अष्टाध्यायी हिन्दी व्याख्या सहितम्/तृतीयः अध्यायः
[३|१|१] प्रत्ययः तीसरे, चौथे और पांचवें अध्याय में आने वाले सूत्रों से जिनका विधान किया जाए उनकों प्रत्यय कहते हैं। | कर्त्तव्यम्, करणीयम् (करना चाहिए)
[३|१|२] परश्र्च प्रत्यय परे होता है। | कर्त्तव्यम्, तैत्तिरीयम्
[३|१|३] आद्युदात्तश्र्च - प्रत्यय संज्ञक शब्द आद्युदात्त होते हैं। | क॒र्त्तव्य॑म्, तै॒त्ति॒रीय॑म्
[३|१|४] अनुदात्तौसुप्पितौ - सुप् प्रत्यय तथा पित् प्रत्यय अनुदात्त होते हैं। | दृ॒षदौ॑, दृषदः॑। पित् - पच॑ति, पठ॑ति।
[३|१|५] गुप् तिज् किद्भयःसन् - `गुपऄ, `तिजऄ तथा `कितऄ धातुओं से `सन् ` प्रत्यय होता है। | गुप् + सन् == जुगुप्स / जुगुप्स + शप् + शानच् == जुगुप्समानः, तिज् + सन् == तितिक्ष / तितिक्ष + शप् + शानच् == तितिक्षमाणः।
[३|१|६] मान्बधदान्शान्भ्योदीर्घश्चाभ्यासस्य - `मान् ` (जिज्ञासा अर्थ में ), `वधऄ (वैरूप्य के अर्थ में), `दान् ` (आर्जव अर्थ में) तथा `शान् ` (निशान अर्थ में) धातुओं से सन् प्रत्यय होता है और धातु के अभ्यास के इकार के स्थान पर दीर्घ होता है। | मान् + सन् ==> मामांस + शप् + ते ==> मीमांसते, बध् + सम् ==> बीभत्स + शप् + ते ==> बीभत्सते, दान् + सन् ==> दीदांस + शप् + ते ==> दीदांसते, शाम् + सन् ==> शीशंस + शप् + ते ==> शीशंसते। उपरोक्त अर्थों से भिन्न अर्थों में इन धातुओं से क्रमशः मानयति, बाधयति, दानयति व शानयति रूप बनते हैं।
[३|१|७] धातोःकर्मणःसमानकर्तृकादिच्छायां वा - यदि इच्छा और धातु के कर्म का कर्ता एक ही हो तो इच्छा अर्थ में धातु के बाद विकल्प से सन् आता है। | देवदत्तस्य भोजनामिच्छति रामदत्तः में भोजन की इच्छा करने वाला है देवदत्त। इस प्रकार इच्छा और क्रिया का कर्ता एक न होने के कारण सन् प्रत्यय का प्रयोग नही होगा। (१)धातु का प्रयोग इच्छा अर्थ में होना चाहिए। (२) इच्छा और क्रिया का कर्म एक ही होना चाहिए। (३) क्रिया और इच्छा का कर्ता एक ही होना चाहिए।
[३|१|८] सुप आत्मनःक्यच् - इच्छा अर्थ में स्व-सम्बन्धी इच्छा के सुबन्त कर्म के बाद विकल्प से क्यच् आता है। इच्छा का सुबन्त कर्म अपने से सम्बन्धित होना चाहिए अन्यथा क्यच् प्रत्यय नही होगा। | आत्मनः पुत्रमिच्छति ( अपने पुत्र को चाहता है) में इच्छा के कर्म पुत्रम् का सम्बन्ध इच्छा के कर्ता से है। पुत्रम् रूप सुबन्त है, क्योंकि यहाँ पुत्र से सुप् अम् होकर यह रूप बना है। अतः प्रकृत सूत्र इच्छा के अर्थ में इसके बाद क्यच् प्रत्यय आता है। क्यच् में ककार और चकार इतसंज्ञक है, अतः पुत्र अम् के बाद केवल य होकर पुत्र अम् य रूप बनता है
[३|१|९] काम्यच्च - इच्छा- अर्थ में द्व-सम्बन्धी इच्छा के सुबन्त कर्म के बाद विकल्प से काम्यच् प्रत्यय आता है। | पुत्रकाम्यति ( आत्मनः पुत्रमिच्छति) में पुत्र अम् से काम्यच् प्रत्यय और अम्-लोप होकर पुत्रकाम्य रूप बनता है। तब लट्-लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में तिप्, शप् और पर -रूप होकर पुत्रकाम्यति रूप बनता है।
[३|१|१०] उपमानादाचारे - आचार ( आचरण करना) अर्थ में उपमानवाची सुबन्त कर्म के बाद विकल्प से क्यच् होता है। | पुत्रमिवाचरति (पुत्र के समान आचरण के अर्थ में इसके बाद क्यच् प्रत्यय होकर पुत्र अम् य रूप बनता है। तब पूर्ववत लट् लकार के प्रथमपुरुष एकवचन में पुत्रीयति रूप सिद्ध होता है। विकल्पावस्था में पुत्रमिवाचरति यही वाक्यरूप रहता है।
[३|१|११] कर्तुः क्यङ् सलोपश्र्च - उपमानभूत कर्त्तृ कारकस्थानीय सुबन्त से अचार अर्थ में क्यङ् प्रत्यय विकल्प से होता है और सकार का लोप भी। | श्येनायते (कौआ बाज के समान आचरण करता है)। पण्डितायते (मूर्ख पण्डित के समान आचरण करता है। पुष्करायते (नीला कमल सफेद कमल के समान खिल रहा है)। पचायते (मट्ठा दूध के समान आचरण करता है), पयस्यते। पयस् के सकार का लोप विकल्प से हो गया है। सिद्धि पुत्रीयति के समान ही है। क्यङ् के ङित् होने से आत्मनेपद (१_३_१२) से हो जाता है।
[३|१|१२] भृशादिभ्यो भुव्यच्वेर्लोपश्र्चहलः च्विप्रत्ययान्त- भिन्न भृश (शीघ्र, मन्द, चपल, पण्डित, उत्सुक, उन्मनस्, अभिमनस्, सुमनस्, दुर्मनस्, रहस्, रेहस्, शस्वत्, बृहत्, वेहत्, नृषत्, शुधि, अधर, ओजस्, वर्चस्) आदि शब्दों से `भवतॎ (होता है) अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है और हल् का लोप भी हो जात है। | अभृशो भृशो भवति = भृशायते। (जो अधिक नहीं वो अधिक होता है)। अशीघ्रः शीघ्रों भवति = शीघ्रायते (जो शीघ्रकारी नहीं वह शीघ्रकारी बनता है)। अनुम्नः उन्मनो भवति = उन्मनायते (जिसका मन उखड़ा नहीं था, वह उखड़ सा गया है।
[३|१|१३] लोहितादिडाज्भ्यःक्यष् लोहित आदि शब्दों तथा डाच् प्रत्यान्त शब्दों से `भवतॎ - अर्थ में क्यष् प्रत्यय होता है। | अलोहितो लोहितो = भवति लोहितायते, लोहितायति। डाच् पटपटायते, पटपटायति।
[३|१|१४] कष्टाय क्रमणे - उत्साह अर्थ में चतुर्थ्य कष्ट शब्द के बाद क्यङ् (य) आता है | कष्टाय क्रमते (पाप करने के लिए उत्साह करता है) अर्थ में चतुर्थ्य कष्ट शब्द के बाद प्रकृत सूत्र से क्यङ् (य) होकर कष्ट ङे य रूप बनता है। तब कष्ट ङ् की धातु संज्ञा होने पर ङे का लोप हो जाता है और कष्ट य रूप बनता है।यहाँ अङ्ग के अन्त्य अकार को दीर्घ होकर कष्ट् आ य् = कष्टय रूप बनने पर लट् लकार लके प्रथमपुरुष एकवचन में आत्मनेपद प्रत्यय त, शप्, पर-रूप और एत्व होकर कष्टायते रूप सिद्ध होता है।
[३|१|१५] कर्मणोरोमन्थतपोभ्यांवर्तिचरोः क्रमशः वर्त्तत तथा चरण अर्थ में कर्मीभूत रोमन्थ तथा तपस् शब्दों से क्यङ् प्रत्यय होता है। | तापसः तपश्चरति == तपस्यति / रोमन्थ से क्यङ् लगने पर आत्मनेपद ही होता है == कीटो रोमन्थं वर्तयति == रोमन्थायते।
[३|१|१६] बाष्पोष्मभ्यामुद्वमने - कर्मीभूत तथा वाष्प तथा उष्म शब्दों से उद्धमन अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है। | वाष्पम् उद्वमति == वाष्पायते / ऊष्माणां उद्वमति == ऊष्मायते।
[३|१|१७] शब्दवैरकलहाभ्रकण्वमेघेभ्यःकरणे - करने के अर्थ में कर्म-रूप शब्द, वैर, कलह, अभ्र, कणव और मेघ - इन छैः शब्दों के बाद क्यङ् (य) आता है। | शब्दं करोति अर्थ में कर्म-कारक शब्द अम् के बाद प्रकृत सूत्र से क्यङ् होकर शब्द अम् य रूप बनता है। इस स्थिति में धातु संज्ञा होने पर अम् का लोप तथा अकृत्सार्वधातुकयोः (७_४_२५) से अजन्त अङ्ग को दीर्घ होकर शब्दा य रूप बनता है। तब लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में आत्मनेपद त, शप् और पर-रूप होकर शब्दायते रूप सिद्ध होता है।
[३|१|१८] सुखादिभ्यः कर्तृ वेदनायाम् सुख आदि कर्मकारक स्थानीय शब्दों से अनुभवार्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है यदि अनुभूतिविषयीभूत सुखादि स्वगत हो। | सुखं वेदयते== सुखायते (सुख का अनुभव करता है)। दुखायते (दुख का अनुभव करता है)
[३|१|१९] नमोवरिवश्र्चित्रङः क्यच् - नमस्, वरिवस् तथा चित्रङ् शब्दों से विकल्प से करण अर्थ में क्यच् प्रत्यय होता है। | नमः करोति देवेभ्यः == नमस्यति देवान् (देवों को नमस्कार करता है)। वारिवः करोति == वारिवस्यति गुरून् (गुरुओं की सेवा करता है)। चित्रं करोति == चित्रीयते (आश्चर्य करता है)।
[३|१|२०] पुच्छ-भाण्ड-चीवराण्णिङ् - पुच्छ, भाण्ड तथा चीवर शब्दों से करण अर्थ में णिङ् प्रत्यय होता है। | पुच्छम् उदस्यति == उत्पुच्छयते गौः (गौ पूँछ उठाती है)। परिपुच्छयते (गौ पूँछ चारों तरफ चलाती है)। भाण्डं समाचिनोति == सम्भाण्डयते (बर्तनों को ठीक से रखता है)। चीवरं परिदधाति== सञ्चीवरयते भिक्षुः (भिक्षुः कपड़े पहनता है)। उदाहरण में "ङित्" होने से आत्मनेपद होता है। सिद्धि "णिजन्त" की सिद्धियों के समान है।
[३|१|२१] मुण्डमिश्रश्लक्ष्णलवणव्रतवस्त्रहलकलकृततूस्तेभ्योणिच् - मुण्ड, मिश्र, श्लक्ष्ण, लवण, व्रत, वस्त्र, हल, कल, कृत तथा तूस्त शब्दों से करण अर्थ में णिच् प्रत्यय होता है। | मुण्डं करोति == मुण्ड + णिच् == अनेकाच् होने के कारण टिलोप करके == मुण्डयति।
[३|१|२२] धातोरेकाचो हलादेः क्रियासमभिहारे यङ् - क्रिया के पुनः पुनः अथवा अधिक होने के अर्थ में हलादि (जिसके आदि में कोई व्यञ्जन-वर्ण हो) और एकाच् (जिसमें एक ही स्वर-वर्ण हो) धातु से विकल्प से यङ् प्रत्यय होता है। | भू (होना) धातु हलादि है और इसमें एक ही अच्-ऊकार है। अतः प्रकृत सूत्र से पुनः पुनः या भृशार्थ में इससे यङ् होकर भू य रूप बनता है।यहाँ सन्यङोः से भू को द्वित्व होकर भू भू य रूप बनता है
[३|१|२३] नित्यं कौटिल्ये गतौ - कैटिल्य कुटिलता) अर्थ में गतिवाची हलादि एकाच् धातु के बाद नित्य यङ् होता है। | कौटिल्य अर्थ में गतिवाची व्रज धातु से यङ् होकर व्रज य रूप बनता है। तब धातु के प्रथम एकाच् ब्र को द्वित्व और अभ्यास कार्य होकर व व्रज य रूप बनता है।
[३|१|२४] लुप-सद-चर-जप-जभ-दह-दंश-गृभ्यो-भावगर्हायाम् - लुप, सद, चर, जप, जभ, दह, दश तथा गॄ धातुओं से धात्वार्थगर्हा में यङ् प्रत्यय होता है। | गर्हितं लुम्पति == लोलुप्यते, गर्हितं चरति == चञ्चूर्यते आदि।
[३|१|२५] सत्याप-पाश-रुप-वीणा-तूल-श्लोक-सेना-लोम-त्वच-वर्म-वर्ण-चूर्ण-चुरादिभ्यो णिच् - सत्याप्, पाश, रूप, वीणा, तूल, श्लोक, सेना, लोम, त्वच, वर्म, वर्ण, चूर्ण तथा चुरादि धातुओं से कोई भी प्रत्यय लगाने के पूर्व णिच् प्रत्यय लगता है। | चुर् धातु से णिच् (इ) होकर सर्वप्रथम चुर् इ रूप बनता है। णिच् आर्धधातुक परे होने के कारण उपधा-उकार को गुण होकर चोर् इ ==> चोरि बनता है।धातु संज्ञा होने पर चोरि से तिप् , शप् और गुण-अयादेश आदि होकर चोर् अय् अ ति ==> चोरयति रूप सिद्ध होता है।
[३|१|२६] हेतुमति च - प्रेरणा के विषय में धातु के बाद णिच् आता है। | प्रेरणार्थ में भू (होना) धातु से णिच् (इ) होकर भू इ रूप बनता है। तब वृद्धि और अवादेश होने पर भावी रूप बनता है। इस स्थिति में लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में भावि से तिप्, शप् और गुण- अयादेश होकर भावयति रूप सिद्ध होता है।
[३|१|२७] कण्ड्वादिभ्यो यक् - कण्डूञ् (खुजलाना) आदि (गणपाठ में पठित) धातुओं के बाद यक् (य) प्रत्यय होता है। | कण्डू (कण्ड्ञ्) धातु से यक् प्रत्यय होकर कण्डू य रूप बनता है। इस स्थिति में इसकी धातु संज्ञा होने पर लटलकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में तिप्, शप्, और पर-रूप होकर कण्डूयति रूप सिद्ध होता है। आत्मनेपद प्रत्यय आने पर कण्डूयते रूप बनता है।
[३|१|२८] गुपूधूपविच्छिपणिपनिभ्यायः - "गुप्", "धूप्", "विच्छ्", "पण" तथा "पन" से स्वार्थ में (स्वार्थिक प्रत्यय का अर्थ होता है कि जिससे वो लगे उसके अर्थ में कोई भी वृद्धि न करे।) आय प्रत्यय होता है। | गुप् धातु से आय् प्रत्यय होकर गुप् + आय् =(७_३_८६से उपधा को गुण)=> गोपाय रूप बनता है।
[३|१|२९] ऋतेरीयङ् - धृणार्थक "ऋ" धातु से ईयङ् प्रत्यय होता है। | ऋत् + ईयङ् ==> ऋतीय; ऋतीय् + शप् ==> ऋतीय; ==> ऋतीय + ते == ऋतीयते।
[३|१|३०] कमेर्णिङ् - कम् धातु से स्वार्थ में णिङ् प्रत्यय होता है। | कम् से णिङ् होकर कम् इ रूप बनने पर णित् णिङ् (इकार परे होने के कारण उपधा वृद्धि करने पर काम् इ ==> कामि रूप बनेगा।
[३|१|३१] आयादय आर्धधातुके वा - आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर धातु से "आय", "इयङ्" और "णिङ्" प्रत्यय विकल्प से होते हैं। | लट् लकार में "गुप्" धातु से "आय" प्रत्यय विकल्प से होता है।
[३|१|३२] सनाद्यन्ता धातवः सन् आदि ("सन्" से लेकर "णिङ्" पर्यन्त१२प्रत्यय अर्थात् "सन्", "क्यच्", "क्यङ्", "काम्यच्", "क्यष्", "क्विप्", "णिङ्", "णिच्", "यङ्", "यक्", "आय", "ईयङ्") प्रत्ययों से युक्त शब्दस्वरूप की धातु संज्ञा होती है। | ज्ञ + णिच् == ज्ञापि
[३|१|३३] स्य-तासी ऌ-लुटोः - लङ् और ऌट् परे होने धातु से स्य प्रत्यय और लुट् परे होने पर तासि प्रत्यय होता है। तासि में इकार इत्संज्ञक है, अतः तास् ही शेष रहता है | प्रथम एकवचन में लुट् लकार में भू + ति रूप होता है। यहाँ३_१_६८से शप् प्राप्त होता है, किन्तु प्रकृतसूत्र से लुट् ति परे होने पर उसका बाध होकर तास् आदेश हो जाता है और रूप भू तास् ति।
[३|१|३४] सिब्बहुलं लेटि - लेट् के परे रहते धातु से बहुल करके सिप् प्रत्यय होता है। | सिप् + अट् ==स, सिप् + आट् == सा।
[३|१|३५] कास्-प्रत्ययादाममन्त्रे लिटि - मन्त्र से अतिरिक्त विषय में `कास् ` धातु तथा प्रत्ययान्त धातुओं से आम् प्रत्यय लिट् परे रहते होता है। | कासाञ्चक्रे (वह खाँसा)। लोलूयाञ्चक्रे (उसने बार-बार काटा), पोपूयाञ्चक्रे (बार-बार पवित्र किया)।
[३|१|३६] इजादेश्र्च् गुरुमतोऽनृच्छः - लिट् परे होने पर ऋच्छ धातु को छोड़कर अन्य गुरुवर्णवाले इजादि (जिसके आदि में इ, उ, ऋ, ऌ, ए, ओ, ऐ या औ हो) धातु से आम् होता है। | एध धातु में इच्-एकार् आदि में हैतथा गुरुमान् भी है, अतः लिट् परे होने पर इससे आम् होकर एध् आम् लिट् रूप बनता है। इस स्थिति में लिट्-लोप् और कृ के अनुप्रयोग करने पर एधाम् कृ लिट् रूप बनेगा।
[३|१|३७] दयायासश्च - लिट् परे होने पर दय् (दान, गति, रक्षण), अय् (गति) और आस् (बैठना, रहना) धातुओं से आम होता है। | अय् धातु से लिट् परे होने पर धातु से आम् होकर अय् आम् लिट् रूप बनता है। इस स्थिति में लिट् का लोप कृ का अनुप्रयोग और प्रथमपुरुष एकवचन में त आदि होकर अयाञ्चक्रे रूप सिद्ध होगा।
[३|१|३८] उषविदजागृभ्योऽन्य तरस्याम् - लिट् परे होने पर उष्(जलाना), विद् (जानना) और जागृ (जागना) के बाद आम् प्रत्यय होता है, विकल्प से। | विद् धातु से परोक्ष में लिट् होकर विद् लिट् रूप बनता है। यहाँ प्रकृत सूत्र से लिट् परे होने के कारण विद् के पश्चात आम् होकर विद् आम् लिट् रूप बनेगा, इस स्थिति में लिट् का लुक्, लिट्परक कृञ् का अनुप्रयोग और प्रथमपुरुष-एकवचन में तिप् प्रत्यय आदि होकर विदाञ्चकार रूप सिद्ध होता है। आम् के अभाव-पक्ष में विविद रूप बनता है।
[३|१|३९] भीह्रीभृहुवां श्लुवच्च - लिट् परे होने पर भी (डरना), ह्री (लजाना), भृ (पालन करना) और हु (देना और खाना) धातुओं के बाद विकल्प से आम् प्रत्यय होता है। | लिट् लकार में हु धातु से लिट् होकर हु लिट् रूप बनता है। यहाँ लिट् परे होने के कारण आम् होकर हु आम् लिट् रूप बनेगा। यहाँ लिट् परे होने के कारण आम् होकर हु आम् लिट् रूप बनेगा। तब् आम् परे होने पर प्रकृत सूत्र से श्लुवत् द्वित्व आदि होकर जुहवाम् लिट् रूप बनता है।
[३|१|४०] कृञ्चानुप्रयुज्यते लिटि - लिट् परे होने पर आम् प्रत्यय के पश्चात् कृ, भू और अस् धातुओं का प्रयोग होता है। | गोपायाम् में लिट् परे होने के कारण आम् के पश्चात् कृ होकर गोपायाम कृ रूप बनता है। लिट् के प्रथम एकवचन में तिप् और उसके स्थान पर णल् होकर गोपायाम् कृ अ रूप बनेगा। यहाँ लिटि धातोरनभ्यासस्य६_१_८से द्वित्व होकर गोपायाम् कृ कृ अ रूप बनता है।
[३|१|४१] विदांकुर्वन्त्वित्यन्यतरस्याम् - लोट् परे होने पर विद् धातु से विकल्प से आम प्रत्यय होता है, आम् परे रहते लधूपध -गुण नही होता, लोट् का लुक् होता है और लोटपरक कृ धातु का अनुप्रयोग होता है। | विद् धा से लोट् लकार परे होने पर प्रकृत सूत्र से विद् से आम्, लोट् का लुक् और लोट्परक कृञ् का अनुप्रयोग होकर विदाम् कृ लोट् रूप बनता है।
[३|१|४२] अभ्युत्सादयां प्रजनयां चिकयां-रमयामकः पावयांक्रियाद् विदामक्रन्निति च्छन्दसि - वेद में अभ्युत्सादयामकः, प्रजनयामकः, चिकयामक, रमयामक, पावयांक्रियात् तथा विदामक्रन् शब्दों का निपातन होता है। | अभ्युत्सादयामकः, भाषायां विषये - अभ्युदसीषदत्। प्रजनयामकः, अपरपक्षे - प्राजीजनत्। चिकयामकः, पक्षे - अचैषीत। रमयामकः, पक्षे - अरीरमत्। पावयांकृयात्, पक्षे - पाव्यात्। विदामक्रन्, पक्षे - अवेदिषुः।
[३|१|४३] च्लि लुङि - लुङ् परे होने पर धातु से च्लि होता है। यह च्लि - विधि शप्, श्यन् और श आदि विकरणो का बाधक है। | लुक् में भू धातु से प्रथम एकवचन में भू + ति रूप बनता है। यहाँ इकार लोप और अट् आगम् होकर अभूत् रूप बनता है।सार्वधातुक ति! तिप् परे होने से शप् प्राप्त ओता है, किन्तु सूत्र से उसका निषेध होता है। तब च्लि आदेश होक अभू च्लि त् रूप बनता है।
[३|१|४४] च्लेः सिच् - च्लि के स्थान पर सिच् आदेश। | अभू च्लि त् में च्लि के स्थान पर सिच् आदेश करने पर अभू स् त् रूप बनता है।
[३|१|४५] शल इगुपधादनिटःक्सः - इगुपद (जिसकी उपधा में इ, उ, ऋ, ऌ में से कोई हो), अनिट् और शलन्त ( जिसके अन्त में श, ष, स, और ह में से कोई हो) धातु के बाद च्लि के स्थान पर क्स आदेश। | लुङ् लकार में प्रथमपुरुष-एकवचन में दुह् धातु से तिप् प्रत्यय होकर दुह् ति रूप बनता है। यहाँ च्लि लुङि (३_१_४३) से च्लि होकर दुह् च्लि ति रूप बनता है। इस स्थिति में दुह् धतु की उपधा-उकार इक् है और अन्त में शल् हकार है और अनिट् भी। अतः प्रकृत सूत्र से च्लि के स्थान पर क्स हो जाता है और रूप बनता है दुह् स् ति। यहाँ पुनः घत्व, भष्भाव, कत्व, षत्व, क्षत्व और अडागम आदि होकर अधुक्षत् रूप सिद्ध होता है।
[३|१|४६] श्लिष आलिङ्गने - आलिङ्गनार्थक `श्लिष् ` धातु से विहित च्लि के स्थान में क्स आदेश। | आश्लिक्षत् माता पुत्रीम् (माता ने अपनी पुत्री का आलिङ्गन किया)। आश्लिक्षत् में (८_२_४१) से श्लिष् के "ष्" को "क्" हुआ है, "क्स" के "स" को (८_३_५९) से षत्व होकर पूर्ववत् आश्लिक्षत् बना।
[३|१|४७] न दृशः - `दृशऄ धातु से विहित च्लि को क्स आदेश। | अदर्शत्, अद्राक्षीत्।
[३|१|४८] णिश्रिद्रुस्त्रुभ्यःकर्तरि चङ् - कर्त्रर्थ लुङ् परे होने पर ण्यन्त (जिसके अन्त में णिङ् प्रत्यय हो), श्रि (आश्रय करना), द्रु (बहना आदि) और स्रु (बहना, बहाना आदि) धातुओं से परे च्लि के स्थान पर चङ् आदेश। | कम् धातु से णिङ् और उपधा-दीर्घ होकर काम् इ रूप बनने पर धातु संज्ञा होने के कारण लुङ् लकार के प्रथमपुरुष एकवचन की विविक्षा में त आदि होकर अ काम् इ च्लि त रूप बनता है।
[३|१|४९] विभाषाधेटेश् व्योः - `धेट् ` तथा `स्वॎ धातुओं के `च्लॎ को विकल्प से चङ् आदेश। | अदधत्, अधात्, अधासीत्। श्वि == अशिश्वियत्, अश्वत्, अश्वयीत्।
[३|१|५०] गुपेश्छन्दसि - `गुप् `-धातुविहित च्लि के स्थान में छान्दोविषय में विकल्प से चङ् आदेश। | इमान्नौ मित्रावरुणौ गृहानजूगुपतम्, अगौप्तम्, अगोपिष्टम्, अगोपायिष्टिम्।
[३|१|५१] नोनयति ध्वनयत्येलयत्यर्दयतिभ्यः ` ऊनऄ, `ध्वन, ` इलऄ, तथा ` अर्द्दऄ धातुओं से ण्यन्तावस्था में `णिशृ आदि सूत्र से प्राप्त चङ् आदेश नहीं होता। | मा त्वायतो जरितुः काममूनयीः, औनिन इति भाषायाम्। मा त्वाग्निर्ध्वनयीत्, अदिध्वनत् इति भाषायाम्। काममैलयीत्, ऐलिलत् इति भाषायाम्। मैनमर्दयीत्, आर्दिदत् इति भाषायाम्।
[३|१|५२] अस्यति-वक्ति-ख्यादिभ्योऽङ् - कर्तृवाची लुङ् के परे होने पर अस् (फेंकना), वच् (बोलना) और ख्या (कहना) धातुओं के बाद च्लि के स्थान पर अङ् आदेश। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में ब्रू धातु से तिप्, च्लि और ब्रू के स्थान पर वच्-आदेश होकर वच् च्लि ति रूप बनता है।यहाँ कर्तृवाची लुङ्स्थानी ति (तिप्) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से च्लि के स्थान पर अङ् आदेश हो जाता है।और वच् अ ति रूप बनता है।
[३|१|५३] लिपि सिचि ह्वश्र्च - लिप्, सिच् और ह्णा- इन तीन धातुओं के बाद च्लि के स्थान पर अङ् आदेश होता है। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में सिच् धातु से तिप्, अट् और इकार-लोप तथा च्लि होकर अ सिच् च्लि त् रूप बनता है। यहाँ प्रकृत सूत्र से सिच् के बाद च्लि के स्थान पर अङ् होकर असिच् अ त् ==> असिचत् रूप सिद्ध होते हैं।
[३|१|५४] आत्मनेपदेष्वन्यतरस्याम् - आत्मनेपद परे होने पर लिप्, सिच् और ह्णा- इन तीनों धातुओं के बाद च्लि के स्थान पर विकल्प से अङ् आदेश। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में सिच् धातु से आत्मनेपद प्रत्यय त, अट् तथा च्लि होकर असिच् च्लि त रूप बनता है। यहाँ आत्मनेपद त परे होने ए कारण प्रकृत सूत्र से च्लि के स्थान पर अङ्९अ०होकर असिच् अ त == असिचत रूप सिद्ध होता है। अङ् के अभाव-पक्ष में च्लि के स्थान पर सिच्, स-लोप और कुत्व होकर असिक्त रूप बनता है।
[३|१|५५] पुषादि-द्युताद्य्ऌ दितः परस्मैपदेषु - कर्त्रर्थ परस्मैपद लुङ् परे होने पर पुष् आदि (दिवादिगण) द्युत् आदि तथा ऌदित् (जिसका ऌकार इतसंज्ञक हो) धातुओं के पश्चात् च्लि के स्थान पर अङ् आदेश। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष एकवचन में तिप् आदि होकर अ ग् म् च्लि ति रूप बनने पर च्लि के स्थान पर अङ् अ गम् अङ् ति रूप होगा। तब डकार और इकार का लोप करने पर अगमत् रूप सिद्ध होता है।
[३|१|५६] सर्ति शास्त्यर्तिभ्यश्र्च - `सृ` `शास`` तथा ` ऋ` धातुओं से विहित च्लि को भी अङ् आदेश। | असरत्। अशिषत्। आरत्।
[३|१|५७] इरितो वा - परस्मैपद परे होने पर इरित् धातु ( जिसका इर् इतसंज्ञक हो) के बाद च्लि के स्थान पर विकल्प से अंग आदेश। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में णिज् (निज्) धातु से अट्, तिप् और च्लि होकर अनिज् च्लि ति रूप बनता है। यहाँ णिज् (निज्) धातु इरित् है। अतः परस्मैपद प्रत्यय तिप् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से अनिज् के बाद च्लि के स्थान पर अङ् ( अ) हो जाता है।
[३|१|५८] जॄ स्तम्भु-म्रुचु-म्लुचु-ग्रुचु-ग्लुचु-ग्लुञ्चु-श्र्विभ्यश्र्च - जॄ (जीर्ण होना), स्तन्भु (रोकना), म्रुचु (जाना), म्लुचु (जाना), ग्रुचु (चोरी करना), ग्लुचु ( चोरी करना), ग्लुञ्चु (जाना), और श्वि (जाना)- इन आठ धातुओं के बाद च्लि के स्थान पर (वा) विकल्प से अङ् ( अ) आदेश होता है। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में वि पूर्वक स्तन्भ् (स्तन्भु) धातु से तिप्, अडागम् और च्लि होकर वि अ स्तन्भ् च्लि ति रूप बनता है। यहाँ प्रकृत सूत्र से स्तम्भ के बाद च्लि के स्थान पर अङ् होकर वि अ स्तन्भ अ ति रूप बनेगा। तब नकार-लोप होकर वि अ स्तभ अ ति रूप बनता है।
[३|१|५९] कृमृदृरुहिभ्यश्छन्दसि - कृ, मृ, दृ तथा रूह धातुओं से विहित च्लि के स्थान पर अङ् आदेश | शकलाऽङ्गुष्ठकोऽकरत्। अथोऽमरत्। अदरत् अर्थान्। पर्वतमारुहत्, अन्तरिक्षादिद्वमारुहम्।
[३|१|६०] चिण् ते पदः - त परे होने पर पद् (जाना) धातु के बाद च्लि के स्थान पर चिण् होता है। | पद् धातु से आत्मनेपद प्रत्यय त, च्लि और अडागम् होकर अपद् च्लि त रूप बनता है। यहाँ त परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से पद् के पश्चात च्लि के स्थान पर चिण् (इ) होकर अपद् इ त रूप बनता है। इस स्थिति में त का लोप और उपधा-वृद्धि करने पर अपादि रूप सिद्ध होता है।
[३|१|६१] दीपजनबुधपूरितायिप्यायिभ्योऽन्तरस्याम् - त परे होने पर दीप् (चमकना), जन् (उत्पन्न होना), बुध् (दिवादि०, जानना), पूरी (भरना), ताय् (फैलना, पालन) अय्र प्याय् (फूलना)- इन छः धातुओं के बाद च्लि के स्थान पर विकल्प से चिण् आदेश। | लङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में जन् धातु से आत्मनेपद त, च्लि और अडागम् होकर अजन् च्लि त रूप बनता है। यहाँ त परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से जन् के उत्तरवर्ती च्लि के स्थान पर चिण् (इ) होकर अ जन् इ त रूप बनेगा।
[३|१|६२] अचःकर्मकर्तरि - अजन्तधातु से पहले च्लि को तशब्द के परे रहते कर्मकर्त्ता में विकल्प से चिण् आदेश। | अकारि कटः स्वयमेव / अकृत कटः स्वयमेव।
[३|१|६३] दुहश्च - `दुह् ` धातु से विहित च्लि को विकल्प से कर्मकर्त्ता में तशब्द के परे रहते चिण् आदेश होता है। | अदोहि गौः स्वयमेव / अदुग्ध गौः स्वयमेव।
[३|१|६४] न रुधः - `रुधऄ धातु के च्लि को कर्मकर्त्ता में चिण् आदेश नहीं होता। | अन्वारुद्ध गौः स्वयमेव।
[३|१|६५] तपोऽनुतापे च - `तप् ` धातु से विहित च्लि को कर्मकर्त्ता तथा अनुताप अर्थ में चिण् आदेश नहीं होता। | अन्ववातप्त पापेन कर्मणा, अतप्त तपस्तापसः ।
[३|१|६६] चिण् भावकर्मणोः - धातु से विहित च्लि को भाव तथा कर्म में तशब्द के परे रहते चिण् आदेश। | भाव में - अशायि भवता (आप सो गये)। कर्म में अकारि कटो देवदत्तेन (देवदत्त के द्वारा चटाई बनाई गई)
