संस्कृतनाट्यकोशः
डा. रामसागर त्रिपाठी
१९९४
संस्कृतनायकोश डॉ. रामसागर त्रिपाठी

॥श्रीः ॥
व्रजजीवन प्राच्यभारती ग्रन्थमाला लगिर
६९

संस्कृत-नाट्य- कोश
( प्रथम खण्डः नाटक-कोश)

लेखक
डा. रामसागर त्रिपाठी
ने सर्व प्रतिष्ठितम्

चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान
३८, यू.ए. बंगलो रोड, जवाहर नगर

दिल्ली- ११०००७

( भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के प्रकाशक तथा वितरक)
३८ यू०ए, जवाहर नगर, बंगलो रोड
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संस्कृत संस्थान

प्रकाशक
चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान
भवन लखनऊ
सर्वाधिकार सुरक्षित

प्रथम संस्करण १९९४.त्रिपा | रा/ स
मूल्य : ४००००
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THE
VRAJAJIVAN PRACHYABHARATI GRANTHAMALA
69

SANSKRIT NATYA KOŚA
(VOL. I: NATAKA KOŚA)
By
DR. RAMSAGAR TRIPATHI


CHAUKHAMBA SANSKRIT PRATISHTHAN
38, U.A., Bungalow Road, Jawaharnagar,
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First Edition : 1994
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समर्पण

डा. नगेन्द्र के चरणों में जिनके वदान्य आशीर्वाद ने मुझ जैसे पर:शत लेखको को साहित्य-साधना में प्रवृत्त किया है। संकेताक्षर - इति. पा. ना.अनु.का. ना.अभि. ना.आ. - - अनुवादअनुवादक - इतिहास पात्र नाट्य अनुवादकार - नाट्य अभिनेता - नाट्य आश्रय नाट्य उपजीव्य नाट्य उपयोगीपात्र - नाट्यकार आश्रयदाता नाट्यकार सम्बन्धी नाउप. नाडपा. - नाका.आ.दा. नाका.सं. नाकृ ना.कृ.सं. नाटीका, ना..यो. नाट्यकृति संवलित -- नाट्य टीकाकार - - नाट्यतत्व योजक नाट्यप्रयोजक ऋकसूक्त नाट्यप्रसारभारती नाद ना.पा. नाप्रभृसू. नाप्रभा. नाव. ना वि. नासं नासा. नासा.पा. नासा:सं. - नाट्य संग्रह -- नाट्य साहित्य -- नाट्य सामान्य पात्र - - नाट्य साहित्य संकलन नास्थ वेसा. वे.सू. शि.भू. वेद साहित्य - वेद सूक्त शिंगभूपाल शृङ्गार प्रकाश - सन् (ईसवी) संवत्/संख्या प्र. साका. साना.पा. - सामान्य नाट्यपात्र ( एक ) अपनी बात बात १०-१२ वर्ष पुरानी है डा. नामवर सिंह के निर्देश पर भरत के नाट्य शास्त्र पर कार्य करने के लिये एक परियोजना बनाई गई थी और उसके लिये यूज़ी.सी. ने अनुदान देना भी स्वीकार कर लिया था। किन्तु बाद में अधिक आयु के व्यक्ति को इतनी बड़ी योजना प्रारम्ण करना उचित नहीं समझा गया और वह स्वीकृति वापस ले ली गई। अनुदान की स्वीकृति की सूचना मिल जाने पर प्रारम्भिक तैयारी के रूप में वर्णानुक्रम से कुछ सामग्री सङ्कलित कर ली गई । किन्तु योजना के अस्वीकृत हो जाने पर उस कार्य को आगे नहीं बढ़ाया जा सका। वह सारी सामग्री उपेक्षित पड़ी रही। पिछले वर्ष कुछ मित्रों के परामर्श से उस अधूरे कार्य को पुनः हाथ में लिया गया और निश्चय किया गया कि उसे कोश-ग्रन्थ के रूप में सम्पादित कर प्रकाशित कराने का प्रयत्न किया जाय। समस्त कार्य को एक साथ पूरा करने में अधिक विलम्ब और फलतः उसके बीच में ही रुक जाने की सम्भावना थी। अतः निश्चय किया गया कि सम्पूर्ण कार्य को तीन खण्डों में प्रकाशित किया जाय- (१) संस्कृत नाटक परक, (२) नाट्य शास्त्रीय पारिभाषिक शब्दावली और (३) नाट्यशास्त्रोपयोगी उपरंजक कलाएँ। इसी योजना के आधीन साहित्य मर्मज्ञों की सेवा में प्रथम खण्ड प्रस्तुत करते हुये संकलनकर्ता (लेखक) प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है। दूसरे खण्ड की भी तत्कालीन संकलित लगभग २० प्रतिशत सामग्री विद्यमान है। यदि परमपिता ने अवसर और सुयोग प्रदान किया तो लेखक दूसरे खण्ड को लेकर भी साहित्यज्ञ-समाज के सम्मुख उपस्थित होने का प्रयत्न करेगा ऐसी आशंसा है। संस्कृत साहित्य का प्रभावी विस्तार हजारों वर्षों की सीमावधि में फैला हुआ है जिसके संरक्षण की प्राचीन काल में कोई व्यवस्था नहीं रही। हजारों की संख्या में प्राचीन पुस्तकों की हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ राजघरानों के पुस्तकालयों में भरी पड़ी हैं। उन्हें व्यवस्था देना श्रमसाध्य कार्य है। पाश्चात्य विद्वानों और उनके पदचिन्हों पर चलने वाले कतिपय भारतीय अनुसन्धाताओं ने इस दिशा में कुछ कार्य किया है। किन्तु फिर भी अनेकशः निश्चयात्मकता का अभाव बना हुआहै। कवियों और कलाकारों का व्यक्तित्व, उनका समय, उनकी कृतियों का विस्तार आदि सभी कुछ अतीत के गर्भ में विलीन हो गया है। कहीं केवल पुस्तकों का नाम शेष रह गया है; कहीं पुस्तकें तो मिलती हैं किन्तु उनके लेखक का पता नहीं। कहीं अधूरी पुस्तकें मिलती हैं। जो साहित्य उपलब्ध भी हैं उनके अधिकांश लेखकों का समय निश्चित नहीं है। सभी कुछ अनुसन्धान सापेक्ष है। अनेकशः वास्तविकता के निकट पहुंचने के लिये कल्पना और सम्भावना का सहारा लेना ( दो ) पड़ता है। संरक्षण की व्यवस्था बन जाने के कारण आधुनिक कृतियों के विषय में ऐसी सन्देह की स्थिति नहीं के बराबर है। प्रस्तुत कृति में संस्कृत नाटकों के विषय में जो भी सामग्री सुलभ है उसका संकलन कर दिया गया है। जो रचनायें साहित्य जगत में प्रतिष्ठित हो चुकी हैं उनका कुछ अधिक विस्तृत परिचय दिया गया है और उनके प्रमुख पात्रों की चरित्रगत विशेषताओं का भी यथास्थान संक्षिप्त परिचय दे दिया गया है। परिशिष्ट में रचनाओं की रचना एवं प्रस्तुतीकरण प्रक्रिया एवं भूमिका में सामान्य सर्वेक्षण प्रस्तुत किया गया है। । प्रस्तुत कृति के प्रस्तुतीकरण में लेखक को प्रशस्त सहयोगी डा. अशोक गांगुली एवं डा. पी.सी. जैन से प्रोत्साहन के साथ साहित्य सामग्री की भी सुविधा प्राप्त हुई है। डा. हरदयाल ने परामर्श से लेखक को कृतार्थ किया है। लेखक अन्तस्तल से इन अकारण बन्धुओं का अभारी है। समय समय पर प्रतिवेशी डा. विद्याभूषण भरद्वाज एवं उनकी पत्नी डा. स्वर्ण कान्ता के साथ विचार विमर्श हुआ है। पौत्री कु. ज्योति त्रिपाठी से भी यत्किञ्चित् सहायता प्राप्त हुई है। ये सभी व्यक्ति लेखक के धन्यवाद के नहीं आशीर्वाद के अधिकारी हैं। प्रकाशन की त्वरा के लिये चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान के अधिकारी श्री वल्लभ देव भी प्रशंसा और धन्यवाद के पात्र हैं। लेखक आशंसा करता है कि संस्कृत नाटक साहित्य के जिज्ञासु इससे कुछ सन्तोष लाभ अवश्य कर सकेंगे। रा.सा. त्रिपाठी ( तीन ) भूमिका संगीत, नृत्य, कहानी, अभिनय, नाट्य का उदय मानव की जन्मजात प्रवृत्ति से ही होता है। किसी भी भावनाप्रवण कविता को सस्वर पढना और सुनना ही पसन्द किया जाता है, जब कोई मनोवाञ्छित सूचना मिलती है सामने आती है और मन या घटना किसी भावना से भर जाता है तब पैर स्वतः थिरक उठते हैं, कहानी का कहा और सुना जाना मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। बचपन से लेकर परिणतआयुपर्यन्त प्रत्येक व्यक्ति कहानी कहने और सुनाने में आनन्द लेता है। जब कोई व्यक्ति किसी प्रकार ऐसी घटना को सुनाता है जिसका उसकी भावना पर प्रभाव पड़ा है और वह सुनने वालों पर वही प्रभाव डालना चाहता है तब उसके हाथ पैर नेत्र इत्यादि अंग स्वतः अभिनय में प्रवृत्त हो जाते हैं। ऐसी घटना सुनाने वाला कहने वाले की आवाज बनाकर उसकी नकल करता है । कहने वाले ने जो हाथ के इशारे किये होंगे, जिस प्रकार वह चला होगा इस सबकी नकल करेगा। जिन शब्दों का उसने प्रयोग किया होगा उन्हीं का सुनाने वाला अनुकरण करेगा। आशय यह है कि अनुकरण अथवा अभिनय मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्ति है। ये सभी एकाकी तत्व सौन्दर्य की सृष्टि करने वाले तत्त्व हैं जो आनन्द साधना में कारण होते हैं। नाट्य इन सबका संघात है। यह दृश्य और श्रव्य दोनों रूपों में आनन्द की सृष्टि करता है। समस्त ललितकलाओं में काव्य मूर्धन्य माना जाता है। काव्य में भी नाट्य का अधिक महत्व है। वामन ने कहा है- ‘सन्दर्भ में दशरूपक (नाटक इत्यादि) श्रेष्ठ हैं, क्योंकि सभी गुणों से परिपूर्ण होने से वहाँ (नाटक इत्यादि) चित्रपट के समान विचित्र रूप वाला है। पाश्चात्य विद्वान् प्रोस ने भी कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं। उनके अनुसार पिछड़ी जाति की प्रत्येक कहानी एक नाटक होती है, क्योंकि कहानी कहने वाला साधारण रूप में कहानी सुनाकर ही सन्तुष्ट नहीं होता, किन्तु वह अंगसञ्चालन. भावव्यञ्जक स्वरलय इत्यादि से वाणी को नवीनता देकर अपने वर्णन में जीवन का सञ्चार करना चाहता है। वह घटना को नाटक बना देता है। बच्चे और अशिक्षित व्यक्ति भी इस स्थिति में नहीं होते कि किसी भावना को बिना उस प्रकार की आकृति बनाये और उसी प्रकार की चेष्टायें किये व्यक्त कर सकें। इस प्रकार सभी प्रकार की कविता का मूल उद्गम नाट्यकला से ही होता है। एक अमेरिकन विद्वान ने विभिन्न राष्ट्रों के प्रगीतों का अध्ययन कर निष्कर्ष निकाला था और स्पष्ट किया था कि सभी प्रगीतों का वाचन मौलिक रूप में सर्वदा संगीत और नाटकीय नृत्य से समन्वित होता है। अत: यह कथन सत्य प्रतीत होता है कि, लोकप्रिय नाटक का विकास सर्वदा संगीत और नृत्य से होता है। गोटेस्कल ने १. (सन्दर्येषु दशरूपक श्रेय१-३-३० तद्धि चित्रं चित्रपटवद्विशेषसाकल्यात् १-३-३१ काव्यसूत्र) ( चार ) कहा है कि नाटक कविता की कली है; प्रगीत और कथा साहित्य का मेल है, वास्तविक घटना की सतत गतिमान प्रफुल्लता है जो आने वाली पीढी की भावना के मेल में स्वयं को विकसित कर लेती है। भारतीय नाटक साहित्य का सीमा विस्तार भारतीय साहित्य का ही नहीं विश्व साहित्य का सर्वप्राचीन काव्यसंकलन, ऋग्वेद माना जाता है। जैसा कि उक्त विवेचन से सिद्ध है कि प्रत्येक प्रगीत नाट्यमूलक या नाट्यपर्यवसायी होता है। अत: नाटक साहित्य का भी उद्गम ऋग्वेद से ही माना जाता है। उस समय से लेकर आज तक अप्रतिहतगति से संस्कृत नाटकों की रचना हो रही है। इस प्रकार नाटक साहित्य का परिणाह सैकड़ों नहीं हजारों वर्षों की कालावधि में व्याप्त है। सुविधापूर्वक इस नाटक साहित्य परम्परा को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है- (१) आदिकाल- वैदिक युग से ईसवी सन् के प्रारम्भ तक; (२) मध्यकाल- ईसवी सन् के प्रारम्भ से १९वीं शताब्दी के अन्त तक और (३) आधुनिक काल- बीसवीं शताब्दी। आदिकाल अथवा अन्ययुग इस काल की कोई पूर्ण नाट्यकृति प्राप्त नहीं होती। ऐसा स्वाभाविक भी है। जैसाकि मैक्समूलर ने कहा है भारतीय और यूनानियों की मनोवृत्तियां विरोधी दिशाओं में जाने वाली थीं। भारतीय लोग जीवन को असारअसत्य मानते थे तथा जीवन का उनका अन्तिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना था जबकि यूनानी लोग जीवन को पूर्ण सत्य मानते थे और भौतिक उन्नति को सर्वाधिक महत्व देते थे। यही कारण है भारतीय भावुक कवि समाज अपनी रचनाओं के साथ अपना नाम सुरक्षित रखने के लिये उत्सुक नहीं था। उसे केवल अपनी रचना को सुरक्षित रखने की चिन्ता थी । अत: वह अपनी रचनाओं को समाज में महत्ता प्राप्त महान लेखकों के नाम से प्रसिद्ध करता था जिनके लिये उसका विश्वास था कि उसकी रचना प्रतिष्ठित रहेगी और चलती भी रहेगी। यही कारण है कि वेदव्यास के नाम पर चारो वेद, सभी पुराण, उपपुराण आदि अनेक रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। यह साहित्यराशि इतनी विशाल है कि एक व्यक्ति की जीवन साधना तो हो ही नहीं सकती किसी एक युग में भी इतना साहित्य लिखा नहीं जा सकता। इसका आशय यह नहीं है कि यह साहित्य उच्चकोटि का नहीं है। इस विषय में मैकडानल का यह कहना महत्वपूर्ण है कि किसी भी पाश्चात्यसाहित्य में किसी एक विषय में १० अच्छी कवितायें संकलित करना कठिन हो जायेगा जबकि वैदिक साहित्य में उषा इत्यादि किसी भी प्राकृतिक तत्व के विषय में बात की बात में ५०० उच्चकोटि की कविताओं को संकलित कर देना एक साधारण सी बात होगी। वेदों की उच्चकोटि की रचनाओं पर सारा साहित्यसमाज मन्त्रमुग्ध है, यहां तक कि पाश्चात्य विचारकों को वेदों की इतनी प्राचीनता पर भी सन्देह १. (दे. विण्टर नित्ज 'हिटी आफ इण्डियन लिटरेचर' तृतीय भाग पू. १७९) ( पांच ) होने लगा है। इन लोगों का कहना है कि सहृदयता और भावुकता से ओतप्रोत भारतीयमानस वेदों की रचना के बाद हजारों वर्ष मौन रह ही नहीं सकता था। निश्चित ही यह रचना उतनी पुरानी नहीं हो सकती जितनी की भारत में समझी जाती है। आशय यह है कि उस काल में नाटक के क्षेत्र में कितना साहित्य लिखा गया था इसका निश्चयात्मक उत्तर देने का साहित्य जगत के पास कोई साधन नहीं है। भारत में समस्त ज्ञान, विज्ञान, धर्म, दर्शन इत्यादि का मूलस्रोत वेद माना जाता है। जिस प्रकार हम अनेक प्रचीन उपाख्यानों का मूल वेद में तलाश करते हैं और पुराणों, बौद्ध, जैनों के अनेक कथानकों का सातत्य वहीं से स्वीकार करते हैं उसी प्रकार नाटकों का मूल भी वेदों में ही होना चाहिए। वेदों को संहिता कहा गया है जिसका अर्थ होता है संकलन । ज्ञात होता है वेद में विखरी हुई ललित काव्यराशि का संकलन किया गया है। संकलन का स्वभाव होता है कि छांटकर अच्छे भाग को संकलित कर दिया जाता है और साधारण भाग की ठपेक्षा कर दी जाती है। वेदों में जो अनेक संवाद सूक्त पाये गये हैं उनके विषय में कल्पना की गई है कि ये वस्तुतः किसी नाटक के अंग होंगे जिनमें पद्यों और गीतों के साथ गद्य भी समाविष्ट रहा होगा। संकलन कर्ता ने गद्य भाग छोड़ दिया, केवल पद्यों का संकलन कर दिया। सम्भवतः ये सूक्त किसी नाटक का अंग रहे होंगे। यह स्वाभाविक भी प्रतीत होता है। इसे हम आज के सन्दर्भ में भली भांति समझ सकते हैं। टेलीविजन के चित्रहार में विभिन्न फिल्मों के संकलित भाग दिखलाये जाते हैं। जिनमें गद्य की प्रायः उपेक्षा ही की जाती है, केवल पद्य भाग का संकलन किया जाताहै। ओल्डेन वर्ग की सम्मति में आख्यानक सूक्तों की व्याख्या गद्यपद्यात्मक कथानक की ओर लौटकर ही उस कथानक के प्रकाश में ही की जा सकती है संकलन में जिसका पद्यभाग ही हम तक पहुंचा है और उस पद्य के आधार पर ही पूरे कथानक का उन्नयन करना पड़ता है ।इस प्रकार के कथानक कुछ तो ब्राह्मण ग्रन्थों में मिलते हैं; पुराणों, जैन साहित्य और बौद्ध साहित्य में कभी कभी इन प्रगीत सूक्तों की पृष्ठभूमि प्राप्त हो जाती है। एसलेवी, जे. हलेंट और वाना एल.वी. श्रोडर के मत में ये संवाद सूक्त प्रगीत कमोवेश पूर्ण नाटक हैं। विण्टनित्ज का कहना है कि हो सकता है ये संवादसूक्त वास्तविक पूर्ण नाटक न हों फिर भी ये आदिकालीन मानव के अविकसित प्रारम्भिक नाटक हों। वास्तव में ये आख्यान सूक्त हैं और उन्हें आदिमानव के नाटक या प्रांत काव्यमात्र कहा जा सकता है। पुरुरवा उर्वशी सूक्त की व्याख्या शतपथ ब्राह्मण में आये तत्संबद्ध कथानक के परिशिष्ट रूप में ही की जा सकती है। ऋग्वेद के संवादसूक्तों का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। उनमें पुरुरवा उर्वशी सूक्त शृङ्गार रसात्मक रचना है; यमयमी सूक्त शृङ्गारसाभासव्यञ्जक रचना है। सरमापणि सूक्त १. (दे. विष्टनिब का हिटी आफ इण्डियन लिटरेचर भाग ३ पू. १८०) २. (वही. पू. १८० ( छ: ) कूटनीति परक है, अग्नि के खेद, विवाद, मनोरंजन इत्यादि अनेक भावनाओं का इनमें समावेश है। ऋग्वेद के इन सूक्तों के अनुकरण पर ही बाद में अथर्ववेद में मी (५११) पर एक संवादसूक्त आया है। वैदिक युग के समाप्त होने के समीप भी इस प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं जिनमें गद्य के अन्दर इस प्रकार के पद्यखण्ड जोड़ दिये गये हैं। गद्य और पद्य की भाषा में भेद है। पद्य की भाषा ऋग्वेद की परवर्ती भाषा से मिलती जुलती है। इस प्रकार के परवर्ती सूक्तों में ब्राह्मण ग्रन्थों मे सुपर्णाध्याय आता है जिसमें महाभारत में आई हुई कडू, विनता और गरुड को कथा का प्रतिरूप पाया जाता है। इसी प्राकर ऐतरेय ब्राह्मण में शुनः शेष की कथा आती है। निरुक्त एवं उपनिषदों में भी कई छोटे छोटे कथानक मिलते हैं। निरुक्त में वैदिक सूक्तों के सन्दर्भ में इस प्रकार के कथानक दिये गये हैं। यदि यह कल्पना सही मानी जाय कि अनेक सूक्त नाटक रचनाओं से संकलित किये गये हैं तो उसके लिये संवाद सूक्तों तक सीमित रहना ही उचित नहीं होगा। अनेक अन्य सूक्तों की भी इसी प्रकार की व्याख्या की जा सकती है जिनमें उच्चकोटि की कविता और पारिवारिक परिस्थितियों का चित्रण किया गया है। उषा अनेक रूपों में हमारे सामने आती है। यह द्यौः की चमकीली कन्या एवं काली रात्रि की प्रभाशालिनी बहन है। यह अपने प्रेमी के प्रकाश से प्रकाशित होती है। सूर्य उसके पीछे से उसके मार्ग पर प्रकाश रश्मियां विकीर्ण करता है और उसके पीछे इसी प्रकार चलता है जैसे एक तरुण पुरुष किसी तरुणी के पीछे उसका पदानुसरण करता है। वह एक नर्तकी है जो शृङ्गार कर पूर्व में आकर खड़ी होती है और अपने स्तनों का प्रदर्शन करती है। विवाह विषयक सूक्त सामाजिक जीवन पर अच्छा प्रकाश डालता है। चन्द्रमा सूर्य की पुत्री सूर्य का प्रेमी है! सूर्या स्वयं चन्द्रमा को पति रूप में चाहती है। विवाह का प्रस्ताव लेकर अश्विन पिता सूर्य के पास जाते हैं। सूर्य उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते हैं और पुत्री को उसके चाहे हुये पति के घर भेज देते हैं। उसको ले जाने के लिये दो पहियों वाली गाड़ी पुष्प से सजाई जाती है। विवाह विधि में यज्ञाग्नि के चारों ओर परिक्रमा की जाती है। तब वरयात्रा पर आशीर्वादों में आशंसा की जाती है और यह आकांक्षा व्यक्त की जाती है कि नवविवाहित दम्पत्ति बहुत अधिक सन्तान प्राप्त करें, सम्पन्नता, दीर्घजीवन और रोगों से निर्मुक्ति का आनन्द लें। तब वधू का हाथ वर के हाथ में दिया जाता है। वर वधू का हाथ पकड़ते हुये कहता है गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्याजरदष्टिर्यथासः। भगो अर्यमा सविता पुरन्ध्रिर्मह् त्वादुर्गार्हपत्याय देवाः॥ [हम तुम्हारा हाथ पकड़ रहे हैं जिससे हमें अच्छा सौभाग्य प्राप्त हो। मुझ पति के साथ तुम वृद्धावस्था प्राप्त करो, मग, अर्यमा, सविता, पुरन्ध्रि इन सब देवताओं द्वारा मेरे घर में भाग लेने के लिये तुम मुझे प्रदान की गई हो। ( सात ) इसके बाद प्रदान करने के लिये (कन्यादान करने के लिये) अग्निदेव को बुलाया जाता है- ‘हे अग्निदेद प्रकाशमान सूर्य को पहले उन लोगों ने वधू समूह के साथ तुम्हारे सम्मुख उपस्थित किया; इसलिये अपनी वारी में पति को पली प्रदान करो और साथ ही उसे सन्तति परम्परा का आशीर्वाद दो।' इसके बाद विदा और पति के घर में प्रवेश का अवसर आता है- ‘यहीं रहो; वियुक्त मत हो, विस्तार कर और अपने पुत्रों पौत्रों के साथ खेलते हुये अपने ही घर में आनन्द भोगते हुये जीवन को दिये हुये पूरे विस्तार को प्राप्त करो।' उषा की बहन निशा भी एक महत्वपूर्ण युवती है। उषा को सूर्य चमकाता है। किन्तु निशा नक्षत्रों से अपना शृङ्गार स्वयं करती है। वह सूर्य के अश्य हो जाने पर स्वयं को सजाती है और अपने पास से उषा को भगा देती है। अदिति देवताओं की मां है। उसका पुत्र शक्तिशाली वरुण है। वरुण की भांति ही उसमें भी शारीरिक यन्त्रणाओं और नैतिक अपराधों से छुटकारा देने की शक्ति है। वह मां जो ठहरी। सरस्वती भी उच्च देवियों में एक है। पारिवारिक जीवन के अतिरिक्त सामाजिक राजनैतिक और युद्ध सम्बन्धी सूक्त भी पाये जाते हैं। राजनैतिक और युद्ध सम्बन्धी सूक्तों में वीर रस की प्रधानता है। सरमापणि संवाद कूटनीति विषयक हैं। यह पणिनामक असुरों द्वारा अपहृत गायों के विवाद को लेकर इन्द्र की दूती सरमा और पणियों के बीच हुआ है। कबीलों के जातीय संघर्ष की छाया भी ऋग्वेद के सूक्तों में पाई जाती है। पांच जातियां- पुरु, तुर्वश, यदु, अनु और दृढ़ निरन्तर जातीय संघर्ष में लिप्त रहती थीं। इनका प्रायः वर्णन इस रूप में किया गया है कि इनमें चार जातियों ने त्रित्सुओं के राजा सुदास के प्रतिकूल संगठन बना लिया था और अन्य कुलों के कतिपय अन्य राजाओं का सहयोग लेकर १० राजाओं ने परुष्णी नदी के तट पर महायुद्ध लड़ा था। परुष्णी नदी की धारा को पार करने और उसमें अवरोध उत्पन्न करने के प्रयत्न में त्रित्सुओं ने दस राजाओं की संगठित सैन्यशक्ति को पराजित कर दिया था; उन्हें पीछे ढकेल दिया था। इस युद्ध में त्रित्सुओं ने १० राजाओं की संगठित सैन्य शक्ति का महाविनास किया था। पुरुजाति सरस्वती के तट पर रहती थी । ऋग्वेद में उनके राजा त्रसदस्यु का उल्लेख किया गया है जो पुरुकुत्स के पुत्र थे। ऋग्वेद में उनके शक्तिशाली राजकुमार तुझी का उल्लेख किया गया है। तुर्वश लोगों के साथ यदु भी सम्मिलित थे। अनु लोग परुष्णी के तट पर रहते थे। ज्ञात होता है कि कण्व लोगों का पुरोहितों का परिवार तुर्वश से सम्बद्ध था और भृगुओं का परिवार अनुजाति वालों का पुरोहित था। उन लोगों का निकटवर्ती सम्बन्ध द्रुह्य लोगों से भी था। ऋग्वेद में मत्स्य जाति का भी उल्लेख किया गया है। त्रित्सु लोगों के शत्रुओं में उनका भी उल्लेख किया गया है। महाभारत के अनुसार मत्स्य लोग यमुना के तट पर रहते थे। । ( आठ ) सुदास के शत्रुओं में सर्वधिक शक्तिशाली भरत लोग थे। विश्वामित्र ने अपनी प्रार्थनाओं से विपाशा नदी के जल में त्रित्सुओं द्वारा उतरने योग्य बाँध बना दिया था। बाद में त्रित्सुओं के सहायक पुरोहित वशिष्ठ हो गये और भरत लोगों का साथ विश्वामित्र ने दिया। इसी प्रसंग में वशिष्ठ और विश्वामित्र एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी बन गये। युद्ध में वशिष्ठ की मन्त्रणा से संरक्षित त्रित्सु लोग विजयी हुये थे। विश्वामित्र के पूर्वज कुशिक भरतों से निकट रूप में संबद्ध थे। भरतों का यही प्रदेश ब्रह्मावर्त और कुरुक्षेत्र नाम से प्रसिद्ध हुआ। दस राजाओं के संगठन ने परुष्णी को पश्चिम की ओर से पार करने का प्रयत्न किया था जिसको त्रित्सुराज सुदास ने ५ राजाओं के सहयोग से रोका था। सुदास के सहयोगियों का उल्लेख नहीं किया गया है। सम्भवतः स्ॐय उनके सहयोगी थे। ऋग्वेद में पाश्चालों का उल्लेख नहीं है। कुरुओं का भी प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं पाया जाता । महाभारत का युद्ध कुरु पांशाल युद्ध ही कहा जाता है। ये दोनों जातियां अत्यन्त प्रतिष्ठित हैं। इन जातियों का उत्थान बाद में हुआ। ऋग्वेद की महत्वपूर्ण जातियां त्रित्सु, तुर्वश इत्यादि बाद में लुप्त हो गई। ऋग्वेद काल की कई जातियां या तो दूसरे नाम से प्रसिद्ध हो गई या उनका समावेश दूसरी जातियों में हो गया। ऋग्वेद में भरत और कुरु पृथग् जातियां जो महाभारत काल तक आते आते एक हो गई और उनके नाम पर ही कुरुराज्य की स्थापना हुई। यह भी असम्भव नहीं है कि त्रित्सुओं का विलय भी