अष्टाध्यायी हिन्दी व्याख्या सहितम्/सप्तमः अध्यायः
[७|१|१] यु-वोरनाकौ - यु और वु के स्थान पर अन् और वु के स्थान पर अक् होता है। | कृ वु में प्रकृत सूत्र से वु के स्थान पर अक् होकर कृ अक रूप बनता यै। यहाँ णित् ण्वुल्-स्थानिक अक् परे होने से अचो ञ्णिति (७_२_११५) से कृ के ऋकार के स्थान पर वृद्धि-आर् होकर क् आर् अक = कारक रूप बनेगा। तब प्रतिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के पुल्लिङ्ग-एकवचन में रामः (पूर्वार्ध) की भाँति कारकः रूप सिद्ध होता है।
[७|१|२] आयनेयीनीयियः फ-ढ-ख-छ-घां प्रत्ययादीनाम् - प्रत्यय के आदि में आने वाले फ, ढ, ख, छ तथा घ के स्थान में क्रमशः आयन्, एय्, ईन्, ईय् आदेश हो जाते हैं। | गार्ग्य फ में फक् (फ) प्रत्यय के आदि में फकार आया है, अतः प्रकृत सूत्र से उसके स्थान पर आयन् हो गार्ग्य आयन् अ रूप बनता है। तब भसंज्ञक अङ्ग गार्ग्य के अन्त्य अकार का लोप और णत्व आदि हो प्रथमा के एकवचन में गार्ग्यायणः रूप सिद्ध होता है।
[७|१|३] झोऽन्तः - प्रत्यय के ( अवयव) झकार के स्थान पर अन्त् आदेश होता है। | प्रथम के बहुवचन भ्००+ झि में प्रत्ययावयव् झ् के स्थान् पर अन्त् आदेश होकर भू + अन्त् + इ ==> भू + अन्ति रूप बनता है।
[७|१|४] अदभ्यस्तात् - अभ्यस्त के बाद झ् के स्थान पर अत् आदेश। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-बहुवचन में हु धातु से झि शप्-श्लु और द्वित्व आदि होकर जु हु झि रूप बनता है। यहाँ उभे अभ्यस्तम् से जु हु की अभ्यस्त संज्ञा होने पर उनके परे झि के झकार के स्थान पर प्रकृत सूत्र से अत् आदेश होकर जु हु आत् इ रूप बनता है। यहाँ यणादेश होकर जुह्णति रूप सिद्ध होता है।
[७|१|५] आत्मनेपदेष्वनतः - अकार-भिन्न वर्ण से परे आत्मनेपद के झ् के स्थान पर अत् आदेश। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष बहुवचन में एध् धातु से झ् आदि होकर एध् इ स् झ् रूप बनने पर अकार-भिन्न सकार से परे झकार को अत् आदेश होकर ऐध् इ स् अत् अ बनता है। इस स्थिति में षत्व करने पर ऐधिषत् रूप सिद्ध होगा।
[७|१|६] शीङो रुट् - अङ्गसंज्ञक शीङ् धातु से विहित झ के स्थान में हुए अत् आदेश हो रुँट् का आगम हो जाता है। | शीङ् धातु से लट् लकार में प्रथमपुरुष-बहुवचन की विविक्षा में झि प्रत्यय, शप्-लुक् और गुण आदि होकर शे अते रूप बनता है। इस अवस्था में रकार होकर शे र अते ==> शेरते रूप सिद्ध होता है।
[७|१|७] वेत्तेर्विभाषा - अंगसंज्ञक `विद् ` धातु से विहित झ के स्थान में हुए अत् आदेश को विकल्प से रुट् का आगम। | संविद् + अते == संविद्रते, संविदते / संविद् + अताम् == संविद्रताम्, संविदताम् / सम् + अट् + विद् + अत == समविद्रत, समविदत।
[७|१|८] बहुलं छन्दसि - छन्दोविषय में उक्त रुँडागम बाहुल्येन होता है। | देवा अदुह्र / गन्धर्वा अप्सरसो अदुह्र ।
[७|१|९] अतो भिस ऐस् अदन्त अंग से परे "भिस्" प्रत्यय को " ऐस्" आदेश। | बाल + भिस् = बाल + ऐस् = बाल +ऐः = (वृद्धि एकादेश)= बालैः
[७|१|१०] बहुलं छन्दसि - छन्दोविषय में उक्त ऐस आदेश बाहुल्येन होता है। | अत इत्युक्तम्, अनतोपि भवति - नद्यैः। अकारान्तादपि न भवति - भद्रं कर्णेभिः। देवेभिः सर्वेभिः प्रोक्तम्।
[७|१|११] नेदमदसोरकोः ककाररहित इदम् और अदस् शब्द के भिस् स्थान पर ऐस् न हो। | एभिः अमीभिः।
[७|१|१२] टा ङसि-ङसामिनात्स्याः अदन्त अंग से परे "टा" को " इन", "ङसि" को " आत्" व "ङस्" को "स्य" आदेश।"टा", "ङसि" व "ङस्" सुप् प्रत्यय हैं। | बाल + टा ==> बाल + इन ==> बालेन। बाल + ङसि ==> बाल + आत् ==> बालात्।बाल + ङस् ==> बाल + स्य ==> बालस्य
[७|१|१३] ङेर्यः अदन्त अंग से परे "ङे" प्रत्यय को "य" आदेश। | बाल + ङे = बाल + य = बाला + य = बालाय
[७|१|१४] सर्वनाम्नः स्मै अदन्त सर्वनाम से परे "ङे" प्रत्यय को "स्मै" आदेश। | सर्व + ङे = सर्व + स्मै =(सन्हिता)= सर्वस्मै
[७|१|१५] ङसि-ङ्योः स्मात्-स्मिनौ अदन्त सर्वनाम से परे "ङसि" को "स्मात् व "ङि" को "स्मिन्" आदेश। | सर्व + ङसि ==> सर्व + स्मात् =(सन्हिता)=> सर्वस्मात्। सर्व + ङि ==> सर्व + स्मिन् =(सन्हिता)=> सर्वस्मिन्।
[७|१|१६] पूर्वादिभ्यो नवभ्यो वा अदन्त सर्वनाम (पूर्व, पर, अवर, अधर, उत्तर, अपर, दक्षिण, स्व व अन्तर) से परे "ङसि" को "स्मात् व "ङि" को "स्मिन्" विकल्प से आदेश। | पूर्व + ङसि =(विकल्प से)=> पूर्व + स्मात् =(सन्हिता)=> सर्वस्मात्। पूर्व + ङि =(विकल्प से)=> पूर्व + स्मिन् =(सन्हिता)=> पूर्वस्मिन्।
[७|१|१७] जसः शी अदन्त सर्वनाम से परे "जश्" प्रत्यय को "शी" आदेश। (जो सर्वनाम पहले अदन्त न हो कर बाद में बनते हैं वहां पर भी ये आदेश लागू होता है)। | सर्व + जस् ==> सर्व + अस् ==> सर्व + शी ==> सर्व + ई =(गुण)=> सर्वे
[७|१|१८] औङ आपः आबन्त (आप् + अन्त) अंग से परे (बाद में) " औङ्" को "शी" आदेश होता है। | रमा + औ = रमा + शी (यहां "शी" में "श्" की इन्संज्ञा है जिसका लोप हो जाता है)।
[७|१|१९] नपुंसकाच्च नपुन्सक लिंग अंग परे " औङ्" प्रत्यय को " शी" आदेश। यहां "शी" में "श्" इत्संज्ञक होता है और केवल " ई" शेष रहता है। | फल + औ = फल + शी = फल + ई = फले
[७|१|२०] जश्शसोः शिः नपुन्सक लिंग अंग परे "जस्" व "शस्" प्रत्ययों को " शि" आदेश। यहां "शि" में "श्" इत्संज्ञक होता है और केवल " इ" शेष रहता है। | फल + जस् = फल + शि = फल +न्+ इ = फला + न् + इ = फलानि (यहां "नुम्" का आगम व उपधा को दीर्घ आदेश भी है)
[७|१|२१] अष्टाभ्य औश् - अकार अन्तादेश किये हुए अष्टन् शब्द से परे जस् और शस् के स्थान पर औश् आदेश। | अष्टौ तिष्ठन्ति, अष्टौ पश्य।
[७|१|२२] षड्भ्यो लुक् षटसंज्ञक शब्दों से परे जस् व शस् का लुक् (लोप) हो। | षट् तिष्ठन्ति, षट् पश्य। पञ्च, सप्त, नव, दश।
[७|१|२३] स्वमोर्नपुंसकात्' नपुंसक से परे सु और अम् का लोप होता है। इसका अपवाद [234] 7_1_24 है। | दधि तिष्ठति, दधि पश्य, मधु तिष्ठति, मधु पश्य। त्रपु, जतु।
[७'|१|२४] अतोऽम् नपुन्सक लिंग अदन्त अंग परे "सु" व " अम्" प्रत्ययों को " अम्" आदेश्। | ज्ञान + सु ==> ज्ञान + अम् ==> ज्ञानम्
[७|१|२५] अद्ड्-डतरादिभ्यः पञ्चभ्यः डतर, डतम, अन्य, अन्यतर् व इतर इन पांच नपुन्सक लिंग अंगों से परे "सु" व " अम्" प्रत्ययों को " अदड्" आदेश। " " अदड्" में " अड्" इत्संज्ञक होता है व केवल् " अद्" शेष रहता है। | कतर + अद् = कतरद्
[७|१|२६] नेतराच्छन्दसि - छन्दोविषय प्रयोग में इतर शब्द से परे सु तथा अम् के स्थान में अदङ् आदेश। | इतरमितरमण्डमजायत, वार्त्रध्नमितरम्।
[७|१|२७] युष्मदस्मद्भयां ङसोऽश् - युष्मद् और अस्मद् शब्दों से परे ङस् के स्थान पर अश् आदेश। | तव स्वम्। मम स्वम्।
[७|१|२८] ङे प्रथमयोरम् - युष्मद् और अस्मद् शब्दों से परे ङे और प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति के साथ अम् आदेश। | ङे - तुभ्यं दीयते, मह्मं दीयते। प्रथमयोः- त्वम्, युवाम्, यूयम्, त्वाम्, युवाम्। अहम्, आवाम्, वयम्, माम्, आवाम्।
[७|१|२९] शसो न - युष्मद् और अस्मद् शब्द परे शस् के स्थान पर नकार आदेश। | युष्मान् ब्राह्मणान् अस्मान् ब्राह्मणान्। युष्मान् ब्राह्मणीः, अस्मान् ब्राह्मणीः। युष्मान् कुलानि, अस्मान् कुलानि।
[७|१|३०] भ्यसो भ्यम् - युष्मद् और अस्मद् से परे भ्यस् के स्थान पर अभ्यम् आदेश। | युष्मभ्यं दीयते, अस्मभ्यं दीयते।
[७|१|३१] पञ्चम्या अत् - युष्मद् और अस्मद् शब्दों से परे पञ्चमी के भ्यस् के स्थान पर अत् आदेश। | युष्मद् गच्छन्ति, अस्मद् गच्छन्ति।
[७|१|३२] एकवचनस्य च - युष्मद् और अस्मद् शब्दों से परे पञ्चमी के एकवचन (ङसि) के स्थान पर अत् आदेश। | त्वत्, मत्।
[७|१|३३] साम आकम् - युष्मद् और अस्मद् शब्दों से परे साम् के स्थान पर आकम् आदेश। | युष्माकम्, अस्माकम्।
[७|१|३४] आत औ णलः - आकारान्त अङ्ग के पश्चात् णल् के स्थान पर औ आदेश। | लिट् लकार के प्रथमपुरुष एकवचन में पा धातु से तिप् णल् ( अकार) आदि होकर प पा अ रूप बनता है। यहाँ आकारान्त अङ्ग पा से परे णल् (अ ) को औ हो जाता है प् पा औ। तब वृद्धि होकर पपौ रूप बनता है।
[७|१|३५] तु ह्योस्तातङ्ङाशिष्यन्यतरस्याम् - आशीरर्थक धातु इहित तु तथा हि के स्थान में विकल्प से तातङ् आदेश हो जाता है। | भव् + तु ==> भवतात्, विकल्पावस्था में भवतु रूप ही रहेगा।
[७|१|३६] विदेः शतुर्वसुः - विद् (जानना) धातु के पश्चात शतृ के स्थान पर विकल्प से वसु आदेश होता है। | विद् धातु से शतृ होकर विद् अत् रूप बनने पर प्रकृत सूत्र से शतृ (अत्) के स्थान पर वसु होकर विद् वस् = विद्वस् रूप बनता है। यहाँ प्रतिपादिक संज्ञा हो प्रथमा के एकवचन में विद्वान रूप सिद्ध होता है विकल्पावस्था में शतृ होकर विदन् रूप बनता है।
[७|१|३७] समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप् - अनञ्पूर्वक समास में परवर्ती क्त्वा के स्थान में विकल्प से क्त्वा तथा ल्यप् ये दोनों आदेश होते हैं। | समास न होने के कारण कृ धातु से क्त्वा प्रत्यय हो कृत्वा रूप बनने पर क्त्वा (त्वा) के स्थान पर ल्यप् नहीं होता।
[७|१|३८] क्त्वापि-च्छन्दसि - छन्दोविषय में अनञ् पूर्वक समास से पहले क्त्वा के स्थान में विकल्प से क्त्वा तथा ल्यप् दोनों ही आदेश। | कृष्णं वसो यजमानं परिधापयित्वा प्रत्यञ्चमर्कं प्रत्यर्पयित्वा। ल्यबपि भवति - उद्धृत्य जुहोति। धापि + इत्वा == धापय् + इत्वा == धापयित्वा।
[७|१|३९] सुपां सु-लुक् पूर्वसवर्णाच्छे-या-डा-डया-याजालः - छन्दोविषय में सुप् (सु-सुप) के स्थान में सु, लुक्, पूर्वसवर्ण, आ, आत्, शे, या, डा, डया, थाच् तथा आल् आदेश। | सु - अनृक्ष॒रा ऋजवः॑ सन्तु पन्थाः॑। पन्थान इति प्राप्ते। लुक् - आद्रे चर्मन्, रोहिते चर्मन्।चर्मणीति प्राप्ते। हविर्द्धाने यत्सुन्वन्ति तस्मामिधेनीरन्वाह। यस्मिन् सुन्वन्ति तस्मिन् सामिधेनीरिति प्राप्ते। पूर्वसवर्णः - धी॒ती म॒ती सु॑ष्टु॒ती।
[७|१|४०] अमो मश् - मिबादेश अम् के स्थान में छन्दोविषय में मश् आदेश। | वधीं वृत्रम्, क्रमीं वृक्षस्य शाखाम्।
[७|१|४१] लोपस्त आत्मनेपदेषु - आत्मनेपद के तकार का छन्दोविषय में लोप। | देवा अदुह्न, गन्धर्वाप्सरसो अदुह्न। अदुहतेति प्राप्ते। दुहामश्विभ्यां पयो अध्न्येयम्, दक्षिणतः पुमान् स्त्रयमुपशये।
[७|१|४२] ध्वमो ध्वात् - ध्वम् के स्थान में छन्दोविषय में ध्वात् आदेश। | अन्तरेवोष्माणाम् वारयध्वात्। वारयध्वमिति प्राप्ते।
[७|१|४३] यजध्वैनमिति च - ` एनम् ` के परे `यजध्वम् ` के मकार का छन्दोविषय में लोप। | यजध्वैनं प्रियमेधाः। यजध्वमेनमिति प्राप्ते।
[७|१|४४] तस्य तात् - लोट् के मध्यमपुरुष के बहुवचन `तऄ के स्थान में तात् आदेश। | गात्रं गात्रमस्या नूनं कृणुतात्। कृणुत इति प्राप्ते। ऊवध्यगोहं पार्थिवं खनतात्। खनत इति प्राप्ते। अस्नारक्षः संसृजतात्। संसृजतेति प्राप्ते। सूर्यं चक्षुर्गमयतात्। गमयतेति प्राप्ते।
[७|१|४५] तप्-तनप्-तन-थनाश्च - छन्दोविषय में `तऄ के स्थान में तप्, तनप्, तन तथा थन आदेश। | तप् - शृणित ग्रावाणः। शृणुतेति प्राप्ते। सुनोत। सुनुत इति प्राप्ते। तनप् - संवरत्रा दधातन। धत्तेति प्राप्ते। तन - रि॒भ॒व॒स्तं जुजुष्टन। जुषतेति प्राप्ते। थन - यदिष्ठन। यदिच्छतेति प्राप्ते।
[७|१|४६] इदन्तो मसि - छन्दोविषय में मस् को इकार का आगम। | पुनस्त्वां दीपयामसि। "दीपयामः" इति प्राप्ते। शलभं भञ्जयामसि। "भञ्जयामः" इति प्राप्ते। त्वयि रात्रिं वासयामसि। "वासयामः" इति प्राप्ते।
[७|१|४७] क्त्वो यक् - छन्दोविषय में क्त्वा को यक् का आगम। | दत्त्वाय सविता धियः। "दत्त्वा" इति प्राप्ते।
[७|१|४८] इष्ट्वीनमिति च सु परे होने पर प्रतिपादिकसंज्ञक दिव् के स्थान पर औकार आदेश। | इष्ट्वीनं देवान्। इष्ट्वा देवान् इति प्राप्ते।
[७|१|४९] स्नात्व्यादयश्च - छन्दोविषय में `स्नात्वी ` आदि शब्दों का भी निपातन। | स्नात्वी मलादिव। "स्नात्वा" इति प्राप्ते।, पीत्वी सोमस्य वावृधे, "पीत्वा" इति प्राप्ते
[७|१|५०] आज्जसेरसुक् - अवर्णान्त अङ्ग से परे जस् को छन्दोविषय में अक् का आगम। | ब्रा॒ह्म॒णासः॑। पि॒तरः सो॒म्यासः॑। ब्राह्म॒णाः, सोम्याः इति प्राप्ते।
[७|१|५१] अश्व-क्षीर-वृष-लवणानामात्म-प्रीतौ क्यचि - आत्म-प्रीति के प्रतीयमान होने पर अश्व, क्षीर, वृष तथा लवण शब्दों को क्यच् प्रत्यय के परे असुक् का आगम। | आत्मनोऽश्वमिच्छति == अश्वस्यति वडवा। क्षीरस्यति माणवकः। वृषस्यति गौः। लवणस्यत्युष्ट्रः।
[७|१|५२] आमि सर्वनाम्नः सुट् सर्वनाम अवर्णान्त परे विभक्ति " आम्" को "सुँट्" आगम हो। "सुँट्" में " उट्" इत्संज्ञक होने से केवल "स्" शेष। | सर्व + आम् = सर्व + स् + आम् = ( अकार को एकार७_१_१०३) सर्वे + स् + आम् = सर्वेसाम् = (८_३_५९से "स्" को "ष्" आदेश)= सर्वेषाम्
[७|१|५३] त्रेस्त्रयः "आम्" परे होने पर "त्रि" के स्थान पर "त्रय" आदेश। | त्रि + आम् == त्रय + आम् == (नुँट् आगम व यकोरवर्ती अकार को दीर्घादेश) त्रयाणाम्।
[७|१|५४] ह्रस्व-नद्यापो नुट् हृस्वान्त, नद्यन्त व आबन्त (आप् + अन्त => आबन्त) अंग परे " आम्" सुप् प्रत्यय होने पर "नुँट्" आगम। नुँट् में उँट् इत्संज्ञक है केवल न् शेष। | बाल + आम् = बाल + न् + आम् = बाल + नाम् = (पदान्त हृस्व को दीर्घ नाम् परे होने पर६/४/३)= बालानाम्
[७|१|५५] षट्चतुर्भ्यश्च षट् संज्ञक तथा चतुर् शब्द से परे आम् का नुँट् आदेश। | षण्णाम्, पञ्चानाम्, सप्तानाम्, नवानाम्, दशानाम्। चतुर्णाम्।
[७|१|५६] श्रीग्रामण्योश्छन्दसि - श्री तथा ग्रामणी शब्दों से विहित आम् को छन्दोविषय में ही नुँट् का आगम। | श्री॒णामु॑दारो ध॒रुणो॑ र॒यी॒णाम्। अप्यत्र सूतग्रामणीनाम्।
[७|१|५७] गोःपादान्ते ऋक्पादान्त में वर्तमान गो शब्द से परे आम् को भी नुँट् का आगम। | वि॒द्मा हि त्वा॒ गोप॑तिं शू॒रगोना॑म्।
[७|१|५८] इदितो नुम् धातोः - इदित् धातुओं को नुँम् का आगम हो जाता है। नुँम् में उँम् इत्संज्ञक है। | कुडि - कुण्डिता, कुण्डितुम्, कुण्डितव्यम्, कुण्डा। हुडि - हुण्डिता, हुण्डितुम्, हुण्डितव्यम्, हुण्डा।
[७|१|५९] शे मुचादीनाम् - श परे होने पर मुच् आदि आठ धातुओं का अवयव नुँम् होता है। | लिट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में मुच् धातु से तिप् और तुदादिभ्यः शः (३_१_७७) से श ( अ) होकर मुच् अ ति रूप बनता है। यहाँ श ( अ) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से मुच् के अन्त्य अच्-उकार के बाद नुम् (न्) होकर मु न् च् अ ति रूप बनता है।
[७|१|६०] मस्जि-नशोर्झलि - झल् (किसी वर्ग का प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ वर्ण तथा श, ष, स, ह) परे होने पर मस्ज (तुदादि०, नहाना) और नश् (दिवादि०, नाश होना)- इन दो धातुओं का अवयव नुँम् होता है। | न नश् थ में झल्-थकार परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से नश् के अन्त्य अच्-अकार के बाद नुम् (नकार) होकर न न न् श् थ रूप बनता है। इस स्थिति में नकार के स्थान पर अनुस्वार, षत्व और ष्टुत्व होकर ननंष्ठ रूप सिद्ध होता है।
[७|१|६१] रधि-जभोरचि - "रध्" तथा "जभ्" धातुओं को अजादि प्रत्यय के परे "नुँम्" का आगम। | जभ् + शप् + ते = जम्भ् + अ + ते = जम्भ + ते = जम्भते।
[७|१|६२] नेट्यलिटि-रधेः - लिङ् भिन्न इडादि प्रत्ययों के परे `रधऄ धातु को नुँम् का आगम नहीं होता। | रधिता, रधितुम्, रधितव्यम्।
[७|१|६३] रभेरशब्लिटोः - शप् तथा लिट् से भिन्न अजादि प्रत्ययों के परे `रभऄ धातु को नुँम् का आगम। | आरभ् + ण्वुल् == आरभ् + अक =(नुँमागम करके) आरम्भ् + अक == आरम्भकः।
[७|१|६४] लभेश्च - शप् तथा लिट् से भिन्न अजादि प्रत्ययों के परे `लभऄ धातु को नुँम् का आगम। | लभ् + ण्वुल् == लभ् + अक == लम्भ् + अक == लम्भकः।
[७|१|६५] आङो यि - यकारादि प्रत्ययों के विषय में आङ्पूर्वक `लभऄ धातु को नुँम् का आगम। | आलम्भ्या गौः, आलम्भ्या वडवा।
[७|१|६६] उपात्प्रशंसायाम् - समुदाय से प्रशंसा गम्यमान होने पर उपपूर्वक `लभऄ धातु को भी यकारादि प्रत्यय के विषय में नुँम् का आगम। | उपलम्भ्या भवता विद्या, उपलम्भ्यानि धनानि।
[७|१|६७] उपसर्गात्-खल्-घञोः - खल् तथा घञ् प्रत्ययों के परे उपसर्गविशिष्ट `लभऄ धातु को नुँम् का आगम। | प्र + लभ् + घञ् == प्रलभ्भः। इसी प्रकार विप्रलभ्भः, उपालभ्भः।
[७|१|६८] न सु-दुर्भ्यां केवलाभ्याम् - उपसर्गान्त रहित सु अथवा दुर् से विशिष्ट `लभऄ धातु को खल् तथा घञ् प्रत्ययों के परे नुभ का आगम नहीं होता। | सुलभ् + घञ् == सुलाभः, दुर् + लभ् + घञ् == दुर्लाभः।
[७|१|६९] विभाषा चिण्-णमुलोः कोष्टु शब्द तृजन्त के समान होता है। | चिण् - अलाभि, अलम्भि। णमुल् - लाभंलाभम्, लम्भंलम्भम्।