[३|१|६७] सार्वधातुके यक् - भाव तथा कर्म में विहित सार्वधातुक प्रत्ययों के परे रहते धातुओं से यक् प्रत्यय होता है। | "गम्यते" - यहाँ गम् + ते के बीच म्ने `"यक्" विकरण बैठा है, क्योंकि यहाँ "ते" कर्मार्थक प्रत्यय है इसका अर्थ कर्म है। "स्थीयते" - यहाँ स्था + ते के बीच म्ने `"यक्" विकरण बैठा है, क्योंकि यहाँ "ते" भावार्थक प्रत्यय है, इसका अर्थ भाव है।
[३|१|६८] कर्त्तरिशप् कत्रर्थक अर्थ में सार्वधातुक परे होने पर धातु से शप् प्रत्यय होता है। "शप्" प्रत्यय के पकार और शकार इत्संज्ञक हैं व केवल "अ" ही शेष रहता है। जिन धातु गणों से कोई अन्य विकरण न कहा गया हो उनके साथ सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर "शप्" प्रत्यय ही लगता है। | भू + ति में तिङ् ति सार्वधातुक हैं। कर्ता में लकार होने से तथा उस लकार के स्थान में आदेश होने पर इसका भी अर्थ कर्ता हो जाता है, अतः इसके परे होने पर प्रकृतसूत्र द्वारा शप् प्रत्यय होकर भू अ ति रूप बनता है।
[३|१|६९] दिवादिभ्यः श्यन् - कर्तृवाची सार्वधातुक परे होने पर दिवादिगण की धातुओं के बाद "श्यन्" विकरण लगता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में दिव् (क्रीड़ा, जुआ खेलना आदि) धातु से तिप् होकर दिव् ति रूप बनता है। यहाँ कर्तृवाची सार्वधातुक तिप् (ति) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से दिव् के बाद श्यन् (य) होकर दिव् य ति रूप बनता है। इसी प्रकार सिव् = सीव्य, ष्ठिव् = ष्ठीव्य, नश् = नश्य आदि
[३|१|७०] वाभ्राशभ्लाशभ्रमुकृमुक्लमुत्रसित्रुटिलषः - कर्त्रर्थ सार्वधातुक परे होने पर भ्राश (चमकना) भ्लाश् (चमकना), भ्रम् (घूमना), क्रम् (चलना), क्लम् (खिन्न होना), त्रस् (डरना), त्रुट् (टूटना) और लष् (इच्छा करना) धातुओं से विकल्पतः श्यन् प्रत्यय होता है। श्यन् में केवल यकार ही शेष रहता है। | लट् लकार के प्रथम-पुरुष एकवचन में क्रम् धातु से तिप् होकर क्रम् ति रूप बनता है। यहाँ कर्त्रर्थ सार्वधातुक ति ( तिप्) परे होने के कारण क्रम् से श्यन् प्रत्यय होकर क्रम् य् ति रूप बनेगा। अभाव पक्ष में शप् होकर क्रम् अ ति रूप बनता है।
[३|१|७१] यसोऽनुपसर्गात् - अनुपसर्गक यस् धातु से श्यन् प्रत्यय विकल्प से होता है। | यस् + श्यन् + शतृ == यस्यन्, यस् + शप् + शतृ == यसन्, शो + श्यन् == श्य / श्य + शतृ == श्यन्, दो + श्यन् == द्य / द्य + शतृ == द्यन्।
[३|१|७२] सं-यसश्र्च - सम्पूर्वक यस् धातु से विकल्प से श्यन् प्रत्यय होता है। | संयस्यति, संयसति (अच्छी तरह प्रयत्न करता है)।
[३|१|७३] स्वादिभ्यः श्नुः - कर्तृवाची सार्वधातुक परे होने पर सु आदि धातुओं से श्नु आता है। | उदाहरण के लिए लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में सु धातु से तिप् ( ति) होकर सुति रूप बनता है। यहाँ कर्तृवाची सार्वधातुक तिप् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से सु के बाद श्नु (नु) होकर सु नु ति रूप बनेगा।तब तकारोत्तरवर्ती उकार के स्थान पर गुण-ओकार होकर सुनोति रूप सिद्ध होता है।
[३|१|७४] श्रुवःश्रऋ च - कर्त्रर्थ सार्वधातुक परे होने पर श्रु धातु के स्थान पर शृ और शप् के स्थान पर श्नु आदेश। | श्रु धातु से तिप् प्रत्यय होकर श्रु ति रूप बनता है। इस स्थिति में कर्त्रर्थ सर्वधातुक प्रत्यय तिप् परे होने के कारण श्रु के स्थान पर शृ और कर्तरि शप्३+_१_६८से प्राप्त शप् आगम् के स्थान पर श्नु होकर शृ नु ति ==> शृणोति रूप बनेगा। इसी प्रकार चि ==> चि +नु + ति ==> चिनोति।
[३|१|७५] अक्षोऽन्यतरस्याम् - अक्ष धातु से विकल्प से श्नुप्रत्यय होता है। | अक्ष + शप् (अ) + ति ==> अक्ष + ति ==> अक्षति, अक्ष + श्नु + ति ==> अक्ष्णु + ति ==> अक्ष्णोति।
[३|१|७६] तनूकरणे तक्षः - तनूकरण (छीलना) अर्थ से वर्तमान तक्ष धातु से विकल्प से शप् व श्नु प्रत्यय होता है। | तक्ष् + शप् + ति ==> तक्ष + ति ==> तक्षति, तक्ष् + श्नु + ति ==> तक्ष्णु + ति ==> तक्ष्णोति।
[३|१|७७] तुदादिभ्यः शः - कर्तृवाची सार्वधातुक परे होने पर तुद्(पीड़ा पहुँचाना) आदि धातुओं के बाद श होता है। | तुद् + श् + ति == तुद् + अ + ति == तुदति।
[३|१|७८] रुधादिभ्यःश्नम् - रुध आदि धातुओं से श्नम् प्रत्यय होता है। | रुध् + श्नम् + ति == रुणद्धि
[३|१|७९] तनादिकृञ्भ्य उः - कर्तावाची सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर कृञ् तथा तन् आदि धातुओं के बाद उ प्रत्यय होता है। | विदाम् कृ ति में कर्तावाची सार्वधातुक तिप् प्रत्यय परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से कृञ् धातु के बाद उ प्रत्यय होकर विदाम् कृ उ ति रूप बनता है।यहाँ गुण, इकार का उकार और मकार का अनुस्वार आदि होकर विदाङ्करोतु रूप सिद्ध होता है।
[३|१|८०] धिन्वि-कृण्व्योर च - धिवि तथा कृवि धातुओं से उप्रत्यय तथा अन्त में अकारादेश हो जाता है | धिवि + उ/इ ==> धिन्व् + उ/इ =(अन्तिम "व्" को "अ" आदेश)=> धिन + उ/इ =("अ" का लोप)=> धिन् + उ/इ ==> धिनु/धिनि इसी प्रकार कृण्व् ==> कृणु।
[३|१|८१] क्र्यादिभ्यः श्ना - कर्तृवाची सार्वधातुक परे होने पर क्री (खरीदना) आदि६१धातुओं के बाद श्ना आता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में क्री धातु से तिप् होकर क्री ति रूप बनता है यहाँ कर्तृवाची सार्वधातुक तिप् (ति) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से क्री के बाद श्ना (ना) होकर की ना ति रूप बनता है। तब नकार के स्थान पर णकार होकर क्रीणाति रूप सिद्ध होता है।
[३|१|८२] स्तन्भु-स्तुन्भु-स्कन्भु-स्कुन्भु-स्कुञ्भ्यः श्नुश्च - स्तन्भु, स्तुन्भु, स्कन्भु, स्कुन्भु और स्कुञ् (कूदना)- इन पाँच धातुओं के बाद श्नु और श्ना दोनों ही होते हैं। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में स्कु (स्कुञ्) धातु से तिप्, श्नु और सार्वधातुक गुण होकर स्कुनोति रूप सिद्ध होता है। श्ना प्रत्यय होने पर स्कुनाति रूप बनता है।
[३|१|८३] हलः श्नः शानज्झौ हल् से परे "श्ना" को "शानच्" आदेश यदि "हि" परे हो। "हानच्" में "श्" व "च्" इत्संज्यक होते हैं व केवल " आन" शेष रहता है। | अश् +श्ना +हि ==> अशान {६/४/१०५से हि का लोप व श्ना का शानच्( आन)}
[३|१|८४] छन्दसि शायजपि - वेद में श्ना को शायच् तथा शानच् दोनों ही आदेश। | ग्रिभ + शायच् == गृभाय। गृभाय जिह्वा मधु। शानच् -बधान पशुम्।
[३|१|८५] व्यत्ययो बहुलम् - वेद में उक्त प्रत्ययों तथा उनकी प्रकृतियों का व्यत्यय भी हो जाता है। | सुपां व्यत्ययः - उक्ता मातासेद् धुरि दक्षिणायाः। दक्षिणायामिति प्राप्ते, सप्तम्या विषये व्यत्ययेन षष्ठी।
[३|१|८६] लिङयाशिष्यङ् - वेद में आशीरर्थक लिङ्ग के परे रहते धातुओं से अङ् प्रत्यय होता है। | उपस्थेयम् वृषभं तुग्रियाणाम्। सत्यमुपगेयम्। गमेम जानतो गृहान्। मन्त्रं वोचेमाग्नये। विदेयमेनां मनसि प्रविष्टाम्, व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयम्। शकेम त्वा समिधम्। अस्त्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये।
[३|१|८७] कर्मवत्कर्मणा तुल्यक्रियः - कर्मस्था क्रिया से तुल्य क्रिया वाला कर्त्ता कर्मवत् हो जाता है। | भिद्यते काष्ठं स्वयमेव। अभेदि लाष्ठं स्वयमेव। करिष्यते कटः स्वयमेव।
[३|१|८८] तपस्तपःकर्मकस्यैव - तप धातुका कर्त्ता यदि तपःकर्मक होता है तभी उसे कर्मवद्भाव होता है अन्यथा नहीं। | तप्यते तपस्तापसः, अतप्त तपस्तापसः।
[३|१|८९] न दुहस्नुनमांयक्चिणौ - `दुहऄ, `स्नु` तथा नम् धातुओं से कर्मवद्भाव प्रयुक्त कर्मकर्त्ता में विहित् यक् तथा उनके च्लि को चिण् आदेश नहीं होते। | चिण् न होना == प्रास्नोष्ट शोणितं स्वयमेव, अनंस्त दण्डः स्वयमेव। यक् न होना == नमस्ते दण्डः स्वयमेव, प्रस्नुते शोणितं स्वयमेव, दुग्धे गौः स्वयमेवः।
[३|१|९०] कुषि-रञ्जोः प्राचां श्यन् परस्यामै पदं च - `कुषऄ तथ रञ्ज धातुओं से प्राचीन आचार्यों के मत में कर्मकर्त्ता में श्यन् प्रत्यय तथा परस्मैपद होता है। | कुष्यति पादः स्वयमेव (पैर स्वयं खिंचा जा रहा है। रज्यति वस्त्रं स्वयमेव == वस्त्र स्वयं रँगा जा रहा है।
[३|१|९१] धातोः| - अब तृतीयाध्याध्यायसमाप्तिपर्यन्त धातोः का अधिकार समझना चाहिए।
[३|१|९२] तत्रोपपदं सप्तमीस्थम् - धात्वधिकार में सप्तमी विभक्ति से निर्दिष्ट पद उपपद संज्ञक होता है। | कर्मण्यण् (३_२_१) सूत्र धात्वाधिकार में आया है, अतः इस सूत्र में सप्तमी विभक्ति से निर्दिष्ट कर्म पद उपपदसंज्ञक होता है।
[३|१|९३] कृदतिङ् - तिङ्-भिन्न प्रत्यय कृत् संज्ञक होते हैं | कर्त्ता, कारकः। कर्तव्यम्।
[३|१|९४] वाऽसरुपोऽस्त्रियाम् - इस धात्वाधिकार के अन्तःपाती स्त्रयधिकार को छोड़कर अन्य असमानरूप प्रत्यय उत्सर्ग प्रत्यय का विकल्प से बाधक होता है। | (३_१_१३३) यह उत्सर्गसूत्र है, तथा (३_१_१३५) यह उसका अपवाद है। सो इगुपध "क्षिप्" धातु से "क" प्रत्यय ही हुआ, तथा "ण्वुल्" "तृच्" भी विकल्प से हो गये क्योंकि ये परस्पर असरूप थे।
[३|१|९५] कृत्याः - यहाँ से आगे ण्वुल् के पूर्व के प्रत्ययों की कृत्यसंज्ञा होती है। | गन्तव्यो ग्रामो देवदत्तस्य देवदत्तेन वा।
[३|१|९६] तव्यत्तव्यानीयरः - धातु से तव्यत्, तव्य और अनीयर प्रत्यय होते हैं | एध धातु अकर्मक है, अतः इससे भाव में तव्य (तव्यत्, तव्य) और अनीय होकर एच् तव्य और एध् अनीय रूप बनते हैं। एध् तव्य में आर्धधातुक तकार परे होने के कारण आर्धधातुकस्य से इट् होकर एध् इ तव्य = एधितव्य रूप बनता है। अन्य उदाहरण कृ + तव्यत् == कर्तव्यम् (करने योग्य), कृ + तव्य == कर्तव्यम् (करने योग्य), कृ + अनीयर् == करणीयम् (करने योग्य)।
[३|१|९७] अचो यत् - अजन्त धातु (जिसके अन्त में कोई स्वर-वर्ण हो) से यत् प्रत्यय होता है। | चि (चिञ्-चुनना) धातु इकारान्त से अजन्त है, अतः प्रकृत सूत्र से उसके बाद यत् (य) होकर चि य रूप बनता है। तब आर्धधातुक यत् (य) परे होने के कारण गुण एकार होकर च् ए य = चेय रूप बनेगा। अन्य उदाहरण गा + यत् == गेयम् (गाने योग्य), पा + यत् == पेयम् (पीने योग्य), चि + यत् == चेयम् (चुनने योग्य), जि + यत् == जेयम् (जीतने योग्य)।
[३|१|९८] पोरदुपधात् - यदि उपधा में ह्रस्व अकार हो तो पवर्गान्त धातु (जिसके अन्त में प्, फ्, ब्, भ्, या म् हो) से यत् प्रत्यय होता है। | शप् (शाप देना) पकारान्त होने से पवर्गान्त है, और उसकी उपधा में ह्रस्व अकार भी है। अतः प्रकृत सूत्र से यत् (य) होकर शप् य = शप्य रूप होने पर प्रतिपादिक संज्ञा होकर ज्ञानम् (पूर्वार्ध) की भांति प्रथमा के भाति प्रथमा के नपुंसकलिङ्ग्-एक्वचन में शप्यम् रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार लभ् (पान) धातु से यत् आदि होकर लभ्यम् रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण शप् + यत् == शप्यम् (शाप के योग्य), जप + यत् == जप्यम् (जपने योग्य), लभ् + यत् == लभ्यम् (प्राप्त करने योग्य), रभ् + यत् == रभ्यम् (आरम्भ करने योग्य), गम् + यत् == गम्यम् (जाने योग्य)।
[३|१|९९] शकि-सहोश्र्च - `शक् ` तथा `सहऄ धातुओं से भी यत् प्रत्यय होता है। | शक् + यत् == शक्यम् (हो सकने योग्य), सह् + यत् == सह्मम् (सहने योग्य)।
[३|१|१००] गद-मद-चर यमश्र्चानुपसर्गे - अनुपसर्गक `गदऄ, `मदऄ, `चरऄ तथा `यमऄ धातुओं से यत् प्रत्यय होता है। | गद् + यत् == गद्यम् (बोलने योग्य), मद् + यत् == मद्यम् (हर्ष करने योग्य), चर् + यत् == चर्यम् (खाने योग्य), यम् + यत् == यम्यम् (नियमन करने योग्य)।
[३|१|१०१] अवद्यपण्यवर्या गर्ह्यपणितव्यानिरोधेषु - गर्ह्म (निन्ध), पणितव्य तथा अनिरोध अर्थों में क्रमशः ` अवधऄ `पण्यऄ तथा `वर्या` शब्दों का निपातन है। | वृ + यत् + टाप् == वर्या (सौ लोगों से वरण करने योग्य कन्या)
[३|१|१०२] वह्यं करणम् - करण अर्थ में `वहऄ धातु से यत् प्रत्यय होता है। | वहत्यनेनेति वह्मं शकटम्।
[३|१|१०३] अर्यः स्वामि-वैश्ययोः - ` ऋ` धातु से यत् प्रत्यय का निपातन होता है यदि स्वामी तथा वैश्य उस समुदाय के वाच्य हों। | ऋ + यत् == अर्यः (स्वामी, वैश्य)
[३|१|१०४] उपसर्या काल्या प्रजने - जिसके गर्भग्रहण-काल की सम्प्राप्ति हो गई हो उसके अभिधान के लिए ` उपसर्या` शब्द का निपातन होता है। | उपसर्या गौः (प्रथम बार गर्भग्रहण का समय जिसका आ गया हो, ऐसी गौ)। उपसर्या वडवा।
[३|१|१०५] अजर्यं सङ्गतम् - मित्रता के अर्थ में ` अजर्यम् ` शब्द का निपातन है। | अजर्यमार्यसङ्गतम् (कभी पुरानी न होने वाली आर्यसङ्गति)। अजर्यनोऽस्तु सङ्गतम् (हमारी सङ्गति कभी पुरानी न हो)। पूर्ववत् "ण्यत्" प्राप्त था, "यत्" निपातन कर दिया तथा कृत्यसंज्ञक होने से (३_४_७०) से भावकर्म में ही "यत्" प्राप्त था, कर्ता में निपातन करने पर।
[३|१|१०६] वदः सुपि क्यप् च - सुबन्तोपपदक अनुपसर्गक ` वदऄ धातु से क्यप् तथा यत् प्रत्यय होते हैं। | ब्रह्म + यत् == ब्रह्मवद्यम् (ब्रह्म अर्थात् वेद का कथन), सत्य + यत् == सत्यवद्यम् (सत्य कथन)।
[३|१|१०७] भुवो भावे - सुबन्तोपपदक अनुपसर्गक `भू ` धातु से भाव में क्यप् प्रत्यय होता है। | ब्रह्म + भू + क्यप् == ब्रह्मभायं (ब्रह्मत्व को प्राप्त हो गया), देव + भू + क्यप् == देवभूयं (देवत्व को प्राप्त हो गया)
[३|१|१०८] हनस्त च - सुबन्तोपपदक अनुपसर्गक `हन् ` धातु से भाव में क्यप् प्रत्यय होता है और अन्त में तकारादेश भी। | ब्रह्म + हन् + क्यप् == ब्रह्महत्या, दस्यु + हम् + क्यप् == दस्युहत्या
[३|१|१०९] एतिस्तुशास्वृदृजुषः क्यप् - इण स्तु, शास्, वृ तथा जुष धातुओं से क्यप् प्रत्यय होता है। | इण् (इ) धातु से प्रकृत सूत्र से क्यप् (य) होकर इ य रूप बनता है। इ + क्यप् == इत्यः इसी प्रकार स्तुत्यः, शिष्यः, वृत्यः, आदृत्यः, जुष्यः।
[३|१|११०] ऋदुपधाच्चाकॢपि चृतेः - `कॢप् ` तथा `चृत् ` धातुओं के अतिरिक्त ऋकारोपध धातुओं से क्यप् प्रत्यय होता है। | वृत् + क्यप् == वृत्यम्, वृध + क्यप् == वृध्यम्।
[३|१|१११] ई च खनः - `खन् ` धातु से क्यप् प्रत्यय तथा ईकार अन्तादेश होता है। | खन् + क्यप् == खेयम्
[३|१|११२] भृञोऽसंज्ञायाम् - `भुञ् `धातु से असंज्ञा-विषय में क्यप् प्रत्यय होता है। | भृ + क्यप् == भृत्याः
[३|१|११३] मृजेविभाषा - मृज् (साफ करना) धातु से विकल्प से क्यप् (य) प्रत्यय होता है। क्यप् होने पर पूर्वसूत्रवर्ती जुष्यः के समान मृज्यः रूप सिद्ध होता है। | परिमृज्यः (शौद्ध करने योग्य), परिमार्ग्यः। (३_१_११०) सूत्र भी (३_१_१२४) का अपवाद है, अतः पक्ष में यहाँ "ण्यत्" होता है। जिस पक्ष में "ण्यत्" होगा, उस पक्ष में (७_२_११४) से वृद्धि तथा (७_३_५२) से कुत्व भी हो जाता है।
[३|१|११४] राजसूय-सूर्य-मृषोद्य-रुच्य-कुप्य-कृष्ट-पच्याव्यथ्याः - `राजसूयऄ, `सूर्यऄ, `मृषोद्यऄ, `रूच्यऄ, `कुष्यऄ, `कृष्टपच्यऄ तथा अव्यथ्य - इतने क्किपत्ययान्त शब्द निपातित होते हैं। | सृ + क्यप् == सूर्यः, मृषा + वद् + क्यप् == मृषोद्यम्
[३|१|११५] भिद्योद्धयौ नदे - नद अर्थ में `भिद् ` धातु से क्यप् प्रत्यय तथा ` उज्झऄ धातु से क्यप् एवम् धत्व का निपातन है। | भिद्धातोः-कूलानि भिनत्तीति = भिद्यो नदः। उज्झ उत्सर्गे, उन्दी क्लेदेने इत्येतस्माद्वा - उज्झति, उत्सृजति जलानीत्युद्धयो नदः।
[३|१|११६] पुष्यसिद्धयौ नक्षत्रे - `पुषऄ तथा `सिध् ` धातुओं से अधिकरण में क्यप् प्रत्यय का निपातन होता है यदि नक्षत्र का अभिधान क्यबन्त से हो। | पुष्यन्त्यस्मिन् कार्याणि स पुष्यः। सिद्धयन्त्यस्मिन् कार्याणि स सिद्धयः।
[३|१|११७] विपूय-विनीय-जित्या मुञ्ज-कल्क-हलिषु - मञ्जु, कल्क तथा हलि अर्थों में क्रमशः `विपूयऄ, `विनीयऄ तथा `जित्यऄ शब्द निपातित होते हैं। | विपूयो मुञ्जः (मंजू)। विनीयः कल्कः (ओषधि की पीठी)। जित्यो हलिः (बड़ा हल)। जब मुञ्ज, कल्क, हलि ये अर्थ नमीं होंगे, तब इन धातुओं के अजन्त होने से (३_१_९७) से "यत्" प्रत्यय होता है।
[३|१|११८] प्रत्यपिभ्यां ग्रहेः छन्दसि - प्रतिपूर्वक तथा अपिपूर्वक `ग्रहऄ धातु से क्यप् प्रत्यय होता है। | प्रति + ग्रह् + क्यप् == प्रतिग्राह्मम्, अपि + ग्रह् + क्यप् == अपिग्राह्मम्
[३|१|११९] पदास्वैरि-बाह्यापक्ष्येषु च - पद, अस्वैरी (पर्तन्त्र) बाह्मा तथा पक्ष्य अर्थों में `ग्रह् ` धातु से क्यप् प्रत्यय होता है। | ग्रह् + क्यप् == गृह्मका, ग्राम + ङस् + ग्रह् + क्यप् == ग्रामगृह्मा, वासुदेव + ङस् + ग्रह् + क्यप् == वासुदेवगृह्मा
[३|१|१२०] विभाषा कृ-वृषोः - `कृञ् ` धातु तथा `वृष` धातु से विकल्प से क्यप् होता है। | कृ + यप् == कृत्यम्, वृष् + क्यप् == वृष्यम्, कृ + ण्यत् == कार्यम्, वृष् + ण्यत् == वर्ष्यम्
[३|१|१२१] युग्यं च पत्रे - पत्त्र अर्थ में नपुंसकलिङ्ग विशिष्ट `युग्मऄ शब्द का निपातन है। | योक्तुमर्हः = युग्यो गौः (जोतने योग्य बैल), युग्योऽश्वः (जोतने योग्य घोड़ा)।
[३|१|१२२] अमावस्यदन्यतरस्याम् - अमाशब्दोपपदक `वसऄ धातु से कालात्मक अधिकरण में ण्यत् प्रत्यय तथा पाक्षिक वृद्ध्यभाव निपातित होते हैं। | सह वसतोऽस्मिन् काले सूर्यचन्द्रमसौ - अमावस्या, अमावास्या।
[३|१|१२३] छन्दसि निष्टर्क्य-देवहूय-प्रणीयोन्नीयोच्छिष्य-मर्य-स्तर्याध्वर्य-खन्यखान्य-देवयज्या-पृच्छय-प्रतिषीव्य-ब्रह्मवाद्य-भाव्य-स्ताव्योपचाय्य-पृडानि - वेद में निष्टक्र्य, देयहूय, प्रणीय, उन्नीय, उच्छिष्य, मर्य, स्तर्य, अश्वर्य, खन्य, खान्य, देवयज्या, पृच्छय, प्रतिषीव्य, ब्रह्मवाद्य, भाव्य, स्ताव्य, उपाचाय्य एवं `पृडऄ शब्दों का निपातन होता है। | निस् + कृत् + ण्यत् == निष्टर्क्यम्, देव + ह्वे + क्यप् देवहूयः, प्र + नी + क्यप् == प्रणीयः, उत् + नी + क्यप् == उन्नीयः, उत् + शिष् + क्यप् == उच्छिष्यम्, मृङ् + यत् == मर्यः, स्तॄञ् + यत् == स्तर्या, ध्वृ + यत् == ध्वर्यः, खन् + यत् == खन्यः, खन् + ण्यत् == खान्यः, देव + यज् + ण्यत् == देवयज्या, आङ् + प्रच्छ् + यत् == आपृच्छ्यः, प्रति + सिवु + यप् == प्रतिषीव्यः, ब्रह्म + वद् + ंयत् == ब्रह्मवाद्यः, भू + ण्यत् == भाव्यः, स्तु + ण्यत् == स्ताव्यः, उप + चि + ण्यत् + पृड == उपचाय्यपृडम।
[३|१|१२४] ऋ-हलोर्ण्यत् - ऋवर्णान्त और हलन्त धातु (जिसके आदि में कोई व्यञ्जन-वर्ण हो) से ण्यत् प्रत्यय होता है। | कृ (करना) धातु ऋवर्णान्त है, अतः उससे णयत् (य) होकर कृ य रूप बनता है। इस स्थिति में णित् ण्यत् (य) परे होने के कारण अचो ञ्णिति (७_२_११५) से ऋकार के स्थान पर वृद्धि- आर् होकर क् आर् य् = कायं रूप बनने पर प्रतिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के नपुंसकलिङ्ग-एकवचन में ज्ञानम् (पूर्वार्ध) की भांति कार्यम् रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार हृ (हरना) से हार्यम् और धृ (धारण करना) से धार्यम् रूप बनता है। क्यप् के अभाव में हलन्त होने के कारण मृज् से भी ण्यत् होकर मृज् य रूप बनेगा। अन्य उदाहरण कृ + ण्यत् == कार्यम्, हृ + ण्यत् == हार्यम्, धृ + ण्यत् == धार्यम्, पथ् + ण्यत् == पाठ्यम्, पच् + ण्यत् == पाक्यम्, वच् + ण्यत् == वाक्यम्।
[३|१|१२५] ओरावश्यके - उवर्णान्त धातुओं से आवश्यक अर्थ में ण्यत् प्रत्यय होता है। | लू + ण्यत् == लाव्यम्, पू + ण्यत् == पाव्यम्, लू + यत् == लव्यम्, पू + यत् == पव्यम्।
[३|१|१२६] आसुयुवपिरपिलपित्रपिचमश्र्च - आङपूर्वक `सुञ् `, `यु`, `वप् `, `रप`, `लप् `, `त्रप् ` तथा `चम् ` धातुओं से ण्यत् प्रत्यय होता है। | आङ् + सु + ण्यत् == आसाव्यम्, यु + ण्यत् == याव्यम्, वप् + ण्यत् == वाप्यम्, रप् + ण्यत् == राप्यम्, लप् + ण्यत् == लाप्यम्, त्रप् + ण्यत् == त्राप्यम्, आङ् + चम् + ण्यत् == आचाम्यम्।
[३|१|१२७] आनाय्योऽनित्ये - अनित्य अर्थ में ` आनाय्यऄ शब्द का निपातन है। | आङ् + नी + ण्यत् == आनाय्यो
[३|१|१२८] प्रणाय्योऽसम्मतौ - असम्मति अर्थ में `प्रणाय्यऄ शब्द का निपातन है। | प्र + नी + ण्यत् == प्रणाय्यः, प्र + नी + यत् == प्रणेयः।
[३|१|१२९] पाप्य-सान्नाय्य-निकाय्य-धाय्या-मान-हवि-निवास-सामिधेनीषु - मन्, हविस्, निवास तथा सामिधेनी अर्थों में क्रमशः `पाय्यऄ, `सान्नाय्यऄ, `निकाय्यऄ तथा `धाय्यऄ शब्दों के निपातन है। | माङ् + ण्यत् == पाय्यम्, सम् + नी + ण्यत् == सांन्नाय्य, नि + चि + ण्यत् == निकाय्यः
[३|१|१३०] क्रतौ कुण्डपाय्य संचाय्यौ - क्रतु अर्थ में `कुण्डपाय्यऄ तथा `संचाय्यऄ शब्दों का निपातन हैं। | कुण्ड + पा + ण्यत् == कुण्डपाय्यः, सम् + चि + ण्यत् == संचाय्यः
[३|१|१३१] अग्नौ-परिचाय्यौपचाय्य-समूह्याः - अग्नि अर्थ में `परिचाय्यऄ, ` उपचाय्यऄ, तथा `संचाय्यऄ शब्दों का निपातन हैं। | परिचीयतेऽस्मिन् परिचाय्यः (यज्ञ की अग्नि जहाँ स्थापित की जाती है)। उपचीयते असौ उपचाय्यः (यज्ञ में सन्स्कार की गई आग)समूह्मं चिन्वीत पशुकामः (पशु की कामना करने वाला समूह्म= यज्ञ की अग्नि का चयन करे)।
[३|१|१३२] चित्याग्निचित्ये च - धातु से ण्विल् तथा तृच् प्रत्यय होते हैं। | चीयतेऽसौ चित्यः। अग्निचयनमेव अ॒ग्नि॒चि॒त्या।
[३|१|१३३] ण्वुल्तृचौ - धातु से ण्वुल् और तृच् प्रत्यय होते हैं। | कर्ता अर्थ में कृ (करना) धातु से तृच् (तृ) होकर कृ तृ रूप बनने पर सार्वधातुकार्धधातुकयोः (७_३_८४) से कृ के ऋकार के स्थान पर गुण- अर् होकर क् अर् तृ = कर्तृ रूप बनता है।तब प्रतिपादिक संज्ञा होने पर प्रथमा के पुल्लिङ्ग-एकवचन में धाता (पूर्वार्ध की भाँति कर्ता रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार कृ धातु से ण्वुल् (वु) होकर कृ वु रूप बनेगा।
[३|१|१३४] नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः नन्द् आदि, ग्रह् आदि और पच् आदि धातुओं से (ल्युणिन्यचः) ल्यु, णिनि और अच् होते हैं। | नन्द् धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा ल्यु होकर नन्द् यु रूप बनने पर युवोरनाकौ (७_१_१) से यु के स्थान पर अन् होकर नन्द् अन् = नन्दन रूप बनेगा। इस स्थिति में प्रथमा के पुल्लिंग-एकवचन में रामः (पूर्वार्ध) की भाँति नन्दन रूप बनता है।
[३|१|१३५] इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः - इक् उपधावाले ज्ञा (जानना), प्री (प्रसन्न करना) और कॄ (बिखेरना) धातुओं से क प्रत्यय होता है। | (क) इगुपध- बुध (जानना) से क प्रत्यय होकर बुध् अ = बुध रूप बनने पर प्रतिपादिक संज्ञा होकर रामः (पूर्वार्ध) की भाँति बुधः रूप सिद्ध होता है। (ख) ज्ञा यहाँ भी क होकर ज्या अ रूप बनने पर कित् क ( अ) परे होने के कारण आतो लोप इटि च (६_४_६४) से ज्ञा के आकार का लोप होकर ज्ञ् अ = ज्ञ रूप बनेगा। अन्य उदाहरण वि + क्षिप् + क == विक्षिपः (विध्न डालने वाला), वि + लिख् + क == विलिखः (कुरेदने वाला), ज्ञा + क == ज्ञः (जानने वाला), प्री + क == प्रिय, कॄ + क == किरः (सुअर)
[३|१|१३६] आतश्चोपसर्गे - उपसर्ग उपपद रहने पर आकारान्त धातु से क प्रत्यय होता है। | प्र उपसर्गपूर्वक ज्ञा धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा क ( अ) प्रत्यय होकर पूर्ववर्ती स्सोत्र में ज्ञः की भाँति प्रज्ञः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण प्र + स्था + क == प्रस्थः (प्रस्थान करने वाला), सु + ग्ला + क == सुग्लः (ज्यादा ग्लानि करने वाला), सु + म्लै + क == सुम्लः।
[३|१|१३७] पाघ्राध्माधेड्दृशः शः - उपसर्गोपपदक `पा`, `घ्रा`, `ध्मा`, `धेट् ` तथा `दृश् ` धातुओं से श प्रत्यय होता है। | उत् + पा + श == उत्पिबः, वि + घ्रा + श == विजिघ्रः, उत् + ध्मा + श == उद्धमः, उत् + धे + श == उद्धयः
[३|१|१३८] अनुपसर्गाल्लिम्प-विन्द-धारि-पारि-वेद्युदेजि-चेति-साति-साहिभ्यश्र्च अनुपसर्गक `लिभ्यऄ, `विन्दऄ, `धारि `, `पारि `, `वेदॎ, ` उदेजॎ, `चेतॎ, `सातॎ तथा `साहॎ धातुओं से श प्रत्यय होता है। | लिप् + श == लिम्पः।
[३|१|१३९] ददाति-दधात्योर्विभाषा ` दाञ् ` तथा `धाञ् ` धातुओं से विकल्प से श प्रत्यय होता है। | दा + श == ददः, दा + ण == दायः, धा + श == दधः, धा + ण == धायः।
[३|१|१४०] ज्वलिति-कसन्तेभ्यो णः `ज्वलऄ आदि `कसऄ-पर्यन्त धातुओं से ण प्रत्यय होता है। | ज्वलतीति ज्वालः (जलनेवाला), ज्वलः। चालः (चलनेवाला), चलः
[३|१|१४१] श्याद्-व्यधास्त्रु-संस्त्र्वतीणवसावहृ-लिह-श्लष-श्वसश्च - श्यैङ्, अकारान्त, व्यध, आस्त्रु, संस्त्रु, अतीण्, अवसा, अवहृ, लिंह्, श्लिष्, तथा, श्वस धातुओं से ण प्रत्यय होता है। | अव + श्यै + ण == अवश्यायः, प्रति + श्यै + ण == प्रतिश्यायः, दा + ण == दायः, धा + ण == धायः, व्यध् + ण == व्याधः, आ + स्त्रु + ण == आस्त्रावः, सं + स्त्रु + ण == संस्त्राव, अति + इ + ण == अत्यायः, अव + सो + ण == अवसायः, अव + हृ + ण == अवहारः, लिह् + ण == लेहः, श्लिष् + ण == श्लेषः, श्वस् + ण == श्वासः।
