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{{block center|{{bold|<poem>सुअणे खु भिञ्चाणुकंपके शामिए णिद्धण्गके वि शोहदि । |
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पिशुणे उण |
पिशुणे उण दव्वगव्विदे दुक्कले क्खु पलिणामदालुणे ॥ १ ॥</poem>}}}} |
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अवि अ,-- |
अवि अ,-- |
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{{block center|{{bold|<poem>शश्शपलक्क बलद्दे ण शक्कि वालिदुं |
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::अण्णपशक्त्तकलत्ते ण शक्कि वालिदु । |
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जूदपशत्तमणुश्शे ण शक्कि वालिदुं |
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::जे वि शहाविअदोशे ण शक्कि वालिटुं ॥२॥</poem>}}}} |
::जे वि शहाविअदोशे ण शक्कि वालिटुं ॥२॥</poem>}}}} |
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का वि वेला |
का वि वेला अज्जचारुदत्तश्श गंधव्वं शुणिदं गदश्श । अदिक्क- |
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मदि अद्धलअणी । |
मदि अद्धलअणी । अज्ज वि ण आअच्छदि। तो जाव |
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बाहिलदुआलशालाए गदुअ शुविश्शं ॥ |
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किं पुनर्वाभ्यं भृत्यस्येति । ईदृशो दरिद्रोऽपि प्रभुः शोभते इत्याशयः। </ref>सुजनः खलु भृत्यानुकम्पकः स्वामी निर्धनकोऽपि शोभते । |
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अपि च,-- |
अपि च,-- |
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{{block center|{{bold|<poem>सस्यलम्पटबलीवर्दो न शक्यो वारयितु- |
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::मन्यप्रसक्तकलत्रं न शक्यं वारयितुम् ।</poem>}}}} |
::मन्यप्रसक्तकलत्रं न शक्यं वारयितुम् ।</poem>}}}} |
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सुअणे इत्यादि । वैतालीयम्। 'सुअणे' |
'''सुअणे इत्यादि''' । वैतालीयम्। 'सुअणे' इत्येकारों लघुः, छन्दोनुरोधात् । |
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सुजनः खल |
सुजनः खल भृत्यानुकम्पकः स्वामी निर्धनोऽपि शोभते । पिशुनः पुनर्द्रव्यगर्वितो |
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दुष्करः खलु परिणामदारुणः ॥ |
दुष्करः खलु परिणामदारुणः ॥ ‘खलु’ यस्मादर्थे । दुष्करो यतः, अतः |
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परिणामदारुणः ॥ १ ॥ '''शश्शपलक्केत्यादि''' । शक्करी जातिः । पलक्को |
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टिप्प०----1 |
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किं पुनर्वाभ्यं भृत्यस्येति । ईदृशो दरिद्रोऽपि प्रभुः शोभते इत्याशयः। 2 उत्तरा |
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पुटतलम् (अव्यचितम्) : | पुटतलम् (अव्यचितम्) : | ||
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