<BR>1-2-364b </p></tr>
<tr><td><p> श्लोकानां विंशतिश्चव संख्याता तत्त्वदर्शिना।<BR>महाप्रस्थानिकं तस्मादूर्ध्वं सप्तदशं स्मृतम्।। <td> 1-2-365a<BR>1-2-365b </p></tr>
<tr><td><p> यत्र राज्यं परित्यज्य पाण्डवाः पुरुषर्षभाः।<BR>द्रौपद्या सहिता देव्या महाप्रस्थानमास्थिताः।। <td> 1-2-366a<BR>1-2-366b </p></tr>
<tr><td><p> यत्र तेऽग्निं ददृशिरे लौहित्यं प्राप्य सागरम्।<BR>यत्राग्निना चोदितश्च पार्थस्तस्मै महात्मने।। <td> 1-2-367a<BR>1-2-367b </p></tr>
<tr><td><p> ददौ संपूज्य तद्दिव्यं गाण्डीवं धनुरुत्तमम्।<BR>यत्र भ्रातृन्निपतितान्द्रौपदीं च युधिष्ठिरः।। <td> 1-2-368a<BR>1-2-368b </p></tr>
<tr><td><p> दृष्ट्वा हित्वा जगामैव सर्वाननवलोकयन्।<BR>एतत्सप्तदशं पर्व महाप्रस्थानिकं स्मृतम्।। <td> 1-2-369a<BR>1-2-369b </p></tr>
<tr><td><p> यत्राध्यायास्त्रयः प्रोक्ताः श्लोकानां च शतत्रयम्।<BR>विंशतिश्च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना।। <td> 1-2-370a<BR>1-2-370b </p></tr>
<tr><td><p> स्वर्गपर्व ततो ज्ञेयं दिव्यं यत्तदमानुषम्।<BR>प्राप्तं दैवरथं स्वर्गान्नेष्टवान्यत्र धर्मराट्।। <td> 1-2-371a<BR>1-2-371b </p></tr>
<tr><td><p> आरोदुं सुमहाप्राज्ञ आनृशंस्याच्छुना विना।<BR>तामस्याविचलां ज्ञात्वा स्थितिं धर्मे महात्मनः।। <td> 1-2-372a<BR>1-2-372b </p></tr>
<tr><td><p> श्वरूपं यत्र तत्त्यक्त्वा धर्मेणासौ समन्वितः।<BR>स्वर्गं प्राप्तःसच तथा यातनाविपुला भृशम्।। <td> 1-2-373a<BR>1-2-373b </p></tr>
<tr><td><p> देवदूतेन नरकं यत्र व्याजेन दर्शितम्।<BR>शुश्राव यत्र धर्मात्मा भ्रातॄणां करुणागिरः।। <td> 1-2-374a<BR>1-2-374b </p></tr>
<tr><td><p> निदेशे वर्तमानानां देशे तत्रैव वर्तताम्।<BR>अनुदर्शितश्च धर्मेण देवराज्ञा च पाण्डवः।। <td> 1-2-375a<BR>1-2-375b </p></tr>
<tr><td><p> आप्लुत्याकाशगङ्गायां देहं त्यक्त्वा स मानुषम्।<BR>स्वधर्मनिर्जितं स्थानं स्वर्गे प्राप्य स धर्मराट्।। <td> 1-2-376a<BR>1-2-376b </p></tr>
<tr><td><p> मुमुदे पूजितः सर्वैः सेन्द्रैः सुरगणैः सह।<BR>एतदष्टादशं पर्व प्रोक्तं व्यासेन धीमता।। <td> 1-2-377a<BR>1-2-377b </p></tr>
<tr><td><p> अध्यायाः पञ्च संख्याताः पर्वम्यस्मिन्महात्मना।<BR>श्लोकानां द्वे शते चैव प्रसंख्याते तपोधाः।। <td> 1-2-378a<BR>1-2-378b </p></tr>
<tr><td><p> नव श्लोकास्तथैवान्ये संख्याताः परमर्षिणा।<BR>अष्टादशैवमेतानि पर्वाण्येतान्यशेषतः।। <td> 1-2-379a<BR>1-2-379b </p></tr>
<tr><td><p> खिलेषु हरिवंशश्च भविष्यं च प्रकीर्तितम्।<BR>दश श्लोकसहस्राणि विंशच्छ्लोकशतानि च।। <td> 1-2-380a<BR>1-2-380b </p></tr>
<tr><td><p> खिलेषु हरिवंशे च संख्यातानि महर्षिणा।<BR>एतत्सर्वं समाख्यातं भारते पर्वसंग्रहः।। <td> 1-2-381a<BR>1-2-381b </p></tr>
<tr><td><p> अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो ययुत्सया।<BR>तन्महादारुणं युद्धमहान्यष्टादशाभवत्।। <td> 1-2-382a<BR>1-2-382b </p></tr>
<tr><td><p> यो विद्याच्चतुरो वेदान्साङ्गोपनिषदो द्विजः।<BR>न चाख्यानमिदं विद्यान्नैव स स्याद्विचक्षणः।। <td> 1-2-383a<BR>1-2-383b </p></tr>
<tr><td><p> अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत्।<BR>कामशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामितबुद्धिना।। <td> 1-2-384a<BR>1-2-384b </p></tr>
<tr><td><p> श्रुत्वा त्विदमुपाख्यानं श्राव्यमन्यन्न रोचते।<BR>पुंस्कोकिलगिरं श्रुत्वा रूक्षा ध्वाङ्क्षस्य वागिव।। <td> 1-2-385a<BR>1-2-385b </p></tr>
<tr><td><p> इतिहासोत्तमादस्माञ्जायन्ते कविबुद्धयः।<BR>पञ्चभ्य इव् भूतेभ्यो लोकसंविधयस्त्रयः।। <td> 1-2-386a<BR>1-2-386b </p></tr>
<tr><td><p> अस्याख्यानस्य विषये पुराणं वर्तते द्विजाः।<BR>अन्तरिक्षस्य विषये प्रजा इव चतुर्विधाः।। <td> 1-2-387a<BR>1-2-387b </p></tr>
<tr><td><p> क्रियागुणानां सर्वेषामिदमाख्यानमाश्रयः।<BR>इन्द्रियाणां समस्तानां चित्रा इव मनः क्रियाः।। <td> 1-2-388a<BR>1-2-388b </p></tr>
<tr><td><p> अनाश्रित्यैतदाख्यानं कथा भुवि न विद्यते।<BR>आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम्।। <td> 1-2-389a<BR>1-2-389b </p></tr>
<tr><td><p> इदं कविवरैः सर्वैराख्यानमुपजीव्यते।<BR>उदयप्रेप्सुभिर्भृत्यैरभिजात इवेश्वरः।। <td> 1-2-390a<BR>1-2-390b </p></tr>
<tr><td><p> अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे।<BR>साधोरिव गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमाः।। <td> 1-2-391a<BR>1-2-391b </p></tr>
 
<tr><td><p> धर्मे मतिर्भवतु वः सततोत्थितानां<BR>स ह्येक एव परलोकगतस्य बन्धुः।<BR>अर्थाः स्त्रियश्च निपुणैरपि सेव्यमाना<BR>नैवाप्तभावमुपयान्ति न च स्थिरत्वम्।। <td> 1-2-392a<BR>1-2-392b<BR>1-2-392c<BR>1-2-392d </p></tr>
:अतश्च पापान्मुच्येऽहमेष मे प्रार्थितो वरः ।
:ह्रदाश्च तीर्थभूता मे भवेयुर्भुवि विश्रुताः ॥९॥
<tr><td><p> द्वैपायनौष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयं<BR>पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च।<BR>यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं<BR>किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन।। <td> 1-2-393a<BR>1-2-393b<BR>1-2-393c<BR>1-2-393d </p></tr>
<tr><td><p> यदह्ना कुरुते पाप ब्राह्मणस्त्विन्द्रियैश्चरन्।<BR>महाभारतमाख्याय सन्ध्यां मुच्यति पश्चिमाम्।। <td> 1-2-394a<BR>1-2-394b </p></tr>
<tr><td><p> यद्रात्रौ कुरुते पापं कर्मणा मनसा गिरा।<BR>महाभारतमाख्याय पूर्वां सन्ध्यां प्रमुच्यते।। <td> 1-2-395a<BR>1-2-395b </p></tr>
 
<tr><td><p> यो गोशतं कनकशृङ्गमयं ददाति<BR>विप्राय वेदविदुषे च बहुश्रुताय।<BR>पुण्यां च भारतकथां शृणुयाच्च नित्यं<BR>तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव।। <td> 1-2-396a<BR>1-2-396b<BR>1-2-396c<BR>1-2-396d </p></tr>
:एवं भविष्यतीत्येवं पितरस्तमथाब्रुवन् ।
:तं क्षमस्वेति निषिशिधुस्ततः स विरराम ह ॥१०॥
 
<tr><td><p> आख्यानं तदिदमनुत्तमं महार्थं<BR>विज्ञेयं महदिह पर्वसंग्रहेण।<BR>श्रुत्वादौ भवति नृणां सुखावगाहं<BR>विस्तीर्णं लवणजलं यथा प्लवेन।। <td> 1-2-397a<BR>1-2-397b<BR>1-2-397c<BR>1-2-397d </p></tr>
:तेषां समीपे यॊ देशॊ हरदानां रुधिराम्भसाम् ।
<tr><td><p> इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि<BR> पर्वसंग्रहपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः <td> ।। 2 ।। </p></tr>
:समन्तपञ्चकमिति पुण्यं तत्परिकीर्तितम ॥११॥
<tr><td><p> ।। समाप्तं पर्वसंग्रहपर्व ।। </p></tr></table>
 
= =
:येन लिङ्गेन यॊ देशॊ युक्तः समुपलक्ष्यते ।
1-2-3 क्षत्र क्षत्रियजातिं। अमर्षः स्वपितुः क्षत्रियेण हतत्वाज्जातस्य क्रोधस्यासहनं तेन चोदितः प्रेरितः।।
:तेनैव नाम्ना तं देशं वाच्यमाहुर्मनीषिणः ॥१२॥
1-2-10 निषिषिधुः निषिद्धवन्तः। अक्षराधिक्यमार्ष।।
 
1-2-14 भूदोषाः निम्नोन्नतत्वकण्टकित्वादयः।।
:अन्तरे चैव संप्राप्ते कलिद्वापरयॊरभूत ।
1-2-19 पदातय इति रथादिगतानां नराण व्युदासः।।
:समन्तपञ्चके युद्धं कुरुपाण्डवसेनयॊः ॥१३॥
1-2-23-26 अक्षौहिण्याः 21870 रथाः। 21871 गजाः। 109350 पदातयः। 65610 हयाः।।
 
1-2-28 पिण्डिता एकीभूताः।।
:तस्मिन्परमधर्मिष्ठे देशे भूदॊषवर्जिते ।
1-2-32 हार्दिक्यः कृतवर्मा गौतमः कृपः।।
:अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यॊ युयुत्सया ॥१४॥
1-2-33 ते तव सत्रे यद्भारताख्यानं मत्तः प्रवृत्तं तज्जनमेजयस्य सत्रे व्यासशिष्येण कथितमित्युत्तरेण संबन्धः।।
 
