अष्टाध्यायी हिन्दी व्याख्या सहितम्/प्रथमः अध्यायः

[१|१|१] वृध्दिरादैच् आकार " आ" व " ऐच्" " ऐ", " औ" की वृद्धि संज्ञा होती है। | भागः, त्यागः, यागः। नायकः, चायकः, पावकः, स्तावकः, कारकः, हारकः। शालायां भवः == शालीयः, मालेयः। उपगोरपत्यम् == औपगवः, औपमन्यवः। ऐतिकायनः, आश्वलायनः, आरण्यः।

[१|१|२] अदेङ् गुणः अ, ए और ओ को गुण कहते हैं। | चेता, नेता, कर्ता, हर्ता, तरिता, भविता, जयति, नयति, पचन्ति, पठन्ति। पचे, यजे, देवेन्द्रः, महर्षिः।

[१|१|३] इकोगुणवृद्धी &कुओत्;गुण&कुओत्; तथा &कुओत्;वृद्धि&कुओत्; इन दोनोँ शब्दोँ से उपदिश्यमान गुण तथा वृद्धि &कुओत्;इक&कुओत्; के ही स्थानापन्न होते हैं। | मेद्यति, चेता, कर्ता, जयति, मार्ष्टि, अलावीत

[१|१|४] नधातुलोपआर्धधातुके &कुओत्;धातु&कुओत्; शब्द धातु के अवयव का प्रतिपादक है। जिस &कुओत्;आर्धधातुक&कुओत्; के निमित्त धातु के अवयव का लोप होता है उसी आर्धधातुक को निमित्त मानकर प्राप्त गुण तथा वृद्धि का प्रतिषेध होता है। | लोलुवः, पोपुवः। मरीमृजः, सरीसृपः।

[१|१|५] क्ङिति च - गित्, कित् और ङित् परे होने पर तन्निभित्त इक् ( इ, उ, ऋ, ऌ) के स्थान पर गुण और वृद्धि नहीं होती। | भूयात् में यात् आर्धधातुक परे होने से७_३_८४से इगन्त अङ्ग भू के अन्त्य ऊकार को गुण प्राप्त होता है। किन्तु आशीर्लिङ् का होने से यासुट् कित् है, अतः उसके परे होने से प्रकृत सूत्र से गुण का निषेध हो जाता है। तब भूयात् रूप सिद्ध होता है।

[१|१|६] दीधीवेवीटाम् दीधीङ् तथा वेवीङ् धातुओं एवम् इट् के इक् के स्थान में प्राप्त गुण तथा वृद्धि का प्रतिषेध होता है। | दीधी + ऐ == दीध्य् + ऐ == दीध्यै / दीधी + आवहै == दीध्य् + आवहै == दीध्यावहै / दीधी + आमहै == दीध्यामहै। वेवी + ऐ == वेव्य् + ऐ == वेव्यै। वेवी + आवहै == वेव्य् + आवहै == वेव्यावहै / वेवी + आमहै == वेव्य् + आमहै == वेव्यामहै ।

[१|१|७] हलोऽनन्तराःसंयोगः ऐसे दो व्यंजन जिनके मध्य कोई " अच्" स्वर न हो तो उनकी संयोग संज्ञा होती है। | अग्नि, अत्र ग् न्। अश्वः == श् व्। इन्द्रः == न् द् र्। गोमान्, यवमान्, चितवान्।

[१|१|८] मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः जिस वर्ण का उच्चारण मुख और नासिका दोनों से ही होगा वह अनुनासिक कहलाएगा। | ङ्, ञ्, ण्, न् और म् ये पाँच वर्ण अनुनासिक हैं।

[१|१|९] तुल्यास्यप्रयत्नंसवर्णम जिन वर्णों के कण्ठादि स्थान और अभ्यान्तर यत्न दोनो ही समान होते है, वे एक दूसरे के सवर्ण कहलाते है। | तकार और थकार का स्थान दन्त है और आभ्यन्तर यत्न स्पृष्ट।

[१|१|१०] नाज्झलौ उच्चारण - स्थान तथा अभ्यन्तर प्रयत्नों की तुल्यता होने पर भी -जातीय "अच्" तथा "हल्" परस्पर `सवर्णऄ कहलाते हैं। | दण्ड हस्तः, दधि शीतम्। वैपाशो मत्स्यः, आनडुहं चर्म।

[१|१|११] ईदूदेदद्विवचनंप्रगृह्यम् ईकारान्त ऊकारान्त और एकारान्त द्विवचन प्रगृह्म-संज्ञक होता है। | अग्नि इति, वायू इति, माले इति। पचेते इति, पचेथे इति। इन्द्राग्नी इमौ, इन्द्रवायू इमे सुताः

[१|१|१२] अदसो मात् अदस् शब्द के अवयव मकार से परे ईकार और ऊकार प्रगृह्म-संज्ञक होते हैं। | अमी अत्र, अमी आसते। अमू अत्र, अमू आसाते। एकारस्योदाहरणं नास्ति।

[१|१|१३] शे इसकी &कुओत्;प्रगृह्म&कुओत्; संज्ञा होती है। | अस्मे इन्द्राबृहस्पती, युष्मे इति, अस्मे इति, त्वे इति, मे इति।

[१|१|१४] निपातएकाजनाङ् आङ् को छोड़कर अन्य एक अच् (स्वर-वर्ण) रूप निपात प्रगृह्म संज्ञक होते हैं। | अ अपेहि, अ अपक्राम, इ इन्द्रं पश्य, उ उत्तिष्ठ।

[१|१|१५] ओत् ओकारान्त निपात प्रगृह्म-संज्ञक होता है | आहो + इति, उताहो + इति। नो + इदानीम् (इस समय नहीं)। अथो इति (अनन्तर)। अहो + अधुना (ओहो अब)।

[१|१|१६] संबुद्धौशाकल्यस्येतावनार्षे अवैदिक इति परे होने पर सम्बुद्धि-निमित्तक ओकार विकल्प से प्रगृह्म-संज्ञक होगा। | (शाकल्यमते) वायो + इति, (अन्येषां मते) == वायविति, भानो + इति == भानविति, अध्वर्यो + इति == अध्वर्यविति।

[१|१|१७] उञः `शाकल्यऄ आचार्य के मत में अवैदिक ` इतॎ शब्द से परे उञ् की `प्रगृह्मऄ संज्ञा होती है। | उ इति। विति। ॐ इति

[१|१|१८] ऊँ `शाकल्यऄ आचार्य के मत में अवैदिक ` इतॎ शब्द से परे उञ् की स्थान पर `ॐ ` इस प्रकार का दीर्घ अनुनासिक आदेश होता है और वह `प्रगृह्मऄ कहलाता है। | सोमो गौरी अधिश्रितः, अध्यस्यां मामकी तनू - मामकी इति, तनू इति।

[१|१|१९] ईदूतौ च सप्तम्यर्थे सप्तमी के अर्थ को प्रकटित करने वाले ईदन्त तथा ऊदन्त शब्द - स्वरूपों की `प्रगृह्मऄ संज्ञा होती है। | प्रणिददाति, प्रणिदीयते, प्रणिदाता, प्रणियच्छति, प्रणिद्यति, प्रणिदयते, प्रणिदधाति, प्रणिधीयते।

[१|१|२०] दाधाध्वदाप् - दाप् तथा दैप् को छोड़कर दा के रूप में प्रतिपन्न होने वाले चार दा की तथा दो धा की घु संज्ञा होती है। | लोट् लकार के मध्यमपुरुष-एकवचन में दा धातु से सिप् तथा उसके स्थान पर हि आदि अन्य कार्य होकर द् दा हि रूप बनता है। यहाँ प्रकृत सूत्र से दा (डुदाञ्) घुसंज्ञक है, अतः दा के अकार के स्थान पर एत्व तथा अभ्यास द् का लोप होकर द् + ए + हि ==> देहि रूप सिद्ध होता है।

[१|१|२१] आद्यन्तवदेकस्मिन् जहाँ एक ही होता है वहाँ आदि-विहित भी कार्य होता है और अन्त विहीन भी। | कुमारितरा, कुमारितमा, ब्रह्मणितरा, ब्राह्मणितमा ।

[१|१|२२] तरप् तनपौघः - तरप् और तमप् (घः) घ-संज्ञक होते हैं। | गुरु + तरप् == गुरु + तर == गुरुतरः, गुरु + तमप् == गुरु + तम == गुरुतमः। इसी प्रकार दर्शनीयतरः, दर्शनीयतमः, लघुतरः, लघुतमः, पटुतर, पटुतम।

[१|१|२३] बहुगणवतुडतिसंख्या बहु शब्द, गण शब्द, वतु प्रत्यान्त तथा डति प्रत्यान्त शब्दों की संख्या संज्ञा होगी। | षकारान्ता == षट् तिष्ठन्ति, षट् पश्य। नकारान्ता == पञ्च, सप्त, नव, दश।

[१|१|२४] ष्णान्ताषट् - षकारान्त और नकारन्त संख्यावाचक शब्द की षट् संज्ञा होती है। | कति तिष्ठन्ति, कति पश्य।

[१|१|२५] डतिच डति प्रत्ययान्त संख्या शब्द षटसंज्ञक होते हैं। | पठितः - पठितवान्, चितः - चितवान्, स्तुतः - स्तुतवान्, भिन्नः - भिन्नवान, पक्वः - पक्ववान्।

[१|१|२६] क्तक्तवतूनिष्ठा - क्त और क्तवतु धातु की निष्ठा संज्ञा होती है। | सर्वे, सर्वस्मै, सर्वस्मात्, सर्वस्मिन्, सर्वेषाम्, सर्वकः, विश्वे, विश्वस्मै, विश्वस्मात्, विश्वस्मिन्, विश्वेषाम्, विश्वकः।

[१|१|२७] सर्वादीनिसर्वनामानि गण में बढ़े हुए शब्द यदि सभी के अर्थ में प्रयुक्त हों, तो सर्वनाम-संज्ञक होंगे अन्यथा नही। | उत्तरपूर्वस्यै, उत्तरपूर्वायै, दक्षिणपूर्वस्यै, दक्षिणपूर्वायै, उत्तरपूर्वस्याः, उत्तरपूर्वायाः, दक्षिणपूर्वस्याः, दक्षिणपूर्वायाः

[१|१|२८] विभाषादिक् समासेबहुव्रीहौ दिशाओं में सर्वादिगण में पठित शब्द विकल्प से सर्वनामसंज्ञक होते हैं। | प्रियविश्वाय, प्रियोभयाय, द्व्यन्याय, त्र्यन्याय।

[१|१|२९] नबहुव्रीहौ बहुव्रीहि समास के प्रसंग में सर्वादि शब्दों की सर्वनाम संज्ञा नहीं होती है। | मासपूर्वाय, संवत्सरपूर्वाय। द्व्यहपूर्वाय, त्र्यहपूर्वाय

[१|१|३०] तृतीयासमासे तृतीया तत्पुरुष समास के प्रसंग में सर्वादि की सर्वनाम संज्ञा नहीं होती। | पूर्वापराणाम्, दक्षिणोत्तरपूर्वाणाम्, कतरकतमानाम्।

[१|१|३१] द्वन्द्वेच द्वन्द्वसमास में भी सर्वादि की सर्वनाम संज्ञा नहीं होती। | कतरकतमे, कतरकतमाः। दक्षिणपूर्वे, दक्षिणपूर्वा।

[१|१|३२] विभाषाजसि द्वन्द्वसमास में भी जस् सम्बंधी कार्यों के प्रसंग सर्वादि की सर्वनाम संज्ञा विकल्प से होती है। | प्रथमे - प्रथमाः, चरमे - चरमाः, द्वितिये - द्वितयाः, अल्पे - अल्पाः, अर्धे - अर्धाः

[१|१|३३] प्रथमचरमतयाल्पार्धकतिपयनेमाश्च प्रथम, चरम, तयप् प्रत्यायान्त शब्द, अल्प, अर्ध, कतिपय व नेम इन सात शब्दोँ की "जस्" परे होने पर विकल्प से सर्वनाम -संज्ञक होती है। | पूर्वे - पूर्वाः, परे, पराः, अवरे, अवराः, दक्षिणे - दक्षिणा।

[१|१|३४] पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणिव्यवस्थायामसंज्ञायाम् "पूर्व", "पर", "अवर", "दक्षिण", "उत्तर", "अपर" व "अधर" इन सात शब्दों की व्यवस्था और असंज्ञा(संज्ञा भिन्न) में "जस्" परे रहते विकल्प से सर्वनाम संज्ञा होगी। | स्वे पुत्राः, स्वाः पुत्राः। स्वे गावः, स्वा गावः, आत्मीया इत्यर्थः।

[१|१|३५] स्वमज्ञातिधनाख्यायाम् जस् परे होने पर स्व की विकल्प से सर्वनाम संज्ञा का विधान करता है। | बहियोर्गे == अन्तरे गृहाः, अन्तरा गृहाः। उपसंव्याने == अन्तरे शाटकाः, अन्तराः शाटकाः

[१|१|३६] अन्तरंबहिर्योगोपसंव्यानयोः जस् परे रहते विकल्प से सर्वनाम संज्ञा हो। | स्वरादिः == स्वर् (सुख), प्रातर् (प्रातः) । निपाताः == च आउर), वा (अथवा), ह (निश्चय से)

[१|१|३७] स्वरादिनिपातमव्ययम् - उपसर्ग-प्रतिरूपक, विभक्ति-प्रतिरूपक और स्वर-प्रतिरूपक भी चादिगण के अन्तर्गत हैं अर्थात् वे भी निपात-संज्ञक होते हैं। | अवदत्तम् में अव उपसर्ग-सदृश् है अतः निपात होने से वह अव्यय-संज्ञक होगा। उपसर्ग होने पर घुसंज्ञक दा को तकार अन्तादेश हो अवत्तम् रूप बनता।

[१|१|३८] तद्धितस्चासर्वविभक्तिः - जिससे सारी विभक्तियाँ उत्पन्न नही होती, ऐसा तद्धित्- प्रत्यान्त अव्यय संज्ञक होता है। | अतः शब्द के अन्त में तद्धित-प्रत्यय तसिल् है, अतः यह तद्धित-प्रत्यान्त शब्द है। इनके रूप सभी विभक्तियों में नही चलते इसलिए प्रकृत-सूत्र से अतः अव्यय-संज्ञक होता है।

[१|१|३९] कृमेजन्तः - जिनके अन्त में मकारान्त और एजन्त ( जिनके अन्त में ए, ओ, ऐ अथवा औ हो) कृत्-प्रत्यय हो, उसकी अव्यय संज्ञा होती है। | स्मारं स्मारम् मे३_४_२२से मकारान्त ण्मुल् प्रत्यय हुआ है। अतः तदन्त स्मारं स्मारम् की अवयय संज्ञा होती है। इसी प्रकार से प्रत्यान्त होने से जीवसे और शध्यै-प्रत्यान्त होने से पिबध्यै अव्यय-संज्ञक होता है।

[१|१|४०] क्त्वातोसुङ्कसुनः - क्त्वाप्रत्यान्त, तोसुन्-प्रत्यान्त और कसुन्-प्रत्यान्त अव्यय संज्ञक होते हैं। | क्त्वाप्रत्यान्त होने से पठित्वा, तोसन्-क्त्वाप्रत्यान्त होने से उदेतोः और कसुन्-प्रत्यान्त होने से विसृपः अव्ययसंज्ञक होंगे।

[१|१|४१] अव्ययीभावश्च - अव्ययीभाव समास अव्यय-संज्ञक होता है। | कुण्डानि, वनानि।दधीनि, मधूनि। त्रिपूणि, जतूनि।

[१|१|४२] शिसर्वनामस्थानम् शि के शेष इकार की सर्वनामस्थान संज्ञा होगी। | राजा, राजानौ, राजानः, राजानम्, राजानौ।

[१|१|४३] सुडनपुंसकस्य नपुंसक लिङ्ग को छोड़कर अन्य " सुट्" (सु, औ, जस्, अम्, औट्) वचनों की सर्वनाम स्थान संज्ञा हो । | शुशाव, शिश्वाय। शुशुवतुः, शिश्वियतुः। दक्षिणपूर्वस्यै, दक्षिणपूर्वायै।

[१|१|४४] नवेतिविभाषा निषेध तथा विकल्प की `विभाषा` संज्ञा होती है। | उक्तः, उक्तवान्। सुप्तः, सुप्तवान्। इष्ट, इष्टवान्। गृहीतः, गृहीतवान्।

[१|१|४५] इग्यणःसंप्रसारणम् यण् (य्, र्, ल्, व्) के स्थान पर विधान किया गया इक् (इ, उ, ऋ, ऌ) संप्रसारणसंज्ञक हो। | य् ==> इ/ ई, व् ==> उ/ ऊ, र् ==> ऋ/ ॠ व ल् ==> ऌ/ ॡ

[१|१|४६] आद्यन्तौटकितौ टित् और कित् का किसी के अवयव विधान किये जाने पर टित् का आद्यवयव (अङ्ग के आदि में लगता है) और कित् उसका अन्तावयव (अङ्ग के अन्त में लगता है) होता है। | षड् + सन्तः ==> षड् ध् सन्तः ==> षड् त् सन्तः ==> षट् त् सन्तः ==> षट्त्सन्तः । विश्ववाह् के "वाह्" के व के स्थान पर ऊ होता है अतः सम्प्रसारण संज्ञा होगी। देखें६_४_१३२। नी + शप् == नय = (अट् आगम)= अनय । इसी प्रकार पठ == अपठ, वद == अवद, गछ == अगछ आदि ।

