[सभी अध्यायों-पादों की सूत्रसंख्या, वररुचि का कृत्रकरण, श्रीपतिदत्त का कातन्त्रपारिंशिष्ट, वर्णौ को विविध संज्ञाएँ, स्वर तथा व्यञ्जनवर्णो में सन्धि, प्रकृतिभाव आदि] आचार्यशर्ववर्मकृत विषयविभाजन १९-२१ [सन्धि - नामचतुष्टय तधा आख्यात] कातन्त्रव्याकरण का इतिहास
२१-४२
[कातन्त्रकार शर्ववर्मा का देश-काळ, कृत्सूत्रीं की रचना और आचार्य वररुचि, कातन्त्रपरिशिष्ट और आचार्य श्रीपतिदत्त, कातन्त्रपरिशिष्ट की टीकाएँ, कातन्त्रोत्तरपरिशिष्ट और आचार्य विजयानन्द , कातन्त्रधातुपाठ , कातन्त्रगणपाठ, उणादिसूत्र, कातन्त्रलिड्रानुशासन, कातन्त्रव्याकरण के वृत्तिकार, वृत्तिकार दुर्गसिंह का परिचय, कातन्त्रदुर्गवृत्ति का परिचय, व्याख्यासार, बालबोधिनी, कातन्त्ररुघुवृत्ति, कातन्त्रकौमुदी, कातन्त्रवृत्तिटीका, कातन्त्रवृत्तिपञ्जिका, कलापचन्द्र, बिल्वेश्वरटीका, उद्द्योत, त्रिलोचनचन्द्रिका, सञ्जीवनी, पत्रिका, दुर्गपदप्रबोध, पञ्जिकाप्रदीप]
त्रिविध मङ्गल = कायिक, वाचनिक, तथा मानसिक ।अनुबन्धत्रयी, महाभाष्य आदि ग्रन्थों तथा जयादित्य, भगवलाद शङ्कर, कुलचन्द्र आदि आचार्या के मतों का स्मरण, केचित् - अन्ये - मूर्ख आदि प्रतीक, “वस्तुतस्तु, परमार्थतस्तु” आदि प्रतीकों द्वारा विषय का स्पष्टीकरण, वाकू-देव-सर्वज्ञ आदि शब्दों की
व्युत्पत्ति, दुर्गसिह से पूर्ववर्ती वृत्तिग्रन्थ, केवल सूत्रव्याख्यानपरक दुर्गसिंह के शैव-बौद्ध-वैदिक मतानुयायी होने में आधार]
[कातन्त्रीय - पाणिनीय वर्णसमाम्नाय, पाणिनीय वर्णसमाम्नाय की कृत्रिमता तथा कातन्त्रीय वर्णसमाम्नाय की छोकप्रसिद्धिपरता, योगवाह-अयोगवाह, व्याकरण का सर्वपारिषदत्व, कातन्त्ररचना के प्रयोजन और रचयिता शर्ववर्मा, अक्षरसमाम्नाय को उपदेशपरम्परा तथा उसका महत्त्व, अहिर्बुध्यसंहिता,
वशिष्ठशिक्षा आदि में वर्णपाठ] स्वरसंज्ञा
४३-५१
[१४ वर्णो की स्वरसंज्ञा, स्वरों के लिए “अक्षर तथा “वर्ण” का व्यवहार, दीर्घ लृकार की मान्यता, 'स्वर' शब्दार्थविचार, सूत्रभेद] समानसंज्ञा
५१-५४
[समानसंज्ञा की अन्वर्थता, प्राचीनता, पाणिनीय व्याकरण में “अकू' प्रत्याहार का व्यवहार]
सवर्णसंज्ञा
५४-६०
[समानसंज्ञक १० वर्णो की सवर्णसंज्ञा, सवर्णसंज्ञा की अन्वर्थता, पूर्वाचार्य तथा अर्वाचीन आचार्यो द्वारा संज्ञा का व्यवहार] “हस्व-दीर्घ' संज्ञे
६०-६६
[अन्वर्थता, पूर्वाचार्यं - अर्वाचीन आचार्यो द्वारा व्यवहार, सज्जन पुरुषों के स्नेह से तुलना, हस्व - दीर्घ के लिए लघु - गुरु का प्रयोग] “नामि-सन्ध्यक्षर’ संज्ञे
६६-७५
[अन्वर्थता, पाणिनीय व्याकरण में नामी के लिए 'इच्' का तथा सन्ध्यक्षर के छिए “एच” का प्रत्याहार का प्रयोग] व्यञ्जनसंज्ञा
७५-७८
[कू से क्षु तक के वर्णो की व्यञ्जन संज्ञा, क्ष् वर्ण की मान्यता, व्यञ्जन का स्वरानुयायी होना, पूर्वाचार्यो द्वारा प्रयोग]
[व्यञ्जनवर्णो की छह संज्ञाएँ, पूर्वाचार्यो द्वारा इनका प्रयोग, अन्वर्थता, पाणिनीयव्याकरण में इनके लिए प्रयुक्त शब्द, विविध भेदकथन] . “विसर्जनीय ~ जिह्लामूलीय-उपध्मानीय” संज्ञाः ९१-९६ [विसर्जनीय का उभयविधल , अन्वर्थता, कलापव्याकरण मेंइसकी योगवाहता तथा पाणिनीय व्याकरण में अयोगवाहता, लिपिस्वरूप, इसके स्थान में होने वाले आदेश्च-जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय, कलाप तथा पाणिनीय व्याकरण में इनका लिपिभेद] ९६-९९ ११. अजुस्वारसंज्ञा [अनुस्वार की स्वरासकता तथा व्यञ्जनात्मकता, ठिपिस्वरूप, इसका योगवाह होना] १२.
पदसंज्ञा `
९९-१०८
[ऐन्र व्याकरण तथा वाजसनेयिप्रातिशाख्य के आधार पर की गई यह संज्ञा,
१३.
१ है.