[७|१|७०] उगिदचां सर्वनामस्थानेऽधातोः - सर्वनामस्थान् परे होने पर धातुभिन्न उगित् और नकारलोपी अञ्चु धातु का अवयव नुम् होता है। | भवतु - भवान्, भवन्तौ, भवन्तः। ईयसुन् - श्रेयान्, श्रेयांसौ, श्रेयांसः। शतृ - पचन्, पचन्तौ, पचन्तः। अञ्चतेः - प्राङ् प्राञ्चौ, प्राञ्चः।
[७|१|७१] युजेरसमासे - समास को छोड़कर अन्य स्थलों पर यदि सर्वनामस्थान परे हो तो युज् धातु का अवयव नुँम् हो जाता है। | युङ्, युञ्जौ, युञ्जः।
[७|१|७२] नपुंसकस्य झलचः सर्वनामस्थान ("शि" प्रत्यय परे) नपुन्सक लिंग झलन्त या अजन्त अंग को "नुँम्" (" उँम्" इत्संज्ञक होकर केवल "न्" शेष) आगम हो। | फल + शस् = फल + इ = फल + नुँम् + इ = फल + न् + इ =(उपधा दीर्घ)= फलानि । मुख + शस् = मुख + इ = मुख + नुम् + इ = मुख + न् + इ =(उपधा दीर्घ)= मुखानि ।
[७|१|७३] इकोऽचि विभक्तौ इगन्त् अंग परे अजादि विभक्ति को "नुँम्" आगम् = "न्" {" उम्" इत्संज्ञक} | त्रपुणी, जतुनी, तुम्बुरुणी, त्रपुणे, जतुने, तुम्बुरुणे।
[७|१|७४] तृतीयादिषु भाषितपुंस्कं पुंवद् गालवस्य तृतीया आदि विभक्तियों के परे होने पर भाषितपुंस्क पुंवत् अर्थात् पुँल्लिंग के समान हो। | ग्रामण्या ब्राह्मणकुलेन, ग्रामणिना ब्राह्मणकुलेनः, ग्रामण्ये ब्राह्मणकुलाय, ग्रामणिने ब्राह्मणकुलाय, ग्रामण्यो ब्राह्मणकुलात्, ग्रामणिनो ब्राह्मणकुलात्, ग्रामण्यो ब्राह्मणकुलस्य, ग्रामणिनो ब्राह्मणकुलस्य।
[७|१|७५] अस्थि-दधि-सक्थ्यक्ष्णा-मनङुदात्तः अजादि तृतीया आदि विभक्तियों से परे होने पर शब्दों के स्थान पर अनँङ् आदेश। | अ॒स्थ्ना अ॒स्थ्ने, अ॒स्थ्नः इत्येवमादयः। द॒ध्ना द॒ध्ने द॒ध्नः। स॒क्थ्ना, स॒क्थ्ने, स॒क्थ्नः। अ॒क्ष्णा, अ॒क्ष्णे, अ॒क्ष्णः।
[७|१|७६] छन्दस्यपि दृश्यते - छन्दोविषय में अस्थि, दधि, सक्थि तथा अक्षि शब्दों को बाहुल्येन अनङ् आदेश। | अचीत्युक्तमनजादावपि दृश्यते - इन्द्रो॑ दधी॑चो अ॒स्थभि॑, भ॒द्रं प॑श्येमा॒क्षभिः॑। तृतीयादिष्वित्युक्तमतृतीयादिष्वपि दृश्यते - अस्थान्युत्कृत्य जुहोति। विभक्तावित्युक्तमविभक्तावपि दृश्यते - अक्षणवता लाङ्गलेन। अस्थन्वन्तं यदनस्था बिभर्ति।
[७|१|७७] ई च द्विवचने - छन्दोविषय में द्विवचन अस्थि, दधि, सक्थि तथा अक्षि शब्दों को ` ई ` आदेश और वह ईकार उदात्त भी होता है। | अक्षी ते इन्द्र पिङ्गले कपेरिव। अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्याम्।
[७|१|७८] नाभ्यस्ताच्छतुः - अभ्यस्तसंज्ञक से परे शतृ का अव्यव नुँम् (न्) नही होता है। | ददर् + स् (सु) में शतृ के उगित् होने के कारण२८९सूत्र से नुँम् का आगम् प्राप्त था, किन्तु अभ्यस्तसंज्ञक दद् से परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से शतृ को नुम् आगम् का निषेध हो जाता है, इस अवस्था में सुलोप कर जश्त्व-चर्त्व प्रक्रिया से ददत् और ददद् - ये दो रूप सिद्ध हुए। इसी प्रकार ददत् + ङीप् == ददती।
[७|१|७९] वा नपुंसकस्य - अभ्यस्त-संज्ञक से परे शतृप्रत्ययान्त नपुंसक अङ्ग का अवयव विकल्प से नुम् होता है।यदि उससे पहले सर्वनामस्थान हो। | ददत् + इ में शि सर्वनामस्थान परे है, और ददत् की उभे अभ्यस्तम् से अभ्यस्त संज्ञा है। अतः प्रकृत सूत्र से वैकल्पिक नुम् आगम् होकर ददन् + इ रूप बनता है। ददन् त् + इ ==> ददन्ति
[७|१|८०] आच्छी-नद्योर्नुम् - शी प्रत्यय और नदी संज्ञक परे होने पर अवर्णान्त अङ्ग से परे शतृप्रत्यान्त शब्दस्वरूप का अवयव विकल्प से नुँम् होता है। | तुदत् + ई में अवर्णान्त अंग तुद है और उससे परे शतृ का अवयव तकार है। अतः प्रकृतसूत्र से शी परे होने के कारण विकल्प से नुँम् आगम् होकर तुद् न् त् + ई ==> तुदन्ती रूप बनता है।
[७|१|८१] शप्-श्यनोर्नित्यम् - नदीसंज्ञक और शी (ई) परे होने पर शप् ( अ) और श्यन् (य्) के शतृ ( अत्) का अव्यव नुँम् होता है। मित् होने से यह नुँम् शतृ ( अत्) के अन्त्य स्वर अकार के पश्चात् आता है। | पच् धातु के पहले शप् और फिर शतृ प्रत्यय हो पच् अ अत् रूप बनने पर पररूप एकादेश हो पचत् रूप बनता है।प्रथमा और द्वितीया के द्विवचन में शी ( ई) होकर पचत् + ई रूप बनने पर शतृ के अन्त्य स्वर-पकारोत्तरवर्ती अकार के पश्चात् नुम् ( म्) हो पच् + न् + त् + ई ==> पचन्ती रूप बनता है।
[७|१|८२] सावनडुहः सु परे होने पर अनडुह् शब्द का अवयव नुँम् होता है। | अनड्वान्, हे अनड्वन्।
[७|१|८३] दृक्-स्ववस्-स्वतवसां छन्दसि - छन्दोविषय में दृक्, स्ववस् तथा स्वतवस् शब्दों को सु के परे नुँम् का आगम। | ईदृङ्, कीदृङ्, तादृङ्, यादृङ्, सदृङ्। स्ववान्। स्वत॑वाँ पा॒युर॑ग्ने।
[७|१|८४] दिव औत् - सु के परे दिव् को औत् आदेश। | द्यौः।
[७|१|८५] पथि-मथ्यृभुक्षामात् - पथिन् तथा, मथिन् तथा ऋभुक्षिन् शब्दों के सु परे होने पर आकार आदेश। | पन्थाः, मन्थाः, ऋभुक्षाः।
[७|१|८६] इतोऽत्-सर्वनामस्थाने - ह्रस्व इकार के स्थान पर सर्वनामस्थान परे होने पर ह्रस्व अकार आदेश। | पन्थाः, पन्थानौ, पन्थानः, पन्थानम्, पन्थानौ। मन्थाः, मन्थानौ, मन्थानः, मन्थानम्, मन्थानौ। ऋभुक्षाः, ऋभुक्षाणौ, ऋभुक्षाणः, ऋभुक्षाणम्, ऋभुक्षाणौ।
[७|१|८७] थो न्थः - सर्वनामस्थान परे होने पर थकार के स्थान पर न्थ आदेश। | पन्थाः, पन्थानौ, पन्थानः, पन्थानम्, पन्थानौ। मन्थाः, मन्थानौ, मन्थानः, मन्थानम्, मन्थानौ।
[७|१|८८] भस्य टेर्लोपः - भ-संज्ञक शब्दों की टि का लोप। | पथः, पथा, पथे। मथः, मथा, मथे। ऋभुक्षः, ऋभुक्षा, ऋभुक्षे।
[७|१|८९] पुंसोऽसुङ् - सर्वनामस्थान ( सु, औ, जस्, अम, औट) की विविक्षा में पुंस शब्द के स्थान पर असुङ् आदेश। | सर्वनामस्थान सु की विविक्षा में पुंस के सकार को असुङ् (अस्) होकर पुं अस् + स् ( सु) रूप बनता है।
[७|१|९०] गोतो णित् ओकारान्त गो शब्द से परे सर्वनामस्थान प्रत्यय (सु, औ, जस्, अम् तथा औट्) णिद्वित् हो। | गौः, गावौ, गावः, गाम्, गावौ।
[७|१|९१] णलुत्तमो वा - उत्तम का णल् विकल्प से णित् होता है। | लिट् के उत्तम् एकवचन में गद् धातु से मिप् णल् द्वित्व और चुत्व आदि करने पर जगद् अ रूप बनता है।यहाँ प्रकृत सूत्र से णल् ( अ) में णित्व आ जाने के कारण उपधा - गकारोत्तरवर्ती अकार को दीर्घ होकर जगाद रूप सिद्ध होता है। अभाव पक्ष में जगद् ही रहता है।
[७|१|९२] सख्युरसंबुद्धौ अङ्गसंज्ञक सखि शब्द परे सम्बुद्धिभिन्न सर्वनामस्थान णित् हो। | अहं चकर, अहं चकार, अहं पपच, अहं पपाच।
[७|१|९३] अनङ् सौ सम्बुद्धि भिन्न "सु" (१_१) परे रहते सखि पदान्त को अनँङ् आदेश। अनँङ् में " अङ्" इतसंज्ञक है व केवल " अन्" शेष। | सखायौ, सखायः, सखायम्, सखायौ।
[७|१|९४] ऋदुशनस्-पुरुदंसोऽनेहसां च ऋकारान्त, उशनस् (शुक्राचार्य), पुरुदन्सस् (बिल्ली, विडाल) व अनेहस् (समय) शब्दों को सम्बुद्धि भिन्न "सु" परे रहते " अनङ्" आदेश । " अनङ्" में "ङ्" इत्संज्ञक होने से केवल " अन्" शेष। | क्रोष्टृ + स् ==> क्रोष्टृ + अन् + स्
[७|१|९५] तृज्वत् क्रोष्टुः सम्बुद्धि भिन्न सर्वनामस्थान परे होने पर क्रोष्टु शब्द के स्थान पर ऋकारान्त कोष्टृ शब्द होता है। | क्रोष्टा, क्रोष्टारौ, क्रॊष्टारः, क्रॊष्टारम्, क्रॊष्टारौ।
[७|१|९६] स्त्रियां च - स्त्रीलिङ्ग में भी क्रोष्टु शब्द तृजन्त शब्द के समान कार्य का आश्रय होता है। | क्रॊष्टी, क्रॊष्ट्रीभ्याम्, क्रोष्ट्रीभिः।
[७|१|९७] विभाषा तृतीयादिष्वचि टा आदि तृतीयादि विभक्तियाँ परे होने पर विकल्प से ऋकारान्त हो। | क्रॊष्ट्रा, क्रोष्टुना। क्रॊष्ट्रे, क्रॊष्टवे। क्रॊष्टुः, क्रोष्टोः। क्रॊष्टरि, क्रोष्टौः, क्रौष्ट्वोः।
[७|१|९८] चतुरनडुहोरामुदात्तः सर्वनामस्थान परे होने पर शब्दों का अवयव आम् होता है। | च॒त्वारः॑। अ॒न॒ड्वान्, अ॒न॒ड्वाहौ, अ॒न॒ड्वाहः॑, अ॒न॒ड्वाह॑म् अ॒न॒ड्वाहौ॑।
[७|१|९९] अम्संबुद्धौ सम्बुद्धि परे होने पर अम् हो। | हे प्रियचत्वः, हे अनड्वन्, हे प्रियानड्वन्।
[७|१|१००] ॠत इद् धातौः - ऋकारान्त धातु के स्थान में (इत्) ह्रस्व इकार आदेश। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में क (बिखेरना) धातु से तिप् और श होकर क अ ति रूप बनता है। यहाँ कॄ धातु दीर्घ ऋकारान्त है, अतः प्रकृत सूत्र से उसके ऋकार के स्थान पर इकार आदेश ओता है। ऋकार के स्थान पर इर् होकर क् इ र् अ ति == किरति रूप सिद्ध होता है।
[७|१|१०१] उपधायाश्च - उपधास्थानीय ऋकार के स्थान में भी इत् आदेश। | कॄत् + णिच् == किर्त् + इ (७_१_१०१सूत्र से दीर्घ होकर) कीर्त् + इ == कीर्ति == कीर्तयिष्यति।
[७|१|१०२] उदोष्ठ्यपूर्वस्य - यदि ऋकारान्त धातु के ऋकार के पूर्व कोई ओष्ठय वर्ण (पे, फ, ब, भ, म, उ, ऋ या उपध्मानीय) आता है तो धातु के स्थान पर उकार आदेश। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-द्विवचन में पृ धातु से तस्, शप्-श्लु और द्वित्व आदि होकर पि पॄ तस् रूप बनता है। यहाँ ऋकारान्त धातु पॄ है और उसके पूर्व ओष्ठय वर्ण पकार आया है, अतः प्रकृत सूत्र से ऋ के स्थान पर उकार आदेश होता है। और यह उकारादेश रपर उर् होकर आदेश होगा और रूप बनेगा पिपुर् तस्।
[७|१|१०३] बहुलं छन्दसि - छन्दोविषय में ऋकारान्त धातु को बाहुल्येन उत् आदेश। | ओष्ठयपूर्वस्येत्युक्तमनोष्ठयपूर्वस्यापि भवति - मित्रावरुणौ ततुरिः। दूरे ह्मध्वा जगुरिः। ओष्टयपूर्वस्यापि न भवति - पप्रितमम्। वव्रितमम्। क्वचिद् भवति च - पपुरिः।
[७|२|१] सिचि वृद्धिः परस्मैपदेषु - परस्मैपद सिच् परे होने पर इगन्त अङ्ग के स्थान पर वृद्धि होती है। | लिङ् लकार के प्रथम-एकवचन में क्षि धातु से तिप्, अट् आदि होकर अक्षि स् ई त् रूप बनता है। यहाँ परस्मैपद सिच् परे होने के कारण इगन्त अङ्ग अक्षि के इकार के स्थान पर वृद्धि ऐकार होकर अक्षैस् ई त् रूप बनेगा। तब षत्व होकर अक्शैषीत् रूप सिद्ध होता है।
[७|२|२] अतो ल्रान्तस्य - अत् रेफ तथा लकार से अव्यवहित पूर्व में वर्तमान होने पर रकारान्त तथा लकारान्त अङ्ग के अत् को परस्मैपद में सिच् के परे वृद्धि आदेश। | लान्तस्य - क्वल् - अज्वालीत्, ह्मल् - अह्मालीत्। तेफान्तस्य - क्षर् - अक्षारीत्। त्सर् - अत्सारीत्।
[७|२|३] वद-व्रज-हलन्तस्याचः - वद्, व्रज् और हलन्त (जिसके अन्त में कोई व्यञ्जन हो) अंगों के स्वर-वर्ण के स्थान पर वृद्धि आदेश।, यदि उनसे परे परस्मैपद सिच् हो। | लुङ् लकार के प्रथम-एकवचन में व्रज् धातु से तिप्, इकार-लोप् अडागम्, च्लि तथा उसके स्थान पर सिच् आदि होकर अ व्रज् इ स् ई त् रूप बनता है। यहाँ पर परस्मैपद सिच् (सकार) परे होने पर व्रज् के अकार को दीर्घ आकार होकर अ व्रा ज् इ स् ई त् रूप बनेगा।
[७|२|४] नेटि - इडादि सिच् परस्मैपद परे होने पर हलन्त अङ्ग के स्थान में वृद्धि नही होती है।वृद्धि सदैव अच् के स्थान में ही होती है, अतः यहाँ भी हलन्त अङ्ग के अच् के स्थान में वृद्धि निषेध किया गया है। | दिवु - अदेवीत्। कुष - अकोषीत्, मुष - अमोषीत्।
[७|२|५] ह्ययन्त-क्षण-श्वस-जागृ-णि-श्व्येदिताम् - इडाचि सिच् (जिसके आदि में इट् हो) परे होने पर हकारान्त, मकारान्त और एकारान्त तथा क्षण श्वस जागृ, ण्यन्त एवं एदित् (जिसका इकार इत् हो) धातुओं के स्थान में वृद्धि नही होती। | कटे धातु एदित् है। इससे लिङ् लकार प्रथम-एकवचन में तिप् आदि करने पर अकट् इ स् ई त् रूप बनता है। यहाँ सिच् परे होने के कारण ककारोत्तरवर्ती अकार के स्थान पर वृद्धि आदेश प्राप्त होता हैकिन्तु धातु के एदित् होने के कारण उसका निषेध हो जाता है, तब सिच् लोप और सवर्ण दीर्घ होकर अकटीत् रूप सिद्ध होता है।
[७|२|६] ऊर्णोतेर्विभाषा - इडादि परस्मैपद (जिसके आदि में इट् हो) सिच् परे होने पर ऊर्णु धातु के स्थान पर विकल्प से वृद्धि- औकार आदेश। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में ऊर्णु धातु से तिप्, इकार-लोप, आडागम, वृद्धि, च्लि और उसके स्थान पर पुनः सिच् (स्) होकर और्णु स् त् रूप बनता है।यहाँ आर्धधातुकस्येड् (७_२_३५) सिच् को इट् आगम् होकर और्णु इ स् त् रूप बनेगा। इस स्थिति में इडादि परस्मैपद सिच् परे होने पर प्रकृत सूत्र से णकारोत्तरवर्ती उकार के स्थान पर वृद्धि औकार होकर और्ण् औ इ स त् रूप बनता है।
[७|२|७] अतो हलादेर्लघोः - इडादि (जिसके अन्त में इट् आगम् हो) परस्मैपद सिच् परे होने पर हलादि अङ्ग (जिसके आदि में कोई व्यञ्जन हो) के अवयव लघु अकार के स्थान पर विकल्प से वृद्धि आदेश। | लुङ् के प्रथम एकवचन में गद् धातु से अट्, तिप् , इकार-लोप, च्लि, सिच्, इडागम और ईडागम करने पर अगद् इ स् ई त् रूप बनता है।यहाँ हलादि अङ्ग गद् है। उससे परे इडादि परस्मैपद सिच् भी है, अतः प्रकृत सूत्र से इसके लघु गकारोत्तरवर्ती अकार के स्थान पर दीर्घ आकार होकर अगाद् इ स् ई त् रूप बनेगा। तब सिच् का लोप होकर अगादीत् रूप सिद्ध होता है अभाव पक्ष में अगदीत् रूप बनता है।
[७|२|८] नेड् वशि कृति - वशादि कृत प्रत्यय (जिसके आदि में कोई वश्-वर्ण हो) का अवयव इट् नहीं होता है। | सुशर्मन् में मन् (मनिन्) वशादि कृत् प्रत्यय है, अतः प्रकृत सूत्र से उसको इडागम् का निषेध हो जाता है। तब यज्वन् (पूर्वार्ध) की भांति सुशर्मा रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार प्रातर् पूर्वक इण् (जाना) धातु से क्वनिप् (वन्) प्रत्यय होकर प्रातर् इ वन् रूप बनने पर ह्रस्वस्य पिति कृति तुक् (६_१_७१) से क्वनिप् (वन्) के पित् होने के कारण तुक् (त्) आगम् होकर प्रातर् इ त् वन् = प्रातरित्वान् रूप बनेगा। इस स्थिति में पूर्ववत् प्रातरित्वा रूप सिद्ध होता है।
[७|२|९] तितुत्रतथसिसुसरकसेषु च - ति, तु, त्र, त्, थ, सि, सु, सुर, क् और स- इन दस प्रत्ययों के परे होने पर इड् नही होता है। | दात्र में त्र परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से प्राप्त इडागम का निषेध हो जाता है। तब दात्र की प्रातिपादिक संज्ञा होने पर प्रथमा के नपुंसकलिङ्ग-एकवचन में दात्रम् रूप सिद्ध होता है।
[७|२|१०] एकाच उपदेशेऽनुदात्तात् - उपदेश की अवस्था में एकाच् और अनुदात्त धातु से परे इट् आगम नही होता है। | लिट् के मध्यमपुरुष-एकवचन में गोपायाञ्चकृथ रूप बनने पर इट् आगम प्राप्त होता है, किन्तु यहाँ कृ धातु उपदेश अवस्था में है साथ ही एकाच् और अनुदात्त भी। अतः प्रकृत रूत्र से उससे परे इट् का निष्ध हो जाता है। तब गुण होकर गोपायाञ्चकर्थ रूप सिद्ध हुआ।
[७|२|११] श्र्युकः किति - श्रि (भवादि०, आश्रय लेना, भोगना आदि) तथा एकाच् (जिसमें केवल एक ही स्वर आया हो) और उगन्त (जिसके अन्त में उ, ऋ या ऌ हो) धातुओं से कित् प्रत्यय का अवयव इट् (इ) नही होता। | श्रित्वा, श्रितः, श्रितवान्। उगन्तानाम् - युत्वा, युतः, युतवान्। लूत्वा, लूनः, लूनवान्। वृत्वा, वृतः, वृतवान्। तीर्त्वा, तीर्णः, तीर्णवान्।
[७|२|१२] सनि ग्रह-गुहोश्च - सन् परे होने पर ग्रह् (पकड़ना), गुह् (छिपाना, ढांपना) और उगन्त (जिसके अन्त में उ, ऌ या ऋ हो) अङ्ग का अवयव इट् (न) नही होता है। | इच्छा- अर्थ में भू (होना) धातु से सन् होकर भू स रूप बनता है। यहाँ आर्धधातुकस्येड् वलादेः (७_२_३५) से इट् प्राप्त होता है। किन्तु भू धातु से उगन्त है, अतः सन् (स) परे होने पर प्रकृत सूत्र से इट् का निषेध हो जाता है। तब सन् से कित् होने के कारण गुण-निषेध, द्वित्व और अभ्यास-कार्य आदि होकर बुभूष रूप बनता है। इस स्थिति में लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में बुभूष से तिप्, शप् और पर-रूप होकर बुभूषति रूप बनता है।
[७|२|१३] कृसृभृवृस्तुद्रुस्त्रुश्रुवो लिटि - कृ, सृ, भृ, वृ, स्तु, द्रु, स्त्रु और श्रु इन आठ धातुओं से परे लिट् को इट् आगम नही होता। | क्षि धातु कृ आदि इन आठ धातुओं में नही है, अतः अनुदात्त होते हुए भी लिट् प्रत्यय थल् परे होने पर प्रकृत सूत्र से उसको इट् प्राप्त होता है।
[७|२|१४] श्वीदितो निष्ठायाम् - निष्ठा प्रत्यय के परे `श्वॎ तथा ईदित् धातुओं को इडागम नहीं होता। | शूनः शूनवान्। ईदितः - ओलस्जी - लग्नः, लग्नवान् ओविजी - उद्विग्नः, उद्विग्नवान् दीपी - दीप्तः, दीप्तवान्।
[७|२|१५] यस्यविभाषा - जिस धातु को विकल्प से इडागम का विधान किया गया है उसे निष्ठा प्रत्यय के परे इडागम नहीं होता। | (७_२_४४) इत्यनेन विकल्पेन इडागम उक्तस्तस्य निष्ठायाम् इट्प्रतिषेधः - विधूतः, विधूतवान्। गुहू - गूढ़ः गूढ़वान्। (७_२_५६) इत्युक्तं तस्य निष्ठायां इट्प्रतिषेधः - वृद्धः, वृद्धवान्।
[७|२|१६] आदितश्च - इत्संज्ञक आत् से विशिष्ट धातुओं को भी निष्ठा प्रत्यय के परे इडागम नहीं होता। | ञिमिदा - मित्रः, मित्रवान्। ञिक्ष्विदा - क्ष्विण्णः, क्ष्विण्णवान्। ञिष्विदा - द्विन्नः, स्विन्नवान्।
[७|२|१७] विभाषा भावादिकर्मणोः - भावार्थक तथा आदिकर्मार्थक निष्ठा प्रत्यय के परे आदित् धातुओं को विकल्प से इडागम् नहीं होता। | भावे मित्रमनेन, मेदितमनेन। आदिकर्मणि - प्रमिन्नः, प्रमिन्नवान्, प्रमेदितः, प्रमेदितवान्।