[३|१|१४२] दु-न्योरनुपसर्गे - अनुपसर्गक `दु` तथा `नी ` धातुओं से ण प्रत्यय होता है। | दु + ण == दावः, नी + ण == नायः, प्र + नी + ण == प्रणयः।
[३|१|१४३] विभाषा ग्रहः - `ग्रहऄ धाति से विकल्प से ण प्रत्यय होता है। | ग्रह् + ण == ग्राहः, ग्रह् + अच् == ग्रहः।
[३|१|१४४] गेहे कः - घर अर्थ में ग्रह् धातु से क प्रत्यय होता है। | घर अर्थ में ग्रह् धातु से प्रकृत सूत्र के द्वारा क ( अ) प्रत्यय होकर ग्रह् अ रूप बनने पर ग्रहिज्यावयिव्याधिवष्टिविचति-वृश्वतिपृच्छतिभृज्जतीनांङिति च (६_१_१६) से रकार के स्थान पर सम्प्रसारण ऋकार तथा पूर्वरूप-एकादेश होकर ग्रह् + अ ==> ग्रह रूप बनेगा।
[३|१|१४५] शिल्पिनि ष्वुन् - धातु से शिल्पी अर्थ में ष्वुन् प्रत्यय होता है। | नृत् + ष्वुन् == नर्तकः/नर्तकी, खन् + ष्वुन् == खनकः/खनकी, रञ्ज् + ष्वुन् == रजकः/रजकी।
[३|१|१४६] गः स्थकन् - शिल्पी अर्थ में `गै` धातु से कथन् प्रत्यय होता है। | गाथकः (गवैया), गाथिका। स्त्रीलिंग में "टाप्" प्रत्यय होकर (७_३_४४) से "इत्व" होकर गाथिका रूप बनेगा।
[३|१|१४७] ण्युट् च - `गै` धातु से शिल्पी अर्थ में ण्युट् प्रत्यय होता है। | गायनः == गायनी (गानेवाली)। ण्युट् के "टित्" होने से स्त्रीलिंग में (४_१_१५) से "ङीप्" होकर गायनी (गानेवाली) बना।
[३|१|१४८] हश्च व्रीहि-कालयोः - व्रीहि तथा काल अर्थों में ` ओहाक् ` तथा ` ओहाङ् ` धातुओं से ण्युट् प्रत्यय होता है। | हायना (हायना नाम की व्रीहि == धान्यविशेष)। हायनः (संवत्सरः == वर्ष)
[३|१|१४९] प्रु-सृल्वः समभिहारे वुन् - `प्रु`, `सृ ` तथा `लू ` धातुओं से समभिहार में व्य्न् प्रत्यय होता है। | प्रवतीति == प्रवकः (अच्छे प्रकार चलनेवाला)। सरतीति = सरकः (अच्छी प्रकार सरकने वाला)। लुनातीति == लवकः (अच्छी प्रकार काटनेवाला)।
[३|१|१५०] आशिषि च - आशीरार्थ में धातुमात्र से वुन् प्रत्यय होता है। | जीवतात् == जीवकः। नन्दतात् == नन्दकः।
[३|२|१] कर्मण्यण् - कर्म के उपपद रहने पर धातु से अण् प्रत्यय होता है। | कुम्भ अम् कृ में कुम्भ अम् कृ अ रूप बनेगा। तब णित् प्रत्यय अण् ( अ) परे होने के कारण अचो ञ्णिति (७_२_११५) से कृ के ऋकार के स्थान पर वृद्धि आर् होकर कुम्भ अम् क् आर् अ रूप बनता है। अन्य उदाहरण कुम्भ + ङस् + कृ + अण् == कुम्भकारः, नगर + ङस् + कृ + अण् == नगरकारः, काण्ड + ङस् + लू + अण् == काण्डलावः, शर + ङस् + लू + अण् == शरलावः, वेद् + ङस् + अधि + इङ् + अण् == वेदाध्यायः, चर्चा + ङस् + पठ् + अण् == चर्चापाठः।
[३|२|२] ह्वावामश्च - कर्मोपपदक `ह्वेञ् `, `वेञ् ` तथा माङ् धातुओं से भी अण् प्रत्यय होता है। | पुत्र + ङस् + ह्वे + अण् == पुत्रह्वायः, तन्तु + ङस् + वेञ् + अण् == तन्तुवायः, धान्य + ङस् + मा + अण् == धान्यमायः।
[३|२|३] आतोऽनुपसर्ग कः - उपसर्गरहित कर्म के उपपद रहने पर आकारान्त धातु से क प्रत्यय होता है। | गो अम् दा में कर्म के साथ उपसर्ग नही है और साथ ही धातु भी आकारान्त है। अतः प्रकृत सूत्र से दा धातु को क ( अ) प्रत्यय होकर गो अम् दा अ रूप बनेगा। तब आतो लोप इटि च (६_४_६४) से दा के आकार का लोप होकर गो अम् द अ = गो अम् द् रूप बनने पर पूर्वसूत्र कर्मएयण (३_२_१) की भाँति समास संज्ञा आदि होकर गोदः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण गो + ङस् + दा + क == गोदः, कम्बल् + ङस् + दा + अण == कम्बलदः, पार्ष्णि + न्१स् + त्रा + क == पार्ष्णित्रम्, अङ्गुलि + न्१स् + त्रा + क == अङ्गुलित्रम्।
[३|२|४] सुपिः स्थः - सुबन्त के उपपद रहने पर `स्था` धातु से प्रत्यय होता है। | द्वि + भ्याम् + पा + क == द्वाभ्यां, सम् + ङि + स्था + क == समस्थः, विषम् + ङि + स्था + क == विषमस्थः।
[३|२|५] तुन्दशोकयोः परिमृजा-पनुदोः - कर्मत्वविशिष्ट `तुन्दऄ तथा शोक के उपपद होने पर क्रमशः `परिमृज् ` तथा ` अपनुदऄ धातुओं से क प्रत्यय होता है। | तुन्द + ङस् + परिमृज् + क == तुन्दपरिमृज, शोक + ङस् + अनुपद् + क == शोकापनुदः।
[३|२|६] प्रे दा-ज्ञः - प्रोपसर्गक `दा` तथा `ज्ञा` धातुओं से कर्म के उपपदत्व में क प्रत्यय होता है। | विद्या + ङस् + प्र + दा + क == विद्याप्रदः, शास्त्र + ङस् + प्र + ज्ञा + क == शास्त्रप्रज्ञः
[३|२|७] समिख्यः - कर्मोपपदक सम्पूर्वक `ख्या` धातु से क प्रत्यय होता है। | गो + ङस् + सम् + ख्या + क == गोसंख्यः, अवि + ङस् + सम् + ख्या + क == अविसंख्यः
[३|२|८] गापोष्टक् - अनुपसर्गक कर्मोपपदक `गै` तथा `पा` धातुओं के टक प्रत्यय होता है। | शक्र + ङस् + गै + टक् == शक्रगः इसी प्रकार सामगः
[३|२|९] हरतेरनुद्यमनेऽच् - अनुद्यमन अर्थ में वर्तमान कर्मोपपदक `हृ ` धातु से अच् प्रत्यय होता है। | भाग + ङस् + हृ + अच् == भागहरः, इसी प्रकार रिक्थहरः तथा अंशहरः।
[३|२|१०] वयसि च - वयस् के गम्यमान होने पर कर्मोपपदक `हृ` धातु से अच् प्रत्यय होता है। | अस्थिहरः श्वा (हड्डी ले जानेवाला कुत्ता), कवचहरः क्षत्रियकुमार (कवचधारण करनेवाला क्षत्रियकुमार)।
[३|२|११] आङि ताच्छील्ये - आङ् पूर्वक कर्मोपपदक `हृ` धातु से ताच्छील्य के गम्यमान होने पर अच् प्रत्यय होता है। | फल + आम् + आङ् + हृ + अच् == फलाहारः, पुष्प + आम् + आङ् + हृ + अच् == पुष्पाहरः
[३|२|१२] अर्हः - कर्मोपपदक ` अर्ह् ` धातु से अच् प्रत्यय होता है। | पूजा + ङस् + अर्ह + अच् == पूजार्हा, गन्धा + ङस् + अर्ह + अच् == गन्धार्हा, माला + ङस् + अर्ह + अच् == मालार्हा, आदर + ङस् + अर्ह + अच् == आदरार्हा।
[३|२|१३] स्तम्बकर्णयो रमिजपोः - सुबन्त स्तम्बोपपदक ` रमऄ तथा सुबन्तकर्णोपपदक `जपऄ धातुओं से अच् प्रत्यय होता है। | स्तम्ब + ङि + रम् + अच् == स्तम्बेरमः।
[३|२|१४] शमिधातोः संज्ञायाम् - शमुपपदक धातुमात्र से संज्ञा-विषय में अच् प्रत्यय होता है। | शम् + कृ + अच् == शङ्करः, सम् + भू + अच् == सम्भवः, शम् + वद् + अच् == शम्वदः।
[३|२|१५] अधिकरणे शेतेः - अधिकारणोपपदक `शीङ् ` धातु से अच् प्रत्यय होता है। | ख + ङि + शी + अच् == खशयः
[३|२|१६] चरेष्टः - अधिकरण कारक में सुबन्त उपपद रहने पर चर् (चलना) धातु से ट प्रत्यय होता है। | कुरुषि चरति (कुरु देश में विचरण करता है)- इस विग्रह में कुरु सुप् चर् से प्रकृत सूत्र द्वारा ट प्रत्यय होकर कुरु सुप् चर् अ रूप बनता है। इस स्थिति में उपपद-समास और सुप्-लोप आदि होकर कुरुचरः रूप सिद्ध होता है।कुरु + सुप् + चर् + ट == कुरुचरः/कुरुचरी, मद्र + सुप् + चर् + ट == मद्रचरः/मद्रचरी
[३|२|१७] भिक्षासेनादायेषु च - सुबन्त, भिक्षा सेना और आदाय उपपद होने पर चर् धातु से ट प्रत्यय होता है। | भिक्षा अम् चर् में सुबन्त भिक्षा उपपद रहने से चर् धातु से ट ( अ) होकर भिक्षा अम् चर् अ रूप बनेगा। भिक्षा + ङस् + चर् + ट == भिक्षाचरः, सेना + ङस् + चर् + ट == सेनाचरः, आदाय + चर् + ट == आदायचरः
[३|२|१८] पुरोऽग्रतोऽग्रेषु सर्तेः - पुरस् अग्रतस् तथा अग्र के उपपद होने पर `सृ ` धातु से ट प्रत्यय होता है। | पुरः + सरति == पुरस्सरः, अग्रतः + सरति == अग्रतस्सरः/अग्रेसरः।
[३|२|१९] पूर्वे कर्तरि कर्तृवाचकपूर्वशब्दोपपदक `सृ ` धातु से ट प्रत्यय होता है। | पूर्व + सु + सृ + ट == पूर्वसरः, पूर्व + ङस् + सृ + अण् == पूर्वसारः।
[३|२|२०] कृञो हेतुताच्छील्यानुलोम्येषु - हेतु स्वभाव या अनुकूलता द्योत्य हो तो कृ धातु से ट प्रत्यय होता है। | यशः करोति (यश करती है, यश का कारण) इस विग्रह में यशस् अम् कृ से हेतु अर्थ में ट ( अ) प्रत्यय होकर यशस् अम् कृ अ रूप बनेगा। तब सार्वधातुकार्धधातुकयोः (७_३_८४) से कृ के ऋकार के स्थान पर गुण अर् होकर यशस् अम् क् अर् अ = यशस् अम् कर रूप बनने पर उपपद समास और सुप्- अम् का लोप होकर यशस् कर रूप बनता है। अन्य उदाहरण शोक + ङस् + कृ + ट == शोककरी, यश + ङस् + कृ + ट == यशस्करी।
[३|२|२१] दिवाविभानिशाप्रभाभास्कारा-न्तानन्ता-दिबहुनान्दीकिलिपि-लिबिबलिभक्तिकर्तृ-चित्रक्षेत्र-संख्याजङ्घाबाह्वहर्यत्तद्धनुररुः षु - दिवा, विभा आदि के उपपद होने पर `कृ ` धातु से ट प्रत्यय होता है। | दिवा + कृ + ट == दिवाकरः, विभा + ङस् + कृ + ट == विभाकरः, प्रभा + ङस् + कृ + ट == प्रभाकरः इसी प्रकार कारकरः, अन्तकरः, अनन्तकरः, आदिकरः, बहुकर, नान्दीकरः, किङ्करः, लिपिकरः, लिबिकरः, बलिकरः, भक्तिकरः, कर्तृकरः, चित्रकरः, क्षेत्रकरः आदि।
[३|२|२२] कर्मणि भृतौ - क्रियावाचक कर्मशब्द के उपपद होने पर `कृ ` धातु से ट प्रत्यय होता है, भृति (सेवा) के गम्यमान होने पर। | कर्म करोतीति == कर्मकरः (नौकर)।
[३|२|२३] नं शब्द-श्लोक-कलह-गाथा-वैर चाटु-सूत्र-मन्त्र-पदेषु - शब्द, श्लोक आदि के उपपद होने पर `कृ ` धातु से ट प्रत्यय नहीं होता है। | शब्दं + करोति == शब्दकारः (शब्द + ङस् + कृ + अण्), श्लोकं + करोति == श्लोककारः, कलहं + करोति == कलहकारः, गाथां + करोति == गाथाकारः, वैरं + करोति == वैरकारः, चाटु + करोति == चाटुकारः, सूत्रं + करोति == सूत्रकारः, मन्त्रं + करोति == मन्त्रकारः, पदं + करोति == पदकारः।
[३|२|२४] स्तम्ब-शकृतोरिन् - स्तम्ब तथा शकृत् के उपपद होने पर `कृ ` धातु से इन् प्रत्यय होता है। | स्तम्बकरिः (धानविशेष)। शकृत्करिः (बछड़ा)।
[३|२|२५] हरतेर्दृति-नाथयोः पशौ - कर्मत्वविशष्टि दृति तथा नाथ के उपपद होने पर `हृ` धातु से इन् प्रत्यय होता है कर्तृत्वविशष्टि पशु की वाच्यता में। | दृति + ङस् + हृ + इन् == दृतिहरिः, नाथ + ङस् + हृ + इन् == नाथहरिः।
[३|२|२६] फलेग्रहिरात्मम्भरिश्र्च - `फलेग्रहॎ तथा ` आत्मम्भरि ` आदि शब्द निपातित होते हैं। | फलेग्रहिर्वृक्षः (फलों को ग्रहण करनेवाला=वृक्ष)। आत्मम्भरिः (जो अपना भरण-पोषण करता है)।
[३|२|२७] छन्दसि-वन-सन-रक्षि-मथाम् कर्मोपपदक `वन् `, `सन् `, `रक्ष् ` तथा `मथ् ` धातुओं से इन् प्रत्यय होता है वेद में। | ब्रह्म + ङस् + वन् + इन् == ब्रह्मवनिं। इसी प्रकार गोसनिः
[३|२|२८] एजेः खश् - कर्म के उपपद रहने पर ण्यन्त एज् धातु से खश् प्रत्यय होता है। | जन् अम् एजि में प्रकृत सूत्र से ण्यन्त धातु एजि से खश् प्रत्यय होकर जन अम् एजि अ रूप बनता है। तब तिङ्-शित् सार्वधातुकम् (३_४_११३) से खश् ( अ) की सार्वधातुक संज्ञा होने पर कर्तरि शप् (३_१_६८) से शप् होकर जन् अम् एजि अ अ रूप बनने पर अतो गुणे (६_१_९७) से पर-रूप एकादेश होकर जन् अम् एजि अ रूप बनेगा। यहाँ सार्वधातुकार्धधातुकयोः (७_३_८४) से गुण-एकार होकर जन् अम् एज् ए अ रूप बनने पर एचोऽयवायावः (६_१_७८) से एकार के स्थान पर अय् होकर जन् अम् एज् अय् अ = जन अम् एजय रूप बनता है।
[३|२|२९] नासिका-स्तनयोर्ध्मा-धेटोः - कर्मत्वविशष्टि नासिका तथा स्तन के उपपद होने पर `ध्मा` तथा `धेट् ` धातुओं से खश् प्रत्यय होता है। | नासिका + ङस् + धे + शप् + खश् == नासिकन्धयः।
[३|२|३०] नाडी-मुष्टयोश्च - कर्मत्वविशष्टि नाड़ी तथा मुष्टि के उपपद होने पर `ध्मा` तथा `धेट् ` धातुओं से खश् प्रत्यय होता है। | नाडिन्धमः, नाडिन्धयः, मुष्टिन्धमः, मुष्टिन्धयः
[३|२|३१] उदिकूले रुजिवहोः - कर्मत्वविशष्टि कूल के उपपद होने पर उत्पूर्वक `रुज् ` तथा `वहऄ धातुओं से खश् प्रत्यय होता है। | कूल + ङस् + रुज् + श + खश् == कूलमुद्रुजति, कूल + ङस् + उद् + वह् + शप् + खश् == कूलमुद्वहः
[३|२|३२] बहाभ्रे लिहः - कर्मत्वविशष्टि वह तथा अभ्र के उपपद होने पर लिंग धातु से खश् प्रत्यय होता है। | वह + ङस् + लिह् + शब्लुक् + खश् == वहंलिहो, इसी प्रकार अभ्रंलिहो।
[३|२|३३] परिमाणे पचः - कर्मत्वविशष्टि परिमाणवाचक पदों के उपपद होने पर `पच् ` धातु से खश् प्रत्यय होता है। | प्रस्थ + ङस् + पच् + शप् + खश् == प्रस्थंपचा, इसी प्रकार द्रोणम्पचः, खारिम्पचः, कटाहः
[३|२|३४] मित-नखे च - कर्मत्वविशष्टि मित तथा नख के उपपद होने पर `पच् ` धातु से खश् प्रत्यय होता है। | मितं पचति == मितम्पचा ब्राह्मणी (परिमित अन्न पकानेवाली ब्राह्मणी)। नखम्पचा यवागूः (गरम-गरम गीली लप्सी)
[३|२|३५] विध्वरुषोस्तुदः - कर्मत्वविशष्टि विधु तथा अरुस् के उपपदत्व में तुद् धातु से खश् प्रत्यय होता है। | विधुन्तुदः (चाँद को व्यथित करनेवाला)। अरुन्तुदः (मर्मपीडक)। अरुन्तदुः में पूर्ववत् मुँम् आगम होकर - "अरु मुँम् स् तुद् श खश् == अरु म् स् तुद् अ अ" रहा। पुनः (८_२_२३), तथा (८_४_५८) लगकर अरुन्तुदः बन गया।
[३|२|३६] असूर्य-ललाटयोर्दृशि-तपोः - कर्मत्वविशष्टि असूर्य तथा ललाट शब्दों के उपपद होने पर क्रमशः `दृशऄ तथा `तपऄ धातुओं से खश् प्रत्यय होता है। | असूर्य + ङस् + दृश् + शप् + खश् == असूर्यम्पश्या, इसी प्रकार ललाटन्तपः, आदित्यः।
[३|२|३७] उग्रम्पश्येरम्मद-पाणिन्धमाश्च - ` उग्रम्पश्यऄ, ` इरम्मदऄ एवम् `पाणिन्धम् ` शब्दों का निपातन है। | उग्र + ङस् + दृश् + शप् + खश् == उग्रम्पश्यः, इरा + ङस् + मद् + शप् + खश् == इरम्मदः, पाणि + ङस् + ध्मा + शप् + खश् == पाणिन्धमाः।
[३|२|३८] प्रियवशे वदः खच् - प्रिय और वश कर्म के उपपद रहने पर वद् (बोलना) धातु से खच् प्रत्यय होता है। | वश् अम् वद् से खच् प्रत्यय, उपपद-समास, सुप्-लोप और मुँमागम आदि होकर वश् म् वद् अ रूप बनने पर मोऽनुस्वारः (८_३_२३) से मकार को अनुस्वार होकर वशंवद रूप बनेगा। तब रामः (पूर्वार्ध) की भाँति वशंवदः रूप बनता है इसी प्रकार प्रिय अम् वद् से प्रियंवदः रूप सिद्ध होता है।
[३|२|३९] द्विषत्परयोस्तापेः - कर्मत्वविशष्टि द्विषत् तथा पर शब्दों के उपपदत्व में `तपऄ धातु से `खच् ` प्रत्यय होता है। | द्विषन्तपः, परन्तपः
[३|२|४०] वाचियमोव्रते - कर्मत्वविशष्टि वाक्शब्द के उपपदत्व में `यम् ` धातु से व्रत के गम्यमान होने पर खच् प्रत्यय होता है। | वाचंयम आस्ते (वाणी को संयम में करनेवाला व्रती बैठा है)। (६_३_६८) से निपातन से पूर्वपद का अमन्तत्व यहाँ हुआ है, शेष पूर्ववत् है।
[३|२|४१] पूःसर्वयोर्दारिसहोः - कर्मत्वविशष्टि पुर् तथा सर्व शब्दों के उपपदत्व में क्रमशः `दारि ` तथा `सहऄ धातुओं के खच् प्रत्यय होता है। | पुर् + ङस् + दॄ + णिच् + खच् == पुरन्दरः
[३|२|४२] सर्वकूलाभ्रकरीषेषु कषः - कर्मत्वविशष्टि सर्व, कूल, अभ्र तथा करीष के उपपद होने पर `कषऄ धातु से खच् प्रत्यय होता है। | सर्वं कषति == सर्वंकषः खलः (सब को पीड़ा देने वाला दुष्ट)। कलूंकषा नदी (किनारे को तोड़ने वाली नदी)। अभ्रंकषो गिरिः (गगनचुम्बी पर्वत)। करीषंकषा वात्या (सूखे गोबर को भी उड़ा ले जाने वाली आँधी)।
[३|२|४३] मेघर्तिभयेषुः कृञः - कर्मत्वविशष्टि मेघ, ऋति तथा भय शब्दों के उपपदत्व में `कृञ् ` धातु से खच् प्रत्यय होता है। | मेघं + करोति == मेघंकरः (बादल बनानेवाला)। इसी प्रकार ऋतिंकरः (स्पर्धा करनेवाला), भयंकरः (भीषण)।
[३|२|४४] क्षेमप्रियमद्रेऽण्च - - कर्मत्वविशष्टि क्षेम, प्रिय तथा मद्र के उपपदत्व में कृञ् धातु से अण् प्रत्यय होता है। | क्षेमं + करोति == क्षेमकारः/क्षेमंकरः, इसी प्रकार प्रियकारः, प्रियंकारः, मद्रकारः, मद्रंकरः
[३|२|४५] आशिते भुवः करण-भावयोः - सुबन्त आशित शब्द से उपपद होने पर करण तथा भाव अर्थों में `भू ` धातु से खच् प्रत्यय होता है। | आशितः == तृप्तो भवत्यनेन == आशितंभव ओदनः (जिसके द्वारा तृप्त हुआ जाता है ऐसा चावल)। भावे-आशितस्य भवनम् == आशितंभवं वर्त्तते (तृप्त होना हो रहा है)।
[३|२|४६] संज्ञायां भृतॄवृजिधारिसहि तपिदमः - कर्मत्वविशष्टि अथवा सुबन्तमात्र के उपपद होने पर `भृ `, `तॄ `, `वृ`, `जॎ, `घृ`, `सहऄ, `तप् ` तथा `दमऄ धातुओं से संज्ञाविषय में खच् प्रत्यय होता है। | विश्वं + बिभर्ति == विश्वम्भरः, रथेन + तरति == रथन्तरं, पतिं वृणुते == पतिंवरा, शत्रुं जयति == शत्रुञ्जयः, युगं धारयति == युगन्धरः। शत्रुं सहते == शत्रुंसहः। शत्रुं तपति == शत्रुंतपः। अरि + दाम्यति == अरिंदमः।
[३|२|४७] गमश्च - सुबन्तोपपदक `गम् ` धातु से भी खच् प्रत्यय होता है। | सुतं + गच्छति == सुतङ्गमः।
[३|२|४८] अन्तात्यन्ताध्वदूरपारसर्वा नन्तेषु डः - कर्मत्वविशष्टि अन्त, अत्यन्त, अध्वन्, दूर, पास, सर्व तथा अनन्त शब्दों में उपपदत्व में `गम् ` धातु से ड प्रत्यय होता है। | अन्त + ङस् + गम् + ड == अन्तगः, इसी प्रकार अत्यन्तगः, अध्वगः, दूरगः, पारगः, सर्वगः।
[३|२|४९] आशिषि हनः - कर्मत्वविशष्टोपपदक `हन् ` धातु से आशीः अर्थ में ड प्रत्यय होता है। | शत्रु + ङस् + हन् + ड == शत्रुहः
[३|२|५०] अपे क्लेश-तमसोः - कर्मत्वविशष्ट क्लश तथा तमस् के उपपद होने पर अपिपूर्वक ` हन् ` धातु से ड प्रत्यय होता है। | क्लेश + ङस् + अप + हन् + ड == क्लेशापहः, तमस् + ङस् + अप + हन् + ड == तमोपह ।
[३|२|५१] कुमारशीर्षयोर्णिनिः - कुमार तथा शीर्ष के उपपद होने पर `हन् ` धातु से णिनि प्रत्यय होता है। | कुमार + ङस् + हन् + णिनि == कुमारघाती, शिरस् + ङस् + हन् + णिनि == शीर्षघाती ।
[३|२|५२] लक्षणे जायापत्योष्टक् - कर्मत्वविशिष्ट जाया तथा पति शब्द से उपपद होने पर `हन् ` धातु से लक्षणवान् कर्त्ता अर्थ में टक् प्रत्यय होता है। | जायाध्नो वृषलः। पतिध्नी वृषली।
[३|२|५३] अमनुष्य-कर्तृके च - अमनुष्यकर्त्तक अर्थ में वर्तमान `हन् ` धातु से कर्म के उपपद होने पर टक् प्रत्यय होता है। | श्लेष्मघ्नं मधु (कफ को नष्ट करनेवाला मधु), पित्तघ्नं घृतम् (पित्त को मारनेवाला घी)।
[३|२|५४] शक्तौ हस्ति-कपाटयोः - कर्मत्वविषिष्ट हस्तिन् तथा कपाट के उपपदत्व में `हन् ` धातु से शक्ति के गम्यमान होने पर `टक् ` प्रत्यय होता है। | हस्तिनं हन्तुं शक्नोति == हस्तिध्नो मनुष्यः (हाथी को मार सकनेवाला मनुष्य)। कपाटं हन्तुं शक्नोति == कपाटघ्नश्चौरः (किवाड़ तोड़ने में समर्थ चोर)
[३|२|५५] पाणिघताडघौ शिल्पिनि - कर्मत्वविषिष्ट पाणि तथा ताड शब्दों के उपपदत्व में `हन् ` धातु से क प्रत्यय `हन् ` धातु के टि का लोप तथा घत्व का निपातन है। | पाणि + ङस् + हन् + क == पाणिघः, इसी प्रकार ताडघः ।
[३|२|५६] आढ्य-सुभग-स्थूल-पलित-नग्नान्ध्-प्रियेषु च्व्यर्थेष्वच्वौ कृञः करणे ख्युन् - च्वयर्थ में वर्तमान परन्तु च्विप्रत्यय रहित कर्मत्वविषिष्ट आढ़य, सुभग, स्थूल, पतित, नग्न, अन्ध तथा प्रिय शब्दों के उपपदत्व में `कृञ् ` धातु के करण अर्थ में ख्युन् प्रत्यय होता है। | आढ्य + ङस् + कृ + ख्युन् == आढ्यंकरणम्, इसी प्रकार सुभंगकरणम्, स्थूलंकरणम्, पलितंकरणम्, नग्नंकरणम्, अन्धंकरणम्, प्रियंकरणम् आदि।
[३|२|५७] कर्तरिभुवः खिष्णुच्खुकञौ - च्व्यर्थ में वर्तमान परन्तु च्वि प्रत्यय रहित सुबन्त आढ़य आदि के उपपदत्व में भू धातु से कर्त्ता में खिष्णु तथा खुकञ् प्रत्यय होते हैं। | अनाढ्य आढ्यो भवति == आढ्यंभविष्णुः, आढ्यंभावुकः। सुभंगम्भविष्णुः, सुभगंभावुकः। स्थूलंभविष्णुः, स्थूलंभावुकः। पलितंभविष्णु, पलितंभावुकः।
[३|२|५८] स्पृशोऽनुदके क्विन् - उदक शब्द से भिन्न सुबन्त (जिसके अन्त में सुप् हो) उपपद होने परस्पृश् धातु से किन् प्रत्यय होता है। | घृतं स्पृशति - इति घृतस्पृक् इस विग्रह मे घृत सुबन्त उपपद रहते स्पृश् धातु से क्किन् प्रत्यय होगा। जैसे मन्त + टा + स्पृश् + क्विन् == मन्त्रस्पृक् ।
[३|२|५९] ऋत्विग्दधृक्स्त्रग्दिगुष्णिगञचुयुजिक्रञ्चां च - ऋत्विज्, दधृष्, स्रज्, दिश्, उष्णिह्, अञ्च, युज् और क्रुञ्च् से क्किन् प्रत्यय होता है। | क्विन् भवति == प्राङ्, प्रत्यङ्, उदङ्। युनक्तीति == युङ्, युञ्जौ, युञ्जः। क्रुङ्, क्रुञ्चौ, क्रुञ्चः।
[३|२|६०] त्यदादिषु दृशोऽनालोचने कञ्च - त्यद् आदि उपपद् रहते ज्ञान से भिन्न अर्थ में दृश धातु से कञ् तथा क्विन् प्रत्यय होते हैं | त्यदादि तद् पूर्वक अज्ञानार्थक दृश् धातु से प्रकृत् सूत्र द्वारा कञ् और दूसरे पक्ष में क्विन् प्रत्यय होकर तद् दृश् + कञ् और तद् दृश् + क्विन् रूप बनते हैं। इस अवस्था में तद् दृश् तथा क्विन् पक्ष में सर्वाहार लोप होकर तद् दृश् रूप बनेगा।
[३|२|६१] सत्सूद्विषद्रुहदुहयुजविदभिदच्छिदजिनीराजामुपसर्गेऽपिक्विप् - उपसर्गात्मक अथवा अनुपसर्गात्मक सुबन्त के उपपद होने पर `सद् `, `सू `, `द्विषऄ, `द्रुहऄ, `दुहऄ, `युजऄ, `भिदऄ, `छिद् `, `जॎ, `नी ` तथा `राजृ ` धातुओं से क्किप् प्रत्यय होता है। | त्यादृक् (उस जैसा) == त्यादृशः, तादृक् (वैसा) == तादृशः, यादृक् (जैसा) == यादृशः
[३|२|६२] भजो ण्विः - उपसर्गात्मक अथवा अनुपसर्गात्मक सुबन्त के उपपदात्व में `भजऄ धातु से `णिवऄ प्रत्यय होता है। | अर्ध + ङस् + भज् + ण्वि == अर्धभाक्, इसी प्रकार प्रभाक् ।
[३|२|६३] छन्दसि सहः - वेद के सुबन्तोपपद `सहऄ धातु से ण्वि प्रत्यय होता है। | तुरा + ङस् + सह् + ण्वि == तुराषाट्
[३|२|६४] वहश्च - `वहऄ धातु से भी वेद में ण्वि प्रत्यय होता है। | दित्यवाट्
[३|२|६५] काव्य-पुरीष-पुरीष्येषु ञ्युट् - कव्य, पुरीष, एवम् पुरीष्य के उपपद होने पर `वहऄ धातु से वेद में ञ्युट् प्रत्यय होता है। | कव्य + ङस् + वह् + ञ्युट् == कव्यवाहनः, इसी प्रकार पुरीषवाहनः, पुरीष्यवाहनः आदि)
[३|२|६६] हव्येऽनन्तः पादम् - हव्य शब्द के उपपद होने पर ऋक्पादमध्य में वर्त्तमान `वहऄ धातु से वेद में व्युट् प्रत्यय होता है। | दूतश्च हव्यवाहनः
[३|२|६७] जनसनखनक्रमगमो विट् - सुबन्तोपपद `जनऄ आदि धातुओं के वेद में विट् प्रत्यय होता है। | अप्सु जायते == अब्जाः, उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनात्मानमभि संविवेश, गोषु जायते == गोजाः। सन - गाः (इन्द्रियाणि) सनोति == गोषाः, इन्द्रो नृषा असि, नॄन् सनोतीति नृषाः। खन - बिसखाः, कूपखाः क्रमः - दध्रिकाः। गम - अग्रेगाः।
[३|२|६८] अदोऽनन्ने - अन्नशब्दभिन्नसुबन्तोपपद ` अद् ` धातु से विट् प्रत्यय होता है। | आम + अद् + विट् == आमात ।
[३|२|६९] क्रव्ये च - क्रव्योपपदक ` अद् ` धातु से विट् प्रत्यय होता है। | क्रव्यम् अत्ति == क्रव्यात् (मांस खानेवाला, राक्षस)
[३|२|७०] दुहः कब्घश्च - सुबन्तोपपद `दुहऄ धातु से कप् प्रत्यय तथा प्रकृति को घकारान्तादेश। | कामदुघा धेनुः (इच्छा पूर्ण करनेवाली गौ), घर्मदुघा (धर्म == उष्णता को ग्रहण करनेवाली।
[३|२|७१] मन्त्रे श्वेतवहोक्थशस्पुरोडाशो ण्विन् - मन्त्रविषय में श्वेतोपपदक `वहऄ उक्थोपपदक `शंस् ` तथा पुर उपपद `दाश् ` धातुओं से ण्विन् प्रत्यय (तथा अन्यान्य अन्यथाऽप्राप्त कार्यों का निपातन भी) होता है। | पुरो दशन्त एनम् == पुरोडाः, श्वेता एनं वहन्ति == श्वेतवा।
[३|२|७२] अवे यजः - अवोपपदक `यजऄ धातु से मन्त्रविषय में ण्विन्न् प्रत्यय होता है। | अव + यज् + ण्विन् == अवयाः
[३|२|७३] विजुपे छन्दसि - उपोपपदक यज धातु से वेद में विच् प्रत्यय होता है। | उप + यज् + ण्विन् == उपयड्
[३|२|७४] आतो मनिङ्क्वनिब्वनिपश्च - सुबन्त तथा उपसर्ग के उपदत्व में अकारान्त धातु से मनिन्, क्वनिप् तथा विनप् प्रत्यय होते हैं। | सु + दा + मनिन् == सुदामा, सु + धा + क्वनिप् == सुधीवा, भूरि + दा + वनिप् == भूरिदावा, कीलाल + पा + विच् == कीलालपाः ।
[३|२|७५] अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते - अकारान्त-भिन्न धातुओं से भी मनिन्, क्वनिप्, वनिप् और विच् प्रत्यय होते हैं। | शोभनं शृणाति ( अच्छी तरह से हिंसा करता है) - इस विग्रह में सु पूर्वक शॄ धातु से मनिन् प्रत्यय होकर सु शॄ मन् रूप बनेग। यहाँ सार्वधातुकार्धधातुकयोः (७_३_८४) से शॄ के ऋकार के स्थान पर गुण-अर् होकर सु श् अर् मम् = सुशर्मन् रूप बनने पर आर्धधातुकस्येड् वलादेः (७_२_३५) से इडागम प्राप्त होता है, किन्तु नेड् वशि कृति (७_२_८) से उसका निषेध हो जाता है। अन्य उदाहरण = सु + शॄ + मनिन् == सुशर्मा, प्रातर् + इ + क्वनिप् == प्रातरित्वा, वि + जन् + वनिप् == विजावा इसी प्रकार प्रजावा, अग्रेगावा।
[३|२|७६] क्विप्च - सुबन्त उपपद रहने पर सभी धातुओं से क्विप् प्रत्यय होता है। क्विप् में केवल व् ही शेष रहता है। | उखायाः स्त्रंसते (हांडी से गिरता है)- इस विग्रह में उखा ङसि स्त्रंस् व् रूप बनेगा। यहाँ वेरपृक्तस्य (६_१_६७) से वकार का लोप होकर उखा ङसि स्त्रंस रूप बनने पर स्त्रंस् के नकार का लोप और उपपद समास आदि होकर प्रथमा के एकवचन में उखास्रत् रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - उखा + ङस् + स्त्रंस् + क्विप् == उखास्त्रत्, पर्ण + ङस् + ध्वंस् + क्विप् == पर्णध्वत् ।