[१|१|४७] मिदचोऽन्त्यात्परः मित् प्रत्यय अङ्ग के अन्तिम अच् के बाद में लगता है। | मुच् + नुम् + श == मुञ्च् + अ == मुञ्च + शतृ == मुञ्चन्, लुप् + नुम् + श == लुम्प् + अ == लुम्प + शतृ == लुम्पन्। इसी प्रकार विन्दन, लिम्पन्, विन्दन्, सिञ्चन्, कृन्तन्, खिन्दन्, पिंशन्।

[१|१|४८] एच इग्घ्रस्वादेशे एकार और ऐकार के स्थान पर इकार तथा ओकार और औकार के स्थान पर उकार आदेश। | भविता, भवितुम्, भवितव्यम्। वक्ता, वज्तुम्, वक्तव्यम्। दध्यत्र, मध्वत्र, पित्रर्थम्, लाक्रितिः।

[१|१|४९] षष्ठीस्थानेयोगा जिस षष्ठी का किसी से सम्बन्ध उपपन्न न होता हो उसका सम्बन्ध `स्थाने ` (स्थान में) पदार्थ के साथ होता है। | स्थानकृतम्, दण्डाग्रम्, दधीदम्, भानूदयः, अर्थकृतम्।

[१|१|५०] स्थानेऽन्तरतमः एक से अधिक आदेश प्राप्त होने पर षष्ठी के स्थान पर वही आदेश होगा जो उसके अत्यन्त सदृश होगा। | इक के स्थान पर यण आदेश।

[१|१|५१] उरण् रपरः ऋ तीस् का बोधक है। ऋ के स्थान पर जो अण् आदेश होते हैं वे रपर प्रवत्त ही होते हैं। ऌ के स्थान पर जो अण् आदेश होते हैं वे लपर प्रवत्त ही होते हैं। | ऋ के स्थान पर " अ" ==> " अर्", ऋ के स्थान् पर " इ" ==> " इर्", ऋ के स्थान पर " उ" ==> " उर्"। ऌ के स्थान पर " अ" ==> " अल्", ऌ के स्थान् पर " इ" ==> " इल्", ऌ के स्थान पर " उ" ==> " उल्"

[१|१|५२] अलोऽन्त्यस्य षष्ठयन्त पद के स्थान पर जिस आदेश का विधान हो वह आदेश उस षष्ठयन्त पद के अंतिम वर्ण के स्थान पर होता है। | चेता, नेता। मातापितरौ। होतापोतारौ।

[१|१|५३] ङिच्च ङकार इत् वाला आदेश अन्त्य अल् (वर्ण) के स्थान पर होता है। | सुखि + सु में अनङ् सौ से सखि के स्थान पर अनङ् आदेश प्राप्त होता है। सुख् अन् सु ==> सखा

[१|१|५४] आदेःपरस्य पर के स्थान पर विधान किया गया कार्य उसके आदि अल् के स्थान पर होता है। | अनेकाल == भविता, भवितुम्, भवितव्यम्। पुरुषैः। शितकुण्डानि, वनानि।

[१|१|५५] अनेकालिशत्सर्वस्य् षष्ठी के स्थान पर होने वाला आदेश यदि अनेक वर्णो वाला या शित् होगा तो वह सम्पूर्ण षष्ठी-निर्दिष्ट के स्थान पर होगा। | राम + भिस् में१४२सूत्र से भिस् के स्थान पर ऐस् का विधान हुआ अतः अनेकाल् होने पर सम्पूर्ण भिस् के स्थान पर होगा ==> राम + ऐस् ==>रामैः

[१|१|५६] स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ आदेश/निषेध स्थानितुल्य अर्थात् स्थानिधर्मक हो। स्थानिवत् का तात्पर्य ये है कि स्थानी का जो धर्म है वह आदेश के बाद भी रहे। | पटयति, अवधीत्, ब॒हु॒ख॒ट्वकः॑।

[१|१|५७] अचःपरस्मिन्पूर्वविधौ - परनिमित्तक पूर्वविधि के विषय में अच् के स्थान में जो आदेश होता है वह स्थानिवत होता है। | कथ (कथा कहना) धातु से णिच् होने पर अतो लोपः (६_४_४८) से अन्त्य अकार का लोप होकर कथ् इ रूप बनता है। इस स्थिति में अत उपधाया (७_२_११६) से कथ् की उपधा-ककारोत्तरवर्ती अकार को वृद्धि प्राप्त होती है।

[१|१|५८] नपदान्तद्विर्वचनवरेयलोपस्वरसवर्णानुस्वार्दीर्घजश्चर्विधिषु पदान्त-विधि, द्वरवचन - विधि, यलोप-विधि, स्वर-विधि, स्वर्ण-विधि, अनुस्वार-विधि, जश्-विधि तथा चर्-विधि, के प्रति पर -निमित्त अजादेश एवम् वरच्-प्रत्यनिमित्त्क अजादेश पूर्व-विधि में स्थानिवत् नहीं होते है। | पपतुः, पपुः। जग्मतुः, जग्मुः। चक्रतुः, चक्रुः। निनय, निनाय। लुलव, लुलाव। आटिटत्।

[१|१|५९] द्विर्वचनेऽचि - यदि द्वित्व करना हो, तो द्वित्व-निमित्तक अच् ( अजादि-प्रत्यय) परे होने पर अच् के स्थान पर आदेश नही होता। | लिट् लकार के प्रथम द्विवचन में गोपासाम् कृ अतुस् बनने पर धातु के अकाच् को द्वित्व की अपेक्षा पर होने के कारण यण आदेश पहले प्राप्त होता है। किन्तु यहाँ द्वित्व का निमित्त अजादि प्रत्यय अतुस् परे है। लिट् परे होने पर द्वित्व होता है और अतुस् लिट् के स्थान पर हुआ है, अतः स्थानिवद्भाव से यह लिट् ही है। इसी से इस द्वित्व-निमित्तक अतुस् प्रत्यय परे होने के कारण अच् के स्थान पर कोई आदेश नही होता।

[१|१|६०] अदर्शनंलोपः शास्त्र में श्रवण प्राप्त के श्रवण न होने को लोप कहते हैं। इत्संज्ञक भाग का सदैव लोप हो जाता है। | लुक् == विशाखः, स्तौति। श्लु == जुहोति। लुप्== वरणाः, पञ्चालाः।

[१|१|६१] प्रत्ययस्यलुक्श्लुलुपः लुक् श्लु और लुप् शब्दों का उच्चारण कर किया हुआ प्रत्यय का अदर्शन क्रम से लुक्, श्लु और लुप्-संज्ञक होता है। | अग्निचित्। सोमसुत् । अधोक्

[१|१|६२] प्रत्ययलोपेप्रत्ययलक्षणम् प्रत्यय का लोप होने के पश्चात भी तदाश्रित् (प्रत्यय आधारित)कार्य होते हैं। | गर्गाः, मृष्टः, जुहुतः, वरणाः

[१|१|६३] नलुमताऽङ्गस्य् यदि प्रत्यय लोप "लु" वाले शब्दों ( लुक्, श्लु, लुप्) से हो तो उस प्रत्यय आधारित कार्य न हों। | अग्निचित्।सोमसुत् इत्यत्र इत्-उत् शब्दौ। पचेते, पचेथे।

[१|१|६४] अचोऽन्त्यादिटि शब्द के अन्त में आने वाला अच् जिस वर्ण समुदाय के अन्त में आता है उसको टि कहते हैं | राम में "अ", हरि में "इ", गुरु में "उ" आदि "टि" हैं। हलन्त शब्द के अन्तिम "अच्" को मिलाकर उसके आगे "हल्" होने पर उसका नाम "टि" होता है। जैसे - मनस् में "अस्", चर्मन् में "अन्", भवत् में "अत्" आदि।

[१|१|६५] अलोऽन्त्यात्पूर्वउपधा पदान्त ( अन्त्य) " अल्" से पूर्व वर्ण को उपधा कहते हैं या उपधा संज्ञा होती है। यह स्वर या व्यञ्जन कुछ भी हो सकता है। | रावण में पदान्त " अ" के पूर्व "ण्" वर्ण् को उपधा कहते हैं (" अ" पदान्त ( अन्त्य) है। गम् में "अ" उपधा है ("म्" पदान्त ( अन्त्य) है।

[१|१|६६] तस्मिन्नितिनिर्दिष्टेपूर्वस्य सप्तभ्यर्थ पद से निर्दिष्ट किया हुआ अव्यवहित पूर्व के स्थान पर होता है। | इको यणचि में सप्तभ्यन्त पद अचि का उच्चारण कर इक् के स्थान पर यण का विधान।

[१|१|६७] तस्मादित्युत्तरस्य पञ्च भ्यन्तपद से निर्दिष्टात् किया हुआ अव्यवहित पर के स्थान पर होता है। | आग्नेयमष्टाकपालं निर्वपेत।

[१|१|६८] स्वंरूपंशब्दस्याशब्दसंज्ञा - शब्द की ` उपधा` प्रभृति संज्ञाओं के क्षेत्र से अतिरिक्त स्थल में इस शास्त्र में स्थानिभूत शब्द का स्वरूप ही ग्राह्म होता, उसके पर्याप्त अथवा नहीं। | रमा + ईश्वरः == रमेश्वरः।

[१|१|६९] अणुदितसवर्णस्यचाप्रत्ययः अविधीयमान (जिसका विधान न किया गया हो) अण् ( अ, इ, उ, ऋ ऌ ए, ओ, ऐ, ओ ह्, य्, व्, र्, ल् और उदित् (कु, चु, टु, तु, पु) सवर्ण की तथा अपने स्वरूप की संज्ञा होता है। | इको यणचि में इक् अविधीयमान है क्योकि विधान तो उसके स्थान पर यण का हुआ है।

[१|१|७०] तपरस्तत्कालस्य जिस अविधीयमान अण् के पहले या बाद में तकार होता है वह अण् अपना तथा अपने समान उच्चारण वाले सवर्णों का ही बोध कराता है। | आत् = दीर्घ अ / इत् = ह्रस्व इ / ईत् = दीर्घ ई / उत् = ह्रस्व उ आदि।

[१|१|७१] आदिरन्त्येनसहेता ( अन्त्येन) अन्त में होने वाले (इता) इत् से (सह) युक्त ( आदिः) आदि (स्वस्य) अपनी तथा मध्यगत वर्णों की संज्ञा होती है। | प्रथम महेश्वर सूत्र अ, इ, उण् के अंतिम इत्संज्ञक वर्ण्- ण् के साथ आदिवर्ण इ, उ, का बोधक है।

[१|१|७२] येनविधिस्तदन्तस्य जिस विशेषण से किसी कार्य का विधान होता है वह तदन्त (विशेषणान्त) समुदाय तथा स्वरूप का ग्राहक होते हैं। | शालीयः, मालीयः। औपगवीयः, कपाटवीयः।

[१|१|७३] वृद्धिर्यस्याचामादिस्तद्वृद्धम् - जिसके अचों का आदि वृद्धि हो वह वृद्ध होता है। | शाला शब्द में दो अच् हैं, और उसका आदि- अच्-शकारोत्तरवर्ती आकार वृद्धिस्वरूप भी है। अतः प्रकृत सूत्र से शाला शब्द वृद्ध -संज्ञक होगा।

[१|१|७४] त्यदादीनि च त्यद् आदि (त्यद्, तद्, एतद्, इदम्, अदस्, युष्मद्, अस्मद्, त्वाद्, भवत्, किम्) भी वृद्धि संज्ञक होते हैं। | एणीपचने भवः == एणीपचनीयः। गोनर्दे भवः== गोनर्दीयः। भोजकटे भवः == भोजकटीयः।

[१|१|७५] एङ् प्राचां देशे प्राच्यदेशाभिधायी शब्दों में वर्तमान स्वरों में जिसका आदि स्वर एङ्प्रत्याहारान्तर्गत हो उस शब्द की `वृद्धऄ संज्ञा होती है। | गोनर्द + छ == गोनर्दीयः। इसी प्रकार भोजकदीयः।

[१|२|१] गाङ्कुटादिभ्योऽञ्णिन्ङित् गाङ् आदेश और कुटादि धातुओं ("कुट् से लेकर "कुङ्" तक कुल४०धातुएँ कुटादि कही जाती हैँ) के बाद यदि "ञित्" और "णित्" को छोड़कर अन्य प्रत्यय आते हैं, तो वे "ङित्" के समान होते हैं। | लुङ् लकार में प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में अधिपूर्वक इङ् धातु के स्थान पर विकल्प से गाङ्, त प्रत्यय, अट् और च्लि-सिच् होकर अधि अ गा स् त् रूप बनता है।

[१|२|२] विज इट् ` ओविजी भय चलनयोः` इस धातु से विहित इडादि (इट् आदि) प्रत्यय विकल्प से ङित् होते हैं। | उद्विजिता, उद्विजितुम्, उद्विजितव्यम्।

[१|२|३] विभाषोर्णोः - ऊर्णु धातु के बाद इडादि प्रत्यय (जिसके आदि में इट् हो) विकल्प से ङित् होते है। | लिट् लकार के मध्यमपुरुष एकवचन में ऊर्णु धातु से सिप्, पुनः उसके स्थान पर थल्, इडागम् और द्वित्व होकर उर्णुनु इ थ रूप बनता है। सार्वधातुकार्धधातुकयोः (७-३-८४) से नकारोत्तरवर्ती उकार को गुण-औकार प्राप्त होता, किन्तु इडादिप्रत्यय इथ (थल्) के परे होने पर ङित् हो जाने से उसका निषेध हो जाता है। इस अवस्था में उवङ् होकर ऊर्णुनुविथ रूप सिद्ध होता है। अभावपक्ष में ऊर्णुनविथ रूप बनता है।

[१|२|४] सार्वधातुकमपित् - तिप् सिप् और मिप् को छोड़कर शेष सार्वधातुक प्रत्यय ङित् होते हैं। | श्रु धातु से तस् प्रत्यय आदि होकर शृणुतस् रूप बनता है। यहाँ णकारोत्तरवर्ती उकार को सार्वधातुक तस् परे होने से गुण प्राप्त था, किन्तु तस् के अपित् होने से प्रकृत सूत्र से ङिद्वद्भाव हो जाता है।

[१|२|५] असंयोगाल्लिट्कित - असंयोग से अपित् लिट् किट् होता है। णल्, थल्, और णल् (जो तिप्, सिप् और मिप्-इन तीन पित् तिङो के स्थान पर होते हैं) को छोड़कर शेष लिङादेश अपित हैं। अतः प्रकृत सूत्र से कित् हो जाते हैं। कित् हो जाने पर१_१_५से गुण निषेध हो जाता है। | लिट् के प्रथम-द्विवचन में सिध् धातु से अतुस् प्रत्यय होता है। तब अभ्यास्- कार्य करने पर सि सिध् अतुस् रूप बनता है।यहाँ७_३_८६से उपधा इकार हो गुण प्राप्त होता है, किन्तु अपित् लिट् अतुस् की कित् संज्ञा हो जाने पर ग्क्ङिति च् से उसका निषेध हो जाता है।तब षत्व और रुत्व-विसर्ग करने पर सिषिधतुः रूप सिद्ध हुआ।

[१|२|६] इन्धिभवतिभ्यांच् ईन्ध धातु तथा भू धातु से परे विहित लिट् प्रत्यय भी कित् होता है। | ईन्ध + ए =("न्" का लोप)= ईध् + ए == ईधे।

[१|२|७] मृडमृदगुधकुषकिल्शवदवसःक्त्वा सृड, मृद, गुध, कुष, क्लिश, वद, बस - इन धातुओं से विहित क्त्वा - प्रत्यय कित् होता है। | मृडित्वा, मृदित्वा, गुधित्वा, कुषित्वा, क्लिशित्वा, उदित्वा, उषित्वा।

[१|२|८] रुदविदमुषग्रहिस्वपिप्रच्छःसंश्र्च् रुद, विद, मुष, ग्रहि, स्वपि, प्रच्छ - इन धातुओं से विहित क्त्वा - प्रत्यय तथा सन्- प्रत्यय कित् होते हैं। | रुदित्वा, रुरुदिषति। विदित्वा, विविदिषति। मुषित्वा, मुमुषिषति। गृहीत्वा, जिघृक्षति। सुप्त्वा, सुषुप्सति। पृष्ट्वा, पिपृच्छिषति।

[१|२|९] इकोझल् - इगन्त धातु के बाद झलादि सन् कित् होता है। | कॄ स में कॄ धातु से इगन्त है, अतः प्रकृत सूत्र से उसके बाद झलादि सन् (स) कित् हो जाता है। कित् हो जाने पर गुण-निषेध हो जाता है। तब कॄ के ऋकार के स्थान पर इर्, इकार - दीर्घ , द्वित्व और अभ्यास-कार्य आदि होकर चिकीर्ष रूप बनता है। इस स्थिति में लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में चिकीर्ष से तिप्, शप् और पर्-रूप होकर चिकीर्षति रूप सिद्ध होता है। सन् के अभाव में कर्तुमिच्छति रूप सिद्ध होता है।

[१|२|१०] हलन्ताच्च् - इक् (इ, उ, ऋ, ऌ) के समीपवर्ती हल् (व्यञ्जन-वर्ण) के बाद झलादि सम् (जिसके आदि में झल्-वर्ण हों) कित् संज्ञक होता है। | निवेष्टुमिच्छति (वह निवेश करना चाहता है)- इस अर्थ में नि पूर्वक विश् धातु से सन् होकर निविश् स रूप बनता है। यहाँ अनिट् होने से सन् (स) झलादि है, अतः इक् (वकारोत्तरवर्ती इकार) के समीप्वर्ती हल्-शकार के बाद आने के कारण प्रकृत सूत्र से वह कित् संज्ञक होता है। कित् हो जाने पर लधूपध- गुण का निषेध हो जाता है।तब षत्व-कुत्व, द्वित्व और अभ्यास-कार्य आदि होकर निविक्ष रूप बनता है।