पद के अनेक भेद, अन्वर्थता, पूर्वाचार्यो तथा अर्व चीन आचार्यो द्वारा व्यवहार, वाक्यपदीय की मान्यता] व्यञ्जनवर्ण ~ सम्मिरितवर्णविषयकनियमः १०८-११ [व्यञ्जन को परवर्ती वर्ण के साथ मिला देना, सम्मिलित वर्णो का विभाग विना ही अतिक्रमण किए करने का निर्देश, पाणिनि द्वारा लोकप्रसिद्धिवशातू या वर्णस्वभाववशातू इस प्रकार के नियम न बनाना] लोकोपचारादनुक्तशब्दसिद्विः
१११-१८
[अनुक्तशब्दोँ की विविध आचार्यो द्वारा की गई साधुत्वव्यवस्था, लोकार्थकथन, वैदिक शब्दों के साधुत्वविधान न करने का स्पष्टीकरण, कछापव्याकरण का वेदाड्गत्व, पाणिनीय व्याकरण का अकालकत्व ]
दितीयः समानपादः १५.
सवर्णदीर्घसन्धिः
११९-१७५ ११९-२८
[पूर्ववर्ती समानसंज्ञक वर्ण को दीर्घ तथा परवर्ती सवर्णसंज्ञक वर्ण का लोप, आगम-विकार-आदेश-लोप मेंअन्तर, पाणिनीय दीर्घविधि का अपकर्ष, आदेश-
विषयाजुक्रमणी
१९
विकारविषयक आपिशढीय मान्यता की कुलचन्द्र, हेमकर, श्रीपति आदि आचार्यो द्वारा व्याख्या, स्थानी-आदेश-निमित्त का पूर्वाचार्यों द्वारा प्रयोग, १०
रूपों की सिद्धि] गुणसन्धिः
१६.
।
१२९-३७
[कातन्त्र के अनुसार पूर्ववर्ती अवर्ण को ही “'ए-ओ-अर्-अछ्' हो जाना और परवर्ती 'इवर्ण-उवर्ण-क्रवर्ण-ढुवर्ण' का लोप, अनेक वार्तिकवचन, श्रीपतिसुभूति-चन्द्रगोमिन्-काशिकाकार आदि आचार्यो के अभिमत, भाष्य और चान्द्रव्याकरण में विरोध होने पर दोनों की प्रामाणिकता, अनेक परिभाषावचनों की व्याख्या तथा ८ शब्दरूपों का साधनप्रकार] १ $
®
वृद्धिसन्धिः १३७-४६ [पूर्ववर्ती अवर्ण को 'ऐ-औ' आदेश तथा परवर्ती 'ए-ऐ-ओ-औ' का लोप, अनेक वार्त्िकवचन, अनेक परिभाषावचन, कुलचन्द्र-श्रीपति-हेमकर आदि आचार्यों के विविध मत, ४ शब्दों की सिद्धि ]
« यकाराद्यादेशसन्धिः (यणूसन्धिः)
१४७-५४
[पूर्ववर्ती इवर्ण को यकार, उवर्ण को बकार, ऋवर्ण को रकार, ठूवर्ण को लकार आदेश तथा परवर्ती असवर्ण स्वर के लोप का अभाव, अनेक शब्दों की व्युत्पत्ति, पाणिनीय प्रक्रिया मेंशब्दलाघव और कातन्तरप्रक्रिया मेंअर्थलाघव, 'अन्ये-केचित्” आदि प्रतीकों से विविध मतों का स्मरण, आठ शब्दरूपों की सिद्धि] १९,
अयाद्यादेशसन्धिः
१५४-६३
पूर्ववर्ती 'ए-ओ-ऐ-औ' के स्थान में क्रमशः 'अय्-अव्-आय्-आव्' आदेश एवं परवर्ती असवर्ण स्वर का लोपाभाव, शार्ववर्मिक कातन्त्रव्याकरण मेंविभक्ति" पद-वर्णो का आदि-मध्य-अन्तलोप, सू में विवक्षानुसार सन्धि, कुलचन्द्र श्रीपति-रीकाकार आदि आचार्यो के अभिमत, वर्णागम आदि ५ प्रकार के निरुक्त की व्याख्या, संहिता में नित्यता और विवक्षा, पाणिनि-कात्यायनभाष्यकारों में उत्तरोत्तर की प्रामाणिकता, आठ शब्दरूपों की सिद्धि]
कातन्त्रव्याकरणम् २०,
“यु-वु-अ*-लोपः
१६३-७१
[पदान्तवर्ती 'अय्-आय्-अव्-आव्' में 'यू-व्” का वैकल्पिक लोप तथा स्वरसन्धि का अभाव, पदान्तस्थ 'ए-ओ से परवर्ती अकार का लोप, अयादिप्रभृति शब्दों की व्युत्पत्ति, 'कुळचन्द्र-शिवदेव-क्रजु-मूर्ख-पञ्जीकार' आदि आचार्यो के अभिमत, सुहदुपदेश की चर्चा, अनेक परिभाषावचनों का स्मरण, १० शब्दरूपों की सिद्धि] २१,
स्वरसन्ध्यभावपरिभाषा
१७१-७५
[व्यञ्जनवर्ण के पर में रहने पर स्वरवर्णो की सन्धि का अभाव, नञूनिर्दिष्ट
विधि की अनित्यता ,कुछ शब्दों की व्युत्पत्ति, मन्दबुद्धिवाले शिष्यों केअवबोधार्थ सूत्ररचना, सम्वद्ध न्यायवचनों का स्मरण]
तृतीय ओदन्तपादः २२.
प्रकृतिभाबसन्धिः
१७६-१९२ १७६-९२
[चार सूत्रोंद्वारा “ओकारान्त-अ-इ-अ-आ-द्विवचनान्त-ई-ऊ-ए-बहुवचन - अमीप्ठुत' में सन्ध्यभाव, नित्यशब्दार्धसम्बन्ध, अर्थभेद से आ' का सानुबन्धत्वनिरनुबन्धत्व, कुलचन्द्र आदि आचार्यो के अभिमत, अनेक परिभाषावचगों की व्याख्या, शब्दरूपसिद्धि, प्छुत वर्णो का द्विमात्रिकत्व]
चतुर्थो वर्गादिपादः २२.