[३|२|७७] स्थः क च सुबन्तोपपद तथा उपसर्गोपपदक `स्था` धातु से क तथा क्विप् प्रत्यय होता है। | शम् + स्था + क == शंस्थः, शम् + स्था + क्विप् == शंस्थाह् == शम् + स्था + विच् == शंस्थाः ।
[३|२|७८] सुप्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये - जातिवाचक भिन्न सुबन्त उपपद रहने पर स्वभाव अर्थ में धातु से णिनि प्रत्यय होता है। | उष्णं भुङ्क्ते तच्छीलः (गरम भोजन करने की आदत वाला)- इस विग्रह में उष्ण अम् भुज् रूप बनने पर सुबन्त उष्णम् के भाववाचक होने के कारण प्रकृत सूत्र द्वारा णिनि (इन्) होकर उष्ण अम् भुज् इन् रूप बनेगा। तब लधूपध गुण, उपपद-समास और सुप्-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में उष्णभोजी रूप सिद्ध होता है। उष्ण + ङस् + भुज् + णिनि == उष्णभोजी।
[३|२|७९] कर्तर्युपमाने - कर्त्तवाचक उपमानोपपद धातु से णिनि प्रत्यय होता है। | उष्ट्र + सु + क्रुश् + णिनि == उष्ट्रकोशी इसी प्रकार ध्वाङ्क्षरावी।
[३|२|८०] व्रते - सुबन्तोपपद धातु से व्रत के गम्यमान होने पर णिनि प्रत्यय होता है। | स्थण्डिल + ङि + शी + णिनि == स्थण्डिलशायी ।
[३|२|८१] बहुलमाभीक्ष्ण्ये - अभीक्ष्ण्य अर्थ में धातु से बहुल करके णिनि प्रत्यय होता है। | कषाय + ङस् + पा + णिनि == कषायपायिणो, इसी प्रकार क्षीरपायिण उशीनराः
[३|२|८२] मनः - सुबन्त उपपद रहने पर मन् धातु (दिवादि०समझना) से णिनि प्रत्यय होता है। | दर्शनीय अम् मन् में दर्शनीयम् सुबन्त उपपद है, अतः उसके रहते प्रकृत सूत्र द्वारा णिनि (इन्) प्रत्यय होकर दर्शनीय अम् मन् इन् रूप बनता है। इस स्थिति में उपधा-वृद्धि, उपपद-समास और सुप्-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में दर्शनीयमानी रूप सिद्ध होता है। दर्शनीय + ङस् + मन् + णिनि == दर्शनीयमानी, इसी प्रकार शोभनमानी, सुरूपमानी।
[३|२|८३] आत्ममाने खश्च - अपने आप को मानना अर्थ में वर्तमान मन् धातु से सुबन्त उपपद रहने पर खश् प्रत्यय होता है और णिनि प्रत्यय भी। | पण्डितमात्मानं मन्यते ( अपने आप को पण्डित मानता है)- इस विग्रह में पण्डित् अम् मन् रूप बनने पर सुबन्त उपपद पण्डितम् रहने पर प्रकृत सूत्र द्वारा खश् ( अ) प्रत्यय होकर पण्डित अम् मन् अ रूप बनेगा। तब श्यन्, मुँमागम्, उपपद-समास और सुप्-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में पण्डितंमन्यः रूप सिद्ध होता है। णिनि होने पर आत्माने खश्च (३_२_८६) की भाँति पण्डितमानी रूप बनता है। पण्डित + ङस् + मुम् + मन् + श्यन् + खश् == पण्डितम्मन्यः, दर्शनीय + ङस् + मुम् + मन् + श्यन् + खश् == दर्शनीयम्मन्यः
[३|२|८४] भूते| यहाँ से लेकर वर्तमान लट् सूत्र से पहले तक विहित कार्य भूतकाल में णिनि प्रत्यय होता है।
[३|२|८५] करणे यजः - करण उपपद रहने पर भूत अर्थ में यज् धातु णिनि प्रत्यय होता है। | सोमेन यागं कृतवान् (सोम से यज्ञ किया)- इस विग्रह में सोम टा यज् रूप बनने पर प्रकृत सूत्र से णिनि (इन्) प्रत्यय होकर सोम टा यज् इन् रूप बनेगा। इस स्थिति में उपधा-वृद्धि, उपपद समास और सुप्-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में सोमयाजी रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार अग्निष्टोम टा यज् से अग्निष्टोमयाजी रूप बनता है। अन्य उदाहरण अग्निष्टोम + टा + यज् + णिनि == अग्निष्टोमेन।
[३|२|८६] कर्मणि हनः - कर्मकारक में उपपदत्व में हन् धातु से भूतकाल में णिनि प्रत्यय होता है। | पितृ + ङस् + हन् + णिनि == पितृव्यं
[३|२|८७] ब्रह्मभ्रूणवृत्रेषु क्विप् - कर्मत्वविशिष्ट ब्रह्म, भ्रुण तथा वृत्र के उपपदत्व में हन् धातु से भूतकाल में क्विप् प्रत्यय होता है। | ब्रह्म + ङस् + हन् + णिनि == ब्रह्महा, इसी प्रकार वृत्रहा, भ्रूणहा
[३|२|८८] बहुलं छन्दसि - वेद में अन्योपपद हन् धातु से भी बहुल करके किप् प्रत्यय होता है। | मातृघातः, पितृघातः
[३|२|८९] सुकर्मपापमन्त्रपुण्येषु कृञः - सु तथा कर्मत्वविशिष्ट कर्मन्, पाप मन्त्र तथा पुण्य शब्दों के उपपद होने पर कृञ धातु से क्विप् प्रत्यय होता है। | सु + कृ + क्विप् == सुकृत्, कर्म + कृ + क्विप् == कर्मकृत्, पाप + कृ + क्विप् == पापकृत्, मन्त्र + कृ + क्विप् == मन्त्रकृत्, पुण्य + कृ + क्विप् == पुण्यकृत् आदि।
[३|२|९०] सोमे सुञः - कर्मत्वविशिष्ट सोमशब्द के उपपदत्व में सुञ् धातु से क्विप् प्रत्यय होता है। | सोमसुत्, सोमसुतौ।
[३|२|९१] अग्नौ चेः - कर्मत्वविशिष्ट अग्नि शब्द के उपपद होने पर `चॎ धातु से क्विप् प्रत्यय होता है। | अग्नि + चि + क्विप् == अग्निचित्
[३|२|९२] कर्मण्यग्न्याख्यायाम् - कर्मत्वविशिष्ट शब्द के उपपद होने पर `चॎ धातु से कर्मकरक में ही क्विप् प्रत्यय होता है यदि उपपदविशिष्टप्रत्ययान्त का वाच्य अग्नि ही हो। | श्येनचित्, कङ्कचित्
[३|२|९३] कर्मणीनिविक्रियः - कर्मत्वविशिष्ट शब्द के उपपद होने पर विपूर्वक `क्री ` धातु से इनि प्रत्यय होता है। | सोमं + विक्रीतवान् == सोमविक्रयी (सोम को बेचनेवाला)। इसी प्रकार रसविक्रयी (रस को बेचनेवाला), मद्यविक्रयी (शराब बेचनेवाला)
[३|२|९४] दृशेः क्कनिप् - कर्म-उपपद रहने पर भूत अर्थ में दृश् धातु से क्वनिप् प्रत्यय होता है। | पारं दृष्टवान् (पार देख लिया है)- इस विग्रह में पार अम् दृश् रूप बनने पर कर्म-उपपद पारं होने के कारण प्रकृत सूत्र से क्वनिप् (वन्) प्रत्यय होकर पार अम् दृश् वन् रूप बनेगा। तब उपपद-समास और सुप्-लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में पारदृश्वा रूप सिद्ध होता है।अन्य उदाहरण - परलोक + ङस् + दृश् + क्वनिप् == परलोकदृश्वा इसी प्रकार पटिलिपुत्रदृश्वा
[३|२|९५] राजनि युधि कृञः - राजन् कर्म-उपपद रहने पर भूत अर्थ में युध (लड़वाना) और कृञ् (करना)- इन दो धातुओं से क्वनिप् प्रत्यय होता है। | राजानं योधितवान् (राजा को लड़वाया)- इस विग्रह में राजन् अम् युध् रूप बनने पर राजानम् कर्म्-उपपद होने के कारण प्रकृत सूत्र से क्वनिप् (वन्) प्रत्यय होकर राजन् अम् युध् वन् रूप बनता है। इस स्थिति में उपपद-समास और सुप्-लोप आदि होकर राजयुध्वा रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार राजन् अम् कृ से राजकृत्वा (जिसने राजा बनाया हो) रूप बनता है। अन्य उदाहरण - राजन् + युध् + णिच् + क्वनिप् == राजयुध्वा, राजन् + ङस् + कृ + क्वनिप् == राजकृत्वा ।
[३|२|९६] सहे च - सह उपपद रहने पर भुउत अर्थ में युध् और कृ धातु से क्वनिप् प्रत्यय होता है। | सह योधितवान् (साथ लड़ाया है)- इस विग्रह में सह युध् रूप बनने पर सह उपपद होने के कारण प्रकृत सूत्र द्वारा क्वनिप् (वन्) प्रत्यय होकर सह युध् वन् रूप बनेगा। तब उपपद-समास आदि होकर सहयुध्वा रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार सह कृ से सहकृत्वा रूप बनता है।
[३|२|९७] सप्तम्यां जनेर्डः - सप्तभ्यन्त उपपद रहने पर जन् धातु से ड प्रत्यय होता है। | सरसि जातम् (तालाब में उत्पन्न हुआ)- इस विग्रह में सरस ङि कन् रूप बनने पर सप्तभ्यन्त उपपद होने के कारण प्रकृत सूत्र से जन् (पैदा होना) धातु से ड प्रत्यय होकर सरस् ङि जन् अ रूप बनता है। यहाँ ङित् अ (ड) परे होने से टि अन् का लोप होकर सरस् ङि ज् अ = सरस् ङि ज रूप बनेगा। तब उपपद-समास होकर प्रतिपादिक संज्ञा होने पर सुपो धातु-प्रातिपदिकयोः (२_४_७१) से सुप्-ङि का लोप प्राप्त होता है। अन्य उदाहरण - उपसर + ङि + जन् + ड == उपसरजः, मन्दुरा + ङि + जन् + ड == मन्दुरजः।
[३|२|९८] पञ्चम्यामजातौ - जातिवाचकशब्दभिन्न पञ्चम्यन्त पद के उपपदत्व में `जन् ` धातु से ड प्रत्यय होता है। | शोक + ङसि + जन् + ड == शोकजो।
[३|२|९९] उपसर्गो च संज्ञायाम् - उपसर्ग उपपद होने पर संज्ञा अर्थ में जन् धातु से ड ( अ) प्रत्यय होता है। | सन्तति अर्थ में प्र उपसर्गपूर्वक जन् धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा ड प्रत्यय होकर प्रजन् अ रूप बनेगा। तब टि-अन् का लोप हो प्रज् अ = प्रज रूप बनने पर प्रतिपादिक संज्ञा होकर स्त्रीत्व-विविक्षा में टाप् प्रत्यय आदि होकर प्रथमा के एकवचन में प्रजा (संतान) रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - प्र + जन् + ड == प्रजाः।
[३|२|१००] अनौ कर्मणि - कर्मत्वविशिष्ट शब्द के उपपद होने पर अनुपूर्वक `जन् ` धातु से ड प्रत्यय होता है। | पुम् + अनु + जन् + ड == पुमनुजः।
[३|२|१०१] अन्येष्वपि दृश्तते - अन्य कारक के उपपद होने पर भी `जन् ` धातु से ड प्रत्यय देखा जाता है। | ब्राह्मण + ङि + जन् + ड == ब्राह्मणजो, परि + खन् + ड == परिखा
[३|२|१०२] निष्ठा - भूतकाल में धातु से क्त और क्तवतु प्रत्यय होते हैं। | स्तुतस्त्वया विष्णुः (तुमने विष्णु की स्तुति की) में स्तुतः पद क्त-प्रत्यान्त है। यहाँ भूत अर्थ में स्तु धातु से कर्म में क्त (त) प्रत्यय होकर स्तु त रूप बनने पर प्रतिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के पुल्लिंग-एकवचन में स्तुतः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - भिद् + क्त == भिन्नः, भिद् + क्तवतु == भिन्नवान्, इसी प्रकार भुक्तवान्।
[३|२|१०३] सुयजोर्ङ्वनिप् - सु तथा यज शातुओं से ङ्वनिप् प्रत्यय होता है। | सु + ङ्वनिप् == सुत्वा, यज् + ङ्वनिप् == यज्वा।
[३|२|१०४] जीर्यतेरतृन - जॄष् धातु से भूतकाल में अतॄन् प्रत्यय होता है। | जॄ + अतृन् == जरन्तौ
[३|२|१०५] छन्दसि लिट् - दातुओं से भूतकाल में छन्दोविषय में लिट् प्रत्यय होता है। | अहं सूर्यमुभयतो ददर्श । अहं द्यावापृथिवी आततान।
[३|२|१०६] लिटः कानज्वा - लिट् के स्थान पर विकल्प से कानच् होता है। | कृ धातु से लिट् होकर कृ लिट् रूप बनने पर प्रकृत सूत्र से लिट् के स्थान पर कानच् होकर कृ आन् रूप बनता है। इस स्थिति में द्वित्व अभ्यास-कार्य और यणादेश आदि होकर चक्राण रूप बनने पर प्रातिपादिक संज्ञा हो प्रथमा के पुँल्लिङ्ग-एकवचन में चक्राणः रूप सिद्ध होता है।
[३|२|१०७] क्वसुश्च - छन्द में लिट् के स्थान पर क्वसु आदेश। | परस्मैपदी गम् धातु से लिट् होकर गम् लिट् रूप बनने पर प्रकृत सूत्र द्वारा लिट् के स्थान पर क्वसु होकर गम् वस् रूप बनेगा।
[३|२|१०८] भाषायां सदवसश्रुवः - `सद् `, `वस् ` एवम् श्रु धातुओं के पहले लिट् को भाषा में विकल्प क्वसु आदेश। | सद् + क्वसु == सेदिवान्, वस् + क्वसु == ऊषिवान्, श्रु + क्वसु == शुश्रुवान्
[३|२|१०९] उपेयिवाननाश्वाननूचानश्च - ` उपेयिवान् `, ` अनाश्वान् ` तथा ` अनूचानऄ शब्दों का निपातन होता है। | उप् + ई + इ + इट् + क्वसु == उप् + ई + य् + इट् + क्वसु == उपेयिवस्।
[३|२|११०] लुङ् - भूतकाल में धातु से लुङ् लकार होता है। | देवदत्तः अभूत् == देवदत्त हुआ।
[३|२|१११] अनद्यतने लङ् - जब क्रिया का अनद्यतन भूतकाल में होना प्रकट हो तो धातु से लङ् लकार होता है। | ह्मो लक्ष्मणपुरेऽभवम् मे ह्मः पद से अनद्यतन भूतकाल की सूचना मिलती है, इसी से लङ् लकार का रूप अभवम् प्रयुक्त हुआ।
[३|२|११२] अभिज्ञावचने ऌट् - स्मृतिवाचक शब्द के उपपद होने पर अनद्यतन भूतकाल में धातु से ऌट् प्रत्यय होता है। | अभिजानासि देवदत्त, कश्मीरेषु वत्स्यामः (याद है देवदत्त, पहले कश्मीर में रहे थे)
[३|२|११३] न यदि - यत् शब्द से विशिष्ट स्मृतिवाचक पद के उपपद में ऌट् प्रत्यय नहीं होता। | अभिजानासि देवदत्त, यत् कश्मीरेषु अवसाम।
[३|२|११४] विभाषा साकाङ्क्षे - यच्छब्दसहित अथवा केवल स्मृतिवाचक शब्द के उपपद होने पर विकल्प से धातु से लट् प्रत्यय होता है। यदि ऌडन्त पद का प्रयोग करनेवाला साकांक्ष हो। | अभिजानासि देवदत्त, यत् कश्मीरेषु वत्स्यामः, तत्र ओदनं भोक्ष्यामहे । अभिजानासि देवदत्त, यत् मगधेषु वत्स्यामः तत्र सक्तून् पास्यामः।
[३|२|११५] परोक्षे लिट् - अनद्यतन ( आज न होने वाले) परोक्षभूत (जिस काल के साक्षी हम न हों) में वर्तमान धातु से लिट् (ल्) होता है। | रावणों बभूव (रावण हुए थे)
[३|२|११६] हशश्वतोर्लङ् च - ह तथा शश्वत् के उपपद होने पर भूतानद्यतनपरोक्षार्थवृत्ती धातुओं से लङ् तथा लिट् दोनों ही प्रत्यय होता है। | इति हाकरोत् (उसने ऐसा निश्चय से किया)। इति ह चकार। शश्वदकरोत् (उसने यह सदा किया)। शश्वत् चकार।
[३|२|११७] प्रश्ने चासन्नकाले - आसन्ङकाल के प्रश्नविषय होने पर भूत अनद्यतन् अपरोक्ष अर्थ में धातुओं से लङ् और लट् प्रत्यय होते हैं। | देवदत्तोऽगच्छत किम् ? देवदत्तो जगाम किम् ? (देवदत्त अभी गया क्या?)। यहाँ प्रश्न शब्द में "नङ्" प्रत्यय हुआ है, अतः प्रश्न का अर्थ है प्रष्टव्य। पाँच वर्ष के अभ्यन्तर काल को आसन्न काल माना जाता है।
[३|२|११८] लट् स्मे - स्म शब्द के उपपद होने पर भूत अनद्यतन् अपरोक्ष अर्थ में धातुओं से लट् प्रत्यय होता है। | युधिष्ठिरो यजते (युधिष्ठिर यज्ञ करते थे), नलेन पुरा अधीयते स्म == नल पहिले पढ़ते थे।
[३|२|११९] अपरोक्षे च - भूत अनद्यतन् अपरोक्ष अर्थ में वर्तमान धातुओं से भी स्म शब्द के उपपद होने पर लट् प्रत्यय होता है। | गुरुः माम् अध्यापयति स्म (मुझको गुरुजी पढ़ाया करते थे), पिता माम् ब्रवीति स्म (पिताजी मुझसे बोला करते थे।)
[३|२|१२०] ननौ पृष्टप्रतिवचने - ननु शब्द के उपपद होने पर भूतकालिक प्रश्नपूर्वक प्रतिवचन अर्थ में धातु से लट् लकार होता है। | अकार्षीः कटं देवदत्त ? ननु करोमि भोः (देवदत्त, तूने चटाई बना ली, जी हाँ बनाई है।)
[३|२|१२१] न न्वोर्विभाषा - भूतकालिक पृष्ट्-प्रतिवचन अर्थ में न तथा नु के उपपद होने पर धातु से वैकल्पिक लट् प्रत्यय होता है। | "न" उपपद में होने पर == अकार्षीः कटं देवदत्त ? ननु करोमि भोः/ नाकार्षम् (देवदत्त, तूने चटाई बनाई क्या ? नहीं बनाई ।)
[३|२|१२२] पुरि लुङ् चास्मे - स्म- शब्दरहित पुरा शब्द के उपपद होने पर धातु से लुङ् प्रत्यय तथा लुट् प्रत्यय भी होते हैं। | यह पहले रथ से गया था। लट् == रथेनायं पुरा ययौ। लुङ् == रथेनायं पुराऽयासीत् लङ् == रथेनायं पुराऽयात् लिट् == रथेनायं पुरा ययौ।
[३|२|१२३] वर्तमाने लट् - वर्तमानार्थ में धातु से लट् प्रत्यय होता है। | पचति == पकाता है, पठति == पढ़ाता है, भवति == होता है।
[३|२|१२४] लटः शतृशानचावप्रथमा समानाधिकरणे - अप्रथमान्तसमानाधिकरण लट् को शतृ तथा शानच् आदेश। | पच् + शत्रि == पश्य, पच् + शानच् == पश्य।
[३|२|१२५] संबोधने च - सम्बोधन प्रथमान्त समानाधिकरण लट् को शतृ तथा शानच् आदेश। | जैसे हे पचन् !, हे पचमान !
[३|२|१२६] लक्षण हेत्वोः क्रियायाः - क्रिया विषयक लक्षण तथा हेतु अर्थ में वर्तमान धातुओं से विहित लट् को शतृ तथा शानच् आदेश। | लक्षणे - शयानो भुङ्क्ते बालः (लेटा हुआ बालक खा रहा है)। तिष्ठन् मूत्रयति पाश्चात्यः (खड़ा हुआ पश्चात्य लघुशङ्का करता है)। हेतौ- अधीयानो वसति (पढ़ने के कारण से रहता है), उपदिशन् भ्रमति (उपदेश करने के हेतु घूमता है)।
[३|२|१२७] तौ सत् - शतृ और शानच् प्रत्ययों को सत् कहते हैं। | ब्राह्मणस्य कुर्वन्। ब्राह्मणस्य कुर्वाणः। ब्राह्मणस्य करिष्यन्। ब्राह्मणस्य करिष्यमाणः।
[३|२|१२८] पूङ्यजोः शानन् - पूङ् तथा यज धातुओं से शानन् प्रत्यय होता है। | पू + शानन् == पवमानः, यज् + शानन् == यजमानः।
[३|२|१२९] ताच्छील्य वयोवचनशक्तिषु चानश् - ताच्छील्य, वयोवचन तथा शक्ति अर्थ में धातु से चानश् प्रत्यय होता है। | ताच्छील्य में - कतीह मुण्डयमानाः (कितने यहाँ मुण्डन किये हुए हैं)। कतीह भूषयमाणाः (कितने यहाँ सजे हुए हैं )। वयोवचन में - कतीह कवचं पर्यस्यमानाः (कितने यहाँ कवच धारण कर सकते हैं? कवच धारण करने से शरीर की अवस्था यौवन का पता चलता है, क्योंकि बच्चे या बुड्ढे कवच धारण नहीं कर सकते)।
[३|२|१३०] इङ्धार्योः शत्रकृच्छ्रिणि - इङ् धातु तथा धारि धातु से वर्तमान काल में शतृ प्रत्यय होता है यदि प्रत्यान्त् वाच्य कर्त्ता के लिए क्रिया कष्टसाध्य न हो। | अधि + इ + शतृ == अधीयन्, धृ + णिच् + शतृ == धारयन्।
[३|२|१३१] द्विषोऽमित्रे - अमित्र कर्तृक `द्विषु` धातु से वर्तमान काल में शतृ प्रत्यय होता है। | द्विषन् (शत्रु), द्विषन्तौ।
[३|२|१३२] सुञोयज्ञसंयोगे - यज्ञसंयुक्त अभिषव अर्थ में वर्तमान `सु` धातु से शतृ प्रत्यय होता है। | यजमानाः सुन्वन्तः (सोमरस निचोड़ते हुए यजमान)।
[३|२|१३३] अर्हः प्रशंसायाम् - अर्ह धातु से प्रशंसा अर्थ में शतृ प्रत्यय होता है। | अर्हन् इह भवान् विद्याम् (आप विद्या पढ़ने के योग्य हैं)। अर्हन् इह भवान् पूजाम् (आप सत्कार के योग्य हैं) सिद्धि पूर्ववत् हैं।
[३|२|१३४] आ क्वेस्तच्छीलतद्धर्म तत्साधुकारिषु - इस सूत्र से लेकर भ्राज-भास-धुर्वि-द्युतोर्जि-पॄजु-ग्रावस्तुवःक्विप् (३_२_१७७) से विहित क्विप् प्रत्यय तक सभी प्रत्यय (इसमें क्विप भी शामिल है) तच्छील (स्वभाव से किसी कार्य में प्रवृत्त होना), तद्धर्म (बिना स्वभाव भी किसी कार्य में प्रवृत्त होना) और तत्साधुकारिता (किसी काम को सुन्दरता से करना)- इन अर्थों में प्रयुक्त होते हैं। | तच्छील == फल की आकांक्षा बिना किये स्वभाव से ही उस क्रिया में प्रवृत्त होनेवाला। तद्धर्मा == स्वभाव के बिना भी, अपना धर्म समझकर उस क्रिया में प्रवृत्त होनेवाला। तत्साधुकारी == उस क्रिया को कुशलता से करनेवाला।
[३|२|१३५] तृन् - तच्छील, तद्धर्म और तत्साधुकारी कर्ता में धातु से तृन् प्रत्यय होता है। | कर्ता कटान् में कटान् करोति तच्छीलः (चटाई बनाना जिसका स्वभाव है)- इस अर्थ में प्रकृत सूत्र द्वारा कृ धातु से त्रिन् प्रत्यय हुआ है। तब कृ तृ रूप बनने पर आर्धधातुक गुण होकर क् अर् तृ = कर्तृ रूप बङ्गा। यहाँ प्रातिपादिक संज्ञा होने पर प्रथमा के एकवचन में कर्ता रूप सिद्ध होता है।
[३|२|१३६] अलंकृञ्निराकृञ्प्रजनोत्पचोत्पतोन्मदरूच्यपत्रपवृतुवृधुसहचर् इष्णुच् - अलंकृञ्, निराकृञ् आदि धातुओं से तच्चील आदि अर्थों में इष्णुच् प्रत्यय होता है। | अलं + कृ + इष्णुच् == अलंकरिष्णुः, इसी प्रकार निराकरिष्णुः, प्रजनिष्णुः, उत्पचिष्णुः, उत्पतिष्णुः, उन्मदिष्णुः, रोचिष्णुः, अपत्रपिष्णुः, वार्तिष्णुः, वर्धिष्णुः, सहिष्णुः, चरिष्णुः ।
[३|२|१३७] णेश्छन्दसि - ण्यन्त धातु से तच्चीलादि अर्थ में इष्णुच् प्रत्यय होता है वेद में | धृ + णिच् + इष्णुच् == धारयिष्णवः इसी प्रकार वीरुधः, पारयिष्णवः।
[३|२|१३८] भुवश्च - भू धातु से भी छन्दोविषय में तच्छीलादि अर्थ में इष्णुच् प्रत्यय होता है। | भू + इट् + इष्णुच् == भविष्णुः।
[३|२|१३९] ग्लाजिस्थश्च ग्स्नुः - ग्लै, जि, स्था तथा भू धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में क्स्नु प्रत्यय होता है। | ग्लै + ग्स्नु == ग्लास्नुः, इसी प्रकार जिष्णुः, स्थास्नु, भूष्णुः।
[३|२|१४०] त्रसिगृधिधृषिक्षिपेः क्नुः - त्रस, गृध, धृष एवम् क्षिप धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में क्नु प्रत्यय होता है। | त्रस् + नु == त्रस्नुः, गृध् + नु == गृध्नुः, धृष् + नु == धृष्णु, क्षिप् + नु == क्षिप्नुः।
[३|२|१४१] शमित्यष्टाभ्यो धिनुण् शम आदि आठ धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में धिनुण् प्रत्यय होता है। | शम् + धिनुण् == शमी, इसी प्रकार तमी, दमी, श्रमी, क्षमी, क्लमी, प्रमादी, उन्मादी।
[३|२|१४२] संपृचानुरुधाङ्-यमाङ्-यस-परिसृसंसृज-परिदेवि-संज्वर-परिक्षिप-परिरट-परिवद-परिदह-परिमुह-दुष-द्विषद्रुह-दुह-युजाक्रीड-विविचत्यज-रज-भजातिचरापचरामु-षाभ्याहनश्च सम्पृच् अनुरुध आदि धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में धिनुण् प्रत्यय होता है। | सम् + पृच् + धिनिण् == सम्पर्की, अनु + रुध् + धिनुण् == अनुरोधी, इसी प्रकार आयामी, आयासी, परिसारी, संसर्गी, परिदेवी, संज्वारी, परिक्षेपी, परिराटी, परिवादी, परिदाही, परिमोही, दोषी, द्रोही, दोही, योगी, आक्रीड़ी, विवेकी, त्यागी, रागी, अतिचारी, अपचारी, आमोषी, अभ्याघाती ।
[३|२|१४३] वौ कष लस कत्थ स्त्रम्भः - वि उपसर्ग से विशिष्ट `कष `, `लसऄ, `कत्थऄ तथा स्त्रम्भु धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में धिनुण् प्रत्यय होता है। | विकाषी, विलासी, विकत्थी, विस्त्रम्भी।
[३|२|१४४] अपेचलषः - अपोपपदक तथा व्युपपदक `लषऄ धातु से भी तच्छीलादि अर्थों में धिनुण् प्रत्यय होता है। | अप + लष् + धिनुण् == अपलाषी, वि + लष् + धिनुण् == विलाषी।
[३|२|१४५] प्रे लपसृद्रुमथवदवसः - प्रोपसर्गक `लपऄ, `सृ`, `द्रु`, `मन्थऄ, `वदऄ तथा `वसऄ धातुओं से धिनुण् प्रत्यय होता है। | प्र + लप् + धिनुण् == प्रलापी, प्र + सृ + धिनुण् == प्रसारी, प्र + द्रु + धिनुण् == प्रद्रावी, प्र + मथ् + धिनुण् == प्रमाथी, प्र + वाद् + धिनुण् == प्रवादी, प्र + वास् + धिनुण् == प्रवासी।
[३|२|१४६] निन्दहिंसक्लिशखादविनाश परिक्षिपपरिरटपरिवादिव्याभाषासूञोवुञ् - `निन्दऄ, `हिंसऄ, `क्लिशऄ, `खादऄ, व्युपसर्गक ण्यन्त `नशऄ, पर्युपसर्गक `क्षिपऄ पर्युपसर्गक `रटऄ पर्युपसर्गक ण्यन्त `वदऄ, व्याङुपसर्गक `भाषऄ तथा ` असूयऄ धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में वुञ् प्रत्यय होता है। | निन्द् + वुञ् == निन्द् + अक् == निन्दकः, इसी प्रकार हिंसकः, क्लेशकः, खादकः, विनाशकः, परिक्षेपकः, परिराटकः, परिवादकः, व्याभाषकः, असूयकः ।
[३|२|१४७] देविक्रुशोश्चोपसर्गे - उपसर्ग विहिशष्ट ण्यन्त `दिव् ` तथा `क्रुशऄ धातुओं से वुञ् प्रत्यय होता है। | आ + दिव् + वुञ् == आदेवकः, इसी प्रकार परिदेवकः, आक्रोशकः, परिक्रोशकः।
[३|२|१४८] चलनशब्दार्थादकर्मकाद् युच् - अककर्म चलनार्थक तथा शब्दार्थक द्जातुओं से तच्छीलादि अर्थों में युच् प्रत्यय होता है। | चल् + युच् == चलनः, इसी प्रकार चोपनः, शब्दनः, रवणः।
[३|२|१४९] अनुदात्तेतश्च हलादेः - हलादि अकर्मक अनुदात्तेत् धातु से भी युच् प्रत्यय होता है। | वृत् + युच् == वर्तनः, वर्द्धनः, स्पर्द्धनः।
[३|२|१५०] जु चङ्क्रम्यदन्द्रम्यसृगृधिज्वलशुचलषपतपदः - जु, यङन्त `क्रमऄ, यङन्त `द्रमऄ, सृ, गृध, ज्वल, शुच्, लष, पत, तथा पद धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में युच् प्रत्यय होता है। | जु + युच् == जवनः, इसी प्रकार अहङ्क्रमणः, दन्द्रमणः, सरणः, गर्द्धनः, ज्वलनः, शोचनः, लषणः, षतनः, पदनः ।
[३|२|१५१] क्रुध मण्डार्थेभ्यश्च - क्रोधार्धक तथा भूषणार्थक धातुओं से भी युच् प्रत्यय होता है। | क्रोधनः, मण्डनः, रोषणः, भूषणः।
[३|२|१५२] न यः - यकारान्त धातुओं से युच् प्रत्यय नहीं होता। | क्नूयिता (शब्द करनेवाला), क्ष्मायिता (कम्पित होने वाला)। इनमें (३_२_१४९) से क्नूयी क्ष्मायी से "युच्" प्राप्त था वह नहीं हुआ, तो ((३_२_१३५) से "तृन्" प्रत्यय हो गया। "सेट्" होने से "इट्" आगम होगा।
[३|२|१५३] सूद दीपदीक्षश्च - `सुदऄ, `दीपऄ तथा `दीक्षऄ धातुओं से भी युच् प्रत्यय नहीं होता। | सूदिता, दीपिता, दीक्षिता
[३|२|१५४] लषपतपदस्थाभूवृषहनकम गमशॄभ्य उकञ् - `लष`, `पतऄ, `पदऄ आदि धातुओं से उकञ् प्रत्यय होता है। | अप + लष् + उकञ् == अपलाषुकं
[३|२|१५५] जल्पभिक्षकुट्टलुण्टवृडः षाकन् - तच्छील, तद्धर्म और तत्साधुकारी कर्ता अर्थ में जल्प् (बोलना), भिक्ष (भीख मांगना), कुट्ट (काटना-पीसना), लुण्ट् (लूटना) और वृङ् (सेवा करना, पूजा करना) - इन पाँच धातुओं से षाकन् प्रत्यय होता है। | जल्प् + षाकन् == जल्पाकः, भिक्षाकः, कुट्टाकः, लुण्टाकः, वराकः।
[३|२|१५६] प्रजोरिनिः - प्रपूर्वक `जु` धातु से तच्छीलादि अर्थों में इनि प्रत्यय होता है। | प्र + जि + इनि == प्रजवी।
[३|२|१५७] जिदृक्षिविश्रीण्वमाव्यथाभ्यमपरिभू प्रसूभ्यश्च - जि, दृङ्, क्षि, विपूर्वक श्रिञ्, इण्, वम्, नञ्पूर्वक, व्यथ अभिपूर्वक अम, परिपूर्वक भू तथा प्रपूर्वक सु धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में इनि प्रत्यय होता है। | जि + इनि == जयी इसी प्रकार दरी, क्षयी, विश्रयी, अत्ययी, वमी, अव्यथी, अभ्यमी, परिभवी, प्रसवी।
[३|२|१५८] स्पृहि-गृहि-पति-दयि-निद्रा-तन्द्रा-श्रद्धाभ्य आलुच् - `स्पृहऄ, `गृहऄ आदि धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में आलुच् प्रत्यय होता है। | स्पृह् + णिच् + आलुच् == स्पृहयालुः। इसी प्रकार गृहयालुः, परयालुः, दय् + आलुच् == दयालुः, नि + द्रा + आलुच् == निद्रालुः, तत् + द्रा + आलुच् == तन्द्रालुः, श्रद् + धा + आलुच् == श्रद्धालुः।
[३|२|१५९] दा-धेट्-सि-शद-सदो रुः - `दा`, `धेटऄ, `सॎ, `शदऄ तथा `सद् ` धातुओं से रुप्रत्यय होता है। | दारुः, धारुः, सेरुः, शद्रुः, सद्रुः।