1-2-34 तत्र भारते।।
:समेत्य तं द्विजास्ताश्च तत्रैव निधनं गताः ।
1-2-35 प्रतिपन्नं शरणीकृतं।।
:एतन्नामाभिनिर्वृत्तं तस्य देशस्य वै दविजाः ॥१५॥
1-2-38 अभिजातः कुलीनः।।
 
1-2-46 हरणं दायः पारिबर्हमिति यावत् तस्य हारिका समानयनं।।
:पुण्यशच रमणीयशच स देशॊ वः प्रकीर्तितः ।
1-2-49 अनुद्यूतं पुनर्द्यूतं।।
:तदेतत्कथितं सर्व मया ब्राह्माणसत्तमाः ॥
1-2-50 अभिगमनं तपसे गमनं।।
:यथा देशः स विख्यातस्त्रिषु लॊकेषुसुव्रताः ॥१६॥
1-2-53 समास्या सहावस्थानं।।
 
1-2-57 प्रवेशः विराटनगरे। समयस्य संकेतस्य नियमस्य वा।।
:ऋषय ऊचुः ।
1-2-70 प्रतिज्ञा जयद्रथवधार्थं।।
:अक्षौहिण्य इति प्रोक्तं यत्व्य सूतनन्दन ।
1-2-72 ह्रदप्रवेशनं दुर्योधनस्य।।
:एतदिच्छामहे श्रोतुं सर्वमेव यथातथम् ॥१७॥
1-2-83 अन्यत्र कथितस्यावशिष्टं यत्पुनः प्रक्रम्य कथ्यते तत् खिलं प्रोच्यते। हरिवंशश्च तादृशः।।
 
1-2-90 माहात्म्यमुत्तङ्कस्य उदङ्कस्येत्यपि पाठः।।
:अक्षौहिण्याः परीमाणं नराश्वरथदन्तिनाम ।
1-2-117 भार्गवः कुलालः।।
:यथावच्चैव नॊ ब्रूहि सर्वं हि विदितं तव ॥१८॥
1-2-138 कितवो द्यूतकारकः।।
 
1-2-150 शत्रुस्तव ऊरू भेत्स्यतीतिशापोत्सर्गः।।
:सौतिरुवाच ।
1-2-220 नौ आवयोर्मध्ये ममैव साहाय्यं कर्तुमर्हतीति प्रत्येकं प्रार्थना ज्ञेया।।
:एकॊ रथॊ गजश्चैकॊ नराः पञ्च पदातयः ।
1-2-231 ऐकात्म्यं एकचित्तत्वं।।
:त्रयशच तुरगास्तज्ज्ञैः पत्तिरत्यभिधीयते ॥१९॥
1-2-237 शौटीर्यात् गर्वात्।।
 
1-2-255 आचार्यः द्रोणाचार्यः।।
:पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहुः सेनामुखं बुधाः ।
1-2-287 समवाये समये।।
:त्रीणि सेनामुखान्यकॊ गुल्म इत्यभिधीयते ॥२०॥
1-2-316 संसारदहनं निरूप्येतिशेषः।।
 
1-2-317 आयोधनं युद्धस्थानं।।
:त्रयॊ गुल्मा गणॊ नाम वाहिनी तु गणास्रयः ।
1-2-319 क्षत्रियाः क्षत्रियस्त्रियः।।
:स्मृतास्तिस्रस्तु वाहिन्यः पृतनेति विचक्षणैः ॥२१॥
1-2-327 शराएव तल्पो यस्य सः शरतल्पो भीष्मः तेन प्रोक्ताः। शरतल्पे भवा वा तत्रस्थेन व्याख्यातत्वात्।।
 
1-2-343 सुदर्शनं तथाख्यानमित्यत्र मृगदर्श तथाचैवेति-मणिदर्शनं तथाचैवेत्यपि पाठो दृश्यते।।
:चमूस्तु पृतनास्तिस्रस्तिस्रशचम्वस्तवनीकिनी ।
1-2-347 धृतराष्ट्रः आश्रमपदमिति च्छेदः सन्धिरार्षः।।
:अनीकिनीं दशगुणां पराहुरक्षौहिणीं बुधाः ॥२२॥
1-2-355 ब्रह्मदण्डः ब्राह्मणशापः।।
 
1-2-356 आपाने पानगोष्ठ्यां पानेन कलिताः विवशीकृताः। एरकाः तृणविशेषाः।।
:अक्षौहिण्याः प्रसंख्याता रथानां दविजसत्तमाः ।
1-2-357 नातिचक्रामतुः कालं समर्थावपि मर्यादां नोल्लङ्घितवन्तावित्यर्थः।।
:संख्यागणिततत्त्वज्ञैः सहस्राण्येकविंशतिः ॥२३॥
1-2-359 वैशसं परस्परं विशसनं।।
 
1-2-372 अस्य अविचलामितिच्छेदः।।
:शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्च सप्ततिः ।
1-2-387 विषये देशे अन्तरित्यर्थः। पुराणं अष्टादशभेदं पाद्मादि।।
:गजानां च परीमाणमेतदेव विनिर्दिशे्त् ॥२४॥
1-2-394 संध्यां संध्यायां।।
 
द्वितीयोऽध्यायः।। 2 ।।
 
:ज्ञेयं शतसहस्रं तु सहस्राणि नवैव तु ।
:नराणामपि पञ्चाशच्छतानि त्रीणि चानघाः ॥२५॥
 
:पञ्च षष्टिसहस्राणि तथाश्वानां शतानि च ।
:दशॊत्तराणि षट प्राहुर्यथावदिह संख्यया ॥२६॥
 
:एतामक्षौहिणीं प्राहुः संख्यातत्त्वविदॊ जनाः ।
:यां वः कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधनाः ॥२७॥
 
:एतया संख्यया हयसन्कुरुपाण्डवसेनयॊः ।
:अक्षौहिण्यॊ दविजश्रेष्ठाः पिण्दिताष्टादशैव तु ॥२८॥
 
:समेतास्तत्र वै देशे तत्रैव निधनं गताः ।
:कौरवान्कारणं कृत्वा कालेनाद्भुतकर्मणा ॥२९॥
 
:अहानि युयुधे भीष्मॊ दशैव परमास्त्रवित् ।
:अहानि पञ्च द्रोणस्तु ररक्ष कुरु वाहिनीम् ॥३०॥
 
:अहनी युयुधे द्वे तु कर्णः परबलार्दनः ।
:शल्यॊऽर्धदिवसंचैव गदायुद्धमतः परम् ॥३१॥
 
:तस्यैव दिवसस्यान्ते दरौणिहार्दिक्यगौतमाः ।
:प्रसुप्तं निशि विश्वस्तं जघ्नुर्यौधिष्ठिरं बलम् ॥३२॥
 
:यत्तु शौनक सत्रे ते भारताख्यानमुत्तमम् ।
:जनमेजयस्य तत्सत्रे व्यासशिष्येण धीमता ॥३३॥
 
:कथितं विस्तरार्थ च यशो वीर्य महीक्षिताम् ।
:पौष्यं तत्र् च पौलोममासीकं चादितः स्मृतम् ॥३४॥
 
:विचित्रार्थपदाख्यानमनेकसमयान्वितम् ।
:प्रतिपन्नं नरैः प्राज्ञैर्वैराग्यमिव मॊक्षिभिः ॥३५॥
 
:आत्मेव वेदितव्येषु प्रियेष्विव हि जीवितम ।
:इतिहासः प्रधानार्थः श्रेष्ठः सर्वागमेष्वयम् ॥३६॥
 
:अनाश्रित्येदमाख्यानं कथा भुवि न विद्यते ।
:आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम् ॥३७॥
 
:तदेतद्भारतं नाम कविभिस्तूपजीव्यते ।
:उअदयप्रेप्सुर्भृत्यैरभिजात इवेश्वरः ॥३८॥
 
:इतिहासॊत्तमे यस्मिन्नर्षिता बुद्धिरुत्तमा ।
:स्वखरव्यञ्जनयॊः कृत्स्ना लॊकवेदाश्रयेव वाक ॥३९॥
 
:तस्य प्रज्ञाभिपन्नस्य विचित्रपदपर्वणः ।
:सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थैर्भूषितस्य च ॥४०॥
 
:भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रहः ।
:पर्वानुक्रमणी पूर्वं दवितीयः पर्वसंग्रहः ॥४१॥
 
:पौष्यं पौलॊममास्तीकमदिरंशावतारणम् ।
:ततः संभवपर्वॊक्तमद्भुतं रोमहर्षणम् ॥४२॥
 
:दाहॊ जतुगृहस्यात्र हैडिम्बं पर्व चॊच्यते ।
:ततॊ बकवधः पर्व पर्व चैत्ररथं ततः ॥४३॥
 
:ततः सवयंवरं देव्याः पाञ्चाल्याः पर्व चॊच्यते ।
:क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततॊ वैवाहिकं स्मृतम् ॥४४॥
 
:विदुरागमनं पर्व राज्यलाभस्तथैव च ।
:अर्जुनस्य वने वासः सुभद्राहरणं ततः ॥४५॥
 
:सुभद्राहरणादूर्ध्वं ज्ञेया हरणहारिका ।
:ततः खाण्डवदाहाख्यं तत्रैव मयदर्शनम् ॥४६॥
 
:सभापर्व ततः प्रोक्तं मन्त्रपर्व ततः परम् ।
:जरासंधवधः पर्व पर्व दिगविजयं तथा ॥४७॥
 
:पर्व दिगविजयादूर्ध्वं राजसूयिकमुच्यते ।
:ततशचार्घाभिहरणं शिशुपालवधस्ततः ॥४८॥
 
:दयूतपर्व ततः प्रोक्तमनुद्यूतमतः परम् ।
:तत आरण्यकं पर्व किर्मीरवध एवच ॥४९॥
 
:अर्जुनस्याभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम् ।
:ईश्वरार्जुनयॊर्युद्धं पर्व कैरातसंज्ञितम् ॥५०॥
 
:इन्द्रलॊकाभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम् ।
:नलोपाख्यानमपि च धार्मिकं करुणोदयम् ॥५१॥
 
:तीर्थयात्रा ततः पर्व कुरुराजस्य धीमतः ।
:जटासुरवधः पर्व यक्षयुद्धमतः परम् ॥५२॥
 
:निवातकवचैर्युद्धं पर्व चाजगरं ततः ।
:मार्कण्डेयसमस्या च पर्वॊनन्तरमुच्यते ॥५३॥
 
:संवादश्च ततः पर्व द्रौपदीसत्यभामयॊः ।
:घॊषयात्रा ततः पर्व ततः प्रायोपवेशनम् ।
:मन्त्रस्य निश्चयं चैव मृगस्वप्नोद्भवं ततः ॥५४॥
 
:व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमैन्द्रद्युम्नं तथैव च ।
:दरौपदीहरणं पर्व जयद्रथविमोक्षणम् ॥५५॥
 
:रामोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम् ।
:प्रतिव्रताया माहात्म्यं सावित्र्याश्वैवमद्भुतम् ॥५६॥
 
:कुण्डलाहरणं पर्व ततः परमिहॊच्यते ।
:आरणेयं ततः पर्व वैराटं तदनन्तरम् ॥
:पाण्डवानां प्रवेशश्च समयस्य च पालनम् ॥५७॥
 