[७|२|१८] क्षुब्ध-स्वान्त-ध्वान्त-लग्न-म्लिष्ट-विरिब्ध-फाण्ट-बाढानि-मन्थ-मनस्तमः-सक्ताविस्पष्ट-स्वरा-नायास-भृशेसु - मन्थ, मनस्, तमस्, सक्त अविस्पष्ट, स्वर, अनायास एवम् भृश् अर्थों में क्रमशः क्षुब्ध, स्वान्त, ध्वचान्त, लग्न, म्लिष्ट, विरिब्ध, फाण्ट तथा बाढ़ शब्दों का निपातन। | क्षुब्धो मन्थः। अन्यत्र क्षुभितं भवति, एवं सर्वत्र ज्ञेयम्। स्वान्तं मनः। ध्वान्तं तमः। लग्नं सक्तम्, निष्ठानत्वमपि निपातनादत्र भवति। म्लिष्टमविस्पष्टम्, म्लेच्छधातोरत्र म्लिष्टं व्युत्पाद्यते। तत्र एकारस्य स्थाने इत्वमपि निपातनाद् भवति। विरिब्धः स्वरः, अत्रापि रेभृधातुस्तस्य इत्वं निपात्यते। फाण्डम् अनायासः। बाढम् भृशम्।
[७|२|१९] धृ-षिशसी वैयात्ये - निष्ठा प्रत्यय के परे `धृष् ` तथा `शस् ` धातुओं को इडागम नहीं होता यदि समुदाय से अविनय की प्रतीति होती हो। | धृष्टोऽयम्। विशस्तोऽयम्।
[७|२|२०] दृढः स्थूल-बलयोः - स्थूल और बलवान अर्थ में दृढ शब्द का निपातन होता है। | दृह् (बढ़ना) धातु से निष्ठा-प्रत्यय क्त (त) प्रत्यय हो दृह् त रूप बनने पर इडभाव, हकार-लोप और पर-तकार के स्थान पर ढकार हो दृढ् अ = दृढ रूप बनता है। यहाँ दृढ की प्रतिपादिक संज्ञा होने पर प्रथम के पुल्लिङ्ग-एकवचन में सु प्रत्यय आदि हो रामः (पूर्वार्ध) की भाँति दृढः रूप सिद्ध होता है। जिसका अर्थ है स्थूल और बलवान।
[७|२|२१] प्रभौ परिवृढः - प्रभु अर्थ में परिवृढ शब्द का निपातन। | परिवृढः कुटुम्बी।
[७|२|२२] कृच्छ्र-गहनयोः कषः - कृच्छ्र तथा गहन अर्थों में `कषऄ धातु को निष्ठा प्रत्यय के परे इडागम नहीं होता। | कष्टोऽग्निः, क्ष्टं व्याकरणम्, कष्टतराणि सामानि। गहने - कष्टानि वनानि, कष्टाः पर्वताः।
[७|२|२३] घुषिरविशब्दने - अविशब्दनार्थक `घुषिरऄ धातु को निष्ठा प्रत्यय के परे इडागम नहीं होता। | घुष्टा रज्जुः, घुष्टौ पादौ (रगड़कर धोए हुए पैर)।
[७|२|२४] अर्द्देः सन्निविभ्यः - सम्पूर्वक, निपूर्वक तथा विपूर्वक ` अदद् `धातु को निष्ठा प्रत्यय के परे इडागम नहीं होता। | समर्णः, न्यर्णः, व्यर्णः।
[७|२|२५] अभेश्चाविदूर्ये - समीप्य अर्थ में अभिपूर्वक ` अर्द्दऄ धातु को भी निष्ठा प्रत्यय के परे इडागम नहीं होता। | अभ्यर्णा सेना, अभ्यर्णा शरत्।
[७|२|२६] णेरध्ययने वृत्तम् - अध्ययनार्थ में प्रयुक्त ण्यन्त `वृत् ` धातु के णि के लोप का इडागम भव का निपातन। | वत्तो गुणो देवदत्तेन, वृत्तं पारायणं देवदत्तेन।
[७|२|२७] वा-दान्तशान्तपूर्णदस्तस्पष्ट-च्छन्नज्ञप्ताः - णिजन्त `दम् `, `शम् `, `पूरी `, `दस् `, `स्पश् `, `छदऄ तथा `ज्ञप् ` धातुओं के इडागम का निष्ठा प्रत्यय के परे विकल्प से प्रतिषेध का निपातन। | दान्तः, दमितः। शान्तः, शमितः। पूर्णः, पूरितः। दस्तः, दासितः। स्पष्टः, स्पाशितः। छन्नः, छादितः। ज्ञप्तः, ज्ञापितः।
[७|२|२८] रुष्यम-त्वर-संघुषास्वनाम् - निष्ठा प्रत्यय के परे `रुषॎ, ` अमऄ, `त्वरऄ, सम् + `घुष् ` तथा आङ्पूर्वक `स्वनऄ धातुओं के इडागम का विकल्प से प्रतिषेध होता है। | ईड् + से == ईड् + इट् + से == ईडिषे, ईड् + स्व == ईड् + इट् + स्व == ईडिष्व, ईड् + इट् + ध्वे == ईडिध्वे, ईड् + ध्वम् == ईड् + इट् + ध्वम् == ईडिध्वम् ।
[७|२|२९] हृषेर्लोमसु - निष्ठा प्रत्यय के परे लोमार्थक `हृष् ` धातु के इडागम का विकल्प से प्रतिषेध। | हृष्टानि लोमानि, हृषितानि लोमानि। हृष्टं लोमभिः, हृषितं लोमभिः। हृष्टाः केशाः, हृषिताः केशाः। हृष्टं केशैः, हृषितं केशैः।
[७|२|३०] अपचितश्च - निष्ठा प्रत्यय के परे निशामन अर्थ में प्रयुक्त `चायृ ` धातु को भी इडागम का प्रतिषेध तथा चाय् के स्थान में `चॎ आदेश विकल्प से निपातित होते हैं। | अपचितोऽनेन गुरुः, अपचायितो`नेन गुरुः।
[७|२|३१] ह्रु ह्वरेश्छन्दसि - छन्दोविषय प्रयोग में निष्ठा प्रत्यय के परे `हृ` धातु के स्थान में `ह्रु` आदेश। | ह्रुतस्य चाह्रुतस्य च। अह्रुतमसि हवि॒र्धान॒म्।
[७|२|३२] अपरिह्वृताश्च - छन्दोविषय में ` अपरिहवृतऄ शब्द का निपातन। | अपरिह्वृताः सनुयाम॒ वाज॑म्।
[७|२|३३] सोमे ह्वरितः - निष्ठा प्रत्यय के परे सोमार्थ में `हवृ` धातु के इडगम तथा गुणोदय का निपातन। | मा नः सोमो ह्वरितः, विह्वरितस्त्वम्।
[७|२|३४] ग्रसित-स्कभित-स्तभितोत्तभित-चत्त-विकस्ता विशस्तृ-शंस्तृ-शास्तृ-तरुतृ-वरुतृ-वरुतृ-वरुत्री-रुज्ज्वलिति-क्षरिति-क्षमिति-वमित्यमितीति च - छन्दोविषय में ग्रसित, स्कभित आदि शब्द निपातित होते हैं। | ग्रसित - ग्रसितं वा एतत् सोमस्य। स्कभित - विष्कभिते अजरे। स्तभित - येन॒ स्वः॒ स्तभि॒तम्। उत्तभित - सत्येनोत्तभिता भूमिः। चत्त - चत्ता वर्षेण विद्युत्। विकस्त - उत्तानाया हृदयं यद् विकस्तम्।
[७|२|३५] आर्धधातुकस्येड् वलादेः - वल् प्रत्याहार में जब कोई व्यञ्जन आर्धधातुक के आदि में आता है, तो आर्धधातुक से इट् का आगम होता है। | भू + थ में वलादि आर्धधातुक थ है, अतः उसके आदि में इकार आगम होता है- भू इ थ। यहाँ बभूव के समान पूर्ववत् प्रक्रिया करने पर बभूविथ रूप सिद्ध होता है।
[७|२|३६] स्नु-क्रमोरनात्मनेपदनिमित्ते - आत्मनेपद के निमित्त न होने वाले `स्नु` तथा `क्रमु` धातुओं के वलादि आर्धधातुक को इडागम। | प्रस्नविता, प्रस्नवितुम्, प्रस्नवितव्यम्। प्रक्रमिता, प्रक्रमितुम्, प्रक्रमितव्यम्।
[७|२|३७] ग्रहोऽलिटि दीर्घः - लिट् न परे होने पर ग्रह् (ग्रहण करना) धातु के बाद इट् के स्थान में दीर्घ आदेश। | लुट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में ग्रह् धातु से तिप् तास् डात्व और इट् आदि होकर ग्रह् इ त् आ रूप बनता है। यहाँ लिट् परे न होने के कारण प्रकृत सूत्र से ग्रह् के बाद इट् (इ) के स्थान पर दीर्घ-ईकार होकर ग्रह् ई त् आ ==> ग्रहीता रूप सिद्ध होता है।
[७|२|३८] वॄतो वा - लिट् न परे होने पर वृङ् (सेवा या पूजा करना), वृञ् (वरण करना या आच्छादन करना) और दीर्घ ऋकारान्त अङ्ग के बाद इट् विकल्प से दीर्घ हो जाता है। | लुट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में पॄ धातु से तिप्, तास् और डात्व आदि होकर पर् इता रूप बनता है। यहाँ दीर्घ ऋकारान्त पॄ धातु से परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से इट् ( इ) को दीर्घ ईकार होकर पर् ई ता == परीता रूप सिद्ध होता है।
[७|२|३९] न लिङि - लिङ् परे होने पर वृङ्, वृञ् और दीर्घ ॠकारान्त धातुओं के बाद इट् के स्थान में दीर्घ नही होता है। | स्तॄ इ सी स् त में लिङ् सी स् त परे है, अतः ॠकारान्त स्तॄ धातु के बाद इट् (इ) को दीर्घ नही होता। तब गुणादेश और षत्व तथा ष्टुत्व होकर स्तरिषीष्ट रूप सिद्ध होता है। इट् के अभावपक्ष में रॆकार को इत् और दीर्घादेश आदि होकर स्तीषीष्ट रूप बनता है। यहाँ सीयुट् के कित् होने से गुणादेश नही होता।
[७|२|४०] सिचि च परस्मैपदेषु - स्वृ, षूङ् ( अदादि), षूङ् (दिवादि), धूञ् ( हिलना) और उदित् (जिनका दीर्घ ऊकार इत् हुआ हो) धातुओं के पश्चात् वलादि आर्धधातुक को विकल्प से इट् आगम होता है। | गुपू धातु का दीर्घ ऊकार इत् हुआ है। अतः ऊदित् होने के कारण इसके आगे वलादि आर्धधातुक विकल्प से इट् होता है।
[७|२|४१] इट् सनि वा - सन् प्रत्यय के परे `वृ`, `वृङ् ` तथा ऋकारान्त धातुओं को विकल्प से इडागम। | वृङ् == वुवूर्षति / विवरिषते वृञ् == वुवूर्षति / विवरिषते तॄ == तितीर्षति / तितरिषति / तितरिषति
[७|२|४२] लिङ् सिचोरात्मनेपदेषु - आत्मनेपद परे होने पर वृङ् (सेवा या पूजा करना), वृञ् (वरण करना या आच्छादन करना) और दीर्घ ॠकारान्त धातुओं के पश्चात् लिन्१और सिच् का अवयव (वा) विकल्प से इट् होता है। | आशीर्लिङ् में प्रथमपुरुष-एकवचन में स्तॄ (स्तॄञ्) धातु से आत्मनेपद त प्रत्यय, सीयुट् और सुट् आदि होकर स्तॄ सी स त रूप बनता है। यहाँ आत्मनेपद प्रत्यय त परे है, अतः प्रकृत सूत्र से दीर्घ ॠकारान्त धातु स्तॄ के बाद लिङ् सी स् त को इट् होकर स्तॄ इ सी स् त रूप बनता है।
[७|२|४३] ऋतश्च संयोगादेः - आत्मनेपद परे होने पर संयोगादि (जिसके आदि में संयोग हो) ऋकारान्त धातु के बाद लिङ् और सिच् का अवयव विकल्प से इट् होता है। | ध्वृषीष्ट, ध्वरिषीष्ट। स्मृषीष्ट, स्मरिषीष्ट। सिचि - अध्वृषाताम्, अध्वरिषाताम्। अस्मृषाताम्, अस्मरिषाताम्।
[७|२|४४] स्वरति-सूति-सूयति-धूञूदितो वा स्वृ, षूङ् ( अदादि), षूङ् (दिवादि), धूञ् (चुरादि व क्रयादि) एवम् ऊदित् धातुओं (जिन धातुओं में "ऊ" की इत्सञ्ज्ञा हुई हो) से परे वलादि आर्धधातुक को विकल्प से इट् का आगम। | स्वृ - स्वर्ता, स्वरिता। षूङ् - प्रसोता, प्रसविता। षूङ - सोता, सविता। धूञ् - धोता, धविता। उदुद्भ्यः - गाहू - विगाढा, विगाहिता। गुपू - गोप्ता, गोपिता।
[७|२|४५] रधादिभ्यश्च - रध् आदि आठ धातुओं के बाद वलादि (जिसके आदि में किसी वर्ग का प्रथम्, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पञ्चम् वर्ण या व, र, ल, श, ष, स अथवा ह में से कोई हो) आर्धधातुक अव्यय विकल्प से इट् होता है। | लिट् लकार के मध्यमपुरुष-एकवचन में नश् (णश्) धातु से सिप्, पुनः उसके स्थान पर थल् (थ) प्रत्यय आर्धधातुक है और उसके आदि में वल्-थकार भी है। अतः नश् के पश्चात होने के कारण प्रकृत सूत्र से उसको इट् होकर न नश् इ थ रूप बनता है। इस स्थिति में एत्व और अभ्यास-लोप होकर नेशिथ रूप सिद्ध होता है।
[७|२|४६] निरः कुषः - निर् पूर्वक `कुषऄ धातु से परे वलादि आर्धधातुक को भी विकलप से इडागम। | निष्कोष्टा, निष्कोषिता। निष्कोष्टुम्, निष्कोषितुम्। निष्कोष्टव्यम्, निष्कोषितव्यम्।
[७|२|४७] इण्निष्ठायाम् - निर् उपसर्ग से विशिष्ट `कुषऄ धातु से विहित निष्ठा प्रत्यय को इट् का आगम। | निष्कुषितः, निष्कुषितवान्।
[७|२|४८] तीष-सह-लुभ-रुष-रिषः - इष् (इच्छा करना), सह् (सहना आदि), लुभ् (मोहित होना, लोभ करना), रुष् (दुख देना, मारना) और रिष् (देख देना, मारना), इन पाँच धातुओं के बाद तकारादि आर्धधातुक (जिसके आदि में तकार हो) का अवयव विकल्प से इट् होता है। | लुट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में लुभ् धातु से तिप्, तास् और डात्व होकर लुभ् त् आ रूप बनता है। यहाँ प्रकृत सूत्र से लुभ् के बाद तकारादि आर्धधातुक तास् (त्) को इट् होकर लुभ् इ त् आ रूप बनता है। तब गुण होकर लोभिता रूप सिद्ध होता है। इट् के अभाव में तकार हो धकार तथा मकार को बकार आदि होकर लोब्धा रूप बनता है।
[७|२|४९] सनीवन्तर्ध-भ्रस्ज-दम्भु-श्रि-स्वृ-यूर्णु-भर-ज्ञपि-सनाम् - सन् प्रत्यय के परे इवन्त धातुओं तथा ` ऋधु`, `भ्रस्ज् `, `दम्भु`, `श्रि `, `स्वृ `, `पू `, ` ऊर्णु`, `भरऄ, `ज्ञपऄ तथा `सनऄ धातुओं को विकल्प से इडागम। | दिव् == दुद्यूषति / दिदेविषति ऋध् == अर्द्दिधिषति / ईत्सति, दम्भु == दिदम्भिषति / धिप्सति।
[७|२|५०] क्लिशः क्त्वा-निष्ठयोः - `क्लिशऄ धातु से विहित क्त्वा तथा निष्ठा प्रत्ययों को विकल्प से इट् का आगम। | क्लिष्ट्वा, क्लिशित्वा। निष्ठा - क्लिष्टः, क्लिष्टवान्, क्लिशितः, क्लिशित्वान्।
[७|२|५१] पूङश्च - `पूङ् ` धातु से विहित क्त्वा तथा निष्ठा प्रत्ययों को विकल्प से इट् का आगम। | पूत्वा पवित्वा। सोमोऽतिपूतः, सोमोऽतिपवितः। पूतवान्, पवितवान्।
[७|२|५२] वसति-क्षुधोरिट् - `वसऄ तथा `क्षुधऄ धातुओं से विहित क्त्वा तथा निष्ठा प्रत्ययों को इडागम। | उषित्वा, उषितः, उषितवान्। क्षुधित्वा, क्षुधितः, क्षुधितवान्।
[७|२|५३] अञ्चेः पूजायाम् - पूजार्थक ` अञ्चऄ धातु से विहित क्त्वा तथा निष्ठा प्रत्ययों को भी इट् का आगम। | अञ्चित्वा जानु जुहोति। अञ्चिता अस्य गुरवः।
[७|२|५४] लुभो विमोहने - विमोहनार्फक `लुभऄ धातु से विहित क्त्वा तथा निष्ठा प्रत्ययों को भी इट् का आगम। | लुभित्वा, लोभित्वा, विलुभिताः केशाः, विलुभितः सीमन्तः, विलुभितानि पदानि।
[७|२|५५] जॄ-व्रश्च्योः क्त्वि - `जॄ` तथा `व्रश्च् `, धातु से विहित क्त्वा को इट् का आगम। | जरित्वा, जरीत्वा व्रशिचत्वा।
[७|२|५६] उदितो वा - उदित् धातु (जिसका उकार इत् हो) के पश्चात् क्त्वा को विकल्प से इट् होता है। | शम् धातु से क्त्वा प्रत्यय होकर शम् त्वा रूप बनेगा। यहाँ शम् धातु से उदित होने के कारण प्रकृत सूत्र से उत्तरवर्ती त्वा (क्त्वा) को विकल्प से इट् होकर शम् इ त्वा = शमित्वा रूप सिद्ध होता है। इट् के अभाव-पक्ष में उपधा-दीर्घ तथा मकार के परसवर्ण हो शान्त्वा रूप बनेगा।
[७|२|५७] सेऽसिचि कृत-चृत-च्छृद-तृद-नृतः - कृत्, चृत्, छृद्, तृद् तथा नृत् इन पाँच धातुओं के बाद सिच्-भिन्न सकारादि आर्धधातुक का आद्यवयव बनता है। | ऌट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में नृत् धातु से तिप्, स्य और लघु उपधा को गुण आदि होकर न र् त् स्य ति रूप बनता है। यहाँ स्य के सिच्- भिन्न सकारादि आर्धधातुक होने के कारण प्रकृत सूत्र से इडागम् होकर न र् त् इ स्य ति = नर्तिस्यति रूप बनता है।
[७|२|५८] गमेरिट् परस्मैपदेषु - परस्मैपद परे होने पर गम् धातु के पश्चात् सकारादि आर्धधातुक का अवयव इट् होता है। इट् में टकार इतसंज्ञक है। अतः टित् होने के कारण आद्यन्तौ टकितौ परिभाषा से यह सकारादि आर्धधातुक का आद्यवयव होता है। | ऌट् लकार के प्रथमपुरुष एकवचन में गम् धातु से तिप् आदि होकर गम् स्य ति रूप बनता है। यहाँ परस्मैपद तिप् परे है, अतः गम् के पश्चात् सकारादि आर्धधातुक स्य को इट् होकर गम् इ स्य ति रूप बनेगा। तब ष्त्व करने पर गमिष्यति रूप सिद्ध होगा।
[७|२|५९] न वृद्भयश्चतुर्भ्यः - परस्मैपद के परे होने पर वृत्, वृध्, शृध् और स्यन्द् से परे सकारादि आर्धधातुक का अवयव इट् नही होता। | वृत् स्य ति में तिप् परस्मैपद परे होने के कारण सकारादि आर्धधातुक स्य को इट् आगम् नही होगा। इस अवस्था में लघूपधा को गुणादि होकर वर्त्स्यति रूप सिद्ध होता है।
[७|२|६०] तासि च कॢपः - `कॢपऄ धातु से पहले तास् तथा सकारादि आर्धधातुक को भी परस्मैपद में भी इट् का आगम नहीं होता। | कल्प्ता == कल्पिता।
[७|२|६१] अचस्तास्वत्थल्यनिटो नित्यम् - उपदेशावस्था में जो धातु अजन्त (स्वरान्त) तथा तास् प्रत्यय परे होने पर नित्य अनिट् होती है, उसके पश्चात् थल् को तास् के समान इट् का आगम् नही होता। | क्षि धातु उपदेश में अजन्त है तथा तास् प्रत्यय परे होने पर नित्य अनिट् भी है, क्योंकि अनुदात्त होने से इट् निषेध हो जाता है। अतः इससे परे थल् को इट् आगम नही होगा।
[७|२|६२] उपदेशेऽत्वतः - उपदेश में अकारवान् (ह्रस्व अकारवाली) धातु यदि तास् प्रत्यय परे होने पर नित्य अनिट् हो, तो उसके पश्चात थल् को तास् के समान् इट् का आगम् नही होता। | पपक्थ पच् धातु के लिट् लकार के मध्यमपुरुष एकवचन कारूप है। पच् धातु तास् प्रत्यय परे होने पर नित्य अनिट् है और उपदेश में अकारवान् भी है। अतः यहाँ थल् को इट् आगम न होकर पपक्थ रूप सिद्ध हुआ।
[७|२|६३] ऋतो भारद्वाजस्य - भारद्वाज के मत से जो ऋकारान्त धातु तास् प्रत्यय परे होने पर नित्य अनिट् हो, उसके पश्चात थल् को इट् आगम नहीं होता। | क्षि धातु अनिट् और अजन्त है। अतः उससे परे विकल्प से इट् होता है। इट् होने पर चिक्षयिथ और अभावपक्ष में चिक्षेथ रूप बनता है।
[७|२|६४] बभूथा-ततन्थ-जगृम्भ-ववर्थेति निगमे - वैदिक प्रयोग में बभूव, आत्तन्थ, जगृम्भ तथा ववर्थ शब्दों का निपातन। | त्वं हि होता प्रथमो बभूथ। येनान्तरिक्षमुर्वाततन्थ। जगृम्भा ते दक्षिणमिन्द्र हस्तम्। ववर्थ त्वं हि ज्योतिषा।
[७|२|६५] विभाषा सृजि-दृशोः - `सृजॎ तथा `दृशॎ धातुओं से पहले थल् को विकल्प से इडागम नहीं होता है। | सस्त्रष्ठ, ससर्जिथ। दद्रष्ठ, ददर्शिथ।
[७|२|६६] इडत्त्यर्ति-व्ययतीनाम् - यदि अद् (खाना), ऋ (जाना) या व्येञ् (ढकना) धातु बे बाद थल् आता है, तो उसका अवयव इट् ( इ) हो जाता है। | अद् धातु से लिट् लकार के मध्यमपुरुष -एकवचन की विविक्षा में सिप् और उसके स्थान पर परस्मैपद थल्, होकर अद् थ् (थल्) रूप बनता है।यहाँ अद् धातु के थल् को धातु के उपदेश में अकारवान् होने से वैकल्पिक इट् प्राप्त था, किन्तु प्रकृत सूत्र से नित्य इट् होकर अद् इ थ रूप बनेगा। पुनः अभ्यास-कार्य होकर आदिथ रूप-सिद्ध होता है।
[७|२|६७] वस्वेकाजाद्-घसाम् - कृत द्विर्वचन एकाच् धातुओं से, अकारान्त धातुओं से तथा `घसऄ धातु से परे वसु प्रत्यय को इट् का आगम। | आदिवान्, आशिवान्, पेचिवान्, शेकिवान्। आत् - या - ययिवान्, स्थातस्थिवान्। घस् - जक्षिवान्।
[७|२|६८] विभाषा गम-हन-विद-विशाम् - `गम् `, `हन् `, `विदऄ तथा `विशऄ धातुओं से पहले वसु प्रत्यय को विकल्प से इट् का आगम। | जग्मिवान्। हन् - जघ्निवान् जघन्वान्। विद - विविदिवान्, विविद्वान्। विश् - विविशिवान्, विविश्वान्।
[७|२|६९] सनिं ससनिवांसम् - `षणु` अथवा `षणऄ धातु से सर्निसमनिवांसम् ( द्वितीयान्त सनिम् से उत्तरवर्त्ती सनिवांसम्) का निपातन। | आजिं त्वाग्रे, सनिंस-सनिवांसम्।
