"रामायणम्/अरण्यकाण्डम्/सर्गः ६०" इत्यस्य संस्करणे भेदः

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पङ्क्तिः १:
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{{Ramayana|अरण्यकाण्ड}}
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| author = वाल्मीकिः
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| section = अरण्यकाण्डम्
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{{रामायणम्/अरण्यकाण्डम्}}
<div class="verse">
<pre>
'''श्रीमद्वाल्मीकियरामायणे अरण्यकाण्डे षष्ठितमः सर्गः ॥३-६०॥'''<BR><BR>
 
भृशम् आव्रजमानस्य तस्य अधो वाम लोचनम् ।<BR>
'''श्रीमद्वाल्मीकियरामायणे अरण्यकाण्डे षष्ठितमः सर्गः ॥३-६०॥'''<BR><BR>
प्रास्फुरत् च अस्खलत् रामो वेपथुः च अस्य जायते ॥३-६०-१॥<BR><BR>
 
उपालक्ष्य निमित्तानि सो अशुभानि मुहुर् मुहुः ।<BR>
भृशम् आव्रजमानस्य तस्य अधो वाम लोचनम् ।<BR>
अपि क्षेमम् तु सीताया इति वै व्याजहार ह ॥३-६०-२॥<BR><BR>
प्रास्फुरत् च अस्खलत् रामो वेपथुः च अस्य जायते ॥३-६०-१॥<BR><BR>
 
त्वरमाणो जगाम अथ सीता दर्शन लालसः ।<BR>
उपालक्ष्य निमित्तानि सो अशुभानि मुहुर् मुहुः ।<BR>
शून्यम् आवसथम् दृष्ट्वा बभूव उद्विग्न मानसः ॥३-६०-३॥<BR><BR>
अपि क्षेमम् तु सीताया इति वै व्याजहार ह ॥३-६०-२॥<BR><BR>
 
उद् भ्रमन् इव वेगेन विक्षिपन् रघु नन्दनः ।<BR>
त्वरमाणो जगाम अथ सीता दर्शन लालसः ।<BR>
तत्र तत्र उटज स्थानम् अभिवीक्ष्य समंततः ॥३-६०-४॥<BR>
शून्यम् आवसथम् दृष्ट्वा बभूव उद्विग्न मानसः ॥३-६०-३॥<BR><BR>
ददर्श पर्ण शालाम् च सीतया रहिताम् तदा ।<BR>
श्रिया विरहिताम् ध्वस्ताम् हेमन्ते पद्मिनीम् इव ॥३-६०-५॥<BR><BR>
 
रुदन्तम् इव वृक्षैः च ग्लान पुष्प मृग द्विजम् ।<BR>
उद् भ्रमन् इव वेगेन विक्षिपन् रघु नन्दनः ।<BR>
श्रिया विहीनम् विध्वस्तम् संत्यक्त वन दैवतैः ॥३-६०-६॥<BR>
तत्र तत्र उटज स्थानम् अभिवीक्ष्य समंततः ॥३-६०-४॥<BR>
विप्रकीर्ण अजिन कुशम् विप्रविद्ध बृसी कटम् ।<BR>
ददर्श पर्ण शालाम् च सीतया रहिताम् तदा ।<BR>
दृष्ट्वा शून्य उटज स्थानम् विललाप पुनः पुनः ॥३-६०-७॥<BR><BR>
श्रिया विरहिताम् ध्वस्ताम् हेमन्ते पद्मिनीम् इव ॥३-६०-५॥<BR><BR>
 
हृता मृता वा नष्टा वा भक्षिता वा भविष्यति ।<BR>
रुदन्तम् इव वृक्षैः च ग्लान पुष्प मृग द्विजम् ।<BR>
निलीना अपि अथवा भीरुः अथवा वनम् आश्रिता ॥३-६०-८॥<BR><BR>
श्रिया विहीनम् विध्वस्तम् संत्यक्त वन दैवतैः ॥३-६०-६॥<BR>
विप्रकीर्ण अजिन कुशम् विप्रविद्ध बृसी कटम् ।<BR>
दृष्ट्वा शून्य उटज स्थानम् विललाप पुनः पुनः ॥३-६०-७॥<BR><BR>
 
गता विचेतुम् पुष्पाणि फलानि अपि च वा पुनः ।<BR>
हृता मृता वा नष्टा वा भक्षिता वा भविष्यति ।<BR>
अथवा पद्मिनीम् याता जल अर्थम् वा नदीम् गता ॥३-६०-९॥<BR><BR>
निलीना अपि अथवा भीरुः अथवा वनम् आश्रिता ॥३-६०-८॥<BR><BR>
 
यत्नात् मृगयमाणः तु न आससाद वने प्रियाम् ।<BR>
गता विचेतुम् पुष्पाणि फलानि अपि च वा पुनः ।<BR>
शोक रक्त ईक्षणः श्रीमान् उन्मत्त इव लक्ष्यते ॥३-६०-१०॥<BR><BR>
अथवा पद्मिनीम् याता जल अर्थम् वा नदीम् गता ॥३-६०-९॥<BR><BR>
 