:कीचकानां वधः पर्व पर्व गॊग्रहणं ततः ।
:अभिमन्योश्च वैराट्याः पर्व वैवाहिकं स्मृतम् ॥५८॥
 
:उद्यॊगपर्व विज्ञेयमत ऊर्ध्वं महाद्भुतम् ।
:ततः संजययानाख्यं पर्व ज्ञेयमतः परम् ॥५९॥
 
:प्रजागरं तथा पर्व धृतराष्ट्रस्य चिन्तया ।
:पर्व सानत्सुजातं वै गुह्यमध्यात्मदर्शनम् ॥६०॥
 
:यानसंधिस्ततः पर्व भगवद्यानमेव च
:मातलीयमुपाख्यानं चरितं गालवस्य च ॥६१॥
 
:सावित्रं वामदेव्यं च वैन्योपाख्यानमेव च ।
:जामदग्न्यमुपाख्यानं पर्व षोडशराजकम् ॥६२॥
 
:सभाप्रवेशः कृष्णस्य विदुलापुत्रशासनम् ।
:उद्योगः सैन्यनिर्याणं विश्वोपाख्यानमेव च ॥६३
 
:ज्ञेयं विवादपर्वात्र कर्णस्यापि महात्मनः ।
:‘मन्त्रस्य निश्चयं कृत्वा कार्यस्य समनन्तरम् ॥६४॥
 
:कीर्त्यते चाप्युपाखानं सेनापत्येऽभिषेचनम् ।
:श्वेतस्य वासुदेवेन चित्रं बहुकथाश्रयम् ।’
:निर्याणं च ततः पर्व कुरुपाण्डवसेनयॊः ॥६५॥
 
:रथातिरथसंख्या च पर्वॊक्तं तदनन्तरम् ।
:उलूकदूतागमनं पर्वामर्ष विवर्धनम् ॥६६॥
 
:अम्बॊपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम् ॥
:भीष्माभिषेचनं पर्व ततश्चाद्भुतमुच्यते ॥६७॥
 
:जम्बूखण्डविनिर्माणं पर्वॊक्तं तदनन्तरम् ॥
:भूमिपर्व ततः प्रोक्तं द्वीपविस्तारकीर्तनम् ॥६८॥
 
:दिव्यं चक्षुर्ददौ यत्र संजयाय महामुनिः ।
:पर्वॊक्तं भगवद्गीता पर्व भीष्मवधस्ततः ।
:द्रोणाभिषेचनं पर्व संशप्तकवधस् ततः ॥६९॥
 
:अभिमन्युवधः पर्व प्रतिज्ञा पर्व चॊच्यते ।
:जयद्रथवधः पर्व घटॊत्कचवधस्ततः ॥७०॥
 
:ततॊ द्रोणवधः पर्व विज्ञेयं लॊमहर्षणम् ।
:मॊक्षॊ नारायणास्त्रस्य पर्वानन्तरमुच्यते ॥७१॥
 
:कर्ण पर्व ततॊ ज्ञेयं शल्यपर्व ततः परम ।
:हरदप्रवेशनं पर्व गदायुद्धमतः परम ॥७२॥
 
:सारस्वतं ततः पर्व तीर्थवंशानिकीर्तनम् ।
:अत ऊर्ध्वं सुबीभत्सं पर्व सौप्तिकमुच्यते ॥७३॥
 
:ऐषीकं पर्व चोद्दिष्टमत ऊर्ध्वं सुदारुणम् ।
:जलप्रदानिकं पर्व सत्रीविलापस्ततः परम् ॥७४॥
 
:शराद्धपर्व ततॊ ज्ञेयं कुरूणामौर्ध्वदेहिकम् ।
:चार्वाकनिग्रहः पर्व रक्षसो ब्रह्मरुपिणः ॥७५॥
 
:आभिषेचनिकं पर्व धर्मराजस्य धीमतः ।
:प्रविभागॊ गृहाणां च पर्वॊक्तं तदनन्तरम ॥७६॥
 
:शान्तिपर्व ततॊ यत्र राजधर्मानुशासनम् ।
:आपद्धर्मशच पर्वॊक्तं मॊक्षधर्मस्ततः परम् ॥७७॥
 
:शुकप्रश्नाभिगमनं ब्रह्मप्रशानुशासनम् ।
:प्रादुर्भावश्च दुर्वास्ः संवादश्चैव मायया ॥७८॥
 
:ततः पर्व परिज्ञेयमानुशासनिकं परम् ।
:स्वर्गारॊहणिकं चै ततॊ भीष्मस्य धीमतः ॥७९॥
 
:ततोश्वमेधिकं पर्व सर्वपापप्रणाशनम् ।
:अनुगीता ततः पर्व ज्ञेयमध्यात्मवाचकम् ॥८०॥
 
:पर्व चाश्रमवासाख्यं पुत्रदर्शनमेव च ।
:नारदागमनं पर्व ततः परमहॊच्यते ॥७१॥
 
:मौसलं पर्व च चोद्दिष्टं ततो घॊरं सुदारुणम् ।
:महाप्रस्थानिकं पर्व स्वर्गारॊहणिकं ततः ॥८२॥
 
:हरिवंशस्ततः पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम् ।
:विष्णुपर्व शिशोश्चर्या विष्णोः कंसवधस्तथा ॥८३॥
 
:भविष्यं पर्व चाप्युक्तं खिलेष्वेवाद्भुतं महत् ।
:एतत्पर्वशतं पूर्णं वयासेनॊक्तं महात्मना ॥८४॥
 
:यथावत्सूतपुत्रेण रौमहर्षणिना ततः ।
:उक्तानि नैमिषारण्ये पर्वाण्यष्टादशैव तु ॥८५॥
 
:समासॊ भारतस्यायंमत्रॊक्तः पर्वसंग्रहः ।
:पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम् ॥८६॥
 
:संभवो जतुवेश्माख्यं हिडिम्बबकयोर्वधः ।
:तथा चैत्ररथं देव्याः पाञ्चाल्याश्च स्वयंवरः ॥८७॥
 
:क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम् ।
:विदुरागमनं चैव राज्यलाभस्तथैव च ॥८८॥
 
:वनवासोऽर्जुनस्यापि सुभद्राहरणं ततः ।
:हरणाहरणं चैव दहनं खाण्डवस्य च ॥८९॥
 
:मयस्य दर्शनं चैव आदिपर्वणि कथ्यते
:पौष्ये पर्वणि माहात्म्यमुत्तङ्कस्यॊपवर्णितम् ॥९०॥
 
:पौलॊमे भृगुवंशस्य विस्तारः परिकीर्तितः ।
:आस्तीके सर्वनागानां गरुडस्य च संभवः ॥९१॥
 
:क्षीरॊदमथनं चैव जन्मॊच्छैः शरवसस्तथा ।
:यजतः सर्पसत्रेण राज्ञः पारिक्षितस्य च ॥९२॥
 
:कथेयमभिनिर्वृत्ता भारतानां महात्मनाम ।
:विविधाः संभवा राज्ञामुक्ताः संभवपर्वणि ॥९३॥
 
:अन्येषां चैव शूराणामृषेर्द्वैपायनस्य च ।
:अंशावतरणं चात्र देवानां परिकीर्तितम् ॥९४॥
 
:दैत्यानां दानवानां च यक्षाणां च महौजसाम् ।
:नागानामथ सर्पाणां गन्धर्वाणां पतत्रिणाम् ॥९५॥
 
:अन्येषां चैव भूतानां विविधानां समुद्भवः ।
:महर्षेराश्रमपदे कण्वस्य च तपस्विनः ॥९६॥
 
:शकुन्तलायां दुष्यन्ताद्भरतश्चापि जज्ञिवान् ।
:यस्य लोकेषु नाम्नेदं प्रथितं भारतं कुलम् ॥९७॥
 
:वसूनां पुनरुत्पत्तिर्भागीरथ्यां महात्मनाम् ।
:शंतनॊर्वेश्मनि पुनस्तेषां चारॊहणं दिवि ॥९८॥
 
:तेजॊंशानां च संपातो भीष्मस्याप्यत्र संभवः ।
:राज्यान्निवर्तनं तस्य ब्रह्मचर्यव्रते स्थितिः ॥९९॥
 
:प्रतिज्ञापालनं चैव रक्षा चित्राङ्गदस्य च ।
:हते चित्राङ्गदे चैव रक्षा भ्रातुर्यवीयसः ॥१००॥
 
:विचित्रवीर्यस्य तथा राज्ये संप्रतिपादनम् ।
:धर्मस्य नृषु संभूतिरणीमाण्डव्यशापजा ॥१०१॥
 
:कृष्णद्वैपायनाच्चैव प्रसूतिर्वरदानजा ।
:धृतराष्ट्रस्य पाण्डॊश्च पाण्डवानां च संभवः ॥१०२॥
 
:वारणावतयात्रा च मन्त्रॊ दुर्यॊधनस्य च ।
:कूटस्य धार्तराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्प्रति ॥१०३॥
 
:हितोपदेशश्च पथि धर्मराजस्य धीमतः ।
:विदुरेण कृतो यत्र हितार्थ म्लेच्छभाषया ॥१०४॥
 
:विदुरस्य च वाक्येन सुरुङ्गॊपक्रमक्रिया ।
:निषाद्याः पञ्चपुत्रायाः सुप्ताया जतुवेश्मनि ॥१०५॥।
 
:पुरोचनस्य चात्रैव दहनं संप्रकीर्तितम् ।
:पाण्डवानां वने घॊरे हिडिम्बायाशच दर्शनम ॥१०६॥
 
:तत्रैव च हिडिम्बस्य वधो भीमान्महाबलान्
:घटॊत्कचस्य चॊत्पत्तिरत्रैव परिकीर्तिता ॥१०७॥
 
:महर्षेर्दर्शनं चैव व्यासस्यामिततेजसः ।
:तदाज्ञयैकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने ॥१०८
 
:अज्ञातचर्यया वासॊ यत्र तेषां प्रकीर्तितः ।
:बकस्य निधनं चैव नागराणां च विस्मयः ॥१०९॥
 
:संभवश्चैव कृष्णाया धृष्टद्युम्नस्य चैव ह ।
:ब्राह्मणात्समुपश्रुत्य व्यासवाक्यप्रचोदिताः ॥११०॥
 
:द्रौपदीं प्रार्थयन्तस्ते स्वयंवरदिद्द्क्षया ।
:पञ्चालानभितोजग्मुर्यत्र कओतूहलान्विताः ॥१११॥
 
:अङ्गारपर्णं निर्जित्य गङ्गाकूलेऽर्जुनस्तदा ।
:सख्यं कृत्वा ततस्तेन तस्मादेव च शुश्रुवे ॥११२॥
 
:तापत्यमथ वासिष्ठमौर्व चाख्यानमुत्तमम् ।
:भ्रातृभिः सहितः सर्वैः पाञ्चालानभितॊ ययौ ॥११३॥
 
:पाञ्चालनगरे चापि लक्ष्यं मित्त्वा धनञ्जयः ।
:द्रौपदीं लब्धवानत्र मध्ये सर्वमहीक्षिताम् ॥११४॥
 
:भीमसेनार्जुनौ यत्र संरब्धान्प्रूथिवीपतीन् ।
:शल्यक्र्णौ च तरसा जितवन्तौ महामृधे ॥११५॥
 
