"ऋग्वेदः सूक्तं १०.१७" इत्यस्य संस्करणे भेदः
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{{टिप्पणी|
प्रथम मन्त्र में "विश्वभुवन" के एकत्रीकरण द्वारा उस समाधि की ओर संकेत किया गया है जिसमें वासना-रहित उर्ध्वमन (विवस्वान्) अपनी मनीषा से यम-नियम-संयम-सम्पन्न व्यक्तित्व को जन्म देता है। यही मनीषा “सरण्यू” है जो उस व्यक्तित्व में जीव को संयम-सम्पन्न यम तथा उसकी बुद्धि को संयम-सम्पन्न यमी बना देती है। व्युत्थान के मानसिक स्तर पर वही पुनः सारे व्यक्तित्व में व्याप्त होकर "सवर्णा" कही जाती है - [http://puranastudy.freevar.com/Antariksha_Paryaya/pva18.htm अन्तरिक्षपर्यायों का प्रतीकवाद(अध्याय ५)]
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{{ऋग्वेदः मण्डल १०}}
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