[७|२|७०] ऋद्धनोः स्ये - ऋकारान्त और हन् धातु के पश्चात् स्य का अवयव इट् होता है। | कृ + स्यति == कृ + इट् + स्यति == करिष्यति, अकृ + स्यत् == अकृ + इट् + स्यत् == अकरिष्यत्, हन् + स्यति == हन् + इट् + स्यति == हनिष्यति, अहन् + स्यत् == अहन् + इट् + स्यति == अहनिष्यत्।
[७|२|७१] अञ्जेः सिचि - ` अञ्जू ` धातु से परे सिच् को इडागम। | आञ्जीत आञ्जिष्टाम्, आञ्जिषुः
[७|२|७२] स्तु सु-धूञ्भ्यः परस्मैपदेषु - परस्मैपद परे होने पर स्तु ( अदादि०, स्तुति करना), धूञ्(कांपना, हिलाना), और सु- इन तीन धातुओं के बाद सिच् का अवयव इट् होता है। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में सु धातु से तिप्, अडागम्, च्लि और उसके स्थान पर सिच् (स्) आदि होकर अ सु स् त् रूप बनता है। यहाँ परस्मैपद तिप् (त्) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से सु के बाद सिच् (स्) को इट् (इ) होकर असु इ स् त रूप बनता है।
[७|२|७३] यम-रम-नमातां सक्च - परस्मैपद परे होने पर यम्, रम्, नम्, और आकारान्त धातुओं का अवयव सक् होता है तथा सिच् का अवयव इट् होता है। | यम - अयंसीत्, अयंसिष्टाम्, अयंसिषुः। रमु - व्यरंसीत्, व्यरंसिष्टाम्, व्यरंसिषुः। णम् - अनंसीत्, अनंसिष्टाम्, अनंसिषुः। आत् - अयासीत्, अयासिष्टाम्, अयासिषुः।
[७|२|७४] स्मि-पूङ्-रञ्ज्वशां सनि - स्मिङ्, पुङ्, ऋ, अञ्जू तथा अशू धातुओं से पहले सन् को इडागम। | ऋ == अरिरिषति, स्मि == सिस्मयिषते, अञ्जू == अञ्जिजिषति, अशू == अशिशिषते।
[७|२|७५] किरश्च पञ्चभ्यः `कॄ`, "गॄ", "दृङ्", "धृङ्" व "प्रच्छ" इन पाँच धातुओं से पहले सन् को इट् का आगम। | कॄ == चिकरिषति, गॄ जिगरिषति, दृङ् == दिदरिषते, धृङ् == दिधरिषते, प्रच्छ् == पिपृच्छिषति।
[७|२|७६] रुदादिभ्यः सार्वधातुके `रुड्, "स्वप्", "श्वस्", "अन्" व "जक्ष्" इन पाँच धातुओं से पहले वलादि सार्वधातुक को इडागम। | रुद् == रुद् + ति == रोद् + ति / रोद् + इ + ति == रोदिति, स्वप् == स्वप् + ति / स्वप् + इ + ति == स्वपिति, श्वस् == श्वस् + ति / श्वस् + इ + ति == श्वसिति। इसी प्रकार अनिति, जक्षिति।
[७|२|७७] ईशः से - ` ईशऄ धातु से पहले `से ` स्वरूप सार्वधातुक को इट् का आगम। | ईश् + से == ईश् + इट् + से == ईशिषे, ईश् + स्व == ईश् + इट् + स्व == ईशिष्व, ईश् + इट् + ध्वे == ईशिध्वे, ईश् + ध्वम् == ईश् + इट् + ध्वम् == ईशिध्वम्।
[७|२|७८] ईड-जनोर्ध्वे च - ` ईडऄ तथा `जनऄ धातुओं से उत्तर `से ` तथा `ध्वे ` सार्वधातुकों को इडागम। | ईडिध्वे, ईडिध्वम्, ईडिषे, ईडिष्व। जनिध्वे, जनिध्वम्, जनिषे, जनिष्व। ईशोऽपि ध्व इडिष्यते - ईशिध्वे, ईशिध्वम्।
[७|२|७९] लिङः सलोपोऽनन्त्यस्य - सार्वधातुक लिङ्ग के अनन्त्य सकार का लोप होता है। अनन्त्य सकार का अर्थ है जो सकार अन्त्य (अन्त मेँ) न हो जैसे "यासुट्", "सु`", "सीयुट्" का सकार अनन्त्य है। | भव् + यास् + त् में तिप् लिङ् के स्थान में हुआ है, अतः स्थानिवद्भाव से लिङ्ग् ही है और यासुट् लिङ्ग् स्थानिक् तिप् को आगम् हुआ है।
[७|२|८०] अतो येयः अदन्त (अकारान्त) अङ्ग से परे सार्वधातुक "यासुट्" (या) के स्थान में इय् आदेश। | भव् यास् त् में अदन्त अङ्ग भव से परे सार्वधातुक लिङ्ग् यास् त् का अवयव यास् है, अतः इसके स्थान में इय् होकर भव् इय् त् रूप बनता है। इस स्थिति में गुण करने से भवेय् त् रूप बनेगा।
[७|२|८१] आतो ङितः अकारान्त (अदन्त) अङ्ग से परे सार्वधातुक "ङित्" के अवयव आकार (आ) के स्थान पर "इय्" आदेश। | लट् लकार के प्रथमपुरुष द्विवचन में एध् धातु से आताम् आदि होकर एध् अ आताम् रूप बनता है।यहाँ आताम् ङित् है अतः अकार से परे होने के कारण उसके आकार के स्थान पर इय् (इकार) होकर एध् अ इ ताम् रूप बनेगा। इस स्थिति में गुण, आत्मनेपद की टि के स्थान में एकार और मकार का लोप करने पर एधेते रूप सिद्ध होता है।
[७|२|८२] आने मुक् अङ्ग के हृस्व अकार(अ) अवयव को "आन्" परे होने पर "मुक्" आगम। | पच आन में अकारान्त अङ्ग पच के बाद आन आया है, अतः प्रकृत सूत्र से पच् को मुक् (म्) होकर पच् म् आन् = पचमान रूप बनता है। तब प्रतिपादिक संज्ञा होकर द्वितिया के एकवचन में पचमानम् रूप सिद्ध होता है।
[७|२|८३] ईदासः - ` आस् ` से परे आन् को ईत् आदेश। | आसीन् + ईन् == आसीन, आसीनः।
[७|२|८४] अष्टन आ विभक्तौ - अष्टन् शब्द के स्थान पर हलादि विभक्ति परे होने पर आ आदेश। | अष्टाभिः, अष्टाभ्यः, अष्टानाम्, अष्टासु।
[७|२|८५] रायो हलि हलादि विभक्ति परे होने पर रै के स्थान पर अकार आदेश। | राभ्याम्, राभिः
[७|२|८६] युष्मदस्मदोरनादेशे - अनादेश हलादि विभक्ति परे होने पर युष्मद् और अस्मद् शब्दों के स्थान पर आकार आदेश। | युष्माभिः, अस्माभिः। युष्मासु, अस्मासु।
[७|२|८७] द्वितीयायां च - विभक्ति परे होने पर युष्मद् और अस्मद् शब्दों के स्थान पर आकार आदेश। | त्वाम्, माम्, युवाम्, आवाम्, युष्मान्, अस्मान्।
[७|२|८८] प्रथमायाश्र्च द्विवचने भाषायाम् - लौकिक संस्कृत भाषा में प्रथमा विभक्ति का द्विवचन परे होने पर युष्मद् और अस्मद् के स्थान पर आकार आदेश। | युवाम्, आवाम्।
[७|२|८९] योऽचि - अनादेश (जिसको कोछ आदेश न हुआ हो) अजादि (जिसके आदि में कोई स्वर हो) विभक्ति परे होने पर युष्मद् और अस्मद् शब्दों के स्थान पर यकार आदेश। | त्वया, मया। त्वयि, मयि। युवयोः, आवयोः।
[७|२|९०] शेषे लोपः - जहाँ अकार या यकार का विधान न हुआ हो, वहाँ युष्मद् और अस्मद् का लोप होता है। | त्वम्, अहम्। यूयम्, वयम्। तुभ्यम्, मह्मम्। युष्मभ्यम्, अस्मभ्यम्। त्वत्, मत्। युष्मत्, अस्मत्। तव, मम, युष्माकम्, अस्माकम्।
[७|२|९१] मपर्यन्तस्य - यहाँ से आगे युष्मत तथा अस्मद् के स्थान में विधास्यमान आदेश युष्मत् तथा अस्मद् के मपर्यन्त अङ्ग के स्थान में होते हैं। | वक्ष्यति - (७_२_९२) युवाम्, आवाम्।
[७|२|९२] युवावौ द्विवचने - विभक्ति परे होने पर द्वित्वकथन में युष्मद् और अस्मद् शब्दों के मपर्यन्त भाग - युष्म् और अस्म् के स्थान पर क्रमशः युव और आव आदेश। | युवाम्, आवाम्। युवाभ्याम्, आवाभ्याम्। युवयोः, आवयोः।
[७|२|९३] यूय-वयौ जसि - जस् परे होने पर युष्मद् और अस्मद् शब्दों के मपर्यन्र भाग युष्म् और अस्म् के स्थान पर क्रमशः यूय और वय आदेश। | यूयम्, वयम्।
[७|२|९४] त्वाहौ-सौ - सु परे होने पर म् तक युष्मद् और अस्मद् के स्थान पर त्व और अह आदेश। | त्वम्, अहम्। परमत्वम्, परमाहम्। अतित्वम्, अत्यहम्।
[७|२|९५] तुभ्य-मह्यौ-ङयि - ङे परे होने पर युष्मद् और अस्मद् शब्दों के मपर्यन्त भाग युष्म् और अस्म् के स्थान पर क्रमशः तुभ्य और मह्म आदेश। | तुभ्यम्, मह्मम्। परमतुभ्यम्, परममह्मम्। अतितुभ्यम्, अतिमह्मम्।
[७|२|९६] तव-ममौ-ङसि - ङस् परे होने पर युष्मद् और अस्मद् शब्दों के मपर्यन्त भाग-युष्म् और अस्म् के स्थान पर क्रमशः तव और मम आदेश। | तव, मम। परमतव, परममम। अतितव, अतिमम।
[७|२|९७] त्व-मावेकवचने - विभक्ति परे होने पर एकत्व-कथन में युष्मद् और अस्मद् के मपर्यन्त भाग युष्म् और अस्म् के स्थान पर क्रमशः त्व और म आदेश। | त्वाम्, माम्। त्वया, मया। त्वत्, मत्। त्वयि, मयि।
[७|२|९८] प्रत्ययोत्तरपदयोश्च - यदि प्रत्यय और उत्तरपद परे हों तो एकवचन में युष्मद् और अस्मद् के मपर्यन्त भाग के स्थान पर क्रमशः त्व और म आदेश। | युष्मद छ मे प्रत्यय- छ परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से युष्मद् के युष्म् के स्थान पर त्व अओ त्व अद् छ रूप बनता है। तब पररूप एकादेश हो त्वद् छ रूप बनने पर आयनेयी (७_१_२) से प्रत्यय के छकार के स्थान पर ईय् हो त्वद् ईय् अ + त्वदीय रूप बनेगा। यहाँ विभक्ति कार्य हो प्रथमा के एकवचन में त्वदीयः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - अस्मद् + छ == मद् + ईय == मदीयः।
[७|२|९९] त्रि-चतुरोः स्त्रियां-तिसृ-चतसृ विभक्ति परे होने पर स्त्रीलिंग में त्रि तथा चतुर् के स्थान पर तिसृ और चतसृ आदेश। | तिस्त्रः, चतस्त्रः। तिसृभिः, चतसृभिः।
[७|२|१००] अचि र ऋतः अच् परे होने पर ऋकार के स्थान पर रकार आदेश। | तिस्त्रस्तिष्ठन्ति, तिस्त्रः पश्य। चतस्त्रस्तिष्ठन्ति, चतस्त्रः पश्य। प्रियतिस्त्र आनय, प्रियचतस्त्र आनय। प्रियतिस्त्रः स्वम्, प्रियचतस्त्रः स्वम्। पृयतिस्त्रि निधेहि, प्रियचतस्त्रि निधेहि।
[७|२|१०१] जराया जरसन्यतरस्याम् अजादि विभक्ति (प्रत्यय) परे रहते जरा (बुढ़ापा) को जरस् आदेश (७_२_१०१)। | जरसौ - जरे, जर्सः - जराः। जरसा दन्ताः शीर्यन्ते, जरया दन्ताः शीर्यन्ते। जरसे त्वा परिदद्युः, जरायै त्वा परिदद्युः। एवमजादौ सर्वत्र ज्ञेयम्।
[७|२|१०२] त्यदादीनामः विभक्ति परे होने पर त्यद् आदि(त्यद्, तद्, यद्, एतद्, इदम्, अदस्, एक व द्वि) शब्दों के अन्तिम वर्ण के स्थान पर अकार आदेश। | तत् + तस् == त + तस् == ततः। द्वि + औ == द्व + औ == द्वौ (वृद्धि एकादेश)
[७|२|१०३] किमः कः - विभक्ति के परे किम् शब्द के स्थान में क आदेश। | किम् + थम् == क + थम् == कथम्।
[७|२|१०४] कु तिहोः - तकारादि और हकारादि विभक्ति-संज्ञक प्रत्यय परे होने पर `किम् ` के स्थान पर `कु` आदेश। | ` किम् तस् ` में तकारादि विभक्ति-संज्ञक `तसिल् ` (तस्) प्रत्यय परे होने के कारण `किम् ` के स्थान पर `कु` हो `कुतस् ` रूप बनता है। तब अवयव होने के कारण प्राप्त सुप् का लोप होने पर रुत्व-विसर्ग हो `कुतः` रूप सिद्ध होता है।
[७|२|१०५] क्वाति - ` अत् ` विभक्ति परे होने पर `किम् ` के स्थान पर `क ` आदेश होता है। | ` किम् अ ` में विभक्ति-संज्ञक ` अत् ` ( अ) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से `किम् ` के स्थान पर `क्कऄ रूप सिद्ध होता है।
[७|२|१०६] तदोः सः सावनन्त्ययोः - सु परे होने पर अनन्त्य तकार और दकार के स्थान पर सकार आदेश। | त्यद् - स्यः। तद् - सः। एतद् - एषः। दकारस्य - अदस् - असौ।
[७|२|१०७] अदस औ सुलोपश्च - सु परे होने पर अदस् शब्द के स्थान पर औकार आदेश होता है सु का लोप हो जाता है। | अदस् + सु में प्रकृत सूत्र से सकार को औकार तथा सु का लोप होकर अद् औ रूप बनता है।
[७|२|१०८] इदमो मः इदम् के स्थान पर सु परे होने पर मकार् आदेश। | अयम्, इयम्।
[७|२|१०९] दश्च विभक्ति परे होने पर दकार के स्थान पर मकार आदेश। | अवेद् / अवेत् अवेत् त्वम्, अवेः त्वम् ।
[७|२|११०] यः सौ - सु परे होने पर इदम् शब्द के दकार के स्थान पर यकार आदेश। | इदम् + सु में दकार को यकार होकर इयम् रूप सिद्ध हुआ।
[७|२|१११] इदोऽय् पुंसि पुल्लिंग मे सु परे होने पर इद् के स्थान पर अय् आदेश। | अयं ब्राह्मणः।
[७|२|११२] अनाप्यकः आप् परे होने पर ककाररहित के स्थान पर अन् आदेश। | अनेन, अनयोः।
[७|२|११३] हलि लोपः हलादि तृतीयादि विभक्ति परे होने पर ककाररहित इदम् शब्द के इद् का लोप। | आभ्याम्, एभिः, एषाम्, एषु।
[७|२|११४] मृजेर्वृद्धिः - अगसंज्ञक मृज् धातु के इक् के स्थान में वृद्धि हो जाती है। | मृग् य में एकदेशविकृतममन्यवत् परिभाषा से मृग् मृज् का ही रूप है, अतः प्रकृत सूत्र से ऋकार के स्थान पर वृद्धि- आर् होकर म् आर् ग् य = मार्ग्य रूप बनता है। तब प्रतिपादिक संज्ञा होने पर प्रथमा के पुल्लिंग-एकवचन में रामः (पूर्वार्ध) की भांति मार्ग्यः रूप सिद्ध होता है।
[७|२|११५] अचो ञ्णिति "ञित्" और "णित्" प्रत्यय परे (बाद में) होने पर अजन्त अङ्ग की वृद्धि हो। | सखि + औ ==>सखै + औ ==>सखाय् + औ ==> सखायौ
[७|२|११६] अत उपधायाः - ञित् और णित् प्रत्यय परे होने पर उपधा के ह्रस्व अकार के स्थान पर वृद्धि आदेश। | जगद् अ में णित् प्रत्यय णल् ( अ) परे होने के कारण उपधा- गकारोत्तरवर्ती अकार को वृद्धि - अकार होकर जगाद रूप सिद्ध हुआ।
[७|२|११७] तद्धितेष्वचामादेः - ञित् और णित् तद्धित प्रत्यय परे होने पर अङ्ग के अचों (स्वर-वर्णो) मे से आदि अच् के स्थान में वृद्धि आदेश होता है। | पूर्वशाला अ में ञित् तद्धित प्रत्यय अ (ञ) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से आदि अच्-उकार के स्थान में वृद्धि- औकार होकर प् और्वशाला अ = पौर्वशाला अ रूप बनेगा। तब यस्येति च (६_४_१४८) से पौर्वशाला के आकार का लोप होकर पौर्वशाल् अ = पार्वशाल रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो पौर्वशालः रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - कषाय + अण् == काषाय + अ == काषाय् + अ == काषायः, दक्ष + इञ् == दाक्ष + इञ् == दाक्ष् + इ == दाक्षिः, पुष्य + अण् == पौष्य + अ == पौष्य् + अ == पौष्यः।
[७|२|११८] किति च - कित् तद्धित्-प्रत्यय (जिसका ककार इत्संज्ञक है) परे होने पर अचों के आदि अच् (स्वर-वर्ण) के स्थान में वृद्धि होती है। | बह् ईक् में बह् के पश्चात् तद्धित् प्रत्यय ईकक् (ईक) आया है। वह कित् भी है क्योंकि उसके अन्त्य ककार का इत् हो लोप हुआ है। अतः प्रकृत सूत्र से बह् के आदि अच्-बकारोत्तरवर्ती अकार के स्थान पर वृद्धि-आकार हो ब् आ ह् ईक् = बाहीक् रूप बनता है। अन्य उदाहरण - अक्ष + ठक् == अक्ष + इक == आक्ष् + इक == आक्षिकः।
[७|३|१] देविका-शिंशिपा-दित्यवाड्-दीर्घ-सत्र-श्रेयसामात् - तद्धितसंज्ञक ञित्, णित् तथा कित् प्रत्ययों के परे अङ्गसंज्ञक देविका, शिंशपा, दित्यवाह तथा श्रेयस् शब्दों के आदि अच् के स्थान में प्राप्त वृद्धि के बदले आकार आदेश। | देविका + अण् == दाविका + अण् == दाविकम्, शिंशपा + अण् == शांशपा + अण् == शांशपः। इसी प्रकार दात्यौहम्, दार्घसत्रम्, श्रायसम्।
[७|३|२] केकय-मित्रयु-प्रलयानां-यादेरियः - तद्धितसंज्ञक ञित्, णित् तथा कित् प्रत्ययों के परे केकय, मित्त्रयु तथा प्रलय शब्दों यकारादि अंश के स्थान में ` इयऄ आदेश। | केकय + अण् == कैक + इय + अ == कैक् + इय + अ == कैकेयः, मित्रयु + अण् == मैत्र + इय + अ == मैत्र् + इय + अ == मैत्रेयः, प्रलय + अण् == प्राल + इय + अ == प्राल् + इय + अ == प्रालेयः।
[७|३|३] न-य्वाभ्यां पदान्ताभ्यां पूर्वौ-तु ताभ्यामैच् - ञित्, णित् और कित् तद्धित प्रत्यय परे होने पर पदान्त यकार और वकार के पश्चात आदि-अच् को वृद्धि नही होती। | व्याकरण अ में यकार पदान्त है क्योंकि वह वि के इकार के स्थान पर हुआ है, अतः णित् प्रत्यय अण् ( अ) परे होने पर प्रकृत सूत्र से उसके परवर्ती आदि अच्-आकार को वृद्धि नहीं होती। अन्य उदाहरण - व्याकरण == व् ऐ याकरण + अ == वैयाकरणः।
[७|३|४] द्वारादीनां च द्वार आदि शब्दों के यकार तथा वकार के पहले आदि अच् के स्थान में तद्धितसंज्ञक ञित्, णित् तथा कित् प्रत्ययों के परे प्राप्त वृद्धि नहीं होती है किन्तु यकार से पूर्व ऐ तथा वकार से पूर्व औ का आगम। | द्वार + ठक् == दौवारिकः, स्वर + अण् == सौवरः, व्यल्कश + अण् == वैयल्कशः, स्वस्ति + ठक् == सौवस्तिकः, श्वस् + ठञ् == शौवस्तिकः, स्फ्यकृत + अण् == स्फैयकृतः
[७|३|५] न्यग्रोधस्य च केवलस्य - केवल न्यग्रोध शब्द के यकारोत्तर आदि अच् के स्थान में वृद्धि नहीं होती अपितु यकार से पूर्व ऐकार का आगम होता है। | न्यग्रोध + अण् == न्यग्रोध + अण् == नैयग्रोधः।
[७|३|६] न कर्म-व्यतिहारे - कर्म व्यतिहार (क्रिया-विनिमय) में उक्त (बुद्धि का) प्रतिषेध और आगम (ऐच् का) नहीं होता है। | व्यववर्त + इञ् == व्याववर्त + इ + ङीप् == व्याववर्ती, व्यवहास + इञ् == व्यावहास + इ + ङीप् == व्यावहासी, व्यवहार + इञ् == व्यावहार + इ + ङीप् == व्यावहारी।
[७|३|७] स्वागतादीनां च स्वागत आदि शब्दों के विषय में भी उक्त प्रतिषेध तथा आगम नहीं होते। | स्वागत + ठक् == स्वागत् + इक == स्वागतिकः, स्वाध्वर + ठक् == स्वाध्वर् + इक == स्वाध्वरिकः।
[७|३|८] श्वादेरिञि - श्व आदि में हो जिस अङ्गसंज्ञक के उसके विषय में तद्धित इण् प्रत्यय के परे उक्त प्रतिषेधादि नहीं होता। | श्वभस्त्रा + इञ् == श्वाभस्त्र् + इ == श्वाभस्त्रिः, श्वदंष्ट्रा + इञ् == श्वदंष्ट्र् + इ == श्वदंष्ट्रिः।
[७|३|९] पदान्तस्यान्यतरस्याम् - पूर्वसूत्रोक्त श्वादि अङ्ग यदि पदशब्दान्त हो तो उक्त प्रतिषेध विकल्प से होता है। | श्वपद + अण् == श्वापद् + अ == श्वापदम्, श्वपद + अण् == शौवापद् + अ == शौवापदम् ।
[७|३|१०] उत्तरपदस्य - हनस्तो चिण्णलोः सूत्रपर्यन्त उत्तरपदस्य का अधिकार है। | वक्ष्यति - (७_३_११) == पूर्ववार्षिकम्, अपरवार्षिकम्। पूर्वहैमनम्, अपरहैमनम्।
[७|३|११] अवयवादृतोः - अव्यववाचक शब्द से पहले ऋतुवाचक उत्तरपद के आदि अच् के स्थान में तद्धितसंज्ञक ञित्, णित् तथा कित् प्रत्ययों के परे वृद्धि हो जाती है। | पूर्वहिम + अण् == पूर्वहैम् + अ == पूर्वहैमः, पूर्ववृष + ठक् == पूर्ववार्ष् + इक == पूर्ववार्षिकम्, अपरहिम् + अण् == अपरहैम् + अ अपरहैमः।