:द्द्ष्ट्वा तयोश्च तद्वीर्यमप्रमेयमानुषम् ।
:शङ्कमानौ पाण्ड्वांस्तान रामकृष्णौ महामती ॥११६॥
 
:जगमतुस्तौः समागन्तुं शालां भार्गववेश्मनि ।
:पञ्चानामेकपत्नीत्वे विमर्शॊ द्रुपदस्य च ॥११७॥
 
:पञ्चेन्द्राणामुपाख्यानमत्रैवाद्भुतमुच्यते ।
:द्रौपद्या देव विहितॊ विवाहशचाप्यमानुषः ॥११८॥
 
:क्षत्तुश्च घार्तराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्प्रति ।
:विदुरस्य च संप्राप्तिर्दर्शनं केशवस्य च ॥११९॥
 
:खाण्डवप्रस्थवासश्च तथा राज्यार्धसर्जनम् ।
:नारदस्याज्ञया चैव द्रौपद्याः समयक्रिया ॥१२०॥
 
:सुन्दॊपसुन्दयॊस्तद्वदाख्यानं परकीर्तितम ।
:अनन्तरं च द्रौपद्या सहासीनं युधिष्ठिरम् ॥१२१
 
:अनु प्रविश्य विप्रार्थे फाल्गुनो गृह्य चायुधम् ।
:मोक्षयित्वा गृहं गत्वा विप्रार्थ कृतनिश्चयः ॥१२२॥
 
:समयं पालयन्वीरो वनं यत्र् जगाम ह ।
:पार्थस्य वनवासे च उलूप्या पथि संगमः ॥१२३॥
 
:पुण्यतीर्थानुसंयानं बभ्रुवाहनजन्म च ।
:तत्रैव मोक्षयामास पञ्च सोऽप्सरसः शुभाः ॥१२४॥
 
:शापाद्ग्राहत्वमापन्ना ब्राह्मणस्य तपस्विनः ।
:प्रभासतीर्थे पार्थेन कृष्णस्य च समागमः ॥१२५॥
 
:द्वारकायां सुभद्रा च कामयानेन कामिनी ।
:वासुदेवस्यानुमते प्राप्ता चैव किरीटिना ॥१२६॥
 
:गृहीत्वा हरणं प्राप्ते कृष्णे देवकिनन्दने ।
:अभिमन्योः सुभद्रायां जन्म् चोत्तमतेजसः ॥१२७॥
 
:द्रौपद्यास्तनयानां च संभवोऽनुप्रकीर्तितः ।
:विहारार्थ च गतयोः कृष्णयोर्यमुनामनु ॥१२८॥
 
:संप्राप्तिश्चक्रधनुषॊः खाण्डवस्य च दाहनम् ।
:मयस्य मोक्षो ज्वलनाद्भुजङ्गस्य च मोक्षणम् ॥१२९॥
 
 
:महर्षेर्मन्दपालस्य शाङ्गर्या तनयसंभवः ।
:इत्येतदादिपर्वॊक्तं प्रथमं बहु विस्तरम ॥१३०॥
 
:अध्यायानां शते द्वे तु संख्याते परमर्षिणा ।
:सप्तविंशतिरध्याया व्यासेनॊत्तमतेजसा ॥१३१॥
 
:अष्टौ शलॊकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च ।
:शलॊकाश चतुराशीतिर्मुनिनोक्त महात्मना ॥१३२
 
:दवितीयं तु सभापर्व बहुवृत्तान्तमुच्यते ।
:सभाक्रिया पाण्डवानां किंङकाराणां च दर्शनम् ॥१३३॥
 
:लॊकपालसभाख्यानं नारदाद्देवदर्शिनः ।
:राजसूयस्य चारम्भॊ जरासंन्धवधस्तथा ॥१३४॥
 
:गिरिव्रजे निरुद्धानां राज्ञां कृष्णेन मॊक्षणम् ।
:तथा दिग्विजयोऽत्रैव पाण्डवानां प्रकीर्तितः ॥१३५॥
 
:राज्ञामगमनं चैव सार्हणानां महात्रतौ ।
:राजसूयेऽर् संवादे शिशुपालवधस्तथा ॥१३६॥
 
:यज्ञे विभूतिं तां दृष्ट्वा दुःखामर्षान्वितस्य च ।
:दुर्यॊधनस्यावहासॊ भीमेन च सभातले ॥१३७॥
 
:यत्रास्य मन्युरुद्भूतॊ येन द्यूतमकारयत् ।
:यत्र धर्मसुतं दयूते शकुनिः कितवॊऽजयत् ॥१३८॥
 
:यत्र दयूतार्णवे मग्नां द्रौपदी नौखिवार्णवात् ।
:धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः स्नुषां परमदुःखिताम् ॥१३९॥
 
:तारयामास तांस्तीर्णाञ्ज्ञात्वा दुर्यॊधनॊ नृपः ।
:पुनरेव ततॊ दयूते समाह्वयत पाण्डवान् ॥१४०॥
 
:जित्वा स वनवासाय प्रेषयामास तांस्ततः ।
:एतत्सर्वं सभापर्व समाख्यातं महात्मना ॥१४१॥
 
:अध्यायाः सप्ततिर्ज्ञेयास्तथा चाष्टौ प्रसंख्यया ।
:शलॊकानां दवे सहस्रे तु पञ्च शलॊकशतानि च ॥१४२॥
 
:शलॊकाशचैकादश ज्ञेयाः पर्वण्यस्मिन्द्विजोत्तमाः ।
:अतः परं तृतीयं तु ज्ञेयमारण्यकं महत ॥१४३॥
 
:वनवासं प्रयातेषु पाण्डवेषु महात्मसु ।
:पौरानुगमनं चैव धर्मपुत्रस्य धीमतः ॥१४४॥
 
:अन्नौषधीनां च कृते पाण्डवेन महात्मना ।
:द्विजानां भरणार्थ च कृतमाराधनं रवेः ॥१४५॥
 
:धौम्योपदेशक्तिग्मांशुप्रसादादन्नसंभवः ।
:हितं च ब्रुवतः क्षत्तुः परित्यागोऽम्बिकासुतात् ॥१४६॥
 
:त्यक्तस्य पाण्डुपुत्राणां समीपगमनं तथा ।
:पुनरागमनं चैव धृतराष्ट्रस्य शासनात् ॥१४७॥
 
:कर्णप्रोत्साहनाच्चैव धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः ।
:वनस्थान्पाण्डवान्हन्तुं मन्त्रो दुर्योधनस्य च ॥१४८॥
 
:तंदृष्टभावं विज्ञाय व्यासस्यागमनं द्रुतम् ।
:निर्याणप्रतिशेधश्च सुरभ्याख्यानमेव च ॥१४९॥
 
:मैत्रेयागमनं चात्र राज्ञश्चैवानुशासनम् ।
:शापोत्सर्गश्च तेनैव राज्ञोदुर्योधनस्य च ॥१५०॥
 
:किर्मीरस्य वधश्चात्र् भीमसेनेन संयुगे ।
:वृष्णीनामागमश्चात्र पाञ्चालानां च सर्वशः ॥१५१॥
 
:श्रुत्वा शकुनिना धूते निकृत्या निर्जितांश्च तान् ।
:क्रुद्वस्यानुप्रशमनं हरेश्चैव किरीटिना ॥१५२॥
 
:परिदेवनं च पाञ्चाल्या वासुदेवस्य सन्निधौ ।
:आश्वासनअं च कृष्णेन दुःखार्तायाः प्रकीर्तितम् ।१५३॥
 
:तथा सौभवधाख्यानमत्रैवोक्तं महर्षिणा ।
:सुभद्रायाः सपुत्रायाः कृष्णेन द्वारकां पुरीम् ॥१५४॥
 
:नयनं द्रौपदेयानां धृष्टद्युम्नेन चैव ह ।
:प्रवेशः पाण्डवेयानां रम्ये द्वैतवने ततः ॥१५५॥
 
:धर्मराजस्य चात्रैव संवादः कृष्णया सह ।
:संवादश्च तथा राज्ञा भीमस्यापि प्रकीर्तितः ॥१५६॥
 
:समीपं पाण्डुपुत्राणां व्यासस्यागमनं तथा ।
:प्रतिश्रुत्याथ विद्याया दानं राज्ञो महर्षिणा ॥१५७॥
 
:गमनं काम्यके चापि व्यासे प्रतिगते ततः ।
:अस्त्रहेतॊर्विवासशच पार्थस्यामिततेजसः ॥१५८॥
 
:महादेवेन युद्धं च किरातवपुषा सह ।
:दर्शनं लॊकपालानास्त्रप्राप्तिस्तथैव च ॥१५९॥
 
:महेन्द्रलोकगमनमस्त्रार्थे च किरीटिनः ।
:यत्र चिन्ता समुत्पन्ना धृतराष्ट्रस्य भूयसी ॥१६०॥
 
:दर्शनं बृहदश्वस्य महर्षेर्भावितात्मनः ।
:युधिष्ठिरस्य चार्तस्य व्यसने परिदेवनम् ॥१६१॥
 
:नलॊपाख्यानमत्रैव धर्मिष्ठं करुणॊदयम् ।
:दमयन्त्याः स्थितिर्यत्र नलस्य चरितं तथा ॥१६२॥
 
:तथाक्षहृदयप्राप्तिस्तस्मादेव महर्षितः ।
:लोमशस्यागमस्तत्र स्वर्गात्पाण्डुसुतान्प्रति ॥१६३॥
 
:वनवासगतानां च पाण्डवानां महात्मनाम् ।
:स्वर्गे प्रवृत्तिरख्याता लॊमशेनार्जुनस्य वै ॥१६४॥
 
:संदेशादर्जुनस्यात्र तीर्थामिगमनक्रिया ।
:तीर्थानां च फलप्राप्तिः पुण्यत्वं चापि कीर्तितम् ।१६५
 
:पुलस्त्यतीर्थयात्रा च नारदेन महर्षिणा ॥
:तीर्थयात्रा च तत्रैव पाण्डवानां महात्मनां ॥१६६॥
 
:तथा यज्ञ्विभूतिश्च गयस्यात्र प्र्कीर्तिता ॥१६७॥
 
:आगस्त्यमपि चाख्यानं यत्र वातापिभक्षणम ।
:लॊपामुद्राभिगमनमपत्यार्थमृषेस्तथा ॥१६८॥
 
:ऋश्यशृङ्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिणः ।
:जामदग्न्यस्य रामस्य चरितं भूरितेजसः ॥१६९॥
 
:कार्तवीर्यवधॊ यत्र हैहयानां च वर्ण्यते ।
:प्रभासतीर्थे पाण्डुनां वृष्णिभिश्च समागमः ॥१७०॥
 
:सौकन्यमपि चाख्यानं च्यवनॊ यत्र भार्गवः ।
:शर्यातियज्ञे नासत्यौ कृतवान्सॊमपीथिनौ ॥१७१॥
 
:ताभ्यां च यत्र स मुनिर्यौवनं प्रतिपादितः ।
:मान्धातुश्चाप्युपाख्यानं राज्ञोऽत्रैव प्रकीर्तितं ॥१७२
 