वर्गीयतृतीयपञ्चमवर्णा देशः
१९१-२४५ १९३-२०१
[पदान्तवर्ती वर्गीय प्रथम वर्णो के स्थान में'तृतीय-पञ्चम” वर्णा देश, पाणिनीय प्रक्रिया का विवेचन, रांज्ञापूर्वक निर्देश की सुखार्धता, पाणिनीय निर्देश की गौरवाधायकता, विविध आचार्यो के अभिमत, अनेक परिभाषावचनों की योजना, विविध शब्दों की रूपसिद्धि] २४,
शकारस्य छकारादेशः
२०१-०५
[शकार के स्थान में वैकल्पिक छकारादेश, 'छ-अनुनासिक' के भी पर में रहने पर छकारादेश की प्रवृत्ति, 'पर” शब्द का श्रुतिसुखार्थ पाठ, कुछ परिभाषावचनों की योजना, १२ शब्दों की रूपसिद्धि |
बिषयानुक्रमणी २५.
पूर्वचतुर्थवर्णा देशः
२१
२०५-१०
[हकार के स्थान मेंपूर्वचतुर्थ वर्णा देश,'एव' पदपाठ की तृतीयमतव्यवच्छेदार्थता, श्रुत - अनुमित विधियों में श्रुतविधि की बलवत्ता, विद्यानन्द-भर्तृहरिकुलचन्द्र आदि आचार्यों के अभिमत, पाणिनि के द्वारा पूर्वसवर्णादेश का विधान, दो विभाषाओं के मध्य में पठित विधि की नित्यता, ५ शब्दों की रूपसिद्धि] २६,
तकारस्य पररूपम् [पदान्तवर्ती
तकार
२१०-१३ को पररूप, विविध आक्षेपों का समाधान, सुखार्थ
विधि - शब्दपाठ आदि का महत्त्व - 'अहो रे पाण्डित्यम्, सुखादन्यः कः पदार्थों गरीयान्”, टीकाकार-कुलचन्द्र-विद्यानन्द आदि आचार्यो के अभिमत, शब्दरूपसिद्धि] २७,
तकारस्य चकारादेशः
२१३-१६
[पदान्तवर्ती तकार को चकारादेश, सूत्र का आनर्थक्य तथा सार्थक्य, हेमकर-विद्यानन्द आदि आचार्यो के अभिमत, शब्दव्युपत्ति, प्रश्न के रूप में प्रसिद्धवचन का स्मरण -
चं शे सूत्रमिदं व्यर्थं यत् कृतं शर्ववर्मणा।
तस्योत्तरपदं ब्रूहि यदि वेत्सि कलापकम् ॥ उत्तर के रूप में प्रसिद्ध श्छोकवचन मूठधीस्त्वं न जानासि छत्वं किल विभाषया।
यत्र पक्षे न च छत्व॑ तत्र पक्षे त्विदं बच: ॥ दो शब्दों की रूपसिद्धि] र्८ क
डू-णु-नुवर्णानां द्वित्वम्
२१६-१९
[पदान्तवर्ती इन तीन वर्णो का द्वित्व, विविध परिभाषावचनों की योजना,
पाणिनीयप्रक्रिया की दुरूहता, तीन शब्दों की रूपसिद्धि]
कातन्त्रव्याकरणम्
२२
३ ९ क
२१९-२८
नकारस्य शकार-षकार-सकारादेशाः
[पदान्तवर्ती नकार के स्थान में अनुस्वारपूर्वक शकार-षकार-सकार आदेश, पाणिनीय प्रक्रिया में गौरव और दुर्बोधता, कातन्त्रीय प्रक्रिया में संक्षेप और सरलता, “पुंस्कोकिल शब्द की परिभाषा संवर्धितः पितृभ्यां य एकः पुरुषशावकः। पुंस्कोकिलः स विज्ञेयः परपुष्टो न कर्हिचित् ॥ आठ शब्दों की रूपसिद्धि] ३०,
नकारस्य 'लू-ञ्-म्च्-ण्? आदेशाः
२२८-३९
[पदान्तवर्ती नकार को लकारादि ४ आदेश, कारहीनपाठ की सार्थकता, पाणिनि
का सावर्ण्यज्ञान गौरवाधायक, परिभाषावचनों का स्मरण, हेमकर-कुळचन्द्र आदि आचार्यों के अभिमत, अठारह शब्दों की रूपसिद्धि] ३१.
[पदान्तवर्ती मकार को अनुस्वारादेश तथा अनुस्वार को पञ्चम वणदिश, पाणिनीय प्रक्रिया की प्रयलसाध्यता, पाँच शब्दों की रूपसिद्धि]
पञ्चमो विसर्जनीवपादः २२.
विसर्गस्य शू-ष्-सू- जिक्वामूलीय- उपध्मानीयादेशाः
२४६-३२० २४६-५३
[चकारादि वर्णो के पर में रहने पर विसर्ग के स्थान में शकारादि ५ आदेश,
कातन्त्र-पाणिनीय प्रक्रियाओं का उत्कर्षापकर्ष, दोनों व्याकरणों मेंजिह्नामूछीयउपध्मानीय का लिपिभेद, विविध अभिमत तथा दश शब्दों की रूपसिद्धि] ३३.
विसर्गस्य पररूपादेशः
२५३-५५
[शकार के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती विसर्ग को शकार, प्रकार के परवर्ती होने पर षकार तथा सकार के परवर्ती होने पर सकारादेश, पाणिनीय प्रक्रिया में गौरव, तीन शब्दों की रूपसिद्धि, इस सूत्र में चार प्रश्नों के उत्तर -
कव हरिः शेते ? का च निकृष्टा, को बहुलार्थः ? किं रमणीयम् । वद
कातन्त्रे
कीदृकू सूत्रं शेषे, सेवा,
वा, पररूपम् ||]
विषयानुक्रमणी डेहै.4७
बिसर्गस्य “उ-लोप-र” आदेशाः
२३
२५५-८१
[दो अकारों के मध्यवर्ती विसर्ग को अकार - घोषवान् वर्णो के मध्यवर्ती विसर्ग को उकारादेश, वैकल्पिक यकारादेश, लोप तथा रकारादेश, विविध आचार्यो के अभिमत, शब्दरूपतिद्धि, पाणिनीयप्रक्रिया का गौरव, चतुर्विध बाहुरकविधि, 'महच्चरण' प्रतीक से दो विशिष्ट अभिमतों का तथा कुलचन्द्र के एक विशिष्ट अभिमत का उपस्थापन] ३५.