[७|३|१२] सु-सर्वार्द्धाज्जनपदस्य - तद्धितसंज्ञक ञित्, णित् तथा कित् प्रत्ययों के परे सु सर्व तथा अर्द्ध शब्दों से पहले जनपदवाचक उत्तरपद के आदि अच् के स्थान में वृद्धि होती है। | सुपञ्चाल + वुञ् == सुंपाञ्चाल् + अक == सुपाञ्चालकः, सर्वपञ्चाल + वुञ् == सर्वपाञ्चाल् + अक == सर्वपाञ्चालकः, अर्धपञ्चाल + वुञ् == अर्धपाञ्चाल् + अक == अर्धपाञ्चालकः।
[७|३|१३] दिशोऽमद्राणाम् - तद्धितसंज्ञक ञित्, णित् तथा कित् प्रत्ययों के परे दिग्वाचक शब्दोत्तरवर्त्ती मद्रभिन्न जनपदवाचक उत्तरपद के आदि अच् के स्थान में वृद्धि होती है। | दक्षिणपञ्चाल + वुञ् == दक्षिणपाञ्चाल् + अक् == दक्षिणपाञ्चालकः, सुपञ्चाल + वुञ् == सुंपाञ्चाल् + अक == सुपाञ्चालकः, सर्वपञ्चाल + वुञ् == सर्वपाञ्चाल् + अक == सर्वपाञ्चालकः, अर्धपञ्चाल + वुञ् == अर्धपाञ्चाल् + अक == अर्धपाञ्चालकः।
[७|३|१४] प्राचां ग्राम-नगराणाम् - तद्धितसंज्ञक ञित्, णित् तथा कित् प्रत्ययों के परे दिग्वाचकशब्दपूर्वक प्राग्देशवर्त्ती ग्राम और नगर के वाचक उत्तरपदों के आदि अच् के स्थान में वृद्धि हो जाती है। | पूर्वकृष्णमृत्तिका + अण् == पूर्वकार्ष्णमृत्तिक् + अ == पूर्वकार्ष्णमृत्तिकः, पूर्वेषुकामशमी + अण् == पूर्वैषुकामशम् + अ == पूर्वैषुकामशमः। इसी प्रकार पूर्वपाटलिपुत्रकः, अपरपाटलिपुत्रकः, पूर्वकान्यकुब्जकः, अपरकान्यकुब्जकः।
[७|३|१५] संख्यायाःसंवत्सर-संख्यस्य च - तद्धितसंज्ञक ञित्, णित् तथा कित् प्रत्ययों के परे संख्यावाचक शब्द के आदि अच् के स्थान में वृद्धि हो जाती है। | द्विसंवत्सर + ठञ् == द्विसांवत्सर् + इक == द्विसांवत्सरिकः, द्विसप्तति + ठञ् == द्विसाप्तत् + इक == द्विसाप्ततिकः, द्विषष्टि + ठञ् == द्विषाष्ट् + इक == द्विषाष्टिकः।
[७|३|१६] वर्षस्याभविष्यति - ञित्, णित् तथा कित् तद्धिप्रत्यय यदि भविष्यतकाल के अर्थ में विहित न हो तो इनके परे संख्यावाचक शब्द से पहले उत्तरपदस्थानीय वर्ष शब्द के आदि अच् को वृद्धि हो जाती है। | द्विवर्ष + ठञ् == द्विवार्ष् + इक == द्विवार्षिकः, त्रिवर्ष + ठञ् == त्रिवार्ष् + इक == त्रिवार्षिकः।
[७|३|१७] परिमाणान्तस्यासंज्ञा-शाणयोः - तद्धितसंज्ञक परिमाणर्थक - ञित्, णित् तथा कित् प्रत्ययों के परे अङ्गसंज्ञक शब्द के उत्तरपद के आदि अच् के स्थान में, संख्यावाचक शब्द के पूर्वपदस्थानीय होने पर, वृद्धि हो जाती है यदि उक्त अङ्गसंज्ञक समुदाय संज्ञा अथवा उत्तरपद के स्थान में शोण शब्द हो तो यह कार्य नहीं होता है। | द्वौ कुडवौ प्रयोजनमस्य = द्विकौडविकः, द्वाभ्यां सुवर्णाभ्यां क्रीतम् = द्विसौवर्णिकम्, द्विनैष्किकम्।
[७|३|१८] जे प्रोष्ठपदानाम् - `जात ` ( उत्पन्न) अर्थ में विहित - ञित्, णित् तथा कित् तद्धित प्रत्ययों के परे प्रोष्ठपद शब्द के उत्तरपद के आदि अच् के स्थान में वृद्धि हो जाती है। | प्रोष्ठपद + अण् == प्रोष्ठपाद् + अ == प्रोष्ठपादः, भाद्रपद + अण् == भाद्रपाद् + अ == भाद्रपादः।
[७|३|१९] हृद्-भग-सिन्ध्वन्ते पूर्वपदस्य च - तद्धितसंज्ञक ञित्, णित् तथा कित् प्रत्ययों के परे हृत्-शब्दान्त भग-शब्दान्त तथा सिन्धु-शब्दान्त अङ्ग के उभयपद के आदि अच् के स्थान में वृद्धि हो जाती है। | सुहृद् + अण् == सौहार्द् + अ == सौहार्दम्, सुभग + ष्यञ् == सौभाग् + य == सौभाग्यम्, दुर्भगा + ष्यञ् == दुर्भाग् + अ == दौर्भाग्यम्, सक्तुसिन्धु + अण् == साक्तुसैन्धो + अ == साक्तुशैन्धवः।
[७|३|२०] अनुशतिकादीनां च - ञित्, णित् और कित् तद्धित प्रत्यय परे होने पर अनुशतिकादिगण में पठित शब्दों के पूर्वपद और उत्तरपद-दोनों के ही आदि अच् (स्वर-वर्ण) को वृद्धि होती है। | अधिदेव ठ में अधिदेव शब्द अनुशतिकादिगण का है, अतः ञित् प्रत्यय ठञ् (ठ) परे होने पर प्रकृत सूत्र से अधिदेव के पूर्वपद- अधि के आदि अच्- अकार और उत्तरपद- देव के आदि अच्- एकार को वृद्धि होकर आधिदैव ठ रूप बनता है। तब पूर्ववत् प्रत्यय के ठ के स्थान पर इक हो आधिदैव इक रूप बनने पर अन्त्य-लोप और विभक्ति-कार्य होकर प्रथमा के एकवचन में आधिभौतिकम् (देव में होने वाला) रूप सिद्ध होता है।
[७|३|२१] देवता-द्वन्द्वे च - तद्धितसंज्ञक ञित्, णित् तथा कित् प्रत्ययों के परे देवता द्वन्द्व समास में भी पूर्व तथा उत्तर पदों के आदि स्वरों के स्थान में वृद्धि हो जाती है। | अग्निमरुत् + अण् == आग्निमारुत् + अ == आग्निमारुतम्, अग्निवरुण + अण् == आग्निवारुण् + अ == आग्निवारुणम्
[७|३|२२] नेन्द्रस्य परस्य - देवताद्वन्द्व में उत्तरपदस्थानीय इन्द्र शब्द हो तो उत्तरपद - इन्द्र - के आदि अच् के स्थान में वृद्धि नहीं होती (केवल पूर्वपद के आदि अच् की ही वृद्धि होती है)। | सोमेन्द्र + अण् == सौमेन्द्र + अ == सौमेन्द्रः, अग्नि + अण् == आग्नेन्द्र + अ == आग्नेन्द्रः।
[७|३|२३] दीर्घाच्च वरुणस्य - देवताद्वन्द्व में यदि दीर्घ से पहले वरुणशब्द उत्तरपदस्थानीय हो तो भी उत्तरपद वरुण के आदि अच् को वृद्धि नहीं होती। | मित्रावरुण + अण् == मैत्रावरुण् + अ == मैत्रावरुणम्, इन्द्रावरुण + अण् == ऐन्द्रावरुण् + अ == ऐन्द्रावरुणम्।
[७|३|२४] प्राचां नगरान्ते - तद्धितसंज्ञक ञित्, णित् तथा कित् प्रत्ययों के परे अङ्गसंज्ञक प्राग्देशस्थित नगर शब्दान्त समुदाय के उभय - पूर्व तथा उत्तर पदों के आदि स्वरों के स्थान में वृद्धि हो जाती है। | सुह्मनगर + अण् == सौह्मनागरः, पुण्ड्रनगर + अण् == पौण्ड्रनागरः।
[७|३|२५] जङ्गल-धेनु-वलजान्तस्य विभाषित-मुत्तरम् - तद्धितसंज्ञक ञित्, णित् तथा कित् प्रत्ययों के परे ( अङ्गसंज्ञक) अर्द्धशब्दपूर्वक परिमाणवाचक उत्तरपद के आदि अच् के स्थान में और विकल्प से पूर्वपद के आदि अच् के स्थान में भी वृद्धि होती है। | कुरुजङ्गल + अण् == कौरुजङ्गल + अ == कौरुजङ्गलम्, विश्वधेनु + अण् == वैश्वधेनो + अ == वैश्वधेनवम्, सुवर्णवलज + अण् == सुवर्णवलज् + अ == सौवर्णवलजः।
[७|३|२६] अर्धात्-परिमाणस्य पूर्वस्य तु वा - तद्धितसंज्ञक ञित्, णित् तथा कित् प्रत्ययों के परे ( अङ्गसंज्ञक) अर्द्धशब्दपूर्वक परिमाणवाचक उत्तरपद के आदि अच् के स्थान में और विकल्प से पूर्वपद के आदि अच् के स्थान में भी वृद्धि होती है। | अर्धद्रोण + ठक् == अर्धद्रौण् + इक == अर्धद्रौणिकः, अर्धकुडव + ठक् == अर्धकौडव् + इक == अर्धकौडविकः
[७|३|२७] नातः परस्य - तद्धितसंज्ञक ञित्, णित् तथा कित् प्रत्ययों के परे अर्द्धशब्दपूर्वक परिमाणवाचक उत्तरपद के आदि अच् के रूप में ह्रस्व अकार हो तो वृद्धि नहीं होती है, पूर्वपद के आदि स्वर के स्थान में विकल्प से वृद्धि भी हो जाती है। | अर्धप्रस्थ + ठक् == अर्धप्रस्थ् + इक (आर्धप्रस्थ् + इक) == अर्धप्रस्थिकः (आर्धप्रस्थिकः), अर्धकंस + ठक् == अर्धकंस् + इक (आर्धकंस + इक == अर्धकंसिकः (आर्धकंसिकः)
[७|३|२८] प्रवाहणस्य ढे - तद्धितसंज्ञक ण प्रत्यय के परे प्रवाहण शब्द के उत्तर्पद - वाहन के आदि अच् के स्थान में और विकल्प से पूर्वपद के आदि अच् के स्थान में भी वृद्धि हो जाती है। | प्रवाहण + ढक् == प्रवाहण् + एय (प्रावाहण् + एय) == प्रवाहणेयः (प्रवाहणेयः)
[७|३|२९] तत्प्रत्ययस्य च - ढक् प्रत्ययान्त प्रवाहण (प्रवाहणेय) शब्द के उत्तरपद के आदि अच् के स्थान में विकल्प से पूर्वपद के आदि अच् के स्थान में भी, तद्धित प्रत्ययों के परे वृद्धि हो जाती है। | प्रवाहणेय + इञ् == प्रवाहणेय् + इ (प्रावाहणेय् + इ) == प्रवाहणेयिः (प्रावाहणेयिः)
[७|३|३०] नञः शुचीश्वर-क्षेत्रज्ञ-कुशल-निपुणानाम् - तद्धितसंज्ञक ञित्, णित् तथा कित् प्रत्ययों के परे नञ् से परे शुचि, ईश्वर, क्षेत्रज्ञ, कुशल तथा निपुण शब्दों के आदि स्वरों के स्थान में और विकल्प से पूर्वपद नञ् के स्थान में भी वृद्धि हो जाती है। | अशुचि + अण् == आशौच् + अ (अशौच् + अ) == आशौचः(अशौचः), अनीश्वर + ष्यञ् == आनौश्वर् + य (अनौश्वर् + य) == आनैश्वर्यम् (अनैश्वर्यम्)।
[७|३|३१] यथातथ-यथापुरयोः पर्यायेण - तद्धितसंज्ञक ञित्, णित् तथा कित् प्रत्ययों के परे नञ्पूर्वकपद यथा तथा यथापुर शब्दों के पूर्वपद अथवा उत्तरपद के आदि अच् के स्थान में वृद्धि होती है। | अयथातथ + ष्यञ् == आयथातथ् + य (अयथातथ् + य) == आयथातथ्यम् (अयाथातथ्यम्), अयथापुर + ष्यञ् == आयथापुर् + य (अयाथापुर् + य) == आयथापुर्यम् (अयाथापुर्यम्)
[७|३|३२] हनस्तोऽचिण्-ण्लोः - ञित्, चिण् तथा णल् से भिन्न णित् प्रत्ययों के परे `हन् ` धातु के ( न के) स्थान में तकारादेश। | घन् + अक == घत् + अक == घात् + अक == घातकः।
[७|३|३३] आतो युक् चिण्-कृतोः - अकारान्त अङ्ग को चिण् तथा ञित् अथवा णित् कृत प्रत्ययों के परे युँक् का आगम। | धा + ण्वुल् == धा + युक् + अक == धायकः, प + ण्वुल् == पा + युक् + अक == पायकः। इसी प्रकार गायकः, धायकः।
[७|३|३४] नोदात्तोपदेशस्य मान्तस्यानाचमेः - आ + चम् धातु से भिन्न उदात्तोपदेश मकारान्त धातुओं को चिण् और ञित् अथवा णित् कृत् प्रत्ययों के परे प्राप्त उपधावृद्धि नहीं होती है। | रम् + ण्वुल् == राम् + अक == रामकः, यम् + ण्वुल् == याम् + अक == यामकः।
[७|३|३५] जनि-वध्योश्च - चिण्, ञित्, णित् और कृत् प्रत्यय परे होने पर भी जन् और वध् (भ्वादि०, मार डालना) - इन दो धातुओं की उपधा- अकार के स्थान पर वृद्धि नही होती। | अजन् इ में णित् चिण् (इ) परे होने पर भी प्रकृत सूत्र से जन् की उपधा- अकार की वृद्धि नही होती और इस प्रकार अजनि रूप सिद्ध होता है। चिण् के अभाव में सिच् और इडागम आदि होकर अजनिष्ट रूप सिद्ध होता है।
[७|३|३६] अर्ति-ह्री-व्ली-री-क्नूयी-क्ष्मा-य्यातां पुङ्णौ - णि (णिङ्, णिच्) परे होने पर ऋ (जाना, पाना), ह्री (लजाना), ब्ली, री (जाना, भेड़िये का गुर्राना), क्नूयी (आर्द्र होना, शब्द करना), क्ष्मयी (हिलना, कांपना) और अकारान्त धातुओं को "पुक्" का आगम होता है। | स्था (ष्ठा) धातु से प्रेरणार्थ में णिच् प्रत्यय होकर स्था इ रूप बनता है स्था धातु अकारान्त है, अतः णि (इ) परे होने ए कारण प्रकृत सूत्र से स्था के अन्त्य अकार के बाद पुक् (प्) होकर स्थाप् इ = स्थापि रूप बनता है। तब लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में स्थापि से तिप्, शप्, गुण और अयादेश आदि होकर स्थापयति रूप सिद्ध होता है।
[७|३|३७] शा-च्छा-सा-ह्वा-व्या-वे-पां युक् - णि के परे ऋ, ह्री, ब्ली, री, क्नूयी, क्ष्मायी और अकारान्त अङ्गो को पुँक् का आगम। | निशाययति। अवच्छाययति। अवसाययति। ह्वाययति। संव्याययति। वाययति। पाययति।
[७|३|३८] वो विधूनने जुक् विधूनन (कम्पन या हवा झलना) अर्थ वाले अङ्गसंज्ञक "वा" धातु को णि के परे जुँक् (ज्) को आगम। | पक्षेणोपवाजयति।
[७|३|३९] ली लोर्नुग्लुका-वन्यतरस्यां स्नेह-विपातने - स्नेह विपातन (चुआना) अर्थ में णि के परे अङ्गसंज्ञक `ली ` तथा `ला` को क्रमशः विकल्प से नुक् (न) तथा लुक् (ल) का आगम। | ला + लुक् + णिच् == लालि == लालयति।
[७|३|४०] भियो हेतुभये षुक् - प्रयोजक से भय होने पर णि के परे अङ्गसंज्ञक `भी ` को षुँक् (ष) का आगम। | भी + णिच् + षुक् == भीषि == भीषयिष्यते।
[७|३|४१] स्फायो वः - णि के परे अङ्गसंज्ञक `स्फाय् ` धातु को वकार अन्तादेश। | स्फाय् + णिच् == स्फावि == स्फावयति ।
[७|३|४२] शदेरगतौ तः - णि के परे अङ्गसंज्ञक `धद् ` को गतिभिन्न अर्थ में तकार अन्तादेश। | शद् + णिच् == शस्ति == शातयति।
[७|३|४३] रूहः पोऽन्यतरस्याम् - णि के परे अङ्गसंज्ञक `रुहऄ का विकल्प से पकार अन्तादेश। | रुह् + णिच् == रोहि == रोहियति।
[७|३|४४] प्रत्ययस्थात् कात् पूर्वस्यात इदाप्यसुपः - आप् परे होने पर प्रत्यय में स्थित ककार से पूर्व अकार के स्थान पर इकार होता है। | `गोपालका` में `गोपालकऄ शब्द का ककार `कन् ` प्रत्यय का है और उसके पूर्व अकार भी आया है। अतः ` टाप् ` प्रत्यय परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से अकार को इकार हो गोपाल् + इ का ==> गोपालिका रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - जटिला + क + टाप् == जटिलिका, मुण्डा + क + टाप् == मुण्डिका।
[७|३|४५] न या-सयोः - प्रत्ययस्थ ककार के पहले होने पर `भी ` , `या` तथा `सा` (यत्, तत्) के अकार के स्थान में इकारादेश नहीं होता। | या + कन् + टाप् == यका, सा + कन् + टाप् == सका
[७|३|४६] उदीचामातः स्थाने य-क पूर्वायाः - उदीच्य आचार्यों के मत में यकारपूर्वक तथा ककारपूर्वक अकारस्थानीय अत् के स्थान में (विकल्प से) इत्वादेश। | इभ्या + क + टाप् == इभ्यका, इभ्यिका (इकारादेश न होने पर)।
[७|३|४७] भस्त्रैषाजाज्ञाद्वास्वानञ्पूर्वाणामपि - नञ्पूर्वक, अन्यपूर्वक अथवा अपूर्वक (केवल) भस्त्रा, एषा, अजा, ज्ञा, द्वा तथा स्वा शब्दों के आकारस्थानिक अत् के स्थान में उदीच्य आचार्यों के मतानुसार इत्व नहीं होता है। | भस्त्रका भस्त्रिका । निहस्त्रका निभस्त्रिका, अभस्त्रका अभस्त्रिका
[७|३|४८] अभाषितपुंस्काच्च अभाषितपुस्क (जिसका पुल्लिङ्ग में प्रयोग कभी नहीं होता है) से विहित आत् स्थानिक अत् के स्थान में भी उदीच्य आचार्यों के मतानुसार इत्व नहीं होता। | खट्वका, खट्विका। अखट्वका, अखट्विका। परमखट्वका, परमखट्विका
[७|३|४९] आदाचार्याणाम् - अभाषितपुंस्क शब्दों से विहित आत् के स्थान में आदिष्ट अत् को आचार्यों के मतानुसार अकारादेश। | गङ्गाका, गङ्गिका। खट्वाका, अखट्वाका, परमखट्वाका।
[७|३|५०] ठस्येकः - अङ्ग से परे ठ के स्थान पर अदन्त इक् आदेश होता है। | रेवती ठ में अङ्ग रेवती के परवर्ती ठ को प्रकृत सूत्र से इक हो रेवती इक रूप बनता है। तब अजादि-वृद्धि और अन्त्य ईकार का लोप हो प्रथमा के एकवचन में रैवतिकः रूप सिद्ध होता है।
[७|३|५१] इसुसुक्तान्तात्कः - इसन्त (जिसके अन्त में इस हो), उसन्त (जिसए अन्त में उस हो), उगन्त (जिसके अन्त में उक् हो) और तकारान्त अङ्ग के पश्चात ठ के स्थान पर क हो सक्तु क रूप बनता है। | सक्तु ठ में उगन्त अङ्ग सक्तु के पश्चात् ठ के स्थान पर क हो सक्तु क रूप बनता है। तब अजादि-वृद्धि और विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में साक्तुकम् रूप सिद्ध होता है।
[७|३|५२] चजोःकुघिण्ण्यतोः - घित् या ण्यत् परे होने पर (चजोः) चकार और जकार के स्थान में (कु) कवर्ग आदेश होता है। | मृज् य में एयत् (य) परे होने के कारण मृज् के जकार के स्थान पर गकार होकर मृग् य रूप बनता है।
[७|३|५३] न्यङ्क्वादीनां च - न्यङ्कु आदि शब्दों की सिद्धि के लिए भी कवर्गादेश। | उद् + उञ्च् + घञ् + उदङ्क्, मिह् + घञ् == मेघः, अव + उन्द् + घञ् == आवेदः, अर्ह + घञ् == अर्धः।
[७|३|५४] हो हन्तेर्ञ्णिन्नेषु - ञित्, णित् प्रत्यय अथवा नकार परे होने पर अङ्गसंज्ञक हन् धातु हकार के स्थान पर कवर्ग होता है। | हन् + अन्ति == ह्न् + अन्ति == घ्न् + अन्ति == घ्नन्ति।
[७|३|५५] अभ्यासाच्च - अभ्यास से परे हन् धातु के हकार के स्थान में कवर्ग आदेश। | हन् धातु से लिट् लकार में मध्यमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में सिप्, पुनः सिप् के स्थान पर थल् और भारद्वाज नियम से विकल्प से इट् आदि होकर ज् हन् इ थ रूप बनता है। इस स्थिति में प्रकृत सूत्र से अभ्यास ज् से परे होने के कारण हन् के हकार को घकार होकर ज् घ् अ न् इ थ ==> जघनिथ रूप सिद्ध होता है। इडाभाव में जघन्थ रूप बनता है।
[७|३|५६] हेरचङि - अभ्यासोत्तरवर्त्ती `हॎ धातु के हकार के स्थान में कवर्गादेश, किन्तु यह आदेश चङ् के परे नहीं होता। | प्रजिघीषति, प्रजेघीयते, प्रजिघाय।
[७|३|५७] सन्लिटोर्जेः - सन् तथा लिट् प्रत्ययों के परे अङ्गसंज्ञक `जॎ धातु के अभ्यास के परे जकार के स्थान में कवर्गादेश। | जिगीषति, जिगाय
[७|३|५८] विभाषा चेः - सन् और लिट् परे होने पर अभ्यास के बाद चि के चकार के स्थान पर विकल्प से कुत्व-ककार आदेश। | चिचीषति, चिकीषति। लिटि - चिचाय चिकाय।
[७|३|५९] न क्वादेः - कवर्गादि धातु के चकार तथा जकार के स्थान में कवर्गादेश नहीं होता। | कूजो वर्त्तते, खर्जः, गर्जः। कूज्यं भवता, खर्ज्यं, गर्ज्यं भवता।
[७|३|६०] अजिव्रज्योश्च - ` अजॎ तथा `व्रजॎ धातुओं के जकार के स्थान में कवर्गादेश नहीं होता। | समाजः, उदाजः। व्रजि - परिव्राजः। परिव्राज्यम्।
[७|३|६१] भुजन्युब्जौ पाण्युपतापयोः - हस्त तथा उपताप (रोग) अर्थों में क्रमशः भुज तथा न्युब्ज शब्दों का निपातन। | भुज् + घञ् == भुजः, भुज् + घञ् == भोगः (हाथ या भुजा अर्थ ना होने पर।
[७|३|६२] प्रयाजानुयाजौ यज्ञाङ्गे - यज्ञ के अङ्ग के अर्थ में प्रयाज तथा अनुयाज शब्दों का निपातन। | पञ्च प्रयाजाः। त्रयोऽनुयाजाः। त्वमग्ने प्रयाजानां पश्चात् त्वं पुरस्तात्।
[७|३|६३] वञ्चेर्गतौ - अङ्गसंज्ञक गत्यर्थक `वञ्च् ` धातु के चकार के स्थान में ककारादेश नहीं होता। | वञ्चं वञ्चन्ति, वाणिजाः।
[७|३|६४] ओक उचः के - क प्रत्यय के परे ` उच् `धातु के ओक् शब्द का निपातन। | न्योकः शकुन्तः, न्योको गृहम्।
[७|३|६५] ण्य आवश्यके - अवश्यकाकर्थ ण्य प्रत्यय के परे कवर्गादेश नहीं होता। | अवश्यपाच्यम्, अवश्यवाच्यम्, अवश्यरेच्यम्।