[३|२|१६०] सृघस्यदःक्मरच् - `सृ, `घसऄ तथा ` अद्रऄ धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में घुरच् प्रत्यय होता है। | सृमरः, घस्मरः, अद्मरः।
[३|२|१६१] भञ्जभासमिदोघुरच् - `भञ्जऄ, `भासऄ तथा `भिद्रऄ धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में घुरच् प्रत्यय होता है। | भञ्ज् + घुरच् == भङ्गुरं
[३|२|१६२] विदि-भिदिच्छिदेः कुरच् - (ज्ञानार्थक) `विदऄ, `भिद्रऄ तथा `छिद्रऄ धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में कुरच् प्रत्यय होता है। | विदुरः (पण्डित)। भिदुरं काष्ठम् (फटकनेवाली लकड़ी), छिदुरा रज्जुः (टूटनए वाली रस्सी)। "कुरच्" का अनुबन्धलोप होकर "उर" रह जाता है।
[३|२|१६३] इण्नश्जिसर्तिभ्यःक्वरप् - ` इण`, `नशऄ, `जॎ तथा `सृ` धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में क्वरप् प्रत्यय होता है। | इ + क्वरप् == इत्वरः । इसी प्रकार नश्वरः, जित्वरः, सृत्वरः।
[३|२|१६४] गत्वरश्च - `गम् ` धातु से क्वरप् प्रत्यय तथा अनुनासिक का लोप होता है। | ग + तुक् + क्वरप् == गत्वरः (गमनशील)।
[३|२|१६५] जागरूकः - `जागृ` धातु से तच्छीलादि अर्थों में ऊक प्रत्यय होता है। | जागृ + ऊक == जागरूकः।
[३|२|१६६] यजजपदशांयङः - यङन्त, `यजऄ, `जपऄ, `दंशऄ धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में `रऄ प्रत्यय होता है। | यायज् + ऊक == यायजूकः, जञ्जप् + ऊक == जञ्जपूकः, दन्दश् + ऊक == दन्दशूकः ।
[३|२|१६७] नमि-कम्पि-स्म्यजस-कम-हिंस-दीपो-रः - `नमॎ, `कम्पॎ आदि धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में `रऄ प्रत्यय होता है। | नम् + र == नम्र, इसी प्रकार कम्प्रा, स्मेरं, अहस्त्रं, कम्रा, हिंसो, हिस्त्रं, दीप्रं।
[३|२|१६८] सनाशंस-भिक्ष उः - तच्छेल, तद्धर्म और तत्साधुकारी कर्ता अर्थ में सनप्रत्ययान्त (जिस धातु के अन्त में सन् प्रत्यय हुआ हो), आशंस और भिक्ष् धातुओं से उ प्रत्यय होता है। | सन्नन्त चिकीर्ष से उ प्रत्यय होकर चिकीर्ष उ रूप बनने पर अकार-लोप होकर चिकीर्ष उ = चिकीर्षु रूप बनेगा। तब प्रातिपादिक संज्ञा हो प्रथम के एकवचन में चिकीर्षुः रूप सिद्ध होता है।
[३|२|१६९] विन्दुरिच्छुः - `विदऄ धातु से ` उ` प्रत्यय तथा नुँमागम का और ` इषऄ धातु से ` उ` प्रत्यय तथा ष के स्थान में छ आदेश का निपातन। | वेदनशीलो विन्दुः (ज्ञानशील), एषणशील इच्छुः (इच्छुक)।
[३|२|१७०] क्याच्छन्दसि - क्यजन्त, क्यङन्त तथा क्यषन्त धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में ` उ` प्रत्यय छन्दोविषय होता है। | देवयुः, सुम्नयुः, अघायवः।
[३|२|१७१] आदृगमहनजनःकिकिनौलिट्-च - अकारान्त, ऋवर्णन्त, गम्, हन्, तथा कन् धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में `कॎ तथा `किन् ` प्रत्यय होता है। वेद के दोनों ही प्रत्ययों को लिङवद्भाव हो जाता है। | पपिः सोमं ददिर्गाः। मुत्रावरुणै ततुरिः। दूरे ह्मध्वा जगुरिः। जग्मिर्युवा। जघ्निर्वृत्रम्। जज्ञिर्बीजम्।
[३|२|१७२] स्वपि-तृषोर्नजिङ् - `स्वप् ` तथा `तृषऄ धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में नजिङ् प्रत्यय होता है। | स्वप् + नजिङ् == स्वप्नजः, तृष् + नजिङ् == तृष्णजः
[३|२|१७३] शॄवन्द्योरारुः - `शृ` तथा `वन्दॎ धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में आरु प्रत्यय होता है। | शॄ + आरु == शरारुः, वन्द् + आरु == वन्दारुः।
[३|२|१७४] भियःक्रुक्लुकनौ - `भी ` धातु से तच्छीलादि अर्थों में क्रुक् तथा लुकन् प्रत्यय होता है। | भी + क्रु == भीरुः, भीलुकः == भी + क्लुकन्।
[३|२|१७५] स्थेशभासपिसकसोवरच् - स्था , ईश, भासृ तथा कस धातुओं से तच्छीलादि अर्थों में वरच् प्रत्यय होता है। | स्थावरः, ईश्वरः, भास्वरः, पेस्वरः, कस्वरः।
[३|२|१७६] यश्च यङः - यङन्त `या` धातु से भी वरच् प्रत्यय होता है। | यायावरः।
[३|२|१७७] भ्राज-भास-धुर्वि-द्युतोर्जि-पॄजु-ग्रावस्तुवःक्विप् - तच्छेल, तद्धर्म और तत्साधुकारी कर्ता अर्थ में भ्राज (भ्वादिओ, चमकना), भास् (भ्वादि०चमकना), धुर्व (भ्वादि०, दुख देना), द्युत् (भ्वादि०, चमकना), ऊर्ज (चुरादि०, शक्तिमान होना), पॄ (पालन-पोषण करना, भरना), जु तथा ग्राव उपपदपूर्वक स्तु (स्तुति करना)- इन आठ धातुओं से क्विप् प्रत्यय होता है। | वि पूर्वक भ्राज धातु से तच्छील कर्ता अर्थ में प्रकृत सूत्र द्वारा क्विप् होकर वि भ्राज् व् रूप बनता है। अन्य उदाहरण - वि + भ्राज् == विभ्राट् (विभ्राजौ), भा + क्विप् == भाः (भासौ), धुर्व् + क्विप् == धूः (धूरौ)।
[३|२|१७८] अन्येभ्योऽपि दृश्यते - अन्य धातुओं से भी तच्छीलादि अर्थों में क्विप् प्रत्यय होता है। | पच् + क्विप् == पक्, भिद् + क्विप् == भित्, यु + क्विप् == युक्।
[३|२|१७९] भुवःसंज्ञान्तरयोः - `भू ` धातु से क्विप् प्रत्यय होता है। संज्ञा तथा अन्तर अर्थों के गम्यमान होने पर। | वि + भू == विभूः, स्वयम् + भू == स्वयम्भूः, प्रति + भू == प्रतिभूः।
[३|२|१८०] विप्रसंभ्योड्वसंज्ञायाम् - वि, प्र तथा सम् उपसर्गों में विशिष्ट् `भू ` धातु से `डु` प्रत्यय होता है यदि संज्ञा की प्रतीति समुदाय से न होती हओ। | वि + भू + डु == विभुः, प्र + भू + डु == प्रभुः, सम् + भू + डु == सम्भुः।
[३|२|१८१] धः कर्मणि ष्ट्रन् - धेट् तथा धाञ धातुओं से कर्मकारक में ष्ट्रन् प्रत्यय होता है। | धीयते असौ धात्री।
[३|२|१८२] दाम्नीशसयुयुजस्तुतुदसिसिचमिहपतदशनहःकरणे - करण कारक में दाप् (काटना), नी (ले जाना), शस् (मारना), यु (मिलाना), युज् (जोड़ना), स्तु (स्तुति करना), तुद् (पीड़ा पहुँचाना), सि (बन्धन), सिच् (शींचना), मिह् (सींचना), पत् (गिरना), दश् (डंसना) और नह् (बांधना)- इन तेरह धातुओं से ष्ट्रन् प्रत्यय होता है। | दाति अनेन (इससे काटा जा सकता है) इस अर्थ में दाप् (दा) धातु से ष्ट्रन् होकर दात्र रूप बनता है। यहाँ त्र (ष्ट्रन्) प्रत्यय वलादि आर्धधातुक है, अतः आर्धधातुकस्येड् वलादेः (७_२_३५) से इडागम् प्राप्त होता है। दा + ष्ट्रन् == दात्रम्, नी + ष्ट्रन् == नेत्रम्, शस् + ष्ट्रन् == शस्त्रम्, यु + ष्ट्रन् == योत्रम् (युक्त्रम्), स्तु + ष्ट्रन् == स्तोत्रम्, तुद् + ष्ट्रन् == तोत्त्रम्, सि + ष्ट्रन् == सेत्रम्, सिच् + ष्ट्रन् == सेक्त्रम्, मिह् + ष्ट्रन् == मेढ्रम्, पत् + ष्ट्रन् == पत्रम्, दंश् + ष्ट्रन् == दंष्ट्रा, नह् + ष्ट्रन् == नद्ध्रम्।
[३|२|१८३] हल-सूकरयोः पुवः - `पू ` तथा `पूङ् ` धातुओं से हलावयवात्मक तथा सूकरावयवात्मक करणकारकार्थ में ष्ट्रन् प्रत्यय होता है। | पू + ष्ट्रन् == पोत्रम्।
[३|२|१८४] अर्तिलूधूसूखनसहचरइत्रः - करण कारक में ऋ (जाना), लू (काटना), धू (कांपना), सू (प्रेरणा देना), खन् (खनना, सह् (सहना) और चर् (चलना या खाना)- इन सात धातुओं से इत्र प्रत्यय होता है। | करण कारक में ऋ धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा इत्र होकर ऋ इत्र रूप बनेगा। तब आर्धधातुक गुण को अर् इत्र = अरित्र रूप बनने पर प्रातिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के नपुंसकलिङ्ग-एकवचन में अरित्रम् (नाव चलाने का डंडा) रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण == ऋ + इत्र == अरित्रम्, लू + इत्र == लवित्रम्, धू + इत्र == धवित्रम्, सू + इत्र == सवित्रम्, खन् + इत्र == खनित्रम्, सह् + इत्र == सहित्रम्, चर् + इत्र == चरित्रम्।
[३|२|१८५] पुवःसंज्ञायाम् - संज्ञा अर्थ में करण कारक में पूङ् (भ्वादि०, निर्मल करना) और पूञ् (क्रियादि०, निर्मल करना) से इत्र प्रत्यय होता है। | पूयते अनेन (इससे शुद्ध किया जाता है)- इस विग्रह में पू (पूङ्, पूञ्) से इत्र होकर पू इत्र रूप बनता है। यहाँ आर्धधातुक गुण अवादेश और प्रातिपादिक संज्ञा आदि होकर प्रथमा के नपुंसकलिङ्ग-एकवचन में पवित्रम् रूप सिद्ध होता है।
[३|२|१८६] कर्तरि चर्षि-देवतयोः - `पूङ् ` तथा `पूञ् ` धातुओं से ऋष्यात्मक करणकारकार्थ में तथा देवतात्मक कर्त्तकारकार्थ में इत्र प्रत्यय होता है। | पवित्रोऽयम् ऋषिः (जिसके द्वारा पवित्र जिया जाये वह मन्त्र)। देवता में - अग्निः पवित्रं स मां पुनातु (अग्नि पवित्र है, वह मेरी रक्षा करे)।
[३|२|१८७] ञीतःक्तः ` ञीत् ` धातु से वर्तमानार्थ में `क्तऄ प्रत्यय होता है। | ञिमिदा - मुन्नः। ञिक्ष्विदा - क्ष्विण्णः। ञिधृषा - धृष्टः।
[३|२|१८८] मतिबुद्धिपूजार्थेभ्यश्च - इच्छार्थक, ज्ञानार्थक तथा सत्कारार्थक धातुओं से वर्तमान काल में `क्तऄ प्रत्यय होता है। | मन् + क्त == मतः, इष् + क्त == इष्टः, बुध् + क्त == बुद्धः, ज्ञा + क्त == ज्ञातः, पूज् + णिच् + इट् + क्त == पूजितः।
[३|३|१] उणादयो बहुलम् - वर्तमान काल में संज्ञा अर्थ में धातु से उण् आदि प्रत्यय बहुलता में होते हैं। | कृपाजिमिस्वदिसाध्यशूभ्य उण् से कृ, वा, पा, जि, मि, स्वद्, साध् और अश् धातु से उण् प्रत्यय होता है। उण् का णकार इत्संज्ञक है, अतः केवल उ ही शेष रह जाता है।कृ से उण् होकर कृ उ रूप बनने पर वृद्धि- आर् होकर क् आर् उ = कारु रूप बनता है। यहाँ प्रातिपादिक संज्ञा हो प्रथमा के पुल्लिंग-एकवचन में कारुः रूप सिद्ध होता है।
[३|३|२] भूतेऽपि दृश्यन्ते - भूतकाल में भी उणादि प्रत्यय होते है। | वृत्तमिदं वर्त्म (मार्ग)। चरितं तच्चर्म (चमड़ा)। भसितं तदिति भस्म (राख)
[३|३|३] भविष्यति गम्यादयः भविष्यत् काल में गमी आदि शब्द साधु हैं। | गमी ग्रामम्। आगामी। प्रस्थायी। प्रतिरोधी। प्रतिबोधी। प्रतियोधी। प्रतियोगी। प्रतियायी। आयायी। भावी।
[३|३|४] यावत्पुरानिपातयोर्लट् - याव् तथा पुरा इन दोनों में से किसी भी निपात के उपपद होने से धातु से भविष्यत् काल में लट् प्रत्यय होता है। | यावद् भुङ्क्ते, पुरा भुङ्क्ते।
[३|३|५] विभाषा कदा-कर्ह्मोः - कदा तथा कर्हि के उपपदत्व मे धातु से भविष्यत् काल में विकल्प से लट् प्रत्यय होता है। | (कब खायेगा) लट् == कदा भुङ्क्ते, ऌट् == कदा भोक्ष्यते, लुट् == कदा भोक्ता।
[३|३|६] किंवृत्ते लिप्सायाम् - विभक्त्यन्त कि शब्द तथा डरप्रत्ययान्त एवम् डतमप्रत्ययान्त किम् शब्द के उपपद होने पर धातु से भविष्यत् काल में लट् प्रत्यय विकल्प से लिप्सा के गम्यमान होने पर होता है। | (आप किसको खिलायेंगे) == लट् == कं, कतरं, कतमं वा भवान् भोजयति । ऌट् == कं, कतरं, कतमं वा भवान् भोजयिष्यति, लुट् == कं, कतरं, कतमं वा भवान् भिजयिता।
[३|३|७] लिप्स्यमानसिद्धौ च - लिप्स्तमान प्रयुक्त सिद्धि के गम्यमान होने पर धातु से भविष्यत् काल में विकल्प से लट् प्रत्यय होता है। | (जो भात देगा वह स्वर्ग जायेगा) == लट् यो भक्तं ददाति स स्वर्गं गच्छति। ऌट् == यो भक्तं दास्यति स स्वर्ग गमिष्यति। लुट् == यो भक्तं दाता स स्वर्ग गन्ता।
[३|३|८] लोडर्थलक्षणे च - प्रैषादि लोडर्थ के लक्षक धातु से भविष्यत् काल में लट् प्रत्यय विकल्प से होता है। | यदि य्पाध्याय जी आ जायेंगे, तो तुम छन्द तथा व्याकरण पढ़ना। लट् == उपाध्यायश्चेद् आगच्छति, अथ त्वं छन्दोऽधीष्व, व्याकरणमधीष्व। ऌट् == उपाध्यायश्चेद् आगमिष्यति, अथ त्वं छन्दोऽधीष्व, व्याकरणमधीष्व। लुट् == उपाध्यायश्चीद् आगन्ता, अथ त्वं छन्दोऽधीष्व, व्याकरणमधीष्व।
[३|३|९] लिङ् चोर्ध्वमौहूर्तिके - एक मुहुर्त के बाद भविष्यत् काल में होने वाले लोडर्थलक्षक धातु से विकप से लिङ् तथा लट् प्रत्यय होता है। | मुहूर्त्तस्य पश्चाद् उपाध्यायश्चेद् आगच्छेत् अगच्छति अगमिष्यति अगन्ता वा, अथ त्वं छन्दोऽधीष्व।
[३|३|१०] तुमुन्ण्वुलौक्रियायांक्रियार्थायाम् - क्रियार्थ क्रिया के उपपद रहने पर भविष्यत् अर्थ में धातु से तुमुन् और ण्वुल् प्रत्यय होते हैं। | कृष्णं द्रष्टिं याति (कृष्ण को देखने के लिए जाता है) में गमन क्रिया दर्शन क्रिया के लिए हो रही है। अतः क्रियार्थ गमन क्रिया या धातु के समीप रहते भविष्यत् अर्थ में दृश् धातु से तुमुन् प्रत्यय हो दृश् तुम् रूप बनेगा। तब अमागम, मकार-लोप और यणादेश आदि होकर द्रष्टु रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार दृश् से ण्वुल् प्रत्यय हो दर्शकः रूप बनता है।
[३|३|११] भाववचनाश्च - भाववाचक प्रत्यय भी क्रियार्था क्रिया के उपपद होने पर धातु से भविष्यत् काल में तुमुन तथा ण्वुल् प्रत्यय होते हैं। | पुष + क्तिन् == पुष् + टि =(ष्टुत्व) होकर= पुष्टिः।पाकाय व्रजाति। भूतये व्रजति। पुष्टये व्रजति।
[३|३|१२] अण् कर्मणि च - कर्मकारक तथा क्रियार्था क्रिरा के भी उपपद होने पर भविष्यत् काल में धातु से अण् प्रत्यय होता है। | काण्डलावो व्रजति (शाखा को काटेगा, इसलिए जाता है)। गोदायो व्रजति (गौ देगा, इसलिए जाता है)।अश्वदायो व्रजति (अश्व देगा, इसलिए जाता है)। इनमें लवन एवं दान क्रिया के लिए व्रजि कृयार्थ ल्रिया उपपद है। सो (३_३_१०) सूत्र से "ण्वुल्" प्राप्त था, "अण्" कह दिया है। "लू" धातु के "काण्ड" तथा दा धातु के "गो" कर्म उपपद में हैं। सिद्धि में लू को लौ वृद्धि एवं आवादेश तथा दा को (७_३_३३) से युक् आगम हो जायेगा।
[३|३|१३] ऌट् शेषे च - भविष्यकाल की विविक्षा में धातु से ऌट् होता है, क्रियार्थ क्रिया चाहे विद्यमान हो चाहे न हो। | अहं पठिष्यामि में क्रियार्थ-क्रिया नही है, तब भी धातु से ऌट् लकार हुआ है।
[३|३|१४] ऌटःसद्वा - जब प्रथमा विभक्ति से समानाधिकरण होता है तब ऌट् के स्थान पर विकल्प से शतृ और शानच होते हैं। | करिष्यन्तं करिश्यमाणं पश्य ( आगे करने वाले को देख) में कृ धातु से परे ऌट् को शतृ और शानच् होकर क्रमशः कृ अत् और कृ आन् रूप बनते हैं। तब स्य और इट् आदि होकर करिष्यत और करिष्यमाण रूप बनने पर प्रतिपादिक संज्ञा होकर द्वितिया के एकवचन में करिष्यन्तं और करिष्यमाणं रूप सिद्ध होते हैं।
[३|३|१५] अनद्यतनेलुट् - अनद्यतन भविष्यत् काल में लुट् लकार होता है। अर्थात अनद्यतन भविष्यत् काल में धातु से लुट् लकार का प्रयोग होता है। | रावणः श्वः कर्ता (रावण कल करेगा)
[३|३|१६] पदरुजविशस्पृशोघञ् - `पदऄ, `रुजऄ, `विशऄ तथा `स्पृशऄ धातुओं से घञ् प्रत्यय होता है। | पद् + घञ् == पादः। इसी प्रकार रोगः, वेशः, स्पर्शः।
[३|३|१७] सृस्थिरे - `सृ` धातु से स्थिरत्वविशिष्टकर्त्रर्थ में घञ् प्रत्यय होता है। | चन्दनसारः (चन्दन का चूरा), खदिरसारः (कत्था)। उदाहरण में चन्दन तथा खदिर के साथ "रास" का षष्ठीतत्पुरुष समास हुआ है। वृद्धि आदि कार्य घञन्त के समान ही जानें।
[३|३|१८] भावे - भाव अर्थ में धातु से घञ् प्रत्यय होता है। | भाव में पच् धातु से घञ् प्रत्यय हो पच् घञ् रूप बनता है। घञ् के घकार और ञकार इत्संज्ञक है, अतः उनका लोप हो पच् अ रूप बनेगा। तब उपधा वृद्धि और कुत्व हो पाक रूप बनने पर प्रातिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के पुल्लिंग-एकवचन में पाकः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - पच् + घञ् == पाकः (पकाना), त्यज् + घञ् == त्यागः (त्यागना), रञ्ज् + घञ् == रागः (रँगना)।
[३|३|१९] अकर्तरिचकारकेसंज्ञायाम् संज्ञा अर्थ में कर्ता-भिन्न कारक (कर्ता-कारक को छोड़कर अन्य किसी भी कारक) में धातु से घञ् प्रत्यय होता है। | रज्यतेऽनेन (इससे रंगा जाता है) - इस अर्थ में रञ्ज् धातु से करण-कारक में प्रकृत सूत्र द्वारा घञ् प्रत्यय रञ्ज् अ रूप बनेगा।
[३|३|२०] परिमाणाख्यायां सर्वेभ्यः - परिमाण संज्ञा के अर्थ में सभी धातुओं से घञ् प्रत्यय होता है। | कॄ + घञ् == काराः।
[३|३|२१] इङ्श्च - इड् धातु से भी घञ् प्रत्यय होता है। | अधि + इङ् + घञ् == अध्यायः इसी प्रकार उपाध्याय।
[३|३|२२] उपसर्गेरुवः - उपसर्गोपपदक `रु` धातु से घञ् प्रत्यय होता है। | रु + घञ् == संरावः (आवाज), इसी प्रकार उपरावः (आवाज), विरावः (आवाज)।
[३|३|२३] समियुद्रुदुवः - समुपपदक `यु`, `द्रु` धातुओं से घञ् प्रत्यय होता है। | सम् + यु + घञ् == संयावः (हलुवा) इसी प्रकार सन्द्रावः (भागना), सन्दावः (भागना)
[३|३|२४] श्रिणीभुवोऽनुपसर्गे - अनुपसर्गक `श्रि `, `नी ` तथा `भू ` धातुओं से घञ् प्रत्यय होता है। | श्रि + घञ् == श्रायः (आश्रय), इसी प्रकार नायः (ले जाना), भावः (होना)।
[३|३|२५] वौक्षुश्रुवः - वि के उपपद होने पर `क्षु` तथा `श्रु` धातुओं से घञ् प्रत्यय होता है। | वि + क्षु + घञ् == विक्षावः (शब्द करना), इसी प्रकार विश्रावः(अति प्रसिद्धि होना)।
[३|३|२६] अवोदोर्नियः - अव तथा उत् के उपपद होने पर `नी ` धातु से घञ् प्रत्यय होता है। | अव + नी + घञ् == अवनायः (अवनति), इसी प्रकार उन्नायः (उन्नति)।
[३|३|२७] प्रेद्रुस्तुस्रुवः - प्र शब्द के उपपद होने पर `द्रु`, `स्तु` तथा `स्त्रु` धातुओं से घञ् प्रत्यय होता है। | प्र + द्रु + घञ् == प्रद्रावः (भागना), इसी प्रकार प्रस्तावः (प्रस्ताव), प्रस्त्रावः (बहना)।
[३|३|२८] निरभ्योःपूल्वोः - निपूर्वक `पूङ` तथा `पू ` धातुओं से अभिपूर्वक `लूञ् ` धातु से घञ् प्रत्यय होता है। | निस् + पू + घञ् == निष्पावः (पवित्र करना), इसी प्रकार अभिलावः (काटना)।
[३|३|२९] उन्न्योर्ग्रः - उत्पूर्वक तथा निपूर्वक `गृ` धातु से घञ् प्रत्यय होता है। | उद् + गॄ + घञ् == उद्गारः (वमन, आवाज), इसी प्रकार निगारः (भोजन)।
[३|३|३०] कॄधान्ये - उत्पूर्वक `कॄ` धातु से घञ् प्रत्यय होता है यदि धात्वर्थ का सम्बन्ध धान्य से हो। | उत् + कॄ + घञ् == उत्कारो, इसी प्रकार निकारो।
[३|३|३१] यज्ञेसमिस्तुवः - यज्ञविषयक प्रयोग में सम्पूर्वक `स्तु` धातु से घञ् प्रत्यय होता है। | सम् + स्तु + घञ् == संस्तावः।
[३|३|३२] प्रेस्त्रोऽयज्ञे - यदि यज्ञविषयक प्रयोग न हो तो `स्तृञ् ` धातु से घञ् प्रत्यय होता है। | प्र + स्तॄ + घञ् == प्रस्तार (विस्तार)
[३|३|३३] प्रथनेवावशब्दे - विपूर्वक `स्तृञ् ` धातु से घञ् प्रत्यय होता है यदि उससे शब्दातिरिक्तविषयक प्रथन (विस्तार) की प्रतीति हो। | वि + स्तॄ + घञ् == विस्तार (फैलाव)
[३|३|३४] छन्दोनाम्नि च - निपूर्वक `स्तृञ् ` धातु से घञ् प्रत्यय होता है यदि समुदाय से छान्दोविशेष (वृत) का अभिधान होता है। | विष्टारपङ्क्तिश्छन्दः, विष्टारबृहती छन्दः।
[३|३|३५] उदिग्रहः - उत्पूर्वक `ग्रहऄ धातु से घञ् प्रत्यय होता है | उद् + ग्रह् + घञ् == उद्ग्राह् (विद्या का विचार)
[३|३|३६] समिमुष्टौ - समुपसर्गक `ग्रहऄ धातु से `मुष्टि अर्थ में घञ् प्रत्यय होता है। | सम् + ग्रह् + घञ् == संग्राह।
[३|३|३७] परिन्योर्नीणोर्द्यूताभ्रेषयोः - परिपूर्वक `नी ` धातु तथा निपूर्वक ` इण् ` धातु से घञ् प्रत्यय होता है यदि प्रत्ययान्तों द्वारा क्रमशः द्यूत तथा अभ्रेष स्र्थों की प्रतीति हो। | परि + नी + घञ् == परिणयो।
[३|३|३८] परावनुपात्यय इणः - परिपूर्वक ` इण् ` धातु से घञ् प्रत्यय होता है अनुपात्यय (परिपाटी) अर्थ में | परि + इ + घञ् == पर्यायः।
[३|३|३९] व्युपयोःशेतेःपर्याये - पर्याय अर्थ में विपूर्वक तथा उपपूर्वक `शीङ् ` धातु से घञ् प्रत्यय होता है। | वि + शी + घञ् == विशायः
[३|३|४०] हस्तादानेचेरस्तेये - `चॎ धातु से घञ् प्रत्यय होता है यदि प्रत्ययान्त से स्तेयभिन्न हस्तकरणक ग्रहण की प्रतीति होती है। | प्र + चि + घञ् == प्रचाय
[३|३|४१] निवासचितिशरीरोपसमाधानेष्वादेश्चकः - निवास, चिति (चेतना), शरीर और उपसमाधान (राशीकरण-ढेर लगाना) अर्थ में चिञ् (त्वादि०, इकट्ठा करना) धातु से घञ् ( अ) प्रत्यय होता है और आदिवर्ण के स्थान पर ककार होता है। | नि-पूर्वक चिञ् धातु से निवास अर्थ में घञ् प्रत्यय तथा आदि चकार के स्थान पर ककार होकर नि कि अ रूप बनेगा। तब आर्धधातुक गुण, अयादेश और उपधा-वृद्धि होकर निकाय रूप बनने पर प्रातिपादिक संज्ञा हो प्रथमा के पुल्लिंग-एकवचन में निकायः रूप सिद्ध होता है।
[३|३|४२] सङ्घेचानौत्तराधर्ये - औत्तर आधर्या अतिरिक्त संध अर्थ में `चॎ धातु से घञ् प्रत्यय होता है। | भिक्षुक + नि + चि + घञ् == भिक्षुकनिकायः (भिक्षुकों का समुदाय), ब्राह्मण + नि + चि + घञ् == ब्राह्मणनिकाय (ब्राह्मणों का समुदाय)।
[३|३|४३] कर्मव्यतिहारेणच्सित्रयाम् - स्त्रीत्व विविक्षा के भाव अर्थ में धातु से क्रिया- विनिमय के गम्यमान होने पर णच् प्रत्यय होता है। | वि + अव + क्रुश् + णच् + अञ् + ङीप् == व्यावक्रोशी, वि+ अव + लिख् + णच् + अञ् + ङीप् == व्यावलेखी, वि+ अव + हस् + णच् + अञ् + ङीप् == व्यावहासी।
[३|३|४४] अभिविधौ भाव इनुण् - अभिविधि अर्थ के गम्यमान होने पर धतु से इनुण् प्रत्यय होता है। | सांकूटिन् + अण् == सांकूटिनम्, सांराविन् + अण् == सांराविणम्, सांद्राविन् + अण् == सांद्राविणम्, सांमार्जिन् + अण् == सांमार्जिनम्।
[३|३|४५] आक्रोशेऽवन्योर्ग्रहः - अवपूर्वक तथा निपूर्वक `ग्रहऄ धातु से घञ् प्रत्यय होता है, प्रत्ययान्त से आक्रोष की प्रतीति होने पर। | अव + ग्रह् + घञ् == अवग्रहः, नि + ग्रह् + घञ् == निग्रहः
[३|३|४६] प्रेलिप्सायाम् - प्रपूर्वक `ग्रहऄ धातु से लिप्सा अर्थ में घञ् प्रत्यय होता है | पात्र + ङस् + ग्रह् + घञ् == पात्रप्रग्राहेण, स्त्रुव + ङस् + ग्रह् + घञ् == स्त्रुवप्रगाहेण।
[३|३|४७] परौयज्ञे परिपूर्वक धातु से घञ् प्रत्यय होता है, प्रत्ययान्त से यज्ञविषयक अर्थ की प्रतीति होने पर। | उत्तर परिग्राह (दर्शपौर्णमास यज्ञ में उत्तर वेदि के निर्माण को उत्तरपरिग्राहः कहते हैं)।
[३|३|४८] नौवृधान्ये - निपूर्वक `दृङ् ` धात्य् `वृञ् ` धातुओं से घञ् प्रत्यय होता है प्रत्ययान्त के द्वारा धान्यविदेश के अभिधाव होने पर। | नीवारा व्रीहयः (नीवार नाम का धान्यविशेष)।
[३|३|४९] उदिश्रयतियौतिपूद्रुवः - उत्पूर्वक `श्रि `, `यु`, `पू ` तथा `द्रु` धातुओं से घञ् प्रत्यय होता है। | उत् + श्रि + घञ् == उच्छ्रायः (ऊँचाई), उत् + यु + घञ् == उद्यावः (इकट्ठा करना), उत् + पू + घञ् == उत्पावः (यज्ञीय पात्रों का संस्कार विशेष), उत् + द्रु + घञ् == उद्द्रावः (भागना)।
[३|३|५०] विभाषाऽऽङि रुप्लुवोः - आङ् के उपपद होने पर `रू ` तथा `प्लु` धातुओं से विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है। | आ + रु + घञ् == आरावः (आवाज)
[३|३|५१] अवेग्रहोवर्षप्रतिबन्धे - अवपूर्वक `ग्रहऄ धातु से विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है, यदि प्रत्ययान्त का वाच्य वर्षा प्रतिबन्ध हो। | अवग्राहो देवस्य (देव का न बरसना), अवग्रहो देवस्य।
[३|३|५२] प्रेवणिजाम् - प्र शब्द के उपपदत्व में `ग्रहऄ धातु से विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है यदि प्रत्ययान्त का वाच्य वणिक् सम्बन्धी पदार्थ हो। | तुलाप्रग्राहेण चरति (तराजू का मध्यसूत्र पकड़े घूमता है), तुलाप्रग्रहेण वा।
[३|३|५३] रश्मौच - प्रशब्दोपपदक `ग्रहऄ धातु से विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है। यदि प्रत्ययान्त का वाच्य रश्मि (लगाम) हो। | प्रग्राहः, प्रग्रहः।
[३|३|५४] वृणोतेराच्छादने - प्र पूर्वक `वृ` धातु से विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है यदि प्रत्ययान्त से आच्छादन अर्थ की प्रतीति होती हो। | आ + वृ + घञ् == प्रवारः, अप् प्रत्यय लगने पर प्रवरः (चादर)।
[३|३|५५] परौभुवोऽवज्ञाने - परिपूर्वक `भू ` धातु से विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है यदि प्रत्ययान्त का वाच्य तिरस्कार हो। | परिभावः अप् प्रत्यय लगने पर परिभवः (निरादर)।
[३|३|५६] एरच् - भाव और कर्ता-भिन्न कारक में संज्ञा अर्थ में इवर्णान्त धातु (जिसके अन्त में इकार या ईकार हो) से अच् प्रत्यय होता है। | भाव अर्थ में इकारान्त चि (चुरादि०, इकट्ठा करना) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा अच् प्रत्यय होकर चि अ = चय रूप बनने पर प्रातिपादिक संज्ञा हो प्रथमा के पुल्लिङ्ग-एकवचन में चयः रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार भाव अर्थ में इकारान्त जि (जीतना) धातु से जयः रूप बनता है।
[३|३|५७] ॠदोरप् - भाव और कर्ता-भिन्न कारक में संज्ञा अर्थ में ऋकारान्त और उवर्णान्त (जिसके अन्त में उकार या ऊकार) धातु से अप् प्रत्यय होता है। | भाव अर्थ में ऋकारान्त कॄ (बिखेरना) धातु से अप् प्रत्यय होकर कॄ अ रूप बनेगा। तब आर्धधातुक गुण होकर क् अर् अ = कर रूप सिद्ध होता है।
[३|३|५८] ग्रहवृदृनिश्चिगमश्च - `ग्रहऄ, `वृ`, `हृ` निस्-पूर्वक `चॎ तथा `गम् ` धातुओं से भी अप् प्रत्यय होता है। | ग्रहः। वरः।दरः।निश्चयः। गमः।
