"महाभारतम्-01-आदिपर्व-238" इत्यस्य संस्करणे भेदः
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पङ्क्तिः १६:
अर्जुनेन संभाप्य कृष्णस्य द्वारकांप्रति पुनरागमनम्।। 6 ।।
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'''वैशंपायन उवाच।''' <td> 1-238-1x
</tr>
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सोऽपरान्तेषु तीर्थानि पुण्यान्यायतनानि च।<BR>सर्वाण्येवानुपूर्व्येण जगामामितविक्रमः।। <td> 1-238-1a<BR>1-238-1b
</tr>
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समुद्रे पश्चिमे यानि तीर्थान्यायतनानि च।<BR>तानि सर्वाणि गत्वा स प्रभासमुपजग्मिवान्।। <td> 1-238-2a<BR>1-238-2b
</tr>
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`चिन्तयामास रात्रौ तु गदेन कथितं पुरा।<BR>सुभद्रायाश्च माधुर्यरूपसंपद्गुणानि च।। <td> 1-238-3a<BR>1-238-3b
</tr>
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प्राप्तुमं तां चिन्तयामास कोऽत्रोपायो भवेदिति।<BR>वेषवैकृत्यमापन्नः परिव्राजकरूपधृत्।। <td> 1-238-4a<BR>1-238-4b
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कुकुरान्धकवृष्णीनामज्ञातो वेषधारणात्।<BR>भ्रममाणश्चरन्भैक्षं परिव्राजकवेषवान्।। <td> 1-238-5a<BR>1-238-5b
</tr>
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येनकेनाप्युपायेन प्रविश्य च गृहं महत्।<BR>दृष्ट्वा सुभद्रां कृष्णस्य भगिनीमेकसुन्दरीम्।। <td> 1-238-6a<BR>1-238-6b
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वासुदेवमतं ज्ञात्वा करिष्यामि हितं शुभम्।<BR>एवं विनिश्चयं कृत्वा दीक्षितो वै तदाऽभवत्।। <td> 1-238-7a<BR>1-238-7b
</tr>
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त्रिदण्डी मुण्डितः कुण्डी अक्षमालाङ्गुलीयकः।<BR>योगभारं वहन्पार्थो वटवृक्षस्य कोटरम्।। <td> 1-238-8a<BR>1-238-8b
</tr>
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प्रविशंश्चैव बीभत्सुर्वृष्टिं वर्षति वासवे।<BR>चिन्तयामास देवेशं केशवं क्लेशनाशनम्।। <td> 1-238-9a<BR>1-238-9b
</tr>
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केशवश्चिन्तितं ज्ञात्वा दिव्यज्ञानेन दृष्टवान्।<BR>शयानः शयने दिव्ये सत्यभामासहायवान्।। <td> 1-238-10a<BR>1-238-10b
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केशवः सहसा राजञ्जहाय च ननन्द च।<BR>पुनः पुनः सत्यभामा चाब्रवीत्पुरुषोत्तमम्।। <td> 1-238-11a<BR>1-238-11b
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भगवंश्चिन्तयाविष्टः शयने शयितः सुखम्।<BR>भवान्बहुप्रकारेण जहास च पुनः पुनः।। <td> 1-238-12a<BR>1-238-12b
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श्रोतव्यं यदि वा कृष्ण प्रसादो यदि ते मयि।<BR>वक्तुमर्हसि देवेश तच्छ्रोतुं कामयाम्यहम्।। <td> 1-238-13a<BR>1-238-13b
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'''श्रीभगवानुवाच।''' <td> 1-238-14x
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पितृष्वसुर्यः पुत्रो मे भीमसेनानुजोऽर्जुनः।<BR>तीर्थयात्रां गतः पार्थः कारणात्समयात्तदा।। <td> 1-238-14a<BR>1-238-14b
</tr>
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तीर्थयात्रासमाप्तौ तु निवृत्तो निशि भारतः।<BR>सुभध्रां चिन्तयामास रूपेणाप्रतिमां भुवि।। <td> 1-238-15a<BR>1-238-15b
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चिन्तयेन्नेव तां भद्रां यतिरूपधरोऽर्जुनः।<BR>यतिरूपप्रतिच्छन्नो द्वारकां प्राप्य माधवीम्।। <td> 1-238-16a<BR>1-238-16b
</tr>
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येनकेनाप्युपायेन दृष्ट्वा तु वरवर्णिनीम्।<BR>वासुदेवमतं ज्ञात्वा प्रयतिष्ये मनोरथम्।। <td> 1-238-17a<BR>1-238-17b
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एवं व्यवसितः पार्थो यतिलिङ्गेन पाण्डवः।<BR>छायायां वटवृक्षस्य वृष्टिं वर्षति वासवे।। <td> 1-238-18a<BR>1-238-18b
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योगभारं वहन्नेव मानसं दुःखमाप्तवान्।<BR>एतदर्थं विजानीहि हसन्तं मां मुदा प्रिये।। <td> 1-238-19a<BR>1-238-19b
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भ्रातरं तव पश्येति सत्यभामां व्यसर्जयत्।<BR>तत उत्थाय शयनात्प्रस्थितो मधुसूदनः।।' <td> 1-238-20a<BR>1-238-20b
</tr>
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प्रभासदेशं संप्राप्तं बीभत्सुमपराजितम्।<BR>तीर्थान्यनुचरन्तं तं शुश्राव मधुसूदनः।। <td> 1-238-21a<BR>1-238-21b
