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भक्ष्यामि।] |
भक्ष्यामि।] |
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{{gap}}'''विटः'''----काणेलीमातः । न युक्तं |
{{gap}}'''विटः'''----काणेलीमातः । न युक्तं निर्वेदधृतकषायं भिक्षुं ताडयितुम् । |
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तत्किमनेन ? । इदं तावत्सुखोपगम्यमुद्यानं पश्यतु भवान् । |
तत्किमनेन ? । इदं तावत्सुखोपगम्यमुद्यानं पश्यतु भवान् । |
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{{block center|{{bold|<poem>अशरणशरणप्रमोदभूतैर्वनतरुभिः क्रियमाणचारुकर्म । |
{{block center|{{bold|<poem>अशरणशरणप्रमोदभूतैर्वनतरुभिः क्रियमाणचारुकर्म । |
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हृद1यमिव दुरात्मनामगुप्तं नवमिव राज्यमनिर्जितोपभोग्यम् ॥ ४ ॥</poem>}}}} |
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{{gap}}'''भिक्षुः'''शाअद; पशीददु उवाशके | | स्वागतम् प्रसीद- |
{{gap}}'''भिक्षुः'''शाअद; पशीददु उवाशके | | स्वागतम् प्रसीद- |
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पासकः ।] |
पासकः ।] |
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{{gap}}'''शकारः'''-----भावे ! पेक्ख पेक्ख, |
{{gap}}'''शकारः'''-----भावे ! पेक्ख पेक्ख, आक्कोशदि मं । [भाव ! पश्य |
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पश्य, आक्रोशति माम् ।। |
पश्य, आक्रोशति माम् ।। |
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{{gap}}'''विटः'''-किं ब्रवीति ?।। |
{{gap}}'''विटः'''-किं ब्रवीति ?।। |
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{{gap}}'''शकारः'''-उवाशके त्ति |
{{gap}}'''शकारः'''-उवाशके त्ति मं भणादि, किं हग्गे णाविदे ? । |
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[उपासक इति मा भणति, |
[उपासक इति मा भणति, किमहं नापितः ? । ] । |
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{{gap}}'''विटः''' - बुद्धोपासक इति भवन्तं स्तौति । |
{{gap}}'''विटः''' - बुद्धोपासक इति भवन्तं स्तौति । |
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{{gap}}'''शकारः'''----थुणु शमणका ! थुगु । [ स्तुनु श्रमणक ! स्तुनु ।] |
{{gap}}'''शकारः'''----थुणु शमणका ! थुगु । [ स्तुनु श्रमणक ! स्तुनु ।] |
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{{gap}}'''भिक्षुः'''-- |
{{gap}}'''भिक्षुः'''--तुमं धण्णे, तुम पुण्णे । [वं धन्यः, त्वं पुण्यः ।] |
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{{gap}}'''शकारः'''---भावे ! धणे पुण्णे त्ति |
{{gap}}'''शकारः'''---भावे ! धणे पुण्णे त्ति मं भणादि । किं हग्गे शलावके |
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कोश्टके कोंभकाले वा ।। [ भाव ! धन्यः पुण्य इति मां भणति । |
कोश्टके कोंभकाले वा ।। [ भाव ! धन्यः पुण्य इति मां भणति । किमहं |
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शला2वकः (चार्वाकः ) कोष्टकं कुम्भकारो वा ? ।] |
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मध्यमा किं पत्रलकभागमपनीय ( ?) |
मध्यमा किं पत्रलकभागमपनीय ( ?) मूलकमुपदंशीकुर्वन्ति । अशरणेति । |
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अनिर्जितमनात्मसात्कृतम् ॥ ४ ॥ णाविदे नापितः । स ह्युपासको दृष्ट इत्याशथः । |
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शलाकवश्चार्वाकः । कोष्ठकामेष्ठकादिरचितम् ॥ यत्र तावत्कुकु( क्कु )राः शृगाला जलं |
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टिप्प०-1 अपीयते |
टिप्प०-1 अपीयते संभूय पीयते सुरा़डत्रेत्यापानकं मद्यपायिनां समाजः । |
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2 यथा खलानां हृदयं तदैवोत्तानं भवति, |
2 यथा खलानां हृदयं तदैवोत्तानं भवति, यदा सोडन्यस्य दोषादिकमन्यमै कथयति |
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तद्वत् । उद्यानमिदमीदृशम् , असदपहाय सदेव कर्म विदधाति; त्वं तु चेतनः संन्या- |
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सिनमपि ताडयसि; किमतः परमसदस्ति ? इति |
सिनमपि ताडयसि; किमतः परमसदस्ति ? इति शकारोपरि विष्टस्य कटाक्षः । |