[१|२|११] लिङ् सिचावात्मनेपदेषु - इक् ( इ, उ, ऋ, ऌ) के समीपवर्ती हल् (व्यञ्जन) से परे आत्मनेपद-विषयक झलादि लिङ् ( जिसके आदि में झल् प्रत्याहार का कोई वर्ण हो) और आत्मनेपद-परक सिच् ( जिसके पश्चात कोई आत्मनेपद प्रत्यय आया हो) कित् होते हैं। | दुह् धातु से आशीर्लिङ्ग के प्रथमपुरुष-एकवचन में लिङ्, उसके स्थान पर आत्मनेपद त तथा यासुट् आगम् हो दुह् यास् त रूप बनता है। यहाँ इक्-उकार के पश्चात् हल्-हकार है। अतः हकार से परे झलादि लिङ्-यास् त कित् हो जता है और गुण-निषेध आदि हो धुक्षीष्ट रूप सिद्ध होता है।

[१|२|१२] उश्र्च - आत्मनेपद में ऋवर्ण से परे झलादि लिङ् और सिच् कित् होते हैं। कित् हो जाने पर जो गुण और वृद्धि रूप कार्य प्राप्त होते हैं, उनका निषेध हो जाता है। | भृ धातु से आशीर्लिङ् आत्मनेपद में प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में त प्रत्यय और पुनः सीयुट् आदि होकर भृ सी स् त रूप बनता है। इस अवस्था में आर्धधातुक प्रत्यय परे होने के कारण गुणादेश प्राप्त होता है, किन्तु यहाँ झलादि लिङ् स् त की कित् संज्ञा होने से उसका निषेध हो जाता है। तब पुनः षत्व और ष्टुत्व होकर भृषीष्ट रूप सिद्ध होता है।

[१|२|१३] वागमः `गमऄ धातु से विहित झलादि लिंग - सिच् आत्मनेपद में विकल्प से कित् होते हैं। | लिङ् == संगसीष्ट, संगंसीष्ट। सिच् == समगत, समगंस्त

[१|२|१४] हनःसिच् `हन् ` धातु से विहित सिच् कित् होता है। | आहत, आहसाताम्, आहसत

[१|२|१५] यमोअगन्धने दूसरों के द्वारा अपलाप्यमान दोष के उद्धाटन के अर्थ में प्रयुज्यमान यम् धातु से विहित् सिच् आत्मनेपद में कित् होता है। | उदायत, उदायसाताम्, उदायसत

[१|२|१६] विभाषोपयमने विवाहार्थक `यमऄ धातु से विहित सिच् आत्मनेपद में विकल्प से कित् होता है। | उपायत कन्याम्, उपायंस्त कन्याम्

[१|२|१७] स्थाध्वोरिच्च् - आत्मनेपद प्रत्यय होने पर स्था (ठहरना) और घुसंज्ञक धातु के स्थान पर इकार तथा सिच् कित् होता है। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में दा धातु से आत्मनेपद प्रत्यय त्, च्लि-सिच् और अडागम आदि होकर अ दा स् त् रूप बनता है।

[१|२|१८] नक्त्वासेट् - इट् सहित क्त्वा कित् नही होता। | शी (सोना) धातु से (३_१_७९) द्वारा क्त्वा तथा इडागम् होकर शी इ त्वा रूप बनेगा।यहाँ गुण और अयादेश होकर श य् इ त्वा = शयित्वा रूप सिद्ध होता है। किन्तु क्त्वा प्रत्यय यदि इट् सहित न होगा तो वह कित् ही रहेगा।

[१|२|१९] निष्ठाशीङ्ग् स्विअदिमिदिक्ष्विदिधृषः `शीङ् `, `स्विदॎ, `मिदॎ, `क्ष्विदॎ तथा `धृषऄ धातुओं से विहिइडा गमविशिष्ट निष्ठाप्रत्यय (`क्तऄ तथा `क्तवतु`) कित् नही होता है। | शयितः (सोया हुआ), शयितवान् (वह सोया), प्रस्वेदितः (पसीने से भीगा हुआ), प्रमेदितवान् (उसने स्नेह किया), प्रक्ष्वेदितः (स्नेह किया हुआ), प्रक्ष्वेदितवान् (उसने स्नेह किया), प्रधर्षितः (ढीठ बना हुआ), प्रधर्षितवान् (उसने ढिठाई की)

[१|२|२०] मृषस्तितिक्षायाम् क्षमार्थक `मृष`धातु से विहित इडागम- विशिष्ट निष्ठा - प्रत्यय कित् नहीं होता है। | मर्षितः (क्षमा किया हुआ), मर्षितवान् (उसने क्षमा किया) पूर्ववत् "कित्" निषेध होने से गुण हो जाता है।

[१|२|२१] उदुपधाद्भावादिकर्मणोरन्यतरस्याम् ह्रस्व उकार है उपधा में जिस धातु का उससे भाव तथा आदिकर्म में विहित इडागम- विशिष्ट निष्ठा - प्रत्यय विकल्प से कित् नहीं होता है। | भावे == द्योतितमनेन, द्युतितमनेन। मोदितमनेन, मुदितमनेन । आदिकर्मणि == प्रद्योतितः, प्रद्युतितः। प्रमोदितः, प्रमुदितः।

[१|२|२२] पूङः क्त्वाच `पूङ् ` धातु से विहित इडागम - विशिष्ट क्त्वा-प्रत्यय तथा निष्ठा - प्रत्यय कित् नहीं होते हैं। | पवितः (पवित्र किया हुआ), पवितवान् (पवित्र किया), पवित्वा (पवित्र करके)।

[१|२|२३] नोपधात्थफान्ताद्वा नकार हो उपधा में जिस धातु का, उससे और थकारान्त एवं ककारान्त धातुओं से विहित इडागम-विशिष्ट क्त्वा-प्रत्यय विकल्प से कित् नहीं होता है। | ग्रथित्वा, ग्रन्थित्वा, श्रथित्वा, श्रन्थित्वा। गुफित्वा, गुम्फित्वा।

[१|२|२४] वञ्चिलुञ्च्यृतश्र्च् `वञ्चॎ, `लञ्चॎ तथा ऋत् धातुओं से विहित इडागम - विषिष्ट क्त्वा-प्रत्यय विकल्प से कित् नहीं होता है। | वचित्वा (ठगकर) वञ्चित्वा। लुचित्वा (दूर करके), लुञ्चित्वा। ऋतित्वा (घृणा करके) अर्तित्वा।

[१|२|२५] तृषिमृषिकृषेःकाश्यपस्य `तृष् `, `मृष् ` तथा कृश् ।धातुओं से विहित - इडागम - विशिष्ट क्त्वा - प्रत्यय कश्यपाचार्य के मत में विकल्प से कित् नही होता है। | तृषित्वा (प्यासा होकर) तर्षित्वा। मृषित्वा (सहन करके) मर्षित्वा। कृशित्वा (छीलकर या पतला करके) कर्शित्वा। सर्वत्र कित् पक्ष में गुण-निषेध, तथा अकित् पक्ष में गुण होता है।

[१|२|२६] रलोव्युपधाद्धलादेःसंश्र्च् - इवर्ण और उवर्ण उपधा वाली , हलादि और रलन्त (जिसके अन्त में कोई रल् वर्ण हो) धातु के पश्चात् इट् सहित क्त्वा और सन् प्रत्यय विकल्प से कित् होते हैं। | लिख् + इट् + सन् / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके == लिलिख् + इट् + सन् == लिलिख् + इ + स / पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा को गुण करके तथा प्रत्यय को षत्व करके == लिलेखिष == लिलेखिषति।

[१|२|२७] ऊकालोऽज्झ्रस्वदीर्घप्लुतः उ, ऊ और ऊ३काल वाले स्वर हृस्व, दीर्घ और प्लुत् संज्ञक होते हैं। | ह्रस्वः - दधिच्छत्रम्, मधुच्छत्रम्। दीर्घः - कुमारी, गौरी। प्लुतः - देवदत्त३अत्र न्वसि।

[१|२|२८] अचश्र्च &कुओत्;ह्रस्व&कुओत्;, &कुओत्;दीर्घ&कुओत्; तथा &कुओत्;प्लुत&कुओत्; संज्ञाएँ स्वर की होती हैं। | अतिरि, अतिनु, उपगु।

[१|२|२९] उच्चैरुदात्तः जिस् " अच्" की उत्पत्ति कण्ठ, तालु आदि स्थानों के ऊपर के भाग से हो उदात्त कहलाते हैं। | औ॒प॒ग॒वः, ये, ते, के।

[१|२|३०] नीचैरनुदात्तः जिस् " अच्" की उत्पत्ति कण्ठ, तालु आदि स्थानों के निचले के भाग से हो अनुदात्त कहलाते हैं। | नम॑स्ते॒ दे॒व॒द॒त्त॒, त्व॒, स॒म॒, सि॒म॒।

[१|२|३१] समाहारःस्वरितः जिस् " अच्" की उत्पत्ति कण्ठ, तालु आदि स्थानों के मध्य के भाग से हो स्वरित कहलाते हैं। | क्व॑, शि॒क्य॑म्, क॒न्या॑, सा॒म॒न्यः॑

[१|२|३२] तस्यादित उदात्तमर्धह्रस्वम् स्वरित स्वर में प्रारम्भ की आधी मात्रा उदात्त होती है और शेषांश अनुदात्त। | क्व॑, क॒न्या॑।

[१|२|३३] एकश्रुतिदूरात्संबुद्धौ दूर से सम्बोधन किया गया हो जिस वाक्य से उसमें सभी स्वरों की एकश्रुति (एक ही सा उच्चारण) होती है। | आगच्छ भो माणवक देवदत्त३। (*) अत्रोदत्तानुदात्तस्वरितस्वराः पृथक्-पृथक् नोच्चारिता भवन्ति ।

[१|२|३४] यज्ञकर्मण्यजपन्यूंखसामसु जप, न्यूङ्ख तथा साम के क्षेत्रों को छोड़कर अन्यत्र यज्ञकर्म में भी सभी स्वरों की एकश्रुति (एक सा ही उच्चारण) होती है। | समधग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथम्। आस्मिन् हव्या जुहोतन, अग्निर्मूर्द्धा दिवः ककुत्पतिः प्रथिव्या अयम्। अपां रेतांसि जिन्वतो३म्, अत्रैकश्रुतिरभूत्।

[१|२|३५] उच्चैस्तरांवावषट्कारः यज्ञकर्म में `वौषट् ` विकल्प से उदात्ततर होता है और पक्षान्तर में एकश्रुति होती है। | सोमस्याग्ने वीही३वौ३षट्, पक्षे एकश्रुतिः - सोमस्याग्ने वीही३वौ३षट्।

[१|२|३६] विभाषाछन्दसि वेद के विषय में विकल्प से तीनों स्वरों की एकश्रुति भी होती है और त्रैस्वर्य भी। | अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम् (ऋक्०१_१_१)। इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मण०। अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये। निहोता सत्सि बर्हिषि।ये तृषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः। वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे।

[१|२|३७] नसुब्रह्मण्यायांस्वरितस्यतूदात्तः `सुब्रह्मण्या` नाम वाले निगद में एकश्रुति तो नहीं होती परन्तु स्वरित के स्थान में उदात्त आदेश हो जाता है। | सु॒ब्र॒ह्म॒ण्यो३मिद्रागच्छ॒ हरवि॒ आगच्छ॒ मेधाति॒थे॒र्मे॒ष॒ वृषण॒श्व॒स्य॒ मे॒ने॒ गौराव॒स्क॒द्नि॒न्न॒हल्या॒यै॒ जा॒र॒ कौशिक॒ब्रा॒ह्म॒ण गौतम॒ब्रु॒वा॒ण॒ श्वः सुत्यामागच्छ॒ म॒घव॒न् (श०३_१_४१७-१९)

[१|२|३८] देवब्रह्मणोरनुदात्तः `सुब्रह्मण्या` निगद के अन्तर्गत आनेवाले `देवऄ तथा ब्रह्मन् ` शब्दों के स्वरित के स्थान में अनुदात्त हो जाता है। | देवा॒ ब्रह्मा॒ण॒ आगच्छ॒त॒।

[१|२|३९] स्वरितात्संहितायामनुदात्तानाम् संहिता होने पर स्वरित के परवर्ती अनुदात्तों की एकश्रुति हो जाती है। | इ॒मं मे॑ गङ्गे यमुने सरस्वति॒ शुतु॑द्रि, माण॑वक जटिलाकाध्यापक॒ क्व॑ गमिष्यसि।

[१|२|४०] उदात्तस्वरितपरस्यसन्नतरः उदात्त से पूर्ववर्ती तथा स्वरित से पूर्ववर्ती अनुदात्त सन्नतर, अर्थात अनुदात्त हो जाता है। | देवा॑ मरुतः पृश्निमातरो॒ऽपः। सरस्वति॒ शुतु॑द्रि। स्वरितपरस्य - अध्यापक॒ क्व॑।

[१|२|४१] अपृक्तएकालप्रत्ययः एक वर्ण (एक " अल्" रूप) प्रत्यय की अपृक्त संज्ञा होती है | रमा + स् । यहां "स्" की अपृक्त संज्ञा है ( अर्थात् "स्" अपृक्त है)।

[१|२|४२] तत्पुरुषःसमानाधिकरणःकर्मधारयः - एक ही पदार्थ के अभिधायक शब्दों में होने वाला तत्पुरुष समास कर्मधारय कहलाता है। | नीलोत्पलम (नीला कमल) - इस तत्पुरुष समास में नीलापन और कमल का आधार एक ही फूल है, अतः यह कर्मधारय संज्ञक होग। इसका विग्रह है नीलञ्च तदुत्पलञ्च इति नीलोत्पलम्।

[१|२|४३] प्रथमानिर्दिष्टंसमास उपसर्जनम् - समासशास्त्र में प्रथमा विभक्ति से निर्दिष्ट उपसर्जन कहलाता है। | समास विधायक सूत्र में अव्ययम् पद प्रथमान्त है, अतः वह प्रकृत सूत्र से उपसर्जन संज्ञक होगा। हरि ङि अधि में यही अव्यय है, अतः वह भी उपसर्जन है।

[१|२|४४] एकविभक्तिचापूर्वनिपाते - यदि उपसर्जनं पूर्वम् (२_२_३०) से पूर्व में प्रयोग न हो तो विग्रह (समास-विग्रह) में एक विभक्ति वाला पद (जिसकी विभक्ति एक ही रहती है, परिवर्तित नहीं होती) उपसर्जन कहलाता है। | निष्कौशाम्बिः का विग्रह इतने प्रकार से हो सकता है- निष्क्रान्तं, निष्क्रान्तेन, निष्क्रान्ताय, निष्क्रान्तात्, निष्क्रान्तस्य, निष्क्रान्ते, वा कौशाम्ब्याः इति निष्कौशामिवः। यहाँ पूर्वपद अनेक विभक्तियुक्त होने पर भी उत्तरपद कौशाम्ब्याः पञ्चमी विभक्ति में ही रहता है।उसकी विभक्ति बदलती नहीं है साथ ही उसका प्रयोग भी पूर्व में नहीं हुआ है।

[१|२|४५] अर्थवदधातुरप्रत्ययःप्रातिपदिकम् धातु प्रत्यय और प्रत्यान्त को छोड़कर अन्य अर्थवान् शब्दस्वरूप की प्रतिपादिक संज्ञा होती है। | "भू" धातु है, इसका नाम प्रातिपदिक नहीं है किन्तु राम, बालक, कृष्ण, वृक्ष आदि का नाम प्रातिपादिक है।

[१|२|४६] कृत्तद्धितसमासाश्र्च कृदन्त, तद्धितान्त व समास की भी "प्रातिपदिक" संज्ञा होती है। | कृष् + न == कृष्ण । तथा " सु" विभक्ति लगने पर कृष्ण + सु == कृष्णः (यह पद बन जायेगा) किन्तु पुनः तद्धित प्रत्यय लगाने पर य पुनः प्रातिपादिक बन जायगा। जैसे कृष्णः + इञ् == कार्ष्णि।

[१|२|४७] ह्रस्वोनपुंसकेप्रातिपदिकस्य अजन्त नपुन्सक प्रतिपादिक के स्थान पर ह्रस्व आदेश। | अतिरि कुलम्, अतिनु कुलम्।

[१|२|४८] गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य - जिस प्रातिपादिक के अन्त में उपसर्जन-संज्ञक गो या स्त्री-प्रत्यान्त शब्द हो, उसका ह्रस्व होता है। | अतिमाला के अन्त में उपसर्जन-संज्ञक माला है और वह स्त्री-प्रत्यान्त भी है। अतः प्रकृत सूत्र से अन्त्य अच्- आकार के स्थान पर ह्रस्व अकार हो अतिमाल् अ = अतिमाल रूप बनता है। तब विभक्ति कार्य हो अतिमालः रूप सिद्ध होता है।

[१|२|४९] लुक्तद्धितलुकि तद्धित प्रत्यय के लुक् होने पर उपसर्जन स्त्रीप्रत्यय का लुक् हो जाता है। | पञ्चेन्द्रः, दशेन्द्रः। पञ्चशष्कुलम्, आमलकम्, बकुलम्, कुवलम्, बदरम्।

[१|२|५०] इद्गोण्याः तद्धित प्रत्यय के लुक् होने पर गोपी शब्द के स्त्रीप्रत्यय को रकार अन्तादेश हो जाता है। | पञ्चगोणिः, दशगोणिः।