[३|३|५९] उपसर्गेऽदः - उपसर्गोपपदक ` अद् ` धातु से अप् प्रत्यय होता है। | विघसः। प्रघसः
[३|३|६०] नौणच - निपूर्वक ` अद् ` धातु से ण तथा अप् प्रत्यय होते हैं। | नि + अद् + ण == न्यादः, नि + अद् + अप् == निघसः।
[३|३|६१] व्यधजपोरनुपसर्गे - अनुपसर्गक `व्यध् ` तथा `जप् ` धातुओं से अप् प्रत्यय होता है। | व्यध् + अप् == व्यधः, जप् + अप् == जपः।
[३|३|६२] स्वनहसोर्वा - अनुपसर्गक `स्वन् ` तथा `हसऄ धातुओं से भी विकल्प से अप् प्रत्यय होता है। | स्वनः - स्वानः, हसः - हासः।
[३|३|६३] यमःसमुपनिविषुच - सम्, उप, नि तथा वि उपसर्गों के उपपद होने पर `यम् ` धातु से विकल्प से अप् प्रत्यय होता है। | संयमः - संयामः, उपयमः - उपयामः, नियमः - नियामः, वियमः - वियामः, यमः - यामः।
[३|३|६४] नौगदनदपठस्वनः - निपूर्वक `गदऄ, `नदऄ, `पठऄ तथा `स्वनऄ धातुओं से विकल्प से अप् प्रत्यय होता है। | निगदः - निगादः, निनदः - निनादः, निपठः - निपाठः।
[३|३|६५] क्वणोवीणायांच - निपूर्वक तथा अनुपसर्गक `क्वणऄ धातु से भी वीणा अर्था में विकल्प से अप् प्रत्यय होता है। | नि + क्वण् + अप् == निक्वणः, नि + क्वण् + घञ् == निक्वाणः। क्वण् + अप् == क्वणः, क्वण् + घञ् = क्वाणः।
[३|३|६६] नित्यंपणःपरिमाणे - परिमाण तथा प्रत्ययान्त का वाच्य हो तो `पणऄ धातु से नित्य अप् प्रत्यय होता है। | मूलकपणः (मूली के गट्ठे जो बेचने के लिये गिनकर रक्खे जाते हैं), शाकपणः (शाक का गट्ठा)
[३|३|६७] मदोऽनुपसर्गे - अनुपसर्गक `मदऄ धातु से अप् प्रत्यय होता है। | विद्यामदः (विद्या के कारण अभिमान), धनमदः (धन के कारण अभिमान)। विद्यामदः आदि में (२_१_३१) से समास होता है।
[३|३|६८] प्रमदसंमदौहर्षे - हर्ष अर्थ में `प्रमदऄ तथा `सम्मदऄ निपातन। | कन्यानां प्रमदः (कन्याओं का हर्ष)। कोकिलानां सम्मदः (कोयलों का हर्ष)।
[३|३|६९] समुदोरजःपशुषु - सम् तथा उत् उपसर्गों से विशिष्ट ` अजऄ धातु से पशु-विषय में अप् प्रत्यय होता है। | सम् + अज् + अप् == समजः।
[३|३|७०] अक्षेषुग्लहः - अक्षविषयक धात्वर्थ होने पर `ग्रहऄ धातु से अप् प्रत्यय के साथ-साथ रकार के स्थान में लकारादेश का भी निपातन। | अक्षस्य ग्लहः (द्यूतक्रीड़ा में लगाई गई शर्त == धन जिसे जीतनेवाला ग्रहण करता है)।
[३|३|७१] प्रजने सर्तेः - प्रजन अर्थ में `सृ` धातु से अप् प्रत्यय होता है। | गवामुपसरः (गौओं का गर्भग्रहणार्थ प्रथम बार गमन), पशूनामुपसरः (पशुओं का गर्भग्रहणार्थ प्रथम बार गमन)।
[३|३|७२] ह्वःसंप्रसारणंचन्यभ्युपविषु - नि, अभि, उप तथा वि के उपपद होने पर `ह्रेज् ` धातु से अप् प्रत्यय तथा वि को सश्रसारण भी हो जाता है। | नि + ह्वेञ् + अप् == निहवः, इसी प्रकार अभिहवः, उपहवः, विहवः।
[३|३|७३] आङि युद्धे - आङ्पूर्वक ह्रेञ् धातु से भी अप् प्रत्यय तथा व को सम्प्रसारण हो जाता है यदि प्रत्ययान्त का वाच्य युद्ध हो। | आहूयन्तेऽस्मिन् == आहवः (युद्धक्षेत्र)
[३|३|७४] निपानमाहावः - आङ्पूर्वक हेञ् धातु से अप् प्रत्यय, प्रकृति को सम्प्रसारण तथा उसे वृद्धि का निपातन किया जाता है। | आ + ह्वेञ् + अप् == आहावः।
[३|३|७५] भावेऽनुपसर्गस्य - भाव्य के वाच्य होने पर अनुपसर्गक हेञ् धातु से अप् प्रत्यय तथा प्रकृति को सम्प्रसारण हो जाता है। | हवे हवे सुहवं शूरमिन्द्रम् हवः।
[३|३|७६] हनश्चवधः - अनुपसर्गक `हन् ` धातु से भावर्थ में अप् प्रत्यय और अप् प्रत्यय होने पर हन् को वध आदेश हो जाता है और वह वधादेश अन्तोदात्त भी हो जाता है। | हन् + अप् == वधः, हन् + घञ् == घातः।
[३|३|७७] मूर्तौघनः - हन् धातु से अप् प्रत्यय तथा प्रकृति को घन आदेश, यदि प्रत्ययान्त का वाच्य काठिन्य हो। | हन् + अप् + घन् + अ == घनो
[३|३|७८] अन्तर्घनोदेशे - अन्तःपूर्वक हन् धातु से अप् प्रत्यय तथा हन् को घन आदेश, यदि प्रत्ययान्त का वाच्य देश है। | अन्तर्घनो देशः (देशविशेष)
[३|३|७९] अगारैकदेशेप्रघणःप्रघाणश्च - प्रपूर्वक हन् धातु से अप् प्रत्यय तथा हन् को घन आदेश, यदि प्रत्ययान्त का वाच्य देश है। | प्र + हन् + अप् == प्रघणः, प्र + हन् + घञ् == प्रघाणः।
[३|३|८०] उद् घनोऽत्याधानम् - उत्पूर्वक हन् धातु से उद्वन शब्द का अत्याधान अर्थ में निपातन होता है। | उद् हन्यन्ते यस्मिन् काष्ठानीति उद्घनः (जिस काष्ठ पर काष्ठ को रखकर बढ़ई लोग छीलते हैं)।
[३|३|८१] अपघनोऽङ्गम् - अपपूर्वक `हन् ` धातु से अङ्ग अर्थ में अपघन शब्द का निपातन होता है। | अपहन्यतेऽनेनेति अपघनः (हाथ या पैर को ही कहते हैं, शरीर के सब अङ्गों को नहीं)
[३|३|८२] करणेऽयोविद्रुषु - अयस्, वि एवम् द्रु के उपपद होने पर हन् धातु से करण कारक में अप् प्रत्यय होता है और हन् को घन आदेश भी। | विघनः (हथौड़ा), द्रुघनः (कुल्हाड़ा)
[३|३|८३] स्तम्बेकच - स्तम्ब शब्द के उपपद होने पर हन् धातु से करणकारक में क और अप् प्रत्यय होते हैं। | स्तम्ब + ङस् + हन् + क == स्तम्बघ्नः, स्तम्ब + ङस् + हन् + अप् == स्तम्बघनः
[३|३|८४] परौघः - परिपूर्वक हन् धातु से करणकारक में अप् प्रत्यय होता है और हन् को घ आदेश हो जाता है। | परि + हन् + अप् == परि + घ + अ == परिघः।
[३|३|८५] उपघ्न आश्रये - उपपूर्वक हन् धातु से आश्रय अर्थ में अप् प्रत्यय तथा उपधालोप का निपातन किया जाता है। | पर्वतेन + उपहन्यते == पर्वतोपघ्नः, ग्रामेण + उपहन्यते == ग्रामोपघ्नः।
[३|३|८६] सङ्घोद्घौगणप्रशंसयोः - गण के अभीदेय होने पर सम्पूर्वक हन् धातु से और प्रशंसा के गम्यमान होने पर उत्पूर्वक हन् धातु से अप् प्रत्यय, टिलोप तथा धत्व का निपातन है। | सम् + हन् + अप् == सङ्घः
[३|३|८७] निघोनिमितम् - निमित के अभिधेय होने पर निपूर्वक हन् धातु से अप् प्रत्यय, टिकोल तथा घत्व का निपातन। | निर्विशेषं हन्यन्ते == ज्ञायन्ते इति निघा वृक्षाः (एक बार ऊँचाई के वृक्ष) । निघाः शालयः (एक बराबर के ऊँचाई के धान)।
[३|३|८८] ड्वितः क्त्रिः - यदि धातु का डु इत् हो, तो उससे भाव और कर्ता-भिन्न कारक में संज्ञा अर्थ में क्त्रि प्रत्यय होता है। क्त्रि का ककार इत्संज्ञक है, अतः केवल त्रि शेष रह जाता है। | पच् धातु का डु इत्संज्ञक है, क्योंकि आदिर्ञिटुडवः (१_३_५) से इत्संज्ञा हो उसका लोप हुआ है। अतः प्रकृत सूत्र से भाव अर्थ में उससे क्त्रि प्रत्यय होकर पच् त्रि रूप बनता है।
[३|३|८९] ट्वितोऽथुच् - भाव और कर्ता-भिन्न कारक संज्ञा अर्थ में ट्वित् धातु (जिसका टु इत्संज्ञक हो) से अथुच् प्रत्यय होता है। | वेप् (टुवेपृ-कांपना) धातु ट्वित् है, अतः प्रकृत सूत्र से अथुच् होकर वेप् अथु = वेपथु रूप बनता है। यहाँ प्रातिपादिक संज्ञा हो प्रथमा के पुल्लिंग-एकवचन में वेपथुः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - टुओशिव + अथुच् == श्वयुथुः, टुक्षु + अथुच् == क्षवथुः।
[३|३|९०] यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षोनङ् - भाव और कर्ता-भिन्न कारक में संज्ञा अर्थ में यज् (यज्ञ, हवन करना), याच् (मांगना), यत् (प्रयत्न करन), विच्छ् (चमकना, चलना), प्रच्छ् (पूछना) और रक्ष् (रक्षण करना) - इन छः धातुओं से नङ् प्रत्यय होता है। | भाव अर्थ में यज् धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा नङ् होकर यज् न रूप बनेगा। तब नकार को श्चुत्व-ञकार होने पर ज् ञ् मिलकर ज्ञकार हो यज्ञ रूप बनता है। यहाँ प्रतिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के पुल्लिंग में यज्ञः रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार याच् से याच्ञा यत् से यत्नः, विच्छ् से विश्नः, प्रच्छ् से प्रश्नः और रक्ष् से रक्ष्णः रूप बनते हैं। अन्य उदाहरण - यज् + नङ् == यज्ञः, याच् + नङ् == याच्ञा, यत् + नङ् == यत्नः, विश् + नङ् == विश्नः, प्रच्छ् + नङ् == प्रश्नः, रक्ष् + नङ् == रक्ष्णः।
[३|३|९१] स्वपोनन् - भाव और कर्ता-भिन्न कारक में संज्ञा अर्थ में स्वप् (सोना) धातु से नन् प्रत्यय होता है। | भाव अर्थ में स्वप् धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा नन् होकर स्वप् न् = स्वप्न रूप बनता है। इस स्थिति में प्रातिपादिक संज्ञा हो प्रथमा के पुल्लिंग-एकवचन में स्वप्नः रूप सिद्ध होता है।
[३|३|९२] उपसर्गे घोः किः - भाव और कर्ता-भिन्न कारक में उपसर्ग उपपद रहते घुसंज्ञक धातुओं से कि प्रत्यय होता है। | प्र उपसर्ग-पूर्वक घुसंज्ञक या धातु से भाव में प्रकृत सूत्र द्वारा कि होकर प्र धा इ रूप बनेगा। तब धातु के अकार का लोप हो प्र ध् इ = प्रधि रूप बनने पर प्रातिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के पुल्लिंग-एकवचन में प्रधिः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - वि + धा + कि == विधिः, नि + धा + कि == निधिः, प्र + दा + कि == प्रदिः।
[३|३|९३] कर्मण्यधिकरणे च - कर्मकारक के उपपद होने पर घुसंज्ञक धातु से अधिकरण में कि प्रत्यय होता है। | जलधिः (समुद्र(, शरधिः (तूणीर == तरकश)। उदधिः (सागर)। उदधिः में उदक को "उद" आदेश (६_३_५७) से होता है।
[३|३|९४] स्त्रियां क्तिन् - स्त्रिलिंग में भाव और कर्ता-भिन्न कारक में (संज्ञा अर्थ में) धातु से क्तिन् प्रत्यय होता है। | स्त्रीलिंग भाव में कृ धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा क्तिन् होकर कृ ति रूप बनता है। यहाँ प्रातिपादिक संज्ञा हो प्रथमा के एकवचन में कृतिः रूप सिद्ध होता है। चि + क्तिन् == चितिः, कृ + क्ति == कृतिः, भू + क्तिन् == भूतिः।
[३|३|९५] स्थागापापचोभावे - भाव अर्थ में स्था, गा, पा तथा पच धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में क्तिन् प्रत्यय होता है। | प्रस्थितिः (अवस्था), उद्गीतिः (सामगान), संगीतिः (संगीत)। प्रतीतिः (पीना), सम्पीतिः (इकट्ठा मिलकर पीना)। पक्तिः (पकाना)।
[३|३|९६] मन्त्रेवृषेषपचमनविदभूवीराउदात्तः - मन्त्रविषय में भाव अर्थ में वृष, इष, पच, मन, भू, वी तथा रा धातुओं से क्तिन् प्रत्यय होता है और वह उदत्त भी हो जाता है। | वृष्टिः, इष्टिः, पक्तिः, मतिः, वित्तिः, भूतिः, रातिः।
[३|३|९७] ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च - ऊति, यूति, जूति, साति, हेति, तथा कीर्ति शब्दों का निपातन है। | अव + क्तिन् == ऊतिः, यु + क्तिन् == यूतिः, जु + क्तिन् == जूतिः, षो + क्तिन् == सातिः, हा + क्तिन् == हेतिः, कॄत् + क्तिन् == कीर्तिः।
[३|३|९८] व्रजयजोर्भावेक्यप - भाव अर्थ में व्रज तथा यज धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में उदात्त क्यप् प्रत्यय होता है। | व्रज्या (गमन)। इज्या (यज्ञ करना)
[३|३|९९] संज्ञायांसमजनिषदनिपतमनविदषुञ्शीङ्भृञिणः - संज्ञा-विषय में सम्पूर्वक ` अजऄ, निपूर्वक सद्, निपूर्वक पत, मन, विद्, षुञ्, शीङ्, भृञ्, तथा इण् धातुओं से स्त्रीत्वार्थक उदात्त क्यप् प्रत्यय होता है। | समज्या (सभा), निषद्या (बाजार)। निपत्या (युद्धभूमि)। मन्या (गले के पास की नाड़ी, जिससे व्यक्ति क्रुद्ध है ऐसा जाना जाता है)। विद्या। सुत्या (जिस वेला=काल में रस निकालते हैं, वह काल)। शय्या (खाट)। शयङ् + क्यप् == शय् + य == शय्या।
[३|३|१००] कृञःशच - कृञ् धातु से स्त्रीत्वार्थक क्यप् तथा श प्रत्यय होते हैं। | कृ + श == क्रिया, कृ + क्यप् == कृत्या, कृ + क्तिन् == कृतिः।
[३|३|१०१] इच्छा - इच्छा शब्द का निपातन होता है। | परि + चर् + श + यक् == परिचर्या, परि + सृ + श + यक् == परिसर्या, मृग + श + यक् == मृगया, अट् + श + यक् == अटाट्या।
[३|३|१०२] अप्रत्ययात् - स्त्रिलिंग में भाव और संज्ञार्थ कर्ता-भिन्न कारक में प्रत्यान्त धातु (जिसके अन्त में कोई प्रत्यय हो) से अ प्रत्यय होता है। | चिकीर्ष कृ धातु का सन् प्रत्यान्त रूप है, अतः स्त्रीलिंग भाव में प्रकृत सूत्र द्वारा अ प्रत्यय होकर चिकीर्ष अ रूप बनता है। तब धातु के अकार का लोप, टाप् और प्रातिपादिक संज्ञा आदि होकर प्रथमा के एकवचन में चिकीर्षा रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - जिहीर्ष् + अ == जिहीर्षा, पुत्रीय + अ == पुत्रीया, पुत्रकाम्य + अ == पुत्रकाम्या, लोलूय + अ == लोलूया, कण्डुय + अ == कण्डूया।
[३|३|१०३] गुरोश्चहलः - स्त्रीलिंग में भाव और संज्ञार्थ कर्ता-भिन्न कारक में गुरुमान् (जिसमें कोई गुरुवर्ण हो) और हलन्त धातु से अ प्रत्यय होता है। | ईह् (चेष्टा करना) धातु गुरुमान् है क्योंकि इसका ईकार गुरु है। साथ ही यह हलन्त भी है। अतः प्रकृत सूत्र से स्त्रीलिंग भाव में अ प्रत्यय को ईह् अ = ईह रूप बनेगा। इस स्थिति में प्रातिपादिक संज्ञा हो टाप् आदि होने पर ईहा रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - कुण्ड् + अ == कुण्डा, हुण्ड् + अ == हुण्डा, ईह् + अ == ईहा, ऊह् + अ == ऊहा।
[३|३|१०४] षिद्भिदादिभ्योऽङ् षित् तथा भिद आदि धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में अङ् प्रत्यय होता है। | त्रप् + अङ् + टाप् == त्रपा। इसी प्रकार जरा, भिदा, छिदा, विदा।
[३|३|१०५] चिन्तिपूजिकथिकुम्बिचर्चश्च - चिति, पूज, क्रथ, कुबि तथा चर्च धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में अङ् प्रत्यय होता है। | चिन्ता, पूजा, कथा, कुम्बा, चर्चा।
[३|३|१०६] आतश्चोपसर्गे - उपसर्गविशिष्ट अकारान्त धातुओं से भी स्त्रीलिङ्ग में अङ् प्रत्यय होता है। | सम् + ज्ञा + अङ् == संज्ञा, इसी प्रकार उपधा, प्रदा, प्रधा।
[३|३|१०७] ण्यासश्रन्थोयुच् - णि प्रत्यान्त, आस् (बैठना) और श्रन्थ (छोड़ना, लिखना) इस धातुओं से स्त्रीलिंग में युच् प्रत्यय होता है। | कारि कृ धातु का णि-प्रत्यान्त रूप है। अतः प्रकृत सूत्र से स्त्रीलिंग में युच् (यु) और उसके स्थान पर अन् होकर कारि अन् रूप बनता है। अन्य उदाहरण - कृ + णिच् == कारि, कारि + युच् == कारणा। इसी प्रकार हारणा, आस् + युच् == आसना, इसी प्रकार श्रन्थना।
[३|३|१०८] रोगाख्यायांण्वुल् बहुलम् - धातुमात्र से बहुल करके ण्वुल् प्रत्यय होता है यदि प्रत्ययान्त रोगवाचक हो। | प्रच्छर्दिका (वमन), विचर्चिका (दाद), प्रवाहिका (पेचिश)।
[३|३|१०९] संज्ञायाम् - संज्ञा विषय में धातु से ण्वुल् प्रत्यय होता है। | उद्दालकपुष्पभञ्जिका, वारणपुष्पप्रचायिका, अभ्यूषखादिका (लिटि खाने की विशेष क्रीड़ा), आचोषखादिका (चूस कर खाने की क्रीड़ा), शालभञ्जिका (शाल वृक्ष के पुष्पों को तोड़ने की क्रीडाविशेष), तालभञ्जिका (ताल वृक्ष के पुष्पों के तोड़ने की क्रीडाविशेष)।
[३|३|११०] विभाषाख्यान-परिप्रश्नयोरिञ्च - धातु से विकल्प से ण्वुल् तथा इञ् प्रत्यय होते हैं यदि प्रत्ययान्त के द्वारा परिप्रश्न तथा आख्यान की प्रतीति होती है। | परिप्रश्न में- कां कारिमकार्षीः (तुमने क्या काम किया), कां कारिकामकार्षीः, कां क्रियामकार्षी, कां कृत्यामकार्षीः, कां कृतिमकर्षीः। आख्याने - सर्वां कारिं कारिकां क्रियां कृत्यां कृतिं वा अकार्षम्। कां गणिं गणिकां गणनां वा अजीगणम्।
[३|३|१११] पर्यायार्हणोत्पत्तिषुण्वुच् - पर्याय, योग्यता, ऋण तथा जन्म अर्थों में धातु से ण्वुच् प्रत्यय होता है। | पर्याये तावत् - भवतः शायिका, भवतोऽग्रग्रासिका (आपके प्रथम भोजन की बारी)। अर्ह में - इक्षुभिक्षिकामर्हति भवान् (आप गन्ना खाने के योग्य हैं)। पयः पायिकामर्हति भवान् (आप दूध पीने के योग्य हैं)।
[३|३|११२] आक्रोशे नञ्यनिः - नञुपपद धातु से आक्रोश के गम्यमान होने पर अनि प्रत्यय होता है। | अकरणिस्ते वृषल ! भूयात् (नीच ! तेरी करणी का नाश हो जाये)। नञ्पूर्वक "कृञ्" धातु से "अनि" प्रत्यय होकर तथा कृ को "अनि" परे रहते गुण एवं (६_३_७२) से "नञ्" के नकार का लोप होकर अकरणिः बन गया।
[३|३|११३] कृत्यल्युटो बहुलम् - कृत्यसंज्ञक प्रत्यय तथा ल्युट् प्रत्यय उक्त अर्थ में भिन्न अर्थों में भी होते है। | स्नात्यनेनेति स्नानीयं चूर्णम् (जिससे स्नान किया जावे उसे स्नानीय कहते है, वह चूर्ण होता है) अर्थ में स्ना धातु से करण में प्रस्तुत सूत्र से कृत्य प्रत्यय अनीयर् ( अनीय) होकर स्ना अनीय रूप बनता है।
[३|३|११४] नपुंसके भावे क्तः - नपुंसकलिंग में भाव अर्थ में धातु से क्त प्रत्यय होता है। | हस् धातु से नपुंसक भाव में प्रकृत सूत्र द्वारा क्त प्रत्यय हो हस् त रूप बनेगा। इस स्थिति में इडागम् हो हसित रूप बनने पर प्रातिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के एकवचन में हसितम् रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार सुप्तम् (सोना, जल्पितम् (कहना, बकना)।
[३|३|११५] ल्युट च - नपुंसकलिंग में भाव में धातु से ल्युट् प्रत्यय भी होता है। | नपुंसक् भाव में हस् धातु से ल्युट् (यु) और उसके स्थान पर अन् होकर हस् अन = हसन रूप बनता है। तब प्रातिपादिक संज्ञा हो प्रथमा के एकवचन में हसनम् रूप सिद्ध होता है। इस प्रकार नपुंसकलिङ्ग में भाव अर्थ में दो प्रकार के रूप बनते है। क्त प्रत्यय होकर तथा ल्युट् प्रत्यय होकर।
[३|३|११६] कर्मणिचयेनसंस्पर्शात्कर्तुःशरीरसुखम् - जिस कर्मकारक के संस्पर्श से कर्त्त के शरीर में सुख की अनुभूति हो उस कर्मकारक के उपपद होने पर धातु से भावार्थ में ल्युट् प्रत्यय होता है और ल्युडन्त शब्द का नपुसंकत्व भी। | ओदनभोजनं सुखम् (चावल खाने का सुख)। पयः पानं सुखम् (दूध पीने का सुख)। ओदन या दूध के संस्पर्श से कर्ता = खानेवाले के शरीर == जिह्वा को सुख होता है, अतः ओदन एवं पयः कर्म उपपद रहते "भुज" तथा "पा" धातु से ल्युट् प्रत्यय होगा।
[३|३|११७] करणाधिकरणयोश्च - करण तथा अधिकरण कारकों के अभिद्येय होने पर धातु से ल्युट् प्रत्यय होता है। | प्रवृश्चन्त्यनेन == प्रव्रश्चनः, इध्मानां प्रव्रश्चनः इध्मप्रव्रश्चनः। शात्यतेऽनेन == शातनः, पलाशस्य शातनः पलाशशातनः।
[३|३|११८] पुंसिसंज्ञायांघःप्रायेण - करण और अधिकरण कारक में धातु से पुल्लिंग-संज्ञा अर्थ में घ प्रत्यय होता है। | आ कुर्वन्ति अस्मिन् (इसमें लोग मिलकर काम करते हैं)- इस विग्रह में आ पूर्वक कृ धातु से अधिकरण में घ प्रत्यय होकर आ कृ अ रूप बनेगा। यहाँ आर्धधातुक गुण होकर आकर रूप बनने पर प्रातिपादिक संज्ञा हो प्रथमा के एकवचन में आकरः रूप सिद्ध होता है।
[३|३|११९] गोचरसंचरवहव्रजव्यजापणनिगमाश्च - पूर्वसूत्रोक्त अर्थ में ही घप्रत्ययान्त `गोचरऄ, `सञ्चरऄ आदि शब्दों का निपातन होता है। | गोचरः (गाय जहाँ चरती हैं)। सञ्चरः (जिसके द्वारा घूमते हैं)। वहः (गाड़ी)। व्रजः (जिसके द्वारा जाते हैं)। व्यजः (पङ्खा)। आपणः (बाजार)। निगमः (वेद)।
[३|३|१२०] अवे तॄस्त्रोर्घञ् - करण और अधिकरण कारक में अव उपपद रहते तॄ (भ्वादि०, पार करना, तैरना) और स्तॄ (क्रियादि०ढकना) - इन दो धातुओं से पुल्लिंग-संज्ञा अर्थ में घञ् प्रत्यय होता है | अव-पूर्वक तॄ धातु से अधिकरण कारक में प्रकृत सूत्र से अधिकरण करक में प्रकृत सूत्र से पुँल्लिङ्ग-संज्ञा अर्थ में घञ् प्रत्यय होकर अव तॄ अ रूप बनता है। इस स्थिति में आर्धधातुक गुण और उपधा-वृद्धि हो अवतार रूप बनने पर प्रातिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के एकवचन में अवतारः रूप सिद्ध होता है।
[३|३|१२१] हलश्च - करण और अधिकरण कारक में हलन्त धातु (जिसके अन्त में कोई व्यञ्जन-वर्ण हो) में पुल्लिंग-संज्ञा अर्थ में घञ् प्रत्यय होता है। | रमन्ते योगिनोऽस्मिन् (इसमें योगी रमते हैं)- इस विग्रह में अधिकरण कारक में हलन्त धातु रम् से पुल्लिंग-संज्ञा अर्थ में घञ् प्रत्ययहोकर रम् अ + रम रूप बनेगा। तब उपधा-वृद्धि हो राम रूप बनने पर प्रातिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के एकवचन में रामः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - लिख् + घञ् == लेखः, विद् + घञ् == वेदः, वेष्ट् + घञ् == वेष्टः, बन्ध् + घञ् == बन्धः, मृज् + घञ् == मार्गः, अप + मृज् + घञ् == अपामार्गः, वि + मृज् + घञ् == वीमार्गः।
[३|३|१२२] अध्यायन्यायोद्यावसंहाराधारावायाश्च - पूर्वोक्त अर्थ में घञ् प्रत्ययान्त अध्याय आदि शब्दों का निपातन। | अध्यायः। न्यायः। उद्यावः (जहाँ सब इकट्ठे होते हैं)। संहारः (नाश, प्रलय)।
[३|३|१२३] उदङ्कोऽनुदके - उदकभिन्न धात्वर्थ अर्थ में घञ् प्रत्ययान्त अध्याय आदि शब्दों का निपातन। | तैलोदङ्कः (तेल का कुप्पा)। घृतोदङ्कः (घी का कुप्पा)। अञ्चु के च् को (७_३_५२) से कुत्व हो गया है। "च्" को कुत्व कर लेने पर "ञ्" को "न्" स्वतः होगा तत्पश्चात् "न्" को (८_३_२४) से अनुस्वार हो गया तथा (८_४_५७) से अनुस्वार को "ङ्" बनकर उदङ्कः बना।
[३|३|१२४] जालमानायः - जाल अर्थ में घञ् प्रत्ययान्त आनाय आदि शब्दों का निपातन। | आनयो मत्स्यानाम् (मछलियों का जाल)। आनयो मृगाणाम् (मृगों का जाल)।
[३|३|१२५] खनो घ च - खनो करण तथा अधिकरण अर्थों में `खनऄ धातु से घ तथा घञ् प्रत्यय होते हैं। | आ + खन् + घ == आखनः, आ + खन् + घञ् == आखानः।
[३|३|१२६] ईष्द्-दुः सुषु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषु खल् - ईषत्, दुस् और सु उपपद रहने पर कृच्छ्र (दुख) और अकृच्छ्र (सुख) अर्थ में धातु से खल् प्रत्यय होता है। | दुष्करः कटो भवता ( आपको चटाई बनाना मुश्किल है) में दुस् पूर्वक कृ धातु से दुख अर्थ में खल् प्रत्यय हुआ है। खल् प्रत्यय होकर दुस् कृ अ रूप बनने पर आर्धधातुक-गुण और षत्व होकर दुष्कर रूप बनता है। यहाँ प्रातिपादिक संज्ञा होकर कर्म कटः के अनुसार प्रथमा के एकवचन-पिल्लिंग में दुष्करः रूप बनेगा।
[३|३|१२७] कर्तृकर्मणोश्चभूकृञोः - कर्त्ता के उपपद होने पर `भू ` धातु से तथा कर्म के उपपद होने पर कृञ् धातु से और ईषत् आदि के उपपद होने पर `भू ` तथा कञ् धातुओं से खल् प्रत्यय होता है। | ईषदाढ्यंभवं भवता (धनाढ्य सुगमता से होने योग्य आप हों), दुराध्यंभवं भवता (कठिनाई से धानाढ्य होने योग्य आप हों)स्वाध्यभवं भवता।
[३|३|१२८] आतोयुच् - दुख अर्थ में दुस् तथा सुख अर्थ में ईषत् और सु उपपद रहने पर आकारान्त धातु से युच् प्रत्यय होता है। | ईषत् पूर्वक आकारान्त पा (पीना) धातु से सुख अर्थ्ज में युच् ( अन) होकर ईषत् पा अन रूप बनेगा। तब सवर्णदीर्घ हो ईषत्पान रूप बनने पर प्रातिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के पुल्लिंग-एकवचन में ईषत्पानः रूप सिद्ध होता है।
[३|३|१२९] छन्दसिगत्यर्थेभ्यः - ईषत् आदि के उपपद होने पर गत्यर्थक धातुओं से दुख तथा सुख अर्थों में वेद में युच् प्रत्यय होता है। | सु + उप् + सद् + युच् == सूपसदन्मन्तरिक्षम्।
[३|३|१३०] अन्येभ्योऽपि दृश्यते - अगत्यर्थक धातुओं से भी वेद में उपर्युक्त अर्थों में युच् प्रत्यय होता है। | सु + दुह + अन + टाप् == सुदोहना, सिविद + अन् + टाप् -- सुवेदना। तथा द्वितिया में सुदोहनाम् और सुवेदनाम् बना। सुदोहनाम् अकृणोद् ब्रह्मणे गाम्। सुवेदनाम् अकृणोद् ब्रह्मणे गाम्।
[३|३|१३१] वर्तमानसामीप्योवर्तमानवद्वा - वर्तमान समीपवर्ती भूत तथा भविष्यत् काल में भी धातुओं से वर्तमानकालिक प्रत्ययों की तरह विकल्प से प्रत्यय होते हैं। | लट् लकार = देवदत्त कदा अगतोऽसि ? अयम् अगच्छामि (देवदत्त, कब आये हो ? बस आही तो रहां हों । विकल्प से लुङ् लकार में == देवदत्त कदा आगतोऽसि ? अयम् आगमम्।
[३|३|१३२] आशंसायांभूतवच्च - अप्राप्तप्राप्तीच्छा के गम्यमान होने पर भविष्यत्काल में भीधातु से विकल्प से भूतकाल तथा वर्तमानकाल की तरह प्रत्यय होते हैं। | उपाध्यायश्चेद् आगमत् आगतः आगच्छति वा, वयं व्याकरण-मध्यगीष्महि अधीतवन्तोऽधीमहे वा। पक्षे - उपाध्यायश्चेदागमिष्यति, वयं व्याकरणम्मध्येष्यामहे।
[३|३|१३३] क्षिप्रवचनेऌट् - क्षिप्रवाचक शब्द के उपपदत्व में आशंसा के गम्यमान होने पर भविष्यतकाल में धातु से ऌट् लकार होता है। | उपाध्यायश्चेद् क्षिप्रं त्वरितं आशु शीघ्रं वा आगमिष्यति, क्षिप्रं त्वरितं आशु शीघ्रं वा व्याकरणम् अध्येष्यामहे।
[३|३|१३४] आशंसावचनेलिङ् - आशंसावाचक शब्द के उपपदत्व में धातु से लिङ्ग प्रत्यय होता है। | उपाध्यायश्चेदागच्छेत्, आशंसे अवकल्पये वा युक्तोऽधीयीय।
[३|३|१३५] नानद्यतनवत्क्रियाप्रबन्धसामीप्ययोः - क्रियाप्रबन्ध तथा क्रियासमीप्य के गम्यमान होने पर अनद्यतन कालिक प्रत्यय का विधान नहीं होता। | क्रियाप्रबन्ध में - यावज्जेवं भृशमन्नम् अदात् (जब तक जिया निरन्तर अन्न का दान किया)। भृशमन्नं दास्यति। समीप्य में - येयं प्रतिपद् अतिक्रान्ता तस्यां विद्युद् अपप्तत् (जो यह प्रतिपद् बीत गई, उसमें बिजली गिरी थी)।