विसर्जनीयलोपे पुनः सन्धेरभावः
२८१-८५
['क इह, देवा आहुः, भो अत्र” में प्राप्त गुण-दीर्घ-अयादेशसन्धि का अभाव, विविध आचार्यों के अभिमत, परिभाषावचन, द्रुतादि वृत्तियों का विशेष उपयोग अभ्यासार्धे द्रुतां वृत्ति प्रयोगार्थे तु मध्यमाम्। शिष्याणामवबोधार्थ कुर्याद् वृत्ति विलम्बिताम् ॥ २८५-८७ ३६. रकारस्य लोपः पूर्ववर्तिनः स्वरस्य दीघदिशश्च [अग्नी रथेन, पुना रीति” आदि प्रयोगों में पूर्ववर्ती रेफ का लोप तथा उससे पूर्ववर्ती स्वर वर्ण को दीर्घ आदेश, सूत्रपठित चकार को अन्वाचयशिष्ट मानना, कुछ विशेषताएँ, शब्दरूपसिद्धि ] ३७. छकारस्य द्विभावः २८७-९१ ['इच्छति, गच्छति, कुटीच्छाया’ आदि में छकार को द्विर्भाव तथा पूर्ववर्ती छकार को चकारादेश, पाणिनीयप्रक्रिया में गौरव-तुगागम आदि के विधान से, शब्दरूपसिद्धि] ड fA 9.
सर्कारेण, होतृकारः' आदि पाँच सन्धियों के दुर्गवृत्ति में उदाहृत तथा रूपसिद्धिवाले १९६ शब्दों की वर्णानुक्रम सूची] ४०. तृतीयं परिशिष्टम् ३२६-३७ दुर्गवृत्ति, दुर्गरीका, विवरणपड्जिका तथा कलापचन्द्र नामक चार व्याख्याओं में उद्धृत १४५ श्लोकों का सङ्ग्रह । इसमें कुछ अर्धश्लोक भी सम्मिलित हैं] ४१.
चतुर्थं परिशिष्टम्
३३८-४१
[दुर्गवृत्ति, दुर्गटीका, विवरणपठिजका तथा कळापचन्द्र नामक चार व्याख्याऔं में जिग शब्दों के ठौकिक विग्रह, समासादि उक्त हुए हैं, वे १६७ शब्द इस परिशिष्ट में संगृहीत है] ४२. पञ्चमं परिशिष्टम् = विशिष्टशब्दाः ३४२-४८ [विषय, प्रक्रिया, पारिभाषिक प्रयोग, शैली आदि के सूचक लगभग ३०० विशिष्ट शब्दों का संग्रह इस परिशिष्ट में किया है] ४३. षष्ठं परिशिष्टम् = उद्धृता ग्रन्थाः ३४९-५२ [दुर्गवृत्ति, दुर्गरीका, विवरणपञ्जिका, कलापचन्द्र नामक चार व्याख्याओं
तथा समीक्षा में जिन लगभग १५० ग्रन्थों का स्मरण किया गया है, उनका
यहाँ संग्रह है] ४४. सप्तमं परिशिष्टम् = उद्धृतानि आचार्यनामानि ३५३-५६ [दुर्गवृत्ति, दुर्गटीका, विवरणपञ्जिका, कळापचन्द्र नामक चार व्याख्ाओं
में तथा समीक्षा में प्रसङ्गतः जिन लगभग १४० आचार्य का समुदाय या व्यक्ति के रूप में स्मरण किया गया है, उनका यहाँ संकलन है] ४५. अष्टमं परिशिष्टम् = हस्तलेखादिसहायकग्रन्थपरिचयः ३५७-६१ [१६१ हस्तलेखों तथा १३ मुद्रित ग्रन्थों का परिचय (हस्तलेखसूची ,ग्रन्थसंख्या , प्रकाशनस्थान, प्रकाशनसमय) | कातन्त्र के अतिरिक्त भी लगभग ४० ग्रन्थों का प्रकाशनादि परिचय दिया गया है, जिनसे उद्धरण - समीक्षा आदि कार्यों में सहायता प्राप्त हुई है] ४६. नवमं परिशिष्टम् = साडेतिकशब्दपरिचयः ३६२-६४
॥श्रीः॥
प्रास्ताविकम् कातन्त्र व्याकरण की रचना के प्रयोजन कथासरित्सागर आदि के अनुसार आन्ध्रदेशीय राजा सातबाहन एक बार वसन्त
ऋतु में रानियों केसाथ जलक्रीडा कर रहे थे |उस जलक्रीडा में की जा रही पानी की बौछार से आन्त होकर उनकी ब्राह्मणजातीया महारानी ने प्रार्थना की - 'मोदकैर्मा
ताडय'। इस वचन का विवक्षित अर्थ था- “मुझ पर पानी मत फेंको', क्योंकि मैं जलक्रीडा से पर्याप्त श्रान्त हो गई हूँ। किन्तु संस्कृतभाषा तथा उसके व्याकरणशास्त्रीय सन्धिविषयक ज्ञान से अनभिज्ञ होने के कारण राजा ने उसका अर्थ समझा - 'मुझे मोदक = लड़्डुओं से मारो' । इस अभिप्राय से राजा ने सेवक भेजकर अनेक मोदक मँगवाए और महारानी को समर्पित किए |तब उपहास करते हुए रानी ने राजा से कहा राजन्नवसरः
कोऽत्र
मोदकानां
जलान्तरे।
उदकैः सिञ्च मा त्वं मामित्युक्ते हि मया खलु ॥ सन्धिमात्रं न जानाति माशद्धोदकशब्दयोः। न च प्रकरणं वेत्सि मूर्खस्त्वं कथमीटृशः। (क० स० सा० ७।११६-१।७) |
महाराज ! जलाशय मेंमोदकों का क्या उपयोग ? मैंने तो आपसे कहा था “मुझ पर पानी मत फेंको '। आप 'मा' और 'उदक' शब्दों की सन्धि भी नहीं जानते । जलक्रीडा का यह अवसर (प्रकरण) भी आपके ध्यान में नहीं आया |आप इतने अज्ञानी कैसे ? यह सुनकर राजा लज्जित हुए और उसने अपनी सभा के दो पण्डितोंगुणाढ्य और शर्ववर्मा को बुलवाया और उनसे पूछा - संस्कृत सीखने में कितना
२
कातनाव्याकरणमु
