"ऋग्वेदः सूक्तं ४.५५" इत्यस्य संस्करणे भेदः
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पङ्क्तिः १:
को वस तराता वसवः को वरूता दयावाभूमी अदिते तरासीथां नः |
सहीयसो वरुण मित्र मर्तात को वो ऽधवरे वरिवो धाति देवाः
पर ये धामानि पूर्व्याण्य अर्चान वि यद उछान वियोतारो अमूराः |
विधातारो वि ते दधुर अजस्रा रतधीतयो रुरुचन्त दस्माः
पर पस्त्याम अदितिं सिन्धुम अर्कैः सवस्तिम ईळे सख्याय देवीम |
उभे यथा नो अहनी निपात उषासानक्ता करताम अदब्धे
वय अर्यमा वरुणश चेति पन्थाम इषस पतिः सुवितं गातुम अग्निः |
इन्द्राविष्णू नर्वद उ षु सतवाना शर्म नो यन्तम अमवद वरूथम
आ पर्वतस्य मरुताम अवांसि देवस्य तरातुर अव्रि भगस्य |
पात पतिर जन्याद अंहसो नो मित्रो मित्रियाद उत न उरुष्येत
नू रोदसी अहिना बुध्न्येन सतुवीत देवी अप्येभिर इष्टैः |
समुद्रं न संचरणे सनिष्यवो घर्मस्वरसो नद्यो अप वरन
देवैर नो देव्य अदितिर नि पातु देवस तराता तरायताम अप्रयुछन |
नहि मित्रस्य वरुणस्य धासिम अर्हामसि परमियं सान्व अग्नेः
अग्निर ईशे वसव्यस्याग्निर महः सौभगस्य | <br>
तान्य अस्मभ्यं रासते
उषो मघोन्य आ वह सून्र्ते वार्या पुरु | <br>
अस्मभ्यं वाजिनीवति
तत सु नः सविता भगो वरुणो मित्रो अर्यमा | <br>
इन्द्रो नो राधसा गमत
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