कुरुराज्य में हो गया हो। पाञ्चाल का निर्माण भी अनेक जातियों के मिलन से बना था। पाश्चल का अर्थ ही है ५ जातियों के मेल से बनी जाति । वैदिककाल की कुछ जातियाँ महाभारत काल तक स्वतन्त्र सत्ता बनाये रहीं जिनमें उशीनर सृञ्जय, मत्स्य और चेदि प्रमुख हैं। महाभारत काल तक यदु जाति यादव रूप में अपनी सत्ता बनाये रही जिसमें कृष्ण का अवतार हुआ था। ऋग्वेद में जातीय संघर्षों का उल्लेख किया गया है। यदि विचारकों के इस कथन में सत्य का अंश है कि ऋग्वेद के अनेक सूक्त नाटकों के गीतों से लिये गये हैं तो हो सकता है कि क्षेत्र की और इस काल की कतिपय नाट्यकृतियां विद्यमान रही हों जिनमें आये हुये गीतों का सूक्तों के रूप में इस संकलन में समावेश कर दिया गया हो। विण्टरनित्ज ने स्वीकार किया है कि अन्य देशों की भांति भारत में भी नाटक की गहरी जहुँ धार्मिक सम्प्रदाय में गड़ी हुई हैं। वैदिक कर्मकाण्डविधि में ऐसी अनेक व्यवस्थाओं का वर्णन किया गया है जिनको सीधे तौर से नाटक का एक प्रकार माना जाता है। वैदिक काल के बाद नाटक का सम्बन्ध इन्द्रध्वज महोत्सव से जुड़ गया। यह उत्सव वर्षाकाल की समाप्ति के बाद मनाया जाता था। सम्भवतः यह उत्सव उसी समय होता था जिस समय हम आजकल दीवाली का उत्सव मनाते हैं। कृष्ण का इन्द्रपूजा को हटाकर गोवर्धनपूजा स्थापित करना इसी तथ्य की ओर संकेत करता है। इसके बाद इन्द्र १. (उक्त विवरण मैक्डानल के आधार पर लिखा गया है । ( नौ ) की पूजा के स्थान पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश की पूजा प्रचलित हो गई और नाट्यकला में इन्हीं त्रिदेवों का प्राधान्य हो गया। इनमें प्रमुख स्थान कृष्ण को प्राप्त हुआ। विष्णु पुराण और श्रीमद्भावगवत में कृष्ण लीला के अन्तर्गत रास पञ्चाध्यायी में इस वास्तविकता के दर्शन होते हैं। श्रीमद्भावगवत में कथा इस प्रकार है ‘शरत् काल था; मल्लिकायें खिली हुई थीं; उद्दीपक वेला थी उसी समय प्राची दिशा के मुख को लाल करिणों से रंगता हुआ चन्द्रोदय हो गया। कृष्ण ने रमण की इच्छा से सुमधुर वंशी बजाई जिसमें मानो कामदेव का बीजमन्त्र ही बँक दिया हो । उस वंशी की ध्वनि से आकर्षित होकर झुण्ड के झुण्ड रमणियां अपना गृह कार्य छोड़ कर कृष्ण के पास एकान्त में जा पहुंची। पहले तो कृष्ण ने उन्हें सदाचार का उपदेश दिया फिर उनका विशेष आग्रह देखकर नृत्य करना प्रारम्भ कर दिया। कुछ समय नृत्य चलता रहा फिर अवसर देखकर युवतियों में कामदेव ने प्रवेश किया। कृष्ण यह देखकर एक गोपी को लेकर अन्तध्र्यान हो गये। (सम्भवतः यह गोपी राधा थी) उस गोपी को अपने सौभाग्य पर गर्व हुआ उसने थक जाने का बहाना किया। तब कृष्ण ने उसको कन्धे पर बैठने के लिये कहा और जब वह कन्धे पर बैठने की चेष्टा ही कर रही थी कि कृष्ण वहाँ से अन्तध्र्यान हो गये। इधर गोपियां कृष्ण को तलाश करती हुई भटक रही थीं। उसी समय वह गोपी भी आकर उनसे मिल गई। अब गोपियों ने मिलकर कृष्ण लीला का अभिनय प्रारम्भ कर दिया। एक गोपी कृष्ण बनी दूसरी पूतना, एक गोपी शकटासुर बनी दूसरी कृष्ण। इस प्रकार सभी गोपियां कृष्ण लीला का अभिनय करने लगीं। उसी अभिनय के बीच में मुस्कुराते हुए कृष्ण ने प्रवेश किया। वेदेतर साहित्य और नाटक व्याकरण पाणिनि ने दो नटसूत्रकारों का उल्लेख किया है- शिलाली और कृशाश्व ।' शैलानि ब्राह्मण के नाम पर एक वैदिक शाखा भी बतलाई जाती है। सम्भवतः यही शिलाली है। जिन्होंने नटसूत्रों की रचना की। एबी. कीथ का कहना है कि पाणिनि के समय के नटसूत्रकारों पर अविश्वास इसलिये होता है कि पाणिनि ने 'नटसूत्र' शब्द का तो प्रयोग किया है। नाटक शब्द का प्रयोग नहीं किया। पाणिनि के पास नाटक वाचक कोई शब्द है ही नहीं। दूसरी बात यह भी है कि भरत ने पाणिनि का उल्लेख नहीं किया है और न शिलाली एवं कृशाश्व के बारे में कुछ कहा है। किन्तु ये दोनों एतराज विचित्र हैं। पाणिनि नाट्यशास्त्र की नहीं शब्दशास्त्र की रचना कर रहे थे। शिलाली और कृशाश्व शब्दों से उनके सूत्रों के अध्येताओं के लिये शैलालिन और ‘कृशाश्विनः इन शब्दों की रचना में कुछ विलक्षणता हैं ‘शैलालिनःमें '३' को वृद्धि होती है 'कृशाश्विनःमें 'ऋ' को वृद्धि नहीं होती। इस १. (पराशर्यशिलालिभ्यां भिक्षुनट-सूत्रयोः ४..११० कर्मन्दकृशाश्वादिनिः ४.३.१११) ( दस ) वैषम्य को सिद्ध करने के लिये पाणिनि को दो सूत्र बनाने पड़े। नाटक के विषय में तो कोई विशेषता थी नहीं, उसमें तो सीधे नटधातु से ‘बुल' प्रत्यय होकर यह शब्द बन ही जाता । भरत द्वारा उल्लेख करना भी कोई सवल तर्क नहीं है। पाणिनि भरत से बहुत पहले हुये थे। इतने लम्बे समय में उन नट सूत्रों का गुम हो जाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं थी। वे नटसूत्र विद्यमान भी रहे हों किन्तु उनकी ओर भरत का ध्यान न गया हो यह भी असम्भव नहीं है। अतः इन तक के आधार पर इतना बड़ा निष्कर्ष निकाल लेना तर्क संगत नहीं कहा जा सकता कि ‘उस समय तक नाट्य कला विकसित हुई ही नहीं थी; अतः नटसूत्रों का क्षेत्र मूकामिनय तो हो सकता है; सामान्य अभिनय नहीं। इसमें यह निष्कर्ष निश्चित रूप से निकलता है कि उस समय तक नाटक रचना इस स्तर तक पहुंच चुकी थी कि उसको शास्त्रीयता के घेरे में बांधने की आवश्यकता भी अनुभव की जाने लगी थी और नटसूत्र लिखे जाने लगे थे। व्याकरण के दूसरे महान आचार्य पञ्जलि के कथन से तत्कालीन नाट्यरचना की सत्ता अधिक स्पष्टता से सिद्ध हो जाती है। भाष्यकार ने दो नाटकों का नाम लिया है कंसवध और वलिबन्ध। वहां यह प्रश्न उठाया गया है कि ये दोनों घटनायें बहुत पहले हो चुकी है उनमें वर्तमान काल का प्रयोग कैसे संगत हो सकता है। इसका उत्तर दिया गया है कि वर्तमानकालता तीन रूपों में सिद्ध होती है- (१) शौभिक जो रंगमश्च पर प्रत्यक्ष रूप से कंस का वध करते हैं या बलि-बन्धन करते हैं क्योंकि वह प्रत्यक्ष रूप में होता है अतः उसमें वर्तमानता संगत हो जाती है। (२) यही बात चित्र में होती है चित्र में कृष्ण द्वारा कंस का वध दिखलाया जाता , वहां उठाये एवं तैयार किये और गिराये जाते हुये प्रहार दिखलाये जाते हैं जिससे वर्तमानकालता आ जाती है और (३) ग्रन्थवाचक लोग मानव-समूह (श्रोताओं) के सामने कथा कहते हैं। तब वे जो भी वर्णन करते हैं उससे वर्तमानता आ जाती है। इस प्रकार इन तीनों साधनों से कंस की उत्पत्ति से लेकर मृत्युपर्यन्त उनका व्यक्तित्व की एक धारणा जनता की बुद्धि का विषय बन जाती है और जनता उसे प्रत्यक्ष दृष्टिविषय मानने लगती है। यहां कृष्ण और कंस के दो विरोधी स्वरूप मिश्रित रूप में बुद्धिगत हो जाते हैं। कुछ लोग कृष्णभक्त होते हैं; कुछ लोग कंसभक्त। उनके रंग का अन्तर भी बुद्धिगत हो जाता है- कोई कालामुख बनाकर आते हैं कोई लाल मुख। इस बुद्धिगत तत्व से सभी व्यवहार संगत हो जाते हैं। इसी लिये व्यवहार में तीनों काल भी संगत हो जाते हैं, जैसे- 'अब जाकर क्या करोगे कंस तो मार डाला गय’ (भूतकाल) 'जल्दी जाओ कंस मारा जा रहा है’ (वर्तमान) ‘कंस मारा जायेगा। कहा भी गया है शब्दोपहितरूपांश्व बुद्धेर्विषयतां गतान् प्रत्यक्षमिव कंसादीन् साधनत्वेन मन्यते [जिनका स्वरूप शब्दों द्वारा समीर्पत कर दिया जाता है और जो बुद्धि का विषय बन जाते हैं उन कंसादिकों को (परिशीलक) वध इत्यादि का साधन मान लेता है। ( ग्यारह ) अन्यत्र भी आचार्यों ने व्यञ्जनों के स्वर के साथ सम्बन्ध के विषय में लिखा है। कि व्यञ्जनों की स्थिति नटी जैसी है। जिस प्रकार नटी रंगमश्च पर जाकर जिसकी पत्नी का अभिनय करती है उसी की बन जाती है, उसी प्रकार व्यञ्जन भी जिल स्वर के साथ मिलते हैं उसी के उच्चारण में स्वयं को मिला देते हैं। पतंजलि ने दो नाटकों का उल्लेख तो किया है,नों और नट्याचार्यों की हीनदशा का भी विवरण दिया है। उसमें रंगोपजीवियों और पाजीवा स्त्रियों का भी उल्लेख है। इस प्रकार व्याकरण का साक्ष्य इस बात का पूरा प्रमाण है ईसवीं शती के प्रारम्भ होने के पहले भारत में नाट्यकला विकसित थी और इस दिशा में अनेक नाट्यकृतियों की रचना भी हो चुकी थी। पौराणिक साक्ष्य महाभारत में नाट्यसम्बन्धी नट, सूत्रधारशैलूष इत्यादि शब्द तो मिलते हैं, किन्तु उसमें पाश्चात्य विद्वानों की मान्यता के अनुसार इस विषय में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि महाभारतकार नाट्यकला से परिचित था या नहीं। इस विषय में महाभारत के परिशिष्ट हरिवंश में स्पष्ट रूप में नाट्यकला के विषय में कई अध्याय व्यय किये गये हैं। हरिवंश पुराण नाटक की सत्ता से ही नहीं उसके कतिपय भेदों से भी परिचित है। इसमें विष्णुवर्व के ८८८९९३९७ अध्याओं में नाट्यकला का उल्लेख किया गया है। प्रद्युम्न प्रभावती विवाह के प्रसंग में रामायण का नाट्यरूपान्तरण प्रस्तुत किया गया। उसमें वाल्मीकि का नामोल्लेख तो नहीं है किन्तु रामायण में प्राप्त सभी विशिष्ट घटनाओं का नाटकीय विवरण है और उसमें राम के विष्णु का अवतार होने का भी चित्रण किया गया है। रामावतार का उद्देश्य राक्षसराज रावण का वध बतालाया जाता है। साथ ही दशरथ द्वारा लोमपाद को पुत्री शान्ता के प्रदान किये जाने, शान्ता द्वारा महान मुनि श्री ऋषि के लाये जाने, चरित्र के अनुसार चारो भाइयों और ऋी ऋषि के वस्त्राभरण धारण कर नटों और नर्तकों द्वारा अभिनय किये जाने का समावेश है। इस अभिनय में छलिक (हल्लीसक) नृत्य का भी प्रदर्शन किया गया जिसमें शङ्गार और वीर तथा ताण्डव और लास्य दोनों का योग रहता है। इस उत्सव और नाट्य प्रयोग में कृष्ण-रुक्मिमी, बलराम रेवती ने भी अभिनेताओं के रूप में भाग लिया। नारद ने वीणा बजाईकृष्ण ने वंशी बजाई, अप्सराओं ने मृदंग बजाया। देव गन्धर्वो ने नृत्य गीत में योगदान दिया। इस अभिनय में रामकालीन वेषविन्यास नेपथ्य विधानक्रियाकलाप, पात्रों के संस्कार इत्यादि । को देखकर ठसकी सफलता पर सारा समाज मन्त्रमुग्ध हो गया। नाटक की सफलता पर जो प्रतिक्रियायें व्यक्त की गई वे भी महत्वपूर्ण थीं। दर्शकों ने उठ उठ कर अभिनन्दन। किया। अभिनय की सफलता पर प्रसन्न होकर दर्शक भावावेश में वस्त्राभरण इत्यादि। पुरस्कार में प्रदान करने लगे। इसमें आकाशचारी विमान और हाथी भी पुरस्कार में दिये ( बारह ) गये । रामायण के नाटकीकरण के अतिरिक्त कौवेररम्भामिसरण के अभिनय के भी उल्लेख किया गया है रामायणं महाकाव्यमुद्दिश्य नाटकीकृतम् । रम्भाभिसारं कौवेरं नाटकं ननृतुस्तदा॥ हरिवंश के अतिरिक्त, मत्स्य, विष्णुधमत्तर पुराण मार्कण्डेय पुराण इत्यादि दूसरे पुराणों में भी नाट्यसामग्री उपलब्ध होती है। भागवत में अभिनय का उल्लेख किया ही जा चुका है। मत्स्य पुराण और विष्णुधमोंतर पुराणों में नाट्यमण्डपों के निर्माण पर भी प्रकाश डाला गया है। अग्निपुराण में नगरनिर्माण एवं वास्तुकला के विवरण में नटों, नर्तकों, वेश्याओं आदि के निवास के लिये नगरों के दक्षिण में व्यवस्था का निर्देश किया गया है। आशय यह है कि यद्यपि हमें तत्कालीन पूर्ण नाटक के दर्शन नहीं होते किन्तु पुराणों में जिस प्रकार का नाट्य सम्बन्धी विवरण प्राप्त होता है उससे स्वभावतः अनुमान लगाया जा सकता है कि ठस समय किसी परिमाण में नाट्य रचनायें हुई होंगी जो कालक्रम से लुप्त हो गई । = नाट्य और धर्म नाट्य की उत्पत्ति और उसका विकास मूलरूप से धार्मिक वातावरण में हुआ। भरत के दिये हुये उपाख्यान के अनुसार उसकी उत्पत्ति में चारों वेदों और तीनों देवों का योगदान है। इसका प्रथम अभिनय इन्द्रध्वज महोत्सव में हुआ था जिसमें सर्वप्रथम ब्रह्मा के द्वारा लिखे हुये नाटकों के अभिनय की ही योजना की गई वेदोण्वेदैः संबद्धो नाट्यवेदो महात्मना। एवं भगवता सृष्टो ब्रह्मणा सर्व वेदिना। ठत्पाद्य नाट्यवेदं तु ब्रह्मोवाच सुरेश्वरम् । इतिहासो मया सृष्टः स सुरेषु नियुज्यताम् ॥ ना.शा.१-१८१९. अभिनय में प्रवृत्त होने वाले (अभिनेताओं) की भी प्रमुख विशेषता धार्मिक जीवन, वेद के रहस्य को समझना और साधना इत्यादि गुण ही माने गये थे। वे ही इसके प्रहण और धारण में समर्थ थे य एते वेदगुह्यज्ञा ऋषयः शंसितव्रताः एतेऽस्य ग्रहणे शक्ताः प्रयोगेधारणे तथा ॥ विनों के अपसारण के लिये जर्जर का निर्माण किया गया और सभी देवताओं ने अपनी अपनी विशेषतायें नाट्यकला को प्रदान कीं। दिशाओं विदिशाओं में विभिन्न देवताओं को रक्षा के लिये नियुक्त किया गया। नाटक के उद्घाटन में पूजा का महत्व माना गया और कहा गया कि नाट्य की सफलता के लिये पूजा विधि अनिवार्य है ( तेरह ) वलिप्रदानेहमैश्च मन्त्रौषधिसमन्वितैः। भोज्यैर्भक्ष्यैश्चपानैश्च वलिं समुपकल्प्यताम् ॥११२१ नर्तकोर्थपतिर्वापि यसूजां न करिष्यति । न कारयिष्यत्यन्यैर्वा प्राप्तोत्यपचयंतु सः॥ यथाविधि यथादृष्टं यस्तु पूजां करिष्यति । स लप्स्यते शुभानर्थान् स्वर्गलोकं च यास्यति ॥ इस प्रकार नाट्य की उत्पत्ति और उसके प्रचलन में पूजा एवं धार्मिकता का प्रमुख स्थान है। महाभाष्य में कंसवध और बलिबन्ध का उल्लेख किया गया है। दोनों नाटकों की धार्मिकता असन्दिग्ध है। इसमें कृष्णोपासना की प्रधानता है। रासमण्डल का प्रचलन इसका स्पष्ट प्रमाण है। धार्मिकयात्राओं में कृष्णलीला के दृश्य दिखलाये जाने की आम प्रथा है। कृष्ण के समान ही नाट्यकला में शिव और राम का भी महत्वपूर्ण स्थान है। वर्षाकाल के उपरान्त नगरों और गावों में रामलीला की योजना नाट्यकला में राम के महत्व की परिचायक है। नाट्य की स्वरूपस्थिरता में शिव-पार्वती के युग्म का महत्वपूर्ण स्थान है। इनके द्वारा प्रचलित लास्य और ताण्डव के समावेश से नाट्य प्रयोग में परिपूर्णता आती है। नाट् और नृत्य के उद्भव और विकास में शिव के नटराज रूप की अभ्यर्थना की जाती है। लिङ्गपूजा अनेक शताब्दियों से प्रचलित रही है। यूरोपीय विद्वानों ने एक और मैक्सिकों में प्रचलित लिंगनृत्यों के आधार पर भारतीय नाटकों का उद्भव भी लिंगपूजा से माना है। लिंगपूजा किसी रूप में वैदिक काल में भी प्रचलित रही है जिसका आर्यविरोधियों के रूप में ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है। लिंगपूजा सृष्टि की प्रक्रिया का एक रूप है जो प्रकृति और पुरुष के मिलन का प्रतीक है। प्राचीन साहित्य की अनुपलब्धि में कहा नहीं जा सकता भारतीय आर्यों को लिङ्गपूजा की इस असंस्कृत भावना ने किस सीमा तक प्रभावित किया। ऋग्वेद के प्रतिषेधात्मक विवरण को देखते हुये सम्भव तो यही लगता है की आर्य जाति ने यदि कभी शिव के रूप में नाट्यकला को अपनाया होगा तो वह आनन्दात्मक नटराज रूप ही होगा। वही रूप रसानुकूल है; लिङ्गपूजा उसके अनुकूल नहीं पड़ती। बौद्ध और जैन साहित्य में प्रारम्भ में नाट्यकला और उसकी उपरंजक कलाओं नृत्य गीत इत्यादि के प्रति वितृष्णा ही पाई जाती है सर्वं विलपितं गीतं सर्व नाट्यं विडम्बितम्। [सभी गीत विलाप हैं और सभी नाट्य विडम्बना हैं। किन्तु यह प्रतिरोधी भावना धीरे धीरे दबती गई और बौद्ध साहित्य तथा जैनागमों में उसके प्रति झुकाव कुछ बढ़ता गया। दिव्यावदान, अवदानशतक जैसे बौद्धग्रन्थों में ( चौदह ) भगवान बुद्ध के गुणों में उन्हें नाट्यगुणालंकृत भी कहा गया है। ललितविस्तर में भी हास्य, लास्य, नाट्य इत्यादि सभी कलाओं में मूर्धन्य बुद्ध ही है। नाट्य साहित्य के क्षेत्र में बौद्ध और जैन साहित्य का योगदान ठपेक्षणीय नहीं हो सकता। नाट्यशास्त्र साक्ष्य शास्त्र का काम सर्वदा लक्ष्य की व्यवस्था करना और उसे समीक्षा पूर्वक नये प्रतिमानों द्वारा बुद्धि गम्य बनाना होता है। लक्ष्य कभी भी कल्पित नहीं होता। उदाहरण के लिये भाषा एक स्वाभाविक प्रवाह में सतत गतिमान स्वाभाविक व्यवहार की वस्तु है। पाणिनि ने उसी प्रचलित भाषा को अपने सिद्धान्तों द्वारा परिष्कृत रूप में प्रस्तुत कर व्यवहर्ताओं के लिये बोधगम्य बनाया। भौतिक द्रव्यों और औषधियों में रोग निवृत्त करने की स्वाभाविक शक्ति है; आयुर्वेदज्ञ उसमें उस शक्ति का आधान नहीं करतेकिन्तु आयुर्वेद शास्त्रकार उन औषधियों को उपयोगी बनाने के लिये उनकी व्यवस्था और व्याख्यामात्र करने के श्रेय के अधिकारी है। प्रतिभा एक जन्मजात गुण है। उसके प्रकाश में जो अनुपम कलाकृतियां निर्मित होती हैं उनमें आनन्द देने की स्वाभाविक शक्ति सन्निहित होती हैं। कलाकार की उन्हीं कृतियों को शास्त्रकार सैद्धान्तिक व्यवस्थाओं में बाँध कर परिशीलकों के लिये सुज्ञेय बनाने का प्रयल करते हैं। काव्यशास्त्र के मूर्धन्य आचार्य आनन्दवर्धन ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि शास्त्रप्रवृत्ति लक्ष्यपरीक्षा पर आधारित होती है। ईसा की प्रथम शताब्दी के आसपास भरत का महान् ग्रन्थ नाट्यशास्त्र परिशीलकों के सामने आता है। निश्चित है कि नाटकों को जो शास्त्रीय रूप भरत ने दिया है उसके लक्ष्य प्रन्थ अवश्य रहे होंगे। स्वभावतः प्रश्न पैदा होता है अर्थप्रकृतियों सन्धियों सन्ध्यङ्गों एवं अथपक्षेपकों, पूर्वरंग और प्रस्तावना की जो व्याख्या और व्यवस्था भरत ने प्रस्तुत की है उस सबका आधार क्या था; क्योंकि उसकी पृष्ठभूमि में कुछ न कुछ कृतियां अवश्य रही होंगी। उनके अभाव में इस प्रकार के शास्त्र की रचना सम्भव ही नहीं थी। केवल इतना ही नहीं भरत की कृति को देखकर स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है उनके पहले भी नाट्यशास्त्र पर बहुत कुछ लिखा जाता रहा है। वर्तमान नाट्य शास्त्र के प्रथम अध्याय में भरत ने १०० शिष्यों का उल्लेख किया है जिनमें कई ऐसे हैं जिनका उल्लेख भरत के अतिरिक्त कई अन्य आचार्यों ने भी किया है और उनके नाम पर कतिपय सिद्धान्तों का भी निर्देश किया है। ऐसे आचायों में कोहल, दत्तिल, शालिकर्ण, वादरायण, नखकुट्ट, अश्मकुट् इत्यादि का नाम लिया जा सकता है। स्वयं भरत ने कहीं कहीं वंश परम्परागत (आनुवंश्य) श्लोकों के और कहीं कहीं सूत्रानुबद्ध आर्याओं के उद्धरण दिये हैं। इसमें लक्ष्यग्रन्थों के साथ शास्त्रीयग्रन्थों की भी परम्परा प्रमाणित होती है। नाट्यशास्त्र स्वयं में एक विश्वकोश (इन्साइक्लोपीडिय) जैसा ग्रन्थ है जिसमें नृत्य, नाट्य,नाट्यवृत्तियां, रूपक १. (बौद्ध नाट्य साहित्य के विषय में देखिये प्रस्तुत कृति का बौद्ध नाट्य साहित्य स्तम्) ( पन्द्रह ) भेद, विभिन्न प्रदेशों के रहन सहन, पहिरावा उढावा, नायकनायिका भेद, उनके सहायक, संगीत अभिनय इत्यादि नाट्योपयोगी सभी तत्वों का समावेश कर ठसे अभिनेताओं और नर्तकों सभी के लिये अपरिहार्य ग्रन्थ बना दिया गया है। भारतीय नाट्यकला पर एक प्रभाव की बहुत कुछ चर्चा की जाती है किन्तु भरत ने नाट्यविद्या के भेदोपभेदों में जिस मौलिक चिन्तन का परिचय दिया है वह सर्वथा नई तथा सर्वाङ्ग पूर्ण दिशा है। ग्रीक साहित्य में नाटक के केवल तीन प्रकार माने गये थे ब्रासदी,कामदी और उभयमिश्रण। किन्तु भारतीय भेदोपभेद कल्पना में सामाजिक, सांस्कृतिक आर्थिक इत्यादि का भी रसास्वादन के साथ विचार किया गया है। नाट्यशास्त्र के आचार्य ने नाट्य के प्रारम्भ, वस्तु के विकास बीज, फल, पताका,प्रकरी,पताका स्थानक, अथोपक्षेपक इत्यादि नाट्यरचना के विभिन्न उपयोगी सिद्धान्तों पर विस्तार पूर्वक विचार कर सबका उद्देश्य रसास्वादन निश्चित किया है उसके लिये वस्तु, नेता और रस की विविध व्याख्या प्रस्तुत की और सिद्धान्तित किया कि जिन नाट्यप्रयोगों में पूर्ण रसास्वादन के लिये सबका यथोचित मात्रा में सन्निवेश उचित बतलाया गया और यह सिद्धान्तत किया गया कि जिन नाट्य प्रयोगों में पूर्ण रसास्वादन की सम्भावना हो वे ही पूर्ण नाटक कहे जाने के अधिकारी हैं। वे ही प्रधान रूपक कहे जाते हैं। किन्तु इस प्रकार के नाटकों लिये जिन संविधानकों की आवश्यकता होती है वे कष्टसाध्य और व्ययसाध्य होते हैं। उनके लिये अधिक समय देना पड़ता है; खर्चाली रंगशालायें बनवानी पड़ती हैं। यह व्यवस्था बड़े शहरों और श्रीमानों के लिये तो सुलभ है उनसे आम जनता का व्यापक परिमाण में अनुरञ्जन नहीं हो सकता। सर्वसाधारण के अनुरञ्जन के लिये छोटे छोटे सरल नाट्यों की योजना आवश्यक होती है जिनमें अपेक्षाकृत व्यय भी कम हो और रंगशालायें भी इतनी छोटी हों कि या तो थोड़े समय में ही जमाई जा सकें या उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाई जा सकें। साथ ही अभिनय के लिये छोटे छोटे कथानक होने चाहिये जिनमें समय भी कम लगे और उनके लिये प्रशिक्षण और अभ्यास (रिहर्सल) भी कम अपेक्षित हो। इसी उद्देश्य से भारतीय आचार्यों ने प्रधान रूपकों के साथ छोटे छोटे अप्रधान रूपकों की भी कल्पना की । कहा जाता है पिछले दिनों यूरोप में भी लघुनाटक आन्दोलन चला था । नाटक शब्द की निष्पत्ति णट् धातु से हुई है जिसका अर्थ है नृति या नाचना। वस्तुतः इसका सम्बन्ध नृती गात्रनिक्षेपे’ धातु से है जिसका अर्थ होता है अंग संचालन अर्थात् आङ्गिक अभिनय । इस प्रकार 'नाटक' का विशेष सम्बन्ध नृत्यकला से है। नृत्य के साथ संगीत का भी उपकार्योपकारक भाव सम्बन्ध है। एक दूसरी धातु ’नट’ अवस्पन्दन अर्थ में भी है जिसका अर्थ है द्रवित होना। इस प्रकार ’नटके क्रियाकलाप को नाटक की संज्ञा दी जाती है। नट के क्रिया कलाप से नृत्य, गीत, अभिनय, हृदय के द्रवित हो १. (इन पर विचार संस्कृत नाट्यकोश के दूसरे खण्ड का विषय है। सुविधा के लिये परिशिष्ट में इन विषयों का संक्षिप्त परिचय दे दिया गया है। वहीं देखना चाहिये । ( सोलह ) जाने का भाव ये सब तत्व सम्मिलित हो जाते हैं। अभिनय में वेषभूषा भी आ जाती है। आशय यह है कि नाटक शब्द में ही चारो प्रकार के अभिनय सम्मिलित हो जाते हैं- कायिक, वाचिक, सात्विक और आहार्य। शास्त्रीय पारिभाषिकता के अनुसार नाटक एक प्रकार की विधा है या एक विशिष्ट प्रकार है। अत: आचायों ने सामान्य अर्थ में एक नये शब्द ‘रूपक' को अपनाया है जिसका अर्थ है रूप का आरोप कर अभिनय में प्रवृत्त होना। कुछ रूपक ऐसे होते हैं जिनमें सभी प्रकार के अभिनयों का अवसर होता है; इस प्रकार के अभिनयप्रधान रूपकों को सामान्य रूपक कहा जाता है इनके अतिरिक्त कतिपय अन्य प्रकार के रूपक ऐसे भी होते हैं जिनमें सामान्य अभिनय की नहीं नृत्य गीत की प्रधानता होती है। इस प्रकार के रूपकों को उपरूपक की संज्ञा दी जाती है। रूपक दो प्रकार के होते हैं- सभी नाट्यांगों का संघात रूप में अभिनय और आस्वादन। इन्हें प्रधान रूपक कहा जाता है। जिन रूपकों को परिपूर्ण बनाने की चेष्टा नहीं की जाती और न उनका आयाम विस्तीर्ण होता है उन्हें अप्रधान रूपक कहा जाता है। इस भांति रूपक तीन प्रकार के हो जाते हैं- प्रधान रूपक, अप्रधान रूपक और उपरूपक। प्रधान रूपक अभिनय का उद्देश्य है रसास्वादन। कवि और अभिनेता दर्शकों को प्रेम, क्रोध, भय,उत्साह इत्यादि किसी भाव का आस्वादन कराना चाहता है । किन्तु यों ही तो आस्वादन हो नहीं