समय छगेगा ? तब गुणाढ्य ने कहा - महाराज ! सभी विद्याओ का मुख व्याकरण है, उसमें पारङ्गत होने के लिए १२ वर्ष लगते हैं, किन्तु मैं आपको छह वर्षों में ही उसे सिखा दूँगा । इस पर शर्ववर्मा ने छह महीनों में ही व्याकरण सिखा देने की प्रतिज्ञा की । शर्ववर्मा की इस प्रतिज्ञा पर गुणाढ्य ने घोषणा की - यदि आप महाराज को छह महीनों में संस्कृत-व्याकरण सिखा देंगे तो मैंप्रचलित संस्कृत, प्राकृत और देशी भाषाओं मेंसे किसी भी भाषा मेंग्रन्थरचना नहीं करूँगा ।शर्ववर्मा ने अपनी प्रतिज्ञा के सम्बन्ध में और भी दृढता दिखाते हुए कहा- “यदि मैं महाराज को छह महीनों में संस्कृत नहीं सिखा सका तो आपकी (गुणाढ्य की) पादुकाएँ १२ वर्षों तक शिर पर धारण करूँगा! |शर्ववर्मा ने यह प्रतिज्ञा तोकर ली, परन्तु इसका निर्वाह करने मेंकठिनाई प्रतीत हुई ।उन्होंने इसके निर्वाह हेतुपर्याप्त विचार किया । तदनुसार तपस्या करके स्वामिकात्तिकेय को प्रसन्न कर लिया और उनकी कृपा से कातन्त्र या कालाप नामक सुलभ बालबोध संस्कृत-व्याकरण प्राप्त किया |
फिर उन्हीं की अनुकम्पा से सातवाहन राजा को पूर्वोक्त अवधि के अन्तर्गत संस्कृतव्याकरण में पारङ्गत कर दिया |
ज्ञातव्य है कि स्वामिकार्त्तिकिय ने प्रसन्न होकर अपना व्याकरण प्रदान करने के लिए जब “'सिद्धो बर्णसमाम्नायः इस प्रथम सूत्र का उच्चारण किया था तो विना ही उनके आदेश के शर्ववर्मा ने अग्रिम सूत्र “तत्र चतुर्दशादौ स्वराः का
उच्चारण कर दिया | इस पर क्रुद्ध होकर स्वामिकार्तिकिय ने कहा था कि अब यह व्याकरण पाणिनीय व्याकरण का उपमर्दक नहीं हो सकता, किन्तु अब यह एक संक्षिप्त व्याकरण के ही रूप में प्रतिष्ठित हो सकेगा- “अधुना स्वल्पतन्त्रत्बातू कातन्त्राख्यं भविष्यति’ (कथा० सा० १।६-७) | इस प्रकार इस व्याकरण की रचना का मुख्य प्रयोजन सिद्ध होता है- राजा सातवाहन को अल्पकाल में ही व्याकरण का ज्ञान प्राप्त करा देना' |इस सम्बन्ध में उपर्युक्त घटना का चित्रण कलापचन्द्रकार कविराज सुषेण विद्याभूषण ने इस प्रकार किया हैराजा कश्चिन्महिष्या सह सलिलगतः खेलयन् पाणितोयैः सिञ्चंस्तां व्याहतोऽसावतिसलिलतया मोदकं देहि देव! मूर्खत्वात् तन्न बुद्ध्वा स्वरघटितपदं मोदकस्तेन दत्तो राज्ञी प्राज्ञी ततः सा नृपतिमपि परति मूर्खमेनं जगर्ह ॥
प्रास्ताविकम्
३
पुरा किल श्रीसातवाहनाभिधानं वसुधाधिपं झटिति व्युत्यादयितु प्रतिश्वुतवता भगवता शर्ववर्माचार्येण कुमाराभिधानो भगवान् भवानीसुतस्तपसा समाराधितः, स च तदाराधनाधीनतामुपगतः सन् निजव्याकरणज्ञानमाविर्भावयितुं पद्यपादरूपं सूत्रमिदमादिदेश - सिद्धो वर्णसमाम्नाय इति (क० च० १।१।१) | आचार्य शशिदेव ने अपने ब्याख्यानप्रक्रिया नामक ग्रन्थ में कहा है कि अल्पमतिवाले वैदिको, अन्य शास्त्रों का अनुशीलन करने बालों, दूसरों की निन्दा करने वाले धनिको, आलसी व्यक्तियों, लोभ में फँसे व्यापारियों तथा अन्य विविध जीविकाओं का अर्जन करने वाले व्यक्तियों को अतिशीघ्र व्याकरण का बोध कराने में यह कलाप व्याकरण समर्थ है | इस प्रकार सरल और संक्षिप्त होमे के कारण अल्प समय और अल्प श्रम में ही विविध प्रकार के व्यक्तियों को ज्ञान प्राप्त कराने में समर्थ इस व्याकरण के अनेक, विविध या व्यापक प्रयोजन कहे जा सकते है । शशिदेव का वचन इस प्रकार हैछान्दसाः स्वल्पमतयः शास्त्रान्तररताश्च ये। ईश्वरा वाच्यनिरतास्तथालस्ययुताश््च ये॥ बणिजस्तृष्णादिसंसक्ता लोकयात्रादिषु स्थिताः। तेषां क्षिप्रं प्रबोधार्थमनेकार्थं कलापकम् ॥ (व्या० प्र १।१५-१६)
विविध नाम १. कातन्त्रम् ईषद् अल्पं संक्षिप्तं वा तन्त्रं कातन्त्रम् । ईषदर्थक 'कु' शब्द को 'का' आदेश
होता है- “का त्वीषदर्थेऽक्षे” (कात० १।५ |२५) ।तन्त्यन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दा अनेन इति तन्त्रं व्याकरणम् । अर्थात् संक्षिप्त व्याकरण को 'कातन्त्र' कहते हैं। ज्ञातव्य है कि यह पूर्ववर्ती पाणिनीय व्याकरण की अपेक्षा संक्षिप्त है, क्योंकि इसमें मूलभूत १४०० ही सूत्र हैं |यह भी ज्ञातव्य है कि स्वामिकार्त्तिकिय ने इसे पाणिनीय व्याकरण का उपमर्दक न कहकर उसकी अपेक्षा इसे स्वल्प महत्त्व का बताया था । इसलिए भी इसे कातन्त्र कहते हैं ।कुछ विद्वान् कार्तिकेयतन्त्र, काशकृत्सनतन्त्र, कात्यायनतन्त्र या कालापकतन्त्र को संक्षेप में कातन्त्र कहते हैं |किसी बृहतूतन्त्र का संक्षेप होने के कारण भी इसे कातन्त्र नाम दिया गया है।