[१|२|५१] लुपियुक्तवद्वयक्तिवचने - प्रत्यय का लोप होने पर लिङ्ग और वचन के विषय में प्रकृति के समान ही कार्य होता है। | पञ्चाल शब्द अण् प्रत्यय का लोप होने पर बना है, अतः इसका लिङ्ग और वचन प्रकृति के अनुसार ही होगा, प्रत्ययार्थ-विशेष्य के अनुसार नहीं। प्रकृति में पञ्चाल शब्द बहुवचन और पुँल्लिङ्ग है, अतः जनपद अर्थ में प्रत्यय-लोप होने पर प्रयुक्त होने वाले पञ्चाल शब्द का रूप भी पुँल्लिङ्ग-बहुवचन में ही बनेगा। इस प्रकार विभक्ति-कार्य हो पञ्चालाः रूप सिद्ध होता है।

[१|२|५२] विशेषणानांचाजातेः तद्धितान्त के जातिभिन्न विशेषणो की लिंग - संख्या भी प्रकृति की तरह ही होती है। | पञ्चालाः रमणीयाः बह्णन्नाः बहुमाल्यफलाः सम्पन्नपानीयाः (पञ्चाल बहुत सुन्दर, बहुत अन्न माल्य फलवाला, एवं खूब जलाशयोंवाला जनपद है)। गोदौ रमणीयौ बह्णन्नौ बहुमाल्यफलौ सम्पन्नपानीयौ (गोद नाम का रमणीय बहुत अन्न माल्य फलवाला, एवं खूब जलाशयोंवाला ग्राम है)। कटुकबदरी शोभना बहुमाल्यफला।

[१|२|५३] तदशिष्यंसंज्ञाप्रमाणत्वात् लोकव्यवहाराधीन होने के कारण इस नियम का पूर्णतः विधान नही किया जा सकता। | पञ्चालाः वरणाः जनपदादीनां संज्ञा एताः, तत्र लिङ्ग वचनञ्च स्वभावसिद्धमेव।

[१|२|५४] लुब्योगाप्रख्यानात्| &कुओत्;जनपदे लुप्&कुओत्; तथा &कुओत्;वरणादिभ्यश्च&कुओत्; इन सूत्रों से जो लुप् का विधान किया गया है वह भी नहीं करना चाहिए क्योंकि निवादिसम्बन्ध की प्रतीति नहीं होती।

[१|२|५५] योगप्रमाणेचतदभावेऽदर्शनंस्यात्| सम्बन्ध की प्रतीति प्रामणिक होने पर सम्बन्धाभाव में `पंचालऄ आदि शब्दों का प्रयोग नही होता।

[१|२|५६] प्रधानप्रत्ययार्थवचनस्यान्यप्रमाणत्वात्| समास में प्रधानत्वप्रातिपादक वचन तथा प्रत्यार्थप्रतिपादक वचन का उपदेश भी अनावश्यक है, क्योंकि प्रधानत्वादि की व्यवस्था लोकाधीन होता है।

[१|२|५७] कालोपसर्जनेचतुल्यम्| काल तथा उपसर्जन का भी निर्देश नहीं करना चाहिए, क्योंकि इनकी व्यवस्था लोकाधीन है।

[१|२|५८] जात्याख्यायामेकस्मिन्बहुवचनमन्यतरस्याम् जाति का विवक्षा में एकवचन के स्थान में विकल्प से बहुवचन का भी विधान होता है। | सम्पन्नाः यवाः, सम्पन्नाः व्रीहयः (अत्र बहुत्वम्), सम्पन्नो यवः, सम्पन्नो व्रीहिः (अत्रैकत्वम्)। जात्यर्थस्य एकत्वे बहुत्वे च सति द्वयेकयोर्द्विवचनैकवचने (१_४_२२) इति, बहुषु बहुवचनम् (१_४_२१) इति च यथायोगम् एकवचनबहुवचने भवतः।

[१|२|५९] अस्मदोद्वयोश्र्च अस्मत् शब्द के एकवचन तथा द्विवचन के स्थान में भी विकल्प से बहुवचन का विधान होता है। | "अहं ब्रवीमि" इत्यस्य स्थाने वक्ता "वयं ब्रूमः" इत्यपि वक्तुं शक्नोति, यद्यपि वक्ता एक एव। एवं "आवां ब्रूवः" इत्यस्य स्थाने" " वयं ब्रूमः" इत्यपि भवति, यद्यपि द्वौ वक्तारौ स्तः।

[१|२|६०] फल्गुनीप्रोष्ठपदानांचनक्षत्रे फाल्गुनी-द्वय तथा प्रोष्ठपद - द्वय के द्वित्व के स्थान में विकल्प से बहुवचन होता है। | उदिताः पूर्वाः फल्गुन्यः (अत्र बहुवचनम्), उदिते पूर्वे फल्गुन्यौ (अत्र द्विवचनम्)। उदिताः पूर्वाः प्रोष्ठपदाः, उदिते पूर्वे प्रोष्ठपदे।

[१|२|६१] छन्दसिपुनर्वस्वोरेकवचनम् वैदिकस्थल में पुनर्वसु के द्विवचन के स्थान में विकल्प से एकवचन भी होता है। | पुनर्वसुर्नक्षत्रम् (अत्रैकवचनम्), पुनर्वसू नक्षत्रे (अत्र द्विवचनम्)।

[१|२|६२] विशाखयोश्र्च विशाखा नक्षत्र के द्विवचन के स्थान में भी वेद में विकल्प से एकवचन होता है। | विशाखा नक्षत्रम्, विशाखे नक्षत्रे।

[१|२|६३] तिष्यपुनर्वस्वोर्नक्षत्रद्वन्देबहुवचनस्यद्विवचनंनित्यम् नक्षत्रार्थ में तिष्य-पुनर्वसू के द्वन्द्व समास में द्विवचन के स्थान में सर्वदा बहुवचन ही होता है। | उदितौ तिष्यपुनर्वसू दृध्येते।

[१|२|६४] सरुपाणामेकशेषएकविभक्तौ समान विभक्ति परे रहने पर समान रूप वाले शब्दों का एक रूप ही शेष रहता है। | वृक्षश्च वृक्षश्च वृक्षौ। वृक्षश्च वृक्षश्च वृक्षश्च वृक्षाः

[१|२|६५] वृद्धोयूनातल्लक्षणश्र्चेदेवविशेषः वृद्ध (गोत्र) प्रत्यन्त तथा युव-प्रत्ययान्त शब्दों के सहप्रयोग होने पर वृद्धप्रत्ययान्त ही प्रयोग में अविशिष्ट रहता है यदि दोनों प्रत्ययों के वैरुप्य को छोड़कर उनकी प्रकृतियों में वैरुप्य न हो। | गार्ग्यश्च गार्ग्यायणश्च गार्ग्यौ, वात्स्यश्च वात्स्यायनश्च वात्स्यौ ।

[१|२|६६] स्त्रीपुंवच्च गोत्रप्रत्यान्त स्त्रीलिङ्ग शब्द और युवप्रत्ययान्त शब्दों के सहप्रयोग होने पर स्त्रीलिङ्ग शब्द ही अवशिष्ट रहता है। और स्त्रीलिङ्ग शब्द से पुल्लिङ्गशब्दवत् कार्य भी होता है। यदि दोनों प्रत्यान्त शब्दों में प्रत्यय - गत् वैरुप्य न हो। | गार्गी च गार्ग्यायणश्च गार्ग्यौ, वात्सी च वात्स्यायनश्च वात्स्यौ।

[१|२|६७] पुमान्स्त्रिया स्त्रीलिङ्ग श्ब्द और पुल्लिङ्ग शब्द के सहप्रयोग में पुल्लिङ्ग शब्द ही अवशिष्ट रहता है यदि उन दोनों शब्दों में स्त्रीत्व तथा पुंस्त्व से भिन्न कोई वैषभ्य न हो। | ब्राह्मणश्च ब्राह्मणी च ब्राह्मणौ, कुक्कुटश्च कुक्कुटी च कुक्कुटौ।

[१|२|६८] भ्रातृपुत्रौस्वसृदुहितृभ्याम् भ्रातृ तथा स्वसृ शब्दों के सह-प्रयोग में तथा पुत्र अलग एवं दुहितृ शब्दों के सह-प्रयोग में क्रमशः भातृ तथा पुत्र शब्द ही अवशिष्ट रहते हैं। | भ्राता च स्वसा च भ्रातरौ। पुत्रश्च दुहिता च पुत्रौ।

[१|२|६९] नपुंसकमनपुंसकेनैकवच्चास्यान्यतरस्याम् - नपुंसक तथा अनपुंसक के सह प्रयोग में नपुंसक ही विकल्प से अवशिष्ट रहता है, यदि दोनों में नपुंसकत्व एवं अनपुंसकत्व से भिन्न वैरुप्य न हो। | शुक्लश्च कम्बलः, शुक्ला च शाटिका, शुक्लं च वस्त्रम् - तदिदं शुक्लम्। पक्षे == तानीमानि शुक्लानि, (बहुवचनम् अभूत्)।

[१|२|७०] पितामात्रा - माता के साथ कथन होने पर पिता पद विकल्प से शेष रह जाता है। | माता च पिता च (माता और पिता) इस विग्रह में माता के साथ पिता पद का प्रयोग हुआ है। अतः प्रकृत सूत्र से माता का लोप हो द्विवचन में पितरौं रूप बनता है। लोपाभाव-पक्ष में मातापितरौ रूप बनेगा।

[१|२|७१] श्र्वशुरःश्र्वश्र्वा शवश्रु तथा शवसुर शब्दों के सह-प्रयोग में विकल्प में स्वसुर शब्द अवशिष्ट रहता है। | श्वशुरश्च श्वश्रूश्च श्वशुरौ। पक्षे - श्वश्रूश्वशुरौ।

[१|२|७२] त्यदादीनिसर्वैर्नित्यम् किसी भी शब्द के साथ प्रयुज्यमान त्यदादि शब्द अवशिष्ट रहते हैं। | स च देवदत्तश्च तौ, यश्च यज्ञदत्तश्च यौ, स च यश्च यौ।

[१|२|७३] ग्राम्यपशुसंघेष्वतरुणेषुस्त्री ग्राम्यपशुओं के वाचक शब्दों के सह-प्रयोग में स्त्रीलिङ्ग पशु-वाचक शब्द अवशिष्ट रहता है। | गावश्च वृषभाश्च == गाव इमाश्चरन्ति, महिषाश्च महिष्यश्च महिष्य इमाश्चरन्ति।

[१|३|१] भूवादयोधातवः "भू" आदि क्रियावाची शब्दोँ की धातु संज्ञा होती है। | भवति, पठति, वाति

[१|३|२] उपदेशेऽजनुनासिक इत् अनुनासिक " अच्" की उपदेश अवस्था में इत्संज्ञा होती है । | सु == स्, मतुप् == मत्

[१|३|३] हलन्तयम् अन्तिम् "हल्" (व्यञ्जन) की उपदेश अवस्था में इत्संज्ञा होगी। | "अनीयर्" में "र्", "ल्यप्" प्रत्यय में "प्" तथा "तृच्" प्रत्यय में "च्" की इत् संज्ञा होती है।

[१|३|४] नविभक्तौतुस्माः विभक्ति में स्थित प्रत्ययों के तवर्ग, सकार व मकार इत्संज्ञक नहीं होते। | बालक + अस् में "स्" इत्संज्ञक नहीं है इसलिये बालक + अस् ==> बालकाः {"स्" को विसर्ग}

[१|३|५] आदिर्ञिटुडवः प्रत्ययों के आदि के "ञि", "टु" व "डु" की इत्संज्ञा होती है। | ञिमिदा - मिद् /टुनादि - नद् / डुकञ् - कृ आदि ।

[१|३|६] षःप्रत्ययस्य प्रत्ययों के आदि के "ष्" षकार की इत्संज्ञा होती है। | जैसे - ष्यञ् == य

[१|३|७] चुटू प्रत्यय के आदि में च-वर्ग व ट-वर्ग वर्ण इत्संज्ञक होते हैं। | बाल + जस् ==> बाल + अस् {"ज्" (च-वर्ग वर्ण) इत्संज्ञक }

[१|३|८] लशक्वतद्धिते तद्धित प्रत्ययों को छोड़ कर अन्य सभी प्रत्ययों के आदि (पहले) लकार, शकार और कवर्ग वर्ण इत्संज्ञक होते हैं। | बालक + शस् ==&ग्त्; बालक + अस् ==&ग्त्; बालकास् {&कुओत्;श्&कुओत्; इत्संज्ञक है}

[१|३|९] तस्यलोपः जिसकी इत्संज्ञा हो उसका लोप हो। | वुक् में " उक्" इत्संज्ञक होकर केवल "व्" शेष रहता है । विभक्ति प्रत्यय "सु" में " उ" इत्संज्ञक है और् केवल "स्" शेष रहता है।

[१|३|१०] यथासंख्यमनुदेशःसमानाम् समसंख्यक स्थानी तथा आदेश का सम्बन्ध क्रमानुसार होता है। | तूदीशब्दान्त ढक् प्रत्ययः== तौदेयः। शलातुरात् छण् == शालातुरीयः। वर्मतीशब्दात् ढञ्==वार्मतेयः। कूचवारात् यक् == कौचवार्यः, अत्र क्रमेणानुदेशा भवन्ति।

[१|३|११] स्वरितेनाधिकारः स्वरितस्वरात्मक चिन्ह् अधिकार का ज्ञापक है। | प्रत्य॑य (३_१_१), पर॑श्च (३_१_२), धातोः॑ (३_१_९१), अङ्ग॑स्य (६_४_१)

[१|३|१२] अनुदात्तङित आत्मनेपदम् - अनुदात्तेत और ङित् धातुओं से तङ्, शानच् और कानच् प्रत्ययों का विधान हो। | एध् धातु का धकारोत्तरवर्ती अकार अनुदात्त तथा इत्संज्ञक है, अतः इससे आत्मनेपद आवेगा। इसी भाति ङ् के इत् होने से शीङ् धातु से भी आत्मनेपद आता है।

[१|३|१३] भावकर्मणोः भाव तथा कर्म में लकार के विहित होने पर धातु से आतमनेपद होता है। | भाववाच्य में - आस्यते देवदत्तेन, ग्लायते भवता, सुप्यते भवता। कर्मवाच्य में - देवदत्तेन वेदः पठ्यते, देवदत्तेन फलं खाद्यते।

[१|३|१४] कर्तरिकर्मव्यतिहारे - यदि अन्य सम्बंधी क्रिया का कर्ता अन्य हो तो कर्ता- अर्थ (कर्तृवाच्य) में धातु से आत्मनेपद प्रत्यय होता है।वि और अति उपसर्ग के योग से क्रिया का विनिमय व्यापार सूचित होता है। | अन्यस्य योग्यं लवनं करोति (दूसरे के बदले काटता है) इस अर्थ में वि और अति पूर्वक लूञ् (क्रियादि०, काटना) धातु से लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में आत्मनेपद प्रत्यय त होकर वि अति लू त रूप बनता है। तब श्ना प्रत्यय लू के ऊकार को ह्रस्व, श्ना के आकार के स्थान में ईकार और एत्व होकर वि अति लुनीते रूप बनता है। इस स्थिति में यणादेश होकर व्यतिलुनीते रूप सिद्ध होता है।

[१|३|१५] नगतिहिंसार्थेभ्यः - क्रिया के विनिमय अर्थ में गति (चलना) और हिंसा (मारना) अर्थ वाली धातुओं के बाद आत्मनेपद नही आता। | हन् धातु का अर्थ है हिंसा करना। अतः क्रिया-विनिमय अर्थ में लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में वि और अति पूर्वक हन् ( अदादि०) धातु से परस्मैपद झि प्रत्यय होकर वि अति अन् झि रूप बनता है। तब हन् की उपधा का लोप, हकार को धकार और झकार को अन्त आदि होकर व्यतिध्नन्ति रूप सिद्ध होता है।

[१|३|१६] इतरेतरान्योन्योपपदाच्च कर्म-विनिमय के द्योतित होने पर ` इतरेतरऄ तथा ` अन्योन्यऄ उपपदवाले धातुओं से आतमनेपद होता है। | इतरेतरस्य व्यतिलुनन्ति / अन्योन्यस्य व्यतिलुनन्ति (एक दूसरे का काटते हैं।)

[१|३|१७] नेर्विशः - नि उपसर्गपूर्वक विश् (तुदादि०, घुसना) धातु के बाद आत्मनेपद आता है। | लट् लकार के प्रथमपुउष-एकवचन में नि-पूर्वक विश् धातु से आत्मनेपद प्रत्यय त, श-प्रत्यय और एत्व होकर निविशते रूप सिद्ध होता है।

[१|३|१८] परिव्यवेभ्यःक्रियः - परि, वि और अव उपसर्गपूर्वक क्री (क्रियादि०, खरीदना) धातु के बाद आत्मनेपद प्रत्यय आता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में परि पूर्वक क्री धातु से आत्मनेपद प्रत्यय त होकर परि क्री त रूप बनता है। इस स्थिति में श्ना-प्रत्यय, ईत्व, णत्व और एत्व आदि होकर परिक्रीणीते रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार वि उपसर्ग के योग में विक्रीणीते और अव के योग में अवक्रीणीते रूप सिद्ध होता है।

[१|३|१९] विपराभ्यांजेः - वि और परा उपसर्गपूर्वक जि (जीतना) धातु के बाद आत्मनेपद आता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में वि पूर्वक जि धातु से आत्मनेपद प्रत्यय त होकर विजित रूप बनता है। गुण, शप्, अयादेश और एत्व आदि होकर विजयते रूप सिद्ध होता है।

[१|३|२०] आङ्गोदोऽनास्यविहरणे ग्राम्यपशुओं के वाचक शब्दों के सह-प्रयोग में स्त्रीलिङ्ग पशु-वाचक शब्द अवशिष्ट रहता है। | विद्याम् आदत्ते । मुँह खोलने अर्थ में केवल परस्मैपद ही होता है - आस्यं व्याददाति (मुँह खोलता है।)