सकता। उसके लिये परिस्थिति बनानी पड़ती है और किसी व्यक्ति या व्यक्तियों पर ठसे ढाल कर दिखलाया जाता है। व्यक्ति तो बहाना मात्र होते हैं; सत्य तो एक मात्र भाव ही होता है। उस भाव के परिणाम स्वरूप जो सुखदुःख इत्यादि प्रदर्शित किये जाते हैं उन्हीं के प्रभाव में वहकर दर्शक ठन भावनाओं का आनन्द लेता है। कवि या अभिनेता ऐसे आवरण में भाव का प्रदर्शन करता है कि सुखमय भावनाओं से जितना आनन्द आता है ठतना ही या उससे अधिक दुःखात्मक भावनायें आनन्द देने वाली बन जाती हैं। इसीलिये दुःखात्मक भावनाओं का प्रदर्शन करने वाले रुपक अधिक पसन्द किये जाते हैं और लोग अत्यन्त ठत्कण्ठा के साथ उन्हें देखने में प्रवृत्त होते हैं। जिन पात्रों पर ढालकर भावना प्रदर्शित की जाती है वे पात्र दो प्रकार के होते हैं। या तो वे परिचित होते हैं या अपरिचित परिचित पात्रों के विषय में दर्शकों की भावनायें बनी बनाई होती हैं, अतः उन्हें बड़े चढे रूप में प्रदर्शित करने में कवि को भी आसानी होती है और दर्शक भी उस जानी मानी भावना का अपने संस्कारों की सहायता से अधिकाधिक आनन्द ले सकते हैं। राम, कृष्ण, रावण, कंस इत्यादि इतिहास पुराण पात्रों के प्रति दर्शकों को नई भावना का परिचय प्राप्त नहीं करना पड़ता। कवि को भी उसके निर्माण में सुविधा रहती है। दूसरे प्रकार के पात्र काल्पनिक होते हैं। उनके विषय में कवि, पाठक और दर्शक सभी को भावना और ठसके चरित्र के स्वरूप के विषय में ( सत्रह ) मनोवृत्ति बनानी पड़ती है। उसके निर्वाह में भूलों की भी सम्भावना रहती है और विचारों में भी असामञ्जस्य उद्भूत हो सकता है। अतः इसकी रचना में कवि को विशेष सावधान रहना पड़ता है। जिन रूपकों में परिचित पात्रों का उपादान किया जाता है उनको नाटक की संज्ञा दी जाती है और जिन रूपकों में काल्पनिक पात्र अपनाये जाते हैं उन्हें प्रकरण कहा जाता है। नाटक इसका प्रारम्भ कलात्मक रूप में होता है। प्रारम्भ को प्रस्तावना या आमुख की संज्ञा दी जाती है। इसका उद्देश्य होता है अनियन्त्रित जन समुदाय को नियन्त्रण में लाकर रसास्वादन के लिये तैयार करना और सर्वप्रथम मङ्गलाचरण के रूप में किसी देवता की स्तुति कर जन समाज को आशीर्वाद देना। उसमें पद्य या गीत प्रस्तुत किया जाता है उसमें कुछ तो काव्य सौन्दर्य होता है, कुछ पद्य में अभिनय होने की पात्रता और कुछ संगीत लहरी । इस सबसे जनता आनन्द लाभ करती है अतः इसे नान्दी कहा जाता है। नान्दीपाठ कर जब सूत्रधार चला जाता है तब दूसरा अभिनेता आकर कवि काव्य इत्यादि की सूचना देता है। यह सूचना भी नाट्य का एक कलात्मक खण्ड होती है जिसमें नृत्य होता है ऋतु वर्णन पर गीत होता है, संवाद होता है; किन्तु आंगिक अभिनय नहीं होता। केवल वाचिक अभिनय चलता है। इसीलिये यह भाग भारतीवृत्ति तक सीमित रहता है वैसे इसमें वीथी और प्रहसन के अंगों के समावेश का विधान है। कलात्मक शैली में पात्र प्रवेश करता है और प्रस्तावना समाप्त हो जाती है। नाटक में अत्यन्त प्रसिद्ध कथावस्तु का उपादान किया जाता है जो एक अत्यन्त उच्चकोटि के नायक के विषय में होती है। यह नायक या तो प्रतिष्ठाप्राप्त राजर्षि होता है जैसे अभिज्ञानशाकुन्तल का नायक दुष्यन्त है या कोई दिव्यपात्र होता है, अथवा ऐसा पात्र नायक के पद पर प्रतिष्ठित होने का अधिकारी होता है जो दिव्य होते हुये मानवत्व का अभिमानी हो जैसे भगवान् राम। इन पात्रों की भी प्रसिद्ध कथायें ही नाटक का विषय बन सकती हैं। इन पात्रों के विषय में काल्पनिक कथायें नाटक की कोटि में नहीं आतीं। जो कथायें रामायण महाभारत बृहत्कथा, इतिहास पुराण इत्यादि में अत्यधिक प्रसिद्ध हों वे ही नाटक की कथवस्थ बनती हैं। नायक धीरोदात्त तथा अत्यन्त प्रतापी होना चाहिये। नीतिशास्त्र में जिन गुणों का वर्णन किया गया है नाटक के नायक में उन सभी गुणों की सत्ता दिखलाई जानी चाहिये। वह कीर्ति की इच्छा करने वाला धर्म सेतु का पालक हो और अपने महान गुणों से सभी पर छा जाने की क्षमा रखता हो। देवता भी उसकी सहायता के लिये तत्पर रहें। उसके लोकोत्तर काय से कथानक ओतप्रोत रहे चाहे वे सफलतायें युद्ध भूमि की हों चाहे प्रेम प्रसंग की। कथानक की परिणति सफलताओं में १. (प्रस्तावना के विषय में देखिये- परिशिष्ट ( अट्ठारह ) ही होनी चाहिये। नाटक की सफलता नाटक का अनिवार्य तत्व है इसीलिये पाश्चात्त्य परम्परा में स्वीकृत त्रासदी से इसका पृथक्करण हो जाता है। इसमें न तो नायक की पराजय दिखलाई जाती है,न युद्ध भूमि से पलायन,न विवशता जन्य सन्धि। वस्तुतः नाटक का चरम उद्देश्य नायक की विजय और उसकी सम्पन्नता ही है जिसके अभाव में नाटक अपनी संज्ञा से ही च्युत हो जायेगा। यदि कहीं मध्य में नायक की पराजय का भी प्रश्न उपस्थित हो तो उसकी सूचना भर दे दी जाती है। रंगमश्च पर उसका प्रदर्शन नहीं किया जाता, मृत्यु की तो सूचना भी नहीं दी जाती। कुछ लोग भारतीय नाटकों को कामदी (पाश्चात्य कमेडी) कहने के आदी हैं। किन्तु अपने ठीक अर्थ में भारतीय नाटक को कमेडी कहना उसके प्रति न्याय नहीं होगा। कमेडी तो बहुत ही नीचे स्तर की वस्तु है। उसका जीवन और वास्तविकता से सम्बन्ध नहीं होता। वह एक मजाक की वस्तु है। किन्तु भारतीय नाटक जीवन के वास्तविक अनुकरण हैं और सर्वथा गम्भीर प्रकृति के हुआ करते हैं। प्रति नायक के शौर्य और शक्ति का बड़े विस्तार से वर्णन किया जाता है और शत्रुओं के प्रतिरोध से उत्पन्न कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने में नायक को पर्याप्त संकटों का सामना करना पड़ता है। अनेकशः उसकी सफलता संदिग्ध हो जाती है। यह दूसरी बात है कि अन्तिम सफलता नायक को ही मिलती है और वह समस्त प्रतिरोधों को पार कर लेता है। भारतीय मनीषी इस विषय में अत्यन्त जागरूक है कि अच्छाइयों की विजय दिखलान चरित्रनिर्माण के लिये अधिक उपयोगी है। बुराइयों का दुष्परिणाम किसी सीमा तक कृतकार्य हो सकता है; किन्तु बुराइयों का अत्यधिक प्रदर्शन स्वयं बुरा है और उसका अवाच्छनीय परिणाम भी हो सकता है। नाटक की कथावस्तु प्रख्यात होती है और किसी प्रसिद्ध ग्रन्थ से ली जाती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि नाटककार की वृत्तियां परम्परागत कथानक से सर्वथा कस जाती हैं। नाटक कोई इतिहास नहीं है; इसलिये इतिहासकार की भांति नाटककार प्रामाणिक इतिवृत्त लिखने के लिये बाध्य नहीं है। उसे यह अधिकार होता है कि मूल कथा में जो तत्व नायक या रस के प्रतिकूल हो और अपनी योजना से मेल न खाता हो उसे आवश्यकतानुसार बदल ले। इसके लिये वह नई कल्पना भी कर सकता है, नई कथा का प्रवर्तन भी कर सकता है, परम्परागत कथा की नई योजना भी कर सकता है और घटनाओं का क्रमव्यत्यय भी कर सकता है। किन्तु इसके लिये उसे लोक रुचि का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है; अन्यथा असत्यता का प्रतिभास या अनौचित्य स्फुरण में उसका कथानक जनमानस में वितृष्णा ही उत्पन्न करेगा। जिन पात्रों के विषय में जनमानस में जो धारणा बनी हो उसका पूर्ण व्याघात उचित नहीं होता। आचार्य शुक्ल के अनुसार ऐसे विषयों में खिलवाड़ की अपेक्षा नई कल्पना कर लेना अधिक उपयुक्त कहा जा सकता है। नाट्यवर्जनाओं का भी कथानक में ध्यान रखने का आचार्यों ने निर्देश दिया है। ( उन्नीस ) कथावस्तु का निर्वाह कथावस्तु का निर्वाह इस रूप में किया जाना चाहिये कि कोई भी अंग अधिक बड़ा और कोई छोटा प्रतीत न हो। नाटक में ५ सन्धियां होती हैं। उसी के अनुसार कम से कम ५ अंकों का विधान है। यदि एक अंक में एक सन्धि की योजना की जाय तो पूरा नाटक सन्तुलित हो जायेगा । किन्तु यह कोई अनिवार्य नियम नहीं है। फिर भी इतना ध्यान रखना चाहिये कि नाटक इतना बड़ा न बन जाये कि दर्शक ऊबने लगे। अतः नियम बनाया गया है कि किसी नाटक में १० से अधिक अंक नहीं होने चाहिये। अंक में असम्बद्ध कई घटनायें दृश्यों के नाम पर दिखलाने की जो पाश्चात्य परम्परा है वह भारतीय आचार्यों को मान्य नहीं है। अंक के अन्तर्गत पूर्ण रूप से संबद्ध एक ही घटना दिखलाने की परम्परा है। छोटी छोटी अन्य घटनायें अथोपक्षेपकों द्वारा दिखला दी जाती है। यद्यपि भारतीय नाट्यशास्त्रकारों ने संकलनों का विवेचन नहीं किया है जैसाकि स्थल, कार्य और काल संकलन की परम्परा पाश्चात्य साहित्य में है, फिर भी एक दिन में निर्वर्य कथा को एक अंक में दिखलाने और शेष अंश को सूच्य बनाने का निर्देश भारतीय नाट्य को भी संकलनों के पर्याप्त निकट लाता है। इसी प्रसंग में अथपक्षेपकों का भी ववचन किया गया है। प्रकरण यह पूर्ण नाटक का दूसरा प्रकार है जिसमें रचना की सभी प्रवृत्तियों का नाटक के अनुसार ही निर्वाह किया जाता है। कथानक और पात्र कल्पित एवं अपरिचित होते हैं; किन्तु उनकी अन्तरात्मा अपरिचित नहीं होती। वे पात्र हमारे साथ रोज चलने फिरने उठने बैठने वालों के समकक्ष ही होते हैं। अतएव उनसे आत्मीयता बना लेने में कठिनाई नहीं होती । अचिरात् उनकी भावनायें परिशीलकों की भावनायें बन जाती हैं और परिशीलक उस आत्मीयता के प्रभाव से रसास्वादन में सक्षम हो जाता है। वस्तुतः नाटक के आदर्श पात्रों की अपेक्षा प्रकरण के पात्र लोकवृत्त के अधिक निकट होते हैं। प्रकरण का नायक ब्राह्मण, बनियां, अमात्य इत्यादि में कोई भी होता है। नायिका कुलवती भी होती है और वेश्या भी अथवा दोनों का मिलाजुला रूप होती है। तरंगदत्त में वेश्या नायिका ,पुष्पदूषितक में कुलवती स्त्री और मृच्छकटिक में दोनों ही । किन्तु उनके भी अपने आचार और मर्यादायें होती हैं। प्रकरण के नायक में नाटक के नायक जैसी उदात्तता नहीं होती। कुछ लोगों के मत में निम्नजाति की स्त्री भी नायिका हो सकती है। नायक अधिकतर धीरशान्त होता है किन्तु कुछ लोग उसे धीरोदात्त रखने के भी पक्षपाती हैं। जिस प्रकरण में विट, चेट, कितव, शकार इत्यादि पात्र होते हैं वह संकीर्ण प्रकरण कहा जाता है। नाटक और प्रकरण दोनों पूर्ण नाटक के प्रकार हैंकिन्तु रस निष्पत्ति और रसास्वादन के सुकर होने के कारण नाटक का महत्व अधिक है। समाज के अधिक निकट होने और ( बीस ) यथार्थ चित्रण की विशेषता के कारण प्रकरण नाटक की अपेक्षा पाश्चात्त्य मनोवृत्ति के अधिक अनुकूल पड़ता है। अप्रधान रूपक भरत ने ८ अप्रधान रूपक माने हैं। दो प्रधान रूपकों को मिलाकर रूपकों की संख्या १० हो जाती है। ये ही १० रूपक परवर्ती आचार्यों को भी मान्य रहे और प्रायः सभी नाट्य शास्त्रकारों ने इस संख्या को महत्व दिया। इन ८ अप्रधान रूपकों में ५ एकाङ्की होते हैं- व्यायोग, अङ्कप्रहसन भाण और वीथी; समवकार में तीन अंक होते हैं तथा डिम एवं ईहामृग में चार चार अंक होते हैं। इनमें चार रूपक प्रसिद्ध कथावस्तु को लेकर चलते हैं और तीन में काल्पनिक कथा होती है। प्रख्यात कथावस्तु को लेकर चलने वाले नाटक हैं- व्यायोग, अझ, डिम और समवकार तथा कल्पित कथावस्तु को लेकर लिखे जाने वाले नाटक हैं- भाण, प्रहसन और वीथी। ईहामृग में मिश्र कथावस्तु होती है। इन सबके अतिरिक्त ४ अंकों की नाटिका का भी भरत ने उल्लेख किया है जो १० रुपकों के अतिरिक्त हैं। परवर्ती आचार्यों में कतिपय इसे रूपकों में स्थान देते हैं कतिपय उपरूपकों में। इनका संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जा रहा है (९) नाटिका- इसमें सन्धि, सन्ध्यङ्ग इत्यादि सभी कुछ नाटक के समान ही होता है; किन्तु दोनों में कतिपय अन्तर भी हैं- एक तो इसकी पूर्ति ४ अंकों में होती है; दूसरे इसमें केवल शुङ्गार रस का और वह भी सीमित दिशा में प्रवृत्त होने वाले शृङ्गार रस का आस्वादन किया जाता है। न वस्तु की विविधता होती है ने रसास्वादन का सीमाविस्तार यद्यपि इसमें आस्वादन की गहराई कम नहीं होती। इसके पात्र बंधी बंधाई लीक पर चलने वाले होते हैं। एक अन्तर यह होता है कि इसकी कथावस्तु न पूर्णतः ऐतिह्य होती है न पूर्णतः काल्पनिक । नायक ऐतिह्य होता है और कथावस्तु काल्पनिक । (२) ड़िय- दशरूपक में टीकाकार धनिक ने डिम का अर्थ माना है संघात जिसका अर्थ समूह भी है और जोरदार घातप्रतिघात भी है। इस रुपक में अनेक पात्र कार्य प्रवृत्त होकर शत प्रतिघात और दांव पेंच से कथावस्तु को आगे बढ़ाते हैं। भरत के अनुसार इसकी कथावस्तु प्रख्यात होती है और इसका नायक बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति होता है। इसमें अङ्गीरस रौद्र होता है। शृङ्गार और हास्य को छोड़कर ६ रसों का प्रयोग किया जाता है। शान्तरस को रसरुपता प्रदान करने पर इसमें उसका भी निषेध समझा जाना चाहिये। इसमें ऐसी वस्तु का उपादान किया जाता है जो दीप्त रसों के अनुकूल हो तथा ऐसे भावों तथा मनोवैज्ञानिक तथ्यों का समावेश रहता है जो कठोर रसों के अभिव्यञ्जक हों। विजली की कड़क, र्यचन्द्र के ग्रहण, उल्कापातभूकम्प, प्रचण्ड वायु, घनघोर युद्ध, पैदल युद्धप्रहार और क्रोध पूर्ण ठक्ति प्रत्युक्तियों की भरमार रहती है। माया और इन्द्रजाल बहुत बड़ी मात्रा में दिखलाये जाने का विधान है। बहुत से व्यक्ति ( इक्कीस ) शक्तिशाली युद्ध की तैयारी में लगे रहते हैं जिनमें परस्पर फूट के दृश्य भी सम्मिलित रहते हैं। १६ पात्रों का समावेश विहित है जो अधिकतर देव, असुर, राक्षस, भूत, नाग, यक्ष इत्यादि होते हैं। रचना सात्वती और आरभटी वृत्ति में होती है। दशरुपककार ने भारती वृत्ति को भी सम्मिलित किया है। भारती एक सामान्य वृत्ति है। अत: उसका सम्मिलित करना भरत की मान्यता के विरुद्ध नहीं जाता। साहित्य दर्पण कार ने इसमें शान्त रस को भी स्वीकार किया है। विमर्श को छोड़कर सब सन्धियां होती हैं। भरत ने इसके नायक का ठदान्त चरित्र बतलाया है जो इसके उद्धत कथानक से मेल नहीं खाता। नाट्यदर्पण कार ने इसकी संगति इस प्रकार बैठाई है कि इसके पात्र यक्ष, राक्षस, भूत प्रेत इत्यादि होते हैं। ये मानव के लिये उद्धत हो सकते हैं किन्तु अपने वर्ग की दृष्टि से इनके उदात्त होने में कोई विरोध नहीं। अपने वर्ग में तो इनका चरित्र तुलनात्मक दृष्टि से उदात्त हो ही सकता है। इसके उदाहरण हैं त्रिपुरदाह, तारकोद्धरण, वीरभद्रविजय, मन्मथोन्मथन इत्यादि। (३) ईहामृग- यह चार अंकों का नाटक होता है। इसमें वस्तु आंशिक रूप में प्रख्यात तथा आंशिक रूप में कल्पित होती है। कथावस्तु का मूल ढांचा और पात्र प्रख्यात होते हैं, किन्तु उनका निर्वाह काल्पनिक ढंग से किया जाता है। अंकों की संख्या में समानता होते हुये भी इसमें गर्भ सन्धि नहीं होती, केवल तीन सन्धियां होती हैं। साहित्यदर्पणकार का कहना है कि कुछ लोग इसे एकाझी नाटक मानते हैं। ईहामृग का अर्थ है भेड़िया। यह जीव अपने छल कपट और चालाकी के लिये प्रसिद्ध है। इस रुपक में इसी प्रकार के छल कपट किये जाते हैं इसीलिये इसका यह नाम पड़ा है। धनिक ने इसका अर्थ किया है ईहा मे जो मृग (जंगली जीव; जिस प्रकार जंगली जीव ऐसी स्त्री की कामना करता है जिसका प्राप्त करना अशक्य होता है उसी प्रकार इस नाटक में भी नायक ऐसी नायिका की कामना करता है जिसका प्राप्त हो सकता उसके लिये कठिन होता है। नाट्यदर्पण कार ने अर्थ किया है जिसमें मृगों के समान केवल स्त्री की कामना की जाय। इसमें प्रतिनायक की ऐसी चेष्टा रहती है कि नायक अपनी प्रेयसी प्राप्त न कर सके। नायिका प्रायः दिव्य स्त्री होती है। प्रतिनायक अनेक प्रकार के छल कपट के द्वारा नायक को वश्चित करना चाहता है। ऐसी परिस्थिति ला देता है कि युद्ध अनिवार्य हो जाता है। भरत ने ईहामृग की विशेषतायें बतलाते हुये लिखा है कि इसमें देव पुरुष स्रियों के लिये युद्ध में प्रवृत्त रहते हैं, किन्तु परवर्ती आचार्यों ने इस नियम में परिवर्तन कर मर्यपात्र को को भी इस प्रकार के कथानक का पात्र बनने का अधिकार दे दिया है। दशरूपक के अनुसार नायक और प्रतिनायक में कोई एक मर्य हो सकता है, या दोनों मर्य हो सकते हैं या दोनों देव । नाट्यदर्पण कार का कहना है कि प्रधान नायक तो दिव्य ही होना चाहिये किन्तु उसमें अनेक उद्धत मानव दिखलाये जाने चाहिये। किन्तु इसमें ( बाइस ) सभी एक मत हैं कि संग्राम जिस स्त्री के लिये हो वह दिव्य ही होनी चाहिये। पात्रों के उद्धत स्वभाव के विषय में भी मतभेद नहीं है। इसमें स्त्रियों का परिदेवन और क्रोध भी कुछ आचार्यों ने स्वीकार किया है। इसकी दूसरी विशेषताएँ हैं- इसकी सुसंबद्धता अर्थात् प्रत्येक अंक की कथा परस्पर संबद्ध एवं सुगठित होनी चाहिये। इसमें अविश्वास ही विरोध का मूल कारण होता है। युद्ध और संग्राम का मूल कारण वास्तविकता को न समझना भी हो सकता है। इसमें विशेष रूप में संक्षोभ, विद्रव, रोषभाषण, भेद, अपहरण, अवमर्दन इत्यादि का अभिनय किया जाता है। कुछ लोग इसमें १० पात्र स्वीकार करते हैं; कुछ १२ और कुछ ६ पात्रों में ही इसे सीमित रखना चाहते हैं। कुछ लोगों की सम्मत्ति में भेद, दण्ड, वध इत्यादि का हेतु सी के अतिरिक्त अन्य भी हो सकता है। इसमें शृङ्गार तथा ङ्गाराभास दोनों दिखलाये जा सकते हैं। भरत का कहना है कि व्यायोग में जिस प्रकार के पुरुष जिस प्रकार के रस और जिस प्रकार की वृत्तियां दिखलाई जाती हैं ईहामृग में भी वही सब होता है। इसमें भेदक केवल इतना है कि इसमें देवी का अभिनय किया जाता है। विश्वनाथ ने इसके उदाहरण के रुप में ‘कुसुमशेखरविजयका उल्लेख किया है। कीथ ने रुक्मिणी हरण को ईहामृग माना है। इसके अतिरिक्त वत्सराज का भी एक ईहामृग प्रसिद्ध है। (४) समवकार- तीन अंकों का एक मात्र रूपक । इसका कथानक प्रख्यात होता है। जिसमें किसी देवता या राक्षस का सम्बन्ध दिखलाया जाता है। दशरूपक के अनुसार इस शब्द की व्युत्पत्ति है- ‘समवकीर्यन्तेयी अस्मिन्निति अर्थात् जिसमें काव्य प्रयोजन विखरे रहते हैं। आशय यह है कि समवकार का भेदक तत्व है प्रयोजनों की अनेकविधता। इसमें प्रयोजन अनेक होते हैं- अन्य रूपकों की भांति केवल एक प्रयोजन नहीं। नाट्यदर्पण कार मानते हैं कि त्रिवर्ग के जो पूर्व प्रसिद्ध उपाय होते हैं उन्हीं का इसमें समावेश किया जाता है। ये उपाय विखरे हुये भी हो सकते हैं। और परस्पर संबद्ध भी। इसमें विमर्श संन्धि को छोड़कर चार सन्धियां होती हैं। प्रथम अंक में मुखप्रतिमुख ये दो सन्धियां होती हैं शेष दो अंकों में एक एक क्रमशः गर्भ और निर्वहण सन्धि होती है। इसमें सभी तत्व (सन्धियों को छोड़कर) तीन तीन ही दिखलाये जाते हैं। तीन उपद्रव- (१) युद्ध या जलप्लावन जन्य (२) वायु, अग्नि या गजेन्द्रजन्य और (३) नगर के उपरोध से उत्पन्न। नाट्यदर्पणकार जीव, अजीव और उभयजन्य ते तीन उपद्रव मानते हैं। छल भी तीन प्रकार के दिखलाये जाते हैं- वञ्चकों अर्थात् योजना में अपने लोगों का छल कपट, शत्रु द्वारा जाल का फैलाव या दैव वश किसी अन्य ओर से । शृङ्गार तीन प्रकार का होता है- धर्म शृङ्गार, अर्थ शृङ्गार और काम शुङ्गार। धर्म में अधिष्ठित रहते हुये और धार्मिक नियमों का पालन करते हुये यदि अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति हो जाय तो वह धर्म शृङ्गार होता है। जहां अर्थ प्राप्ति के प्रलोभन से काम प्रवृत्ति देखी ( तेइस ) जाय वह अर्थ शृङ्गार होता है; जहां उपभोग की आकाङ्क्षा और वासना की प्रेरणा से कामोपबोग में प्रवृत्ति देखी जाय वह कामशृङ्गार होता है। धर्म शृङ्गार का फल होता है पर स्त्री वर्जन और दानादिधर्म। इस प्रकार स्वपली विषयक शृङ्गार का हेतु होता है धर्म और फल भी धर्म ही होता है। अर्थशृङ्गार वेश्याओं और रूपवान पुरुषों के लिये धन रूप फल का देने वाला होता है। काम शृङ्गार की नायिका होती है परस्त्री या कन्या। समवकार में तीन अंकों में तीन तत्व पृथक् पृथक् दिखलाये जाते हैं। प्रत्येक अंक में एक धर्म, एक कपट और एक उपद्रव दिखलाया जाता है। नाटक में प्रहसन भी होता है और वीथी के अंगों का भी समावेश रहता है। यह नाटक सब से लम्बा होता है। ७ घण्टे १२ मिनट लगते हैं। पहले अंक में १२ दूसरे में चार और तीसरे में दो नाडियां होती हैं। पात्रों की संख्या १२ होती है। कुछ लोग प्रत्येक अंक में १२ पात्र मानते हैं। कुछ लोग कुल मिलाकर १२ मात्र मानते हैं। नायक और प्रतिनायक तथा दोनों का एक एक सहायक, इस प्रकार प्रत्येक अंक में चार पात्र होते हैं। इस प्रकार पूरे नाटक में तीन अंकों में १२ पात्र होते हैं। प्रत्येक अंक की कथा अपने में पूर्ण होती है; किन्तु सम्पूर्ण समवकार का एक प्रयोजन होता है जिससे अंकों के प्रयोजन संबद्ध रहते हैं। रचना का क्रम इस प्रकार रहता है पहले आमुख दिखलाया जाता है; फिर तीनों अंकों के उपक्षेपक बीज की रचना की जाती है; प्रथम और द्वितीय दोनों अंकों के कथानक का पल्लवन किया जाता है। फिर तीसरे अंक की संयोजना इस प्रकार की जाती है कि प्रथम दो अंकों का भी समन्वय हो जाता है। अनुसन्धानात्मक बुद्धि से अध्ययन करने पर समवकार दर्शकों को त्रिवर्ग साधन में व्युत्पन्न भी बनाता है। सारांश यह है कि समवकार में हास्यमिश्रित शृङ्गार रहता , कपट, युद्ध और उपद्रव का समावेश रहता है। दैवी शक्ति की भी सहायता प्राप्त होती है। अनेक विषयों को एक में जोड़कर कथानक का निर्माण किया जाता है। शास्त्रीय ग्रन्थों में समवकार का उदाहरण अमृतमन्थन बतलाया जाता है। इसी नाटक को अब्धिमन्थन, पयोधिमन्थन नामों से भी याद किया जाता है। कीथ ने भास के पञ्चरात्र को भी समवकार का ठदाहरण बतलाया है। (५) व्यायोग- यह एकाझी होता हैव्यायोग शब्द का अर्थ है- विशेषेणआ समान्तात् युज्यन्ते कार्यार्थं संरभन्तेनेति व्यायोगः अर्थात् विशेष रूप से चारों ओर से कार्य के लिये युक्त होते हैं या प्रयत्न करते हैं उसे व्यायोग कहा जाता हैं। इस व्युत्पत्ति से ज्ञात हो जाता है कि इसमें कथावस्तु ऐसे नायकों से संबद्ध होती है जो फल प्राप्ति की आतुरता में अपने कार्यकलाप में निरन्तर संलग्न रहते हैं। इसमें केवल एक दिन की घटना को ही नाट्यविषय बनाया जाता है। इसीलिये इसे एकाफ़ी रखने का निर्देश है। इसका नायक अत्यन्त उद्धत होता है और अपने अभीष्ट फल को यथा सम्भव शीघ्र ही प्राप्त कर लेना चाहता है। इसका नायक प्रख्यात व्यक्ति होता है और कथानक भी प्रख्यात ही होता है। ( चोबीस ) नायक ठद्धत होता है और शीघ्र अभीष्ट फल प्राप्त कर लेना चाहता है। इसीलिये बीजोपन्यास के बाद प्रयत्न दिखलाते हुये फल तक पहुंच जाया जाता है। इसमें तीन सन्धियां होती हैं- मुख, प्रतिमुख और निर्वहण। भरत का मत है कि इसका नायक कोई राजर्षि होता है; दिव्यपात्र नायक नहीं हो सकता। किन्तु साहित्यदर्पण में दिव्य पुरुष का भी नायक होना स्वीकार कर लिया गया है। युद्ध या पुरुष का भी नायक होना स्वीकार कर लिया गया है। युद्ध या संघर्ष का कारण कोई स्त्री नहीं हो सकती। इसीलिये इसमें स्त्री पात्र (नायिका) का होना अनिवार्य नहीं माना गया है। कथानक के औद्धत्य