[७|३|६६] यजयाचरुचप्रवचर्चश्च - `यजऄ, `याच् `, `रुच् `, प्र + `वचऄ तथा ` ऋच् ` धातुओं के चकार के स्थान में भी ण्य प्रत्यय के परे कवर्गादेश नहीं होता। | याज्यम्, याच्यम्, रोच्यम्, प्रवाच्यम्, अर्च्यम्।
[७|३|६७] वचोऽशब्दसंज्ञायाम् - प्रत्ययान्त के शब्दसंज्ञा न होने पर ण्यत् के परे `वच् ` के चकार के स्थान में भी ककारादेश नहीं होता। | वाच्यमाह, अवाच्यमाह।
[७|३|६८] प्रयोज्यनियोज्यौ शक्यार्थे - शक्यार्थक ण्यत् प्रत्यय के परे प्र + `युज् ` तथा नि + `युज् ` के जकार को कवर्गादेश नहीं होता। | शक्यः प्रयोक्तुं = प्रयोज्यः। शक्यो नियोक्तुं = नियोज्यः।
[७|३|६९] भोज्यं भक्ष्ये - भक्ष्य अर्थ में भुज के जकार के स्थान में कवर्गादेश नही होता है। | भुज् धातु से भक्षण करने योग्य अर्थ में ऋहलोर्ण्यत (३_१_१२४) से ण्यत् (य) होकर भुज् य रूप बनने पर पुगन्तलधूपधस्य (७_३_८६) से उकार को गुण-ओकार होकर भ ओ ज् य= भोज् य् रूप बनेगा। इस स्थिति में चजोःकुघिण्यतोः (७_३_५२) से जकार के स्थान पर गकार प्राप्त होता है, किन्तु यहाँ भक्षण करने योग्य अर्थ होने के कारण प्रकृत सूत्र से इसका निषेध हो जाता है। तब प्रतिपपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के नपुंसकलिङ्ग-एक्वचन में ज्ञानम् (पूर्वार्ध) की भाँति भोज्यम् रूप सिद्ध होता है।
[७|३|७०] घोर्लोपो लेटि वा - लेट् लकार के परे घुसंज्ञक धातुओं का विकल्प से ( अन्त्य) लोप। | दधद् रत्नानि दाशुषे। सोमो ददद् गन्धर्वाय। न च भवति - यद्ग्निरग्नये ददात्।
[७|३|७१] ओतः श्यनि - श्यन् परे होने पर ओकार का लोप। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में शो (पतला करना, कम करना) धातु से तिप् और श्यन् होकर शो य् ति रूप बनता है। यहाँ श्यन् (य) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से शकारोत्तरवर्ती ओकार का लोप होकर श् + य् + ति ==> श्यति रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - छो + श्यन् == छ् + य == छ्य, शो + श्यन् == श् + य् == श्य।
[७|३|७२] क्सस्याचि - अजादि प्रत्यय (जिसके आदि में कोई स्वर-वर्ण हो) परे होने पर क्स का लोप हो जाता है। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में दुह् धातु से आत्मनेपद प्रत्यय अताम् रूप बनता है।यहाँ आतो ङितः (७_२_८१) से आताम् के आकार के स्थान पर इय् प्राप्त होता है।किन्तु अजादि प्रत्यय आताम् परे होने के कारण स (क्स) के अकार का लोप हो जाता है।
[७|३|७३] लुग्वा दुहदिहलिहगुहामात्मनेपदेदन्त्ये - त, थास् और ध्वम् (कभी-कभी वहि भी) परे होने पर दुह् (दोहना), दिह् (बढ़ना, लीपना), लिह् (चाटना) और गुह् (छिपना) के क्स का विकल्प से लोप हो जाता है। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में दुह् धातु से आत्मनेपद त प्रत्यय, च्लि और पुनः उसके स्थान पर क्स होकर दुह् स त रूप बनता है। यहाँ आत्मनेपद त प्रत्यय होने के कारण प्रकृत सूत्र से क्स (स) का विकल्प से लोप होकर दुह् त रूप बनेगा। इस स्थिति में घत्व, गत्व और धत्व आदि होकर अदुग्ध रूप सिद्ध होता है। अभावपक्ष में अधुक्षत रूप बनता है।
[७|३|७४] शमामष्टानां दीर्घः श्यनि - श्यन् के परे `शम् ` आदि (शम्, तम्, दम्, श्रम्, भ्रम्, क्षम्, क्लम्, मद्) आठ धातुओं को दीर्घ हो जाता है। | क्लम् + श्यन् ==> क्लाम्य, भ्रम् + श्यन् ==> भ्राम्य, क्षम् + श्यन् ==> क्षाम्य, श्रम् + श्यन् ==> श्राम्य
[७|३|७५] ष्ठिवुक्लमुचमां शिति - शित् प्रत्यय परे होने पर ष्ठिव्, क्लम्, व चम् धातुओं के स्थान पर दीर्घादेश। | ष्ठिव् + शप् ==> ष्ठीव, क्लम् + शप् ==> क्लाम, क्लम् + श्यन् ==> क्लाम्य, आ + चम् + शप् ==> आचाम।
[७|३|७६] क्रमः परस्मैपदेषु - परस्मैपद शित् प्रत्यय परे होने पर क्रम् धातु के स्थान पर दीर्घ होता है। | क्रम् य् ति में शित् प्रत्यय श्यन् परे होने से क्रम् के अकार को दीर्घ अकार होकर "क्राम्यति" रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार क्रम् अ ति में शित् शप् परे होने के कारण क्रम् के अकार को दीर्घ होकर "क्रामति" रूप सिद्ध हुआ। अन्य उदाहरण - क्रम् + शप् == क्राम् / क्राम + शतृ == कामन्, क्रम + श्यन् == क्राम्य /क्राम्य + शतृ == क्राम्यन्।
[७|३|७७] इषुगमियमां छः - शित् प्रत्यय परे होने पर इष्, गम् और यम् के स्थान पर छकार होता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष एकवचन में गम् धातु से तिप् और शप् होकर गम् अ ति रूप बनता है। यहाँ शित् प्रत्यय शप् परे होने से गम् के मकार को छकार को छकार होकर ग छ् अ ति रूप बनेगा। इस स्थिति में तुक् और श्चुत्व करने पर गच्छति रूप सिद्ध होता है।
[७|३|७८] पाघ्राध्मास्थाम्नादाण्दृश्यर्तिसर्ति-शदसदां पिबजिघ्रधमतिष्ठमन-यच्छपश्यर्च्छधौशीयसीदाः शित् प्रत्यय परे रहते पा, घ्रा, ध्मा, स्था, म्ना, दाण्, दृशि, ऋ ( अति), सृ, शद् तथा सद् धातुओं के स्थान में क्रमशः पिव, जिघ्र, धम, तिष्ठ, मन, यच्छ, पश्य, ऋच्छ, धौ, शीय तथा सीद आदि हो जाते हैं | पा + शप् == पिब / पिब + शतृ == पिबन्, घ्रा + शप् == जिघ्र / जिघ्र + शतृ == जिघ्रन्, ध्मा + शप् == धम / धम + शतृ == धमन। इसी प्रकार तिष्ठ / तिष्ठ, मन / मनन्, यच्छ / यच्छन्, पश्य / पश्यन्, ऋच्छ / ऋच्छन्, धाव / धावन्, सीद / सीदन्, शीय / शीयमानः।
[७|३|७९] ज्ञाजनोर्जा - शित् (जिसका शकार इत्संज्ञक हो) परे होने पर ज्ञा (क्रयादि०, जानना) और जन् (दिवादि०, उत्पन्न होना)- इन दो धातुओं के स्थान में जा आदेश होता है। | लिट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में जन् धातु से आत्मनेपद त प्रत्यय, उसके स्थान पर एत्व तथा श्यन् होकर जन् य त् ए रूप बनता है। यहाँ शित् प्रत्यय श्यन् (य) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से जन् के स्थान पर जा होकर जा य त् ए == जायते रूप सिद्ध होता है।
[७|३|८०] प्वादीनां ह्रस्वः शित् प्रत्यय परे रहते पू (पूञ्) आदि चौबीस धातुओं के स्थान पर ह्रस्व आदेश। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में पू (पूञ्) धातु से तिप् और श्ना प्रत्यय होकर पू ना ति रूप बनता है। यहाँ श्ना (ना) प्रत्यय शित् है क्योंकि उसके शकार का इत् होकर लोप हुआ है। अतः उसके परे होने पर प्रकृत सूत्र से पू के अन्त्य वर्ण दीर्घ ऊकार के स्थान पर ह्रस्व उकार होकर प् उ ना ति ==> पुनाति रूप सिद्ध होता है।
[७|३|८१] मीनातेर्निगमे - निगम विषय प्रयोग में शित् प्रत्यय के परे अङ्गसंज्ञक `भी ` धातु को ह्रस्व हो जाता है। | प्रमिणन्ति, व्रतानि
[७|३|८२] मिदेर्गुणः - शित् प्रत्यय के परे अङ्गसंज्ञक `मिद् ` धातु के इक् के स्थान में गुण हो जाता है। | मिद् + श्यन् == मेद् + य == मेद्य / मेद्य + शतृ == मेद्यन्।
[७|३|८३] जुसि च - अजादि जुस् (जिसके आदि में कोई स्वर-वर्ण हो) परे होने पर इगन्त अङ्ग (जिसके आदि में इ, उ, ऋ या ऌ हो) के स्थान पर गुण आदेश। | लङ् लकार के प्रथमपुरुष-बहुवचन में हु धातु से झि, पुनः उसके स्थान पर जुस् (उस्) शप्-श्लि और द्वित्व आदि होकर जु हु + उस् रूप बनता है। इस स्थिति में यण प्राप्त होता है, किन्तु अजादि जस् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से उसका बाध हो जाता है।
[७|३|८४] सार्वधातुकार्धधातुकयोः - "कित्", "ङित्", "ञित्", "णित्" भिन्न सार्वधातुक और आर्धधातुक के परे होने पर इक् (इ, उ, ऋ, ऌ) अन्तवाले अंग के स्थान पर गुण आदेश। इ/ई = ए, उ/ऊ =ओ, ऋ/ॠ =अर् । | भू अ ति में ऊकारान्त भू इगन्त है और उससे परे सार्वधातुक ति है। अतः प्रकृतसूत्र से अन्त्य ऊकार के स्थान पर गुण-ओकार होकर भू ओ अ ति रूप बनता है। इसी प्रकार जि + शप् == जे + अ, हृ + शप् == हर् + अ आदि। जि +अ = जे + अ, नी + अ = ने + अ आदि।
[७|३|८५] जाग्रोऽविचिण्णल्ङित्सु - वि (क्किन्), चिण्, णल् तथा ङित् प्रत्ययों से भिन्न प्रत्ययों के परे `जागृ` धातु के इक् को गुण हो जाता है। | जागृ + णिच् == जागर् + इ == जागरि == जागरयिष्यति।
[७|३|८६] पुगन्तलघूपधस्य च - सार्वधातुक और आर्धधातुक परे होने पर पुगन्त (जिसके अन्त में पुँक् आगम् हो) और लधूपध (जिसकी उपधा लघु हो) अङ्ग के इक् (इ, उ, ऋ और ऌ) के स्थान में गुण आदेश। | सिध् धातु से लट् लकार के प्रथम-एकवचन में तिप् तथा शप् होकर सिध् अ ति रूप बनता है। यहाँ सिध् अंग की उपधा-इकार लघु है, अतः प्रकृत सूत्र से उसके स्थान पर गुण एकार होकर सेधति रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार चित् + शप् == चेत; मुध + शप् == मोध; वृष् + शप् == वर्ष आदि ।
[७|३|८७] नाभ्यस्तस्याचि पिति सार्वधातुके - तिप्, सिप् या मिप् परे होने पर अभ्यस्त की लघु उपधा के स्थान पर गुण नही होता। | लोट् लकार के उत्तमपुरुष-एकवचन में णिज् (निज्) धातु से मिप्, मि के स्थान पर नि शप्-श्लु, द्वित्व का अडागम् आदि होकर नेनिज् आनि रूप बनता है।यहाँ पुगन्तलपूपधस्य च (७_३_८६) से निज् की लघु उपधा-इकार के स्थान पर गुण एकार प्राप्त होता है, किन्तु मिप् के परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से उसका निषेध हो जाता है और नेनिजानि रूप बनता है।
[७|३|८८] भूसुवोस्तिङि - सार्वधातुक तिङ् परे होने पर भू और सू धातुओं के स्थान पर गुण नही होता। | अभूत में सार्वधातुक त् परे होने पर७_३_८४से गुण प्राप्त नही होता, किन्तु भू धातु से सार्वधातुक तिङ् परे होने के कारण उसका निषेध हो जात है।तब अभूत् रूप बनता है।
[७|३|८९] उतो वृद्धिर्लुकि हलि - लुङ् के विषय में हलादि पित् सार्वधातुक तिप्, सिप् और मिप्- के परे होने पर अङ्ग के उकार के स्थान पर वृद्धि आदेश होता है।किन्तु अभ्यस्त अङ्ग के उकार के स्थान पर वृद्धि नही होता। | यु धातु से लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा मे तिप् और शप् लुक् होकर यु ति रूप बनता है।यहाँ लुक् विषय में पित् सार्वधातुक-तिप् (ति परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से यु के उकार के स्थान पर वृद्धि-औकार होकर य् औ ति==> यौति रूप सिद्ध होता है।
[७|३|९०] ऊर्णोते र्विभाषा - हलादि पित् सार्वधातुक (तिप्, सिप्, मिप्) परे होने पर ऊर्णु (ढकना) धातु के स्थान पर वृद्धि आदेश। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में ऊर्णु धातु से तिप् और शप्-लुक् होकर ऊर्ण ति रूप बनता है। यहाँ हलादि पित् सार्वधातुक-तिप् (ति) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से ऊर्णु के णकारोत्तरवर्ती उकार के स्थान पर वृद्धि-औकार होकर ऊण् औ ति ==> ऊर्णौति रूप सिद्ध होता है। अभाव पक्ष में ऊर्णाति रूप बनता है।
[७|३|९१] गुणोऽपृक्ते - अप्रकृत हलादि पित् सार्वधातुक परे होने पर ऊर्णु धातु के स्थान पर गुण- ओकार आदेश। | लङ् लकार के प्रथमपुरुष एकवचन में ऊर्णु धातु से तिप्, शप्-लुक्, आडागम् और इकार-लोप होकर आ ऊर्णु त् रूप बनता है। यहाँ हलादि अपृक्त पित् सार्वधातुक त् (तिप्) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से ऊर्णु के उकार के स्थान पर ओकार हो जाता है और आ ऊ र्ण् ओ त् रूप बनता है। इस स्थिति में वृद्धि होकर औणात् रूप सिद्ध होता है।
[७|३|९२] तृणह इम् - हलादि पित् सार्वधातुक प्रत्ययों के परे अङ्गसंज्ञक `तृणहऄ शब्द को इम् का आगम। | तृण + इम् + ह् / तृण + इ + ह् / आद्गुणः से गुण करके तृणेह।
[७|३|९३] ब्रुव ईट् - ब्रू धातु के पश्चात् हलादि पित् सार्वधातुक (तिप्, सिप् और मिप्) को ईट् आगम् होता है। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में ब्रू धातु से तिप् और शप्-लुक् होकर ब्रू ति (तिप्) रूप बनता है।यहाँ आहादेशाभाव-पक्ष में प्रकृत सूत्र से हलादि पित् सार्वधातुक-तिप् को ईट् (ई) आगम होकर ब्रू ई ति रूप बनेगा। इस स्थिति में गुणादेश और उवङ्-आदि होकर बेअवीति रूप सिद्ध होता है।
[७|३|९४] यङो वा - यङ् के पश्चात हलादि पित् सार्वधातुक (तिप्, सिप्, शप्) विकल्प से ईट् होता है। | बोभूति में प्रत्ययलक्षण परिभाषा ये यङ् के बाद हलादि पित् सार्वधातुक तिप् (ति) आया है। अतः प्रकृत सूत्र से तिप् (ति) को ईट् होकर बो भू ई ति रूप बनता है। इस स्थिति में बोभू के ऊकार के स्थान पर गुण-ओकार तथा पुनः उसके स्थान पर अव् आदेश होकर बो भ अव ई ति = बोभवीति रूप सिद्ध होता है।
[७|३|९५] तुरुस्तुशम्यमः सार्वधातुके - `तु`, `रु`, `स्तु`, `शमऄ तथा ` अमऄ धातुओं से परे हलादि पित् सार्वधातुक को विकल्प से ईट् का आगम। | अम् + ईट् + ति == अम् + ईति == अमीति ।
[७|३|९६] अस्तिसिचोऽपृक्ते - सिच् और अस् धातु परे होने पर अपृक्त हल् का अवयव ईट् होता है। ईट् में टकार इतसंज्ञक है, अतः टित् होने के कारण यह अपृक्त हल् का आदि अवयव बनता है। | लुङ् में प्रथम-एकवचन में सिच् और इट्-आगम होकर अत् धातु का आत् इ स् त् रूप बनता है। यहाँ सिच् से परे अपृक्त हल्-तिप् के तकार को ईट् आगम् होकर आत् इ स् ईत् रूप बनता है।
[७|३|९७] बहुलं छन्दसि - उपर्युक्त ईडागम छन्दोविषय में बाहुल्येन होता है। | आप एवेदं सलिलं सर्वमाः। बहुलग्रहणात् भवति च - अहरेवासीन्न रात्रिः। सिचः - गोभिरक्षाः, प्रत्यञ्चमत्सा। भवति च अभैषीर्मा पुत्रक।
[७|३|९८] रुदश्च पञ्चभ्यः - `रुद् ` आदि पाँच धातुओं से पहले अपृक्तसंज्ञक हलादि सार्वधातुक प्रत्ययों को ईट् का आगम। | अरोद् + त् == अरोद् + ई + त् == अरोदीत्, अरोद् + स् == अरोदीः।
[७|३|९९] अङ्गा र्ग्यगालवयोः - गार्ग्य तथा गालव आचार्यों के मतानुसार `रुद् ` आदि पाँच धातुओं से पहले अपृक्तसंज्ञक हलादि सार्वधातुक प्रत्ययों को अट् का आगम। | अरोद् + त् == अरोद् + अ + त् == अरोदत् । इसी प्रकार अरोद् + स् == अरोदः।
[७|३|१००] अदः सर्वेषाम् - अद् धातु से परे अपृक्त सार्वधातुक का अवयव अट् होता है। | अद् धातु से लङ् लकार में प्रथमपुरुष एकवचन की विविक्षा में तिप्, शप्-लुक् और आडागम आदि होकर आदत् रूप बनता है। इस स्थिति में अद् से परे होने के करण प्रकृतसूत्र से अपृक्तसार्वधातुक त् को अट् आगम होकर आद् + अत् ==> आदत् रूप सिद्ध होता है।
[७|३|१०१] अतो दीर्घो यञि - यञादि सार्वधातुक ( जिसके आदि में य्, व्, र्, ल्, ञ्, म्, ङ् ण्, न्, झ्, या भ् हो) परे होने पर अदन्त अङ्ग (जिसके अन्त में ह्रस्व अकार हो) के स्थान पर दीर्घ आदेश। | उत्तम् एकवचन में भू + मि रूप बनता है। यहाँ पहले शप्, गुण और अवादेश होने पर भव + मि रूप बनेगा। नय + मि == नयामि, नय + वः == नयावः, नय + मः == नयामः, अनय + व == अनयाव, नय + वहे == नयावहे, अनय + महि == अनयामहि ।
[७|३|१०२] सुपि च अदन्त अंग को यञादि सुप् परे रहते दीर्घ आदेश। यञादि सुप् का अर्थ है ऐसे सुप् प्रत्यय जिनके आदि में "यञ्" प्रत्याहार अन्तर्गत आने वाला वर्ण हो। | बाल + भ्याम् = (अदन्त् - दीर्घ ("आ") = बालाभ्याम् {"भ्" "यञ्" प्रत्याहार अन्तर्गत आता है}
[७|३|१०३] बहुवचने झल्येत् अदन्त परे बहु वचन झलादि "सुप्" ("भ्यस्"/७_३"नाम्"/७_३"साम्") में अदन्त अंग को एकार " ए" आदेश। | राम + भ्याम् = रामे + भ्याम् = रामेभ्याम्, सर्व + स् + आम् = सर्वे + स् + आम् = सर्वेषाम् ("स्" को "ष्"८_३_५९)
[७|३|१०४] ओसि च अदन्त ( अकार) अंग " अ" के स्थान पर " ए" एकार आदेश, " ओस्" विभक्ति प्रत्यय परे होने पर | बाल + ओस् = बाले + ओस्
[७|३|१०५] आङि चापः आबन्त परे आङ् ("टा" आङ् है) या ओस् होने पर आबन्त अंग को एकार आदेश। | खट्वा + टा == खट्वे + आ == खट्वय् + आ == खट्वया। खट्वे + ओस् == खट्वयोः।
[७|३|१०६] संबुद्धौ च सम्बुद्धि परे होने पर आबान्त अंग के स्थान पर एकार आदेश। | हे खट्वे, हे बहुराजे, हे करीषगन्ध्ये।
[७|३|१०७] अम्बार्थनद्योर्ह्रस्वः सम्बुद्धि परे रहते नदी संज्ञक व अम्बा(माता) के पदान्त को हृस्व आदेश {हे नही सु ==> हे नदि (सु का लोप्) | हे अम्ब, हे अक्क, हे अल्ल। नद्याः - हे कुमारि, हे शार्ङ्गरवि, हे ब्रह्मबन्धु, हे वीरबन्धु।
[७|३|१०८] ह्रस्वस्य गुणः हृस्वान्त अंग को गुण। | हे अग्ने, हे वायो, हे पटो।
[७|३|१०९] जसि च हृस्वान्त अंग को गुण "जस्" (१_३) परे रहते। | हरि + जस् ==> हरे + अ: ==> हरे:
[७|३|११०] ऋतो ङिसर्वनामस्थानयोः सर्वनाम स्थान ("सुट्") या "ङि" प्रत्यय परे रहते ऋकारान्त अंग को गुण हो। | ङौ - मातरि, पितरि, भ्रातरि, कर्त्तरि। सर्वनामस्थाने - कर्त्तारौ, कर्तारः, कर्त्तारम्, कर्त्तारौ, पितरौ, भ्रातरौ।
[७|३|१११] घेर्ङिति घि संज्ञक परे ङित् प्रत्यय होने पर अङ्ग को गुण आदेश। | ङित्, घि की परिभाषा &कुओत्;परिभाषा&कुओत्; में देखें
[७|३|११२] आण्नद्याः नद्यन्त अङ्ग से परे ङित् का अवयव आट् होता है। | कुमार्येः। ब्रह्मबन्ध्वै। कुमार्याः, ब्रह्मबन्ध्वाः।