[१|३|२१] क्रीडोऽनुसंपरिभ्यश्र्च् अनु, सम् तथा परि उपसर्गों से अन्यतम से विशिष्ट `क्रीडऄ धातु से आतमनेपद होता है। | अनुक्रीडते (साथ में खेलता है), संक्रीडते (मस्त होकर खेलता है), परिक्रीडते (खूब खेलता है), आक्रीडते (खेलता है)।

[१|३|२२] समवप्रविभ्यःस्थः - सम्, अव, प्र और विपूर्वक स्था (भ्वादि०, ठहरना) धातु के बाद आत्मनेपद आता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में सम् पूर्वक स्था धातु से आत्मनेपद प्रत्यय त होकर सम् स्था त रूप बनता है। तब शप्, स्था के स्थान पर तिष्ठ, पर-रूप और एत्व आदि होकर सन्तिष्ठते रूप सिद्ध होता है।

[१|३|२३] प्रकाशनस्थेयाख्ययोश्च अपने अभिप्राय की अभिव्यक्ति तथा विवादनिर्णायक की अभिव्यक्ति करने वाले `स्था` धातु से भी आत्मनेपद होता है। | विद्या तिष्ठते छात्राय (विद्या छात्र को अपना स्वरूप प्रकाशित करती है)।

[१|३|२४] उदोऽनूध्र्वकर्मणि ऊर्ध्वत्वविशिष्ट क्रिया से भिन्न क्रिया के प्रतिपादिक उत्पूर्वक `स्था` धातु से आत्मनेपद होता है। | गोहे उत्तिष्ठते (घर में उन्नति करता है), कुटुम्बे उत्तिष्ठते (कुटुम्ब में उन्नति करता है ।) यदि उसका अर्थ ऊपर उठना हो, तो उससे परस्मैपद ही होता है। जैसे आसनाद् उत्तिष्ठति।

[१|३|२५] उपान्मन्त्रकरणे मन्त्रकरण (स्तुति) के अर्थ में उपपूर्वक `स्था` धातु से आत्मनेपद होता है। | ऐन्द्र्या गार्हपत्यमुपतिष्ठते ( इन्द्र देवता वाली ऋचा को बोलकर गार्हपत्य अग्नि के समीप आता है)। आग्नेय्या आग्नीध्रमुपतिष्ठते (अग्नि देवता वाली ऋचा को बोलकर आग्नीध्र के पास जाता है।)

[१|३|२६] अकर्मकाच्च् उपपूर्वक अकर्मक `स्था` धातु से भी आत्मनेपद होता है। | यावद्भुक्तमुपतिष्ठते (भोजन के समय आ के खड़ा होता है।)

[१|३|२७] उद्विभ्यांतपः उपपूर्वक तथा विपूर्वक अकर्मक `तपऄ धातु से आत्मनेपद होता है। | उत्तपते (खूब गरम होता है।), वितपते (विशेष रूप से गरम होता है)।

[१|३|२८] आङ्गोयमहनः अङ्पूर्वक अकर्मक `यम् ` तथा `हन् ` धातुओं से आत्मनेपद होता है। | आयच्छते, आहते।

[१|३|२९] समोगम्यृच्छिप्रच्छिस्वरत्यर्तिश्रुविदिभ्यः समुपसर्गक अकर्मक `गम् `, ऋच्छ, प्रच्छ, ` ऋ ` `श्रु` तथा `वद् ` ध्हतुओं से आतमनेपद होता है। | सङ्गच्छते (साथ साथ चलता है), समृच्छते (प्राप्त होता है।) आदि

[१|३|३०] निसमुपविभ्योह्वः नि, सम्, उप तथा वि उपसर्गों में अन्यतम से युक्त `ह्णेञ् ` धातु से आत्मनेपद होता है। | निह्वयते (निश्चय रूप से बुलाता है), संह्वयते (अच्छी पुकार से बुलाता है), उपह्वयते (समीप बुलाता है।)

[१|३|३१] स्पर्धायामाडः स्पर्धा अर्थ में आङ् उपसर्ग से विशिष्ट `ह्णेञ् ` धातु से आत्मनेपद होता है। | मल्लो मल्लमाह्वयते (एक पहलवान दूसरे पहलवान को कुश्ती के लिये ललकारता है।)

[१|३|३२] गन्धनावक्षेपणसेवनसाहसिक्यप्रतियत्नप्रकथनोपयोगेषुकृञः - गन्धन (सूचन, शिकायत करना), अवक्षेपण (भर्त्सना), सेवन (सेवा करना), साहसिक्य (सहसा प्रवृत्त होना), प्रतियत्न (दूसरे के गुणों का आधान करना), प्रकथन (विस्तार से कहना) और उपयोग (धर्मादि प्रयोजन में प्रयोग करना)- इन अर्थों में कृञ् (करना) धातु के बाद आत्मनेपद आता है। | उतकुरूते (शिकायत करता है) में उद् पूर्वक कृञ् धातु का अर्थ गन्धन-सूचन है। अतः प्रक्रित सूत्र से, अतः प्रकृत सूत्र लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में कृ धातु से आत्मनेपद प्रत्यय त होकर उत्कुरुते रूप सिद्ध होता है।

[१|३|३३] अधेःप्रसहने अधिपूर्वक कृञ् धातु से अभिभव अर्थ में आत्मनेपद होता है। | शत्रुमधिकुरुते।

[१|३|३४] वेःशब्दकर्मणः कर्म कारक के स्थान में शब्द के आने पर विपूर्वक `कृञ् धातु से अकर्कृगामी क्रिया-फल में आत्मनेपद होता है। | क्रोष्टा विकुरुते स्वरान् (गीदड़ स्वरों को बिगाड़ बिगाड़ कर बोलता है।)

[१|३|३५] अकर्मकाच्च विपूर्वक अकर्मक `कृञ् ` धातु से आत्मनेपद होता है। | विकुर्वते सैन्धवाः (अच्छी प्रकार से सिखाये गये घोड़े चौकड़ी मारते हैं।

[१|३|३६] संमाननोत्संजनाचार्यकरणज्ञानभृतिविगणनव्ययेषुनियः पूजन, उत्क्षेपण, आचार्य - क्रिया, ज्ञान, भृति, ऋणादि का समापन (चुकती) तथा धर्मार्थ क्रय-इन अर्थों में `नी ` धातु से अकर्तृगामी क्रियागामी क्रिया-फल में आत्मनेपद होता है। | सम्मानन - मातरं सन्नयते, उत्सञ्जन - दण्डमुन्नयते। भृति कर्ककरान् उपनयते, विगणन - मुद्राः करं विनयन्ते।

[१|३|३७] कतृस्थे चाशरीरे कर्मणि शरीर-भिन्न तत्त्व के कर्म होने पर नी धातु से कर्तृवाच्य में आत्मनेपद होता है। | क्रॊधं विनयते (क्रोध को दूर करता है।) यहाँ क्रोध कर्ता में स्थित है किन्तु शरीर से भिन्न हैं।

[१|३|३८] वृत्तिसर्गतायनेषुक्रमः अनिरोध, उत्साह तथा विस्तार अर्थों में `क्रमऄ धातु से आत्मनेपद होता है। | वृत्ति - मन्त्रेषु अस्य क्रमते बुद्धिः (मन्त्रों में इसकी बुद्धि खूब चलती है।)

[१|३|३९] उपपराभ्याम् उपर्युक्त अर्थों में ही उप-पूर्वक तथा `परा-पूर्वकऄ `क्रमऄ धातु से आत्मनेपद होता है। | उपक्रमते (प्रारम्भ करता है), पराक्रमते (पुरुषार्थ करता है।)

[१|३|४०] आङ्ग् उद्गमने उद्गमन अर्थ में आङुपसर्गक `क्रमऄ धातु से आत्मनेपद होता है। | आदित्य आक्रमते (सूर्य उदय होता है।)

[१|३|४१] वेःपादविहरणे पाद-विक्षेप अर्थ वि-पूर्वक `क्रमऄ धातु से आत्मनेपद होता है। | विक्रमते वाजी (घोड़ा कदम उठाता है।)

[१|३|४२] प्रोपाभ्यांसमर्थाभ्याम् प्र तथा उप उपसर्गों से विशिष्ट क्रम धातु से आत्मनेपद होता है यदि दोनों उपसर्ग समानार्थक हों। | प्रक्रमते भुक्तुम्, उपक्रमते भोक्तुम्।

[१|३|४३] अनुपसर्गाद्वा उपसर्ग रहित `क्रमऄ धातु से आत्मनेपद विकल्प से होता है। | क्रमते, क्रामति (चलता है।)

[१|३|४४] अपह्नवेज्ञः - छिपाने अर्थ में ज्ञा (क्रियादि०, जानना) धातु के बाद आत्मनेपद आता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में अप् पूर्वक ज्ञा धातु से आत्मनेपद प्रत्यय त होकर अप ज्ञा त रूप बनता है। इस स्थिति मे ज्ञा के स्थान पर जा श्ना-प्रत्यय, ईत्व और एत्व होकर अपजानीते रूप सिद्ध होता है।

[१|३|४५] अकर्मकाच्च - अकर्मक ज्ञा धातु के बाद आत्मनेपद आता है। | सर्पिषो जानीते (घी के द्वारा प्रवृत्त होता है) में ज्ञा धातु का अर्थ है प्रवृता इस अर्थ में यह अकर्मक है। अतः प्रकृत सूत्र से लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में आत्मनेपद त प्रत्यय होकर ज्ञा त रूः बनता है। इस स्थिति में श्ना प्रत्यय और ज्ञा के स्थान पर जा आदि होकर जानीते रूप सिद्ध होता है।

[१|३|४६] संप्रतिभ्यामनाध्याने `सम् ` तथा `प्रतॎ उपसर्गों से विशिष्ट सकर्मक `ज्ञा` धातु से आत्मनेपद होता है तदि उसकी अर्थ उत्कण्ठापूर्वक स्मरण न हो। | शतं संजानीते /शतं प्रतिजानीते (सौ की प्रतिज्ञा करता है।) सहस्त्रं संजानीते / सहस्त्रं प्रतिजानीते (हजार की प्रतिज्ञा करता है।)

[१|३|४७] भासनोपसंभाषाज्ञानयत्नविमत्युपमन्त्रणेषुवदः दीप्ति, उपसान्त्वन, ज्ञान, उत्साह, विभक्ति तथा उपमन्त्रण अर्थों में वद् धातु से आत्मनेपद होता है। | भासन (प्रकाशित होना) - शास्त्रे वदते (शास्त्र उसकी बुद्धि में प्रकाशित होता है), उपसंभाषा (सान्त्वना देना) - कर्मकारन् उपवदते।, ज्ञान (जानना) - व्याकरणे वदते, यत्न (पुरुषार्थ करना) - क्षेत्रे वदते / गेहे वदते ।

[१|३|४८] व्यक्तवाचांसमुच्चारणे व्यक्तवचन बोलनेवालों के सहोच्चारण के प्रतिपादिक होने पर `वद् ` धातु से आत्मनेपद होता है। | सम्प्रवदन्ते ब्राह्मणाः (ब्राह्मण परस्पर मिलकर उच्चारण करते हैं।)

[१|३|४९] अनोरकर्मकात् उपर्युक्त अर्थ में ही अकर्मक अनुपूर्वक `वद् ` धातु से आत्मनेपद होता है। | अनुवदते कठः कलापस्य (जैसे कलाप शाखाध्यायी बोलता है, वैसे ही उसके पीछे कठ शाखाध्यायी बोलता है।)

[१|३|५०] विभाषाविप्रलापे विप्रलपात्मक व्यक्तवचनभाषियों के सहोच्चारण के प्रतिपादक होने पर `वद् ` धातु से विकल्प से आत्मनेपद होता है। | विप्रवदन्ते सांवत्सराः, विप्रवदन्ति सांवत्सरा (ज्योतिषी लोग परस्पर मिलकर विरुद्ध कथन करते हैं।)

[१|३|५१] अवाद् ग्रः ` अवऄ पूर्वक तुदादिगण पठित `गृ धातु से आत्मनेपद होता है | अवगिरते (निगलता है।)

[१|३|५२] समःप्रतिज्ञाने `सम् `-पूर्वक `गृ ` धातु से प्रतिज्ञान अर्थ में आत्मनेपद होता है। | शब्दं संगिरते (शब्द नित्य है, ऐसा स्वीकार करता है)

[१|३|५३] उदश्र्चरःसकर्मकात् - उद् पूर्वक सकर्मक चर् (चलना) धातु के बाद आत्मनेपद आता है। | धर्म मुञ्चरते (धर्म का उलङ्घन कर चलता है) में चर धातु सकर्मक है। अतः लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में उद् पूर्वक चर धातु से आत्मनेपद प्रत्यय त होकर उद् चर त रूप बनता है। तब शप्, एत्व और श्चुत्व होकर उच्चरते रूप सिद्ध होता है।

[१|३|५४] समस्तृतीयायुक्तात् - तृतीयान्त से युक्त सम् पूर्वक चर से आत्मनेपद आता है। | रथेन संचरते (रथ से घूमता है) में रथेन पद तृतीयान्त है। अतः इससे युक्त सम् पूर्वक चर् धातु से लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में आत्मनेपद त होकर सम् चर् त रूप बनता है। इस स्थिति में शप् और एत्व आदि होकर संचरते रूप सिद्ध होता है। तृतीयान्त के योग के अभाव में परस्मैपद संचरति बनता है।

[१|३|५५] दाणश्र्चसाचेच्चतुथ्र्यर्थे - यदि तृतीया विभक्ति चतुर्थी के अर्थ में हो तो तृतियान्त से युक्त सम् ऊर्वक दाण् (भवादि०, देना) धातु के बाद आत्मनेपद आता है।दाण् धातु परस्मैपदी है। प्रकृत सूत्र से पूर्वोत्क दशा में आत्मनेपद का विधान गया है। | दास्या संयच्छते कामी (कामी पुरुष दासी के लिए देता है) में तृतियान्त दास्या का प्रयोग चतुर्थी-अर्थ में हुआ है। अतः उसके योग में सम् पूर्वक दाढ़् धातु से लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में आत्मनेपद प्रत्यय त होकर सम् दाण् त रूप बनता है। तव शप्, दाढ़ के स्थान पर यच्छ, पर-रूप और एत्व आदि होकर संयच्छते रूप सिद्ध होता है।

[१|३|५६] उपाद्यमःस्वकरणे उप-पूर्वक `यम् ` धातु से पाणिग्रहण - अर्थ में आत्मनेपद होता है। | कन्यामुपयच्छते (कन्या से विवाह करता है।)

[१|३|५७] ज्ञाश्रुस्मृदृशांसनः सन् प्रत्ययान्त `ज्ञा` `श्रु`, `स्मृ ` एवम् `दृश् ` धातुओं से आत्मनेपद होता है। | धर्मं जिज्ञासते - (धर्म को जानने की इच्छा करता है।), गुरुं शुश्रूषते - (गुरु के वचन को सुनने की इच्छा करता है।)

[१|३|५८] नानोर्ज्ञः अनु-पूर्वक सन्नन्त `ज्ञा` धातु से उपर्युक्त आत्मनेपद नहीं होता है। | पुत्रं अनुजिज्ञासति (पुत्र को आज्ञा देना चाहता है।)

[१|३|५९] प्रत्याङ्ग्भ्वांश्रुवः प्रति और आङ् उपसर्गों के अन्यतम से विशिष्ट सन्नन्त `श्रु` धातु से उपर्युक्त आत्मनेपद नहीं होता है। | प्रतिशुश्रूषति (बदले में सुनना चाहता है।) / आशुश्रूषति (अच्छे से सुनना चाहता है।)

[१|३|६०] शदेः शितः - शित् ( जिसका शकार इत्संज्ञक हो) की विविक्षा में शद्९नष्ट होना) धातु के बाद आत्मनेपद आता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में शद् के शिद्भावी होने के कारण प्रकृत सूत्र से उसके बाद आत्मनेपद त होकर शिद् त रूप बनता है। तब श शिद् के स्थान पर शीय् और एत्व होकर शीयते रूप सिद्ध होता है।

[१|३|६१] म्रियतेर्लुङ् लिङोश्र्च लुङ् एवम् लिंग लकारों में तथा शित्सम्बन्धी `मृङऄ धातु से आत्मनेपद होता है। | शित् प्रत्यय परे होने पर - म्रि + श == म्रिय == म्रियते / लुङलकार में - अमृत / लिङ्लकार में - मृषीष्ट ।

[१|३|६२] पूर्ववत्सनः - पूर्ववर्ती धातु के समान ही सन् के बाद आत्मनेपद आता है। | एधितुमिच्छति (बढ़ना चाहता है)- इस अर्थ में एध धातु से सन् प्रत्यय होकर ए ध् स रूप बनता है। तब इडागम्, द्वित्व और अभ्यास कार्य आदि होकर एदिधिष रूप बनता है। इस स्थिति में एध् धातु के आत्मनेपदी होने के कारण लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में सन् के बाद आत्मनेपद प्रत्यय त होकर एदिधिषत् रूप बनता है। यहाँ शप्, पर-रूप और एत्व होकर एदिधिषते रूप सिद्ध होता है।

[१|३|६३] आम्प्रत्ययवत्कृञोऽनुप्रयोगस्य - जिससे आम् प्रत्यय हुआ है, उसके समान अनुप्रयुज्यमान (बाद में प्रयुक्त) कृञ् धातु से आत्मनेपद होता है। | एधाम् कृ लिट् में आम् प्रत्यय एध् धातु से हुआ है। वह आत्मनेपद है, अतः उसके समान अनुप्रयुक्त कृञ् से भी लिट् के स्थान में आत्मनेपद होगा।