के अनुसार ही ओजगुण, दीप्तरस और आरभटी वृत्ति का इसमें प्राधान्य बतलाया गया है। भास का मध्यमव्यायोग और वत्सराज का किरातार्जुनीय इसके उदाहरण हैं। (६) अङ्क (उत्सृष्टिकाङ्क) - अंक नाम से ही इसका एकाङ्की होना सिद्ध हो जाता है। नाटक इत्यादि में रचना के खण्डों को भी अंक नाम दिया गया है। उस अंक से यह अंक बड़ा भी होता है और भिन्न थी। इसकी शब्द की व्युत्पत्ति साहित्यदर्पण में वह बतलाई गयी है- ‘उक्रान्ता विलोमरूपसृष्टिर्यत्र’ अर्थात् जिसमें सृष्टि विलोम रूप हो। किन्तु इसका आशय क्या है यह समझ में नहीं आता। नाट्यदर्पण में व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है- 'उक्रमणोन्मुखासृष्टिर्यत्र उत्सृष्टिकाः शोचन्त्यः स्त्रियः ताभिरङ्कितत्वात् उत्सृष्टैकाङ्क' अर्थात् उत्सृष्टिका ऐसी स्त्रियों को कहा जाता है जिनका जीवन उक्रमण की ओर जा रहा है अर्थात् विलाप करने वाली स्त्रियां उनसे अंकित होने के कारण उसे उत्सृष्टिकाङ्क कहा जाता है। स्त्रियों का विलाप प्रलाप ही इसकी सामान्य विशेषता है। सामान्य रूप से इसका वृत्त इसकी सामान्य विशेषता है। सामान्य रूप से इसका वृत्त ख्यात (प्रसिद्धहोता है। किन्तु भरत ने कहीं कहीं अख्यात वृत्त में भी इसकी सत्ता स्वीकार की है। साहित्य दर्पण के अनुसार प्रसिद्ध इतिवृत्त को ही कवि अपनी बुद्धि से प्रपञ्चित कर उसे नया रूप दे देता है। इसमें जय, पराजय दिखलाये जाते हैं। शौर्यमद से अवलिप्त लोग परस्पर दोषों की घोषणा करते हुये वाग्युद्ध भी करते हैं। किन्तु यह वाग्युद्ध होता उन्हीं का है जो शोक-परायण होते हैं। अत: इसमें करुण रस की प्रधानता होती है। वैसे शोक के अंग रूप में निर्वेदजनक वचनों का समावेश होता ही है और व्याकुल लोगों की नाना चेष्टाओं का वर्णन भी किया जाता है। मुख्य विषय स्त्रियों का परिदेवन ही होता है जिसके कारणरूप में संघर्ष और युद्ध का चित्रण किया जाता है। संघर्ष और युद्ध का कथन मात्र होता है। उसका प्रदर्शन रंगमश्च पर नहीं किया जाता । इसके पात्र अधिकांश प्राकृत जन ही होते हैं। दिव्य पात्रों को विलापप्रलाप करते हुये दिखलाना उचित नहीं माना जाता । इसमें सात्वती, आरभटी और कैशकी वृत्तियां नहीं होतीं । कीथ का कहना है कि इस विधा का प्रयोग रूपक के अन्तर्गत रूपक को दिखलाने के लिये होता है। कहीं कहीं इस प्रकार के अन्तर्वर्ती अंक को फंक्षणक भी कहा गया है। भास का ठरूभंग इसका उदाहरण है। ( पच्चीस ) (७) भाण- यह भणधातु से बना शब्द है जिसका अर्थ है कथन करना। इसमें जनता का मनोरंजन कह कर किया जाता है अभिनय बहुत कम होता है। इसीलिये इसमें भारती वृत्ति की प्रधानता होती है। वह रंगमश्च पर आकर या तो अपनी वीरता या शृङ्गारिक चेष्टाओं का वर्णन करता है या दूसरों की वीरता इत्यादि का वर्णन करताहै । इसीलिये इसमें शृङ्गार और वीर की प्रधानता रहती है। अन्य रस अंगरूप में आते हैं। इसका मुख्य ठद्देश्य लोकानुरंजन होता है क्योंकि इसमें विट, धूर्त, कुट्टिनी इत्यादि का वर्णन किया जाता है। इन बातों का ज्ञान तो सामान्य स्तर से ऊंचे राज पुरुषादि को भी अभीष्ट है। इसमें कोई धूर्त रंगमञ्च पर आता है और विभिन्न घटनाओं का वर्णन इस रूप में करता है कि उपस्थित जनता उसमें अनुरंजन प्राप्त करती है। वह या तो बदमाशों, वेश्याओं, व्यभिचारिणी औरतों, कुट्टनियों और दूतियों का वर्णन कर वातावरण को शृङ्गारमय बना देता है या धूतों चोरों जुआरियों के साहस पूर्ण कृत्यों का वर्णण कर वीरस की सृष्टि करता है। गणिकायें, मेष युद्धमुक्केबाजी, दो प्रतिद्वन्दियों के झगड़े, मदन महोत्सव इत्यादि सामान्य विषय हैं जिनका समावेश भाण में होता है। सुनाने वाला व्यक्ति किसी कल्पित व्यक्ति से वार्तालाप करता है और आकाश की ओर देखकर सुनने का अभिनय करते हुये उसकी उक्तियों को देहराता जाता है तथा उसकी ओर से भी उत्तर प्रत्युत्तर करता जाता है। इसमें सभी कुछ वाचिक होता है; इसलिये केवल भारती वृत्ति उसमें रहती है। यद्यपि वीर और शङ्गार का इसमें उपादान किया जाता है फिर भी इसमें न कैशिकी मानी जाती है न सात्वती और न आरभटी । चतुर्भाणी चारभाणों का एक संकलन है। इसका प्रचार बहुत हुआ है और इसकी अनेक कृतियां उपलब्ध होती हैं। (८) प्रहसन- यह एक अन्वर्थ संज्ञा है; इसका मुख्य प्रवृत्ति निमित्त मजाक उड़ाना है। भरत के अनुसार यह दो प्रकार का होता है- शुद्ध और संकीर्ण। भरत का संकीर्ण दशरुपककार का विकृत है और संकीर्ण एक नवीन भेद है। शुद्ध प्रहसन में किसी बौद्ध सन्यासी, किसी शैव, वैष्णव या भगवद्भक्त की हंसी उड़ाई जाती है। इसी प्रकार कोई तापस भिक्षु, श्रोत्रिय या ब्राह्मण भी प्रहसन में हास्य का विषय हो सकता है। विकृत प्रहसन में वेश्या, चेट, नपुंसक, धूर्त वदमाश, कुट्टिनी, दूती इत्यादि का मजाक उड़ाया जाता है। यदि इसमें वीथी के अंगों का साङ्कर्य हो जाय तो यह संकीर्ण प्रहसन कहा जाता है। इसमें अभिनेता जिसकी हंसी उड़ाना चाहता है उसकी जैसी बोली, वेश, चेष्टा इत्यादि बनाकर लोगों को हंसाता है, उसकी भांति चाल चलता है और उन्ही की हास्यजनक वस्तुओं को दिखलाता है। इसमें एक या अधिक पात्र अभिनय करते हैं। इसका प्रधान रस हास्य होता है तथा दूसरे रस भी हास्य पर्यवसायी ही होते हैं। विश्वनाथ के अनुसार यह दो अंकों का भी हो सकता है। इस विधा की सुदीर्ष परम्परा भारतीय साहित्य में रही है और प्रहसन परक कई कृतियां उपलब्ध होती हैं। मत्तविलास इसका पुराना उदाहरण है। लटकमेलक दो अंकों में लिखा प्रहसन है। धूर्तसमागम एक अन्य प्रहसन है। ( छब्बीस ) (९) वीथी- इसका अर्थ है मार्ग। इसके १३ अंग बतलाये गये हैं जो नाटकादि सभी रूपकों में होते हैं। इस प्रकार यह एक मार्ग है जिससे होकर नाटक की अन्यविधाओं तक पहुंचा जा सकता है। नाट्यदर्पण में वीथी का अर्थ टेढा मेढा मार्ग कर इसमें वक्रोक्ति की प्रधानता बतलाई गई है। कीथ ने एक अन्य मत का भी उल्लेख किया है कि वीथी का अर्थ होता है माला। माला में जिस प्रकार अनेक रूपों के पुष्पों का समावेश होता है उसी प्रकार वीथी में भी अनेक रस सम्मिलित रहते हैं। इसमें भी भाण के समान आकाशभाषित का प्रयोग होता है। इसका नायक उत्तम, मध्यम या अधम कोई भी हो सकता है। या तो कोई एक पात्र आकाश भाषित करता है या दो तीन पात्र संवाद का प्रयोग करते हैं। क्रमशः सभी रस प्रयुक्त हो सकते हैं। अन्य सब बातें भाण के समान ही होती हैं। कतिपय आचार्य वीथी में कैशिकी वृत्ति को स्वीकार करते हैं। किन्तु नाट्यशास्त्र में इसे स्वीकार नहीं किया गया है। इसमें एक ही अंक में कई अर्थप्रकृतियां होती हैं। सन्धियां केवल दो ही होती हैं मुख और प्रतिमुख। इसका कोई प्रतिष्ठित उदाहरण नहीं मिलता। विश्वनाथ ने मालविका नामक वीथी का उल्लेख किया है। छोटे रुपकों के उक्त ८ भेद केवल ऐतिहासिक महत्व रखते हैं। अब इनका प्रचलन साहित्य जगत में विल्कुल नहीं है। पुराने उदाहरण भी बहुत कम पाये जाते हैं। कुछ प्रकार तो ऐसे हैं कि उनका एक भी उदाहरण नहीं मिलता। यह सच है कि अधिकांश प्राचीन साहित्य लुप्त हो गया है। सम्भव है किसी समय इन सभी की परम्परा विद्यमान रही हो। यह भी सम्भव है जैसा कुछ लोग मानते हैं कि एक ही रचना को लेकर इन प्रकारों के लक्षण बना दिये गये हैं और इनका नामकरण कर दिया गया हो। वस्तुतः उपलब्ध साहित्य तो ऐसी ही कहानी कहता है। कुछ प्रकारों के अधिक उदाहरण मिलते उपरूपक नृत्य और संगीत नाट्य की उपरंजक कलाएँ हैं। नाटकों में इन कलाओं का अनिवार्य उपयोग होता है। भरत का कथन- 'नृत्य और गीत का इतना अधिक विस्तार नहीं करना चाहिये कि कथानक बहुत दूर पड़ जाय और न वस्तु का इतना विस्तार करना चाहिये कि नृत्यगीत का अवसर ही न रहे। यह कथन स्वयं में इस बात का प्रमाण है कि नाट्य का नृत्य और गीत से अविच्छेद्य सम्बन्ध है। वैसे तो प्रत्येक नाट्यकृति में नृत्य का योगदान रहता ही है किन्तु कतिपय नाट्यकृतियों में वस्तु बहुत थोड़ी होती है- अधिक विस्तार नृत्य का ही होता है उनका उद्देश्य नृत्य का आनन्द देना ही होता है; कथानक तो योजना के लिये सम्मिलित कर लिया जाता है। इस प्रकार के रूपकों को विश्वनाथ ने उपरूपक की संज्ञा दी है यद्यपि उनकी परम्परा विश्वनाथ के बहुत पहले चल रही ( सत्ताइस ) नृत्त, नृत्य और नाट्य- नृत्यकला के ये तीन पारिभाषिक शब्द हैं। नृत्त और नृत्य शब्द नृती' गात्रविक्षेपे धातु से बने हैं जिसका अर्थ होता है अंग सञ्चालन । नाट्य शब्द नट् धातु से बना है जिसका अर्थ है अवस्पन्दन अर्थात् अंगों का किञ्चित संचलन। 'नृत्त में किसी प्रकार की भावाभिव्यक्ति नहीं होती। इसमें भाव का नहीं ताल और लय का अनुसरण किया जाता है। ताल और लय के अधीन हाथ, पैर, नेत्र, गर्दन इत्यादि का इस प्रकार चलाना जिसमें एक सुन्दरता उत्पन्न हो जाय नृत्त कहलाता है। नर्तकियां रंगमश्च पर आकर अंग सञ्चालन के द्वारा दर्शकों के मन को खींच लेती हैं यही 'नृत्त' है। यह दर्शन की वस्तु है, सुनने के लिये हाथ की ताली (ताल) का व्रत, मध्यम और विलम्बित लय से शब्द मात्र होता है। यह नृत्त संसार के प्रायः सभी देशों में प्रचलित है और नाट्य के उद्भव में इसका बहुत बड़ा योगदान रहा है। धार्मिक उत्सवों, त्योहारों, मेला दशहरा आदि समारोहों, फसल की कटाई वोआई आदि अवसरों पर हर्ष को प्रकट करने के लिये नृत्त की योजना की जाती है। विवाह पुत्र जन्म इत्यादि हर्ष के अवसरों पर इसका आयोजन मन को खींच लेता है; दुख के अवसरों पर इसको वर्जित किया गया है। नाट्य में इसका बहुत अधिक योगदान है। ग्रीक नाट्य का उद्भव इस प्रकार के नृत्यों से ही हुआ है। अंग्रेजी नाट्य के प्रारम्भ में इस प्रकार की परम्परा विद्यमान थी। अंग सञ्चालन का दूसरा प्रकार है नृत्य। इसमें पदार्थाभिनय किया जाता है। पानी भरने, घड़े को सर पर रखने शीशा देखकर शृङ्गार करने इत्यादि की क्रियायें हाथों के संकेत से प्रकट करते हुये जो अंग संचालन किया जाता है जिसमें पदार्थामिनय के साथ पैर निरन्तर गतिशील रहते हैं और नेत्र इत्यादि अंगों की चेष्टाएँ भी चलती रहती हैं। नृत्त और नृत्य दोनों के दो दो भेद होते हैं- कोमल नृत्य जिसे लास्य कहा जाता है और कठोर नृत्य जिसे ताण्डव की संज्ञा दी जाती है। तीसरा स्तर नाट्य का आता है । यह रसाश्रित होता है। रस निष्पत्ति के लिये विभाव अनुभाव इत्यादि के परिशीलन की आवश्यकता होती है जिनका परिज्ञान वाक्यार्थ के द्वारा होता है। अतः वाक्यार्थामिनय को नाट्य कहा जाता है। इस प्रकार गात्रविक्षेप मात्र नृत्त, भावामिनय नृत्य और वाक्यार्थाभिनय नाट्य कहलाता है। नृत्त का आश्रय नृत्य में और इन दोनों का आश्रय नाट्य में लिया जाता है। दशरुपक नाट्य के प्रकार हैं जिनमें प्रधानता वाक्यार्थाभिनय की रहती है। रसाश्रित ठक्त भेदों के अतिरिक्त नृत्य के आश्रित भी कुछ भेद होते हैं जिन्हें विश्वनाथ ने ठपरूपक की संज्ञा दी है और अब सामान्यतः यह संज्ञा स्वीकार की जाती उपरूपक भेदों का सर्वेक्षण उपरूपक नामकरण तो सम्भवतः विश्वनाथ का ही दिया हुआ है किन्तु इनके भेदों ( अट्ठाइस ) की परम्परा पुरानी है। भरत ने तो इनका उल्लेख नहीं किया है- सम्भवत: भरत के समय तक नृत्य के आधार पर अभिनय भेदों की परम्परा का प्रचलन नहीं हुआ था। कोहल के समय तक ये नृत्य रूपक कुछ कुछ स्वरूप लेने लगे थे। कुछ लोग कोहल को ही इस विधा का प्रवर्तक मानते हैं। किन्तु इनका सर्वप्रथम व्यवस्थित उल्लेख धनञ्जय ने दशरूपक में किया। इन्होंने सम्भवत: सर्वप्रथम प्रश्न उठाया है कि जबकि डोम्बी,श्रीगदित इत्यादि नृत्य पर आधारित ७ भेद और पाये जाते हैं तब रूपकों की संख्या १० मानना कहां तक ठीक है और इसके नृत्त, नृत्य और नाट्य के भेद समझाते हुये कहा है कि नृत्याश्रित रूपकों का स्वरुप ही भिन्न होता है। वे रसाश्रित न होकर ताल लय या भावाश्रित होते हैं। अत: उन्हें रूपकों में सन्निविष्ट नहीं किया जा सकता। धनञ्जय के माने हुये नृत्याश्रित ७ रूपक हैं- डोम्बी, श्रीगदित, भाण, भाणी, प्रस्थान रासक और काव्य। इस विचारधारा को उनके कनिष्ठ समसामयिक अभिनवगुप्त ने आगे बढ़ाया। इन्होंने ८ भेद : स्वीकार किये जिनमें श्रीगदित और काव्य को छोड़कर ५ भेद तो धनञ्जय के ही स्वीकार किये; उनमें तीन और जोड़ दिये- प्रेक्षणकरासाक्रीड और हल्लीसक। हेमचन्द्र ने १० नृत्यरूपकों का उल्लेख किया- जिनमें अभिनवगुप्त के ८ धनञ्जय का श्रीगदित और अपना गोष्ठी नामक एक भेद और जोड़कर १० की संख्या पूरी की। हेमचन्द्र के बाद रामचन्द्र गुणचन्द्र ने इस संख्या को १३ तक पहुंचाया। इनमें डोम्बी को छोड़कर ६ भेद धनञ्जय से, हल्लीसक और प्रेक्षणक अभिनवगुप्त से, गोष्ठी हेमचन्द्र से तथा ४ अपने सट्टकदुर्मिलिता, शय्या और नाट्यरासक जोड़कर (६ + २ + १ + ४) १३ की संख्या पूरी की। इनका नाट्यरासक अभिनव का रासाक्रीड ही है । अग्निपुराण में १७ भेद किये गये और शारदातनय ने इनकी संख्या २० कर दी । इनमें रामचन्द्र गुणचन्द्र के शय्या और भाण को छोड़कर १३ में ११ भेद जिनमें दुर्मिलिता को दुर्मल्लिका और रासक के स्थान पर लासक कर दियागया। धनञ्जय द्वारा निर्दिष्ट डोम्बी और हर्ष द्वारा उल्लिखित तोटक शामिल कर लेने से १३ भेद बन गये। इनमें ७ भेद और जोड़ दिये गये- नाटिका, १ संल्लापशिल्पकउल्लाप्यक,मल्लिका, कल्पवल्ली और पारिजातक । इस प्रकार शारदातनय के २० भेद हो गये। विश्वनाथ के समय तक आते आते नृत्य रुपकों की यही स्थिति थी। विश्वनाथ ने इन्हें उपरूपक की संज्ञा प्रदान की और उनकी संख्या १८ मानकर उन्हें परिनिष्ठित कर दिया । विश्वनाथ द्वारा मान्य संख्या और उनका स्वरूप ही साहित्य जगत में प्रतिष्ठित है और उसे ही अन्तिम माना जाता है। विश्वनाथ ने शारदातनय के २० भेदों में शय्या, भाण, मल्लिका, कल्पवल्ली और पारिजातक ये ५ भेद छोड़ दिये। इस प्रकार शारदातनय के १५ भेद स्वीकार कर लिये तथा तीन अपनी ओर से जोड़ दिये विलासिका, प्रकरणी और भाव । वस्तुतः प्रकरणी की कल्पना नाटिका के आधार पर की गई है; क्योंकि प्रधान रूपक दो ही हैं- नाटक और प्रकरण। अतएव नाटिका के समान ही प्रकरणी भी एक भेद मान लिया गया। नाटिका और प्रकरणी में वही भेद हैं जो नाटक ( उन्नतीस ) और प्रकरण में हैं। वस्तुत: ये दोनों भेद रूपक भेदों के निकट पड़ जाते हैं; अतः इन्हें पूर्णरूप से उपरुपकों में सम्मिलित नहीं किया जा सकता। दूसरी बात यह है कि भरत ने रूपक के १० भेदों के साथ ११वें भेद नाटिका का भी उल्लेख कर दिया। इनका कथानक भी परिमाण में कुछ अधिक ही होता है। नाटिका का रूप बंधा बंधाया होता है। इसका प्रधान नायक प्रख्यात व्यक्ति होता है तथा कथानक कल्पित होता है। नायिका कुलवती राजकुमारी होती है; वह अभीष्ट नायक के अन्तपुर में किसी न किसी प्रकार पहुंच जातीहै। अधिकतर राजा का मन्त्री किसी राजकुमारी के विषय में यह सुनकर कि ज्योतिषियों के कथानुसार उसका पति चक्रवर्ती सम्राट होगा किसी न किसी प्रकार उसे अपने राजा के अन्तर्र में ले आताहै जहां किसी विपत्ति में फंस जाने के कारण उसे राजा के अन्त:पुर में प्रच्छन्न रुप में रानी की दासी बनकर रहना पड़ता है। संयोगवश राजा का उससे प्रच्छन्न प्रेम हो जाता है। जिसमें विदूषक और उसकी एक सहेली का भी योगदान रहता है। तब रानी की ओर से विघ्न लगते हैं जिससे छुटकारा पाने के लिये राजा को प्रयत्न करने पड़ते हैं। अन्त में उसका राजकुमारी होना सिद्ध हो जाता है जो अधिकतर रानी की ही कोई रिश्तेदार होती है। तब रानी ठसे राजा से विवाह करने की आज्ञा दे देती है। इस प्रकार प्रसिद्ध नायक और कल्पित कथानक के कारण नाटिका में नाटक और प्रकरण दोनों का मिला जुला रूप होता है। प्रकरणिका भी नाटिका के समान ही होती है। अन्तर यह होता है कि प्रकरणिका में नायक कोई प्रख्यात राजर्षि नहीं होता अपितु कोई सार्थवाह या बनियां होता है। वैसे प्रकरणिका में कोई ऐसी बात नहीं होती जिससे उसे पृथक् रूप में एक भेद मान लिया जाय। विश्वनाथ द्वारा माने गये १८ भेदों में नाटिका और प्रकरणिका को छोड़ देने से १६ भेद शेष रह जाते हैं जिनमें १० एकाई हैं और ६ अनेक अंकों वाले । नाटिका और प्रकरणिका में तो ४ अंक होते ही हैं। शेष का संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जा रहा है। (अ) अनेक अंकों वाले उपरूपक (९) प्रस्थान- दो अंकों का रूपक। इसका नायक दास और नायिका दासी होती है। उपनायक हीन जाति का होता है। भारती और कैशिकी ये वृत्तियां होती हैं और इसमें पूर्वराग, मानप्रवास का अभिनय रहता है और वसन्त का उत्कण्ठा पूर्ण वर्णन किया जाता है। चार खण्डों में बांटकर नृत्य किया जाता है। अन्त में वीर रस का भी निबन्धन रहता है। अभीष्ट अर्थ का उपसंहार सुरापान के द्वारा किया जाता है। ताल और लय का मिश्रण और विलास की अधिकता इसकी विशेषताएँ हैं। उदाहरण- शृङ्गारतिलक। (२) शिल्पक- चार अंकों का उपरूपक। इसमें चारों वृत्तियां होती हैं। शान्त और हास्य को छोड़कर सभी रस होते हैं। ब्राह्मण नायक होता है; ठपनायक हीन प्रकृति का ( तीस ) व्यक्ति होता है। श्मशान इत्यादि का वर्णन रहता है। आशंका, तर्क, सन्देह, ताप, उद्वेग, प्रसक्ति, प्रयल इत्यादि २७ अंगों में इसकी रचना की जाती है। उदाहरण- कनकावती।' = यह तीन या चार अंकों का ठपरूपक होता है। इसका नायक कोई पाखण्डी व्यक्ति हुआ करता है,करुण और शृङ्गार को छोड़कर अन्य रस होते हैं। नगरोपरोष, छल, उपद्रव का अभिनय किया जाता है। इसमें न तो कैशिकी वृत्ति होती है न भारती। ठदाहरण मायाकापालिक । (४) दुर्मल्लिका- नाट्यदर्पण में इसका नाम दुर्मिलिता माना गया है। किन्तु दोनों के लक्षणों में पर्याप्त अन्तरहै । नाट्यदर्पण की सम्मति में कोई दूती अश्लील कथाओं द्वारा युवक, युवतियों के चौर्यरत का वर्णन करती है औरउसकी बातें ग्राम्यकथाओं से भरी होती हैं। नीच जाति होने से धन मांगती है तथा मिल जाने पर और अधिक मांगती है। साहित्य दर्पण के अनुसार इसमें चार अंक होते हैं- वृत्तियां कैशिकी और भारती होती हैं। इसमें गर्म सन्धि नहीं होती, नागरिक व्यक्ति इसके पात्र होते हैं जिनकी संख्या बहुत कम होती है। पहला अंक ६ घड़ी का होता है जिनमें विट की हंसी मजाक चलती है; दूसरा अंक १० घड़ी का होता है जिसमें विदूषक की हंसी मजाक दिखलाई जाती है; तीसरे में पीठमर्द का विलास रहता है जो कि १२ घड़ी तक चलता है, चौथा अंक २० घड़ी तक चलता है जिसमें नायक की क्रीडा दिखलाई जाती है। उदाहरण- बिन्दुमती । (५) त्रोटक- इसका उल्लेख भाव प्रकाशन में भी हुआ है। इसमें ५9¢ या ९ अंक हो सकते हैं। इसका नायक दिव्य मानव होता है और विदूषक प्रत्येक अंक में रहता है। इसीसे सिद्ध होता है कि इसका अंगी शृङ्गार रस ही हो सकता है। इसके उदाहरण हैं- विक्रमोर्वशी, स्तम्भितरम्भक, मदलेखा, मेनकानहुष। (६) सदृक- इसमें अंको की संख्या नियत नहीं होती। इसके अंको को जवनिका कहा जाता है। न तो प्रवेशक होता है न विष्कम्भक, अद्भुत रस की मात्रा बहुत अधिक होती है। सभी बातों में यह नाटिका के समान होता है। उदाहरण- आनन्दसुन्दरी, कठूरमञ्जरी । (आ) एकाङ्की उपरूपक जैसा कि बतलाया जा चुका है इनकी संख्या १० होती है। इनमें अधिकांश में कैशिकी वृत्ति की प्रधानता होती है और सी पात्रों का अधिक्य रहता है। अधिकांश एकी ठपरूपकों में हास्य और शुङ्गार का प्रधान्य रहता है। कई उपरूपकों के उदाहरण नहीं पाये जाते, क्योंकि वास्तविक रूपक की अपेक्षा इनमें गीत नृत्य, वाद्य की प्रधानता रहती है और कहीं कहीं भूल नाट्य भी रहता है। कथा का व्याज बहुत क्षीण होता है। कुछ ही भेद ऐसे हैं जिनमें ब्दात्तता पाई जाती , अन्यथा मनोरञ्जन परक नृत्य इसमें अधिक रहते हैं। १० उपरूपकों का परिचय नीचे दिया जा रहा है ( इक्तीस ) (९) गोष्ठी- इसमें कुल मिलाकर १५१६ पात्र होते हैं,९ या १० पुरुष पात्र और ५६ स्त्री पात्र में सभी पात्र जन साधारण से लिये जाते हैं और सामान्य जनजीवन का अभिनय प्रस्तुत करते हैं। इसके संवाद अधिकतर हल्के फुल्के होते हैं जिनमें उदात्तता नहीं होती। इसमें मुखप्रतिमुख और निर्वहण ये तीन सन्धियां ही होती हैं क्योंकि संघर्ष अधिक नहीं होता। इसमें प्रधानता कामश्ङ्गार की होतीहै और कैशिकी वृत्ति का विशेष आश्रय लिया जाता है। साहित्य दर्पण में इसका उदाहरण दिया गया है- रैवतमदनिका। (२) नाट्यरासक- इसका उल्लेख भावप्रकाशन, नाट्यदर्पण और साहित्यदर्पण में किया गया है । नाट्यदर्पण में इसकी परिभाषा अत्यन्त संक्षिप्त दी गई है- वसन्त आने पर स्त्रियां प्रेम के आवेश में भरकर जब राजाओं के चरित्र को नृत्य गीत के द्वारा प्रस्तुत करती हैं तब ठसे नाट्यरासक की संज्ञा दी जाती है। साहित्यदर्पण में कुछ अधिक विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इसके अनुसार इसमें किसी उदात्त चरित्र का नायक के रूप में उपादान किया जाता है और पीठमर्द (नायक के समान तथा उससे घट कर गुणों वाल) उपनायक (सहायक) के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें ताल और लय तथा संगीत अधिक मात्रा में होता है । हास्य रस अंगी होता है और पुष्कल रुप में ङ्गार का समावेश किया जाता है। नायिका वासकसज्जा होती है अर्थात् एक स्त्री नायिका के रूप में शुङ्गार करके नायक के आने की प्रतीक्षा करती है और दूसरी नृत्य के साथ अभिनय करती हुई उसी के चारो ओर घूमती है । इसमें प्रतिमुख सन्धि का अभाव होता है। कभी कभी मुख सन्धि के बाद निर्वहण सन्धि आ जाती है और कभी कभी अन्य प्रासङ्गिक कथा का समावेश कर दिया जाता है जिससे गर्भ और विमर्श सन्धियों का भी समावेश हो जाता है। लास्य के सभी अंग इसमें आ जाते हैं। नर्मवती नाट्यरासक में दो सन्धियों का उपादान हुआ है और विलांसवती में चार अंकों का। