"पृष्ठम्:मृच्छकटिकम्.pdf/२६७" इत्यस्य संस्करणे भेदः
No edit summary |
|||
पुटस्थितिः | पुटस्थितिः | ||
- | + | परिष्कृतम् | |
पुटाङ्गम् (उपयोगार्थम्) : | पुटाङ्गम् (उपयोगार्थम्) : | ||
पङ्क्तिः १: | पङ्क्तिः १: | ||
{{c|'''दशमोऽङ्क'''}} |
{{c|'''दशमोऽङ्क'''}} |
||
{{c|( ततः प्रविशति |
{{c|( ततः प्रविशति चाण्डाल1द्वयेनानुगम्यमानश्चारुदत्तः )}} |
||
{{gap}}'''उभौ'''- |
{{gap}}'''उभौ'''- |
||
{{block center|{{bold|<poem> |
{{block center|{{bold|<poem>तक्किं ण कलअ कालण णववहबंधणअणे णिउणा । |
||
अचिलेण |
अचिलेण शीशछेअणशूलालोवेशु कुशलम्ह ॥ १॥</poem>}}}} |
||
ओशलध |
ओशलध अज्जा ! ओशलध । एशे अज्जचालूदते |
||
{{block center|{{bold|<poem>दिण्णकलचीलदामे गहिवे अम्हेहिं |
{{block center|{{bold|<poem>दिण्णकलचीलदामे गहिवे अम्हेहिं वज्झपुलिसेहिं । |
||
दीवे व्व मंदणे हे थोअं थोअं |
दीवे व्व मंदणे हे थोअं थोअं खअँ जादि ॥ २ ॥</poem>}}}} |
||
{{block center|{{bold|<poem>[ |
{{block center|{{bold|<poem>[तत्किं न कलय कारणं नववधबन्धनयने निपुणौ । |
||
अधिरेण शीर्षच्छेदनशूलारोपेषु कुशलौ स्वः ॥</poem>}}}} |
अधिरेण शीर्षच्छेदनशूलारोपेषु कुशलौ स्वः ॥</poem>}}}} |
||
अपसरतार्याः अपसरत । एष आर्य चारुदत्तः। |
|||
{{block center|{{bold|<poem>दत्तकरवीरदामा गृहीत आवाभ्यां वध्यपुरुषाभ्याम् । |
{{block center|{{bold|<poem>दत्तकरवीरदामा गृहीत आवाभ्यां वध्यपुरुषाभ्याम् । |
||
दीप इव |
दीप इव मन्दस्नेहः स्तोकं स्तोकं क्षयं याति ॥]</poem>}}}} |
||
{{gap}}''' |
{{gap}}'''चारूदत्तः'''--( सविषादम् ) |
||
{{block center|{{bold|<poem>नयन |
{{block center|{{bold|<poem>नयन सलिलसिक्तं पांशुरुक्षीकृताङ्गं |
||
:: |
::पितृवनसुमनोभिर्चेष्टितं मे शरीरम् । |
||
विरसमिह रटन्तो रक्तगन्धानुलिप्तं |
विरसमिह रटन्तो रक्तगन्धानुलिप्तं |
||
::बलिमिव परिभोक्तुं वायसास्तर्कयन्ति ॥ ३ ॥</poem>}}}} |
::बलिमिव परिभोक्तुं वायसास्तर्कयन्ति ॥ ३ ॥</poem>}}}} |
||
{{rule}} |
{{rule}} |
||
तक्किमिति ॥ १ ॥ |
'''तक्किमिति''' ॥ १ ॥ '''दिएणकलवीलेत्यादि''' । गाथा । दत्तकरवीरमालो |
||
गृहीत आवाभ्यां |
गृहीत आवाभ्यां वध्यपुरुषाभ्याम् । दीप इव मन्दस्नेहः स्तोकं स्तोकं क्षयं याति |
||
॥ २ ॥ नयनेति । पितृवनं श्मशानम् । तर्कयन्ति उत्प्रेक्षन्ते ॥ ३ ॥ किं |
॥ २ ॥ '''नयनेति''' । पितृवनं श्मशानम् । तर्कयन्ति उत्प्रेक्षन्ते ॥ ३ ॥ किं |
||
टिप्प-~-1 'गोदा-आहीन्ता' नामानाविमौ वधक्षिानुष्ठातारौ राजनियुक्तौचाण्डालौ । |
|||
चाण्डालौ । |