[१|३|६४] प्रोपाभ्यांयुजेरयज्ञपात्रेषु अयज्ञपात्र विषय में प्रयुज्यमान प्र-पूर्वक तथा उपपूर्वक `युज् ` धातु से अकर्तृगामी क्रया-फल के होने पर आत्मनेपद होता है। | प्रयुङ्क्ते, उपयुङ्क्ते ।

[१|३|६५] समः क्ष्णुवः सम्पूर्वक `क्षणु` धातु से आत्मनेपद होता है। | संक्ष्णुते (तीक्ष्ण करता है।)

[१|३|६६] भुजोऽनवने अपामनार्थक `भुज् ` धातु से आत्मनेपद होता है। | नृपः राज्यं भुनक्ति (राजा राज्य का पालन करता है।) "भुज्" धातु का अर्थ जब पालन करना नहीं होता है, तब "भुज्" धातु से आत्मनेपद होता है । जैसे - भुङ्क्ते (खाता है।)

[१|३|६७] णेरणौयत्कर्मणौचेत्सकर्तानाध्याने ण्यन्त धातु से आत्मनेपद होता है यदि अण्यन्तावस्था की क्रिया ही ण्यन्तावस्था में भी हो तथा यदि अण्यन्तावस्था का कर्म ण्यन्तावस्था में कर्ता हो। | आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः (महावत हाथी पर चढ़ते हैं।) यहाँ चढ़ना अण्यन्त क्रिया है और हाथी इस चढ़ने की क्रिया का कर्म है।

[१|३|६८] भीस्म्योर्हेतुभये लकार्-वाच्य प्रयोजक कर्ता से भय होने पर ण्यन्त भी धातु तथा स्मिङ् धातु से आत्मनेपद होता है। | मुण्डो भीष्यते, जटिलो विस्मापयते ।

[१|३|६९] गृधि-वञ्च्योः प्रलम्भने प्रलम्भन (मिथ्या-फल-कथन) अर्थ में ण्यन्त `गृध् ` धातु तथा `बञ्च् ` धातु से आत्मनेपद होता है। | माणवकं गर्धयते, माणवकं वञ्चयते - बच्चे को ठगता है।

[१|३|७०] लियःसंमाननशालीनीकरणयोश्र्च् ण्यन्त `ली ` धातु से पूजन, तिरस्कार तथा प्रलम्भन अर्थों में आत्मनेपद होता है। | सन्मानन अर्थ में - जटाभिः आलापयते - जटाओं से सम्मान पाता है। शालीनीकरण अर्थ में - श्येनो वर्तिकामुल्लापयते - बाज बतख को दबोचता है।

[१|३|७१] मिथ्योपपदात्कृञोऽभ्यासे अभ्यास अर्थ में `मिथ्या` के उपपद होने पर ण्यन्त `कृ ` धातु से आत्मनेपद होता है। | पदं मिथ्या कारयते (पद का बार बार अशुद्ध उच्चारण करता है।)

[१|३|७२] स्वरितञितःकर्त्रभिप्रायेक्रियाफले - स्वरितेत् (जिसका स्वरित् स्वर इत् हो) और ञित् धातु से आत्मनेपद हो, यदि क्रिया का फल कर्तृगामी हो। यहाँ भी आत्मनेपद कहने से तङ्, शानच् और कानच् का विधान अभिप्रेत है। | यजते (अपने लिये यज्ञ करता है।) हरते (अपने लिये ले जाता है।) यदि इन स्वरितेत् तथा ञित् धातुओं की क्रिया का फल कर्ता को न मिलता हो, तब उस स्वरितेत् तथा ञित् धातु से परस्मैपद होता है। यजति (यजमान के लिये यज्ञ करता है।) हरति (दूसरे के लिये ले जाता है।)

[१|३|७३] अपाद्वदः अपपूर्वक `वद् ` धातु से कर्त्तृ गामी क्रिया-फल से आत्मनेपद होता है। | धनकामो न्यायम् अपवदते (धन का लोभी न्याय छोड़कर बोलता है।) यदि उस क्रिया का फल कर्ता को न मिलता हो, तो परस्मैपद ही होगा - अपवदति - झूठ बोलता है।

[१|३|७४] णिचश्र्च - यदि क्रिया का फल कर्तृगामी हो तो णिजन्त ( जिसके अन्त में णिच् आया हो) के बाद आत्मनेपद आता है। | णिजन्त चोरि में यदि चुर् (चोरी करना) का फल कर्ता को मिलता हो तो लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में चोरि के बाद आत्मनेपद प्रत्यय त होकर पूर्ववत् चोरयते रूप बनता है।

[१|३|७५] समुदाङ्ग्भ्योयमोऽग्रन्थे सम्पूर्वक, उत्पूर्वक तथा अङ्पूर्वक `यन् ` धातु से कर्त्तृ-गामी क्रियाफल होने पर आत्मनेपद होता है यदि उसका प्रयोग ग्रन्थ विषयक न हुआ हो। | व्रीहीन् संयच्छते - (चावलों को इकट्ठा करता है।), भारम् उद्यच्छते - (भार को उठाता है।), वस्त्रम् आयच्छते - (वस्त्र को फैलाता है।)

[१|३|७६] अनुपसर्गाज्ज्ञः अनुपसर्गक `ज्ञा` धातु से कर्त्तृगामी क्रियाफल होने पर आत्मनेपद होता है। | गां जानेते (अपनी गाय को जानता है।) यदि ज्ञा धातु उपसर्ग युक्त हो, तो परस्मैपद ही होता है। जैसे - स्वर्गं लोकं न प्रजानाति मूढ़ः।

[१|३|७७] विभाषोपपदेनप्रतीयमाने क्रिया-फल के कर्त्तृ-वृत्तित्व की प्रतीति यदि समीपोच्चारित पद के द्वारा होती हो तो उपर्युक्त आत्मनेपद विकल्प से होता है। | स्वयं यज्ञं यजते / स्वयं यज्ञं यजति ( अपने यज्ञ को करता है।)

[१|३|७८] शेषात्कर्तरिपरस्मैपदम् - उपर्युक्त परिस्थितियों में उपर्युक्त धातुओं से अतिरिक्त धातुओं से सर्वत्र परस्मैपद होता है। | याति (जाता है), वाति (चलता है।)

[१|३|७९] अनुपराभ्तांकृञः - कर्तृगामी क्रियाफल में गन्धन (सूचन) आदि अर्थों में भी अनु और परा पूर्वक कृञ् धातु के बाद परस्मैपद आता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में अनुपूर्वक कृ (कृञ्) धातु से परस्मैपद तिप् होकर अनु कृ ति रूप बनता है। तब उ-प्रत्यय और गुण आदि होकर अनुकरोति रूप सिद्ध होता है।

[१|३|८०] अभिप्रत्यतिभ्यःक्षिपः - अभि, प्रति और अति पूर्वक क्षिप् (फेंकना, तुदादि०) धातु के बाद परस्मैपद आता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में अभि पूर्वक क्षिप धातु से परस्मैपद तिप् होकर अभि क्षिप् ति रूप बनता है। तब श-प्रत्यय होकर अभिक्षिपति रूप सिद्ध होता है।

[१|३|८१] प्राद्वहः - प्र पूर्वक वह् (भवादि०, ले जाना) धातु के बाद परस्मैपद होता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में प्र पूर्वक वह धातु से परस्मैपद तिप् होकर प्र वह् ति रूप बनता है। तब शप् होकर प्रवहति (बहता है) रूप सिद्ध होता है।

[१|३|८२] परेर्मृषः - परि पूर्वक मृष् (दिवादि०सहना) धातु के बाद परस्मैद आता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में प्र पूर्वक वह धातु से परस्मैपद तिप् होकर मृष् ति रूप बनता है। इस स्थिति में श्यन् प्रत्यय होकर परिमृश्यति रूप सिद्ध होता है।

[१|३|८३] व्याङ्ग्परिभ्योरमः - वि आङ् और परिपूर्वक रम् (भवादि०, खेलना) धातु के बाद परस्मैपद आता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में वि पूर्वक रम् धातु से परस्मैपद तिप् होकर वि रम् ति रूप बनता है। तब शप् होकर विरमति रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार आङ् के योग से आरमति९चारों ओर खेलता है) और परि के योग में परिरमति रूप बनते हैं।

[१|३|८४] उपाच्च् - उप् पूर्वक रम् (भवादि०, खेलना) धातु के बाद परस्मैपद आता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में उप् पूर्वक रम् धातु से परस्मैपद तिप् होकर उप् रम् ति रूप बनता है। इस स्थिति में शप् होकर उपरमति रूप सिद्ध होता है।

[१|३|८५] विभाषाकर्मकात् उपपूर्वक अकर्मक `रम् ` धातु से विकल्प से परस्मैपद होता है। | यावद्भुक्तमुपरमति, यावद्भुक्तमुपरमते।

[१|३|८६] बुधयुधनशजनेङ्ग्प्रुद्रुस्त्रभ्योणे ण्यन्त `बुधऄ, `युधऄ, `नशऄ, `जनऄ, `प्रु`, `द्रु` तथा `स्त्रु` धातुओं से परस्मैपद होता है। | बोधयति (बोध कराता है), योधयति (लड़ाता है), नाशयति (नाश कराता है), जनयति (उत्पन्न कराता है), प्रापयति (प्राप्त कराता है), द्रावयति (पिघलाता है), स्त्रावयति (टपकाता है।)

[१|३|८७] निगरणचलनार्थेभ्यश्र्च् निगरणार्थक तथा कम्पनार्थक णिजन्त धातुओं से परस्मैपद होता है। | निगारयति (निगलवाता है), आशयति (खिलाता है), भोजयति (खिलाता है), चलयति (चलाता है) आदि।

[१|३|८८] अणावकर्मकाच्चित्तवत्कर्तृकात् अण्यन्तावस्था में अकर्मक तथा चेतनकर्तृक धातुओं से ण्यन्तावस्था में परस्मैपद होता है। | अण्यन्त अवस्था में - आस्ते देवदत्तः (देवदत्त बैठता है)। ण्यन्त अवस्था में - आसयति देवदत्तम् (देवदत्त को बैठाता है)।

[१|३|८९] नपादभ्याङ्गयमाङ्गयसपरिमुहरुचिनृतिवदवसः `पा` `दमॎ, आङ्पूर्वक `यमऄ, यस्, परिपूर्वक `मुहऄ `रुचऄ, `नृतऄ `वदऄ एवम् `वस् ` धातुओं से ण्यन्तावस्था में परस्मैपद नहीं होता है। | पाययते (पिलाता है), दमयते (दमन कराता है), आयामयते (फिंकवाता है), आयासयते (फिंकवाता है), परिमोहयते (अच्छी प्रकार से मोहित करता है), रोचयते (पसन्द करता है), नर्त्तयते (नाचता है), वादयते (कहलाता है), वासयते (बसाता है।)

[१|३|९०] वाक्यषः क्यष् - प्रत्ययान्त धातुओं से ण्यन्तावस्था में विकल्प से परस्मैपद होता है। | लोहित + क्यष् == लोहितायति / लोहितायते।

[१|३|९१] द्यद्भयोलुङि - द्युत् आदि धातुओं से परे लुङ् के स्थान पर विकल्प से परस्मैपद होता है। | द्युत् ल् (लुङ्) में प्रकृत सूत्र से प्रथमपुरुष एकवचन की विविक्षा मे ल् के स्थान पर परस्मैपद तिप् आदेश होकर द्युत् तिप् ==> द्युत ति रूप बनता है। पुनः इस स्थिति में च्लि और अङ्गादेश आदि होकर अद्युतत् रूप सिद्ध होता है। विकल्पावस्था में आत्मनेपद होकर अद्योतिष्ट रूप सिद्ध होगा।

[१|३|९२] वृद्भयःस्यसनोः - स्य और सन् परे होने पर वृत्, वृध्, शृध्, स्यन्द् तथा कृप् धातुओं से विकल्प से परस्मैपद होता है। | वृत् धातु से ऌट् लकार की विविक्षा में वृत् ल् रूप बनने पर३_४_११४से स्य प्रत्यय होकर वृत् स्य ल् रूप बनेगा। इस स्थिति में स्य परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से लकार के स्थान पर प्रथमपुरुष एक्वचन में तिप् परस्मैपद आदेश होकर वृत् स्यति रूप बनता है।

[१|३|९३] लुटिचकॢपः `कप् ` धातु से लुङ् लकार एवम् `स्यऄ तथा `सन् ` प्रत्ययों के परे होने से विकल्प से परस्मैपद होता है। | परस्मैपद में - कल्प्ता, कल्प्स्यति, अकल्प्स्यत्, चिकॢप्सति । आत्मनेपद में - कल्पिता, कल्पिष्यते, अकल्पिष्यत, चिकल्पिषते।

[१|४|१] आकडारादेकासंज्ञा यकार और अजादि प्रत्यय परे होने पर भसंज्ञा तथा शेष हलादि प्रत्यय परे रहते पदसंज्ञा होगी। | विश्वपा + अस् में अजादिप्रत्यय शस् परे होने पर विश्वपा की भसंज्ञा हुई।

[१|४|२] विप्रतिषेधेपरंकार्यम् विभिन्न स्थलों पर चरितार्थ होने वाले दो सूत्र एक ही स्थल पर प्राप्त हों तो उनमे से परवर्ती सूत्र ही प्रवृत्त होता है। | (शक्नु + अन्ति) इसमें६_१_७७सूत्र से "यण्" प्राप्त है, तथा६_४_७७सूत्र से "उवङ्" प्राप्त है। इसमें६_४_७७सूत्र बाद का है अतः यहाँ "इको यणचि" से "यण्" न होकर "अचि श्नुधातुभ्रुवां य्वोरियङुवङौ" सूत्र से "उवङ्" होगा।

[१|४|३] यूस्त्र्याख्यौनदी " ईकारान्त" व " ऊकारान्त" (दीर्घ) नित्यस्त्रीलिङ्ग शब्द नदीसंज्ञक होते हैं।जो शब्द स्त्रीलिंग के सिवा किसी और लिंग के लिये नहीं प्रयुक्त होते हैं उनको नित्यस्त्रीलिंग कहते हैं। नदी संज्ञा का फल: सम्बुद्धि में ह्रस्व, "ङे", "ङसि", "ङस्" व "ङि" को " आट्" आगम्, " आम्" को "नुँट्" आगम और् "ङि" को " आम्" आदेश। | गौरी, पार्वती, वधू, नटी

[१|४|४] नेयङ्गुवङ्ग्स्थानावस्त्री स्त्री शब्द को छोड़कर इयङ् और उवङ् आदेश होने पर दीर्घ ईकार और ऊकार की नदी संज्ञा नही होती। | हे श्रीः । हे भ्रूः।

[१|४|५] वाऽऽमि स्त्री शब्द को छोड़कर इयङ् और उवङ् आदेश होने पर ऐसे स्त्रीलिंगी दीर्घ इकार और ऊकार आम् परे होने पर विकल्प से नदी-संज्ञक होते हैं | श्रियाम्, श्रीणाम् । भ्रुवाम्, भ्रूणाम्

[१|४|६] ङिति ह्रस्वश्च (ङिति हृस्वश्च): "ङित्" प्रत्यय परे इयङ् व उवङ् के स्थान, स्त्री शब्द भिन्न और नित्यस्त्रीलिंग दीर्घ " ई", " ऊ" तथा " इ" " उ" की विकल्प से नदी संज्ञा । | कृत्यै, कृतये, धेन्वै, धेनवे। श्रियै, श्रिये। भ्रुवै, भ्रुवे

[१|४|७] शेषोध्यसखि सखि शब्द को छोड़ कर अन्य सभी ह्रस्व " इ" इकारान्त व " उ" उकारान्त शब्द घि संज्ञक होते हैं। ये शब्द किसी भी लिंग के हो सकते हैं। | रवि, कवि, वारि, शम्भु, गुरु, विष्णु, मुनि, ऋषि, धेनु, बन्धु, हरि, कपि,

[१|४|८] पतिःसमासएव् पति शब्द समास में ही घिसंज्ञक हो। | प्रजापतिना, प्रजापतये। सेनापतिना, सेनापतये

[१|४|९] षष्ठीयुक्तश्छन्दसिवा षष्ठयन्त पद से अर्थत सम्बन्ध कारक मेँ &कुओत्;पति&कुओत्; शब्द की वेद में विकल्प से 'घि' संज्ञा होती है। | कलुञ्चानां पतये नमः, कुलुञ्चानां पत्ये नमः।

[१|४|१०] ह्रस्वंलघु ह्रस्व (एक मात्रा काल वाले) "अच्" स्वर (अ, इ, उ, ऋ, ऌ) की लघु संज्ञा होती है। | भेत्ता, छेत्ता, अचीकरत्, अजीहरत्।

[१|४|११] संयोगेगुरु संयोग परे होने पर ह्रस्व स्वर गुरु संज्ञक होता है। | हट्ट - इसमें ह्रस्व "अ" के बाद ट् + ट् का संयोग है। इसलिये इस संयोग के पूर्व में स्थित ह्रस्व "अ" गुरु कहलायेगा। "उक्त" में उकार गुरुसंज्ञक है क्योंकि उकार के परे "क्त्" संयोग है।

[१|४|१२] दीर्घं च सभी दीर्घ स्वर (आ, ई, ऊ) भी गुरु-संज्ञक होते हैं। | ईहाञ्चक्रे । ऊहाञ्चक्रे

[१|४|१३] यस्मात्प्रत्ययविधिस्तदादिप्रत्ययेऽङ्गम् प्रत्यय का विधान हो उसका आदि प्रत्यय परे होने पर अङ्ग-संज्ञक हो। | भवति == भू + शप् + ति, इसमें "भू" धातु के बाद दो प्रत्यय हैं। शप् तथा ति। शप् प्रत्यय के पूर्व में "भू" है अतः "शप्" प्रत्यय का अङ्ग केवल "भू" है, किन्तु "ति" प्रत्यय के पूर्व में भू + शप् हैं, अतः "ति" प्रत्यय का अङ्ग, भू + शप् है।