[३|३|१३६] भविष्यतिमर्यादावचनेऽवरस्मिन - पूर्ववर्ती भाग को लेकर यदि सीमा का अभिधान कर्तव्य हो तो भविष्यत् काल में धातु से अनद्यतन वत् प्रत्यय का विधान नही होता। | योऽयमध्वा गन्तव्य आपाटलिपुत्रात् तस्य यदवरं कौशाम्ब्यास्तत्र द्विरोदनं भोक्ष्यामहे। तत्र सूक्तन् पास्यामः।
[३|३|१३७] कालविभागेचानहोरात्राणाम् - कालकृत सीमा के पूर्वभाग का यदि अभिधान करना हो तो भविष्यतकाल में अनद्यतन वत् प्रत्यय का विधान नही होता, यदि वह कालिक सीमा दिन-रात्रि सम्बन्धी न हो। | योऽयं संवत्सर आगामी, तत्र यदवरमाग्रहायण्यास्तत्र युक्ता अध्येष्यामहे (जो यह आगामी वर्ष है, उसका जो अगहन पूर्णमासी से इधर का भाग है, उसमें लग कर पढ़ेंगे)। तत्रौदनं भोक्ष्यामहे।
[३|३|१३८] परस्मिन्विभाषा - यदि कालकृत सीमा के उत्तरवर्ती भाग का अभिधान करना हो तो भविष्यतकाल में अनद्यतन वत् प्रत्यय विकल्प से नही होता। | योऽयं संवत्सर आगामी, तत्र यत् परमाग्रहायण्यास्तत्र युक्ता अध्येष्यामहे। पक्षे- अध्येतास्महे। तत्र सक्तून् पास्यामः पातस्मो वा।
[३|३|१३९] लिङ्निमित्तेऌङ्क्रियातिपत्तौ - लिङ् के निमित्त होने पर क्रिया की असिद्धि गम्यमान हो, तो भविष्यत् काल में धातु से ऌङ् लकार होता है।लिङ् निमित्त है। | कृष्णं नमेत् चेत् सुखं यायात्, इस वाक्य में नमस्कार क्रिया सुखप्राप्ति क्रिया का हेतु है। सुख-प्राप्ति क्रिया सहेतुक है, अतः इसे हेतुमत् कहा जाता है। इन दोनो के सम्बन्ध को हेतु-हेतुमद्भाव सम्बन्ध कहते हैं।
[३|३|१४०] भूतेच - लिङ् के निमित्त के वर्तमान होने पर धातु से भूतकाल में ऌङ् प्रत्यय होता है यदि किसी कारण से क्रिया की सिद्धि न हुई हो। | दृष्टो मया भवत्पुत्रोऽन्नार्थी चम्क्रम्यमाणः, अपरश्च द्विजो ब्राह्मणार्थी, यदि स तेन दृष्टोऽभविष्यत्, तदा अभोक्ष्यत्, न तु भुक्तवान्, अन्येन पथा स गतः (मैने अन्न के लिये इधर-उधर घूमते हुये आपके पुत्र को देखा था, तथा मैने एक द्विज को देखा था जो ब्राह्मण को भोजन कराने के लिए ढूंढ रहा था। यदि वह आपके पुत्र को देख लेता, तो खिला देता, पर नहीं खा सका, क्योंकि वह अन्य रास्ते से चला गया==दिखाई नहीं दिया)। इस उदाहरण में "यदि वह उसके द्वारा देखा जाता" यह हेतु है, "तो खिला देता" यह हेतुमत् है, "उसने देखा नहीं अतः खिलाया नहीं।
[३|३|१४१] वोताप्योः उताप्यो समर्थयोः सूत्र से पूर्व जितने सूत्रों से लकार का विधान किया जाएगा उन सूत्रों से विहित लकार-विशेष के साथ-साथ लिङ् निमित्त की वर्तमानता में धातु से भूतकाल में विकल्प से ऌङ् प्रत्यय भी समझना चाहिए यदि किसी कारण से क्रिया की सिद्धि न होती हो। | (३_३_१४३) सूत्र इत्यत्र कथं तत्र भवान् ब्राह्मणम् अक्रोक्ष्यत्। यथाप्राप्तं "क्रोशेत् इति च।
[३|३|१४२] गर्हायां लडपिजात्वोः - अपि तथा जातु के उपपद होने पर धातु से ऌट् प्रत्यय निन्दा के गम्यमान होने पर होता है। | (क्या आप मांस खाते हैं, आपने मांस खाया था, या आप मांस खायेंगे) इन तीनों लकारों के लिये लट् लकार का ही प्रयोग होगा। अपि तत्रभवान् मांसं खादति, गर्हितम् एतत्।
[३|३|१४३] विभाषाकथमिलिङ् च - कथम् शब्द के उपपद होने पर धातु से विकल्प से लिङ् तथा गर्हा के गम्यमान होने पर लट् प्रत्यय होते हैं। | कथं नाम भवान् ब्राह्मणं क्रोशेते (कैसे आप ब्राह्मण को डाटते हैं, डांटा, वा डांटेंगे)।
[३|३|१४४] किंवृत्तेलिङ् ऌटौ - किं शब्द निष्पन्न शब्द के उपपद होने पर धातु से लिङ् तथा गर्हा के गम्यमान होने पर ऌट् प्रत्यय होते हैं। | को नाम यो विद्यां निन्देत्, को नाम यो विद्यां निन्दिष्यति। कतरो विद्यां निन्देत्, कतरो विद्यां निन्दिष्यति।
[३|३|१४५] अनवकॢप्त्यमर्षयोरकिंवृत्तेऽपि - असम्भावना तथा अक्षमा के गम्यमान होने पर किसी भी शब्द के उपपदत्व में धातु से लिङ् तथा ऌट् प्रत्यय होते हैं। | अनवकॢप्ति अर्थ में == नावकल्पयामि, न सम्भावयामि, न श्रद्दधे, तत्रभवान् नाम मांसं भुञ्जीत।
[३|३|१४६] किंकिलास्त्यर्थेषु ऌट् - `कि किलऄ तथा ` अस्तॎ एवम् `विद्यते ` के उपपद होने पर असम्भावना तथा अक्षमा अर्थों में धातु से ऌट् प्रत्यय होते हैं। | अस्ति, भवति, विद्यते, ये सब अस्त्यर्थक पद हैं। किंकिल यह क्रोध का द्योतन करने वाला शब्द है।
[३|३|१४७] जातुयदोर्लिङ् - जातु तथा यत् के उपपद होने पर धातु से असम्भावना तथा अक्षमा अर्थों में लिङ् प्रत्यय होता है। | न सम्भवयामि जातु भवान् धर्मम् त्यजेत्, यद् भवान् धर्मं त्यजेत। अमर्षे - न मर्षयामि न सहे, जातु भवान् ब्राह्मणं सदाचरिणम् हन्यात् यद् भवान् ब्राह्मणं सदाचरिणं हन्यात्। भूते क्रियातिपत्तौ पक्षे ल्रिङपि भविष्यति।
[३|३|१४८] यच्चयत्रयोः - यच्च तथा यत्र के उपपद होने पर धातु से असम्भावना तथा अक्षमा अर्थों में लिङ् प्रत्यय होता है। | न सम्भवयामि यच्च भवद्विधोऽनृतं वदेत् (मैं सोच भी नही सकता कि आप कैसे झूठ बोल देंगें)।
[३|३|१४९] गर्हायांच - यच्च तथा यत्र के उपपद होने पर धातु से गर्हा (निन्दा) अर्थ में भी लिङ् प्रत्यय होता है | यच्च भवान् मांसं खादेत्, यत्र भवान् मांसं खादेत् अहो गर्हितमेतत् (जो आप मांस खाते हैं, यह बड़ी निन्दित बात है)।
[३|३|१५०] चित्रीकरणे च - यच्च तथा यत्र के उपपद होने पर धातु से चित्रिकरण अर्थ में भी लिङ् प्रत्यय होता है | यच्च भवान् वेद विद्यां निन्देत्, यत्र भवान् देवविद्यां निन्देत्, आश्चर्यमेतत्, बुद्धिमान् और सज्जन होते हुये भी जो आप वेद विद्या की निन्दा करते हैं, यह आश्चर्य है)
[३|३|१५१] शेषेऌडयदौ - यच्च तथा यत्र से भिन्न शब्दों के उपपदत्व में धातु से चित्रेकरण अर्थ में ऌट् लकार होता है यदि शब्द का प्रयोग न हुआ हो। | अन्धो नाम मार्गे क्षिप्रं यास्यति, बधिरो नाम व्याकरणं पठिष्यति, आश्चर्यमेतत्।
[३|३|१५२] उताप्योःसमर्थयोर्लिङ् - समानार्थक उत् तथा अपि शब्दों के उपपद होने पर धायु से लिङ् प्रत्यय होता है। | उत कुर्यात्, अपि कुर्यात्, उत पठेत्, अपि पठेत्।
[३|३|१५३] कामप्रवेदनेऽकच्चिति - कच्चित्-शब्द-भिन्न शब्द के उपपद होने पर धायु से स्वेच्छा प्रकाशन अर्थ में लिङ् प्रत्यय होता है। | कामो मे भुञ्जीत भवान्, अभिलाषो मे भुञ्जीत भवान्।
[३|३|१५४] संभावनेऽलमितिचेतसिद्धाप्रयोगे - सम्भावना अर्थ में लिङ् लकार होता है यदि ` अलम् ` के प्रयोग के बिना ही अलम् के अथ की प्रतीति होती है। | अपि पर्वतं शिरसा भिन्द्यात्। अपि वृक्षं हस्तेन त्रोटयेत्।
[३|३|१५५] विभाषाधातौसंभावनवचनेऽयदि - सम्भवानार्थक धातु से उपपद होने पर सम्भावना अर्थ में धातु से विकल्प से लिङ् प्रत्यय होता है। यदि यत् शब्द का प्रयोग न हुआ हो और अलम् शब्द के प्रयोग के बिना ही उसके अर्थ की प्रतीति होती है। | सम्भावयामि भोक्ष्यते भवान् (मैं सम्भावना करता हूं कि आप खावेंगें)। अवकल्पयामि भुञ्जीत भवान्।
[३|३|१५६] हेतुहेतुमतोर्लिङ् - हेतु-हेतुमद्भाव में धातु से लिङ् प्रत्यय होता है। | दक्षिणेन् चेद् यायात्, न शकटम् पर्याभवेत्। यदि कमलकमाह्वयेत्, न शकटं पर्याभवेत्। पक्षे ऌडपि- दक्षिणेन चेद् यास्यति, न शकटं पर्याभविष्यति।
[३|३|१५७] इच्छार्थेषुलिङ्लोटौ - इच्छार्थक धातुओं से उपपद होने पर धातु से लिङ् तथा लोट् प्रत्यय होते हैं। | मैं चाहता हूँ कि आप भोजन कर लें == इच्छामि भुञ्जीत भवान् / इच्छामि भुङ्क्तां भवान् ।
[३|३|१५८] समानकर्तृकेषुतुमुन् - समानकर्तृक इच्छार्थक धातु के उपपद होने पर धातु से तुमुन् प्रत्यय होता है। | देवदत्त इच्छति भोक्तुम् (देवदत्त खाना चाहता है)। कामयते भोक्तुम् (खाना चाहता है)।
[३|३|१५९] लिङ् च - समानकर्त्तृक इच्छार्थक धातु के उपपद होने पर धातु से लिङ्! प्रत्यय भी होता है। | भुञ्जीय इति इच्छति (खाऊँ ऐसा चाहता है)।
[३|३|१६०] इच्छार्थेभ्योविभाषावर्तमाने - इच्छार्थक धातुओं से वर्तमान काल में विकल्प से लिङ् प्रत्यय होता है। | इच्छेत् (चाहता है), कामयेत, वाञ्छेत्। पक्षे - इच्छति, कामयते, वाञ्छति।
[३|३|१६१] विधिनिमन्त्रणामन्त्रणाधीष्ट्संप्रश्नप्रार्थनेषुलिङ् - विधि निमंत्रण , आमंत्रण , अधीष्ट, संप्रश्न और प्रार्थना-इन छः अर्थों में धातु से लिङ् लकार होता है। | विधि में - ओदनं पचेत (वह चावल पकाये)। ग्रामं गच्छेत् (गाँव को जाये)। निमन्त्रण में - इहाद्य भवान् भुञ्जीत् (आज आप यहाँ भोजन करें)।
[३|३|१६२] लोट् च - विधि, निमन्त्रण, आमन्त्रण, अधीष्ट, संप्रश्न और प्रार्थना अर्थ में धातु से लोट् लकार होता है। | भवतो मङ्गलं भवतु।
[३|३|१६३] प्रैषातिसर्गप्राप्तकालेषुकृत्याश्च - प्रैष, अतिसर्ग तथा कारणी भूतकाल सम्प्राति अर्थों में धातु से कृत्य तथा लोट् प्रत्यय भी होते हैं। | भवता कटः करणीयः। कटः कर्तव्यः, कृत्यः, कार्यो वा। लोट् - प्रेषितो भवान् गच्छतु ग्रामम्। भावनतिसृष्टः गच्छतु ग्रामम्। भवतः प्रातकालः ग्रामं गच्छतु।
[३|३|१६४] लिङ्चोर्ध्वमौहूर्तिके - प्रैष आदि के गम्यमान होने पर ऊर्ध्वमौहूत्तिक अर्थ में वर्तमान धातुओं से `लिङ् ` तथा यथा प्राप्त `कृत्यऄ प्रत्यय होता है। | मुहूर्त्तस्य पश्चात् भवता खलु कटः करणीयः (मुहूर्त्तभर के पश्चाद् आप चटाई बनावें)। मुहूर्त्तस्य पश्चात् भवान् खलु करोतु कटम्।
[३|३|१६५] स्मेलोट् - स्म शब्द के उपपद होने पर पैष आदि के गम्यमानता में ऊर्ध्वमौहूर्त्तिक अर्थ में वर्तमान धातु से लोट् प्रत्यय होता है। | ऊर्ध्वं मुहूत्तार्द् भवान् कटं करोतु स्म (मुहूर्त्तभर के पश्चात् आप चटाई बनावें), ग्रामं गच्छतु स्म (गाँव जावें)
[३|३|१६६] अधीष्टे च - स्म शब्द के उपपद होने पर अधीष्ट अर्थ में भी धातु से लोट् प्रत्यय होता है। | अधीच्छामि भवान् माणवकम् अध्यापयतु (मैं सत्कारपूर्वक इच्छा करता हूं कि आप बालक को पढ़ावें)।
[३|३|१६७] कालसमयवेलासुतुमुन - काल्, समय और वेला के उपपद रहने पर धातु से तुमुन् होता है। | कालः समयो वेला वा भोक्तुम् (भोजन का समय है) में काल आदि शब्द उपपद रहने के कारण प्रकृत सूत्र से भुज् धातु से तुमुन् प्रत्यय हो भुज् तुम् रूप बनता है। इस स्थिति में लधूपधगुण और कुत्व आदि होकर भोक्तुम् रूप सिद्ध होता है।
[३|३|१६८] लिङ् यदि - यत् शब्द के साथ-साथ काल, समय अथवा वेला शब्द के उपपद होने पर धातु से लिङ् प्रत्यय होता है। | कालो यद् भुञ्जीत भवान् (समयकि आप भोजन करें)। समयो यद् भुञ्जीत भवान् , वेला यद् भुञ्जीत भवान् है ।
[३|३|१६९] अर्हे कृत्य-तृचश्च - योग्य कर्त्ता के वाच्य या गम्यमान होने पर धातु से कृत्य प्रत्यय, तृच् प्रत्यय तथा लिङ् प्रत्यय होते हैं। | कृत्य-भवता खलु पठितव्या विद्या (आप विद्या पढ़ने के योग्य हैं), तृच् - पठिता विद्याया भवान् (आप विद्या पढ़ने के योग्य हैं)।
[३|३|१७०] आवश्यकाध मर्ण्ययोर्णिनिः - अवश्यम्भाव विशिष्ट तथा आधमर्ण्य विशिष्ट कर्त्ता के वाच्य होने पर धातु से णिनि प्रत्यय होता है। | धर्मोपदेशी, प्रातःस्नायी, अवश्यङ्कारी, आधमर्ण्ये, शंतदायी, सहस्त्रदायी, निष्कंदायी।
[३|३|१७१] कृत्याश्च - पूर्वसूत्रोक्त अर्थ में धातु से कृत्य प्रत्यय भी होते हैं। | भवता खलु अवश्यं कटः कर्तव्यः (आपको अवश्य चटाई बनानी चाहिये)। आधमर्ण्य में - भवता शतं दातव्यम् ( आप को सौ रुपय देने हैं)
[३|३|१७२] शकि लिङ् चा - शक् धात्वर्थोपाधिक धात्वार्थ में धातु से लिङ् और कृत्य प्रत्यय होते हैं। | भवान् शत्रुं जयेत् (आप शत्रु के जीत सकते हैं) । भवता शत्रुएजेतव्यः (आपके द्वारा शत्रु जीता जा सकता है)।
[३|३|१७३] आशिषिलिङ्-लोटौ - आशी अर्थ में (अप्राप्त को पाने की इच्छा न कि आशीर्वाद देना) धातु से लिङ् तथा लोट् प्रत्यय होते हैं। | (१)पुत्रं ते भवतु, भूयाद् वा- तुम्हारे पुत्र हो। (२)आयुष्यं भूयात्। (३) शत्रुः म्रियात्
[३|३|१७४] क्तिचक्तौचसंज्ञायाम् - आशीः अर्थ में ही धातु से क्तिच् तथा क्त प्रत्यय भी होते हैं यदि प्रत्ययान्त से संज्ञा की प्रतीति होती हो। | तनुतात् (लोट्) = तन्तिः, सनुतात् == सातिः, भवताट् == भूतिः। क्त - देवा एनं देयासुः (लिङ्) == देवदत्त।
[३|३|१७५] माङि लुङ् - माङ् उपपद रहते धातु से लुङ् लकार होता है। | क्लैब्यं मा गम् में माङ् उपपद रहने से लुङ् लकार आता है, यद्यपि यहाँ भूतकाल नहीं हैं।
[३|३|१७६] स्मोत्तरे लङ् च - त्मोत्तर माङ् (स्म् जिसके उत्तर्-पश्चात् में हो) उपपद रहते धातु से लङ् होता है और लुक् भी होता है। | मास्म भवत् भूत् वा (न हो) में स्म परक् माङ् उपपद होने से लङ् और लुङ् दोनो ही लकारों का प्रयोग किया जाता है।
[३|४|१] धातु-सम्बन्धे प्रत्ययाः - धात्वर्थ का सम्बन्ध होने पर एककालविहित प्रत्य कालान्तर में भी जाते हैं। | अग्निष्टोमयाजी अस्य पुत्रो जनिता। कृतः कटः श्वो भविता।
[३|४|२] क्रियासमभिहारेलोट्लोटोहिस्वौवाचतध्वमोः - क्रिया के पौनः-पुन्य के गम्यमान होने पर धातु से धात्वर्थ सम्बन्ध में लोट् लकार होता है, उस लोट् के स्थान में हि तथा स्व आदेश तथा त एवम् ध्वम् के स्थानी लोट् के स्थान में विकल्प से हि तथा स्व आदेश। | वर्तमान विषय में
[३|४|३] समुच्चयेऽन्यतरस्याम् - क्रिया समुच्चय होने पर धातु से धात्वर्थ सम्बन्ध में विकल्प से लोट् लकार होता है। | भ्राष्टमट (भाड़ पर जाता है), मठमट (मठ को जाता है), खदूरमट (कमरे में जाता है), स्थाल्यपिधानमट इत्येवायमटति (बटलोई के ढक्कन तक जाता है)।
[३|४|४] यथाविध्यनुप्रयोगःपूर्वस्मिन - क्रियासमभिहारे०(३_४_२) सूत्र से विहित लोट् की प्रकृति जो धातु होती है उसी धातु का लोडन्त के बाद भी अनुप्रयोग किया जाता है। | स भवान् लुनीहि लुनीहि इति लुनाति, इत्यत्र "लुनातीति" अनुप्रयुज्यते। पर्यायवाची छिन्नत्तीति नानुप्रयुज्यते। एवं सर्वत्र।
[३|४|५] समुच्चयेसामान्यवचनस्य - समुच्चये०(३_४_२) सूत्र से विहित लोट् की प्रकृति धातुओं से पर लोट् प्रकृति भूत धातु समूह के अर्थों का सामान्यतः प्रतिपादन करने वाली धातु अनुप्रयुक्त होती है। | ओदनं भुङ्क्ष्व सक्तून् पिब् , धानाः खाद इत्यभ्यवहरति (चावल खाता है, सत्तू, धान खाता है, यह सब खाता है)। वेदानधीष्व, सत्यं वद, अग्निहोत्रं जुहुधि सत्पुरुषान् सेवस्व, एवं धर्मं करोति, करिष्यति, अकार्शीद् वा (वेद पढ़ता है, सत्य बोलता है, हवन करता है, सत्पुरुषों का सेवन करता है, इस प्रकार धर्म करता है, करेगा या किया)। अभ्यवहरति का अर्थ - खाना, पीना, चूसना, चाटना आदि सभी सामान्यरूप से हैं।
[३|४|६] छन्दसि लुङ्-लङ् लिटः - वेद में धातु सम्बन्ध प्रतिपादन के लिए सभी कालों में लुङ्, लङ्, लिट् प्रत्यय होते हैं। | दवो देवेभिरागमत् (लुङ्), अग्निमद्य होतारमवृणीतायं यजमानः (लङ्), अहन्नहिमन्वपस्ततर्द।
[३|४|७] लिङर्थेलेट् - वेद में लिङ् लकारार्थ में विकल्प से लोट् लकार होता है। | निहारञ्च हरासि मे निहारं निहराणि ते स्वाहा । नेज्जिह्मायन्तो नरकं पताम (कुटिल आचरण करते हुए कहीं हम नरक में न जा गिरें)
[३|४|८] उपसंवादाशङ्कयोश्च - पणबन्ध तथा कारण निमित्तक कार्यावगम अर्थों में वेद में लेट् प्रत्यय होता है। | नेज्जिह्मायन्तो नरकं पताम (कुटिल आचरण करते हुए कहीं हम नरक में न जा गिरें)
[३|४|९] तुमर्थेसे-सेनसे-ऽसेङ्क्से-कसे-नध्यै-अध्यैन्-कध्यै-कध्यैन्-शध्यै-शध्यैन्-तवै-तवेङ्-तवेनः - वेद में तुमुन प्रत्यय के अर्थ में से, सेन्, असेन्, क्से, कसेन्, अध्यै, अध्यैन्, कध्यै, कध्यैन्, शध्यै, शध्यैन्, तवे, तवेङ् तथा तवेन् प्रत्यय होते हैं। | से-वक्षे रायः। सेन् - ता वामेषे रथानाम्। असे, असेन् - क्रत्वे दक्षाय जी॒वसे॑, स्वरे विशेषः। कध्यै - इन्द्राग्नी आहुवध्यै। कध्यैन् - श्रियध्यै। शध्यै - पिबध्यै। शध्यैन् - सह मादयध्यै तवै - सोममिन्द्राय पातवै। तवेन्॒ - दशमे मासि सूतवे। तवेन् - स्वर्देवेषु गन्तवे, कर्त्तवे, हर्त्तवे।
[३|४|१०] प्रयैरोहिष्यै अव्यथिष्यै वेद में तुमुन् के अर्थ में कै आदि प्रत्ययान्त `प्रयै`, `रोहिष्यै` तथा ` अव्यथिष्यै` शब्दों का निपातन। | रोढ़ु + इष्यै == रोहिष्यै, अव्यथितुम् + इष्यै == अव्यथिष्यै।
[३|४|११] दृशेविख्येच - वेद में तुमुन्नर्थक के प्रत्ययान्त `दृशे ` तथा `विख्ये ` शब्दों का निपातन। | दृशे विश्वाय सूर्यम् == द्रष्टुम्। विख्ये त्वा हरामि == विख्यातुम्।
[३|४|१२] शकि णमुल्कमुलौ - शक् धातु का उपपद होने पर धातु से वेद में तुमुन्नर्थ में णमुल् तथा कमुल् प्रत्यय होते हैं। | विभज् + ण्मुल् == विभाज् + अम् == विभाजम्।
[३|४|१३] ईश्वरेतोसुन् कसुनौ - ईश्वर शब्द के उपपद होने पर वेद में धातु से तुमुन्नर्थ में तोसुन् तथा कसुन् प्रत्यय होते हैं। | अभि + चर् + तोस् == अभि + चर् + इट् + तोस् == अभिचरितोः। वि + लिख् + कसुन् == वि + लिख् + अस् == विलिखः
[३|४|१४] कृत्यार्थे तवै केन्-केन्यत्वनः - भाव तथा कर्म में वेद में कृत्य प्रत्यय के स्थान में तवै, केन्, केन्य तथा त्वन् प्रत्यय। | तवै - अन्वेतवै, अन्वेतव्यमित्यर्थः। परिस्तरितवै, परिस्तरितव्यमित्यर्थः। परिधातवै, परिधातव्यमित्यर्थः। केन् - नावगाहे, नावगाहितव्यमित्यर्थः। केन्य दिदृक्षेण्यः, शूश्रूषेण्यः। दिदृक्षितव्यं शुश्रूषितव्यमित्यर्थः। त्वन् - कर्त्वं हवि, कर्तव्यमित्यर्थः।
[३|४|१५] अवचक्षेच - अवपूर्वक `चक्षिङ् ` धातु से भी कृत्यार्थ में वेद में एश् प्रत्यय का निपातन। | अव + चक्ष + एश् == अव चक्ष् + ए =(अदिप्रभृतिभ्यः) सूत्र से शप् का लुक्)= अव + चक्ष् + ए == अवचक्षे।
[३|४|१६] भावलक्षणे-स्थेण्-कृञ्-वदि-चरि-हु-तमि-जनिभ्यस्तोसुन् - भावलक्षक अर्थ में वर्तमान `स्था`, ` इण् `, `कृञ् `, `वदऄ, `चरऄ, `हु`, `तम् ` तथा `जन् ` धातुओं से तुमुन्नर्थ में वेद में तोसुन् प्रत्यय होता है। | आ संस्थातोर्वेद्यां सीदन्ति। इण् - पुरा सूर्यस्योदेतोराधेयः कृञ् - पुरा वत्सानामपाकर्त्तोः। वदि - पुराप्रवदितोराधेयः, कृञ् - पुरा वत्सानामपाकर्तोः। वदि - पुराप्रवदितोरग्नौ प्रहोतव्यम्। चरिपुरा प्रचरितोराग्नीध्रे होतव्यम्। हु - आ होतोरप्रमत्तस्तिष्ठति। तमि - आ तमितोरासीत। जनि - आ विजनितोः सम्भवामेति।
[३|४|१७] सृपितृदोःकसुन् - वेद में भावलक्षक अर्थ में वर्तमान `सृप् ` तथा `तृद् ` धातुओं से तुमुन्नर्थ में कसुन् प्रत्यय होता है। | पुरा क्रूरस्य विसृपो विरप्शिन्। पुरा जत्रुभ्य आतृदः (ऋ०८_१_१२)।
[३|४|१८] अलंखल्वोःप्रतिषेधयोःप्राचांक्त्वा - प्रतिषेध (निषेध) वाचक अलं और खलु के उपपद रहने पर धातु से विकल्प से क्त्वा प्रत्यय होता है। | अलं दत्वा (मत दो) में अलं का प्रयोग प्रतिषेध अर्थ में हुआ है, अतः यहाँ प्रकृत सूत्र से दा धातु से क्त्वा होकर दा त्वा रूप बनता है। इस स्थिति में दा धातु के स्थान पर दद् होकर दद् त्वा = दत्त्वा रूप बनने पर प्रातिपादिक संज्ञा हो प्रथमा के एकवचन में दत्त्वा सु रूप बनेगा।
[३|४|१९] उदीचांमाङोव्यतीहारे - व्यतीहारार्थक `माङ् ` धातु से उदीच्य आचार्यों के अनुसार क्त्वा प्रत्यय होता है। | अपमित्ये याचते। अन्येषां मते यथाप्राप्तंयाचित्वा अपमयते इति भवति।
[३|४|२०] परावरयोगे च - पर से पूर्व के तथा अवर के पर के योग के गम्यमान होने पर भी धातु से क्त्वा प्रत्यय होता है। | परेर्न - अप्राप्य नगी पर्वतः स्थितः (पर भाग से पूर्व नदी में स्थित है)। अवरेण - अतिक्रम्य तु पर्वतं नदी स्थिता।
[३|४|२१] समानकर्तृकयोःपूर्वकाले - समान कर्ता वाली (जिनका कर्ता एक ही हो) दो धातुओं में से पूर्वकाल में वर्तमान धातु से क्त्वा प्रत्यय होता है। | देवदत्तो भुक्त्वा व्रजति (देवदत्त खाकर जाता है।), देवदत्तः पीत्वा व्रजति (देवदत्त पीकर जाता है।
[३|४|२२] आभीक्ष्ण्ये णमुल् च पौनःपुन्य और वीप्सा अर्थ में सभी का द्वित्व होता है। | ग्रामो ग्रामो रमणईयः (गांव गांव सुन्दर है) में मिलता है क्योंकि यहाँ सुबन्त ग्रामः का द्वित्व हुआ है।
[३|४|२३] नयद्यनाकाङ्क्षे - अनाकांक्ष कर्त्ता के वाच्य होने पर समान कर्तृक धातुओं में पूर्वकालिक क्रियावाचक धातु से यत् शब्द के उपपद होने पर अभीक्ष्ण्य अर्थ में क्त्वा तथा णमुल् प्रत्यय नहीं होते। | यदयं भुङ्क्ते ततः पठति (यह बार बार पहले खाता है, पीछे पढ़ता है)। यदयमधीते ततः शेते (यह पहले बार-बार पढ़ता है तब सोता है)।
[३|४|२४] विभाषाऽग्रेप्रथमपूर्वेषु - अग्रे, प्रथम तथा पूर्व शब्दों के उपपद होने पर समाङकर्तृक धातुओं से पूर्वकालिक क्रियावाचक धातु से विकल्प से क्त्वा तथा णमुल् प्रत्यय होते हैं। | अग्रे भोजम् व्रजति (आगे खाकर जाता है)।
[३|४|२५] कर्मण्याक्रोशेकृञःखमुञ् - कर्मकारक के उपपद होने पर समान कर्तृक पूर्वक्रियावाचक `कृञ् ` धातु से आक्रोश के गम्यमान होने पर खमुञ् प्रत्यय होता है। | चोर् + मुम् + कार् + अम् == चिरङ्कारमाक्रोशति (चोर है, ऐसा कहकर चिल्लाता है)।दस्युङ्कारमाक्रोशति।
[३|४|२६] स्वादुमि णमुल् - स्वादु तथा तदर्थक शब्दों के उपपद होने पर पूर्वकालिक क्रियावाचक `कृञ् ` धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। | स्वादुङ्कारं भुङ्क्ते। लवणङ्कारं भुङ्कते।
[३|४|२७] अन्यथैवंकथमित्थंसुसिद्धाप्रयोगश्वेत् - अन्यथा, एवम्, कथम् और इत्थम्- इन चार अव्ययों के उपपद रहने पर कृञ् (करना) धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। | अन्यथा-पूर्वक कृ धातु से णमुल् होकर अन्यथाकारम् बनता है। यहाँ कृ धातु का प्रयोग व्यर्थ है क्योंकि अन्यथा से जो अर्थ प्राप्त होता हैवही अन्यथाकारम् से भी। कृ के प्रयोग से अर्थ में कोई विशिष्टता नही आती।
[३|४|२८] यथातथयोरसूयाप्रतिवचने - यथा और तथा शब्द के उपपद होने पर अन्यथा सिद्ध प्रयोग `कृञ् ` धातु से णमुल् प्रत्यय असूया के प्रतिवचन के गम्यमान होने पर होता है। | यथाकारमहं भोक्ष्ये, तथाकारं किं तवानेन।
[३|४|२९] कर्मणिदृशिविदोःसाकल्ये - कर्मकारक के उपपद होने पर `पूरऄ `दृशऄ तथा `वदऄ धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है यदि कर्मकारक साकल्य विशिष्ट अर्था में वर्तमान हो। | यवनदर्शनम् हन्ति (जिसे जिसे यवन देखता है, सबको मारता है), ब्राह्मणवेदं भोजयति (जिसे जिसे ब्राह्मण समझता है, सबको खिलाता है)।
[३|४|३०] यावतिविन्दजीवोः - यावत् शब्द के उपपद होने पर `वन्द् ` तथा `जीवऄ धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है। | यावद्वेदं भोजयति (जितना पाता है उतना खिलाता है)। यावज्जीवमधीते (मरणपर्यन्त पढ़ता है)।
[३|४|३१] चर्मोदरयोःपूरेः - कर्मत्व विशिष्ट चमन् तथा उदर शब्दों के उपपद होने पर `पूरऄ धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। | चर्मपूरं स्तृणाति (सब चमड़े को ढाँकता है।), उदरपूरं भुङ्कते (पेट को भरते हुए खाता है।)
[३|४|३२] वर्षप्रमाणऊलोपश्चास्यान्यतरस्याम् - कर्मकारक के उपपद होने पर `पूरऄ धातु से णमुल् प्रत्यय तथा उसके ऊकार का विकल्प से लोप यदि समुदाय से वर्षा के इयत्ता की प्रतीति हो। | गोष्पदप्रम् वृष्टो देवः (भूमि में गाय के खुर से होने वाले गड्ढे के भरने जितनी वर्षा हुई), सीत्राप्रम् वृष्ट देवः (भूमि में हल के फाल से होने वाले गड्ढे के भरने जितनी वर्षा हुई।)
[३|४|३३] चेले क्नोपेः - चेलार्थक (वस्त्रार्थक) कर्म के उपपद होने पर `क्नोपॎ धातु से णमुल् प्रत्यय होता है यदि समुदाय से वर्षा के इयत्ता की प्रतीति हो। | चेलक्नोपं वृष्टो देवः (कपड़ा गीला हो गया इतनी वर्षा हुई), वस्त्रक्नोपं, वसनक्नोपम्।
[३|४|३४] निमूलसमूलयोःकषः - कर्मत्व विशिष्ट निमूल तथा समूल शब्दों के उपपद होने पर `कषऄ धातु से णमुल् प्रत्यय होता है | निम्प्प्लकाषं कषति (जड़ को छोड़कर काटता है)। समूलकाषं कषति (जड़समेत काटता है)।
[३|४|३५] शुष्कचूर्णरुक्षेषुपिषः - कर्मत्व विशिष्ट शुष्क, चूर्ण तथा रुक्ष शब्दों के उपपद होने पर `पिषऄ धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। | शुष्कपेषम् पिनष्टि (सूखे को पीसता है)। चूर्णपेषं पिनष्टि (चूर्ण को पीसता है)।रुक्षपेषं पिनष्टम् (रूखे को पीसता है)।
[३|४|३६] समूलाकृत-जीवेषु हन्-कृञ्-ग्रहः - कर्मत्व विशिष्ट समूल, आकृत तथा जीव शब्दों के उपपद होने पर यथाक्रम `हन् `, `कृञ् `, तथा `ग्रहऄ धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है। | समूलघातं हन्ति (मूल समेत मारता है)। अकृतकारं करोति (न किये को करता है)। जीवग्राहं गृह्णाति (जीव को ग्रहण करता है)
[३|४|३७] करणेहनः - करण के कारक का उपपद होने पर `हन् ` धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। | पाण्युपघातं वेदिं हन्ति (हाथ से वेदी को कूटता है)। पादोपघातं वेदिं हन्ति (पैर से वेदि को कूटता है)।