[७|३|११३] याडापः आबन्त अंग से परे "ङिद्" मध्य में "याट्" आगम | खट्वायै, बहुराजायै, कारीषगन्ध्यायै। खट्वायाः, बहुराजायाः, कारीषगन्ध्यायाः।
[७|३|११४] सर्वनाम्नः स्याड्ढ़्रस्वश्च आबन्त परे "ङित्" प्रत्ययों में अङ्ग् व प्रत्यय् के मध्य "स्याट्" का आगम् । "स्याट्" में "ट्" इत्संज्ञक होने से केवल "स्या" शेष्। | सर्वस्यै, विश्वस्यै, यस्यै, तस्यै, कस्यै, अन्यस्यै। सर्वस्याः, विश्वस्याः, यस्याः, तस्याः, कस्याः, अन्यस्याः।
[७|३|११५] विभाषा द्वितीयातृतीयाभ्याम् - द्वितीया तथा तृतीया से परे ङित् प्रत्ययों को विकल्प से स्याट् का आगम। | द्वितीयस्यै, द्वितीयायै। तृतीयस्यै, तृतीयायै।
[७|३|११६] ङेराम्नद्याम्नी भ्यः नद्यन्त, आबन्त व "नी" अंग से परे (बाद में) "ङि" प्रत्यय को " आम्" आदेश। | सर्वा + "ङि" = सर्वा + " आम्" = सर्वा + "स्याट्" + " आम्" = सर्वस्याम्
[७|३|११७] इदुद्भ्याम् नदी-संज्ञक हृस्व इकारान्त और ह्रस्व उकारान्त शब्दों से परे ङि के स्थान पर आम् आदेश। | कृत्याम्। धेन्वाम्
[७|३|११८] औत्| ह्रस्व इकार और उकार से परे ङि के स्थान पर औकार आदेश।
[७|३|११९] अच्च घेः हृस्व इकार उकार परे ङि ( इ) को औत् घिसंज्ञक अंग को अकार आदेश। | अग्निना, वायुना, पटुना।
[७|३|१२०] आङो-नाऽस्त्रियाम् स्त्रीलिंग को छोड़ कर अन्य घि संज्ञक परे " आङ्" ("टा" ==> " आ") को "ना" आदेश। | हरि + टा ==> हरि + आ ==> हरि + ना ==> हरिना =(न्->ण्)= हरिणा । गुरु + टा ==> गुरु + आ ==> गुरु + ना ==> गुरुना =(न्->ण्)=> गुरुणा
[७|४|१] णौ चङ्युपधायाः ह्रस्वः - चङपरक णि परे होने पर उपधा के स्थान में ह्रिस्व होता है। | अ काम् अ त में णि से परे चङ् ( अकार) है, अतः णि परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से काम् की उपधा-आकार के स्थान पर हेअस्व अकार होकर अ कम् अ त रूप बनता है।
[७|४|२] नाग्लोपिशास्वृदिताम् - चङ् प्रत्यय हो पर में जिसके ऐसे णि प्रत्यय के परे जिन, अङ्गसंज्ञको के अक का लोप हुआ हो उनकी, और शास् धातु एवं ऋदित् धातुओं की उपधा को हृस्वादेश नहीं होता। | अग्लोपिनाम् - मालामाख्यत् = अमलालत्। मातरमाख्यत् = अममातत्। राजानमतिक्रान्तवान् = अत्यरराजत्। लोमान्यनुमृष्टवान् = अन्वुललोमत्। शासेः = अशशासत्। ऋदिताम् = बाधृ - अबबाधत्। याचृ - अययाचत्। ढौकृ - अडुढौकत्।
[७|४|३] भ्राजभासभाषदीपजीवमीलपीडामन्यतरस्याम् - चङ् प्रत्यय हो पर में जिसके ऐसे णि प्रत्यय के परे अङ्गसंज्ञक `भ्राजऄ, `भासऄ, `भाषऄ, `दीपऄ, `जीवऄ, `मीलऄ तथा `पीड़ऄ शब्दों (धातुओं) की उपधा को विकल्प से हृस्वादेश। | भ्राज् - अबिभ्रजत्, अबभ्राजत्। भास - अबीभसत्, अबभासत्। भाष - अबीभषत्, अभभाषत्। दीपी - अदीदिपत्। अदिदीपत्। जीव - अजीजिवत्, अजिजीवत्। मील् - अमीमिलत्, अमिमीलत्। पीड - अपीपिडत्, अपिपीडत्।
[७|४|४] लोपःपिबतेरीच्चाभ्यासस्य - चङ् परक णि प्रत्यय के परे अङ्गसंज्ञक `पिवऄ धातु (पा धातु) की उपधा का लोप तथा अभ्याससंज्ञक को ईकारादेश। | अपीप्यत्, अपीप्यताम्, अपीप्यन्।
[७|४|५] तिष्ठतेरित् - चङ्-परक (जिसके बाद चङ् प्रत्यय आया हो) णि परे होने पर स्था (ठहरना) धातु की उपधा के स्थान पर ह्रस्व इकार आदेश होता है। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में स्था धातु से णिच्, पुक्, च्लि-चङ्, अडागम् आदि होकर अ स्थाप् इ अ त् रूप बनता है। यहाँ चङ्-परक णि इ अ परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से स्थाप (स्था) की उपधा आकार के स्थान पर इकार होकर अ स्थ् इ प् इ अ त् = अ स्थिपि अत् रूप बनता है। इस स्थिति में स्थिप् को द्वित्व, अभ्यास-कार्य, अभ्यास के थकार को चर्-तकार और षत्व तथा ष्टुत्व आदि होकर अतिष्ठित् रूप सिद्ध होता है।
[७|४|६] जिघ्रतेर्वा - चङ् परक णि प्रत्यय के परे अङ्गसंज्ञक `घ्रा` धातु की उपधा को विकल्प से ईकारादेश। | अजिघ्रिपत्, अजिघ्रिपताम्, अजिघ्रिपन्। पक्षे - अजिघ्रपत्, अजिघ्रपताम्, अजिघ्रपन्।
[७|४|७] उर्-ऋत् - चङ् परक णि प्रत्यय के परे अङ्गसंज्ञक धातु के उपधाभृत ऋकार के स्थान में विकल्प से ऋत् आदेश। | इर् - अचीकृतत्, अचिकीर्त्तत्। अर् - अवीवृतत्, अववर्त्तत्। आर् - अमीमृजत्, अममार्जत्।
[७|४|८] नित्यं छन्दसि - छन्दोविषय में चङ् परक णि प्रत्यय के परे अङ्गसंज्ञक धातु के उपधास्थानीय ऋकार के स्थान में नित्य ऋत् आदेश। | अवीवृधत् पुरोडाशेन्। अवीवृधताम्, अवीवृधन्।
[७|४|९] दयतेर्दिगि लिटि - लिट् के परे अङ्गसंज्ञक "दय" धातु को "दिगि" आदेश। | दय् == दिगि + ए == दिग्य् + ए == दिग्ये।
[७|४|१०] ऋतश्च संयोगादेर्गुणः - लिट् परे होने पर संयोगादि ऋकारान्त अङ्ग के स्थान में गुण होता है। | ह्ण धातु से तिप् आदि होकर जह्ण अ रूप बनता है। इस स्थिति में णित् णल् परे होने से ऋकार को वृद्धि प्राप्त होती है किन्तु यहाँ अङ्ग जह्ण अ ऋकारान्त तथा संयोगादि है अतः प्रकृत सूत्र से वृद्धि का बाध होकर ऋकार के स्थान पर गुण अर करने पर जह्ण अ रूप बनता है। यहाँ उपधा- अकार को दीर्घ करने से जह्णार रूप बनेगा। अन्य उदाहरण - सस्वृ + अतुः == सस्वर् + अतुः == सस्वरतुः, सस्वृ + उः == सस्वर् + उः == सस्वरुः।
[७|४|११] ऋच्छत्यॄताम् - लिट् परे होने पर ऋच्छ (जाना, आदि), ऋ (जाना) और ऋकारान्त अङ्ग के स्थान पर गुण आदेश। | प पॄ अतुस् में ह्रस्वाभाव-पक्ष में लिट्स्थानी अतुस् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से ऋकारान्त पॄ के दीर्घ ऋकार के स्थान पर अर्-गुणादेश होकर प प् अतुस् = पपरतुः रूप सिद्ध होता है।
[७|४|१२] शॄदॄप्रां ह्रस्वोवा - लिट् परे होने पर शॄ (मारना), दॄ (मारना) और पॄ (पालन-पोषण करना) के स्थान पर विकल्प से ह्रस्वादेश। | लिट् लकार के प्रथमपुरुष-द्विवचन में पॄ धातु से लिट्-तस् और उसके स्थान पर अतुस् परे होने पर प्रकृत सूत्र से पॄ के ऋकार के स्थान पर ह्रस्व ऋकार होकर प पृ अतुस् रूप बनेगा। इस स्थिति में यणादेश होकर पप्रतुः रूप सिद्ध होता है।
[७|४|१३] केऽणः - क प्रत्यय के परे अण् के स्थान में ह्रस्व आदेश। | शबरजम्बू + ठञ् == शबरजम्बू + क == शबरजम्बुकः।
[७|४|१४] न कपि - कप् प्रत्यय के परे अण् के स्थान में ह्रस्व आदेश नहीं होता। | बहुकुमारी + कप् == बहुकुमारी + क == बहुकुमारीक == बहुकुमारीकः, बहुवधू + कप् == बहुवधू + क == बहुवधूक == बहुवधूकः। इसी प्रकार बहुनाडीकः, बहुलक्ष्मीकः, बहुरन्त्रीकः।
[७|४|१५] आपोऽन्यतरस्याम् - कप् प्रत्यय के परे आबन्त अङ्ग को विकल्प से ह्रस्वादेश। | बहुमाला + कप् == बहुमाला + क == बहुमालाकः == बहुमालकः, बहुखट्वा + कप् == बहुखट्वा + क == बहुखट्वाकः == बहुखट्वकः।
[७|४|१६] ऋदृशोऽङि गुणः - अङ् के परे ` ऋ ` तथा `दृशऄ धातुओं के स्थान में गुण आदेश। | शकलाङ्गुष्ठकोऽकरत्। अहं तेभ्योऽकरं नमः। असरत्, आरत्, जरा। दृशेः - अदर्शत्, अदर्शताम्, अदर्शन्।
[७|४|१७] अस्यतेस्थुक् - अङ् के परे ` अस् ` धातु को थुक् का आगम। | आस्थत्, आस्थताम्, आस्थन्।
[७|४|१८] श्वयतेरः - अङ् के परे अङ्गसंज्ञक `श्वॎ धातु का अकारादेश। | अश्वत्, अश्वताम् अश्वन्।
[७|४|१९] पतःपुम् - अङ् के परे `पत् ` धातु को पुम् का आगम। | अपप्तत्, अपप्तताम्, अपप्तन्।
[७|४|२०] वच उम् - अङ् परे होने पर वच् धातु का अवयव उम् (उ) होता है। | वच् अत् में वच् के बाद अङ् ( अ) आया है, अतः प्रकृत सूत्र से वच् को उम् (उ) आगम् होकर व उ च् अ त् रूप बनता है। इस अवस्था में गुणादेश और अट् करने पर अवोचत् रूप सिद्ध होता है।
[७|४|२१] शीङः सार्वधातुके गुणः - सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर शीङ् धातु के स्थान में गुण आदेश। | शीङ् (शी) धातु से लट् लकार में प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में आत्मनेपद् त प्रत्यय परे होने के कारण ग्किङ्ति च (१_१_५) से गुण-निषेध प्राप्त होता है, किन्तु प्रकृत सूत्र से उसका बाध हो जाता है और शी के ईकार के स्थान पर एकार होकर श् ए त ==> शे त् रूप बनता है। इस स्थिति में टि तकारोत्तरवर्ती अकार के स्थान पर एकार होकर शे त् ए ==> शेते रूप सिद्ध होता है।
[७|४|२२] अयङ् यि क्ङिति - यकारादि कित् अथवा ङित् प्रत्ययों के परे अङ्गसंज्ञक `शीङ् ` धातु को अयङ् आदेश। | शी + यक् / शय् + य == शय्य == शय्यते।
[७|४|२३] उपसर्गाद्ध्रस्व ऊहतेः - यकारादि कित् अथवा ङित् प्रत्ययों के परे उपसर्ग से उत्तरवर्त्ती अङ्गसंज्ञक ` ऊहऄ धातु को ह्रस्व हो जाता है। | समुह्मते, समुह्म गतः। अभ्युह्मते, अभ्युह्म गतः।
[७|४|२४] एतेर्लिङि - यदि यकारादि कित् और ङित् लिङ् परे हो तो उपसर्ग के बाद इण् धातु के अण् ( अ, इ, उ) का ह्रस्व हो जाता है। | निर् उपसर्गपूर्वक इण् धातु से आशीर्लिङ् में प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में तिप् , इकार-लोप, यासुटागम और दीर्घ होकर निर् ईयात् रूप बनता है। यहाँ यात् यकारादि कित् है, अतः उसके परे होने के कारण निर् उपसर्ग के बाद इण् धातु के अण्-ईकार को ह्रस्व-इकार होकर निर् + इ + यात् ==> निरियात् रूप सिद्ध होता है।
[७|४|२५] अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः - कृत् और सार्वधातुक-भिन्न यकारादि कित् ङित् प्रत्यय के परे होने पर अजन्त अङ्ग को दीर्घ आदेश। | आशीर्लिङ् के प्रथमपुरुष एकवचन में क्षि धातु से तिप् आदि होकर क्षि यात् रूप बनता है। यहाँ यकारादि यासुट् प्रत्यय परे होने पर अजन्त अङ्ग क्षि के इकार को दीर्घ ईकार होकर क्षीयात् रूप बनता है।
[७|४|२६] च्वौ च `च्वॎ प्रत्यय परे होने पर अजन्त अङ्ग (जिसके अन्त में कोई स्वर-वर्ण हो) को दीर्घ होता है | ` प्रत्ययलोपेप्रत्ययलक्षणम् `(१_१_६२) परिभाषा से `च्वॎ प्रत्यय परे होने के कारण अजन्त अङ्ग ` अग्नॎ के अन्त्य अच् - इकार को दीर्घ-ईकार हो `ग्नी ` रूप सिद्ध होता है, यथा - ` अग्निभवतॎ
[७|४|२७] रीङ् ऋतः - कृत्-भिन्न और असार्वधातुक (सार्वधातुक-भिन्न) यकार तथा च्वि प्रत्यय परे होने पर ह्रस्व ऋकारान्त अङ्ग के स्थान पर रीङ् आदेश होता है। | पितृ य में कृत्-भिन्न यकार परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से अङ्ग पितृ के ऋकार के स्थान पर रीङ् होकर पित् री य रूप बनता है। इस स्थिति में अन्त्य ईकार का लोप हो पित् + र् + य ==> पित्र्य रूप बनने पर विभक्ति-कार्य हो प्रथमा के एकवचन में पित्र्यम् रूप सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण - मातृ + च्वि == मात् री == मात्री।
[७|४|२८] रिङ् शयग्लिङ्क्षु - श प्रत्यय यक् और सार्वधातुक भिन्न यकारादि लिङ् परे होने पर ऋकार के स्थान पर रिङ् आदेश होता है। रिङ् का रकार इत्संज्ञक है अतः उसका लोप हो जाता है। ङ् भी इत्संज्ञक है और केवल इ शेष। | भृ धातु से आशीर्लिङ् मे प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में तिप् प्रत्यय तथा के सार्वधातुक भिन्न (आर्धधातुक) होने से यासुट् आगम होकर भृयात् रूप बनता है। यहाँ७_४_२७से ह्रस्व ऋकार को दीर्ध प्राप्त होता है, किन्तु यकारादि लिङ् यात् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से ऋकार के स्थान पर रिङ् होकर भ् रि यात् ==> भ्रियात् रूप सिद्ध होता है।
[७|४|२९] गुणोऽर्तिसंयोगाद्योः - यक् और सार्वधातुक-भिन्न यकारादि लिङ् प्रत्यय परे होने पर ऋ और संयोगादि ऋकारान्त अङ्ग के स्थान में गुण होता है। | ऋ + यात् == अर् + यात् == अर्यात् ।
[७|४|३०] यङि च - यङ् प्रत्यय के परे भी ` ऋ ` धातु संयोगादि ऋदन्त धातु को गुणादेश। | स्मृ + यङ् == स्मर् + यङ् == स्मर् स्मर् + यङ् ध्वृ + यङ् == ध्वर् + यङ् == ध्वर् ध्वर् + यङ्।
[७|४|३१] ई घ्राध्मोः - यङ् प्रत्यय के परे `घ्रा` तथा `ध्मा` धातुओं को ईकारादेश। | घ्रा + यङ् == घ्री + यङ् == घ्री घ्री + यङ्, ध्मा + यङ् == ध्मी + यङ् ध्मी ध्मी + यङ्।
[७|४|३२] अस्य च्वौ - `च्वॎ प्रत्यय परे होने पर अवर्णान्त अङ्ग के स्थान पर ईकार आदेश। | `प्रत्ययलोपेप्रत्ययलक्षणम् ` (१_१_६२) परिभाषा से `च्वॎ प्रत्यय परे होने पर अवर्णान्त अङ्ग `शुक्लऄ के अन्त्य अवर्ण- अकार के स्थान पर ईकार हो शुक्ल + ई ==> शुक्ली रूप सिद्ध होता है। यह करोति के साथ युक्त होकर शुक्लीकरोति के रूप में प्रयुक्त होता है।
[७|४|३३] क्यचि च - क्यच् परे होने पर ( अस्य) अवर्ण के स्थान पर ईकार आदेश। | पुत्र य में क्यच् (य) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से पुत्र के अन्त्य अकार के स्थान पर ईकार होकर पुत्र ई य = पुत्रीय रूप बनता है। इसस्थिति एं लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में तिप्, शप् और पर-रूप होकर पुत्रीयति रूप सिद्ध होता है।
[७|४|३४] अशनायोदन्यधनाया बुभुक्षापिपासागर्धेषु - बुभुक्षा, पिपासा तथा गर्ध९लोभ) अर्थों में क्रमशः अशनाय, उदन्त तथा धनाय शब्दों का निपातन। | "खाना अर्थ में" अशना + क्यच् == अशनायति (पीना चाहता है अर्थ में) उदक + क्यच् == उदन्य + य == उदन्यति।
[७|४|३५] न च्छन्दस्य पुत्रस्य - पुत्रशब्दभिन्न अवर्णान्त अङ्ग को क्यच् के परे विहित कोई भी कार्य नहीं होता यदि प्रयोग वैदिक हो। | मित्रयुः संस्वेदयुः, देवाञ्जिगाति सुम्नयुः।
[७|४|३६] दुरस्युर्द्रविणस्युर्वृषण्यतिरिषण्यति - दुरस्युः, द्रविणस्युः, वृषण्यति तथा रिषण्यति ये शब्द वेद में निपातित है। | अवियोना दुरस्युः। दुष्टीयतीति प्राप्ते। द्रविणस्युर्विपन्यया। द्रविणीयतीति प्राप्ते। वृषण्यति। वृषीयतीति प्राप्ते। रिषण्यति। रिष्टीयतीति प्राप्ते।
[७|४|३७] अश्वाघस्यात् - छन्दोविषय में क्यच् प्रत्यय के परे अश्व तथा अघ शब्दों को अकारादेश। | अश्वायन्तो मघवन्। मा त्वा वृका अघायवो विदन्।
[७|४|३८] देवसुम्नयोर्यजुषि काठके - कठप्रोक्त यजुर्वेद के प्रयोग में देव तथा सुम्न शब्दों को क्यच् प्रत्यय के परे अकारादेश। | देवायन्तो यजमानाय। सुम्नायन्तो हवामहे।
[७|४|३९] कव्यध्वरपृतनस्यर्चि लोपः - ऋग्वेद के प्रयोग में क्यच् प्रत्यय के परे अङ्गसंज्ञक कवि, अध्वर तथा पृतना शब्द का लोप। | कव्यन्तः सुमनसः। अध्वर्यातः, पृतन्यन्तस्तिष्ठन्ति।
[७|४|४०] द्यतिस्यतिमास्थामित्ति किति - तकारादि कित् प्रत्यय के परे अङ्गसंज्ञक `द्यतॎ, `स्यतॎ, `मा` तथा `स्था` को इकारादेश। | द्यति - निर्दितः, निर्दितवान्। स्यति - अवसितः, अवसितवान्। मा - मितः, मितवान्। स्था - स्थितः, स्थितवान्।
[७|४|४१] शाच्छोरन्यतरस्याम् - तकारादि कित् प्रत्यय के परे `शा` तथा `छा` धातुओं को विकल्प से इकारादेश। | शा - निशितन्, पक्षे निशातम्। निशितवान्, निशातवान्। छा - अवच्छितम्, अवच्छातम्। अवच्छितवान्, अवच्छातवान्।
[७|४|४२] दधातेर्हिः - तकारादि कित् प्रत्यय परे होने पर धा (धारण या पोषण करना) धातु के स्थान पर हि होता है। | धा धातु से क्त प्रत्यय होकर धा त रूप बनता है। यहाँ त (क्त) प्रत्यय कित् है क्योंकि उसके ककार की इत्संज्ञा हुई है और तकार आदि में होने से तकारादि भी है, अतः उसके परे होने पर प्रकृत सूत्र से धा के स्थान पर हि होकर हित् रूप बनने पर प्रातिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के नपुंसकलिङ्ग-एकवचन में हितम् रूप सिद्ध होता है।
[७|४|४३] जहातेश्च क्त्वि - क्त्वा प्रत्यय परे होने पर ओहाक् (छोड़ना) धातु के स्थान पर हि आदेश होता है। | हित्वा राज्यं वनं गतः। हित्वा गच्छति।
[७|४|४४] विभाषा छन्दसि - किन्तु प्रयोग यदि वैदिक हो तो क्त्वा के परे भी `हा` धातु को विकल्प से `हॎ आदेश। | हित्वा शरीरं यातव्यम् हात्वा।
[७|४|४५] सुधितवसुधितनेमधितधिष्वधिषीय च - छन्दोविषय में सुधित, वसुधित, नेमधित, धिष्व तथा धिषीय शब्दों का निपातन। | गर्भं माता सुधितम्। सुहितमिति प्राप्ते। वसुधितमग्नौ जुहिति। वसुहितमिति प्राप्ते। नेमधिता न पौंस्या। नेमहिता इति प्राप्ते। धिष्व सोमम्। धत्स्वेति प्राप्ते। धिषीय। धासीयेति प्राप्ते।
[७|४|४६] दो दद् घोः - तकारादि कित् प्रत्यय परे होने पर घुसंज्ञक दा धातु के स्थान पर दद् आदेश होता है। | दा धातु से क्त प्रत्यय होकर दा त रूप बनने पर तकारादि कित् त (क्त) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से दा के स्थान पर दद् होकर दद् त रूप बनेगा। तब चर्त्व हो दद् + त = दत्त रूप बनने पर प्रातिपादिक संज्ञा होकर प्रथमा के पुल्लिङ्ग-एकवचन में दत्तः रूप सिद्ध होता है।
[७|४|४७] अच उपसर्गात्तः - तकारादि कित् प्रत्यय के परे अजन्त उपसर्ग से पहले घुसंज्ञक `दा` के स्थान में `तऄ आदेश। | प्रत्तम्, अवत्तम्, नीत्तम्, परीत्तम्।
[७|४|४८] अपो भि - भकारादि प्रत्यय परे होने पर अप् शब्द के स्थान पर अप् शब्द के स्थान पर तकार आदेश। | अप् + भिस् में षकार को तकार होकर अत् + भिस् रूप बनता है। पुनः तकार को जश्त्व-दकार और सकार का रुत्व-विसर्ग होकर अद्भिः रूप सिद्ध हुआ।