[१|४|१४] सुप्तिङन्तं पदम् "सुप्" व "तिङ्" सहित अर्थात् सुबन्त व तिङ्न्त शब्दों की पद संज्ञा होती है। | बालः (सुबन्त), पठति (तिङ्न्त) । वयम् (सुबन्त) रक्षामः (तिङ्न्त)। उपरोक्त चारों शब्दों की पद संज्ञा है।

[१|४|१५] नःक्ये - क्यच्, क्यङ् और क्यष् परे होने पर नान्त सुबन्त (जिसके अन्त में नकार हो) पद संज्ञक होता है। | वाच्यति ( आत्मनो वाच्यमिच्छति) में वाच् अम् से क्यच् प्रत्यय आदि होकर वाच् य रूप बनता है। यहाँ सुबन्त वाच् नकारान्त नही है। पद संज्ञा का निषेध हो जाने पर चोः कुः (८_२_३०) आदि सूत्रों से कुत्व आदि नही होता। तब लट् लकार प्रथमपुरुष-एकवचन में वाच् य = वाच्य से तिप्, शप् और पर-रूप होकर वाच्यति रूप सिद्ध होता है।

[१|४|१६] सितिच् सित् (जहाँ सकार की इत्संज्ञा होती है) प्रत्यय के परे पूर्ववर्ती शब्दरूप की पद संज्ञा होती है। | भवदीयः । ऊर्णायुः

[१|४|१७] स्वादिष्वसर्वनामस्थाने सर्वनाम स्थान संज्ञक ( सुट्) प्रत्ययों को छोड़कर "सु" से लेकर "कप्" पर्यन्त प्रत्ययों के परे होने पर पूर्व अङ् की पद संज्ञा होती है। | विश्वपा + अस् में विश्वपा की पद संज्ञा है।

[१|४|१८] यचिभम् " सुट्" प्रत्ययों को छोड़कर अन्य प्रत्ययों, यकारादि व अजादि प्रत्यय परे रहते पूर्व अङ् की " भ" संज्ञा होती है। | गार्ग्यः, वात्स्यः, दाक्षिः, प्लाक्षिः

[१|४|१९] तसौमत्वर्थे - मत्ववर्थीय प्रत्यय परे होने पर तकारान्त और सकारान्त भ-संज्ञक होते हैं। | `गरुतोऽस्य अस्मिन् वा सन्तॎ (गरुत्-पक्ष इसके हैं या इसमें हैं) - इस अर्थ में (५_२_९४) सूत्र से प्रथमान्त `गरुतः` से `मतुप् ` प्रत्यय हो `गरुतः मत् ` रूप बनने पर सुप्-लोप होकर `गरुत् मत् ` रूप बनता है। मत्वर्थीय प्रत्यय मतुप् (मत्) परे होने के कारण तकारान्त गरुत् की भ-संज्ञा होती है। इस स्थिति में पद-संज्ञा न होने से तकार को जश्त्व और प्रत्यये भाषायां नित्यम् (वार्तिक) से अनुनासिकत्व भी नही होता। तब पूर्व-वत विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में `गरुत्मान् ` रूप सिद्ध होता है।

[१|४|२०] अयस्मयादीनि छन्दसि वैदिक विषयों में ` अयस्मयऄ आदि शब्द साधु होते हैं। | अयस्मयं वर्म। अयस्मयानि पात्राणि, स सुष्टुभा स ऋक्वता गणेन।

[१|४|२१] बहुषुबहुवचनम् दो से अधिक संख्या की विविक्षा होती है, तो बहुवचन के प्रत्यय का प्रयोग होता है। | ब्राह्मणाः पठन्ति।

[१|४|२२] द्वयेकयोर्द्विवचनैकवचने द्वित्व और एकत्व अर्थ में द्विवचन और एकवचन होते हैं। | ब्राह्मणौ पठतः। एकत्वे - ब्राह्मणः पठति।

[१|४|२३] कारके| यहाँ से कारके का अधिकार है।

[१|४|२४] ध्रुवमपायेऽपादानम् - अलग होने में स्थिर या अचल कारक को अपादान कहते हैं। | ग्रामाद् आयाति (गाँव से वह आता है) में वह गाँव से अलग होता है, किन्तु गाँव अपने ही स्थान पर स्थिर रहता है। अतः वह अपादान-संज्ञक है।

[१|४|२५] भीत्रार्थानांभयहेतुः भयार्थक तथा त्राणार्थक धातुओं के योग में भय-हेतुभूत कारक भी ` अपादानऄ संज्ञा होती है | बिभेत्यर्थानाम् - चौरेभ्यो बिभेति। चौरेभ्य उद्विजते। त्रायत्यर्थानां - चौरेभ्यस्त्रायते, चौरेभ्यो रक्षति।

[१|४|२६] पराजेरसोढः परापूर्वक `जॎ धातु के प्रयोग में असह्म अर्थ की ` अपादानऄ संज्ञा होती है। | अध्ययनात् पराजयते।

[१|४|२७] वारणार्थानामीप्सितः वारर्णाथक धातुओं के प्रयोग में ईप्सित पदार्थ की ` अपादानऄ संज्ञा होती है। | यवेभ्यो गां वारयति । यवेभ्यो गां निवर्त्तयति।

[१|४|२८] अन्तधौयेनादर्शनमिच्छति जिस व्यक्ति से अन्तर्धि-निमित्तक अपना अदर्शन अभिलषित होता हो उसकी अपादान संज्ञा होती है। | उपाध्यायाद् अन्तर्द्धत्ते। उपाध्यायाद् निलीयते।

[१|४|२९] आख्यातोपयोगे नियमपूर्वक विद्या-ग्रहण होने पर प्रतिपादिक कारक की अपादान संज्ञा होती है। | उपाध्यायाद् अधीते (उपाध्याय से निर्ममपूर्वक पढ़ता है)। उपाध्यायाद् आगमयति

[१|४|३०] जनिकर्तुः प्रकृतिः `जनऄ धातु के कर्ता (उत्पद्यमान) की जो प्रकृति (कारण) होती है उसकी अपादान संज्ञा होती है। | शृङ्गात् शरो जायते। गोमयाद् वृश्चिको जायते।

[१|४|३१] भुवःप्रभवः `भू ` धातु के कर्ता (होनेवाला) के प्रभव, अर्थात् उत्पत्ति- स्थान की अपादान संज्ञा होती है। | हिमवतो गङ्गा प्रभवति। कश्मीरेभ्यो वितस्ता प्रभवति।

[१|४|३२] कर्मणायमभिप्रैतिससंप्रदानम् - दान क्रिया के कर्म के द्वारा कर्ता जिससे सम्बन्ध स्थापित करता है या स्थापित करना चाहता है, उसे सम्प्रदान कहते हैं। | विप्राय यां ददाति (ब्राह्मण को गाय देता है) में गोदान कर्म के द्वारा कर्ता विप्र से सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है, अतः विप्र सम्प्रदान - संज्ञक है।

[१|४|३३] रुच्यर्थानांप्रीयमाणः रुच्यर्थक धातुओं के प्रयोग में प्रीयमाण अर्थ की सम्प्रदान संज्ञा होती है। | देवदत्ताय रोचते मोदकः। यज्ञदत्ताय स्वदतेऽपूपः

[१|४|३४] श्लाघ ह्नुङ् स्था-शपां ज्ञीप्स्यमानः `श्लाघऄ `ह्नु ङ` `स्था` तथा `शप् ` धातुओं के प्रयोग में जो समझाये जाने वाले के रूप में अभिप्रेत हो उसकी `सम्प्रदानऄ संज्ञा होती है। | देवदत्ताय श्लाघते (देवदत्त की प्रशंसा देवदत्त को जानने की इच्छा से करता है)। देवदत्ताय ह्नुते (देवदत्त की निन्दा देवदत्त को जाननए की इच्छा से करता है। देवदत्ताय तिष्ठते (देवदत्त को जानने की इच्छा से देवदत्त के लिये ठहरता है।)

[१|४|३५] धारेरुत्तमर्णः `धृ ` धातु के प्रयोग में ऋण देनेवाले की `सम्प्रदानऄ संज्ञा होती है। | देवदत्ताय शतं धारयति यज्ञदत्तः।

[१|४|३६] स्पृहे रीप्सितः `स्पृहऄ धातु के प्रयोग में ईप्सित कारक की `सम्प्रदानऄ संज्ञा होती है। | पुष्पेभ्य स्पृहयति। फलेभ्यः स्पृहयति।

[१|४|३७] क्रुध द्रुहेर्ष्या ऽसूयार्थानां यं प्रति कोपः `क्रुधऄ, `दुहऄ, ` ईर्ष्या` तथा असूया के अर्थ में प्रयुज्यमान धातुओं के प्रयोग में जिसके प्रति कोप किया जाय उसकी `सम्प्रदानऄ संज्ञा होती है। | देवदत्ताय क्रुध्यति। देवदत्ताय द्रुह्मति। देवदत्ताय ईर्ष्यति। देवदत्ताय असूयति।

[१|४|३८] क्रुधद्रुहोरुपसृष्टयोःकर्मः उपसर्ग-विशिष्ट `क्रुधऄ तथा `दुहऄ धातुओं के प्रयोग में जिसके प्रति कोप किया जाता है उसकी `कर्म संज्ञा होती है। | देवदत्तमभिक्रुध्यति (देवदत्त पर क्रोध करता है)। देवदत्तमाभिद्रुह्मति (देवदत्त के साथ द्रोह करता है)। (२_३_२) सूत्र से कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है।

[१|४|३९] राधीक्ष्योर्यस्यविप्रश्र्न `राध् ` तथा ` ईक्ष ` धातुओं का वह कारक, जिसके विषय में विविध प्रश्न किये जाये, सम्प्रदान संज्ञक होता है। | देवदत्ताय राध्यति। देवदत्ताय ईक्षते।

[१|४|४०] प्रत्याङ्ग्भ्यांश्रुवःपूर्वस्यकर्ता प्रति एवम् आङ् से विशिष्ट अत एव प्रतिज्ञार्थक `श्रु` धातु की पूर्व-क्रिया अर्थात् अभ्युपगम-क्रिया, के कर्त्ता की सम्प्रदान संज्ञा होती है। | यज्ञदत्तः देवदत्ताय गां प्रतिशृणोति। देवदत्ताय गामाशृणोति।

[१|४|४१] अनुप्रतिगृणश्र्च अनु तथा प्रति उपसर्गों से विशिष्ट `गृ धातु की पूर्व-क्रिया के कर्त्ता की भी `सम्प्रदानऄ संज्ञा होती है। | होत्रेऽनुगृणाति। होत्रे प्रतिगृणाति।

[१|४|४२] साधकतमंकरणम् - क्रिया की सिद्धि में अत्यन्त सहायक कारक करण कहलाता है। | रामेण बाणेन हतो वाली (राम ने बाण से बाली को मारा) - इस वाक्य में बाण की करण संज्ञा होगी।

[१|४|४३] दिवःकर्मच `दिव् ` धातु से साधकतम कारक की कर्म और करण दोनों संज्ञा होती है | अक्षान् दीव्यति। अक्षैर्दीव्यति।

[१|४|४४] परिक्रयणेसंप्रदानमन्यतरस्याम् परिक्रयण अर्थ में साधकतम कारक की विकल्प से सम्प्रदान संज्ञा होती है। | शताय परिक्रीतोऽनुब्रुहि। शतेन परिक्रीतोऽनुब्रूहि।

[१|४|४५] आधारोऽधिकरणम् - आधार कारक को ही अधिकरण कहते हैं। | कटे आस्ते (चटाई पर बैठता है)। कटे शेते (चटाई पर सोता है। स्थल्यां पचति (बटलोई में पकाता है)।

[१|४|४६] अधिशीङ्ग्स्थाऽऽसांकर्म अधिपूर्वक `शीङ् `, `स्था`, एवम् ` आस् ` धातुओं के आधार की कर्म संज्ञा होती है। | ग्राममधिशेते। ग्राममधितिष्ठति। पर्वतमध्यास्ते।

[१|४|४७] अभिनिविशश्र्च अभि तथा नि उपसर्गों से विशिष्ट `विशऄ धातु के आधार की भी कर्म संज्ञा होती है। | ग्राममभिनिविशते।

[१|४|४८] उपान्वध्याङ्ग्वसः उप, अनु, अधि अथवा आङ् उपसर्ग से विशिष्ट `वसऄ धातु के आधार की कर्म संज्ञा होती है। | ग्राममुपवसति सेना। पर्वतमुपवसति। ग्राममनुवसति। ग्राममधिवसति, ग्राममावसति।

[१|४|४९] कर्तुरीप्सिततमं कर्म - कर्ता का अत्यन्त इष्ट कर्म कहलाता है | देवदत्तः ओदनं पचति (देवदत्त चावल पकाता है) - इस वाक्य में कर्ता देवदत्त पाक क्रिया के द्वारा ओदन को विशेष रूप से प्राप्त करना चाहता है, अतः अत्यन्त इष्ट होने से उसकी कर्म संज्ञा होती है।

[१|४|५०] तथायुक्तंचानीप्सितम् इष्टतम के समान ही कर्त्ता की क्रिया से युक्त अनीप्सित कारक भी कर्म कहलाता है। | विषं भक्षयति। चौरान् पश्चयति। ग्रामं गच्छन्वृक्षमूलान्युपसर्पति।

[१|४|५१] अकथितं च - अपादानादि विशेषों से अविवक्षित कारक कर्मसंज्ञक होता है। | पाणिना कांस्यपात्र्यां गां दोग्धि पयः। पौरवं गां याचते। गामवरुणद्धि व्रजम्।

[१|४|५२] गतिबुद्धिप्रत्यवसानार्थशब्दकर्माकर्मकाणामणिकर्तासणौ गत्यर्थक, बुद्धयर्थक, भक्षणार्थक, शब्दकर्मक तथा अकर्मक धातुओं की अण्यन्तावस्था के कर्त्ताओं की ण्यन्तावस्था में कर्म संज्ञा होती है। | गत्यर्थाः-गच्छति माणवको ग्रामम्, गमयति माणवकं ग्रामम्। याति माणवको ग्रामम्, यापयति माणवकम् ग्रामम्।

[१|४|५३] ह्रक्रोरन्यतरस्याम् `हृ तथा `कृ ` धातुओं की अण्यन्तावस्था कर्त्ता ण्यन्तावस्था में विकल्प से कर्म होता है। | हरति माणवको भारम्, हारयति माणवकं भारम्। हारयति भारं भाणवकेतन इति वा। करोति कतं देवदत्तः, कारयति कटं देवदत्तम्। कारयति कटं देवदत्तन् इति वा।

[१|४|५४] स्वतन्त्रःकर्ता - क्रिया का प्रधानभूत कारक कर्ता कहलाता है। | देवदत्त जाता है में देवदत्त और पनी बरसता है में पानी प्रधानभूत कारक होने के कारण कर्ता कहलावेंगें।

[१|४|५५] तत्प्रयोजकोहेतुश्र्च - क्रिया के प्रधानभूत कारक का प्रयोजक (प्रेरणा देने वाला) हेतु कहलाता है और कर्ता भी। | श्याम मोहन को खिलाता है में मोहन प्रधानभूत कारक है क्योंकि वही खाता है। श्याम मोहन को खाने की प्रेरणा देता है, अतः प्रधानभूत कारक का प्रयोजक होने से वह हेतु संज्ञक है और कर्ता संज्ञक भी।

[१|४|५६] प्राग्ग्रीश्र्वरान्निपाताः ` अधिरीश्वरे ` से पूर्व एवम् यहाँ से आगे परिगणित शब्दों की निपात संज्ञा होती है। | च, वा, ह, अह।

[१|४|५७] चादयोऽसत्त्वे यदि द्रव्य अर्थ न हो तो चादिगण में पठित शब्द निपात संज्ञक होते हैं। | लोधं नयन्ति पशु मन्यमानाः मे पशु शब्द का अर्थ है सम्यक्। अतः अद्रव्यवाची होने से यह निपात संज्ञक होगा।

[१|४|५८] प्रादयः यदि द्रव्य अर्थ न हो तो प्रादिगण में पठित (प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव, निस्, निर्, दुस्, दुर्, वि, आङ्, नि, अधि, अपि, अति, सु, उत्, अभि, प्रति, परि और उप) शब्द निपात संज्ञक होते हैं। | यथा, वि

[१|४|५९] उपसर्गाःक्रियायोगे क्रिया के योग में प्रादि((प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव, निस्, निर्, दुस्, दुर्, वि, आङ्, नि, अधि, अपि, अति, सु, उत्, अभि, प्रति, परि और उप) उपसर्ग संज्ञक होते हैं | उप् + एधते ==> उपैधते, उप् का योग क्रिया ऐधते के साथ हुआ है।

[१|४|६०] गतिश्र्च प्र आदि (प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव, निस्, निर्, दुस्, दुर्, वि, आङ्, नि, अधि, अपि, अति, सु, उत्, अभि, प्रति, परि और उप) बाईस शब्द क्रिया के योग में गतिसंज्ञक भी होते हैं। | ऊ॒री॒कृत्य॑। ऊरी॑कृतम्। यदू॒री॒क॒रोति॑।शु॒क्ली॒कृत्य॑।शुक्ली॑कृतम्। यत् शु॒क्लीकरोति॑॥प॒ट॒प॒टा॒कृत्य॑। पट॑पटाकृतम्। यत् प॒ट॒प॒टा॒क॒रोति॑।