:जन्तूपाख्यानमत्रैव यत्र पुत्रेण सॊमकः ।
:पुत्रार्थमयजद्राजा लेभे पुत्रशतं च सः ॥१७३॥
 
:ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनुत्तमम् ।
:इन्द्राग्नी यत्र् धर्मश्चाप्य्जिज्ञासञ्शबिं नृपम् ॥१७४॥
 
:अष्टावक्रीयमत्रैव विवादो यत्र बन्दिना ।
:अष्टावक्रस्य विप्रर्षेर्जनकस्याध्वरेऽभवत् ॥१७५॥
 
:नैयायिकानां मुख्येन वरुणस्यात्मजेन च
:पराजितो यत्र बन्दी विवादेन महात्मना ॥१७६॥
 
:विजित्य सागरं प्राप्तं पितरं लब्धवानृषिः ।
:यवक्रितस्य चाख्यानं र्रैभ्यस्य च महात्मनः ।
:गन्धमादनयात्रा च वासो नारायणश्रमे ॥१७७॥
 
 
:नियुक्तो भीमसेनश्च द्रौपद्या गन्धमादने ।
:व्रजन्पथि महाबाहुर्द्दष्टवान्पवनात्मजम् ॥१७८
 
:कदलीषण्डमध्यस्थं हनूमन्तं महाबलम् ।
:यत्र मन्दारपुष्पार्थे नलिनीं तामधर्षयत् ॥१७९॥
 
:यत्रास्य युद्धमभत्सुमहद्राक्षसैः सह ।
:यक्षैश्चैव महावीर्यैर्मणिमत्प्रमुखैस्तथा ॥१८०॥
 
:जटसुरस्य च वधो राक्षसस्य् वृकोदरात् ।
:वृषपर्वणो राजर्षेस्ततोऽभिगमनं स्मृतम् ॥१८१॥
 
:आर्ष्टिषेणाश्रमे चैषां गमनं वास एव च ।
:प्रोत्साहनं च पाञ्चाल्या भीमस्यात्र महात्मनः ॥१८२॥
 
:कैलासारोहणं प्रोक्तं यत्र् यक्षैर्बलोत्कटैः ।
:यद्धमासीन्महाधोरं मणिमत्प्रमुखैः सह ॥१८३॥
 
:समागमश्च पाण्डूनां यत्र वैश्रवणेन च ।
:समागमश्चार्जुनस्य तत्रैव भ्रातृभिः सह ॥१८४॥
 
:अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थे सव्यसाचिना ।
:निवातकवचैर्युद्धं हिरण्यपुरवासिभिः ॥१८५॥
 
:निवातकवचैर्धोरैर्दानवैः सुरशत्रुभिः ।
:पौलोमैः कालकेयैश्च यत्र युद्धं किरीटिनः ॥१८६॥
 
:वधश्चैषां समाख्यातो राज्ञस्तेनैव धीमता ।
:अस्त्रसंदर्शनारम्भो धर्मराजस्य सन्निधौ ॥१८७॥
 
:पार्थस्य प्रतिषेधश्च नारदेन सुरर्षिणा ।
:अवरोहणं पुनश्चैव पाण्डूनां गन्धमादनात् ॥१८८॥
 
:भीमस्य ग्रहणं चात्र पर्वताभोगवर्ष्मणा ।
:भुजगेन्द्रेण बलिना तस्मिन्सुगहने वने ॥१८९॥
 
:अमोक्षयद्यत्र चैनं प्रश्नानुकत्वा युधिष्ठिरः ।
:काम्यकागमनं चैव पुनस्तेषां महात्मनाम् ॥१९०॥
 
:तत्रस्थांश्च पुनर्द्रष्टुं पाण्डवान्पुरुषर्षभान् ।
:वासुदेवस्यागमनमत्रैव परिकीर्तितम् ॥१९१॥
 
:मार्कंण्डेयसमास्यायामुपाख्यानानि सर्वशः ।
:पृथोर्वैन्यस्य यत्रोक्तमाख्यानं परमर्षिणा ॥१९२॥
 
:संवादश्च सरस्वत्यास्ताक्षर्यर्षेः सुमहात्मनः ।
:मत्स्योपाख्यानमत्रैव प्रोच्यते तदनन्तरम् ॥१९३॥
 
:मार्कण्डेयसमास्या च पुराणं परिकीर्त्यते ।
:ऎन्द्रद्युम्नमुपाख्यानं धौन्धुमारं तथैव च ॥१९४॥
 
:पतिव्रतायाश्चाख्यानं तथैवाङ्गिरसं स्मृतम् ।
:द्रौपद्याः कीर्तितश्चात्र संवादः सत्यभामया ॥।१९५॥
 
:पुनर्दैवतवनं चैव पाण्डवाः समुपागताः ।
:घोषयात्रा च गन्धर्वैर्यत्र बद्धः सुयोधनः ॥१९६॥
 
:ह्रियमाणस्तु मन्दात्मा मोक्षितोऽसौ किरीटिना ।
:धर्मराजस्य चात्रैव मृगस्वप्ननिदर्शनात् ॥१९७॥
 
:काम्यके काननश्रेष्ठे पुनर्गमनमुच्यते ।
:व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम् ॥१९८॥
 
:दुर्वाससोऽप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम् ।
:जयद्रथेनापहारो द्रौपद्याश्चाश्रमान्तरात् ।१९९॥
 
:यत्रैनमअन्वयाद्भीमॊ वायुवेगसमॊ जवे ।
:चक्रे चैनं पञ्चशिखं यत्र भीमो महाबलः ॥२००॥
 
:रामायणमुपाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम् ।
:यत्र रामेणविक्रम्य निहतो रावणो युधि ॥२०१।
 
:सावित्र्याश्चाप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम् ।
:कर्णस्य परिमॊक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरंदरात् ॥२०२॥
 
:यत्रास्य शक्तिं तुष्टोऽसावदादेकवधाय च ।
:आरणेयमुपाख्यानं यत्र धर्मॊऽनवशात्सुतम् ॥२०३॥
 
:जग्मुर्लब्धवरा यत्र पाण्डवाः पश्चिमां दिशम् ।
:एतदारण्यकं पर्व तृतीयं परिकीर्तितम ॥२०४॥
 
:अत्राध्यायशते दवे तु संख्यया परिकीर्तिते ।
:एकॊन सप्ततिश्चैव तथाध्यायाः प्रकीर्तिताः ॥२०५॥
 
:एकादश सहस्राणि शलॊकानां षट्शतानि च ।
:चतुःषष्टिस्तथा शलॊकाः पर्वण्य्स्मिन्प्रकीर्तिताः ॥२०६॥
 
:अतः परं निबॊधेदं वैराटं पर्व विस्तरम् ।
:विराटनगरे गत्वा शमशाने विपुलां शमीम ॥२०७॥
 
:दृष्ट्वा संनिदधुस्तत्र पाण्डवा ह्यायुधान्युत ।
:यत्र प्रविश्य नगरं छद्मना न्यवसंस्तु ते ॥२०८॥
 
:पाञ्चालीं प्रार्थयानस्य कामोपहतचेतसः ।
:दुष्टात्मनो वधॊ यत्र कीचकस्य वृकॊदरात ॥२०९॥
 
:पाण्डवान्वेषणार्थ च राज्ञो दुर्योधनस्य च ।
:चाराः प्रस्थापिताश्चात्र निपुणाः सर्वतओदिशं ॥२१०॥
 
:नच प्रव्रूत्तिस्तैर्लब्धा पाण्डवानां महात्मनाम् ।
:गॊग्रहश्च विराटस्य त्रिगर्तैः प्रथमं कृतः ॥२११॥
 
:यत्रास्य युद्धं सुमहत्तैरासील्लोमहर्षणम् ।
:ह्रियमाणश्च यत्रासौ भीमसेनेन मोक्षितः ॥२१२ ॥
 
:गॊधनं च विराटस्य मॊक्षितं यत्र पाण्डवैः ।
:अनन्तरं च कुरुभिस्तस्या गोग्रहणं कृतम् ॥२१३॥
 
:समस्ता यत्र पार्थेन निर्जिताः कुरवो युधि ।
:प्रत्याहृतं गोधनं च विक्रमेण किरीटिना ॥२१४॥
 
:विराटेनॊत्तरा दत्ता सनुषा यत्र किरीटिनः ।
:अभिमन्युं समुद्दिश्य सौभद्रमरिघातिनम् ॥२१५॥
 
:चतुर्थमेतद्विपुलं वैराटं पर्व वर्णितम् ।
:अत्रापि परिसंख्याता अध्यायाः परमर्षिणा ॥२१६॥
 
:सप्तषष्टिरथॊ पूर्णाः शलॊकानामपि मे शृणु ।
:शलॊकानां दवे सहस्रे तु शलॊकाः पञ्चाशदेव तु ॥२१७॥
 
:उक्तानि वेदविदुषा पर्वण्यस्मिन्महर्षिणा ।
:उद्यॊगपर्व विज्ञेयं पञ्चमं शृण्वतः परम् ॥२१८॥
 
:उपप्लव्ये निविष्टेषु पाण्डवेषु जिगीषया ।
:दुर्यॊधनॊऽर्जुनश्चैव वासुदेवमुपस्थितौ ॥२१९॥
 
:साहाय्यमस्मिन्समरे भवान्नौ कर्तुमर्हति ।
:इत्युक्ते वचने कृष्णॊ यत्रॊवाच महामतिः ॥२२०॥
 
:अयुध्यमानमात्मानं मन्त्रिणं पुरुषर्षभौ ।
:अक्षौहिणीं वा सैन्यस्य कस्य किं वा ददाम्यहम ॥२२१॥
 
:वव्रे दुर्यॊधनः सैन्यं मन्दात्मा यत्र दुर्मतिः ।
:अयुध्यमानं सचिवं वव्रे कृष्णं धनंजयः ॥२२२॥
 
:मद्रराजं च राजानमायान्तं पाण्डवान्प्रति ।
:उपहारैर्वञ्चयित्वा वर्त्मन्येव सुयोधनः ॥२२३॥
 
:वरदं तं वरं वव्रे साहाय्यं क्रियतां मम ।
:शल्यस्तस्मै प्रतिश्रुत्य जगामोदिश्य पाण्डवान् ॥२२४॥
 
:शान्तिपूर्व चाकथयद्यत्रेन्द्रविजयं नृपः ।
:पुरोहितप्रेषणं च पाण्डवैः कौरवान्प्रति ॥२२५॥
 
:वैचित्रवीर्यस्य वचः समादाय पुरोधसः ।
:तथेन्द्रविजयं चापि यानं चैव पुरोधसः ॥२२६॥
 
:संजयं प्रेषयामास शमार्थी पाण्डवान्प्रति ।
:यत्र दूतं महाराजॊ धृतराष्ट्रः प्रतापवान् ॥२२७॥
 
:श्रुत्वा च पाण्डवान्यत्र वासुदेव पुरॊगमन् ।
:प्रजागरः संप्रजज्ञे धृतराष्ट्रस्य चिन्तया ॥२२८॥
 
:विदुरॊ यत्र वाक्यानि विचित्राणि हितानि च ।
:श्रावयामास राजानं धृतराष्ट्रं मनीषिणम ॥२२९॥
 