[७|४|४९] सः स्या-र्धधातुके - सकारादि आर्धधातुक परे होने पर सकार के स्थान पर तकार आदेश। | इच्छा- अर्थ में अद् (खाना) धातु से सन् प्रत्यय होकर अद् स रूप बनता है। तब अद् के स्थान में घस् होकर घस् स रूप बनता है। यहाँ सकारादि आर्धधातुक सन् (स) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से घस् के सकार के स्थान पर तकार होकर घत् स रूप बनता है। तब द्वित्व और अभ्यास-कार्य आदि होकर जिघत्स रूप बनेगा। इस स्थिति में लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में जिघत्स से तिप्, शप् और पररूप होकर जिघत्सति रूप सिद्ध होता है।
[७|४|५०] तासस्त्योर्लोपः - सादि प्रत्यय (जिसके आदि में सकार हो) परे होने पर तास् और अस् धातु का लोप होता है।१_१_५२से यह लोप तास् और अस् के अन्त्य सकार ही होगा। | भवितास् + सि ==> भवितासि, अस् के सकार लोप लोप का उदाहरण अदादिगण की अस् धातु के अस् + सि ==> असि रूप में मिलता है।
[७|४|५१] रि च - रकारादि प्रत्यय (जिसके आदि में रकार हो) परे होने पर तास् और अस् के सकार का लोप होता है। | प्रथम द्विवचन भवितास् + रौ में रकारादि प्रत्यय रौ परे होने के कारण तास् के सकार का लोप होकर भवितारौ रूप बनता है।
[७|४|५२] ह एति - एकार परे होने पर तास् और अस् के सकार के स्थान पर हकार होता है। | लुट् लकार के उत्तमपुरुष् एकवचन में एध् धातु से इट् प्रत्यय आदि होकर एधितास् ए रूप बनता है। यहाँ एकार परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से तास् के सकार के स्थान पर हकार एधिताह् + ए ==> एधिताहे रूप सिद्ध होगा।
[७|४|५३] यीवर्णयोर्दीधीवेव्योः - `दीधी ` तथा `वेवी ` धातुओं को यकारादि तथा इवर्णदि प्रत्ययों के परे लोप हो जाता है। | दीधी + ईत == दीध् + ईत == दीधीत, वेवी + ईत == वेव् + ईत् == वेवीत ।
[७|४|५४] सनि मीमाघुरभलभशकपत-पदामच इस् - सकारादि सन् प्रत्यय के परे अङ्गसंज्ञक `मी `, `मा`, `द्यु`, `रभऄ, `लभऄ, `शकऄ, `पत् ` तथा `पदऄ धातुओं के अच् के स्थान में इस् आदेश। | मीञ् - मित्सति, डुमिञ् - प्रमित्सति मा - मित्सति, मित्सते, अपमित्सते। घुसंज्ञकानाम् - दित्सति, धित्सति।रभ - आरिप्सते। लभ - आलिप्सते। शक - शिक्षते। पत - पित्सति। पस - प्रपित्सते।
[७|४|५५] आप्ज्ञप्यृधामीत् - सकारादि सन् प्रत्यय के परे अङ्गसंज्ञक ` आप् `, `ज्ञप् ` तथा ` ऋध् ` धातुओं के अच् के स्थान में ई आदेश। | आप् + सन् / आ को ई करके == ईप् + सन् == ईप्स। ऋध् + सन् / ध्यान रहे कि ऋ के स्थान पर होने वाला "ई" उरण् रपरः सूत्र से "ईर्" हो जाता है। ईर्ध् + स / खरि च सूत्र से "ध्" को चर्त्व करके ईर्त + स == ईर्त्स।
[७|४|५६] दम्भ इच्च - सकारादि सन् प्रत्यय के परे अङ्गसंज्ञक `दम्भऄ धातु के अच् के स्थान में इत् तथा विकल्प से ईत् आदेश। | धिप्सति, धीप्सति।
[७|४|५७] मुचोऽकर्मकस्य गुणो वा - सकारादि सन् प्रत्यय के परे अङ्गसंज्ञक अकर्मक `मुचऄ धातु को विकल्प से गुण हो जाता है। | मुच् + सन् (गुण होने पर)== मोच् + स् / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके == मुमोच् + स् == अभ्यास का लोप करके == मोच् + स् == मोक्ष == मोक्षते।
[७|४|५८] अत्र लोपोऽभ्यासस्य - `सनि मीभा` से लेकर मुख्योऽकर्म्कस्य सूत्र तक जितने उल्लेखित है इन सब के अभ्यास का लोप। | शिशिक् + स == शिक् + स / अब प्रत्यय के "स्" को आदेशप्रत्यययोः सूत्र से "ष्" बनाइये। अब क् + ष् को मिलाकर "क्ष्" बनाइये == शिक्ष == शिक्षिति।
[७|४|५९] ह्रस्वः अभ्यास के " अच्" का ह्रस्व हो जाये। | "भूव् भूव् अ" = "भु भूव् अ"
[७|४|६०] हलादिः शेषः द्वित्य बनाते समय अभ्यास का केवल आदि "हल्" (" अच्" सहित) ही शेष रहता है और बाकी सभी हलों और अचों का लोप हो जाता है । | "चकास्" में "च" का द्वित्य व "कास्" का लोप हो जाता है। "भूव् भूव् अ" = "भू भूव् अ"
[७|४|६१] शर्पूर्वाः खयः - अभ्यास के शर्पूर्वक (जिसके पूर्व श, ष या स आया हो) झय् शेष रहते हैं, अन्य दूसरों का लोप हो जाता है। | श्च्युत् == चुश्च्युत्, स्पर्ध् == पस्पर्ध्, स्कुन्द् == कु स्कुन्द्, स्पन्द् == पस्पन्द्, स्तुच् == तु स्तुच्।
[७|४|६२] कुहोश्चुः - अभ्यास के कवर्ग तथा हकार के स्थान में चवर्ग आदेश। | खन् == खन् खन् == ख खन् == छ खन् == च खन्, गम् == गम् गम् == ज गम् == ज गम्।
[७|४|६३] न कवतेर्यङि - यङ् प्रत्यय के परे `कु` धातु के अभ्यास के कवर्ग के स्थान में चवर्गादेश। | कु + यङ् == कु कू यङ् == कु कू यङ्।
[७|४|६४] कृषेश्छन्दसि - छन्दोविषय प्रयोग में यङ् प्रत्यय के परे `कृष् ` धातु के अभ्यास के ककार के स्थान में चकार नहीं होता है। | करीकृष्यते यज्ञकुणपः।
[७|४|६५] दाधर्ति-दर्धर्ति-दर्धषि-बोभूतु-तेतिक्तेऽलर्ष्यापनीफणत्-संस-निष्यदत्-करिक्रत्-कनिक्रदद्-भरिभ्रद्-दविध्वतो-दविद्युतत्-तरित्रतः-सरीसृपतं-वरीवृजन्-मर्मृज्यागनीगन्तीति च - छन्दोविषय में दाधात्ति आदि१८पदों का निपातन है। | अल् + अर् + षि == अलर्षि, आ + प + फण् + शतृ == आ + प + नीक् + फण् + अत् == आपनीफणत्। सम् + स + निक् + स्यद् + अत् == सं + स + नि + ष्यद् + अत् == संसनिष्यदत्।
[७|४|६६] उरत् - अभ्यास के अव्यव ऋवर्ण के स्थान पर हृस्व अकार आदेश। | गोपायाम् कृ कृ अ में अभ्याससंज्ञक पूर्ववर्ती कृ के ऋकार के स्थान पर अर् आदेश होकर गोपायाम् कर् कृ अ रूप बनता है। इस स्थिति में रकार-लोप आदि होकर गोपायाञ्चकार रूप सिद्ध होगा।
[७|४|६७] द्युतिस्वाप्योःसंप्रसारणम् - द्युत् (चमकना) और स्वप् (सोना) के अभ्यास के य, व, र, और ल के स्थान पर क्रमशः इ, उ, ऋ और ऌ आदेश होते है। | लिट् लकार के प्रथमपुरुष एकवचन में द्युत् धातु से त प्रत्यय आदि होकर द्युत् द्युत् ए रूप बनने पर प्रकृत सूत्र से अभ्यास (पूर्व्वर्ती द्युत् के यकार के स्थान पर इकार होकर द् इ उ त् द्युत् ए ==> दि उत् द्युत् ए रूप बनेगा । इस स्थिति में उकार का पूर्वरूप और तकार का लोप करने पर दिद्युते रूप सिद्ध होता है।
[७|४|६८] व्यथो लिटि - लिट् के परे व्यथ् धातु के अभ्यास को सम्प्रसारण हो जाता है। | विव्यथे, विव्यथाते, विव्यथिरे
[७|४|६९] दीर्घ इणः किति - यदि कित् लिट् परे हो तो इण् धातु के अभ्यास को दीर्घ आदेश। | इण् धातु से लिट् लकार में प्रथमपुरुष-एकवचन की विविक्षा में तस् और पुनः उसके स्थान पर अतुस् आदि होकर इ य् अतुस् रूप बनता है। इस स्थिति में कित् लिट् अतुस् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से इण् धातु के अभ्यास-इकार के स्थान पर दीर्घ ईकार होकर ई य् अतुस् बनेगा। यहाँ रुत्व-विसर्ग होकर ईयतुः रूप सिद्ध होता है।
[७|४|७०] अत आदेः - लिट् परे होने पर अभ्यास के आदि ह्रस्व अकार के स्थान पर दीर्घ आदेश। | अत् धातु से लिट् लकार में प्रथम एकवचन में अत् अ रूप बनता है। यहाँ अत् के अकार को द्वित्व होकर अ अत् अ रूप बनेगा। तब अभ्यास के आदि ह्रस्व आकार हो प्रकृत सूत्र से दीर्घ होकर आ अत् अ रूप बनता है। सवर्ण दीर्घ करने पर आत रूप सिद्ध होता है।
[७|४|७१] तस्मान्नुड् द्विहलः - दीर्घा-भूत आकार से परे दो व्यञ्जनो वाले अङ्ग को नुट आगम् होता है। | लिट् के प्रथम-एकवचन में अच् धातु से तिप्, णल् और द्वित्व आदि होकर अ अर्च अ रूप बनता है।सूत्र७_४_७०से अकार को दीर्घ होकर आ अर्च अ रूप बनता है।यहाँ दीर्घाभूत आकार से परे अङ्ग अर्च् है।इसमें रकार और चकार ये दो व्यञ्जन है। अतः प्रकृत सूत्र से द्विहल् अङ्ग अर्च् के आदि में नुट् होकर आन् अर्च् अ (आनर्च) रूप सिद्ध होता है।
[७|४|७२] अश्नोतेश्च - दीर्घीभूत अभ्यासस्थ अत् से पहले ` अशू ` धातु को भी नुँट् का आगम। नुँट् में उँट् इत्संज्ञक है। | व्यानशे, व्यानशाते, व्यानशिरे।
[७|४|७३] भवतेरः "लिट्" परे (बाद में) होने पर अभ्यास् के "भू" के उकार को अकार हो जाता है। | "भु भूव् अ" = "भ भूव् अ" बन जायेगा
[७|४|७४] ससूवेति निगमे - निगमविषयक प्रयोग के रूप में ससृव शब्द का निपातन। | ससूव स्थविरं विपश्चिताम्।
[७|४|७५] निजां त्रयाणां गुणः श्लौ - श्लु के विषय में णिज् (शुद्ध या पोषण करना), विज् ( अलग होना) और विष् (व्याप्त होना) के अभ्यास के स्थान पर गुण होगा। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में णिज् (निज्) धातु से तिप्, शप्-श्लु और द्वित्व आदि होकर नि ने ज् ति रूप बनता है। यहाँ श्लु का विषय होने के कारण प्रकृत सूत्र से अभ्यास नि के इकार के स्थान पर गुण-एकार होकर ने ने ज् ति रूप बनता है।
[७|४|७६] भृञामित् - श्लु के विषय में भृञ् आदि तीन धातुओं के अभ्यास के स्थान पर इकार आदेश। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में मा धातु से आत्मनेपद प्रत्यय त, शप्-श्लु और द्वित्व आदि होकर मा मा त रूप बनता है। इस स्थिति में श्लु का विषय होने के कारण प्रकृत सूत्र से मा (माङ्) के अभ्यास के अन्त्य वर्ण-आकार के स्थान पर इकार होकर म् + इ + मा + त् रूप बनेगा। यहाँ ईकार और त की टि के स्थान पर एकार होकर म् + इ + म् + ई + त् + ए ==> मिमीते रूप सिद्ध होता है।
[७|४|७७] अर्तिपिपर्त्योश्च - श्लु के विषय में ऋ (जाना) और पृ (पालन और पूर्ण करना) धातुओं के अभ्यास के स्थान पर इकार आदेश। | लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में प् धातु से तिप् (ति), शप्-श्लु और द्वित्व आदि होकर पृ प ति रूप बनता है। श्लु का विषय होने के कारण प्रकृत सूत्र से यहाँ पॄ के अभ्यास पृ के अन्त्य वर्ण ऋकार के स्थान पर इकार होकर पि पॄ ति रूप बनेगा।
[७|४|७८] बहुलं छन्दसि - प्रयोग में छन्दोविषय होने पर `श्लु` होने पर भी अभ्यास के स्थान में गुण बाहुल्येन होता है। | पूर्णा विवष्टि। जनिमा विवक्ति। वत्सं न माता सिषक्ति। जिघर्त्ति सोमम्। न च भवति - ददातीत्येवं ब्रूयात्। जजनदिन्द्रम्। माता यद्वीरं दधनद् धनिष्ठा।
[७|४|७९] सन्यतः - सन् परे होने पर अभ्यास के अकार के स्थान पर इकार होता है। | अ च् कम् अ त् में सन्वत् भाव होने के कारण अभ्यास च के अकार को इकार होकर अ चि कम् अ त् रूप बनता है।
[७|४|८०] ओःपुयण्ज्यपरे - अवर्ण-परक (जिसके बाद अवर्ण आया हो) पवर्ग, यण् (य्, व्, र् और ल्) और जकार परे होने पर (सनि) सन्-परक (जिसके बाद सन् प्रत्यय आया हो) अङ्ग के अभ्यास के उकार के स्थान पर (इत्) इकार होता है। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में भू धातु से प्रेरणार्थक प्रत्यय णिच्, अडागम्, च्लि-चङ् और द्वित्व आदि होकर अबु भव् अत् रूप बनता है।
[७|४|८१] स्त्रवतिश्रऋणोतिद्रवतिप्रवतिप्ल-वतिच्यवतीनां वा - सन् प्रत्यय हो पर में जिसके ऐसे अवर्णपरक यण् के परे `स्त्रु` आदि धातुओं के अभ्यास का इत्व हो जाता है। | स्त्रु - सिस्त्रावयिषति, सुस्त्रावयिषति। श्रु - शिश्रावयिषति, शुश्रावयिषति। द्रु - दिद्रावयिषति, दुद्रावयिषति। प्रु - पिप्रावयिषति, पुप्रावयिषति। प्लु - पिप्लायिषति, पुप्लायिषति। च्यु - चिच्यावयिषति, चुच्यावयिषति
[७|४|८२] गुणो यङ्लुकोः - यङ् या यङ्लुक् परे होने पर अभ्यास के स्थान में गुण होता है।इको गुणवृद्धि (१_१_३) से यह गुणादेश अभ्यास के इक् (इ, उ, ऋ, ऌ) के ही स्थान में होता है। | भू भू य में यङ् परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से अभ्यास - भू के इक्-ऊकार के स्थान पर गुण _ओकार होकर भ् ओ भू य = भो भू य रूप बनता है। तब अभ्यास के भकार के स्थान पर जश्-बकार होकर बोभूयते रूप सिद्ध बनता है। इस स्थिति में लट् लकार प्रथमपुरुष-एकवचन में बोभूयते रूप सिद्ध होता है। यङ् अभावपक्ष में वाक्य रूप पुनः पुनरतिशयेन वा भवति बनता है।
[७|४|८३] दीर्घोऽकितः - यङ् या यङ्-लुक् परे होने पर कित्-भिन्न अभ्यास के स्थान में दीर्घ आदेश होता है। | व व्रज् य में यङ् (य) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से धातु के व के अकार के स्थान पर दीर्घ-आकार होकर व आ व्रज् य रूप बनता है। तब लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में वाव्रज्य से आत्मनेपद त, शप्, पर-रूप और एत्व होकर वाव्रज्यते रूप सिद्ध होता है।
[७|४|८४] नीग्वञ्चुस्त्रंसुध्वंसुभ्रंसुकसपत-पदस्कन्दाम् - यङ् के परे तथा यङलुक में भी `वञ्चु`, `ध्वंसु`, `स्त्रंसु`, `भ्रंशु`, `कसऄ, `पतऄ, `पदऄ तथा `स्कन्दऄ धातुओं के अभ्यास को नीक् का आगम। | वञ्चु (नलोप होकर) == वच् (द्वित्वादि होकर) == ववच् (अभ्यास को "नीक् (नी)" का आगम करके) == वनीवच् == वनीवच्यते।
[७|४|८५] नुगतोऽनुनासिकान्तस्य - यङ् के परे तथा यङलुक में अनुनासिकान्त अङ्ग के अकारान्त अभ्यास को नुक् का आगम। | गम् == जगम् / तन् == ततन् / यम् == ययम् / रम् == ररम्। गम् == ज गम् == जङ्गम् + यङ् == जङ्गम्य, तन् == त + तन् == तंतन् + यङ् == तंतन्य।
[७|४|८६] जपजभदहदशभञ्जपशां च - यङ् तथा यङलुक के परे `जप् `, `जभऄ, `दहऄ, `दशऄ, `भञ्जऄ तथा `दशऄ धातुओं के अभ्यास को भी नुक् का आगम। | जप् == जजप् == जंजप् + यङ् == जंजप्यते, जभ् == जजभ् == जंजभ् + यङ् == जंजभ्यते।
[७|४|८७] चरफलोश्च - यङ् तथा यङलुक के परे `चरऄ तथा `फलऄ धातुओं के अभ्यास को भी नुक् का आगम। | चर् == चचर् == चञ्चर् / "अ" को "ऊ" होकर == चञ्चुर् / (८_२_७७सूत्र से) "उ" को दीर्घ करके चञ्चूर् == चञ्चूर्य == चञ्चूर्यते।
[७|४|८८] उत्परस्यातः - यङ् तथा यङलुक के परे `चरऄ तथा `फलऄ धातुओं के अभ्यास से परे अकार के स्थान में इकारादेश। | चञ्चूर्यते, चञ्चुरीति। पम्फुल्यते, पम्फुलीति।
[७|४|८९] ति च - यङ् तथा यङलुक के परे `चरऄ तथा `फलऄ धातुओं के अभ्यासोत्तरवर्त्ती अकार के स्थान में इकारादेश। | चूर्तिः। प्रफुल्तिः। प्रफुल्ताः, सुमनसः।
[७|४|९०] रीगृदुपधस्य च - यङ् और यङलुक् परे होने पर ऋकार-उपधा वाले अङ्ग के अभ्यास का अवयव रीक् होता है। | पुनः पुनः या अधिक होने के अर्थ में वृत् (होना) धातु से यङ् होकर वृत् य रूप बनता है। तब द्वित्य और अभ्यास-कार्य आदि होकर व वृत् य रूप बनता है। यहाँ वृत् धातु की उपधा में ऋकार है, अतः यङ्९य) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से धातु के अभ्यास व के अन्त में रीक् (री) होकर वरी वृत् य == वरीवृत्य रूप बनता है। इस स्थिति में लट् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में आत्मनेपद त , शप्, पर-रूप और एत्व होकर वरीवृत्यते रूप सिद्ध होता है।
[७|४|९१] रूग्रिकौ च लुकि - यङलुक् में ऋदुपध अ के अभ्यास को रीक के साथ-साथ रुक् तथा रिक् के आगम भी हो जाते हैं। | रुक् - नर्नर्त्ति। रिक् - नरिनर्त्ति। रीक् - नरीनर्त्ति। वर्वर्त्ति, वरिवर्त्ति, वरीवर्त्ति।
[७|४|९२] ऋतश्च - यङलुक् में ऋकारान्त अङ्ग के अभ्यास को रुक्, रिक् तथा रीक् आगम। | कृ - चर्कर्त्ति, चरिकर्त्ति, चरीकर्त्ति। हृ - जर्हर्त्ति, जरिहर्त्ति, जरीहर्त्ति।
[७|४|९३] सन्वल्लघुनि चङ्परेऽनग्लोपे - यदि णि परे रहते अक् ( अ, इ, उ, ऋ या ऌ) का लोप न हुआ हो तो चङ्परक (जिसके आगे चङ् हो) णि परे होने पर अङ् के अवयव लघुपरक (जिससे पहले लघुपरक (जिससे परे लघु वर्ण हो) अभ्यास को सन्वद्भाव होता है। | अ च कम् अ त में स्थानिवद्भाव से चङ्परक् णि अकार परे रहते अङ अचकम् है। इओसका अवयव अभ्यास च लघुपरक है, क्योंकि इसके आगे क लघुस्वरयुक्त होने के कारण लघु है।यहाँ णि-निमित्तक् अक् का लोप भी नही हुआ है। अतः यहाँ वे कार्य होंगे जो सन् परे रहते होते है।
[७|४|९४] दीर्घो लघोः - सन्वद्भाव के विषय में अभ्यास के लघु के स्थान पर दीर्घ होता है। | अचि कम् अत् में सन्वद्भाव हुआ है, अतः अभ्यास के लघु इकार को दीर्घ ईकार होकर अचीकमत रूप सिद्ध होता है। णिङ् आदेश विकल्प से होता है।
[७|४|९५] अत्स्मृ दॄत्वरप्रथम्रदस्तॄस्पशाम् - चङ् परक णि के परे `स्मृ `, `दृ`, `त्वरऄ, `प्रथऄ, `म्रदऄ, `स्तृ ` तथा `स्पशऄ धातुओं के अभ्यास के स्थान में अत् ( अकार) आदेश। | स्मृ - असस्मरत् । दॄ - अददरत्। त्वर - अतत्वरत्। प्रथ - अपप्रथत्। म्रद - अमम्रदत्। स्तॄ - अतस्तरत्। स्पश - अपस्पशत्।
[७|४|९६] विभाषा वेष्टिचेष्ट्योः - चङ् परक णि के परे `वेष्टॎ तथा `चेष्टॎ धातुओं के अभ्यास के स्थान में विकल्प से अत् आदेश। | अववेष्टत्, अविवेष्टत्। अचचेष्टत्, अचिचेष्टत्।
[७|४|९७] ई च गणः - चङ्परक णि (जिसके बाद चङ् आया हो) परे होने पर गण (गिनना) धातु के अभ्यास के स्थान में ईकार और अकार होता है। फलतः ईकार विकल्प से ही होता है। | लुङ् लकार के प्रथमपुरुष-एकवचन में गण् धातु से णिच् , च्लि-चङ्, द्वित्व, अभ्यासकार्य और चुत्व आदि होकर अज गण् इ अ त् रूप बनता है। यहाँ चङ् ( अ) परक णि (इ) परे होने के कारण प्रकृत सूत्र से गण के अभ्यास ज के अन्त्य अकार के स्थान पर ईकार आदेश होता है। और रूप बनता है अ ज् ई गण् इ अ त् । इस स्थिति में णि (इ) का लोप होकर अ ज् ई गण् अ त् ==> अजीगणत् रूप सिद्ध होता है।