[१|४|६१] ऊर्यादिच्विडाचश्र्च् ऊरी (ऊरी, उररी)आदि, च्वि - प्रत्यान्त और ङाच्-प्रत्यान्त शब्द क्रिया के योग में गति-संज्ञक होते हैं। | ऊरी कृत्वा (स्वीकार करके) - इस विग्रह में गती-संज्ञक ऊरी का कृदन्त कृत्वा (जो सफेद नहीं उसे सफेद करके) - इस विग्रह में च्वि-प्रत्यान्त शुक्ली का तथा पटत्-पटत् इति कृत्वा (पट पट करके)- इस विग्रह में डाच् - प्रत्यान्त पटपटा का कृत्वा के साथ समास हो क्रमशः शुक्लीकृत्य और पटपटा-कृत्य रूप बनते हैं।

[१|४|६२] अनुकरणंचानितिपरम् ` इति ` शब्द जिसके उत्तर में न हो ऐसे अनुकरणात्मक शब्दों की क्रियायोग में `गतॎ संज्ञा होती है। | स॒त्कृत्य॑। सत्कृ॑तम्।यत् स॒त्क॒रोति॑। अ॒स॒त्कृत्य॑। अ॒स॒त्कृतम्। यद् अ॒स॒त्करोति॑।

[१|४|६३] आदरानादरयोःसदसती क्रमशः आदर और अनादर अर्थ में प्रयुज्यमान सत् तथा असत् शब्दों की गति संज्ञा होती है। | अ॒लन्॒कृत्य॑। अलैकृतम्। यद् अ॒लं॒क॒रोति॑।

[१|४|६४] भूषणेऽलम् भूषणार्थक ` अलम् ` शब्द की `गतॎ संज्ञा होती है। | अ॒न्त॒र्हत्य॑। अन्त॑र्हतम्। यद॒न्त॒र्हन्ति॑।

[१|४|६५] अन्तरपरिग्रहे अपरिग्रहार्थक ` अन्तः` शब्द की `गतॎ संज्ञा होती है। | क॒णे॒हत्य॑ पतः पिबति। म॒नो॒हत्य॑ पयः पिबति।

[१|४|६६] कणेमनसीश्रद्धाप्रतीघाते श्रद्धाप्रतीघातार्थ में `कणे ` तथा `मनस् ` शब्दों की `गतॎ संज्ञा होती है। | पुरस्कृत्य (आगे करके)। पुरस्कृतम्। यत् पुरस्करोति।

[१|४|६७] पुरोऽव्ययम् असिप्रत्यान्त अतएव अव्यय पुरम् शब्द की `गतॎ संज्ञा होती है। | अस्तंगतानि धनानि (नष्ट हुए धन)। यदस्तं गच्छति (जो अस्त होता है)

[१|४|६८] अस्तंच अव्यय ` अस्तम् ` शब्द की भी `गतॎ संज्ञा होती है। | अ॒च्छ॒गत्य॑। अच्छ॑गतम्। यद॒च्छ॒गच्छ॑ति। अ॒च्छोद्य॑। अच्छि॑दितम्। यत् अ॒च्छ॒वद॑ति।

[१|४|६९] अच्छगत्यर्थवदेषु गत्यर्थक एवम् `वद् ` धातुओं से पूर्व-युक्त ` अच्छऄ शब्द की `गतॎ संज्ञा होती है। | अ॒दः॒कृत्य॑। अदः॑कृतम्। यद॒दः॒करोति॑।

[१|४|७०] अदोऽनुपदेशे अनुपदेशार्थक ` अदस् ` शब्द की `गतॎ संज्ञा होती है। | ति॒रो॒भूय॑। ति॒रो॒भू॒तम्। यत् ति॒रो॒भव॑ति।

[१|४|७१] तिरोऽन्तधौ व्यवधानार्थक `तिरस् ` शब्द की `गतॎ संज्ञा होती है। | ति॒र॒स्कृत्य॑, ति॒रः॒कृत्य॑। तिर॑स्कृतम्, ति॒रःकृ॒तम्। यत् ति॒रःक॒रोति॑।

[१|४|७२] विभाषाकृञि `कृञ् ` धातु से परे `तिरस् ` शब्द की विकल्प से `गतॎ संज्ञा होती है। | उपाजेकृत्य, उपाजे कृत्वा। अन्वाजेकृत्य, अन्वाजे कृत्वा।

[१|४|७३] उपाजेऽन्वाजे `कृञ् ` धातु से परे ` उपाजे `तथा ` अन्वाजे शब्दों की `गतॎ संज्ञा होती है। | साक्षात्कृत्य (अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष करके), साक्षात् कृत्वा। मिथ्याकृत्य (शुद्ध को अशुद्ध बोलकर), मिथ्या कृत्वा। सर्वत्र जब गति संज्ञा नहीं होगी, तब समास न होने से "क्त्वा" को "ल्यप्" नहीं होगा। तथा परि०१_४_७१के समान ही स्वर का भेद हो जायेगा।

[१|४|७४] साक्षात्प्रभृतीनि च `कृञ् ` धातु से परे `साक्षातऄ आदि शब्दों की विकल्प से `गतॎ संज्ञा होती है। | उरसिकृत्य, उरसि कृत्वा। मनसिकृत्य, मनसि कृत्वा।

[१|४|७५] अनत्याधानौरसिमनसी उपश्लेषण के अभाव होने पर `कृञ् ` धातु से परे ` उरसॎ तथा `मनसॎ शब्दों की `गतॎ संज्ञा होती है। | मध्येकृत्य (बीच में लेकर), मध्ये कृत्वा। पदेकृत्य (पद में गिन कर), पदे कृत्वा। निवचनेकृत्य (वाणी को संयम करके), निवचने कृत्वा।

[१|४|७६] मध्येपदेनिवचनेच उपश्लेणाभाव होने पर `कृञ् ` धातु के परे `मध्ये `, `पदे ` तथा `निवचने ` शब्दों की `गतॎ संज्ञा होती है। | हस्तेकृत्य। पाणौकृत्य।

[१|४|७७] नित्यंहस्तेपाणावुपयमने विवाह अर्थ में `हस्तॆ तथा `पाणॏ शब्दों की नित्य `गतॎ संज्ञा होती है `कृञ् ` धातु के परे रहने पर। | प्राध्वंकृत्य (बन्धन के निमित्त से अनुकूलता करके)।

[१|४|७८] प्राध्वंबन्धने बन्धनहेतुक आनुकूल्य होने पर कृञ् धातु के परे `प्राध्वं शब्द की `गतॎ संज्ञा होती है। | जीविकाकृत्य (जीविका के समान करके)। उपनिषत्कृत्य (रहस्य के समान करके)।

[१|४|७९] जीविकोपनिषदावौपम्ये| औपम्य अर्थ में `कृञ् ` धातु के परे `जीविका` तथा उपनिषत शब्दों की `गतॎ संज्ञा होती है।

[१|४|८०] तेप्राग्धातोः - उपसर्ग और गतिसंज्ञक (प्र आदि) धातु के पूर्व आते हैं | प्रभवती और अनुभवति आदि में धातु भवति से पूर्व प्र और अनु उपसर्गों का प्रयोग हुआ है।

[१|४|८१] छन्दसिपरेऽपि वेद में धातु के अव्यवहित उत्तर में भी उनका प्रयोग किया जाता है। | आ मन्द्रैरिन्द्र हरिभिर्याहि मयूररोमभिः। आयाहि। आ नो भद्राः क्रतवो यन्तुः।

[१|४|८२] व्यवहिताश्र्च| वेद में गति एवं उपसर्गों का व्यवहित प्रयोग भी देखा जाता है।

[१|४|८३] कर्मप्रवचनीयाः यहाँ से आगे `कर्मप्रवचनीयऄ का अधिकार है। | शाकल्यस्य संहितामनुप्रावर्षत्। अगस्त्यमन्वसिञ्चन् प्रजाः।

[१|४|८४] अनुर्लक्षणे लक्षण से द्योतित होने पर ` अनु` की `कर्मप्रवचनीयऄ संज्ञा होती है। | नदीमन्ववसिता सेना।

[१|४|८५] तृतीयार्थे तृतीया के अर्थ में द्योतित होने पर ` अनु` की `कर्मप्रवचनीयऄ संज्ञा होती है। | अनुशाकटायनं वैयाकरणाः। अन्वर्जुनं योद्धरः।

[१|४|८६] हीने हीनता से द्योतित होने पर ` अनु` की `कर्मप्रवचनीयऄ संज्ञा होती है। | उपखर्या द्रोणः। उपनिष्के कार्षापणम् हीने - उपशाकटायनं वैयाकरणाः।

[१|४|८७] उपोऽधिकेच हीनता तथा अधिकता के द्योतित होने पर ` उप् ` की `कर्मप्रवचनीयऄ संज्ञा होती है। | अप त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः। परि त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः।

[१|४|८८] अपपरीवर्जने वर्जन के द्योतित होने पर ` अप् ` तथा `परि ` की `कर्मप्रवचनीयऄ संज्ञा होती है। | मर्यादायाम् - आ पाटलिपुत्राद वृष्टो देवः। अभिविधौ - आ कुमारेभ्यो यशः पाणिनेः। आ मथुरायाः, आ साङ्काश्यादित्यादीनि।

[१|४|८९] आङ्ग्मर्यादावचने मर्यादा तथा अभिविधि के द्योतित होने पर ` आङ् ` की `कर्मप्रवचनीयऄ संज्ञा होती है। | लक्षणे - वृक्षम् प्रति विद्युतते मातरं प्रति, मातरं परि, मातरम् अनु। भागे - यदत्र मां प्रति स्यात्। यदत्र मां परि सिञ्चति। वृक्षं- वृक्षम् अनु सिञ्चति।

[१|४|९०] लक्षणेत्थंभूताख्यानभागवीप्सासुप्रतिपर्यनवः लक्षण, इत्थम्भूताख्यान, भाग और वीप्सा के द्योतित होने पर `प्रतॎ, `पऋ तथा ` अनु` की `कर्मप्रवचनीयऄ संज्ञा होती है। | लक्षणे वृक्षमभि विद्योतते विद्युत्। इत्थम्भूताख्याने - साधुर्देवदत्तो मातरमभि। वीप्सायाम् - वृक्षं वृक्षमभि सिञ्चति।

[१|४|९१] अभिरभागे भाग अर्थ को छोड़कर अन्य (लक्षण, इत्थम्भूताख्यान तथा वीप्सा) अर्थों के द्योतित होने पर ` अभॎ की कर्मप्रवचनीय संज्ञा होती है। | अभिमन्युरर्जुनतः प्रति। माषान् तिलेभ्यः प्रति यच्छति।

[१|४|९२] प्रतिःप्रतिनिधिप्रतिदानयोः प्रतिनिधि तथा प्रतिदान अर्थों के द्योतित होने पर `प्रतॎ की कर्मप्रवचनीय संज्ञा होती है। | कुतोऽध्याग॑च्छति। कुतः पर्याग॑च्छति।

[१|४|९३] अधिपरि अनर्थकौ अनर्थक ` अधॎ तथा `परि ` की कर्मप्रवचनीय संज्ञा होती है। | सुसिक्तिं भवता। सुस्तुतं भवता।

[१|४|९४] सुःपूजायाम् पूजा अर्थ में `सु` की कर्मप्रवचनीय संज्ञा होती है। | अतिसिक्तमेव भवता। अतिस्तुतमेव भवता। पूजायाम्- अतिसिक्तं भवता। अतिस्तुतं भवता।

[१|४|९५] अतिरतिक्रमणेच अतिक्रमण तथा पूजा अर्थों में ` अतॎ की कर्मप्रवचनीय संज्ञा होती है। | पदार्थे - मधुनोऽपि स्यात्। सर्पिषोऽपि स्यात्। सम्भावने - अपि सिञ्च, अपि स्तुहि। गर्हायाम्- धिग् जाल्मं देवदत्तम्, अपि सिञ्चते पलाण्डुम। समुच्चये - अपि सिञ्च, अपि स्तुहि।

[१|४|९६] अपिः पदार्थसम्भावनान्ववसर्गगर्हासमुच्चेषु पदार्थ सम्भावना, अन्ववसर्ग, गर्हा (निन्दा) तथा समुच्चय अर्थों में ` अपॎ की कर्मप्रवचनीय संज्ञा होती है। | अधि देवदत्ते पञ्चालाः। अधि पञ्चालेषु देवदत्तः।

[१|४|९७] अधिरीश्र्वरे स्वस्वाभिभावसम्बन्धार्थ में ` अपॎ की कर्मप्रवचनीय संज्ञा होती है। | यदत्र मामधि॑क॒रि॒ष्यति॑। पक्षे - यदत्र माम् अ॒धि॒ क॒रि॒ष्यति॑।

[१|४|९८] विभाषाकृञि `कृञ् ` धातु से परे ` अधॎ की विकल्प से कर्मप्रवचनीय संज्ञा होती है। | तिप्, तस्, झि। सिप्, थस्, थ। मिप्, वस्, मस्। शतृ क्वसु।

[१|४|९९] लःपरस्मैपदम् लकार के स्थान पर होने वाले आदेश (तिप्, तस्, झि, सिप्, थस्, थ, मिप्, वस्, मस्, शतृ व क्वसु) परस्मैपद-संज्ञक होते हैं। | सूत्र३_४_७८से लकार के स्थान पर तिप्, तस् आदि अठारह प्रत्यय आदेश होते हैं। प्रकृतसूत्र द्वारा इन सभी की परस्मैपद संज्ञा हो जाती है।

[१|४|१००] तड़ानावात्मनेपदम् यदि तङ् प्रत्याहार (त, अताम्, झ, थास्, आथाम्, ध्वम्, इट्, वहि, महिङ्) अर्थात् तिङ् के अन्तिम्९में से कोई भी लकार के स्थान पर आदेश होगा अथवा शानच् या कानच् का विधान होगा तो उनकी आत्मनेपद संज्ञा होगी। | तिप्, तस्, झि इति प्रथमः पुरुषः। सिप्, थस् थ इति मध्यमः। मिप्, वस्, मस् इति उत्तमः। तथैवात्मनेपदेषु।

[१|४|१०१] तिड़स्त्रीणि त्रीणि प्रथममध्यमोत्तमाः - परस्मैपद और आत्मनेपद दोनो के ही तीन तीन त्रिकों (तीन के समूह) की क्रमशः प्रथम, मध्यम और उत्तम संज्ञा हो। | परस्मैपद प्रथम ==> तिप्, तस्, झि मध्यम ==> सिप्, थस्, थ उत्तम् ==> मिप् वस् मस् आत्मनेपद ==> त अताम्, झ थास्, अथाम्, ध्वम् इट, वहि, महिङ्

[१|४|१०२] तान्येकवचनद्विवचनबहुवचनान्येकशः - तिङ् के इन त्रिकों (तीन-तीन के समूह) के तीन प्रत्ययों की क्रमशः एकवचन, द्विवचन और बहुवचन संज्ञा होती है। | प्रथम समूह (त्रिक) में तिप्, तस् झि ये तीनो प्रत्यय आते हैं।

[१|४|१०३] सुँपः सुप् प्रत्यय के तीन-तीन वचन एकवचन, द्विवचन और बहुवचन संज्ञक होते हैं। | पठतः, पुरुषान्।

[१|४|१०४] विभक्तिश्र्च "सुप्" और "तिङ्" विभक्ति संज्ञक हैं। | त्वं पचसि, युवां पचथः, यूतं पचथ। अप्रयुज्यमानेऽपि - पचसि, पचथः, पचथ।

[१|४|१०५] युष्मद्युपपदे समानाधिकरणे स्थानिन्यपि मध्यमः - युष्मद् शब्द उपपद रहने पर क्रिया का कारक युष्मद् होने पर ( चाहे युष्मद् शब्द का प्रयोग हुआ हो या न हो) मध्यमपुरुष (सिप्, थस्, थः, थास्, अथाम् तथा ध्वम्) होता है। | युष्मद् के कर्ता-कारक में होने पर त्वं गच्छसि (तुम जाते हो) - इस प्रकार मध्यमपुरुष सिप् का प्रयोग गच्छसि रूप बनता है। यहाँ यदि त्वम् का प्रयोग न भी हो, तब भी गच्छसि रूप ही रहेगा।

[१|४|१०६] प्रहासेचमन्योपपदेमन्यतेरुत्तमएकवच्च् परिहास के गम्यमान होने पर `मन् ` धातु के उपपदत्व में धातु से मध्यम पुरुष होता है और `मन् ` धातु से उत्तमपुरुषीय एकवचन होता है। | अहं पचामि। आवां पचावः। वयं पचामः। अप्रयुज्यमानेऽपि - पचामि, पचावः, पचामः।

[१|४|१०७] अस्मद्युत्तमः - अस्मद् उपपद रहने पर या क्रिया का कारक अस्मद् होने पर ( चाहे अस्मद् शब्द का प्रयोग हुआ हो या न हो) उत्तमपुरुष (मिप्, वस्, मस्, इट, वहि तथा महिङ्) होता है। | अस्मद् के कर्ता-कारक् में होने पर अहम् गच्छामि रूप बनता है। उत्तमपुरुष मिप् का प्रयोग हो गच्चामि रूप बना। अहम् का प्रयोग न होने पर भी गच्चामि रूप ही रहता है।

[१|४|१०८] शेषेप्रथमः - शब्दों के साथ प्रथम- संज्ञक तङ् तिप्, तस्, झि, त, अताम् और झ - इन प्रत्ययो का प्रयोग होगा। | सः गच्छति रामः पठति आदि में प्रथम-संज्ञक प्रत्यय तिप् का प्रयोग हुआ है।

[१|४|१०९] परःसंनिकर्षःसंहिता वर्णों की अधिक समीपता की संहिता संज्ञा होती है। | वृक्षः, प्लक्षः। दधिँ, मधुँ।

[१|४|११०] विरामोऽवसानम्| विराम की अवसान संज्ञा होती है।