वृक्षात् वृक्षम् प्रधावन् स गिरीम् च अपि नदी नदम् ।<BR>
यत्नात् मृगयमाणः तु न आससाद वने प्रियाम् ।<BR>
बभ्राम विलपन् रामः शोक पंक अर्णव प्लुतः ॥३-६०-११॥<BR><BR>
शोक रक्त ईक्षणः श्रीमान् उन्मत्त इव लक्ष्यते ॥३-६०-१०॥<BR><BR>
 
अस्ति कच्चित् त्वया दृष्टा सा कदम्ब प्रिया प्रिया ।<BR>
वृक्षात् वृक्षम् प्रधावन् स गिरीम् च अपि नदी नदम् ।<BR>
कदम्ब यदि जानीषे शंस सीताम् शुभ आननाम् ॥३-६०-१२॥<BR><BR>
बभ्राम विलपन् रामः शोक पंक अर्णव प्लुतः ॥३-६०-११॥<BR><BR>
 
स्निग्ध पल्लव संकाशाम् पीत कौशेय वासिनीम् ।<BR>
अस्ति कच्चित् त्वया दृष्टा सा कदम्ब प्रिया प्रिया ।<BR>
शंसस्व यदि सा दृष्टा बिल्व बिल्व उपम स्तनी ॥३-६०-१३॥<BR><BR>
कदम्ब यदि जानीषे शंस सीताम् शुभ आननाम् ॥३-६०-१२॥<BR><BR>
 
अथवा अर्जुन शंस त्वम् प्रियाम् ताम् अर्जुन प्रियाम् ।<BR>
स्निग्ध पल्लव संकाशाम् पीत कौशेय वासिनीम् ।<BR>
जनकस्य सुता तन्वी यदि जीवति वा न वा ॥३-६०-१४॥<BR><BR>
शंसस्व यदि सा दृष्टा बिल्व बिल्व उपम स्तनी ॥३-६०-१३॥<BR><BR>
 
ककुभः ककुभ ऊरुम् ताम् व्यक्तम् जानाति मैथिलीम् ।<BR>
अथवा अर्जुन शंस त्वम् प्रियाम् ताम् अर्जुन प्रियाम् ।<BR>
लता पल्लव पुष्प आढ्यो भाति हि एष वनस्पतिः ॥३-६०-१५॥<BR><BR>
जनकस्य सुता तन्वी यदि जीवति वा न वा ॥३-६०-१४॥<BR><BR>
 
भ्रमरैर् उपगीतः च यथा द्रुम वरो हि असि ।<BR>
ककुभः ककुभ ऊरुम् ताम् व्यक्तम् जानाति मैथिलीम् ।<BR>
एष व्यक्तम् विजानाति तिलकः तिलक प्रियाम् ॥३-६०-१६॥<BR><BR>
लता पल्लव पुष्प आढ्यो भाति हि एष वनस्पतिः ॥३-६०-१५॥<BR><BR>
 
अशोक शोक अपनुद शोक उपहत चेतनम् ।<BR>
भ्रमरैर् उपगीतः च यथा द्रुम वरो हि असि ।<BR>
त्वन् नामानम् कुरु क्षिप्रम् प्रिया संदर्शनेन माम् ॥३-६०-१७॥<BR><BR>
एष व्यक्तम् विजानाति तिलकः तिलक प्रियाम् ॥३-६०-१६॥<BR><BR>
 
यदि ताल त्वया दृष्टा पक्व ताल फल स्तनी ।<BR>
अशोक शोक अपनुद शोक उपहत चेतनम् ।<BR>
कथयस्व वरारोहाम् कारुण्यम् यदि ते मयि ॥३-६०-१८॥<BR><BR>
त्वन् नामानम् कुरु क्षिप्रम् प्रिया संदर्शनेन माम् ॥३-६०-१७॥<BR><BR>
 
यदि ताल त्वया दृष्टा पक्व ताल फल स्तनी ।<BR>
कथयस्व वरारोहाम् कारुण्यम् यदि ते मयि ॥३-६०-१८॥<BR><BR>
 
यदि दृष्टा त्वया सीता जम्बो जांबूनद सम प्रभा
<BR>
प्रियाम् यदि विजानासि निःशंक कथयस्व मे ॥३-६०-१९॥<BR><BR>
 
अहो त्वम् कर्णिकार अद्य पुष्पितः शोभसे भृशम् ।<BR>
कर्णिकार प्रियाम् साध्वीम् शंस दृष्टा यदि प्रिया ॥३-६०-२०॥<BR><BR>
 
चूत नीप महा सालान् पनसान् कुरवान् धवान् ।<BR>
दाडिमान् अपि तान् गत्वा दृष्ट्वा रामो महायशाः ॥३-६०-२१॥<BR>
बकुलान् अथ पुन्नागान् च चंदनान्केतकान् तथा ।<BR>
पृच्छन् रामो वने भ्रान्त उन्मत्त इव लक्ष्यते ॥३-६०-२२॥<BR><BR>
 