:तथा सनत्सुजातेन यत्राध्यात्ममनुत्तमम् ।
:मनस्तापान्वितॊ राजा श्रावितः शॊकलालसः ॥२३०॥
 
:प्रभाते राजसमितौ संजयॊ यत्र वा विभो ।
:ऐकात्म्यं वासुदेवस्य प्रोक्तवानर्जुनस्य च ॥२३१॥
 
:यत्र कृष्णॊ दयापन्नः संधिमिच्छन्महामतिः ।
:स्वयमागाच्छमं कर्तुं नगरं नागसाह्वयम ॥२३२॥
 
:प्रत्याख्यानं च कृष्णस्य राज्ञा दुर्यॊधनेन वै ।
:शमार्थं याचमानस्य पक्षयॊरभयॊर्हिम् ॥२३३॥
 
:दम्भोद्भवस्य चाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम् ।
:वरान्वेषणमत्रैव मातलेश्च महात्मनः ॥२३४॥
 
:महर्षेश्चापि चरितं कर्थितं गालवस्य वै ।
:विदुलायाश्च पुत्रस्य प्रोक्त्ं चाप्यनुशासनम् ॥२३५॥
 
:कर्णदुर्यॊधनादीनां दुष्टं विज्ञाय मन्त्रितम ।
:यॊगेश्वरत्वं कृष्णेन यत्र राज्ञां प्रदर्शितम् ॥२३६॥
 
:रथमारॊप्य कृष्णेन यत्र कर्णॊऽनुमन्त्रितः ।
:उपायपूर्वं शौटीर्यात्प्रत्याख्यातशच तेन सः ॥२३७॥
 
:आगम्य हास्तिनपुरादुपप्लाव्यमरिंदमः ।
:पाण्डवानां यथावृत्तं सर्वमाख्यातवान्हरिः ॥२३८॥
 
:ते तस्य वचनं श्रुत्वा मन्त्रयित्वा च यद्धितम् ।
:साङ्ग्रमिकं ततः सर्व सञ्जं चक्रुः परंतपाः ॥२३९॥
 
:ततो युद्धाय निर्याता नराश्वरथदन्तिनः
:नगराद्वास्तिनपुराद्वलसंख्यानमेवच ॥२४०॥
 
:यत्र राज्ञा ह्युलूकस्य प्रेषणं पाण्डवान्प्रति ।
:शवॊभाविनि महायुद्धे दौत्येन कृतवान्प्रभुः ॥२४१॥
 
:रथातिरथसंख्यानमम्बॊपाख्यानमेव च ।
:एतत्सुबहुवृत्तान्तं पञ्चमं पर्व भारते ॥२४२॥
 
:उद्यॊगपर्व निर्दिष्टं संधिविग्रहमिश्रितम ।
:अध्यायानां शतं प्रोक्तं षडशीतिर्महर्षिणा ॥२४३॥
 
:शलॊकानां षट सहस्राणि तावन्त्येव शतानि च ।
:शलॊकाशच नवतिः परॊक्तास्तथैवाष्टौ महात्मना ॥२४४॥
 
:वयासेनॊदार मतिना पर्वण्यस्मिंस्तपॊधनाः ।
:अतः परं विचित्रार्थं भीष्मपर्व प्रचक्षते ॥२४५॥
 
:जम्बूखण्डविनिर्माणं यत्रॊक्तं संजयेन ह ।
:यत्र यौधिष्ठिरं सैन्यं विषादमगमत्परम् ॥२४६॥
 
:यत्र युद्धमभूद्धोरं धशाहानि सुदारुणम् ।
:कश्मलं यत्र पार्थस्य वासुदेवॊ महामतिः ॥२४७॥
 
:मॊहजं नाशयामास हेतुभिर्मॊक्षदर्शिभिः ।
:समीक्ष्याधोक्षजः क्षिप्रं युधिष्ठिरहिते रतः ॥२४८॥
 
:रथादाप्लुत्य वेगेन स्वयं कृष्ण उदारधीः ।
:प्रतोदपाणिराधावद्भिष्मं हन्तुं व्यपेतभीः ॥२४९॥
 
:वाक्यप्र्तोदाभिहतो यत्र कृष्णेन पाण्डवः ।
:गाण्डीवधन्वा समरे सर्वशस्त्रभृतां वरः ॥२५०॥
 
:शिखण्डिनं पुरस्कृत्य यत्र पार्थो महाधनुः ।
:विनिघ्नन्निशितैर्बाणै रथाद्भीष्ममपातयत् ॥२५१॥
 
:शरत्ल्पगतश्चैव भीष्मो यत्र बभूव ह ।
:षष्ठमेतत्समाख्यातं भारते पर्व विस्तृतम् ॥२५२॥
 
:अध्यायानां शतं प्रोक्तं तथा सप्तदशापरे ।
:पञ्च् श्लोकसहस्त्राणि संख्ययाष्टौ शतानि च ॥२५३॥
 
 
:शलॊकाशच चतुराशीतिरस्मिन्पर्वणि कीर्तिताः ।
:वयासेन वेदविदुषा संख्याता भीष्मपर्वणि ॥२५४॥
 
:द्रोणपर्व ततश्चित्रं बहु वृत्तान्तमुच्यते ।
:सैनापत्येऽभिषिक्तोऽथ यत्राचार्यः प्रतापवान् ॥२५५॥
 
:दुर्योधनस्य प्रीत्यर्थ प्रतिजज्ञे महास्त्रवित् ।
:ग्रहणं धर्मराजस्य पाण्डुपुत्रस्य धीमतः ॥२५६॥
 
:यत्र संशप्तकाः पार्थमपनिन्यू रणाजिरात् ।
:भगदत्तॊ महाराजॊ यत्र शक्रसमॊ युधि ॥२५७॥
 
:सुप्रतीकेन नागेन स हि शान्तः किरीटिना ।
:यत्राभिमन्युं बहवॊ जघ्नुरेकं महारथाः ॥२५८॥
 
:जयद्रथमुखा बालं शूरमप्राप्तयौवनम् ।
:हतेऽभिमन्यौ करुद्धेन यत्र पार्थेन संयुगे ॥२५९॥
 
:अक्षौहिणीः सप्त हत्वा हतॊ राजा जयद्रथः ।
:यत्र भीमो महाबाहुः सात्यकिश्च महारथः ॥२६०॥
 
:अन्वेषणार्थ पार्थस्य युधिष्ठिरनृपाज्ञया ।
:प्रविष्टौ भारतीं सेनामप्रधृष्यां सुरौरपि ॥२६१॥
 
:संशप्तकावशेषं च कृतं निःशेषमाहवे ।
:संशप्तकानां वीराणां कोट्यो नव महात्मनाम् ॥२६२॥
 
:किरीटिनाभिनिष्क्रम्य प्रापिता यमसादनम् ।
:धृतराष्ट्रस्य पुत्राश्च तथा पाषाण्योधिनः ॥२६३॥
 
:नारायणाश्च गोपालाः समरे चित्रयोधिनः ।
:अलम्बुषः श्रुतायुश्च जलसंधशच वीर्यवान ॥२६४॥
 
:सौमदत्तिर्विराटशच द्रुपदश्च महारथः ।
:घटॊत्कचादयशचन्ये निहता दरॊण पर्वणि ॥२६५॥
 
:अश्वत्थामापि चात्रैव दरॊणे युधि निपातिते
:अस्त्रं प्रादुश्चकारॊग्रं नारायणममर्षितः ॥२६६॥
 
:आग्रेयं कूर्त्यते यत्र रुद्रमाहात्म्यमुत्तमम् ।
:व्यासस्य चाप्यागमनं माहात्म्यं कृष्णपार्थयोः ॥२६७॥
 
:सप्तमं भारते पर्व महदेतदुदाहृतम् ।
:यत्र ते पृथिवीपालाः प्रायशॊ निधनं गताः ॥२६८॥
 
:द्रोण्पर्वणि ये शूरा निर्दिष्टाः पुरुषर्षभाः ।
:अत्राध्यायशतं प्रोक्तं तथाढ्यायाश्च सप्ततिः ॥२६९॥
 
:अष्टौ शलॊकसहस्राणि तथा नव शतानि च ।
:शलॊका नव तथैवात्र संख्यातासतत्त्वदर्शिना ॥२७०॥
 
:पाराशर्येण मुनिना संचिन्त्य द्रोणपर्वणि ।
:अतः परं कर्णपर्व प्रोच्यते परमाद्भुतम ॥२७१॥
 
:सारथ्ये विनियॊगशच मद्रराजस्य धीमतः ।
:आख्यातं यत्र पौराणं त्रिपुरस्य निपातनम् ॥२७२॥
 
:प्रयाणे परुषशचात्र संवादः कर्णशल्ययॊः ।
:हंसकाकीयमाख्यानं तत्रैवाक्षेपसंहितम ॥२७३॥
 
:वधः पाण्ड्यस्य च तथा अश्वत्याम्ना महात्मना
:दण्डसेनस्य च ततो दण्डस्य च वधस्तथा ॥२७४॥
 
:द्वैरथे यत्र कर्णेन धर्मराजो युधिष्ठिरः ।
:संशयं गमितो युद्धे मुषतां सर्वधन्विनाम् ॥२७५॥
 
:अन्यॊन्यं परति च करॊधॊ युधिष्ठिरकिरीटिनॊः ।
:यत्रैवानुनयः प्रोक्तो माधवेनार्जुनस्य हि ॥२७६॥
 
:प्रतिज्ञापूर्वकं चापि वक्षो दुःशासनस्य च ।
:भित्त्वा वृकोदरो रक्तं पीतवान्यत्र संयुगे ॥२७७॥
 
:दवैरथे यत्र पार्थेन हतः कर्णॊ महारथः ।
:अष्टमं पर्व निर्दिष्टमेतद्भारतचिन्तकैः ॥२७८॥
 
:एकॊनसप्ततिः प्रोक्ता अध्यायाः कर्णपर्वणि ।
:चत्वार्येव सहस्राणि नव शलॊकशतानि च ॥२७९॥
 
:चतुः षष्टिस्तथा श्लोकाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः ।
:अतः परं विचित्रार्थं शल्यपर्व प्रकीर्तितम् ॥२८०॥
 
:हतप्रवीरे सैन्ये तु नेता मद्रेश्वरॊऽभवत ।
:यत्र कौमारमाख्यानमभिषेकस्य कर्म च ॥२८१॥
 
:वृत्तानि चाथ युद्धानि कीर्त्यन्ते यत्र भागशः ।
:विनाशः कुरुमुख्यानां शल्यपर्वणि कीर्त्यते ॥२८२॥
 
:शल्यस्य निधनं चात्र धर्मराजान्महात्मनः ।
:शुकुनेश्च वधोऽत्रैव सहदेवेन संयुगे ॥२८३॥
 
:सैन्ये च हतभूयिष्ठे किम्चिच्छिष्टे सुयोधनः
:ह्र्दं प्रविश्य यत्रासौसंस्तभ्यापो व्यवस्थितः ॥२८४॥
 
:प्रवृत्तिस्तत्र चाख्याता यत्र भीमस्य लुब्धकैः
:क्षेपयुक्तैर्वचोभिश्च धर्मराजस्थ धीमतः ॥२८५॥
 
:हदात्समुत्थितो यत्र धार्तराष्ट्रोऽऽत्यमर्षणः ।
:भीमेन गदया युद्धं यत्रासौ कृतवान्सह ॥२८६॥
 