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने भारतदुर्दशा की रचना नाट्यरासक के रूप में की थी। किन्तु शास्त्रीय लक्षणों से उसका मेल नहीं बैठता। सम्भवतः भारतेन्दु की नाट्यशासक विषयक कल्पना कुछ भिन्न थी। किन्तु इसका उन्होंने उल्लेख नहीं किया। (३) उल्लाप्य- इसका निरूपण भावप्रकाशन में किया गया है। साहित्य दर्पण में इसका परिचय इस प्रकार दिया हुआ है- इसमें दिव्य वस्तु का उपादान होता है और इसका नायक उदात्त होता है। शिल्पक नामक उपरूपक में जो २७ अंग बतलाये गये हैं वे इसमें भी होते हैं। इसमें तीन रसों का समावेश होताहै- हास्य, शृङ्गार और करुण; संग्राम बहुत अधिक दिखलाया जाता है; आंसुओं का भी समावेश रहता है और संगीत जन्य मनोहरता भी रहती है। इसमें चार नायिकायें होती हैं। इसका उदाहरण है 'देवी महादेवम्’ कुछ लोगों के मत में इसमें कभी कभी ३ अंक भी होते हैं। (४) काव्य- इसका उल्लेख नृत्यपरक रूपक भेदों में दशरूपकम् में भी किया गया। है। इसके अतिरिक्त अग्नि पुराण, भाव प्रकाशन में भी इसको स्थान दिया गया है। इसमें ( बत्तीस ) हास्य और शङ्गार का बाहुल्य होता है। इसकी नायिका कुलटा वेश्या होती है। इसमें आरभटी को छोड़कर तीन वृत्तियां होती हैं अर्थात् विषय वस्तु में कठोरता नहीं होती। इसमें भग्नताल, मात्रा और लास्य का बहुत प्रयोग होता है। विदूषक और विट का प्रयोग भी आवश्यक है। नायिका उच्च गुणों वाली दिखलाई जाती है। इसका उदाहरण है यादवोदय । (५) प्रेक्षण या प्रेङ्कण- इसमें सभी वृत्तियां होती हैं। कोई हीन पात्र इसके नायक के रूप में दिखलाया जाता है। न इसमें सूत्रधार होता हैं, न विष्कम्भक न प्रवेशक। गर्भ और विमर्श सन्धियां भी नहीं होतीं। इसमें युद्ध भी दिखलाया जाता है और क्रोध पूर्ण वार्तालाप भी। नेपथ्य में नान्दीपाठ किया जाता है और प्ररोचना का भी प्रयोग होता है अर्थात् कवि और काव्य की प्रशंसा भी आरम्भ में की जाती है। इसका उदाहरण है। वालिवध; इसका उल्लेख अभिनव गुप्त ने भी किया है और नाट्यदर्पण, भाव प्रकाशन, काव्यानुशासन में भी इसका निरूपण किया गया है। नाट्यदर्पण में लिखा है कि गलियों में, समूह में, चौराहों पर मद्यशालाओं में जो बहुत से पात्र मिलकर विशेष प्रकार के नृत्य के द्वारा किसी वस्तु का प्रदर्शन करते हैं वह प्रेङ्कण कहलाता है। भाव प्रकाशन में त्रिपुरमर्दन और नृसिंहविजय ये दो ठदाहरण दिये गये हैं। (६) रासक- इसका उल्लेख दशरुपक में भी किया गया है और अभिनवगुप्त ने भी इसे स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त नाट्यदर्पण, भावप्रकाशन और काव्यानुशासन में भी इसका निरूपण है। नाट्यदर्पण के अनुसार १६१२ और ८ नायिकायै पिण्डंबन्ध इत्यादि विन्यास से जिसमें नृत्य करती हैं उसे रासक कहा जाता है। साहित्यदर्पण में नृत्य के अतिरिक्त अभिनय भी सम्मिलित कर दिया गया है। इसके अनुसार रासक में ५ पात्र होते हैं और मुख तथा निर्वहण ये दो सन्धियां होती हैं। कुछ लोग प्रतिमुख सन्धि का होना भी स्वीकार करते हैं। भारती और कैशिकी ये दो वृत्तियां होती हैं। इसमें अनेक भाषाओं और उपभाषाओं तथा अनेक प्रकार की प्राकृतों का प्रयोग किया जाता है। सूत्रधार का अभाव होता है किन्तु नान्दीपाठ किया जाता है। वीथी के सभी अंग रहते हैं। विभिन्न कलाओं का प्रयोग किया जाता है। इसकी नायिका प्रख्यात होतीहै और नायक मूर्छ। उदाहरण मेनकाहितम् । (७) श्रीगदित- इनका उल्लेख दशरूपक के समय से ही प्रारम्भ हो जाता है, अभिनवगुप्त, रामचन्द्रगुणचन्द्र, शारदातनय प्रभृति अनेक आचार्यों ने इसे मान्यता दी है। नाट्यदर्पण के अनुसार जिसमें कोई कुलाङ्गना अपने पति के शौर्य, त्याग, औदार्य प्रभृति गुणों का गति के माध्यम से अपनी सखी के सामने उसी प्रकार वर्णन करती है मानो लक्ष्मी विष्णु का वर्णन कर रही हो; फिर पति के द्वारा वियुक्त होने पर गीत का स्वर क्रमशः उपालम्भ परक होता जाता है उस रूपक को श्रीगदित की संज्ञा प्राप्त होती है। साहित्यदर्पण के अनुसार इसकी वस्तु प्रख्यात होती है, नायक प्रख्यात और उदात्त होता ( तेंतीस ) है। नायिका भी प्रसिद्ध होती है। गर्भ और वमश सन्धियां इसमें नहीं होती। पदार्थ के स्थान पर पद का अभिनय किया जाता है। अत: इसमें भारती वृत्ति की प्रधानता होतीहै। कीथ के अनुसार इसमें श्रीशब्द का प्रायः उल्लेख किया जाता है और धीरूप धारिणी कोई नटी बैठकर पद गाती है। साहित्यदर्पण में इसका उदाहरण दिया गया है। क्रीडारसातल और कीथ ने माधव रचित सुमद्राहरण को एकमात्र इस भेद की रचना कहा है । (८) विलासिका- इसका एकमात्र उल्लेख साहित्य दर्पण में ही है। इसमें शृङ्गार की अधिकता होती है; लास्य के दसों अंग विद्यमान रहते हैं। विदूषक, पीठमर्द और विट इसमें विशिष्ट पात्र होते हैं, नायक निम्नकोटि का होता है; वस्तु बहुत बड़ी होती है। किन्तु वेषभूषा और नेपथ्य तथा नाचगान की अधिकता होती है; गर्भ और विमर्श ये दो सन्धियां नहीं होतीं। कुछ लोग इसे लासिका की संज्ञा प्रदान करते हैं जिसका दुर्मल्लिका में अन्तर्भाव हो जाताहै। इसका कोई उदाहरण उपलब्ध नहीं होता। (९) हल्लीस- इसका वर्णन नाट्यदर्पण, काव्यानुशासन, भाव प्रकाशन इत्यादि प्रन्यों में भी पाया जाता है और अभिनवगुप्त ने भी इसका उल्लेख किया है। यह एक प्रकार का नृत्य है जिसमें ८, १० स्त्रियां मण्डल बनाकर तथा एक साथ नायक को मध्य में रखकर उसी प्रकार नाचती हैं जिस प्रकार व्रजभूमि में गोपी कृष्ण नृत्य की परिपाटी है। इसमें कैशिकी वृत्ति की प्रधानता होती है नायक की वाणी उदात्त होती है तथा ताल और लय का बाहुल्य होता है। मुख और निर्वहण दो सन्धियां होती हैं। इसका उदाहरण है (१०) भाणिका- इसका उल्लेख अनेक आचार्यों ने किया है । यह भाण का सजातीय उपरूपक है। इसमें नेपथ्य विधान अत्यन्त मनोरम होता है; मुख और निर्वहण ये दो सन्धियां होती हैं; कैशिकी और भारती ये दो वृत्तियां होती हैं। नायिका कोई उच्चकोटि की सी होती है और नायक हीन कोटि का पुरुष। इसके ७ अंग माने गये हैं जिनमें इसकी वस्तु का विश्लेषण हो जाता है। इसमें प्रसंगवश कार्य का वर्णन किया जाता है। (उपन्यास; निर्वेदपूर्ण कथन किये जाते हैं विन्यास; भ्रान्ति का नाश होता है विबोध; मिथ्या कथन किये जाते हैं (साध्वस); क्रोध और पीडा से उपालम्भ दिये जाते हैं (समर्पण) कोई दृष्टान्त दिया जाता है निवृत्ति; और अन्त में कार्य का समापन किया जाता है (संहार इन्हीं सात अंगों में भाणिका की योजना की जाती है। शारदातनय ने चार अन्य उपरूपकों का वर्णन किया है जो साहित्य दर्पण में उल्लिखित नहीं हैं- (१) पारिजात या पारिजातलता- उदाहरण गंगातरंगिका; (२) कल्पवल्ली उदाहरण माणिक्यवल्लिका; (३) डोम्बिका उदाहरण गुणमाला, चूडामणि; (४) भाण उदाहरण नन्दिमती शृङ्गारमंजरी । (चौंतीस ) मध्य युग अथवा दरवारी कविताकाल ईसापूर्व प्रथम शताब्दी से लेकर १९वीं शताब्दी के अन्त पर्यन्त लगभग २००० वर्षका सुदीर्घ काल भारतीय साहित्य साधना के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र का और विशेषकर ललित साहित्य का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण काल है। नाट्यसाहित्य के क्षेत्र में भी इस काल में इतनी बहुमूल्य कृतियां प्रस्तुत की गई जिन्हें विश्व साहित्य में केवल स्थान ही नहीं मिला अपितु उन्हें विश्व की मूर्धन्य कृतियों में गिना गया और पाश्चात्य जगत् ठनके कला सौन्दर्य पर मुग्ध हो गया। इस काल की अधिकांश रचनायें विभिन्न राजघरानों के संरक्षण में हुई। कलाकार अधिकतर किसी राजघराने के आश्रय में रहकर रचनाएँ प्रस्तुत करते थे और उन पर पुरस्कार प्राप्त करते थे। अनेक राजा लोग स्वयं कलाकार थे और उनकी कृतियों ने पर्याप्त प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। इन कृतियों की संख्या सहस्त्रों में है जिनका केवल एक अंश अबतक प्रकाश में आया है। हजारों की संख्या में इस प्रकार की कृतियां रजघरानों के व्यक्तिगत पुस्तकालयों में सुरक्षित पड़ी हैं। इस विषय में पाश्चात्य विद्वान धन्यवाद के पात्र हैं कि उन्होंने मनोयोगपूर्वक इन ग्रन्थों को खोज निकाला है तथा इसके लिये खोज की दिशा उन्मीलित की है जिससे प्रोत्साहित होकर भारतीय विचारकों ने इस दिशा में स्तुत्य कार्य किया है। इस साहित्य और इस पर राजघरानों के योगदान के विषय में सरसरी तौर से प्रकाश डालने के पहले दो प्रश्नों पर विचार कर लेना अत्यन्त आवश्यक है एक तो रचनाओं की अनिश्चित स्थिति दूसरे ग्रीक साहित्य का भारतीय नाट्यकला से सम्बन्ध जिस समस्या से भारतीय नाट्य साहित्य पर विचार करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को दो चार होना पड़ता है। भारतीय साहित्य का दुर्बल बिन्दु उसके इतिहास का अभाव है। इस विषय में मैक्समूलर का कहना है- भारत में इतिहास का सर्वथा अभाव है; इसका कारण यह है कि इतिहास की सुरक्षा का उत्तरदायित्व ब्राह्मण वर्ग पर था जिसने संसार की नश्वरता को समझ लिया था और जो परमतत्व को ही महत्व देता था। इसके प्रतिकूल यूनानी लोग सांसारिक व्यक्ति थे और वे भौतिक सुख सुविधा और सम्पन्नता को जीवन का परम ध्येय समझते थे। इसीलिये यूनानी लोग इतिहास को सुरक्षित रख सके जबकि भारतीय इस दिशा में उदासीन रहे । मैकाडनल ने भी ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं ‘इतिहास भारतीय साहित्य का एक दुर्बल बिन्दु है। वस्तुत: इसकी सत्ता ही विद्यमान नहीं है। ऐतिहासिक बुद्धि का अत्यन्ताभाव इसका एक ऐसा लक्षण है कि संस्कृत साहित्य का सम्पूर्ण मार्ग इस दोष की छाया से आक्रान्त होकर अन्धकाराच्छन्न हो गया है। यह साहित्य ठक तिथि निर्धारण की पूर्ण अनुपस्थिति से पीडित है और इसकी पीडा भोग रहा है। यह इस सीमा तक सच है कि भारतीय कवियों में सबसे बड़े कवि कालिदास का समय बहुत समय तक एक हजार वर्ष की सीमाओं के अन्तर्गत विवाद का विषय बना रहा और अब भी एक या दो शताब्दियों की सीमा के बीच सन्देह से भरा हुआ है। इस प्रकार ( पैतीस ) संस्कृत लेखकों की तिथियां अत्यधिक संख्यक विषयों में सन्निकटता के मोटे अनुमान पर आधारित हैं। पारस्परिक निर्भरता के अप्रत्यक्ष प्रमाण, उद्धरण या सन्दर्भ, संकेत भाषा के विकास या शैली के द्वारा इन तिथियों का अनुमान लगाया जाता है। संस्कृत साहित्य के कलाकारों का निश्चित प्रमाण न मिलने का एक बहुत बड़ा कारण है ईपू. का साहित्य उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर भरत ने नाट्यशास्त्र की रचना की थी। जिन साहित्यों में साहित्य भाषा थोड़े थोड़े समय में बदलती रहती है और ऐतिहासिक शासकों में परिवर्तन होता रहताहै तथा सामयिक परिस्थितियों और प्रवृत्तियों में नई नई धारायें प्रवर्तित होती रहती हैं उनमें यदि ऐतिहासिक उल्लेख न हो तो भी स्वयं साहित्य से उसकी रचना का परिज्ञान हो जाता है। ठदाहरण के लिये हिन्दी साहित्य को लीजिये। इस सहस्राब्दी के प्रारम्भ में राजपूतकाल में जो अपभंश मिश्रित राजस्थली डोगरी चल रही थी मुस्लिम साम्राज्य के स्थापित हो जाने पर असहाय हिन्दू जाति ने भक्ति का मार्ग पकड़ा और भक्ति के लिये आराध्य देव राम कृष्ण की उपासना के लिये अवधी और ब्रजभाषाएँ अपनाई गई। फिर जब हिन्दू जाति मुस्लिम साम्राज्य के लिये आदी हो गई और साहित्य सिद्धान्तों (रीतियों) की चर्चा चल दी तब शृङ्गार रस का प्राधान्य हो गया और शृङ्गार रस के अधिदेवता भगवान् कृष्ण ही साहित्य क्षेत्र में प्रतिष्ठित रहे तब भाषा तो व्रज ही रही किन्तु कृष्ण का शृङ्गार प्रमुख हो गया। फिर अंग्रेजी राज्य की स्थापना के साथ जब मुस्लमानों द्वारा अपनाई गयी ऊर्दू के नाम पर खड़ी बोली का प्रभुत्व बढ़ा तब ब्रजभाषा भी छूट गई और खड़ी बोली में कविता होने लगी। इस शताब्दी की कविता पर भी यदि ध्यान दिया जाय तो काव्य की विषयप्रवृत्ति दशाब्दियों में बदलती रही। इस प्रकार ऐसे साहित्य में यदि ऐतिहासिक देशकाल सुरक्षित न रह सका हो तो भी भाषा और विषय के आधार पर कविता स्वयं अपना देशकाल व्यक्त कर देगी। किन्तु ऐसी सुविधा संस्कृत में नहीं है। संस्कृत भाषा तो अपरिवर्तन शील है ही जो प्राकृत भाषायें नाटकों में प्रयुक्त होती हैं उनका भी देशकाल सर्वजन संवेद्य नहीं है। शास्त्रकारों ने उन भाषाओं को भी लगभग परिनिष्ठित बना दिया है। विषय भी सामान्यतः जाने माने ही हैं और शैली भी परम्परागत रूप में ही अपनाई जाती रही है। अतः किसी कृति को देखकर उसके देशकाल का निर्णय करना सरल नहीं है। परिणाम यह हुआ है कि यदि १२वीं शताब्दी की कृति को कोई ६ठी शताब्दी की बतला दे और उसके लिये कुछ तर्क भी प्रस्तुत कर दे तो कोई पाठक आसानी से उस पर अविश्वास नहीं कर सकेगा। किसी साहित्यिक कृति के काल निर्धारण के लिये तर्क का सहारा लेना पड़ता है जिस पर स्वयं विश्वास नहीं होता हस्तस्पर्शादिवान्धेन विषमे पथि धावतः। अनुमानप्रमाणेन विनिपातो न दुर्लभः ॥ [अनुमान को प्रमाण मानकर चलने वाले (तर्क के आधार पर वस्तुतत्व का निर्णय ( छत्तीस ) पूo करने वाले) की वही दशा होती है जैसे कोई अन्धा व्यक्ति हाथ से टटोलकर किसी ऊबड़ खाबड़ मार्ग पर दौड़ रहा । हो ऐसे व्यक्ति का गिर जाना दुर्लभ नहीं होता । आशय यह है कि तर्क के आधार पर निर्णय की हुई बात पर पूर्ण विश्वास नहीं किया जा सकता। इस प्रकार अनेक कलाकारों का समय निर्धारण सन्दिग्ध ही रह जाता है। अनेक विषयों में तो पाश्चात्य विद्वानों में भी मतभेद बना रहता है। सामान्य रूप से निर्णायक तत्व हैं विदेशी यात्रियों के उल्लेखकिसी कवि, कलाकार शास्त्रकार या किसी अन्य लेखक द्वारा उल्लेख, गणित सम्बन्धी ऐसी वास्तविकता जो किसी निश्चित कालावधि से भिन्न नहीं हो सकती थी, किन्हीं उपलब्ध सिक्कोंताम्रपत्रों स्तम्भ लेखों द्वारा निर्णय एवं अन्य साधनों से निर्णय। भारतीय पुरातत्व का निर्णय करने वालों ने निर्णय करने की चेष्टा की है कतिपय तत्व प्रकाश में आये भी हैं फिर भी उन पर पूर्ण विश्वास करना सर्वथा असन्दिग्ध नहीं हो सकता। पूर्ण रूप से निश्चित तिथि ईसा से ३२६ वर्ष पूर्व भारत पर सिकन्दर का आक्रमण था। उस समय से ग्रीक लोगों के साथ भारत का सम्पर्क हुया। उस समय से विभिन्न ग्रीक लोग भारत में रहने लगे। मगध राज्य में राजदूत के रूप में मेगस्थनीज ई.. ३० के आस पास पटना में रहता रहा था। यह सम्भवतः चन्द्रगुप्त मौर्य का शासनकाल था। अनेक शताब्दियों बाद चीनी यात्रियों का भरत दर्शन प्रारम्भ हुआ जिनमें फाह्यान (३९९ ई) हुयेन सांग (६३० से ६४५ ई) और इसिग (६७१ से ६९५ ई) के यात्रा विवरण प्राप्त होते हैं। इनसे भारतीय इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है। किन्तु भारतीय कवियों और नाटककारों के विषय में इन यात्रियों में हुयेन सांग को छोड़कर अन्य यात्रियों ने बहुत कम लिखा है। इन विवरणों से भारतीय साहित्य पर कुछ प्रकाश पड़ता है। इसके कतिपय शताब्दियों बाद ११वीं शताब्दी के मध्य में अल्वरूनी ने ‘हिन्दुस्ताननामक पुस्तक में भारतीय समाज और संस्कृति का परिचय दिया है। कवियों और कलाकारों के उल्लेख से इतना तो सिद्ध हो जाता है कि जिसका उल्लेख किया गया है वह उस लेखक से पहले हो चुका था जिसने उसका उल्लेख किया है, किन्तु यह ज्ञात नहीं होता कि वह कितना पहले हुआ था। एक कठिनाई यह भी है कि अनेक लेखकों ने अपनी अच्छी कृतियों को भी पूर्ववर्ती किसी लेखक के नाम पर और प्रायः उनकी कृति में सन्निविष्ट कर इस आशा से प्रचारित करने की चेष्टा की कि इससे उसकी कृति का सम्मान अधिक होगा। इस प्रवृत्ति के सबसे बड़े प्रमाण हैं- ८००० श्लोकों का जय नाम इतिहास कालान्तर में एक लाख से अधिक श्लोकों का महाभारत बन गया। सैकड़ों वर्षों के अन्तराल में होने वाले कवियों को भोज प्रबन्ध में एक साथ होने वाला बतला दिया गया। वेदव्यास को वैदिक साहित्य के संकलन, महाभारत और समस्त १८ महापुराणों और उपपुराणों की रचना का श्रेय दे दिया गया। महानाटक के रचनाकार ने अपने नाम का मोह छोड़कर उसे हनुमन्नाटक के रूप में हनुमान की कृति के रूप में प्रसिद्ध हो जाने दिया यद्यपि ( सैंतीस ) लेखकों ने दामोदर मिश्र और मधुसूदन नामों द्वारा संकलन और उद्धारकर्ता के रूप में अपना नाम भी चलने दिया। ऊपर जो कुछ कहा गया है उसका आशय यह नहीं है कि साहित्य के अनुसन्धान की दिशा में जो कुछ निर्णय किये गये हैं वे सब अविश्वसनीय ही हैं। उसका आशय केवल यही है कि इस दिशा में किये गये अनुसन्धानों पर विवेक के साथ विश्वास करना चाहिये। इसमें कुछ आग्रह का अंश भी वाधक हो जाता है। सामान्य भारतीय व्यक्ति जिन घटनाओं को लाखों वर्ष पुराना मानता है उन्हें ही पाश्चात्य विचारक अधिक से अधिक परवर्ती सिद्ध करने की चेष्टा करता हैं। उनका एक आग्रह यह भी रहता है कि भारत में जो कुछ उत्तम और महत्वपूर्ण है वह सब यूरोप की देन है। आर्यों का आदिदेश भी इसी विवाद में उलझा हुआ है। इन सब बातों के होते हुये भी पाश्चात्य विचारकों ने हमारे साहित्य के विषय में जो अनुसन्धान किये हैं हमें निस्सन्देह उनका आभारी होना चाहिये। उन लोगों ने जो दिशा उन्मीलित की है वह हमारी पथ प्रदर्शक अवश्य है। इसमें सन्देह नहीं। भारतीय नाट्यकला पर यूनानी प्रभाव मैकडानल के अनुसार भारत का पाश्चात्य देशों से सम्पर्क ५वीं शताब्दी .पू. से ही चल रहा था जबकि आर्क मेनिड वंश का शासन था, किन्तु वास्तविक सम्पर्क सिकन्दर के आक्रमण के साथ चौथी शताब्दी .पू. मे स्थापित हुआ। श्रीवेवर और श्रीविडिश ने मत व्यक्त किया है कि सिकन्दर के साथ कलाकारों का एक दल भी आया था जो सिकन्दर के लौट जाने के बाद यहीं स्थिर हो गया। ई.. तीसरी शताब्दी में यूनानीशासक भारतीय जीवन में सम्मिलित होने लगे थे। सेल्यूकस ने मीडिया और पर्शिया में साम्राज्य स्थापित कर लिया था चन्द्रगुप्त की शक्ति को पराजित करने में स्वयं को असमर्थ पाकर सन्धि कर ली और पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया। इसके साथ ही यूनानी मेगस्थनीज को राजदूत के रूप में चन्द्र गुप्त के दरबार में छोड़ दिया। मेगस्थनीज ने निकट से देश का अध्ययन कर ‘टा इण्डिया’ नामक पुस्तक की रचना की जो किसी विदेशी द्वारा भारत के विषय में लिखा गया पहला अभिलेख होने के कारण अधिक महत्वपूर्ण है। वेवर और विंडिश का मत है कि भारत के पश्चिम में यूनानी शासकों ने अपनी साम्राज्य सत्ता स्थापित कर ली थी। वे अपने अधीनस्थ राज्यों में यूनानी नाटकों का अभिनय करवाया करते थे। उनके अनुकरण पर संस्कृत साहित्यकारों ने भी नाटकों की रचना प्रारम्भ कर दी। सिकन्दर नाट्यकला का शौकीन था। उसके अभियान में नाट्यमण्डलियां भी साथ में आई थीं। अपने विजित प्रदेशों में वे नाटकीय प्रदर्शनों का आयोजन करते थे। उस प्राचीन काल में अलेक्जेंड्रिया से भारत का व्यापार भी होता १. भारत के साथ पाश्चात्य सम्पर्क के विषय में देखिये मैकडानल का संस्कृत साहित्य का इतिहास अध्याय१६ ( अड़तीस ) था। इन सब सम्पकों से भारतीय समाज पर यूनानी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था और इसी के साथ भारतीय नाट्यकला का उद्भव हुआ। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि भारतीय नाटकों में परदे के लिये यवनिका शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसका अर्थ होता है यवन देश से आया हुआ। वेवर का कहना है कि ‘यवनिक' के अतिरिक्त अन्य कोई समानता भारतीय और यूनानी नाटकों में नहीं है। किन्तु विंडिश एक कदम और आगे बढ़ गये। उन्होंने सिद्ध करने की चेष्टा की कि मृच्छकटिक में एटिक की सुखान्तिका का प्रभाव खोज निकाला जा सकता है। कतिपय विचारकों ने यह भी प्रतिपादित करने की चेष्टा की है कि नाट्य की विषयवस्तु भी मेलखाती है। दोनों में राजा एक युवती से प्रेम करता है; उसमें विष उपस्थित होते हैं फिर सुखान्त मिलन होता है। दोनों में मिलन के दृश्य दिखलाये जाते हैं; वियोग होता है वियोग वेदना का चित्रण होता है, निशानी भेजी जाती है; डाकुओं द्वारा नायिका का अपहरण किया जाता है, प्रवहण भंग होता है, नायिका कष्ट में पड़ती है, फिर उसका उद्धार हो जाता है। यह साम्य सिद्ध करता है कि भारतीय नाटक का विकास यूनानी नाटकों के अनुकरण के आधार पर हुआ है। साम्य के जो बिन्दु बतलाये जाते हैं वे इतने सामान्य हैं कि किसी भी नाट्यपद्धति में पाये जा सकते हैं। ठस समय राजतन्त्र तो यूनान और भारत दोनों देशों में था; राजकीय चरित्र ही नाट्य के विषय बनते थे। प्रेम, उसमें विन, विरह, वेदना, मिलन ये इतने सामान्य तत्व हैं कि इनका उपादान कहीं भी पाया जा सकता है। उसमें आदान प्रदान का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। स्वयं पाश्चात्य विद्वान इस विषय में एकमत नहीं हैं। मैकडानल का कहना है कि जितना साम्य यूनानी नाटकों के साथ भारतीय नाटकों का पाया जाता है उससे कहीं अधिक साम्य सेक्सपियर के नाटकों और भारतीय नाटकों में पाया जाता है। यह केवल कल्पना है कि भारत में सिकन्दर के आगमन के बाद यूनानी नाटकों का भारत में प्रचलन हो गया था। यहां के रंगमश्च पर यूनानी नाटक दिखलाये जाते थे पहले तो यही बात प्रमाणित नहीं है। रह गई यवनिका की बात- विद्वानों का कहना है कि परदों की प्रथा यूनानी नाटकों में थी ही नहीं। फिर उनके अनुकरण का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। यवनिका इस नामकरण का अन्य कारण भी हो सकता है। भारतीय नाटकों में यूनान की लड़कियों का सेविका के रूप में उल्लेख किया जाता है। यूनानी साहित्य में भी उस समय यूनानी लड़कियों को पेंट के रूपमें भारत को भेजने का उल्लेख प्राप्त होता है। हो सकता है परदों के उठाने गिराने पर यूनान की लड़कियां नियुक्त की जाती हों और इसलिये परदों का भी उन्हीं के नाम पर प्रचलन हो गया हो। साम्य की अपेक्षा यूनानी नाटकों के साथ भारतीय नाटकों का वैषम्य अधिक है। पहले तो उद्देश्य में भी भिन्नता है। यूनानी नाटकों का ठद्देश्य ही भारतीय नाटकों के ठद्देश्य से भिन्न हैं। यूनानी नाटकों में शोकान्तिका का महत्व हैं; उसमें यथार्थवाद पर जोर दिया जाता है। जीवन के घृणित सच्चे चित्र दिखलाकर दर्शकों और आम जनता | ( उन्तालीस ) को उन बुराइयों से दूर करने की चेष्टा की जाती है जबकि भारतीय ठद्देश्य आदर्श चरित्र दिखलाकर उसी प्रकार का चरित्र बनाने का प्रयत्न करना माना जाता है। यहां यह भी ध्यान रखना चाहिये कि भारतीय सुखान्तिकाओं को ‘कमेडी’ कह कर जो गर्हणा की जाती है वह भी पक्षपातपूर्ण विचार ही है। भारतीय नाटक पाश्चात्य कमेडी जैसे हास परिहास प्रधान नहीं होते। उनमें जीवन्त गम्भीर तत्वों का पर्याप्त समावेश होता है। संघर्ष की उनमें कमी नहीं होती। किन्तु सङ्घर्ष मध्य में दिखलाया जाता है जिसका परिणाम अच्छे पक्ष की विजय के द्वारा आनन्द में होता है। महाभारत का जैसा संघर्ष विश्व साहित्य में शायद ही कहीं देखने को मिले। यह कहना सर्वथा दुस्साहस होगा कि रामायण में संघर्ष नहीं है। यह बात अवश्य है कि भारतीय नाटकों में एक मात्र संघर्ष ही उद्देश्य नहीं होता। कोई भी समस्या नाट्य प्रवर्तक हो सकती है। भारतीय नाटकों में यूनानी नाटकों के समान चरित्र चित्रण की प्रधानता नहीं होती और न चरित्रचित्रण उसका उद्देश्य होता है। यहां रस निष्पत्ति और रसास्वादन नाटक का उद्देश्य होता है। इसीलिये ज्ञात चरित्र वाले पात्रों से सम्बन्धित नाटक सर्वातिशायी माने जाते हैं, क्योंकि उनके चरित्र पहले से विद्यमान दर्शक भावना को आस्वाद्य बनाने का सरल साधन हैं। कौतूहल वृत्ति की प्रधानता वाले नाटक इतने उच्चकोटि के नहीं माने जाते । सारांश यह है कि जब ठद्देश्य में भेद जब फल में भेदजब प्रक्रिया में भेद तब एक दूसरे के अनुकरण से उद्भव के सिद्धान्त को मानना किसी प्रकार समचीन नहीं कहा जा सकता। वैसे कला के क्षेत्र में आदान प्रदान स्वाभाविक ही है। गेटे ने अपनी कृति काष्ट लिखने में प्रस्तावना की योजना में अभिज्ञानशाकुन्तल की प्रस्तावना से प्रेरणा प्राप्त की। सेक्सपियर के नाटकों के साथ इस प्रकार की समानताओं पर पाश्चात्य विद्वानों का ध्यान गया है। इस प्रकार का आदान प्रदान अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता। इस विषय में मैक्डानल का कथन है- ‘दूसरी बात यह है कि सबसे पुराने संस्कृत नाटकों की विद्यमानता में यूनानी काल से ४०० वर्ष का व्यवधान है। भारतीय नाटक का पूर्णरूप से स्वराष्ट्रीय विकास हुआ है और यद्यपि उसका प्रारम्भ अन्धकार के आवरण में ढका हुआ है फिर भी उसकी अपने देश में ही उत्पत्ति की व्याख्या सरलता से की जा सकती है। राजाश्रय इस काल की कविता (नाटक) को दरवारी काव्य की संज्ञा दी गई है। कारण यह है कि इसका काव्य और नाट्य राजा लोगों के आश्रय में ही पनपा है। राजा लोग कवियों को आश्रय देने में गौरव का अनुभव करते थे। कविता सुनने और नाटक देखने का उन्हें शौक था। भरत ने लिखा है नाटक में दी जाने वाली पताका का अन्तिम निर्णय राजा लोग ही करते थे। इसका आशय यह है कि राजा लोगों से इतना प्रवीण होने की आशा भी की जाती थी। अनेक राजा स्वयं कवि हुये हैं; अनेक राजाओं ने नाटक भी लिखे हैं। ऐसे भी उल्लेख पाये जाते हैं कि राजा लोग पुष्कलधन देकर कवियों की रचनाओं ( चालीस ) को स्वयं खरीद लेते थे और उन्हें अपने नाम से प्रकाशित कर देते थे। ऐसे नाटकों की संख्या बहुत अधिक है जिनका उल्लेख नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थों में उदाहरण के रूप में पाया जाता है। कहीं नाटक का नाम है। कहीं उनसे उद्धरण दिये गये हैं, कहीं कथानक की उदाहरणों से संगति बैठाई गई है। कई नाटक ऐसे भी हैं कि नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थों के विवरण से उनका परिचय प्राप्त किया जाता है। ऐसे ग्रन्थ राजघरानों के पुस्तकालयों में सुरक्षित पड़े हैं जिनके अनुसन्धान की आवश्यकता है। कवियों के राजाश्रय का यथास्थान यथासम्भव परिचय दे दिया गया है। राजकीय पुस्तकालयों के अतिरिक्त कलकत्ता, मद्रास, बंगलौर, तंजौर, बम्बई, पूना, बनारस, दिल्ली इत्यादि अनेक बड़े शहरों में उच्चकोटि के पुस्तकालयों में पाण्डुलिपियों की सूची बनी हुई है; अनेक खोज रिपोर्ट विद्यमान हैं। निस्सन्देह इन सबका स्वतन्त्र अनुसन्धान भारतीय कला और संस्कृति पर महत्व पूर्ण प्रकाश डाल सकेगा लेखक की यह वलवती आशंसा है। खेद इस बात का है कि विदेशी शासन में इस दिशा में जो गति विधि चल रही थी वैसा उत्साह अब इस दिशा में मन्द पड़ गया है। यह भारत की अपार सम्पत्ति है जिसका अनुसन्धान नितान्त अपेक्षित है। आधुनिककाल २०वीं शताव्दी २० वीं शताब्दी का भारतीय इतिहास अपने स्वरूप में समस्त प्राक्तन इतिहास से पृथक् दृष्टिगत होता है। यों तो विदेशों से भारत का सम्पर्क ई.