है
कातन्त्रन्याकरणम्
२. कलापम्, कालापम् या कलापकम्
गौडदेशीय तथा तिब्बतदेशीय विद्वान् इस नाम का व्यवहार करते हैं |कलाम्= व्याकरणांशम्, संक्षेपम्, अल्पशब्दान् वा आप्नोति व्याप्नोति अधिकरोति वा कलापम्, तदेव कालापम् । संज्ञा अर्थ में कन् प्रत्यय किए जाने पर कलापक शब्द बनता है ।अर्थात् अनेक व्याकरणों के सार अंश को जो समाहत किए हुए है, उसे कलाप कहते हैं ।कलाप का अर्थ संग्रह भी होता है |अर्थात् बहुत से व्याकरणं का जिसमें संग्रह किया गया हो, उसे कलाप कहते हैं। कलाप = मयूरपिच्छ | शर्ववर्मा की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने कुमार कार्त्तिकेय को मनोरथ-एर्ति हेतु आदेश दिया । तदनुसार कार्त्तिकेय ने अपने वाहन मयूर के पडूख (पिच्छ) पर सूत्र लिखकर शर्ववर्मा को प्रदान किया |इस कारण भी इसको कलाप नाम दिया गया हैशडूरस्य मुखाद् वाणीं श्रुत्वा चैव षडाननः। लिलेख शिखिनः पुच्छे कलापमिति कथ्यते॥
कलापी = मयूर द्वारा इसकी प्राप्ति में सहायता किया जाना भी इस नाम का कारण है | इसी कलाप शब्द से स्वार्थ में अणू प्रत्यय करने पर कालाप तथा संज्ञा अर्थ में कनू प्रत्यय करने पर कलापक शब्द निष्पन्न होता है | ३. कौमारम्
कुमार = कार्तिकेय द्वारा प्राप्त तथा प्रोक्त होने के कारण इसे कौमार कहते हैं | कुमार = सुकुमारमतिवाले बालकों के लिए अधिक उपकारक होने के कारण भी इसे कौमार नाम दिया गया है। वादिपर्वतवज्र भावसेन के अनुसार इस नाम का कारण बताया गया है- कुमारी = सरस्वती के द्वारा इसे अधिष्ठित = स्वीकार या प्रवर्तित किया जानाब्राह्म्या कुमार्या प्रथमं सरस्वत्याऽप्यधिष्ठितम्। अईम्पदं संस्मरन्त्या तत्कौमारमधीयते ॥
कुमार्या अपि भारत्या अकारादिहपर्यन्तस्ततः
अड़न्यासेऽप्ययं क्रमः। कौमारमित्यदः॥ (कातन्त्ररूपमाला के अन्त में)
प्रास्ताविकम्
५
राजकुमारों के उद्देश्य से बनाया जाना भी इस माम का कारण माना जाता है। ४, शार्ववर्मिकम्
स्वामिकार्तिकेय की आराधना करके उनकी प्रसन्नता से प्राप्त व्याकरण का प्रवचन आचार्य शर्ववर्मा ने किया था, अतः इसे शार्ववर्मिक कहते हैंदेवदेवं प्रणम्यादौ सर्वज्ञं सर्वदर्शिनम् । कातन्त्रस्य प्रवक्ष्यामि व्याख्यानं शार्ववर्मिकम् ॥ (कात० दु० वृ०-ग्रन्थारम्भ)
श्रीमन्नत्वा परं ब्रह्म बालशिक्षां यथाक्रमम्।
संक्षेपाद् रचयिष्यामि ' कातन्त्रात्’ शार्ववर्मिकात् ॥ (बा० शि० व्या०-ग्रन्थारम्भ) ५. दौर्गसिहम्, दुर्गसिहीयम् वृत्ति, टीका, उणादिवृत्ति, लिङ्गानुशासन, परिभाषावृत्ति इत्यादि की रचना करके
दुर्गसिंह ने कातन्त्र व्याकरण का पर्याप्त परिष्कार तथा परिढुंहण किया है । अतः उनके नाम पर इसे दौर्गसिह या दुर्गसिंहीय कहते हैं । विषयपरिचय आचार्य शर्ववर्मा ने अपने व्याकरण की रचना में “मोदकं देहि” वाक्य को आधार माना है | 'मोदकम्” पद में 'मा+उदकम्' ऐसा सन्धिविच्छेद किया जाता है |अतः सर्वप्रथम सन्धिप्रकरण की रचना की गई है | इस अध्याय के ५ पादो तथा ७९ सूत्रों मेंस्वर-व्यञ्जन-प्रकृतिभाव-अनुस्वार तथा विसर्गसन्धि-विषयक नियम बताए गए हैं । 'मोदकम्' एक स्याद्यन्त पद भी है, तदनुसार द्वितीय अध्याय में नामपदसम्बन्धी विचार है । तीन पादों में षड्लिहुविचार, चतुर्थ में कारक, पञ्चम में समास तथा षष्ठ पाद में तद्धित प्रकरण प्राप्त है । तद्धित और समासपाद के सूत्र श्लोकबद्ध है | 'षङ्लिङ्ग- कारक - समास-तद्धित’ इन चार प्रकरणों के कारण इस अध्याय को नामचतुष्टय कहते हैं |इसके छह पादों में क्रमशः ७७, ६५, ६४,
५२, २९, ५० सूत्र तथा कुल सूत्रसंख्या ३३७ है | उक्त वचन में 'मौदकम्' के
कातन्त्रव्याकरणम्