:समवाये च युद्धस्य रामस्यागमनं स्मृतम् ।
:सरस्वत्याश्च तीर्थानां पुण्यता परिकीर्तिता ॥२८७॥
 
:गदायुद्धं च तुमुलमत्रैव परिकीर्तितम् ।
:दुर्योधनस्य राज्ञोऽथ यत्र भीमेन संयुगे ॥२८८॥
 
:ऊरु भग्नौ प्रसह्याजौ गदया भीमवेगया ।
:नवमं पर्व निर्दिष्टमेतदद्भुतमर्थवत् ॥२८९॥
 
:एकॊनषष्टिरध्यायाः पर्वण्यत्र प्रकीर्तिताः ।
:संख्याता बहुवृत्तान्ताः शलॊकसंख्याऽत्र कथ्यते ॥२९०॥
 
:तरीणि शलॊकसहस्राणि द्वे शते विंशतिस्तथा ।
:मुनिना संप्रणीतानि कौरवाणां यशॊभृता ॥२९१॥
 
:अतः परं प्रवक्ष्यामि सौप्तिकं पर्व दारुणम् ।
:भग्नॊरुं यत्र राजानं दुर्यॊधनममर्षणम् ॥२९२॥
 
:अपयातेषु पार्थेषु त्रयस्तेऽभयाययू रथाः ।
:कृतवर्मा कृपॊ द्रौणिः सायाह्ने रुधिरॊक्षितम् ॥२९३॥
 
:समेत्य दद्दशुर्भूमौ पतितं रणमूर्धनि ।
:प्रतिजज्ञे दृढक्रॊधॊ द्रौणिर्यत्र महारथः ॥२९४॥
 
:अहत्वा सर्वपाञ्चालान्धृष्टद्युम्नपुरॊगमान् ।
:पाण्डवांशच सहामात्यान्न विमॊक्ष्यामि दंशनं ॥२९५॥
 
:यत्रैवमुक्त्वा राजानमपक्म्य त्रयो रथाः ।
:सूर्यास्तमनवेलायामासेदुस्ते महद्वनम् ॥२९६॥
 
:न्यग्रोधस्याथ महतो यत्राधस्ताद्यवस्थिताः ।
:ततः काकान्बहून्नात्रो द्द्ष्ट्वोलूकेन हिंसितान् ॥२९७॥
 
:द्रौणिः क्रोधसमाविष्टः पितुर्वधमनुस्मरन् ।
:पाञ्चालानां प्रसुप्तानां वधं प्रति मनो दधे ॥२९८॥
 
:गत्वा च शिबिरद्वारि दुर्दर्श तत्र राक्षसम् ।
:घोररूपमपश्यत्स दिवमावृत्य धिष्ठितम् ॥२९९॥
 
:तेन व्याघातमस्त्राणां क्रियमाणमवेक्ष्य च ।
:द्रौणिर्यत्र विरुपाक्षं रुद्रमाराध्य सत्वरः ॥३००॥
 
:प्रसुप्तान्निशि विश्वस्तानधृष्टद्युम्नपुरोगमान् ।
:पाञ्चालानसपरीवारान्दौपदेयांश्च सर्वशः ॥३०१॥
 
:कृतवर्मणा च सहितः कृपेण च निजध्निवान् ।
:यत्रामुच्यन्त पार्थाः पञ्च कृष्णबलाश्रयात् ॥३०२॥
 
:सात्यकिशच महेष्वासः शेषाशच निधनं गताः ।
:पाञ्चालानां प्रसुप्तानां यत्र द्रोणसुताद्वधः ॥३०३॥
 
:धृष्टद्युम्नस्य सूतेन पाण्डवेषु निवेदितः ।
: दरौपदी पुत्रशॊकार्ता पितृभ्रातृवधार्दिता ॥३०४॥
 
:कृतानशनसंकल्पा यत्र भर्तॄनुपाविशत ।
:द्रौपदीवचनादयत्र भीमॊ भीमपराक्रमः ॥३०५॥
 
:प्रियं तस्याश्चिकीर्षन्वै गदामादाय वीर्यवान् ।
:अन्वधावत्सुसंक्रुद्धॊ भरद्वाजं गुरॊः सुतम् ॥३०६॥
 
:भीमसेनभयादयत्र दैवेनाभिप्रचॊदितः ।
:अपाण्डवायेति रुषा द्रौणिरस्त्रमवासृजत् ॥३०७॥
 
:मैवमित्यब्रवीत्कृष्णः शमयंस्तस्य तदवचः ।
:यत्रास्त्रमस्त्रेण च तच्छमयामास फाल्गुनः ॥३०८॥
 
:द्रौणेश्च द्रोहबुद्धित्वं वीक्ष्य पापात्मनस्तदा ।
:द्रौणिद्वुपायनादीनां शापाश्चान्योन्यकारिताः ॥३०९॥
 
 
:मणं तथा समादाय द्रोणपुत्रान्महारथात् ।
:पाण्ड्वाः प्रददुर्हृष्टा द्रौपद्यै जितकाशिनः ॥३१०॥
 
:एतद्वै दशमं पर्व सौप्तिकं समुदाहृतम् ।
:अष्टादशास्मिन्नध्यायाः पर्वण्युक्ता महात्मना ॥.३११॥
 
:शलॊकानां कथितान्यत्र शतान्यष्टौ प्रसंख्यया ।
:श्लॊकाशच सप्ततिः प्रोक्ता मुनिना ब्रह्मवादिना ॥३१२॥
 
:सौप्तिकैषीकसंबन्धे पर्वण्युत्तमतेजसी ।
:अत ऊर्ध्वमिदं प्राहुः सत्रीपर्व करुणॊदयम् ॥३१३॥
 
:पुत्रशोकाभिसंतप्तः पज्ञाचक्षुर्नराधिपः ।
:कृष्णोपनीतां यत्रासावायसीं प्रतिमां द्द्ढां ॥३१४॥
 
:भीमसेनद्रोहबुद्धिर्धृतराष्र्ट्रओ बभञ्जह ।
:तथा शोकाभितप्तस्य धृतराष्ट्रस्य धीमतः ॥३१५॥
 
:संसारदहनं बुद्धया हेतुभिर्मोक्षदर्शनैः ।
:विदुरेण च यत्रास्य राज्ञ आश्वासनं कृतम् ॥३१६॥
 
:धृतराष्ट्रस्य चात्रैव कौरवायोधनं तथा ।
:सान्तः पुरुस्य गमनं शोकार्तस्य प्रकीर्तितम् ॥३१७॥
 
:विलापॊ वीरपत्नीनां यत्रातिकरुणः स्मृतः ।
:क्रोधावेशः प्रमोहशच गान्धारीधृतराष्ट्रयॊः ॥३१८॥
 
:यत्र तानक्षत्रियाः शूरानङ्ग्रामेष्वनिवर्तिनः ।
:पुत्रान्र्भरातॄन्पितॄंशचैव ददृशुर्निहतान्त्रणे ॥३१९॥
 
:पुत्रपौत्रवधार्तायास्तथात्रैव प्रकीर्तिता ।
:गान्धार्याश्चापि कृष्णेन क्रोधोपशमनक्रिया ॥३२०॥
 
:यत्र राजा महाप्राज्ञः सर्वधर्मभृतां वरः ।
:राज्ञां तानि शरीराणि दाहयामास शास्त्रतः ॥३२१॥
 
:तोयकर्मणि चारब्धे राज्ञामुदकदानिके ।
:गूढोप्तन्न्स्य चाख्यानं कर्णस्य पृथयात्मनः ॥३२२॥
 
:सुतस्यैतदिह प्रोक्तं व्यासेन परमर्षिणा ।
:एतदेकादशं पर्व शोकवैक्लव्यकारणम् ॥३२३॥
 
:प्रणीतं सञ्जनमनोवैक्लव्याश्रुप्रवर्तकम् ।
:सप्तविंशतिरध्यायाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः ॥३२४॥
 
:शलॊकासप्तशती चापि पञ्चसप्ततिसंयुता ।
 
:संख्यया भारताख्यानंमुक्तं व्यासेन धीमता ॥३२५॥
 
:अतः परं शान्तिपर्व दवादशं बुद्धिवर्धनम् ।
:यत्र निर्वेदमापन्नॊ धर्मराजॊ युधिष्ठिरः ॥३२६॥
 
:घातयित्वा पितॄन्र्भरातॄनपुत्रानसंबन्धिमातुलान् ।
:शान्तिपर्वणि धर्माशच वयाख्याताः शरतल्पिकाः ॥३२७॥
 
:राजभिर्वेदितव्यास्ते सम्यग्ज्ञानबुभुत्सुभिः ।
:आपद्धर्माशच तत्रैव कालहेतुप्रदर्शिनः
 
:यानबुद्ध्वा पुरुषः सम्यकसर्वज्ञत्वमवाप्नुयात् ।
:मॊक्षधर्माशच कथिता विचित्रा बहुविस्तराः ॥३२९॥
 
:द्वादशं पर्व निर्दिष्टमेतत्प्राज्ञजनप्रियम ।
:अत्र पर्वण्य विज्ञेयमध्यायानां शतत्रयम् ॥३३०॥
 
:विंशच्चैव तथाध्याया नव चैव तपॊधनाः ।
:चतुर्दशसहस्त्राणि तथा सप्तशतानि च ॥३३१॥।
 
:अप्तश्लोकास्तथैवात्र पञ्चविंशतिसंख्यया ।
:अत ऊर्ध्वं च विज्ञेयमनुशासनमुत्तमम् ॥३३२॥
 
:यत्र प्रकृतिमापन्नः श्रुत्वा धर्मविनिश्चयम् ।
:भीष्माद्भागीरथीपुत्रात्कुरुराजॊ युधिष्ठिरः ॥३३३॥
 
:व्यवहारत्र् कार्त्स्न्येन धर्मार्थीयः प्रकीर्तिताः ।
:विविधानां च दानानां फलयॊगाः प्रकीर्तिताः ॥३३४॥
 
:तथा पात्रविशेषाशच दानानां च परॊ विधिः ।
:आचारविधियॊगशच सत्यस्य च परा गतिः ॥३३५॥
 
:महाभाग्यं गवां चैव ब्राह्मणानां तथैव च ।
:रहस्य चैव धर्माणां देशकालोपस्ंहितम् ॥३३६॥
 
:एतत्सुबहुवृत्तान्तमुत्तमं चानुशासनम् ।
:भीष्मस्यात्रैव संप्राप्तिः स्वर्गस्य परिकीर्तिता ॥३३७॥
 
:एतत्र्रयॊदशं पर्व धर्मनिश्चयकारकम् ।
:अध्यायानां शतं त्वत्र षटचत्वारिंशदेव तु ॥३३८॥
 
:शलॊकानां तु सहस्राणि प्रोक्तान्यष्टौ प्रसंख्यया ।
:ततोऽश्वामेधिकं नाम पर्व प्रोक्तं चतुर्दशम् ॥३३९॥
 
:तत्संवर्तमरुत्तीयं यत्राख्यानमनुत्तमम् ।
:सुवर्णकॊशसंप्राप्तिर्जन्म चॊक्तं परिक्षितः ॥३४०॥
 