[३|४|३८] स्नेहनेपिषः - स्नेहनार्थक करण के उपपद होने पर `पिष् ` धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। | उदपेषम् पिनष्टि (पानी से पीसता है।), तैलपेषम् पिनष्टि (तेल से पीसता है।)
[३|४|३९] हस्तेवर्तिग्रहोः - करणत्वविशिष्ट हस्तार्थक शब्द के उपपद होने पर णयन्त `वृतऄ तथा `ग्रहऄ धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है। | हस्त्वर्तम् वर्तयति (हाथ से गुलिका करता है।), हस्तग्राहं गृह्णाति (हाथ से ग्रहण करता है।)
[३|४|४०] स्वेपुषः - स्वार्थक करण के उपपदत्व में `पुषऄ धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। | स्वपोषं पुष्णाति (अपने द्वारा पुष्ट करता है), आत्मपोषम्, गोपोषम्, धनपोषम्, रैपोषम्।
[३|४|४१] अधिकरणेबन्धः - अधिकरण कारक के उपपद होने पर `बन्ध् ` धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। | चक्रे बध्नाति == चक्रबन्धं बध्नाति (चक्र = पहिये से बांधता है), कूटबन्धं बध्नाति(लोहे के मुद्गर से बांधता है), मुष्टिबन्धं बध्नाति (मुट्ठी में बांधता है), चोरकबन्धं बध्नाति (चोरक बन्ध विशेष में बांधता है )।
[३|४|४२] संज्ञायाम् - संज्ञा विषय में `बन्ध् ` धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। | क्रौञ्चबन्धं बध्नाति, मयूरिकाबन्धम्, अट्टालिकाबन्धम्
[३|४|४३] कर्त्रोर्जीवपुरुषयोर्नशिवहोः - कर्त्तृवाची जीव तथा पुरुष शब्दों के उपपद होने पर क्रमशः `नशऄ तथा `वहऄ धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। | जीवनाशं नश्यति (जीव नष्ट होता है।), पुरुषवाहं वहति (पुरुष वहन करता है।)
[३|४|४४] ऊर्ध्वेशुषिपूरोः - कर्त्तवाची ऊर्ध्व शब्द के उपपद होने पर `शृष् ` तथा `पूर ` धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है | ऊर्ध्वशोषं शुष्यति (ऊपर सूखता है)। ऊर्ध्वपूरं पूर्य्यते (ऊपर वर्षा के जल आदि से पूरा होता है।
[३|४|४५] उपमाने कर्मणि च - उपमानवाचक कर्मकारक तथा कर्त्तृकारक के उपपद होने पर भी धातु से णमुल् प्रत्यय होता है | मातरमिव + धयति == मातृधायं धयति (जैसे माता का दूध पीता है वैसे दूध पीता है)। गुरुसेवं सेवते (जैसे गुरु की सेवा करता है वैसे सेवा करता है)। कर्त्ता में बालरोदं रोदिति (जैसे बालक रोता है, वैसे रोता है)सिंहगर्जं गर्जति (जैसे सिंह गरजता है, वैसे गरजता है)।
[३|४|४६] कषादिषुयथाविध्यनुप्रयोगः| - निमूलसमूलयोः कषः (३_४_३४) सूत्र से लेकर आगे जिन धातुओं से णमुल् का विधान किया गया है उन्ही धातुओं का अनुप्रयोग भी समझना चाहिए।
[३|४|४७] उपदंशस्तृतीयायाम् - तृतीयान्त के उपपद होने पर उपपूर्वक `दंशऄ धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। | मूलकोपदंशं भुङ्कते, मूलकेनोपदंशम्। आद्रकोपदंशं भुङ्क्ते आर्द्रकेणोपदंशम्।
[३|४|४८] हिंसार्थानां च समानकर्मकाणाम् - अनुप्रयुक्त धातु समान कर्मल हिंसार्थक धातुओं से तृतीयान्त के उपपद होने पर णमुल् प्रत्यय होता है। | दण्डोपघातं गाः कालयति (डण्डे से मारकर गौ को हटाता है), दण्डेनोपघातम्। नखोपघातं यूकान् गृह्णाति (नाखून से दबाकर जूँ को पकड़ता है), नेखोनोपघातम्।
[३|४|४९] सप्तम्यांचोपपीडरुधकर्षः - सप्तम्यन्त तथा तृतीयान्त के उपपद होने पर उप + पीड, उप + रुध तथा उप + कष धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है। | पार्श्वोपपीडं शेते, पर्श्वयोरुपपीडम्, पार्श्वाभ्यामुपपीडम्। पाण्युपरोधं चूर्ण पिनष्टि, पाणावुपरोधम्, पाणिनोपरोधम्। पाण्युपकर्षम् धानाः संगृह्णाति, पाणावुपकषम्, पाणिनोपकर्षम्।
[३|४|५०] समासत्तौ - सन्निकर्ष की गम्यमानता में सप्तम्यन्त अथवा तृतीयान्त के उपपद होने पर धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। | केशग्राहं युध्यन्ते (केशों से पकड़कर लड़ते हैं), केशेशु ग्राहम्, हस्तग्राहम्, हस्तैग्राहम्, हस्तेषु ग्राहम्।
[३|४|५१] प्रमाणेच - तृतीयान्त अथवा सप्तम्यन्त के उपपद होने पर धातु से णमुल् प्रत्यय होता है लम्बाई के गम्यमान होने पर। | द्वयङ्गुलोत्कर्षं खण्डिकां छिनत्ति (दो-दो अङ्गुल छोड़कर लकड़ी काटता है), द्वयङ्गुलेनोत्कर्षं उत्कर्षम्, द्वयङ्गुलोकर्षं ।
[३|४|५२] अपादाने च परीप्सायाम् - अपादान कारक के उपपद होने पर धातु से णमुल् प्रत्यय होता है परीप्सा के गम्यमान होने पर। | शय्योत्थायं धावति (खाट से उठते ही भागता है), शय्याया उत्थायं धावति।
[३|४|५३] द्वितीयायांच - द्वितीयान्त के उपपद में भी परीप्सा के गम्यमान होने पर धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। | यष्टिग्राहम् युध्यन्ते (लाठी लेकर लड़ते हैं), यष्टिं ग्राहम्। असिग्राहं युध्यन्ते (तलवार लेकर लड़ते हैं), असिं ग्राहम्। लोष्टग्राहम् (ढेला लेकर लड़ते हैं), लोष्टं ग्राहम्।
[३|४|५४] स्वाङ्गेऽध्रुवे - अध्रुव जिस अंग के काट दिये जाने पर भी मनुष्य की मृत्य न हो)स्वाङ्ग के वाचक द्वितीयान्त पद के उपपद होने पर धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। | अक्षिनिकाणं जलपति, अक्षि निकाणं जल्पति। भ्रूविक्षेपं कथयति, भ्रुवं विक्षेपं कथयति।
[३|४|५५] परिक्लिश्यमाने च - परिक्लिश्यमान-स्वाङ्गवाचक द्वितीयान्त के उपपदत्व में भी धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। | उरः पेषं युध्यन्ते(सम्पूर्ण छाती को कष्ट देते हुए लड़ते हैं), उरः पेषं युध्यन्ते। शिरः पेषं युध्यन्ते(सम्पूर्ण सिर को कष्ट देते हुए लड़ते हैं), शिरः पेषम्।
[३|४|५६] विशिपतिपदिस्कन्दांव्याप्यमानासेव्यमानयोः - द्वितीयान्त के उपपद होने पर `विशऄ, `पस् ` तथा `स्कन्द् ` धातुओं से व्याप्यमान तथा आसेव्यमान अर्थों के गम्यमान होने पर णमुल् प्रत्यय होता है। | व्याप्ति में - गेहानुप्रवेशमास्ते (घर-घर में प्रवेश करके रहता है)। आसेवा में - गेहानुप्रवेशमास्ते (घर-घर में जाकर रहता है)।
[३|४|५७] अस्यतितृषोःक्रियान्तरेकालेषु - कालवाचक द्वितीयान्त के उपपद होने पर क्रिया-व्यधायक अर्थ में वर्तमान ` अस् ` तथा `तृष् ` धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है। | द्वय्हात्यासं गाग् पाययति। असमासे - द्वयहमत्यासम्। त्र्यहात्यासं गाः पाययति, त्र्यहमत्यासम्। द्वयहतर्षं गाः पाययति, द्वयहं तर्षम्।
[३|४|५८] नाम्न्यादिशिग्रहोः - द्वितीयान्त नामम् शब्द के उपपद होने पर आङ्पूर्वक `दिश् ` तथा `ग्रह ` धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। | नामादेशमाचष्टे (नाम लेकर कहता है)। नामग्राहमाचष्टे।
[३|४|५९] अव्ययेऽयथाभिप्रेताख्यानेकृञःक्त्वाणमुलौ - अव्यय के उपपद होने पर `कृञ् ` धातु से क्त्वा तथा णमुल् प्रत्यय अथवाभिप्रेत अर्थ के गम्यमान होने पर होते हैं। | हे ब्राहण ! तव पुत्रः शास्त्रार्थे विजयी अभूदिति, किं तर्हि मूर्ख ! नीचैः कृत्याचक्षे, नीचैः कृत्वा। नीचैः कारम्। हे ब्राह्मण ! तव पुत्रेण वधः कृतः, किं तर्हि मूर्ख ! उच्चैः कृत्याचक्षे, उच्चैः कृत्वा। उच्चैः कारम्।
[३|४|६०] तिर्यच्यपवर्गे - तिर्यक् शब्द के उपपद होने पर `कृञ् ` धातु से क्त्वा तथा णमुल् प्रत्यय क्रिया की समाप्ति के गम्यमान होने पर् होते हैं। | तिर्यक्कृत्य गतः (सारा कार्य समाप्त करके चला गया), तिर्यक् कृत्वा। तिर्यक्कारम्।
[३|४|६१] स्वाङ्गेतस्प्रत्ययेकृभ्वोः - तस्प्रत्ययान्त स्वाङ्गवाचक शब्द के उपपद होने पर `कृञ् ` तथा `भू ` धातुओं के क्त्वा एवं णमुल् प्रत्यय होते हैं। | मुखतः कृत्य गतः (सामने होकर चला गया), पाणितः कृत्य (हाथ से करके)। मुखतोभूय गतः (सामने होकर चला गया), पाणितोभूय गतः (हाथ से करके चला गया)।
[३|४|६२] नाधार्थप्रत्ययेच्व्यर्थे - च्वयर्थ ( अभूततद्भाव) के प्रतिपादिक `ना` तथा तदर्थक एवम् `धा` और तत्समानार्थक प्रत्ययों से युक्त शब्दों के उपपद होने पर `कृञ् ` तथा `भू ` धातुओं से क्त्वा तथा णमुल् प्रत्यय होते हैं। | अनाना ना कृत्वा गतः = नानाकृत्य गतः, नाना कृत्वा, नानाकारम्। विनाकृत्य, विना कृत्वा, विनाकारम्। अनाना नाना भूत्वा गतः = नानाभूय, नाना भूत्वा, नानाभावम्।
[३|४|६३] तूष्णीमिभुवः - `तीष्णीम् ` शब्द के उपपद होने पर `भू ` धातु से क्त्वा तथा णमुल् प्रत्यय होता है। | तूष्णींभूय गतः (चुप होकर चला गया), तूष्णीं भूत्वा। तूष्णींभावम्।
[३|४|६४] अन्वच्यानुलोम्ये - `न्वक् ` शब्द के उपपद होने पर `भू ` धातु से आनुलोम्य अर्थ में क्त्वा तथा णमुल् प्रत्यय होते है। | अन्वग्भूयास्ते (अनुकूल बनकर रहता है), अन्वग् भूत्वा। अन्वग्-भावम्।
[३|४|६५] शक-धृष-ज्ञा-ग्ला-घट-रभ-लभ-क्रम-सहार्हास्त्यर्थेषु तुमुन् - `शक् ` , `ज्ञा`, `ग्ला `, `घटऄ, `रभऄ, `लभऄ, `क्रुम् `, `सहऄ, ` अर्हऄ तथा अस्त्यर्षक धातुओं के उपपद होने पर धातुमात्र से तुमुन् प्रत्यय होता है। | शक्नोति भोक्तुम् (खाने में कुशल प्रवीण है)। धृष्णोति भोक्तुम् (खाने में कुशल है)। जानाति पठितुम् (पढ़ने में प्रवीण है)। ग्लायति गन्तुम् (जाने में आसक्त है), घटते शयितुम् (सोने में होशियार है)। आरभते लेखितुम् (लिखना आरम्भ करता है)।
[३|४|६६] पर्याप्तिवचनेष्वलमर्थेषु - पर्याप्तिवाचक अल्मर्थक शब्दों के उपपद होने पर धातु से तुमुन प्रत्यय होता है। | पर्याप्तो भोक्तुम् (खाने में समर्थ है)। समर्थो भोक्तुम्। अलं भोक्तुम्।
[३|४|६७] कर्तरि कृत् - कृत्संज्ञक प्रत्यय कर्त्ता कारक में होते हैं। (इनका अर्थ कर्त्ता होता है) | कर्त्ता, कारकः, नन्दनः, ग्राही, पचः।
[३|४|६८] भव्य-गेय-प्रवचनीयोपस्थानीय-जन्याप्लाव्यापात्या वा - `भव्यऄ, `गेयऄ, `प्रवचनीय `, ` उपस्थिनीयऄ, `जन्यऄ, ` आप्लाञ्यऄ तथा ` अपात्य ` शब्द विकल्प से कर्त्तृवाचक प्रत्ययान्त शब्दों के रूप में निपाति होते हैं। | भव्यः (होनेवाला, अथवा इसके द्वारा होने योग्य)। गेयो माणवकः साम्नाम्, गेयानि माणवकेन सामानि (सामवेद के मन्त्रों का गान करने वाला लड़का अथवा, अथवा लड़के के द्वारा गाये जाने वाले सामवेद के मन्त्र)
[३|४|६९] लःकर्मणिचभावेचाकर्मकेभ्यः - सकर्मक धातुओं से कर्ता और कर्म में तथा अकर्मक धातुओं से कर्ता और भाव में लकार होते हैं। | लकार का वचन और पुरुष कर्ता के अनुसार ही होता है जैसे रामः पुस्तकं पठति। यहाँ कर्ता रामः के अनुसार ही क्रिया पठति का प्रयोग हुआ है।
[३|४|७०] तयोरेवकृत्यक्तखलर्थाः - भाव तथा कर्म में ही कृत्यसंज्ञक प्रत्यय, क्तप्रत्यय तथा खल् एवम् तदर्थक प्रत्यय होते हैं। | कृत्यों का कर्म में - कर्तव्यो घटः कुलालेन (कुम्हार के द्वारा घड़ा बनाया जाना चाहिये)।कृत्यों का भाव में - आसितव्यं भवता (आपके द्वारा बैठा जाना चाहिए)। क्त का कर्म में - कृतो घटः कुलालेन (कुम्हार के द्वारा घड़ा बनाया गया)।क्त का भाव में - आसितं भवता (आपके द्वारा बैठा गया)।
[३|४|७१] आदिकर्मणिक्तःकर्तरिच - आदिकर्म में विहित क्त प्रत्यय कर्त्ता, भाव एवं कर्म में होता है। | प्रकृतः कटं देवदत्तः (देवदत्त ने चटाई बनानी प्रारम्भ की)। प्रभुक्त ओदनं देवदत्तः (देवदत्त ने चावल खाना आरम्भ किया)। कर्म में - प्रकृतः कटो देवदत्तेन (देवदत्त के द्वारा चटाई बनाना प्रारम्भ किया गया)। प्रभुक्त ओदनो देवदत्तेन। भाव में - प्रकृतं देवदत्तेन (देवदत्त के द्वारा प्रारम्भ किया गया)। प्रभुक्तं देवदत्तेन।
[३|४|७२] गत्यर्था कर्मकश्लिष शीङ् स्थास वस जन रुह जीर्यतिभ्यश्च - गत्यर्थक, अकर्मक, श्लिष, शीङ्, स्था, आस्, वस्, जन, रुह एवम् जॄ धातुओं से भी कर्त्त, भाव और कर्म क्त प्रत्यय होता है। | गत्यर्थकों से - गतो देवदत्तो ग्रामम् (देवदत्त गाँव को गया)। कर्म में - गतो देवदत्तेन ग्रामः (देवदत्त के द्वारा ग्राम को जाया गया)। भाव में - गतं देवदत्तेन (देवदत्त के द्वारा जाया गया)। अकर्मक से - ग्लानो देवदत्तः (देवदत्त ने ग्लानि की), ग्लानं देवदत्तेन (देवदत्त के द्वारा ग्लानि की गई)।
[३|४|७३] दाश-गोघ्नौ-सम्प्रदाने - सम्प्रदानार्थक प्रत्ययान्त `दाशऄ तथा `गोध्नऄ शब्दों का निपातन। | दाशः (जिसके लिये दिया जाता है)। गोध्नः (गौ का विकार दूध आदि जिसके लिये प्राप्त किया जाता है)।
[३|४|७४] भीमादयोऽपादाने अपदानार्थक प्रत्ययान्त `भीमऄ आदि शब्दों का निपातन। | बिभ्यति जना अस्मात् स भीमः, भीष्मो वा। बिभेत्यस्मादिति भयानकः)
[३|४|७५] ताभ्यामन्यत्रोणादयः - अप्रथमान्तसमानाधिकरण लट् को शतृ तथा शानच् आदेश हो जाते हैं। | कृष्यतेऽसौ = कृषिः (खेती)। तन्यते इति तन्तुः। वृत्तमिति वर्त्म। चरितमिति चर्म।
[३|४|७६] क्तोऽधिकरणेचध्रौव्यगतिप्रत्यवसानार्थेभ्यः - ध्रौव्यार्थक, गत्यर्थक तथा भक्षणार्थक धातुओं से विहित क्त प्रत्यय अधिकरण में एवं भाव कर्म में भी होता है। | अकर्मकेभ्योऽधिकरणे - इदमेषामासितम्, इदमेषां स्थितम्। भावे - आसितं तेन, स्थितं तेन। कर्त्तरि - आसितो देवदत्तः, स्थितो देवदत्तः।
[३|४|७७] लस्य| - यहाँ से आगे `लस्यऄ (लकार के स्थान में) का अधिकार है।
[३|४|७८] तिप्-तस्-झि-सिप्-थस्-थ-मिब्-वस्-मस्-तातां-झ-थासाथां-ध्वमिड्-वहि-महिङ् - लकार के स्थान में तित्, तस्, क्षि, सिप्, थस्, थः, मिप्, वस्, मसःत, अताम, झ, थास्, अथाम्, ध्वम्ः तथा इट्, वहि, महिङ् आदेश। | परस्मैदिभ्यः - पठति पठतः पठन्ति, पठसि पठथः पठथ, पठामि पठावः पठामः। आत्मनेपदिभ्य - एधते एधेथे एधन्ते, एधसे ऐधेथे ऐधध्वे, एधे एधावहे एधामहे। एवमन्येषु लकारेषूदाहार्यम्।
[३|४|७९] टित आत्मनेपदानां टेरे - टित् लकार (लट्, लिट्, लुट्, ऌट्, लेट् और लोट्) सम्बन्धी आत्मनेपद की टि के स्थान पर एकार होता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष एकवचन में एध् धातु से त् प्रत्यय आदि होकर एध् अ त् रूप बनता है। यहाँ आत्मनेपद त की टि- अकार के स्थान पर एकार एध् अ त् ए ==> एधते रूप सिद्ध होता है।
[३|४|८०] थासःसे - टिन् लकार् के थास् के स्थान पर से आदेश। | एध् धातु से थास् प्रत्यय और शप् होकर एध् अ थास् रूप बनता है इस स्थिति में प्रकृतसूत्रसे थास् के स्थान पर से होकर एधसे रूप सिद्ध हुआ।
[३|४|८१] लिटस्त-झयोरेशिरेच् - लिट् के त् के स्थान पर एश् और झ के स्थान पर इरेच् आदेश। | एधाम् कृ त् में लिट् के त के स्थान पर एश् (ए) होकर एधाम् कृ ए रूप बनता है। इस स्थिति में द्वित्व आदि करने से एधाञ्चक्रे रूप सिद्ध होगा।
[३|४|८२] परस्मैपदानां णलतुसुस् थलथुस णल्वमाः लिट् स्थानी परस्मैपद् तिप्, तस् आदि के स्थान पर क्रमशः णल्, अतुस् आदि आदेश होते हैं। | भू + तिप् में लिट् की विविक्षा में तिप् के स्थान पर णल् आदेश् होता है। णल् में णकार और लकार की इत्संज्ञा होने पर उनका लोप होकर केवल अकार ही शेष रह कर भू + अ रूप बनता है।
[३|४|८३] विदो लटो वा - विद् धातु से परे लट् सम्बन्धी परस्मैपद तिबादि के स्थान पर णल् आदि विकल्प से आदेश होते हैं। | वेद (जानता है), विदतुः (दोनों जानते हैं), विदुः (जानते हैं)। पक्ष में- वेत्ति (जानता है), वित्तः, विदन्ति।
[३|४|८४] ब्रुवःपञ्चानामादितआहोब्रुवः - ब्रू (बोलना) धातु के बाद लट् के स्थान पर आने वाले आदि के पाँच परस्मैपदों ( तिप्, तस्, झि, सिप् और थस्) के स्थान पर विकल्प से क्रमशः णल्, अतुस्, उस्, थल् और अधुस् आदेश। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एक्वचन में ब्रू धातु से तिप् और शप्-लुक् होकर ब्रू ति (तिप्) रूप बनता है। यहाँ आहादेशाभाव-पक्ष में प्रकृत सूत्र से हलादि पित् सार्वधातुक-तिप् को ईट् (ई) आगम् होकर ब्रू ई ति रूप बनेगा। इस स्थिति में गुणादेश और उवङ्-आदि होकर ब्रवीति रूप सिद्ध होता है।
[३|४|८५] लोटो लङ्वत् - लोट् लकार के स्थान में लङ् लकार की तरह कार्य करते हैं - तस् आदि के स्थान में ताम् आदि आदेश तथा ङित्वनिमित्तक स का लोप हो जाता है। | पचताम्, पचतम्, पचत्, पचाव, पचाम।
[३|४|८६] एरुः - लोट् के इकार के स्थान पर उकार आदेश। | प्रथम एकवचन भवति में लोट्स्थानिक ति के इकार को उकार होकर भवत् उ ==> भवतु रूप बना।
[३|४|८७] सेर्ह्यपिच्च - लोट् के सि के स्थान पर हि आदेश होता है और यह हि अपित् भी होता है। | स्तुहि में गुण नही होता । इस प्रकार प्रकृतसूत्र से लोट् के मध्यम् एकवचन भू + सि में सि के स्थान पर हि पूर्णादेश होकर भू + हि रूप बनता है।
[३|४|८८] वाछन्दसि - वेद में लोडादेश स्थानीय हि विकल्प से अपित् होता है। | पित् होने पर - जुहोधि, प्रीणाहि । अपित् होने पर - जुहुधि, प्रणीहि ।
[३|४|८९] मेर्निः - लोट् के मि के स्थान पर नि आदेश। | लोट् के उत्तम् एकवचन भू + मिप् में मि के स्थान पर नि होकर भू + नि रूप बनता है।
[३|४|९०] आमेतः - लोट् के एकार के स्थान पर आम् आदेश। | लोट् लकार के प्रथमपुरुष एकवचन में एध् धातु से त प्रत्यय आदि होकर एधते रूप बनने पर एकार के स्थान पर आम् होकर एधत् आम् ==> एधताम् रूप सिद्ध होता है।
[३|४|९१] सवाभ्यांवामौ - सकार और वकार से परे लोट् के एकार के स्थान पर क्रमशः व और अम् होते हैं | लोट् लकार के मध्यमपुरुष एकवचन में एध धातु से थास् आदि होकर एधसे रूप बनता है। यहाँ सकार से परे लोट् का एकार है, अतः प्रकृत सूत्र से उसके स्थान पर व होकर एधस् व ==> एधस्व रूप सिद्ध होता है।
[३|४|९२] आडुत्तमस्यपिच्च - लोट् के उत्तम् को आट् आगम होता है। और वह आट् पित् होता है। आट् के टकार की इतसंज्ञा हो उसका लोप हो जाता है। टित् होने के कारण यह प्रत्यय का आदि अवयव होता है। पित् होने से गुण आदि में बाधा नही होती। | भव् + नि में प्रत्यय नि के आदि में अकार होकर भव + आनि रूप बनता है। यहाँ स्वर्णदीर्घ करने पर भवानि रूप बनता है।
[३|४|९३] एतऐ - लोट् के उत्तम् के एकार के स्थान पर ऐ होता है। | लोट् के उत्तम् पुरुष एकवचन में ऐध् धातु से इट् आदि होकर एध् अ ए रूप बनने पर प्रकृत सूत्र से एकार के स्थान पर ऐकार होकर एध् अ ऐ रूप बनेगा। इस स्थिति में वृद्धि आदि होकर एधै रूप सिद्ध होता है।
[३|४|९४] लेटोऽडाटौ - लोट् लकार को विकल्प से अट् तथा आट् आगम। | जीवाति शरदः शतम्। भवति, भ्वाति, भविषति, भविषाति।
[३|४|९५] आतऐ - प्रथम मध्यम तथा उत्तम पुरुषों के आत्मनेपदीय द्विवचन के लेट् सम्बन्धी आकार को एकारादेश। | एते ==> ऐते, एथे ==> ऐथे
[३|४|९६] वैतोऽन्यत्र - ` आत् ए ` सूत्र के क्षेत्र को छोड़कर अन्यत्र लेट् सम्बन्धी आकार को विकल्प से एकारादेश। | अते ==> अतै, अन्ते ==> अन्तै, असे ==> असै, अध्वे ==> अध्वै, ए ==> ऐ, अवहे ==> अवहै, अमहे ==> अमहै।
[३|४|९७] इतश्चलोपःपरस्मैपदेषु - लेट्-सम्बंधी परस्मैपदी इकार "इ" का विकल्प से लोप। | अति = अत्, अन्ति = अन्त्, असि = अस्, अमि = अम्
[३|४|९८] सउत्तमस्य - लेट्-सम्बंधी उत्तम पुरुष के सकार का विकल्प से लोप। | अवः ==> अव, अमः ==> अम
[३|४|९९] नित्यं ङितः - ङित् लकारों के सकारान्त उत्तम का नित्य लोप होता है। | अपचाव, अपचाम
[३|४|१००] इतश्च ङित् लकार ( लिङ्, लङ्, लिङ् और ऌङ्) सम्बन्धी इकारान्त परस्मैपद का लोप होता है।१_१_५२सूत्र से यह लोप अन्त्य वर्ण इकार का ही होता है। | अभवति में लङ् लकारस्थानिक इकारान्त परस्मैपद ति है, अतः उसके अन्त्य इकार का लोप होकर अभवत् रूप सिद्ध होता है।
[३|४|१०१] तस्-थस्-थ-मिपांताम्-तम् तामः - लङ्, लिङ्, लुङ् और ऌङ् लकारों के तस्, थस्, थ और मिप् के स्थान पर ताम्, तम्, त और अम् आदेश। | अपचताम्, अपचतम्, अपचत, अपचम्।
[३|४|१०२] लिङःसीयुट् - लिङ् के आत्मनेपद प्रत्ययो का अवयव सीयुट् होता है। सीयुट् में उट् इत्संज्ञक है, अतः टित् होने के कारण आत्मनेपद प्रत्ययों का आद्यवयव बनता है। | लिङ् के प्रथमपुरुष एकवचन में एध् धातु से त आदि होकर एध् अ त रूप बनने पर आत्मनेपद त को सीयुट् आगम् होकर एध् ए सीय् त रूप बनेगा। इस स्थिति में सकार-षकार लोप तथा गुण करने पर एधेत रूप सिद्ध होता है।
[३|४|१०३] यासुट् परस्मैपदेषूदात्तोङिच्च - परस्मैपद में लिङ्ग का अवयव यासुँट् होता है और उदात्त तथा ङित् होता है। और उदात्त तथा ङित् होता है। यासुँट् में उट् इतसंज्ञक है। अतः उसका लोप हो आने पर यास् ही शेष रहता है। | कुर्यात्, कुर्यातम्, कुर्युः।
[३|४|१०४] किदाशिषि - आशीरवाद अर्थ में लिङ् सम्बन्धी यासुँट् कित् होता है। | भू धातु से आशीरवाद अर्थ में लिङ् आने पर प्रथम् एकवचन में ति होता है - भू + तिप्।तिप् आर्धधातुक संज्ञा हो जाने पर शप् नही होता, क्योंकि शप् सार्वधातुक तिङ् परे रहते होता है। तब लिङ् को यासुँट् आगम होता है। भू + यास् + ति
[३|४|१०५] झस्यरन् - लिङ् के झ के स्थान पर रन् आदेश। | लिङ् लकार के प्रथमपुरुष बहुवचन में एध् धातु से झ, सीयुट् आदि होकर एधेय् झ रूप बनने पर झ के स्थान पर रन् होकर एधेय् रन् रूप बनेगा। इस स्थिति में यकार लोप करने पर एधेरन् रूप सिद्ध होता है।
[३|४|१०६] इटोऽत् - लिङ् के इट् के स्थान पर अत् आदेश। | लिङ् लकार के उत्तमपुरुष एकवचन में एध् धातु से इट् आदि होकर एधेय् इ रूप बनने पर इट् (इ) के स्थान पर अत् ( अकार) होकर एधेय् अ ==> एधेय रूप सिद्ध होता है।
[३|४|१०७] सुट् तिथोः - लिङ् के तकार और थकार का अवयव सुँट् होता है। सुँट् इत्संज्ञक है, अतः टित् होने के कारण तकार और थकार का आद्यवयव बनेगा। | आशीर्लिङ्ग के प्रथमपुरुष एकवचन में एध् धातु से त आदि होकर एध् इ सीय् त रूप बनने पर त को सुट् आगम् होकर एध् इ सीय् स त रूप बनेगा। यहाँ यकार-लोप और मूर्धन्य षकारादि करने पर एधिषीष्ट रूप सिद्ध होता है।
[३|४|१०८] झेर्जुस् - लिङ् के झि के स्थान में जस् आदेश होता है। | भू धातु से झि प्रत्यय होकर भ् + झि रूप बनता है। तब शप्, गुण और अव् आदेश करने पर भव + झि रूप बनता है।यहाँ प्रकृतसूत्र से झि के स्थान पर जुस् होकर भव + जुस् रूप बनेगा।
[३|४|१०९] सिजभ्यस्तविदिभ्यश्च - सिच् प्रत्यय, अभ्यस्त-संज्ञक जागृ आदि धातुओं और विद् धातु से परे ङित् लकार (लिङ्, लुङ्, लङ् और ऌङ्) सम्बन्धी झि के स्थान पर जुस् आदेश होता है। | लुङ् के प्रथम बहुवचन में झि, च्लि, सिच् आदि करके आत् इ ष् झि रूप बनने पर सिच् से परे झि को जुस् हो जाता है और रूप बनता है आत् इ ष् जुस्। जुस् में जकार् इतसंज्ञक है, अतः उसका लोप हो जाता है।
[३|४|११०] आतः - ङित् लकार सम्बन्धी सिच् और अकारान्त से परे झि के स्थान पर जुस् आदेश। | लुङ् लकार के प्रथम-पुरुष बहुवचन में पा धातु से अट्, च्लि और उसके स्थान पर सिच् आदि होकर अपा झि रूप बनता ऐ, यहाँ अकारान्त पा से परे झि को जुस् होकर अपा जुस् रूप बनेगा।जुस् में जकार चुटू सूत्र से इतसंज्ञक है अतः उसका लोप होकर केवल उस् ही शेष रह जाता है - अपा उस्।
[३|४|१११] लङःशाकटायनस्यैव - अकारान्त धातु से परे लङ् के झि के स्थान पर जुश् आदेश शाकटायन के मतानुसार होता है। | या धातु से लङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा मे झि, शप्-लुक् और अट् होकर अ या झि रूप बनता है। इस स्थिति में प्रकृत सूत्र से अकारान्त धातु या से परे लुङ् के झि के स्थान पर जुस् होकर अ या जुस् रूप बनेगा। यहाँ जलार-लुप, पर-रूप और रुत्व-विसर्ग होकर अयुः रूप सिद्ध होता है। विकल्पावस्था में झि के झकार के स्थान पर अन्तादेश, इकार-तकार-लोप और स्वर्णदीर्घ होकर अयान् रूप बनता है।
[३|४|११२] द्विषश्च `द्विष ` धातु से विहित लिङादेश झि के स्थान में भी शाकटायन के मत में ही जुस् आदेश। | अद्विषुः। अन्येषां मते - अद्विषन् (उन्होंने द्वेश किया)।
[३|४|११३] तिङ-शित् सार्वधातुकम् - तिङ्, शित् सार्वधातुक-संज्ञक हों। | भू + तिप् में तिङ् - तिप् की सार्वधातुक संज्ञा होती है।
[३|४|११४] आर्धधातुकं शेषः - तिङ् और शित् प्रत्ययों को छोड़कर अन्य जिन प्रत्ययों का धातु से विधान किया गया है, उनकी आर्धधातुक संज्ञा होती है। | भू तास् ति में३_१_३३से धातु भू से तास् प्रत्यय का विधान हुआ है। यह प्रत्यय पूर्वोतक धात्वधिकार में है और तिङ् और शित् से भिन्न भी है। अतः प्रकृतसूत्र से इसकी आर्धधातुक संज्ञा होती है। यहाँ पर इट् आगम्, गुणादेश और अवादेश होकर भवितास् ति रूप बनता है।
[३|४|११५] लिट्च लिङादेश तिङ् की भी आर्धधातुक संज्ञा हो जाती है। | मध्यमपुरुष-एकवचन् भू + थल् में थल् लिट्-स्थानीय तिङ् हैं।
[३|४|११६] लिङाशिषि - आशीर्वाद अर्थ में लिङ्-स्थानिक तिङ् की आर्धधातुक संज्ञा होती है। यह पूर्ववर्ती सूत्र तिङ् शित्-०का अपवाद है। | लविषीष्ट, एधिषीष्ट।
[३|४|११७] छन्दस्युभयथा - परन्तु वेद में तिङ्, शित् आदि प्रत्ययों की यथायोग्य `सार्वधातुकऄ एवम् ` आर्धधातुक ` दोनों ही संज्ञाएँ होती है। | वर्धन्तु त्वा सुष्टुतयः। स्वस्तये नावमिवारुहेम। लिट् सार्वधातुकम् - ससृवांसो विशृण्विरे। सोममिन्द्राय सुन्विरे। लिङ् उभयथा भवति - उपस्थेयाम् शरणं बृहन्तम्।