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बाद 'देहि' यह क्रियापद है । इस अभिप्राय से नामचतुष्टय के बाद शर्ववर्मा ने आख्यात नामक तृतीय अध्याय की रचना की है, जिसमें ८ पाद तथा ३४+४७+४२+९३+४८+१०२+३८+३५ = ४३९ सूत्र हैं |प्रथम पाद मेंपरस्मैपद आदि आख्यातप्रकरणोपयोगिनी कुछ संज्ञाएँ, द्वितीय पाद में वे प्रत्यय, जिनसे नामधातुएँ निष्पन्न होती हैं | तृतीय पाद में द्विर्वचनविधि, चतुर्थ में सम्प्रसारणादि विधियाँ | पञ्चम मेंगुण आदि आदेश, षष्ठ मेंअनुषङ्गलोपादि, सप्तम में इडागमादि तथा अष्टम में प्रथमवर्णादि आदेश निर्दिष्ट हैं। व्याख्याकारों के अनुसार चतुर्थीविधायक “तादर्थ्ये”? (२।४।२७) सूत्र दुर्गसिह ने चान्द्रव्याकरण से लेकर इसमें समाविष्ट कर दिया है । इस प्रकार आचार्य शर्ववर्मा-द्वारा रचित सूत्रों की कुल संख्या ७९+३३७+४३९= ८५५ है| इसमें दुर्गसिह द्वारा उद्धृत एक सूत्र भी सम्मिलित है । | “आचार्य शर्ववर्मा 'वृक्ष' आदि शब्दों की तरह कृत्रत्ययसाधित शब्दों को भी रूढ मानते थे । अतः उन्होंने कृत्सूत्र नहीं बनाए । उनकी रचना वररुचि कात्यायन ने की है। इन सूत्रों की वृत्ति के प्रारम्भ में दुर्गसिंह ने कहा है-
वृक्षादिवदमी रूढाः कृतिना न कृताः कृतः। कात्यायनेन
ते सृष्टा बिबुद्धिप्रतिबुद्धये ॥
इस चतुर्थ “क्रृतूप्रत्यय” नामक अध्याय में ६ पाद तथा ८४+६६+ ९५+७२+११३+११६ = ५४६ सूत्र हैं । इन दोनों आचार्यो द्वारा रचित कुल सूत्र ८५५+५४६=१४०१ कातन्त्रव्याकरण के मूल सूत्र माने जाते है ।
श्रीपतिदत्त ने कातन्त्रपरिशिष्ट तथा चन्द्रकान्ततर्कालंकार ने छन्दःप्रक्रिया की रचना इसे सर्वाङगपूर्ण बनाने के लिए की है | सम्प्रति इसके धातुपाठ में १३४७ धातुसूत्र तथा लगभग १८०० धातुएँ प्राप्त हैं | दुर्गवृत्ति आदि व्याख्याओं में इसका गणपाठ मिलता है | कम से कम २९ गणों के शब्द अवश्य. ही पढ़े गए हैं । उणादिसूत्रों की रचना दुर्गसिंह ने की है । इसमें ६ पाद तथा ३९९ सूत्र हैं । ८७ कारिकाओं में निबद्ध इसका लिङ्गानुशासन आचार्य दुर्गसिंह-रचित प्राप्त होता है |परिभाषापाठ पर दुर्गसिंह तथा भावशर्मा ने वृत्तियाँ लिखी हैं । शिक्षासूत्र तथा उपसर्गसूत्र भी कातन्त्रव्याकरणानुसारी प्राप्त हो जाते है ।
प्रास्ताविकम्
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सन्धिप्रकरण के प्रथम पाद में २३ सूत्र हैं । १-२० सूत्रों में २० संज्ञाएँ निर्दिष्ट हुई हैं- वर्णसमाम्नाय, स्वर, समान, सवर्ण, इस्व, दीर्घ, नामी, सन्ध्यक्षर, व्यञ्जन, वर्ग, अघोष, घोषवतू, अनुनासिक, अन्तस्था, ऊष्म, विसर्जनीय, जिह्नामूलीय, उपध्मानीय, अनुस्वार तथा पद । अन्तिम तीन सूत्र परिभाषासूत्र हैं । जिन शब्दों के साधुत्वनियम इस व्याकरण में नहीं बनाए गए हैं, उनकी सिद्धि लोकव्यवहार से कातन्त्रकार ने मानी है- '“लोकोपचारादू ग्रणसिद्धिः? (कात० १।१।२३)
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कातन्त्रव्याकरण के वर्णसमाम्नाय में ५२ बर्ण पठित हैं- १४ स्वर, ३४
व्यञ्जन तथा अनुस्वार-विसर्ग-जिह्वामूछीय-उपध्मानीय उभयविध ।पाणिनीय व्याकरण में ९ अच् एवं ३३ हलू वर्णो का पाठ होने से कुल वर्णसंख्या ४२ है । इन दोनों में विशेष अन्तर यह है कि कातन्त्र व्याकरण में लोकप्रसिद्ध वर्णों को तथा उनके क्रम को स्वीकार किया गया है | इसके अतिरिक्त किसी वर्ण को दो बार नहीं पढ़ा गया है, जबकि पाणिनीय व्याकरण के वर्णसमाम्नाय में अनुस्वार - विसर्ग जिह्लामूलीय-उपध्मानीय को छोड़ दिया गया है, हकार का दो बार पाठ है एवं 'यू-वू-र्-छ्' का अक्रम से पाठ किया गया है । कातन्त्रीय वर्णसमाम्नाय के प्रारम्भिक १४ वर्णौ की स्वरसंज्ञा की गई है । इन १४ वर्णो में दीर्घ ळू भी पठित है |पाणिनि ने ९ ही अच् माने हैं, इनमें ळू को दीर्घ नहीं माना जाता तथा अत्यन्त कल्पित अच् शब्द का व्यवहार किया जाता है | कातन्त्रकार ने लोकप्रसिद्ध स्वर शब्द का व्यवहार किया है एवं दीर्घ वर्ण भी वर्णसमाम्नाय में पढ़े हैं | इन स्वरसंज्ञक १४ वर्णो में से प्रारम्भिक १० वर्णो की समानसंज्ञा की गई है |पाणिनीय व्याकरण में यह संज्ञा नहीं है । इनमें से प्रत्येक दो-दो वर्णो की सवर्णसंज्ञा, सवर्णसंज्ञक वर्णो
में भी पूर्ववर्ती की हस्वसंज्ञा- परवर्ती की दीर्घसंज्ञा, स्वरसंज्ञक १४ वर्णो में से अ-आ को छोड़कर १२ वर्णो की नामी संज्ञा, 'ए-ऐ-ओ-औ' इन चार वर्णौ की सन्ध्यक्षरसंज्ञा की है । इस प्रकार स्वरसंज्ञक वर्णो में 'समान-सवर्ण-हस्व-दीर्घ-नामी-