:दग्धस्यास्त्राग्निना पूर्वं कृष्णात्संजीवनं पुनः ।
:चर्यायां हयमुत्सृष्टं पाण्डवस्यानुगच्छतः ॥३४१॥
 
:तत्र तत्र च युद्धानि राजपुत्रैरमर्षणैः ।
:चित्राङ्गदायाः पुत्रेण स्वपुत्रेण धनंजयः ॥३४२॥
 
:संग्रामे बभ्रुवाहेन संशयं जग्मिवान् ।
:सुदर्शनं तथाऽऽख्यानं वैष्णवं धर्ममेव च ।
:अश्वमेधे महायज्ञे नकुलाख्यानमेव च ॥३४३॥
 
: इत्याश्वमेधिकं पर्व प्रोक्तमेतन्महाद्भुतम् ।
:अध्यायानां शतं चैव त्रयॊऽधयायाशच कीर्तिताः ॥३४४॥
 
:त्रीणि शलॊकसहस्राणि तावन्त्येव शतानि च ।
:विंशतिश तथा शलॊकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ॥३४५॥
 
:ततस्त्वाश्रमवासाख्य्ं पर्व पञ्चदशं स्मृतम ।
:यत्र राज्यं समुत्सुज्य गान्धार्या सहितॊ नृपः ॥३४६॥
 
:धृतराष्ट्राश्रमपदं विदुरशच जगाम ह ।
:यं दृष्ट्वा प्रस्थितं साध्वी पृथाप्यनुययौ तदा ॥३४७॥
 
:पुत्रराज्यं परित्यज्य गुरुशुश्रूषणे रता ।
:यत्र राजा हतान्पुत्रान्पौत्रानन्यांश्च पार्थिवान ॥३४८॥
 
:लॊकान्तरगतान्वीरानपश्यत्पुनरागतन् ।
:ऋषेः प्रसादात्कृष्णस्य दृष्ट्वाश्चर्यमनुत्तमम् ॥३४९॥
 
:त्यक्त्वा शॊकं सदारश्च सिद्धिं परमिकां गतः ।
:यत्र धर्मं समाश्रित्य विदुरः सुगतिं गतः ॥३५०॥
 
:संजयशच सहामात्यो विद्वान्गावल्गणिर्वशी ।
:ददर्श नारदं यत्र धर्मराजॊ युधिष्ठिरः ॥३५१॥
 
:नारदाच्चैव शुश्राव वृष्णीनां कदनं महत् ।
:एतदाश्रमवासाख्यं पर्वॊक्तं महदद्भुतम् ॥३५२॥
 
:द्विचत्वारिंशदध्यायाः पर्वैतदभिसंख्यया ।
:सहस्रमेकं शलॊकानां पञ्चशलॊकशतानि च ॥३५३॥
 
:षडेव च तथा शलॊकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।
:अतः परं निबॊधेदं मौसलं पर्व दारुणम् ॥३५४॥
 
:यत्र ते पुरुषव्याघ्राः शस्त्रस्पर्शहता युधि ।
:ब्रह्मदण्डविनिष्पिष्टाः समीपे लवणाम्भसः ॥३५५॥
 
:आपाने पानकलिता दैवेनाभिप्रचॊदिताः ।
:एरकारूपिभिर्वज्रैर्निजघ्नुरितरेतरम् ॥३५६॥
 
:यत्र सर्वक्षयं कृत्वा तावुभौ रामकेशवौ ।
:नातिचक्रामतुः कालं प्राप्तं सर्वहरं महत् ॥३५७॥
 
:यत्रार्जुनॊ द्वारवतीमेत्य वृष्णिविनाकृताम ।
:दृष्ट्वा विषादमगमत्परां चार्तिं नरर्षभः ॥३५८॥
 
:स संस्कृत्य नरश्रेष्ठं मातुलं शौरिमात्मनः ।
:ददर्श यदुवीराणामापने वैशसं महत् ॥३५९॥
 
:शरीरं वासुदेवस्य रामस्य च महात्मनः ।
:संस्कारं लम्भयामास वृष्णीनां च प्रधानतः ॥३६०॥
 
:स वृद्धबालमादाय दवारवत्यास्ततॊ जनम् ।
:ददर्शापदि कष्टायां गाण्डीवस्य पराभवम् ॥३६१॥
 
:सर्वेषां चैव दिव्यानामस्त्राणामप्रसन्नताम् ।
:नाशं वृष्णिकलत्राणां प्रभावानामनित्यताम् ॥३६२॥
 
:दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नॊ व्यासवाक्यप्रचॊदितः ।
:धर्मराजं समासाद्य संन्यासं समरॊचयत् ।३६३॥
 
:इत्येतन्मौसलं पर्व षॊडशं परिकीर्तितम् ।
:अध्यायाष्टौ समाख्याताः शलॊकानां च शतत्रयम् ॥३६४॥
 
:श्लोकानां विंशतिश्चव संख्याता तत्त्वदर्शिना ।
:महाप्रस्थानिकं तस्मादूर्ध्वं सप्तदशं स्मृतम ॥३६५॥
 
:यत्र राज्यं परित्यज्य पाण्डवाः पुरुषर्षभाः ।
:दरौपद्या सहिता देव्या महाप्रस्थानमास्थिताः ॥३६६॥
 
:यत्र तेऽग्निं दद्द्शिरे लौहित्यं प्राप्य सागरम् ।
:यत्राग्निना चोदितश्च पार्थस्तस्मै महात्मने ॥३६७॥
 
:ददौ संपूज्य तद्दिव्यं गाण्डीवं धनुरुत्तमम् ।
:यत्र भ्रातृन्निपतितान्द्रौपदीं च युधिष्ठिरः ॥३६८॥
 
:द्द्ष्ट्वा हित्वा जगामैव सर्वाननवलोक्यन ।
:एतत्सप्तदशं पर्व महाप्रस्थानिकं स्मृतम् ॥३६९॥
 
:यत्राध्यायास्रयः प्रोक्ताः शलॊकानां च शतत्रयम् ।
:विंशतिशच तथा शलॊकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ॥३७०॥
 
:स्वर्गपर्व ततॊ ज्ञेयं दिव्यं यत्तदमानुषम् ।
:प्राप्तं दैवरथं स्वर्गान्नेष्टवान्यत्र धर्मराट् ॥३७१॥
 
:आरोढुं सुमहाप्राज्ञ आनृशंस्याच्छुना विना ।
:तामस्याविचलां ज्ञात्वा स्थितिं धर्मे महात्मनः ॥३७२॥
 
:श्वरुपं यत्र् तत्त्यकत्वा धर्मेणासौ समन्वितः ।
:स्वर्ग प्राप्तः स च तथा यातना विपुला भृशम् ॥३७३॥
 
:देवदूतेन नरकं यत्र व्याजेन दर्शितम् ।
:शुश्राव यत्र धर्मात्मा भ्रातृणां करुणागिरः ॥३७४॥
 
:निदेशे वर्तमानानां देशे तत्रैव वर्तताम् ।
:अनुदर्शितश्च धर्मेणदेवराज्ञा च पाण्डवः ॥३७५॥
 
:आप्लुत्याकाशगङ्गयां देहं त्यक्त्वा स मानुषम् ।
:स्वधर्मनिर्जितं स्थानं स्वर्गे प्राप्य स धर्मराट् ॥३७६॥
 
:मुमुदे पूजितः सर्वैः सेन्द्रैः सुरगणैः सह ।
:एतद्ष्टादशं पर्व प्रोक्तं व्यासेन धीमता ॥३७७॥
 
:अध्यायाः पञ्च संख्याताः पर्वण्यस्मिन्महात्मना ।
:शलॊकानां दवे शते चैव प्रसंख्याते तपॊधनाः ॥३७८॥
 
:नव श्लोकास्तथैवान्ये संख्याताः परमर्षिणा ।
:अष्टादशैवमेतानि पर्वाण्येतान्यशेषतः ॥३७९॥
 
:खिलेषु हरिवंशश्च भविष्यं च प्रकीर्तितम् ।
:दश श्लोकसहस्त्राणि विंशच्छ्लोकशतानि च ॥३८०॥
 
:खिलेषु हरिवंशे च संख्यातानि महर्षिणा ।
:एतत्सर्व समाख्यात्ं भारते पर्वसंग्रहः ॥३८१॥
 
:अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यॊ युयुत्सया ।
:तन्महादारुणं युद्धमहान्यष्टादशाभवत् ॥३८२॥
 
:यॊ विद्याच्चतुरॊ वेदान्साङ्गॊपनिषदो दविजः ।
:न चाख्यानमिदं विद्यान्नैव स स्यादविचक्षणः ॥३८३॥
 
:अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत् ।
:कामशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामितबुद्धिना ॥३८४॥
 
:श्रुत्वा त्विदमुपाख्यानं श्राव्यमन्यन्न रॊचते ।
:पुंस्कॊकिलगिरं श्रुत्वा रूक्षा धवाङ्क्षस्य वागिव ॥३८५॥
 
:इतिहासॊत्तमादस्माज्जायन्ते कविबुद्धयः ।
:पञ्चभ्य इव भूतेभ्यॊ लॊकसंविधयस्त्रयः ॥३८६॥
 
:अस्याख्यानस्य विषये पुराणं वर्तते द्विजाः ।
:अन्तरिक्षस्य विषये प्रजा इव चतुर्विधाः ॥३८७॥
 
:क्रियागुणानां सर्वेषामिदमाख्यानमश्रयः ।
:इन्द्रियाणां समस्तानां चित्रा इव मनः क्रियाः ॥३८८॥
 
:अनाश्रित्यैतदाख्यानं कथा भुवि न विद्यते ।
:आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम् ॥३८९॥
 
:इदं कविवरैः सर्वैराख्यानमुपजीव्यते ।
:उदयप्रेप्सुभिर्भृत्यैरभिजात इवेश्वरः ॥३९०॥
 
:अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे ।
:साधोरिव गृहस्थस्य शोषास्त्रय इवाश्रमाः ॥३९१॥
 
:धर्मे मतिर्भवतु वः सततोत्थितानां :सह्येक एव परलोकगतस्य बन्धुः ।
:अर्थाः स्त्रियश्च निपुणैरपि सेव्यमाना नैवाप्तभावमुपयान्ति न च स्थित्वम् ॥३९२॥
 
:दवैपायनौष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयं; पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च ।
:यॊ भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं; किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन ॥३९३॥
 
:यदह्ना कुरुते पापं ब्राह्मणस्त्विन्द्रियैश्चरन् ।
:महाभारतमाख्याय सन्ध्यां मुच्यति पक्षिमाम् ॥
:यद्रात्रै कुरुते पापं कर्मणा मनसा गिरा ।
:महाभारतमाख्याय पूर्वा सन्ध्यां प्रमुच्यते ॥३९५॥
 
:यो गोशतं कनकशृङ्गमयं ददाति विप्राय वेदविदुषे च बहुश्रुताय ।
:पुण्यां च भारतकथां शृणुयाच्च नित्यं तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव ॥३९६॥
 
:आख्यानं तदिदमनुत्तमं महार्थं विज्ञेयं महदिह पर्वसंग्रहेण ।
:श्रुत्वादौ भवति नृणां सुखावगाहं विस्तीर्णं लवणजलं यथा पलवेन ॥३९७॥
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