अथवा मृग शाब अक्षीम् मृग जानासि मैथिलीम् ।<BR>
मृग विप्रेक्षणी कांता मृगीभिः सहिता भवेत् ॥३-६०-२३॥<BR><BR>
 
गज सा गज नासोरुः यदि दृष्टा त्वया भवेत् ।<BR>
ताम् मन्ये विदिताम् तुभ्यम् आख्याहि वर वारण ॥३-६०-२४॥<BR><BR>
 
शार्दूल यदि सा दृष्टा प्रिया चंद्र निभ आनना ।<BR>
मैथिली मम विस्रब्धम् कथयस्व न ते भयम् ॥३-६०-२५॥<BR><BR>
 
किम् धावसि प्रिये नूनम् दृष्टा असि कमल ईक्षणे ।<BR>
वृक्षेण आच्चाद्य च आत्मानम् किम् माम् न प्रतिभाषसे ॥३-६०-२६॥<BR><BR>
 
तिष्ठ तिष्ठ वरारोहे न ते अस्ति करुणा मयि ।<BR>
न अत्यर्थम् हास्य शीला असि किम् अर्थम् माम् उपेक्षसे ॥३-६०-२७॥<BR><BR>
 
पीत कौशेयकेन असि सूचिता वर वर्णिनि ।<BR>
धावन्ति अपि मया दृष्टा तिष्ठ यदि अस्ति सौहृदम् ॥३-६०-२८॥<BR><BR>
 
न एव सा नूनम् अथवा हिंसिता चारु हासिनी ।<BR>
कृच्छ्रम् प्राप्तम् न माम् नूनम् यथा उपेक्षितुम् अर्हति ॥३-६०-२९॥<BR><BR>
 
व्यक्तम् सा भक्षिता बाला राक्षसैः पिशित अशनैः ।<BR>
विभज्य अंगानि सर्वाणि मया विरहिता प्रिया ॥३-६०-३०॥<BR><BR>
 
नूनम् तत् शुभ दंत ओष्ठम् सुनासम् शुभ कुण्डलम् ।<BR>
पूर्ण चंद्र निभम् ग्रस्तम् मुखम् निष्प्रभताम् गतम् ॥३-६०-३१॥<BR><BR>
 
सा हि चंपक वर्ण आभा ग्रीवा ग्रैवेयक उचिता ।<BR>
कोमला विलपन्त्याः तु कान्ताया भक्षिता शुभा ॥३-६०-३२॥<BR><BR>
 
नूनम् विक्षिप्यमाणौ तौ बाहू पल्लव कोमलौ ।<BR>
भक्षितौ वेपमान अग्रौ स हस्त आभरण अंगदौ ॥३-६०-३३॥<BR><BR>
 
मया विरहिता बाला रक्षसाम् भक्षणाय वै ।<BR>
सार्थेन इव परित्यक्ता भक्षिता बहु बांधवा ॥३-६०-३४॥<BR><BR>
 
हा लक्ष्मण महाबाहो पश्यसे त्वम् प्रियाम् क्वचित् ।<BR>
हा प्रिये क्व गता भद्रे हा सीते इति पुनः पुनः ॥३-६०-३५॥<BR><BR>
 
इति एवम् विलपन् रामः परिधावन् वनात् वनम् ।<BR>
क्वचित् उद् भ्रमते वेगात् क्वचित् विभ्रमते बलात् ॥३-६०-३६॥<BR>
क्वचित् मत्त इव आभाति कांता अन्वेषण तत्परः ।<BR><BR>
 
स वनानि नदीः शैलान् गिरि प्रस्रवणानि च ।<BR>
काननानि च वेगेन भ्रमति अपरिसंस्थितः ॥३-६०-३७॥<BR><BR>
 
तदा स गत्वा विपुलम् महत् वनम्<br>
परीत्य सर्वम् तु अथ मैथिलीम् प्रति ।<BR>
अनिष्ठित आशः स चकार मार्गणे<br>
पुनः प्रियायाः परमम् परिश्रमम् ॥३-६०-३८॥<BR><BR>
 
 
 
'''इति वाल्मीकि रामायणे आदि काव्ये अरण्यकाण्डे षष्ठितमः सर्गः ॥३-६०॥'''<BR><BR>
==संबंधित कड़ियाँ==
*[[रामायण]]
**[[रामायण बालकाण्ड]]
**[[रामायण अयोध्याकाण्ड]]
**[[रामायण अरण्यकाण्ड]]
**[[रामायण किष्किन्धाकाण्ड]]
**[[रामायण सुंदरकाण्ड]]
**[[रामायण युद्धकाण्ड]]
**[[रामायण उत्तरकाण्ड]]
==बाहरी कडियाँ==
[[वर्गः:काव्य]]
[[वर्गः:Hinduism]]