पू. ५वीं शताब्दी से किसी न किसी रूप में चलता रहा; शक, हूण, यवन, कुशाण आदि जातियां भारत में आती रहीं; हिन्दू सम्प्रदाय की उदार मनोवृत्ति के कारण वे यहां की निवासी ही नहीं बनती गई अपितु हिन्दू समाज में समाहित भी होती गई। मुस्लमानों का आगमन उन जातियों के आगमन से इस अर्थ में भिन्न रहा कि मुसल्मान साम्राज्य स्थापना का मंशा लेकर एक विजेता के रूप में भारत में आये और असंगठित हिन्दू जाति पर विजय प्राप्त कर यहां शासन स्थापित कर लिया। मुसल्मनों का उद्देश्य धर्म प्रचार करना भी था और इसमें वे कभी कभी अत्याचार की नीति भी अपनाते थे। किन्तु सब बातों के होते हुये भी वे यहां के निवासी बन गये थे और भारतीय समाज से भाई चारा भी स्थापित कर लिया था। शताब्दियों तक दोनों सम्प्रदाय घुलमिल कर भाईचारे के साथ रहते रहे। यद्यपि यवन इत्यादि जातियों के समान उनका अपनी धार्मिक मान्यताओं के साथ हिन्दू समाज में पूर्ण विलय तो नहीं हुआ; किन्तु प्रशासकीय स्तर पर उनका किसी अन्य देश से सम्पर्क न होने के कारण वे शुद्ध भारतीय रूप में यहां के निवास बन गये। उनकी संस्कृति, उनके आचार विचार यद्यपि हिन्दू जाति से सर्वथा पृथक् बने रहे; भारतीय समाज की आत्मसात करने की वह प्रक्रिया नहीं अपनाई जा सकी जिसने भारतीय समाज को अक्षुण्ण बनाये रक्खा और विभिन्न विचार धाराओं को आत्मसात् करने से उसके कलेवर की अभिवृद्धि की। दोनों समाजों में विभेद को दूर नहीं किया जा सका। सात आठ सौ वर्ष की लम्बी अवधि में उदार मनोवृत्ति के मुस्लिम शासक भी हुये और क्रूर स्वभाव के अत्याचारी ( इतालीस ) शासक भी। प्रथम कोटि के शासक हिन्दुओं की श्रद्धा भी अर्जित कर सके और उनके शासनकाल में साहित्य और कला की अभिवृद्धि भी हुई। दूसरे प्रकार के शासकों ने विद्रोह को जन्म दिया। इस प्रकार उठते गिरते, मिलते लड़ते मुस्लिम और मुगल शासन सूर्य के अस्त होने का समय आ गया। यूरोप के कई देशों ने भारत में व्यापार बढाने की योजना के आधीन व्यापारिक कम्पनियों को भारत भेज दिया। यहां आकर विदेशियों ने अनुभव किया कि हिन्दू मिस्लिम वैमनस्य का सहारा लेकर भारत में शासन सत्ता स्थापित करने के अच्छे अवसर हैं। उधर छोटे छोटे राजघराने भी परस्पर संघर्ष निरत थे। इन सब संघर्षों का सहारा लेकर यूरोपीय कम्पनियों ने परस्पर होड़ लगाकर साम्राज्य स्थापित करने का प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया। अंग्रेज जाति अधिक निपुण और छल कपट में अधिक प्रवीण थी। अत: सफलता उनके हाथ लगी। वे प्रत्येक दिशा में भारत के भाग्य विधाता बन गये। साम्राज्य शक्ति हाथ में आ जाने से उनके मुख्य लक्ष्य व्यापार और अर्थोपार्जन में भी पर्याप्त सहायता मिली। धीरे धीरे भारत की सम्पत्ति से विदेशों के कोश भरने लगे और भारतीय जनता दीन हीन जीवन विताने पर विवश हो गई । अब अंग्रेजों के सामने सब से बड़ी समस्या थी अपने छल कपट से प्राप्त राज्य को स्थायित्व प्रदान करना। इसके लिये अनेक उपाय किये गये- जमीन्दारी प्रथा कायम कर शासन स्तम्भ तैयार कर दिये गये; अंग्रेजी शिक्षा के द्वारा शिक्षित जनता से आत्मीयता स्थापित करने की चेष्टा की गई, कड़े कानून बनाकर भारत का रोजगार चौपट किया गया, आयात निर्यात के नियम अपने अनुकूल बनाकर आम जनता को भुखमरी के कगार पर पहुंचा दिया गया जिससे आम जनता में सर उठाने की शक्ति नहीं रही; अदालतों की व्यवस्था ऐसी बना दी गई कि जनता परस्पर लड़ती रहे और न्याय प्राप्त न कर सके। जन समाज के लिये यह विचित्र स्थिति थी। अभी तक ऐसा कभी नहीं हुआ था कि शासन के लिये कानून सात समुद्र पार बनाये जाएँ और इस देश में लागू किये जायें प्रशासकों की नियुक्ति विदेश में हो; अभी तक शासक और शासित घुलमिल कर रहते थे; शासक अपना कर्तव्य समझकर शासितों के कष्ट निवारण के लिये तत्पर रहते थे, उनके सुखदुःख को स्वयं देखते थे उनके आमोद प्रमोद में शामिल रहते थे। अब अंग्रेज जाति स्वयं को शासक समझती थी और भारतीयों से मिलना आत्मसम्मान के प्रतिकूल समझती थी। बादशाह तो दूर साधारण अंग्रेज भी आतंक स्थापित करने में गौरव का अनुभव करता था । हिन्दू जनता ने जैसे तैसे मुसल्मान शासकों से आत्मीयता स्थापित कर ली थी और 'कोड नृप होय ही का हानी’ के आदर्श पर चलने लगे थे। अब नई परिस्थिति ने उनकी भावनाओं को झकझोर कर रख दिया। अंग्रेजों ने नई शिक्षा नीति के अन्तर्गत अंग्रेजी को माध्यम दो दृष्टिकोणों से बनाया था सरकारी मशीनरी के सञ्चालन के लिये ( ब्यालीस ) पुर्जा के रूप में अल्प शिक्षितों को तैयार करना और ठच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्तियों द्वारा आत्मीयता स्थापित करना। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के बाद भारतीय लोग कहने सुनने के लिये हिन्दुस्तानी बेंगे, किन्तु हृदय से अंग्रेज होंगे।’ भारतीयों ने अंग्रेजी शिक्षा को इसलिये अपनाया कि इस शिक्षा के माध्यम से अंग्रेजों के रहस्य को जानकर एक दिन पार्लियामेण्टरी सिटम अपने यहां भी स्थापित कर सकेंगे। वस्तुत: दोनों उद्देश्य सही सिद्ध हुये। अंग्रेजी साम्राज्य सत्ता की स्थापना सर्वप्रथम में बंगाल हुई थी और बंगाल में ही नवचेतना का उदय हुआ। राजा राममोहन राय इस नवचेतना के सूत्रधार बने । उच्चकोटि के ज्ञान के अधिकारी होते हुये भी हिन्दू समाज पतन के गर्त में गिरा, पहले मुसल्मानों के और बाद में अंग्रेजों के आधिपत्य में आना क्या यही हिन्दूजाति की नियति है। समझ लिया गया कि यदि इस पतन की अवस्था से त्राण पाना है तो पहले समाज में आई हुई। बुराइयों को दूर करना पड़ेगा; समाज को उनके अतीत गौरव की याद दिलानी होगी और उन्हें शक्तिशाली बनाकर दस्युओं के हाथ से देश को मुक्त कराना होगा। बंगाल में यह उत्तरदायित्व ब्रह्मसमाज ने लिया और हिन्दी भाषी प्रदेश पंजाब और गुजरात में स्वामी दयानन्द ने समाज सुधार का भार अपने कन्यों पर लेकर आर्य समाज की स्थापना की। जाति को वैदिक ज्ञान का उपदेश दिया, उन्हें उनका गौरव समझाया। आर्य सन्तान को झकझोर कर उठाया, समाज में आई हुई बुराइयों को दूर करने की चेष्टा की और इतर धर्मों की अपेक्षा अपने वैदिक धर्म को अधिक वरिष्ठ सिद्ध किया। जो काम हिन्दी भाषी क्षेत्र में स्वामी दयानन्द ने किया वही बंगाल में स्वामी रामतीर्थ स्वामी विवेकानन्द और अरविन्द घोष ने किया। उन्होंने ब्रह्मवाद ने नाम पर सारी जाति को संगठित करने की चेष्टा की। हिन्दू जनता की अनुक्रिया बड़ी जबरदस्त थी। सारी जाति अकर्मण्यता की आत्मा पर जमी हुई परतों को झटक कर एक दम कर्म क्षेत्र में कूद पड़ी। समाज सुधार के अनुपद ही राजनैतिक आकाङ्क्षायें सामने आने लगीं। सर्वप्रथम सन् १८५७ का सशस्त्र विद्रोह हुआ जो असफल हो गया। फिर अनेक पक्षों की ओर से स्वराज्य का आन्दोलन चल निकला। कभी हिंसात्मककभी अहिंसात्मक, कभी वैधानिक कभी अवैधानिक, कभी प्रत्यक्ष, कभी भूमिगत कभी प्रकट और अप्रकट मिला जुला कभी राष्ट्रीय कभी अन्तर्राष्ट्रीय अनेक विध आन्दोलन चलता रहा। अंग्रेजों का दमन चक्र, कूटनीति और फूट नीति भी प्रचलित रही। अनेक संस्थायें धर्म के नाम पर अंग्रेजों का साथ भी देती रही। महात्मा गान्धी के नेतृत्व में अहिंसात्मक आन्दोलन भारत मे चल रहा था; सुभाषचन्द्र बोस ने विदेशों में जाकर स्वतन्त्रता के लिये संघर्ष किया। अन्त में सभी के पुण्य प्रताप से भारत को अभीष्ट स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। स्वतन्त्र भारत को भी अनेक उलझी समस्याओं का सामना करना पड़ा, देश का विकास हुआ, जन-जीवन में स्वाभिमान की एक झलक दिखलाई दी। रहन सहन के स्तर में सुखद परिवर्तन के दर्शन हुये और निराशा तथा जल के ( तीरतालीस ) बादल छुट गये। भारत की प्रायः प्रत्येक भाषा के साहित्य ने स्वतन्त्रता के आन्दोलन में अपना उचित सहयोग प्रदान किया। प्रत्येक प्रदेश में अनेक प्रकार की काव्यात्मक रचनायें हुई और गीत लिखे गये जिनसे वातावरण के निर्माण में पर्याप्त सहायता मिली । संस्कृत भाषा भी इस दिशा में पीछे नहीं रही और इस दिशा में अनेक नाटकों की भी रचना हुई। अंग्रेजी राज्य जहां गरीबी और विपन्नता का अभिशाप लेकर उपस्थित हुआ था वहां उसके कतिपय वरदान भी थे। छापा खाने के प्रचलन से प्रचार कार्य में सुविधा हो गई; अनेक पत्र पत्रिकायें प्रकाशित होने लगीं। लेखकों को परिशीलक जनता तक अपनी रचनायें पहुंचाने में परेशानी दूर हो गई और रचना के स्थायी संरक्षण की समस्या भी हल हो गई। दो संस्कृतियों और साहित्यों का सम्मिलन एक दूसरे को प्रभावित करता ही है। भारतीय साहित्य भी अंग्रेजी शैली से प्रभावित होने से बचा नहीं रहा और नाट्य रचना पद्धति भी प्रभावित हुई। संस्कृत नाटककार पुराने छेड़े की रचनायें तो करते ही थे प्रवर्तमान परिस्थिति से भी वेखहर नहीं थे और अंग्रेजी साहित्य के सम्पर्क ने प्रभाव डाला था उसको अपनाने के लिये भी तत्पर थे। समस्त रचनाओं पर ध्यान देने से वर्तमान राष्ट्रीय समस्याओं पर रचना करना ही इस साहित्य की सामान्य विशेषता थी। निम्न पंक्तियों में वर्गीकृत रूप में तत्कालीन कतिपय रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जा रहा है (१) प्रविधि पर प्रभाव- अंग्रेजी साहित्य में नाटक खण्डों का विभाजन अंकों में नहीं दृश्यों में करने की परम्परा थी । छोटे नाटकों का दृश्यों में विभाजन युक्ति युक्त है। अत: प्राचीन परम्परा के साथ कई अर्वाचीन नाटककारों ने अपनी कृतियों का विभाजन दृश्यों में भी किया। इसके दोनों प्रकारों का उपयोग किया गया- नाटक का मूल रूप में दृश्यों में विभाजन या अंकों में विभाजन कर अंकों का दृश्यों में विभाजन। अंकों के नये नामकरण की भी परम्परा चल दी अंकों के स्थान पर लोक, उत्साहकुसुम कल्लोल इत्यादि नामों का भी प्रयोग किया जाने लगा। विश्वेश्वर विद्यभूषण ने चाणक्यविजयम् नाटक में अंकों के स्थान पर दृश्यों का प्रयोग किया है। अर्थोपक्षेपक का प्रयोग नहीं किया गया है। इसी प्रकार पद्मनाभाचार्य ने ध्रुवतापसम् में, घनश्याम ने नवग्रहचरित नामक सट्टक में प्रस्तावना के स्थान पर सूच्यार्थविष्कम्भ के स्थान पर काल और अंक के स्थान पर प्रपञ्च शब्द का प्रयोग किया है। रमा चौधरी ने पल्ली कमल में दृश्य शब्द का प्रयोग किया है; हरिदास सिद्धान्त वागीश ने मिबारप्रताप में और प्रभुदत्त शास्त्री ने संस्कृत वाग्विभवम् में अंकों का दृश्यों में विभाजन किया है। (२) अंग्रेजों की राज्यस्थापना में कूटनीति- मथुरा प्रसाद दीक्षित के नाटक ‘भारतविजयम्’ में अंग्रेजों की साम्राज्य स्थापित करने में कूटनीति का स्पष्ट चित्रण किया गया है। अंग्रेज भारत में आते हैं; राजनीति में दखल देने लगते हैं। नवाब सुराजुद्दौला ( चालीस ) के खिलाफ उनके सेनापति मीरजाफर से सन्धिपत्र लिखवाते हैं। मीर कासिम ठसका विरोध करते हैं। युद्ध होता है; मीर कासिम पराजित होता है। नन्दकुमार को अन्याय के साथ फांसी दी जाती है। कांग्रेस का आन्दोलन चलता है। आन्दोलन की विजय होती है और भारत स्वतन्त्र होता है। इस नाटक की रचना सन् १९३६ में हुई थी। तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने उसे जप्त कर लिया था जिसको स्वतन्त्रता के बाद उन्मुक्त किया गया। कम्पनी के हाथ से अंग्रेज सरकार के हाथों में राज्य चले जाने के बाद स्वतन्त्र राज्य भी अंग्रेज सरकार की दस्तंदाजी के सामने पंगु बन गये थे। रेजीडेण्ट ही राज्यों का कर्ताधर्ता था। इस आशय का एक नाटक गोपीनाथ का लिखा माधवस्वातन्त्र्यम् है। जिसमें जयपुर में मंत्री का चुनाव होना है। काफी उखाड़ पछाड़ चल रही है तब विक्टोरिया के हस्तक्षेप से माधव को नियुक्त किया जाता है और ठसे सारे प्रशासनिक अधिकार दे दिये जाते हैं। (३) नव जागृति (रिनेश) - भारत पूर्ण रूप से विदेशी चंगुल में फंसा हुआ था। सबसे पहले बंगाल में ही साम्राज्य का सूत्रपात हुआ था और बंगालियों ने सबसे पहले अंग्रेजी शिक्षा अपनायी थी। अतः बंगाल में ही सबसे पहले नवचेतना का उदय हुआ और उसके सूत्रधार राजाराममोहन राय बने। इस विषय में रमा चौधरी ने एक ‘भारतपथिक' नाटक की रचना की जिसमें राजा साहब द्वारा ब्रह्म समाज की स्थापना, सती प्रथा का उन्मूलन, अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार इत्यादि सामाजिक सुधारों का प्रयत्न किया गया। बह्व- समाज की स्थापना के द्वारा हिन्दू जाति के ठच्च आदर्श और महान शक्ति का परिचय कराया गया। इसी परम्परा में बंगाल में कई महत्व पूर्ण व्यक्तित्वों का आविर्भाव हुआ जिनमें सर्वप्रमुख नाम रामकृष्ण परमहंस और उनके शिष्य विवेकानन्द का लिया जा सकता है। इनका व्यापक प्रभाव समस्त भारत पर पड़ा। इनके जीवन और कार्य कलाप पर आधारित कई नाटक लिखे गये जिनमें डा. रमा चौधरी लिखित 'युगजीवनम्’ शीर्षक नाटक उल्लेख्य है जिसमें रामकृष्ण परमहंस के जीवन एवं कार्यकलापों को नाट्य विषय बनाया गया है। डा. रमा चौधरी ने ही रामकृष्ण परमहंस के शिष्य अभेदानन्द के विषय में एक दूसरा नाटक लिखा। यतीन्द्र विमल चौधरी का भारत विवेक शर्षक एक अन्य नाटक प्रकाश में आया है जिसमें स्वामी विवेकानन्द के जीवन और उनके देश विदेश के कार्यकलाप का चित्रण किया गया है । यतीन्द्र विमल चौधरी ने ही रामकृष्ण परमहंस की पत्नी सारदामणि के विषय में दो नाटक लिखे एक रामकृष्ण परमहंस के नव काल में ही 'शक्तिसारदम्’ शीर्षक नाटक और दूसरा रामकृष्ण की मृत्यु के बाद लिखा ‘मुक्ति सारदम्’ शीर्षक नाटक । भारतीय नवोत्थान का प्रभाव बंगाल तक ही सीमित नहीं रहा। पश्चिम में भी समाज सुधार का काम स्वामी दयानन्द ने अपने हाथ में लिया। उनका सन्देश था भारत का सवोतम ज्ञान विज्ञान वेदों से ही उत हुआ है और वेद ही भारत के सभी आचार ( पैतालीस ) विचार एवं क्रिया कलाप के उन्नायक ईश्वर प्रदत्त महाग्रन्थ हैं। उनको भूलकर ही भारतीय जाति पराभव के गर्त मे गिरी है। भारतीय जनता का उद्धार वेदों की ओर पुनः जाने से ही सम्भव होगा। सत्यव्रत ने स्वामी जी के चरित्र और उनके ठपदेशों पर महर्षिचरितामृत नामक एक नाटक की रचना की जिसमें ५ अंक हैं- शिवरात्रिव्रत, प्रबोध, गुरुदक्षिणा, पाखण्डखण्डन और मृत्युञ्जय । समाजसुधार के जिन तत्वों को लेकर ये उन्नायक चले थे उनमें प्रमुख थे बालविवाह वृद्धविवाहदहेजप्रथा, छुआछूत, वर्णव्यवस्था के कठोर नियम इत्यादि। इन विषयों को लेकर भी संस्कृत साहित्य में कतिपय नाटकों की रचना की गई। उनमें कतिपय निम्न लिखित है (अ) विवाहविडम्बनम्- जीवन्यायतीर्थ लिखित वृद्ध विवाह से सम्बन्धित नाटक । इसमें ६० वर्ष के एक ऐसे वृद्ध का चित्रण किया गया है जो कन्या के पिता की गरीवी का लाभ उठाकर उससे विवाह करने के लिये आतुर है। कुछ नवयुवक उसे छकाने की योजना बनाते हैं- वे वृद्ध से २००० कन्या के पिता को देने के लिये १००० विवाह व्यय के लिये १५०० जेवरों के लिये और कुछ राशि तरुणों का मुख बन्द करने के लिये वृद्ध से ले लेते हैं और उसी पैसे से ठस गरीब कन्या का विवाह कर देते हैं। (आ) मिथ्याग्रहणम्- इसमें बहुपत्नी प्रथा का मजाक उड़ाया गया है। यह लीलाराव दयाल की रचना है। बहुपली प्रथा मुसल्मानों में विशेष रूप से प्रचलित है। अत: मुसल्मानों के प्रसंग में ही इसे दिखलाया गया है। इसमें पति के बहुपीत्व से मुहम्मद की पत्नी अमीना की दयनीय दशा का चित्रण किया गयाहै । (३) बालविधवा- लीलाराव दयाल की कृति जिसमें बाल विधवा के पतन का चित्रण किया गया है। वह एक नवयुवक के प्रेमजाल में फंस जाती है। लेखक का सन्देश है कि ऐसी कम आयु की विधवाओं को सारा जीवन नारकीय दशा में रहने के लिये छोड़ देने की अपेक्षा यह अधिक अच्छा है कि उनका विवाह कर दिया जायअन्यथा उनके पतन की सर्वदा सम्भावना बनी रहती है। (ई) नाटककारों ने विधवाओं के सामने भी एक योजना रक्खी है। केवल विवाह ही नहीं जीवन की सफलता के लिये दूसरे क्षेत्र भी हैं। डा. रमा चौधरी के लिखे नाटक रसमय रासमणि में एक विधवा रासमणि को ऐसी ही कहानी है जो अपने वैधव्य जीवन को अंग्रेजों द्वारा सताई गई महिलाओं के संरक्षण में अपने जीवन को सफल बनती है। () चामुण्डा- नामक नाटक में एक ऐसी ही विधवा का कमानक है जो अपने वैधव्य जीवन को शिक्षा में लगा देती है। विलागत आकर डक्टी शिक्षा प्राप्त करती है। अब लौटकर स्वदेश आती है तब समाज से स्वीकार नहीं करता और मजाक उड़ाता है। किन्तु जब वह प्रधान की बहू को रोगमुक्त कर देती है तब समाज में सम्मानित पद ( छयालीस ) । प्राप्त कर लेती है। (ऊ) लीलाराव दयाल की रचना गणेश चतुर्थी में अन्धविश्वासों की हंसी उड़ाई गई है (ए) दहेज के अभिशाप पर कपिल देव द्विवेदी ने ‘परिवर्तनम्' शीर्षक नाटक लिखा है। कन्या का पिता पुत्री की शादी के लिये मकान इत्यादि बेच देता है और स्वयं आजीविका के लिये बम्बई चला जाता है। घर में निर्वाह एक कुओं और सीढी के बल पर होता है। मालिक के बम्बई से लौटने के पहले ही एक सेठ कुआं और सीढी पर भी अधिकार कर लेता है। अदालत में मुकदमा जाता है- न्यायाधीश सेठ का पक्ष लेकर फैसला उसके हक में दे देता है। तब आकाशवाणी के निर्देश पर मामला पंचायत में जाता है जहां उसे न्याय मिलता है। (ऐ) युवक युवतियों का अन्धे होकर पाश्चात्य सभ्यता की ओर भागना भी इस समय की एक समस्या थी। इस विषय को लेकर रमानाथ मिश्र का 'समाधानम्नामक नाटक प्राप्त होता है। इसमें छात्र छात्राओं द्वारा पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित होकर गान्धर्व विवाह कर लेने से जो समस्याएँ उत्पन्न होती हैं उनपर प्रकाश डाला गया है। (ओ) बसुमती परिणय- जगन्नाथ लिखित नाटक। इस रचना का उद्देश्य है राजाओं को सत्यथ पर लाना और राजनीति एवं आर्थिक योजनाओं के हित में यवनों से राष्ट्र को बचाने के लिये हिन्दूजाति में एकता स्थापित करना। (औ) इस काल की एक बहुत बड़ी समस्या थी जमीन्दारों और पूंजीपतियों द्वारा गरीब जनता का उत्पीडन और जनता के त्राण के लिये किसी उदार देशभक्त का तैयार हो जाना। सरकारी तन्त्र का पूंजीपतियों के प्रति पक्षपात । इस समस्त स्थिति का चित्रण करने के लिये ताराचन्द्रवन्द्योपध्याय ने एक बंगाली उपन्यास लिखा था गणदेवता । उस समय इस उपन्यास की पर्याप्त प्रतिष्ठा थी; इस पर पुरस्कार मिला था। अनेक प्रान्तीय भाषायों में इसके अनुवाद हो गये थे। डा. रमा चौधरी ने उक्त उपन्यास के कथानक को लेकर संस्कृत में इसी नाम के नाटक की रचना की। प्राचीनों के आदर्श सामयिक जनमानस को परिस्थिति के सुधार के पथ पर लाने के लिये आवश्यक साहित्य के साथ मुसल्मान और विशेषकर मुगलकाल के कर्मण्य वीरों के आदर्श प्रस्तुत कर समाज में चेतना भरने की चेष्टा की। यद्यपि मुसल्मान भारतीय नागरिक बन गये थे और उनका शासन अंग्रेजों का जैसा विदेशी नहीं रहा था फिर भी वे लोग अपनी संस्कृति, अपना आचरण अपने धार्मिक तीर्थ स्थलों आदि का भारतीय करण नहीं कर सके थे। अतः हिन्दुओं की दृष्टि में वे अब तक विदेशी ही बने रहे थे। जिन हिन्दुओं ने उनकी सत्ता को चुनौती दी वे हिन्दू जनता के आदर्श नेता कहलाये और उनका नाम जनता में ( सैंतालीस ) प्रोत्साहन देने वाला माना गया। ऐसे नेताओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण दो नाम हैं- महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी । महाराणा प्रताप ने अकवर वादशाह की सत्ता को स्वीकार नहीं किया। उन्हें एक विदेशी को राजपूतों द्वारा अपनी लड़कियां दिया जाना जाति के स्वाभिमान के प्रतिकूल प्रतीत हुआ। मानसिंह आदि ऐसे राजपूतों से भी उन्हें घुणा हो गई जो मुगलों कों लड़कियां दे देते थे और रात दिन मुगल बादशाहों के चरण चुम्बन करते थे। आजीवन कष्ट सहकर, वन-वन भटककर और बच्चों की दयनीय दशा देखकर भी उनकी आत्मा