</tr>
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चाराणां चैव वचनादेकाकी स जनार्दनः।<BR>तत्राभ्यगच्छत्कौन्तेयं महात्मातं स माधवः।। <td> 1-238-22a<BR>1-238-22b
</tr>
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ददृशाते तदान्योन्यं प्रभासे कृष्णपाण्डवौ।। <td> 1-238-23a
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तावन्योन्यं समाश्लिष्य पृष्ट्वा च कुशलं वने।<BR>आस्तां प्रियसखायौ तौ नरनारायणावृषी।। <td> 1-238-24a<BR>1-238-24b
</tr>
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ततोऽर्जुनं वासुदेवस्तां चर्यां पर्यपृच्छत।<BR>किमर्थं पाण्डवैतानि तीर्थान्यनुचरस्युत।। <td> 1-238-25a<BR>1-238-25b
</tr>
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ततोऽर्जनो यथावृत्तं सर्वमाख्यातवांस्तदा।<BR>श्रुत्वोवाच च वार्ष्णेय एवमेतदिति प्रभुः।। <td> 1-238-26a<BR>1-238-26b
</tr>
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तौ विहृत्य यथाकामं प्रभासे कृष्णपाण्डवौ।<BR>महीधरं रैवतकं वासायैवाभिजग्मतुः।। <td> 1-238-27a<BR>1-238-27b
</tr>
<tr><td>
पूर्वमेव तु कृष्णस्य वचनात्तं महीधरम्।<BR>पुरुषा मण्डयाञ्चक्रुरुपजह्रश्च भोजनम्।। <td> 1-238-28a<BR>1-238-28b
</tr>
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प्रतिगृह्यार्जुनः सर्वमुपभुज्य च पाण्डवः।<BR>सहैव वासुदेवेन दृष्टवान्नटनर्तकान्।। <td> 1-238-29a<BR>1-238-29b
</tr>
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अभ्यनुज्ञाय तान्सर्वानर्चयित्वा च पाण्डवः।<BR>सत्कृतं शनं दिव्यमभ्यगच्छन्महामतिः।। <td> 1-238-30a<BR>1-238-30b
</tr>
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ततस्तत्र महाबाहुः शयानः शयने शुभे।<BR>तीर्थानां पल्वलानां च पर्वतानां च दर्शनम्।<BR>आपगानां वनानां च कथयामास सात्वते।। <td> 1-238-31a<BR>1-238-31b<BR>1-238-31c
</tr>
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एवं स कथयन्नेव निद्रया जनमेजय।<BR>कौन्तेयोऽपि हृतस्तस्मिञ्शयने स्वर्गसन्निभे।। <td> 1-238-32a<BR>1-238-32b
</tr>
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मधुरेणैव गीतेन वीणाशब्देन चैव ह।<BR>प्रबोध्यमानो बुबुधे स्तुतिभिर्मङ्गलैस्तता।। <td> 1-238-33a<BR>1-238-33b
</tr>
<tr><td>
स कृत्वाऽवश्यकार्याणि वार्ष्णेयेनाभिनन्दितः।<BR>`वार्ष्णेयं समनुज्ञाप्य तत्र वासमरोचयत्।। <td> 1-238-34a<BR>1-238-34b
</tr>
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तथेत्युक्त्वा वासुदेवो भोजनं वै शशास ह।<BR>यतिरूपधरं पार्थं विसृज्य सहसा हरिः।'<BR>रथेन काञ्चनाङ्गेन द्वारकामभिजग्मिवान्।। <td> 1-238-35a<BR>1-238-35b<BR>1-238-35c
</tr>
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अलङ्कृता द्वारका तु बभूव जनमेजय।। <td> 1-238-36a
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दिदृक्षन्तश्च गोविन्दं द्वारकावासिनो जनाः।<BR>नरेन्द्रमार्गमाजग्मुस्तूर्णं शतसहस्रशः।। <td> 1-238-37a<BR>1-238-37b
</tr>
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`क्षणार्धमपि वार्ष्णेया गोविन्दविरहाक्षमाः।<BR>कौतूहलसमाविष्टा भृशमुत्प्रेक्ष्य संस्थिताः।।' <td> 1-238-38a<BR>1-238-38b
</tr>
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अवलोकेषु नारीणां सहस्राणि शतानि च।<BR>भोजवृष्ण्यन्धकानां च समवायो महानभूत्।। <td> 1-238-39a<BR>1-238-39b
</tr>
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स तथा सत्कृतः सर्वैर्भोजवृष्ण्यन्धकात्मजैः।<BR>अभिवाद्याभिवाद्यांश्च सर्वैश्च प्रतिनन्दितः।। <td> 1-238-40a<BR>1-238-40b
</tr>
<tr><td>
कुमारैः सर्वशो वीरः सत्कारेणाभिचोदितः।<BR>समानवयसः सर्वानाश्लिष्य स पुनःपुनः।। <td> 1-238-41a<BR>1-238-41b
</tr>
<tr><td>
कृष्णः स्वभवनं रम्यं प्रविवेश महाबलः।<BR>प्रभासादागतं देव्यः सर्वाः कृष्णमपूजयन्।। <td> 1-238-42a<BR>1-238-42b
</tr>
<tr><td>
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि <br>अर्जुनवनवासपर्वणि <br>अष्टत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 238 ।। <td>
</tr></table>1-238-1 अपरान्तेषु पश्चिसमुद्रतीरेषु।।
1-238-36 अलंकृता द्वारका तु बभूव जनमेजय। कुन्तीपुत्रस्य पूजार्थमपि निष्कुटकेष्वपि।। इति च, ज, झ, ञ, ड, पाठः।।
1-238-37 दिदृक्षन्तश्च कौन्तेयं इति च, ज, झ, ञ, ज, पाठः।।
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