विचलित नहीं हुई और वे आजीवन स्वाभिमान की रक्षा करते रहे। अन्त में स्वयं अकबर को झुककर उनके स्वाभिमान को स्वीकार करना पड़ा। महाराणा प्रताप के विषय में हरिदास सिद्धान्त वागीश ने मिवारप्रताप नामक नाटक की रचना कर भारतीयों को देश प्रेम की ओर झुकाने का प्रयत्न किया। छत्रपति शिवाजी की स्थिति भिन्न थी। अकवर वादशाह तो कूटनीति से हिन्दुओं को दबाने और उनके स्वाभिमान की भावना को नष्ट करने का प्रयत्न करते थे, महाराणा प्रताप भी उनकी सत्ता को अस्वीकार कर स्वाभिमान की रक्षा करते थे। कभी कोई भयानक युद्ध नहीं हुआ जिसमें अकबर को हानि उठानी पड़ी हो; किन्तु शिवाजी का विरोधी औरंगजेब तो बलात् हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन करता था और हिन्दुओं के देव मन्दिरों को ध्वस्त करता था। उसी के समान उत्तर देने के लिये शिवाजी मैदान में आ गये। उन्होंने धर्म राज्य स्थापना की प्रतिज्ञा की, युद्धों में विजय प्राप्त की; वीजापुर से सन्धि की; गिरफ्तार हो जाने के बाद दान की टोकरी में छिपकर बाहर आये; गुर्जर पर अधिकार राजपद पर अभिषेक, धर्मराज्य की स्थापना उनके महत्वपूर्ण कार्य थे। शिवाजी के विषय में कई महत्वपूर्ण नाटक लिखे गये जिनमें कतिपय नाटकों का उदाहरण के रूप में उल्लेख किया जा सकता है (अ) छत्रपति साप्राज्यम्- यह मूलशंकर माणिकलाल का लिखा नाटक है जिसमें शिवाजी की शासन व्यवस्था उनके जीवन और क्रियाकलाप पर प्रकाश डाला गया है। (आ) शिवाभ्युदयम्- श्यामवर्ण द्विवेदी लिखित शिवाजी के कार्यकलाप पर नाटक। (e) श्री शिववैभवम्- विनायक राव बोकील लिखित नाटक जिसमें शिवाजी की प्रशस्ति की व्यञ्जना की गई है। (ई) छत्रपति शिवराज- लेखक रामभिकाजी वेलणकर बीजापुर की विजय से लेकर राज्यारोहण तक की घटनाओं का चित्रण । (ठ) शिवाजिचरित्रम्- हरिदास सिद्धान्त वागीश लिखित नाटक। इसमें शिवाजी के चरित्र द्वारा नवयुवकों को देशभक्ति की शिक्षा दी गई है। (ऊ) शिवाजिविजयम्- रंगाचार्य द्वारा लिखित नाटक। इसमें शिवाजी के बन्दी होने ( अड़तालीस ) से लेकर साधुवेष में राजधानी पहुंचने तक का चित्रण किया गया है। राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी का २० वर्ष का प्रथम उत्थान काल १९०५ में समाप्त हो गया। इन बीस वर्षों में कांग्रेस प्रस्ताव पास करने और अंग्रेज सरकार से कुछ प्राप्त करने का असफल प्रयास करती रही । इसी बीच जापान की रुस पर विजय से भारतीय राष्ट्रीयता वादियों को एक झटका लगा। कुछ उग्रवादी तत्व अधिक आक्रमक रुख अपनाने लगे। अंग्रेजों ने भारतीय नेताओं की शक्ति को कम करने के लिये बंगाल को दो भागों में बांट दिया। १९०६ में ढाका में नवाब सलीमुल्ला के तत्वावधान में मुस्लिम लीग की स्थापना की गई जो प्रारम्भ से ही राष्ट्रीय आन्दोलन में अंग्रेजों का पक्ष लेकर चली थी और राष्ट्रीय आन्दोलन में विरोधी दल का कर्तव्य निभा रही थी। १९०९ में मिन्टोमाल रिपोर्ट में मुसल्मानों को पृथक् मताधिकार देकर विरोधी भावना अधिक बढ़ा दी गई। बंगभंग के प्रतिकूल बंगाली नवयुवकों सुरेन्द्रकुमार बनर्जी, विपिनचन्द्रपाल, एसूल, अश्विनी कुमार दत्त और अरविन्दघोष के नेतृत्व में आन्दोलन चल निकला जिसकी परिणति १९११ में हुई। १९०७ में कांग्रेस गरम दल और नरम दल में विभाजित हो गई। इसके बाद का स्वराज्य का आन्दोलन शासक जाति के विरोध रूप में चल दिया। इस आन्दोलन में देश के महान सपूत क्षेत्र में अवतीर्ण हुये और उनके पुण्य प्रयास से भारत विदेशियों के चंगुल से छूटने का सौभाग्य प्राप्त कर सका। संस्कृत नाटकों में विभिन्न नेताओं के विषय में कई कृतियां प्राप्त होती हैं जिनमें कुछ का परिचय नीचे दिया जा रहा है (अ) अरविन्द घोच- भारत के उन महनीय सपूतों में एक थे जिनको अनेक रूपों में जन समाज का अभिनन्दन प्राप्त हुआ था। वे अनन्य साधारण समाज सुधारक थे, प्रज्वलित राष्ट्रवादी नेता थे, अनुपम योगिराज थे जिन्हें साधना में ईश्वर दर्शन हुआ था, उच्चकोटि के कवि थे और योग साधना की नई पद्धति के जन्मदाता थे। सर्वप्रथम हमें उनके दर्शन बंगभंग आन्दोलन में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, विपनचन्द्र पालअश्विनी कुमार दत्त के साथ नेता लोगों में होता है। फिर वे अराजकतावादी विद्रोहियों में शामिल हो जाते हैं। प्रथम विश्वयुद्ध १९१४ में भारतीय स्वतन्त्रता का एक अच्छा अवसर समझ कर इन्होंने जापान से शत्र सहायता का प्रयत्न किया। अलीपुर जेल में योग साधना प्रारम्भ की जिसका ठद्देश्य भारतीय स्वाधीनता के लिये आध्यात्मिक शक्ति अर्जित करना था। बहन निवेदिता ने एक बार उन्हें पुलिस से बचाने के प्रयत्न में अपने यहां बन्दी बना रक्खा था। उनके चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता थी सफलता प्राप्ति के बाद स्वयं को उधर से मुख मोड़ लेना और किसी भी सफलता का श्रेय स्वयं न लेना। जेल से छूटने के बाद वे उस समय के बंगाल के फ्रेंच उपनिवेश चन्द्र नगर चले गये। उनकी अन्तरात्मा ( उनचास ) की पुकार थी और उन्होंने अनुभव कर लिया था कि वे कहीं अधिक उपयोगी विकास मूलक प्रक्रिया सिद्धान्त को प्रोत्साहित करने में समर्थ हैं। इसके लिये उन्होंने 'बन्देमातरम्’ पत्रिका का सम्पादन निवेदिता बहन के सुपुर्द कर ठससे विराग ले लिया। 'बन्देमातरम्' का गीत उन्हें सर्वाधिक प्रिय था; जिसने उन्हीं को नहीं समस्त राजनैतिक नेतृत्व को और जनसाधारण को प्रभावित किया था। स्थायी साधना के लिये बंगाल को छोड़ कर वे पाण्डिचेरी चले गये और अरविन्दाश्रम की स्थापना के साथ अनेक सैद्धान्तिक ग्रन्थों की रचना की, योग पद्धति को, दर्शन को और कविता को नई दिशा प्रदान कर अक्षयकीर्ति उपार्जित की। 'बन्देमातरम्’ गीत को जो बंकिमचन्द्र के समय से चला आ रहा था कहा जाता है उन्होंने ही ‘भारतमाता' का ठद्धोष प्रदान किया। यतीन्द्र विमल चौधरी ने उनके क्रियाकलाप और जीवन के विषय में ‘आरंत हृदयार विन्दम्’ नाटक की रचना की। भगिनी निवेदिता के चरित्र को लेकर डा. रमा चौधरी ने 'निवेदितनिवेदितम्' नाटक की रचना की। (आ) झांसीरानी लक्ष्मीबाई ने १८५७ के सशस्त्र विद्रोह में अंग्रेजी साम्राज्य का मुकाबला कर अक्षयकीर्ति उपार्जित की थी उनकी यशोगाथा का चित्रण कुमार विमलचौधरी के नाटक आरतलक्ष्मी में किया गया है। (e) लोकमान्य बालगंगाधर तिलक भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के मूर्धन्य नेताओं में एक थे। उनके विषय में दो नाटक प्राप्त होते हैं- () श्रीराम वेलणकर लिखित ‘लोकमान्य स्मृति- इसमें तिलक के अन्तिम जीवन का चित्रण किया गया है। (i) तिलक-यनम् यह भी श्रीराम वेलणकर की ही रचना है जिसमें तिलक के मुकदमें का कोर्टसीन दिखलाया गाय है। (ई) महात्मागांधी अनन्य नेता थे जिनका नाम लेकर और जयजयकार कर स्वतन्त्रता सेनानी आगे बढ़ते थे; जिन्होंने भारत में ही नहीं दक्षिण अफ्रीका में भी स्वतन्त्रता की ज्योति जलाई थी। इनके विषय में प्रत्येक भाषा और साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है। संस्कृत में भी कई नाटक लिखे गये जिनमें कतिपय ये हैं- () मधुरा प्रसाद दीक्षित लिखित गान्धी विजयम् इसमें अफ्रीका और भारत में उनकी गतिविधियों का चित्रण किया गया है। (i) भारततातम्- डा. रमा चौधरी लिखित गान्धी प्रशस्ति परक नाटक। गान्धी जी को राष्ट्रपिता की उपाधि दी गई है। इसी को लेकर इस नाटक का नामकरण किया गया है। (ii) मुकुन्दलीलामृतम्- गन्धी जी की तुलना उनके कार्य काल में प्रायः भगवान् कृष्ण से की जाती थी। कृष्ण को मोहन कहा जाता है और गान्धी जी का नाम मोहन दास था। इसी तुलना को लेकर विश्वेश्वर दयाल ने इस नाटक की रचना की थी। इसमें कृष्ण गान्धी रूप और कंस ब्रिटिशसरकार रूप माने गये हैं। (उ) प्रथम कोटि के नेताओं में सुभाषचन्द्र बोस का नाम अत्यन गौरव के साथ लिया जाता है। पहले ये कांग्रेस के प्रथम कोटि के नेता रहे थे। जब द्वितीय विश्व युद्ध ( पचास ) छिड़ा तब देशभक्ति के लिये प्राणपण से समर्पित इस अनन्य सेनानी को प्रतीत हुआ कि गान्धी जी की अहिंसक नीति भारत को स्वतन्त्रता नहीं दिला सकेगी और यदि इस युद्ध का अवसर जाता रहा तो अनन्त काल तक ऐसा सुयोग कठिनाई से प्राप्त हो सकेगा। अत: अंग्रेज सरकार की आंखों में धूल झोंककर पहले पश्चिम में हिटलर से और बाद में जापान से मिलकर युद्ध के द्वारा देश को स्वतन्त्र कराने का प्रयत्न किया जबकि उद्योग सफल होने जा रहा था इस वीरवर का करुण अन्त हो गया। यतीन्द्र विमलचौधरी ने सुभाष चन्द्र की इसी वीरता का चित्रण सुभाषसुभाषम् नामक नाटक में किया है। (ऊ) राजेन्द्र प्रसाद स्वतन्त्रता संग्राम के उच्चकोटि के नेताओं में एक थे। उनकी अध्यक्षता में भारत का संविधान बना और वे ही भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने। उनके जीवन चरित्र को लेकर यतीन्द्र विमलचौधरी ने भारत राजेन्द्र नामक नाटक की रचना की। इसमें नमक सत्याग्रह, हिन्दू मुस्लिम एकता इत्यादि क्षेत्रों में उनके योगदान और राष्ट्रपति पद पर उनके निर्वाचन का चित्रण किया गया है। () देशबन्युः देशप्रिय:- नामक नाटक यतीन्द्र विमल चौधरी की रचना है। इसमें देशबन्धु चित्तरंजन दास की गौरवगाथा का चित्रण किया गया है। (ऐ) कैलासनाथ काटजू की जब बंगाल के राज्यपाल के पद पर नियुक्ति हुई थी। तब उनके स्वागत समारोह में कैलासनाथ विजय नामक नाटक की रचना एवं अभिनय किया गया था। इसकी रचना जीवन्यायतीर्थ ने की थी। स्वतन्त्रता के आन्दोलन में महिलायें भी पीछे नहीं रहीं। इस विषय में दो नाटकों का उल्लेख किया जा सकता है- (क) वीरभा- यह लीलाराव दयाल की रचना है जिसमें एक युवती की देशभक्ति का चित्रण है जिसने यौवनजन्य सुख भोग को छोड़ दिया और सत्याग्रह संग्राम में कूद पड़ी तथा आन्दोलन की नेत्री बन गई। (ख) इन्हीं की दूसरी कृति कटुविपाक जिसमें एक ऐसे प्रशासकीय अधिकारी के मनस्ताप का चित्रण किया गया है जिसकी पुत्री सत्याग्रह में शहीद हो गई। ये दोनों नाटक काल्पनिक घटनायें हैं जो तत्कालीन सी समाज के सत्याग्रह में योगदान का चित्रण करती हैं। स्वातन्त्र्योत्तर समस्याओं पर नाटक स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद स्वभावत: नये प्रकार की समस्याओं ने जन्म लिया। इन समस्याओं पर भी साहित्य रचना हुई है। संस्कृत में विभिन्न विधाओं में लिखे गये साहित्य के साथ कतिपय नाटक भी इस दिशा में प्रकाश में आये हैं जिनमें कतिपय निम्नलिखित हैं (अ) पहली समस्या तो विभाजन की ही थी। चिरन्तन काल से भारत का जो स्वरूप चला आ रहा था उसका विभाजन कर देना निस्सन्देह एक अभूतपूर्व घटना थी जिसे सहसा सह लेना सामान्य व्यक्ति के लिये सम्भव नहीं था। एक आघात लगा यह ( इक्यावन ) कडुआ बूट इसलिये पी जाना पड़ा कि इसके बिना भारत के स्वाधीन होने की कोई आशा दिखलाई नहीं देती थी। फिर भी एक आशा बनी हुई थी कि देर सवेर भारत का एकीकरण पुनः होगा। इसी आशय को लेकर भरत पिशरौटी ने एकभारतम् की रचना की। (आ) भारत की जीर्ण शीर्ण टूटी भूटी दशा के सुधार में भारत के सपूत पूर्ण संलग्नता के साथ प्रवृत्त हो गये और भारत सर्वीण विकास करने लगा। सर्वाधिक ध्यान बिजली और पानी पर दिया गया। जो नदियां प्रवाहित होती हुई अपना जल व्यर्थ ही समुद्र के सुपुर्द कर देती हैं उन्हें बांध लिया गया और उनसे बिजली के साथ पानी की आवश्यकता की भी पूर्ति की गई। इस आशय को लेकर यतीन्द्र विमल चौधरी ने 'महिमापयभारतम्' शीर्षक नाटक की रचना की जिसमें वैदिक, पौराणिक, इस्लामी भारत की वर्तमान भारत से तुलना करते हुये नवनिर्माण पर प्रकाश डाला। दामोदर बांध,माइथन बांध, भाखरा नंगल, चंबल, नागार्जुनसागर, मुचुकुन्दयोजना, मत्स्यपालन आदि अनेक योजनाओं पर प्रकाश डाला गया है । (३) स्वतन्त्र भारत में काश्मीर समस्या सर्वाधिक उलझन लिये हुये सामने आई । अंग्रेजों ने कूट नीति से भारत के दो नहीं सैकड़ों टुकड़े कर दिये थे। सभी रियासतों को स्वतन्त्र कर दिया था और उन्हें भारत या पाकिस्तान किसी भी देश में मिलने या स्वतन्त्र रंहने का अधिकार दे दिया था। भारत ने निपुणता के साथ बिना खून खराबे के सैकड़ों रियासतें मिला लीं । दोही चार शेष रह गई थी जिनमें कश्मीर भी एक थी। यह मुस्लिम रियासत थी किन्तु इसका राजा हरिसिंह हिन्दू था। वह राज्य को स्वतन्त्र रखकर एक सम्राट बने रहने का स्वप्न देख रहा था। अतः उसने पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दोनों से अपनी स्वतन्त्रता स्वीकार करने की प्रार्थना की। किन्तु पाकिस्तान ने वलात् हथियाने का प्रयन किया। उस समय परिस्थिति ने कुछ ऐसा मोड़ लिया कि हरिसिंह को भारत में विलय करने के लिये वाध्य होना पड़ा। पाकिस्तान सैनिक शक्ति से वलात् अधिकार करने की चेष्टा कर ही रहा था। मामला राष्ट्र संघ में भेजना पड़ा। सुरक्षा परिषद् की ओर से ग्राहम समझौता कराने भारत आये और सारी स्थिति का अध्ययन कर समझौते का एक फार्सेला तैयार किया जिसे भारत और पाकिस्तान दोनों ने स्वीकार किया। उसके अनुसार सर्वप्रथम पाकिस्तान को वह क्षेत्र खाली करना था जिस पर उसने अनुचित अधिकार किया था। पाकिस्तान आज तक उस पहली शर्त को ही नहीं निभा सका। काश्मीर का यह झगड़ा अब तक भारत और पाकिस्तान दोनों का सिरदर्द बना हुआ है। इस बीच श्यामाप्रसाद मुखर्जी की घटना सामने आई जो शेख अब्दुल्ला पर विश्वास नहीं करते थे। काश्मीर की घटना को लेकर नीपजे भीम भट्ट ने 'काश्मीरसाधनसमुद्यम' नाटक की रचना की। इसमें समझौते के लिये प्राहम के आने, नेहरु शेख अब्दुल्ला से बातचीत अन्त में निर्णय, श्यामाप्रसाद मुखर्जी का शेख अब्दुल्ला पर अविश्वास, हरिसिंह के स्थान पर कर्णसिंह की राज्यप्रमुख पद पर नियुक्ति इत्यादि तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है। ( बावन ) (ई) उस समय स्वतन्त्र भारत की अहम समस्या थी - हैदराबाद पर अधिकार करने की। हैदराबाद भारत का सबसे बड़ा राज्य था जिस पर निजाम का शासन था। उस समय वहां के प्रधान मन्त्री लायक अली खां थे। इसकी स्थिति काश्मीर से सर्वथा विपरीत थी। आबादी हिन्दुओं की थी और शासन मुसल्मान का था। वहां की समस्त शासन व्यवस्था पर एक अनधिकृत व्यक्ति रजाकार कासिम रिची ने पूरा अधिकार जमा लिया था। निजाम और प्रधान मन्त्री दोनों उसकी उंगलियों पर नाचते थे। भारत सरकार के प्रतिकूल उसके वक्तव्य आते थे। वह नित्य लाल किले पर झण्डा फहराने का उत्साह प्रकट करता था और युद्ध की धमकी देता था। निजाम व्यक्तिगत रूपसे अंग्रेज सैन्य सञ्चालकों को नियुक्त करता था और धन के बल पर भारत से निपटने के लिये सैनिक शक्ति बढ़ा रहा था। भारत सरकार ने १ वर्ष का समय दिया था। किन्तु परिस्थिति ऐसी बदली कि भारत सरकार को समझौता तोड़कर पुलिस कार्यवाही करनी पड़ी और निजाम शरणागत हो गया तथा राज्य का भारत में विलय स्वीकार कर लिया गया। भारत सरकार ने अन्य राज्यों का विलय प्रिवी पर्स के आधार पर किया था। निजाम के शरणागत हो जाने और राज्य का विलय स्वीकार कर लेने पर भारत सरकार ने उसे भी प्रिवी पर्स दे दिया । इस घटना पर नीपजे भीमभट्ट ने ‘हैदराबादविजयम्' शीर्षक नाटक की रचना की। 0 इसमें रजाकारों के उपद्रव, नेहरु की अतिक्रमण के लिये स्वीकृति, कासिम रिजवी के कहीं है भाग जाने, नेहरु द्वारा पटेल को बधाई दिये जाने आदि घटनाओं का चित्रण किया गया (७) नेहरु को अपने शासन काल में चीन से युद्ध की एक गम्भीर समस्या का सामना करना पड़ा था। नेहरु चीन के प्रति कुछ अतिरिक्त पक्षपाती थे। आन्दोलन काल में वहां के प्रधान मन्त्री चांकाई शेक उनके मित्र थे। किन्तु भारत के स्वाधीन हो जाने के कुछ ही समय बाद कम्यूनिष्टों के आक्रमण से चांकाई शेक को भाग कर फामोंसा में शरण लेनी पड़ी और कम्यूनिटों का शासन स्थापित हो गया। अध्यक्ष माओत्सेतूंग और प्रधान मन्त्री चाउ एन लाऊ बन गये। नेहरु ने नई सरकार से भी मैत्री बनाये रखी और तिब्बत पर चीन के विशेषाधिकार के समझौते को जारी रखा। चीन की तिब्बत के विषय में नियत साफ नहीं थी। वह तिब्बत के दलाई लामा को सब तरह से परेशान कर तिब्बत को पूर्ण रूप से निगल जाना चाहता था। दलाई लामा को विवश होकर दलवल के साथ भारत में शरण लेनी पड़ी और भारत ने अपनी चिरन्तन संस्कृति के प्रति सच्चाई प्रकट करते हुए उन्हें पूरा आश्रय प्रदान किया। उधर सिक्यांग को मुख्य भूमि से जोड़ने के लिये चीन ने भारतीय क्षेत्र में होकर सड़क बना ली जिस पर कुछ झड़पें शुरु हो गई । ये झड़पें अधिकतर पश्चिम तक ही सीमित थीं। अकस्मात् पूर्वी क्षेत्र में पूरी शक्ति से आक्रमण कर दिया गया और चीनी सेनाएँ आसाम के निकट वोमडीला तक आ गई। यह भारत की बहुत बड़ी पराजय थी । किन्तु जिस प्रकार चीन ने अकस्मात् ( तिरपन ) भारत पर ऐसी दशा में आक्रमण किया था जब भारत प्रतिरोध या युद्ध के लिये बिल्कुल तैयार नहीं था उसी प्रकार अकस्मात् ही अपने विजित क्षेत्र को ' छोड़कर स्वयं वापस चला गया। क्यों उसने आक्रमण किया और क्यों वापस चला गया यह बात किसी की समझ में नहीं आई। इस घटना को लेकर श्रीराम भिकाजी ने 'कैलासकम्प' शीर्षक नाटक की रचना की। इसमें चीन के आक्रमण से उत्पन्न समस्त हिमालय क्षेत्र के भय, हलचल, चन्द्र, आकाशगंगा आदि में सर्वत्र विक्षोभ के बाद भगवान शंकर की कृपा सब शान्त हो गया। (खस्वतन्त्र भारत में एक महत्वपूर्ण घटना सम्पन्न हुई थी भारत और पाकिस्तान के संघर्ष में पाकिस्तान का दो भागों में विभाजन और बंगलादेश की स्थापना । युद्ध का कारण यह था कि पाकिस्तान पूर्व और पश्चिम दो भागों में बंटा था। दोनों पर पश्चिम से शासन होता था जिसमें पंजाबसिन्ध, सीमाप्रान्त और बलोचिस्तान के प्रान्त सम्मिलित थे। उनमें भी पंजाबियों का वर्जस्व था। पूर्व में बंगाल का पाकिस्तानी भाग था। जहां की आबादी (चारो प्रान्तों को मिलाकर पूरे पश्चिमी क्षेत्र की अपेक्षा अधिक थी। किन्तु शासन सत्ता पर पश्चिमी पाकिस्तान के लोग डटे हुये थे। बंगाल ने स्वयं को उपेक्षित एवं अपमानित समझा और एक प्रकार से सत्ता के लिये संघर्ष करने लगे। पाकिस्तान की सरकार ने निर्मम दमन करना प्रारम्भ कर दिया। बंगाल की जनता पीडित होकर भारत की ओर भागने लगी । देखते देखते शरणार्थियों की संख्या बहुत बढ़ गई । भारतीय प्रधान मन्त्री ने शरणागतों की रक्षा करना अपना धर्म समझा और शरणार्थियों को अपनी भूमि में पहुंचाने का प्रयल किया। पाकिस्तान ने उत्तेजना में आकर युद्ध छेड़ दिया जिसमें उसकी बहुत ही बुरी पराजय हुई । इस प्रकार बंगला देश की स्थापना हो गई और शरणार्थी अपने प्रदेश में लौट सके। इसी घटना को लेकर रामकृष्ण शर्मा ने ‘बांगलादेशोदयम्' नाटक की रचना की जिसमें बंगाल के सामाजिक, राजनैतिक जीवन पर भी प्रकाश डाला गया है । (ए) बांगलादेश के उदय से ही सम्बन्धित शरणार्थिसंवादः शीर्षक एक अन्य नाटक भी लिखा गया जिसके रचनाकार हैं- वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य। इसमें बंगला देश की स्थापना के बाद वहां की दशा का चित्रण किया गया है। छुटकारा दिलाने में भारत की सहृदयता और पाकिस्तान के अत्याचार का चित्रण किया गया है। (ऐ) भारत की आन्तरिक समस्या भी कम जटिल नहीं थी। प्रान्तीय चुनाव में बंगाल में कम्यूनिटों को विजय मिली जो अपने सिद्धान्त के अनुसार सारी सम्पत्ति जनता की समझते थे। वे न केवल इसे सिद्धान्त तक ही सीमित रखना चाहते ते किन्तु मनमाने तौर से वे दूसरों के खेत एवं ठगी हुई फसल पर भी अधिकार करने लगे। इस दिशा में बंगाल का नक्सलवाडी जिला आगे आया। इस प्रकार एक तरह की अराजकता पनपने लगी। अनेक उद्योगपति बंगाल छोड़कर भागने लगे। इन्दिरा गान्धी ने सफलता पूर्वक इसका सामना किया और जैसे तैसे इस प्रवृत्ति पर विजय प्राप्त की। वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य (चौवन ) , , ने इस समस्या को लेकर 'लक्षणव्यायोग' नामक एक नाट्यकृति की रचना। की। इसमें नक्सलवादी आन्दोलन की पृष्ठभूमि में तत्कालीन राजनैतिक स्थिति की चर्चा की गई है। इस आन्दोलन के कुछ चिन्ह अब भी आन्ध्रप्रदेश में दृष्टिगत होते हैं (ओ) स्वतन्त्रता के विकास के साथ मांगें मनवाने की नई विधियां प्रवर्तित की गई। जिनमें वेष्टन (घेराव) भी एक है। इसको लेकर वीरेन्द्र कुमार ने वेष्टन व्यायोग नामक एक एकाङ्ी की रचना की। संजय नायक है जिसके नेतृत्व में श्रमजीवी मांगपत्र लेकर श्रमाध्यक्ष और शिल्पाध्यक्ष के पास जाते हैं। मांगे न मानने पर श्रमजीवी अधिकारियों का घेराव कर देते हैं। विवश होकर अधिकारियों को उनकी मांगे माननी पड़ती हैं। तब कलियुग प्रकट होकर श्रमजीवियों को बधाई देता है। लेखक ने कर्तव्य की घोर अवहेलना, स्वतन्त्रता के भयानक दुरुपयोग और अनुशासन हीनता की प्रवृत्ति पर आक्षेप किया है (औ) इस काल में हड़ताल की प्रवृत्ति भी कर्तव्य हीनता अनुशासन हीनता और स्वतन्त्रता के दुरुपयोग का एक अच्छा निदर्शन है। इस विषय में वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य ने ‘शार्दूलशकटम्' नामक नाटक की रचना की। परिवहन संस्था के कर्मचारी मांगों को लेकर हड़ताल करते हैं। समझौता हो जाता है। कुछ दिनों बाद गवर्नर और मैजिस्ट्रेट आकर परिवहन निगम के कर्मचारियों को संबोधित करने वाले हैं। इस समय का लाभ उठाकर कर्मचारी पुनः हड़ताल का ऐलान करते हैं। एक मजदूर मारा भी जाता है विवश होकर अधिकारियों को पुनः समझौता करना पड़ता है। नवीन पद्धति की नाट्यकृतियां आधुनिक संस्कृत नाट्यरचना में कथानक की नवीन पद्धति के भी दर्शन होते हैं। फिल्म जगत् की कई रचनाओं में यह पद्धति अपनाई जाती है कि नायिका का किसी युवक से प्रेम हो जाता है और दोनों प्रेम से प्रभावित होकर विवाह करना चाहते हैं। नायिका को प्राप्त करने के लिये कोई अन्य व्यक्ति भी आतुर है। वह नायिका के प्रेमी के मार्ग में अनेक प्रकार की कठिनाइयां उपस्थित करता है। संघर्ष छिड़ जाता है जो कुछ समय तक चलता रहता है। अन्त में सिद्ध होता है कि नायिका तो उस दूसरे व्यक्ति की बहन है जो बचपन में गुम हो गई थी। तब उसके वास्तविक प्रेमी से विवाह के मार्ग में कोई बाधा नहीं रहती और नायिका अपने वास्तविक प्रेमी को प्राप्त कर लेती है। डा. रमा चौधरी की कृति पल्लीकमल भी इसी प्रकार की रचना है। इसमें प्रविधि में भी नई शैली अपनाई गई है। नायिका कमलकलिका रुपकुमार पर आसक्त है। परन्तु नायिका का पिता उसका विवाह मार्तण्ड से करना चाहता है। जब मार्तण्ड को पता चलता है कि नायिका रुप कुमार से मिलती जुलती है तब वह रूप कुमार को परेशान करना प्रारम्भ कर देता है। वह नायिका के पिता पर भी दबाव डालने की नीति अपनाता है और उस पर भूमिकर न देने का मामला चला देता है। जब नायिका का पिता रत्नमाला बेचने के ( पचपन ) लिये मार्तण्ड के पिता प्रभञ्जन के पास जाता है तब वह पता चलता है कि कमकलिका तो प्रभञ्जन की पुत्री एवं मार्तण्ड की बहन है जो बचपन में खो गई थी। नायिका का पिता ब्रह्मपद उसका पालक पिता मात्र है। अब कमलकलिका के रूप कुमार के साथ विवाह करने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। इस नाटक में प्राग्दीप्ति (फ्लैशबैक) का भी प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार अंक के स्थान पर दृश्य रखा गया है और संगीत का बाहुल्य है। देशभक्ति परक नाटकों की भी एक सामान्य पद्धति है कि कोई व्यक्ति प्राणपण से देशरक्षा के कार्य में जुट जाता है। तब कोई अन्तस्तल से प्रेम करने वाली युवती उसका पदानुसरण कर उसी युद्धस्थल के निकट घायलों और रोगियों की सेवा करने लगती है। उसका प्रिय घायल होकर उसी के उपचार कक्ष में आता है। इसी आशय का डा. रमा चौधरी का लिखा देशदीपम् नाटक नवीन पद्धति पर लिखा गया है । इसमें देशरक्षा हेतु प्राणोत्सर्ग करने वाले वीरों के कार्यकलाप दिखलाये गये हैं। चम्पक वदन एक ब्राह्मण पुत्र है वह अपने मित्र अभ्रप्रतिम के साथ देशरक्षा का व्रत लेता है। दोनों मित्र सेना में भरती हो जाते हैं। चम्पक वदन पदाति सेना में भरती होता है और अभ्रप्रतिम वायुसेना में सम्मिलित हो जाता है। चम्पकवदन की बहन पंकजनयना भी भ्रातृप्रेम से प्रभावित होकर युद्ध क्षेत्र में घायलों की सेवा शुश्रूषा का कार्यभार सह्याल लेती है। चम्पक वदन घायल होकर उसी के परिचारण में आता है जहां उसका मित्र और उसकी बहन उसकी सेवा शुश्रूषा करते हैं किन्तु उसे बचा नहीं पाते और वह देश रक्षा के नाम पर बलिदान हो जाता है। इस नाटक की रचना शैली भी नवीन है। अंकों के स्थान पर दृश्यों का प्रयोग तो किया ही गया है कार्यस्थली चयन इत्यादि भी नवीन शैली की ही है और गीतों का बाहुल्य उसे नवीनता प्रदान करता है। कतिपय स्फुट विषय इस काल के नाट्य साहित्य में कतिपय अन्य पुटकर विषयों का समावेश भी प्राप्त होता है। इस प्रकार के नाटकों में घनश्याम लिखित नवग्रहचरित एक महत्वपूर्ण रचना है। यद्यपि इसमें भी वर्तमान राजनैतिक संघर्ष की झलक पाई जाती है फिर भी पात्रों के सर्वथा वर्तमान से असंबद्ध होने के कारण इसे फुटकर नाटकों की श्रेणी में ही रखना ठीक होगा। इसमें आकाशचारी ग्रहों को पात्र के रूप में स्वीकार किया गया है। ग्रह नौ हैं और दिन सात ही; राहु और केतु के नाम पर कोई दिन नहीं हैं। इसी आधार पर लेखक ने संघर्ष की कल्पना कर ली है। ग्रहचक्र का स्वामी सूर्य नाटक का नायक है; मंगल उसका सेनापति है। राहु प्रतिनायक है जो केतु को लेकर संघर्ष के लिये तैयार हो जाता है। एक बुराई यह भी है कि राहु और केतु के पास कोई राशि नहीं है- १२ ( छपन ) राशियों में ५ ग्रह मंगल, बुध, गुरूशुक्र और शनि) का दो दो राशियों पर अधिकार है और सूर्य तथा चन्द्रमा के पास एक एक राशि है। यह विद्रोह इसी अन्याय को लेकर उठाया गया है। राहु और केतु का पक्ष है कि उन्हें भी कम से कम एक राशि अवश्य मिलनी चाहिये और उनके नाम पर भी कोई एक दिन अवश्य होना चाहिये। उनका सुझाव है कि शनैश्चर राशिचक्र को पार करने में सबसे अधिक (६० वर्ष) लगता है; उसी को दो फाड़ कर उसके लिये एक दिन की और एक राशि की व्यवस्था की जा सकती। है। संघर्ष चलता है देवताओं के गुरु वृहस्पति और दैत्य गुरु शुक्र मिलकर समझौता कराते हैं कि राहु की उक्त मांगे तो मानना सम्भव नहीं है किन्तु उसे भी सूर्य के समकक्ष स्वर्भानु (स्वर्ग का सूर्य) की संज्ञा दी जा सकती है। राहु सन्तुष्ट हो जाता है और अपना आन्दोलन वापस ले लेत है। इसी प्रकार का एक अन्य नाटक है जीवन्यतीर्थ का लिखा शतवार्षिकम् इसमें आजकल की वैज्ञानिक खोजों को आधार बनाया गया है जिनमें चन्द्रमा इत्यादि प्रहों पर पहुंचने की चेष्टा की जाती है। मानव विज्ञान के अनुसन्धानों द्वारा विनाश की ओर बढ़ रहा है इसी तत्व को लेकर नाटक की रचना की गई है। मर्यमणि नायक है जो राकेटों को अपने शरीर पर चिपका कर ब्रह्मलोक में पहुंचता है। वहां द्वारपाल भयभीत हो जाता है। चन्द्रमा दुःखी है कि बुरी तरह उसका अतिक्रमण किया गया है । मर्यमणि चैलेज की मुद्रा में कहता है कि अभी तो मंगल तक ही राकेट छोड़ा गया है शुक्र और बुध तक भी राकेट झोड़ने की योजना बन चुकी है। इस पर राहु को क्रोध आ जाता है; सभी प्रह मर्यमणि को पकड़कर ब्रह्माजी के पास ले जाते हैं। ब्रह्माजी सबको शान्त कर कहते हैं कि मानव को या तो यान्त्रिकी पर अन्धाधुन्ध प्रयोग करने से विरत हो जाना चाहिये या १०० वर्ष में पृथ्वी का नाम निशान भी शेष नहीं रह जायेगा। रूस के महाक्रान्तिकारी साम्यवादी नेता महाराष्ट्र के महासन्त तुकाराम एवं चैतन्य महाप्रभु पर रमा चौधरी की रचनायें; शाहजहां बादशाह की राजनीति पर हजारी लाल शर्मा की रचना इसी श्रेणी में आती है। पञ्चानन ने प्रताप के पुत्र अमर सिंह के विषय में अमरमंगलम् नामक एक नाटक लिखा था। राजसिंह राठौर पुत्री का विवाह मुगलबादशाह से करना चाहता है; अमर सिंह भी उसे चाहते हैं। रानी अमरसिंह के पक्ष में है। मानसिंह अनेक छल कपट से अमरसिंह को मार डालना या कलंकित करना चाहते हैं। फिर भी अन्त में अमर सिंह को सफलता मिलती है और राजकुमारी उन्हें प्राप्त हो जाती है। संस्कृत भाषा एक संस्करण सम्पन्न भाषा है जो लोकभाषा नहीं हो सकती । लोकभाषा का स्वभाव परिवर्तनशीलता है जो प्रवाहित होती हुई परिवर्तनों को ग्रहण करती चलती है। बोलचाल और उच्चारण में पिता और पुत्र की भाषा में कुछ अन्तर अवश्य होता है। यह अन्तर पीढियों में बदलते बदलते दो चार सौ वर्ष में भाषा इतना नया रूप धारण कर लेती है कि दूसरी भाषा जैसी प्रतीत होने लगती है। यह परिवर्तनशीलता साहित्य ( सत्तावन ) पर भी प्रभाव डालती है और कुछ सौ वर्ष पहले लोकभाषा में लिखा साहित्य परवर्ती पीढी के लिये असंवेद्य हो जाता है। यह एक बहुत बड़ी हानि है। इससे साहित्य चिरन्तन नहीं बन पाता। इस हानि का प्राचीन आचायों ने अनुभव किया और एक ऐसी भाषा की आवश्यकता समझी जिसमें लिखा साहित्य असीमित काल तक सुरक्षित रक्खा जा सके। इसी ठद्देश्य से भाषा का संस्कार किया गया और एक ऐसी जकड़ी हुई का भाषा स्वरूप स्थिर कर दिया जिसमें कालान्तर में परिवर्तित होने की प्रवृत्ति जाती रही। यह सच है कि संस्कृत सर्वसाधारण की भाषा नहीं हो सकी, क्योंकि यह नियमों से बंधी हुई। है और नियमों का अतिक्रमण कर मनमाने ढंग से बोलने का इसमें अवसर ही नहीं है, साथ ही यह भी सच है कि यह स्थायी साहित्य के लिये सर्वथा उपयुक्त है। हिन्दी में चन्द्रवरदायी तथा उनके समय के दूसरे कवियों की भाषा असंवेद्य हो गई है। संस्कृत नाटकों में जिन प्राकृत भाषाओं का प्रयोग हुआ है उनको भी बिना संस्कृत छाया के समझना कठिन या लगभग असम्भव है। १४वीं १५वीं शताब्दी की भाषा भी आसानी से आज के नवयुवक की समझ में नहीं आती जबकि नियमों का ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद हजारों वर्ष पहले लिखी हुई व्यास और वाल्मीकि की भाषा इसी रूप में पढी जाती है जैसे वह आज ही लिखी गई हो। निस्सन्देह स्थायी साहित्य रचना का उद्देश्य संस्कृत भाषा पूरी सफलता के साथ पूरा करती जा रही है। यह प्रसन्नता की बात है कि वह आधुनिक साहित्य को भी आत्मसात किये हुये है। नाटक साहित्य ललित कला का सर्वोत्कृष्ट आकर्षक साधन है। किन्तु रचनाकारों की इस ओर प्रवृत्ति साधना में निपुणता प्राप्त कर लेने के बाद ही होती है। सर्वप्रथम मुक्तक में प्रवृत्ति होती है; फिर प्रबन्ध की ओर कवि अप्रसर होता है और प्रबन्ध में निष्णात होकर महाकाव्य लिखने का साहस करता है। नाटकरचना अत्यन्त परिनिष्ठित काव्यकलाजन्य प्रवृत्ति है जो रचनाकारों को सर्वोत्कृष्ट प्रतिष्ठा दिलवाने के कारण होती है। जो गौरव सेक्सपियर और कालिदास को प्राप्त है; कालिदास और भवभूति का जितने गौरव के साथ नाम लिया जाता है वह प्रतिष्ठा भारवि, माघ, मिल्टन, वाल्टर स्काट आदि को प्राप्त नहीं है। यह सन्तोष की बात है कि संस्कृत का आधुनिक नाट्य साहित्य भी किसी भी दिशा में पीछे नहीं है। इसमें पाश्चात्य नाटकों के अनुवाद हैं, आधुनिक प्रवृत्तियों की झलक है, आधुनिक नाट्य प्रक्रिया का अनुसरण है जबकि प्राचीनता का अंचल भी छूटा नहीं है। लेखक की आशंसा है इसी प्रकार अनन्तकाल तक संस्कृत नाट्यकला अपना पवित्र कर्तव्य निभाती हुई जनसाधारण को कृतार्थ करती रहे। - रामसागर त्रिपाठी पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/६७ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/६८ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/६९ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/७० पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/७१ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/७२ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/७३ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/७४ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/७५ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/७६ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/७७ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/७८ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/७९ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/८० पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/८१ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/८२ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/८३ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/८४ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/८५ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/८६ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/८७ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/८८ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/८९ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/९० पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/९१ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/९२ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/९३ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/९४ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/९५ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/९६ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/९७ अर्थपञ्चक नाटक (३१ ) अवन्ति सुन्दरी नाटिका के नायक हैं जिसकी रचना इनके गुरु मदनवालसरस्वती ने की थी। पारिजातमञ्जरी का दूसरा नाम विजयी है। इसमें इनकी वीरता और प्रेम लीला को नाट्य विषय बनाया गया है। इन्होंने गुजरात के चालुम्य वंशीय भीमदेव को युद्ध में पराजित किया था और उनकी पुत्री पारिजातमञ्जरी से विवाह किया था। अर्थपञ्चक नाटक- (ना.कृ) यह पांच अंकों का नाटक है जिसके लेखक का नाम ज्ञात नहीं है। इसका विषय वर्णन है- तंजौर जिला के कृष्णपुरम में जिस सौरीराज देवता की पूजा होती है उनके यहां मन्मथ का किस प्रकार जन्म हुआकिस प्रकार शम्बरा सुर ने उसे समुद्र में फेंक दिया। किस प्रकार शम्बर के नौकरों ने मछली के पेट में बच्चे को प्राप्त किया; किस प्रकार शम्बर की पुत्री जो वास्तव में रति का अवतार थी उस बच्चे पर आसक्त हो गईउसे भली भांति पाला पोसा और अन्त में उससे विवाह कर लिया। इस नाटक में ५ तत्वों को नाटकीयरूप प्रदान किया गया है- चिन्ता, योग, समारम्भ, व्यापारहेतुदर्शन और अभीष्टलाभ चिन्तायोगसमारम्भो व्यापारो हेदुदर्शनम् । अभीष्टलाभ इत्यर्थपञ्चकं नाटकीकृतम् । इसीलिये इस नाटक का नामकरण अर्थपञ्चक किया गया है। मद्रास की ओरियण्टल लायब्ररी की संस्कृत पाण्डुलिपियों की विवरणात्मक सूची में इसका उल्लेख XXI ८८७७ पर किया गया है। अलका- (ना.पा) महावीर चरित में अलका नागरी का मानवीकृत रूप। वह और लंका (मानवीकृत) के प्रति संवेदना प्रकट करने उस वक्त आती है जब लंका का युद्ध समाप्त हो चुका है और रावण मारा गया है। अवकीर्णकौशिकम्- नाक) नारायणशास्त्री (१) (दे) लिखित १० अंकों का नाटक । अवधानसरस्वती- (ना.का) ये काशी के निवासी थे। इनका लिखा शृङ्गारमञ्जरी (दे) शीर्षक भाण तंजोर के राज पुस्तकालय में सं. VII ३५९९ पर संकलित किया गया अवन्तिका- (ना.पा) स्वनवासवदत्तम् में यौगन्धरायण ने वासवदत्ता को इस नाम से पद्मावती के पास धरोहर के रूप में रख दिया था। अवन्तिसुन्दरी- नाक) राजशेखर की पत्नी; इनका लिखा इसी नाम का प्रेक्षणक (दे) प्रकाश में आया है। (१) अवन्तिसुन्दरी- (ना.कृ) यह एक प्रेक्षणक (दे.) है । इसकी रचना राजशेखर की पत्नी अवन्तिसुन्दरी ने की थी। इसका विषय है पतिपत्नी में काव्य के अर्थ प्रहण पर वादविवाद । अवन्तिसुन्दरी (३२) अविमारक (२) अवन्तिसुन्दरी-(ना.कृ) वेङ्कटरामराघवन का लिखा प्रेक्षणक है; इसका आधार अवन्तिसुन्दरी लिखित प्रेक्षणक ही है। अवलोकिता- (ना.पा) मालती माधव (दे) में कामन्दकी की सहायिका है। यह अपनी सहयोगिनी सौदामिनी के साथ मिलकर मालती को कपालकुण्डला के चंगुल से बचाती है। अविनाशी स्वामी- (ना.का) शृङ्गारतिलक (दे) भाण के लेखक । ये आत्रेयगोत्र के वन्दवासी परिवार में उत्पन्न हुए थे। इनका समय १९वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। अविमारक- (नाक) भास (दे) कृत ६ अंकों का नाटक । यह नाटक लोककथा पर आधारित है। दीर्धतपस् ऋषि के शाप से सौवीर राज का पुत्र विष्णुसेन १ वर्ष के लिए सपरिवार चाण्डाल बन जाता है। वह गुप्त रूप से कुन्तिभोज के नगर में रहने लगता है। वहां वह अविमारक नामक असुर को मार डालता है इसलिये उसका भी नाम अविमारक पड़ जाता है। वह अपनी एक भाञ्जी कुरंगी की एक विगड़े हाथी से रक्षा करता है। जब राजा यह समाचार सुनता है तब अविमारक से ही पुत्री कुरंगी का विवाह कर देना चाहता है। किन्तु अविमारक इतना निम्नवंश का है कि यह सम्बन्ध सम्भव नहीं हो पाता। उधर कुरंगी और अविमारक एक दूसरे के वियोग में तड़पते हैं। उनका प्रेम सीमातीत हो गया है। एक वार धात्री की सहायता से अविमारक कुरंगी के कक्ष में पहुंच जाता है; किन्तु पकड़ लिया जाता है और उसकी आकाङ्क्षा पूरी नहीं हो पाती। वहआग से जलकर आत्महत्या करना चाहता है। किन्तु अग्निदेव उसे अस्वीकृत कर देते हैं और वह बच जाता है। तब पर्वत से गिर कर आत्महत्या करना चाहता है किन्तु वहां उसे एक विद्याघर मिल जाता है। वह उसे एक अंगूठी देता है जो जादुई है और उससे वह अदृश्य रूप में कुरंगी के कक्ष में पहुंचकर प्रत्येक रात में अपनी प्रेमिका का उपभोग कर सकता है। इस कार्य में उसे विदूषक की भी सहायता मिलती है । इसके पहले कुरंगी ने भी आत्महत्या की चेष्टा की थी किन्तु वह भी बच गई थी। जब राजा कुन्तिभोज को इनके प्रच्छन्न विहार की सूचना मिलती है तब वह परेशान हो जाता है और कुरंगी का विवाह अपने दूसरे भाञ्जे जयवर्मा से कर देने का विचार करता है। इसी समय नारद आ जाते हैं और बतलाते हैं कि विष्णुसेन वस्तुतः काशीनरेश की पत्नी सुदर्शना में अग्नि द्वारा उत्पन्न किया हुआ पुत्र है और उसका केवल पालन पोषण सौवीर राज के यहां हुआ है। वास्तविकता जान कर राजा कुंरगी का विवाह विष्णुसेन (अविमारक) से कर देता है- यहां नाटक समाप्त हो जाता है। _____ यह एक शृङ्गार प्रधान नाटक है। भावना की तीव्रता को अभिव्यक्त करने में भास को अच्छी सफलता मिली है। घटनाओं और कार्य व्यापारों की क्षिप्रता और आवृत्ति जो भास की शैली की विशेषता है इस नाटक में भी देखी जा सकती है। विदूषक (दे) के चित्रण में कवि ने अधिक निपुणता दिखलाई है। वह स्वामिभक्तसेवक की भूमिका भली पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१०० पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१०१ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१०२ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१०३ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१०४ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१०५ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१०६ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१०७ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१०८ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१०९ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/११० पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१११ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/११२ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/११३ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/११४ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/११५ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/११६ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/११७ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/११८ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/११९ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१२० पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१२१ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१२२ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१२३ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१२४ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१२५ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१२६ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१२७ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१२८ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१२९ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१३० पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१३१ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१३२ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१३३ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१३४ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१३५ 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पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२८१ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२८२ पञ्चायुधप्रपञ्च ( २१६ ) थे। इन्हें तर्क वागीश और महामहोपाध्याय की उपाधियां प्राप्त थीं। अन्त में ये वनारस में रहने लगे थे। इन्हें पूफरीडिंग और सम्पादन का अच्छा अनुभव था क्योंकि ये बंगवासी प्रेस में कार्यरत रहे थे। शिक्षा और संस्कृत साहित्य प्रचार की दिशा में भी इनका कार्य स्तुत्य रहा था। कुछ दिनों राजनीति के बन्दी भी रहे थे। उक्त नाटक के अतिरिक्त इन्होंने पार्थाश्वमेध एवं सर्वमंगलोदय नामक एक-दो काव्य भी लिखे थे इन्होंने कई दार्शनिक कृतियों की व्याख्या भी लिखी थी। इनका समय बीसवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। इनके प्रसिद्ध पूर्वजों में कान्यकुब्ज अल्लभट्ट का नाम लिया जाता है। पञ्चायुधप्रपञ्च- (ना.कृ) त्रिविक्रम लिखित भाण। कैटेलागस कैटेलागोरम I ३१७ और I २६१ में उल्लिखित। इसकी रचना शक संवत् १७२७ (सन् १७९५) में की गई पंचालिकारक्षणम्- (ना.कृ) पेरीकाशीनाथ शास्त्री लिखित नाटक। पण्डितचरितप्रहसनम्- (ना.) मधुसूदन काव्यरत्न लिखित प्रहसन । पद्मक- (ना.पा) वत्सराज (दे) लिखित समुद्रमन्थन (दे) का एक पात्र । (१) पद्मनाभ- (ना.का) चन्द्रिका जनमेजय (दे) नामक पौराणिक कथानक पर आधारित नाटक के लेखक। इनका जीवन वृत्त सर्वथा अज्ञात है। जार्जपञ्चम के जीवन के विषय में जार्जदेवचरित काव्य एवं पवनदूत नामक काव्य लिखने वाले जी.वी. पद्मनाभन से सम्भवतये भिन्न थे। (२) पद्मनाभ-(ना.का) कोटिपल्ली के तेलुगु ब्राह्मण भरद्वाज गोत्रीय लक्ष्मण दीक्षित और वेङ्कटाम्बा दीक्षित के पुत्र थे। इनकी दो नाट्यकृतियां प्राप्त होती हैं- त्रिपुरविजय व्यायोग (दे) और लीलादर्पण भाण (दे) उपनाम मदनलीलादर्पण। इनका समय १९वीं शताब्दी है। पद्मनाभाचार्य- (नाका) ध्रुवतापस (दे) एवं गोवर्धन विलास (दे) के लेखक । इनका समय १९वीं और २० वीं शताब्दी है। ये कोयम्बटूर में एडवोकेट थे। वहीं से इनके नाटक प्रकाशित हुये थे। पद्मप्राभृतक- (नाकू) शूद्रक (दे) लिखित भाण जिसका संकलन चतुर्भाणी में किया गया है। यह नाटक काव्य कला का एक अच्छा नमूना है और संस्कृत की सर्वोत्तम रचनाओं में इसकी गणना की जा सकती है। सखी सुरतसमय में मसले हुये पद्य को प्रेषित करने का उपदेश देती है। इसी आधार पर इस भाण का नामकरण हुआ है। पद्मसुन्दर- (नाक) १६वीं शताब्दी के नाटककार। अकवर वादशाह ने इन्हें सम्मानित किया था। ये उनके दरवार के पण्डित थे। इनका कार्यस्थल मुजफ्परनगर का चरथावर (चरथावल) था; किन्तु इन्हें जोधपुर के महाराजा मालदेव से सम्मान प्राप्त हुआ था। इनकी रचनाओं में काव्य, महाकाव्य, कोषग्रन्थ, ज्योतिष के अतिरिक्त ज्ञानचन्द्रोदय भी पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२८४ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२८५ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२८६ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२८७ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२८८ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२८९ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२९० पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२९१ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२९२ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२९३ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२९४ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२९५ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२९६ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२९७ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२९८ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२९९ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/३०० पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/३०१ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/३०२ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/३०३ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/३०४ पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/३०५ 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