सन्ध्यक्षर’ संज्ञाओं का व्यवहार कातन्त्रकारनेपूर्वाचार्यो के अनुसार किया है ।पाणिनीय व्याकरण में स्व-दीर्घ-सवर्ण को छोड़कर शेष के लिए स्वकल्पित शब्दों का ही व्यवहार है । जैसे सन्ध्यक्षर के लिए एच् तथा नामी के लिए इच् प्रत्याहार का | कू से लेकर क्ष तक के ३४ वर्णो की कातन्त्रकार ने व्यञ्जन संज्ञा की है | इसके लिए पाणिनि ने 'हढ्' प्रत्याहार का प्रयोग किया है । व्यञ्जनसंज्ञक वर्णौ में भी पाँच-पाँच वर्णो की वर्गसंज्ञा,सबर्गीय प्रथमःद्वितीय-श-ष-स' वर्णों की
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कातन्त्रव्याकरणम्
अघोषसंज्ञा, वर्गीय तृतीय-चतुर्ध-पञ्चम-यू-र्-छ-व्-ह' वर्णों को घोषवत् संज्ञा, 'ङ्ञ्-णू-न्-म्' वर्णो की अनुनासिक संज्ञा, 'यू-र्लू-व्' वर्णो की अन्तस्था संज्ञा तथा 'शू-षू-स्-ह्' वर्णो की ऊष्म संज्ञा विहित है । पाणिनि ने अघोष के लिए खर् तथा घोषवत् के लिए हश् प्रत्याहार का व्यवहार किया है । स्वर के बाद आने वाळे ऊपर-नीचे दो बिन्दुओं की विसर्जनीय संज्ञा, कू-खू वर्णो से पूर्ववर्ती विसर्ग के स्थान में होने वाले वज्राकृति वर्ण की जिह्नामूलीय संज्ञा, पू-फू वर्णोसे पूर्ववर्ती विसर्ग के स्थान मेंहोने वाले गजकुम्भाकृति वर्ण की उपध्मानीय संज्ञा तथा स्वर के बाद आने वाळे एक बिन्दु की अनुस्वार संज्ञा सूत्रों में निर्दिष्ट है ।अर्थवान् प्रकृति-विभक्ति के समुदित रूप की पदसंज्ञा कातन्त्रव्याकरण मेंपूर्वाचार्यौ के अनुसार परिभाषित हुई है,जब कि पाणिनि सुबन्त-तिङन्त रूपों की पदसंज्ञा स्वीकार करते हैं | ऐन्द्र व्याकरण में पदसंज्ञा करने वाला सूत्र था - “अर्थः पदम्?! । इस प्रकार कातन्त्रकार ने बीस सूत्रों द्वारा बोस संज्ञाएँ करने के बाद तीन परिभाषाएँ दी हैं | प्रथम परिभाषा के अनुसार लेखनादि में व्यञ्जन को परवर्ती वर्ण से सम्बद्ध करना चाहिए, स्वर को नहीं | द्वितीय परिभाषा में कहा गया है कि 'वैयाकरणः, उच्चकैः’ आदि शब्दो में सम्मिलित बर्णो का विभाग विना ही अतिक्रमण (हेर-फेर)
किए करना चाहिए ।तृतीय परिभाषा मेंएक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण निर्देश हैकि जिन शब्दों का साधुत्वविधान सूत्रों द्वारा नहीं हुआ है,उनकी सिद्धि छोकव्यवहार के अनुसार जान लेनी चाहिए - “'लोकोपचारादू ग्रहणसिद्विः? (१।१।२३) | पाणिनीय व्याकरण में इस निर्देश के लिए सूत्र है - ““पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम् (६।३।१०८)।
द्वितीय पाद में दीर्घ, ए-ओ, अर्-अल्-ऐ-औ, य्-व्-र्-छू, अय्-आय्-अव्आव्, य्-वूछोप, अलोपविधि तथा अन्त में एक परिभाषावचन दिया गया है, जिसके अनुसार व्यञ्जन वर्ण के पर मेंरहने पर स्वरवर्ण मेंकोई सन्धि नहीं होती । दण्डाग्रम्, मधूदकम्, में पाणिनीय व्याकरण के अनुसार दो वर्णौ के स्थान में दीर्घ- रूप एकादेश होता है, परन्तु कातन्त्रकार ने समानसंज्ञक वर्ण के स्थान में दीर्घ का विधान किया है सवर्णसंज्ञक वर्ण के पर में रहने पर तथा उस सवर्णसंज्ञक वर्ण का लोप भी हो जाता है - “समानः सवर्णे दीर्घीभवति परश्च लोपम्”” (१।२।१) | इसी प्रकार कातन्त्रकार ने अवर्ण के ही स्थान में ए-ओ-अर-अछ् आदेश किए है तथा परवर्ती इवर्णादि का लोप | ज्ञातव्य है कि पाणिनि की गुणविधि भी दो वर्णौ के स्थान में एकादेश रूप है |पाणिनि ने जहाँ इकू के स्थान में यण् आदेश किया है, वहाँ
प्रास्ताविकप्
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कातन्त्रकार ने पृथक्-पृथक् इ को यू, उ को व्, ऋ को र् एवं छू को छ् आदेश कहा है | पाणिनि जहाँ एक ही सूत्र द्वारा एकारादि के स्थान में अयादि आदेश का विधान करते हैं, वहीं पर कातन्त्रकार ने स्वतन्त्र सूत्रों द्वारा ए के स्थान में अय्, ऐ के स्थान में आय्, ओ के स्थान में अव् तथा औ के स्थान में आव् आदेश
किया है । 'त आहु: - असा इन्दुः’ इत्यादि में यकार-वकार का लोप एवं 'तेऽत्र, परोऽत्र’ इत्यादि में अकार का लोप किया गया है । पाणिनि ने ऐसे स्थलों में “एङः
पदान्तादति’? (६।१।१०९) से पूर्वरूप कहा है । इन दोनों प्रक्रियाओं की समीक्षा करना अत्यन्त आवश्यक है कि "तेऽत्र, परोऽत्र, हरेऽव, विष्णोऽव” इत्यादि में
अकार का एकार-ओकाररूप हो जाना अधिक वैज्ञानिक प्रक्रिया है या उसका लुप्त हो जाना । यद्यपि दोनों ही प्रक्रियाओ में अकार समाप्त हो जाता है तथापि पूर्वरूप कहकर उरो समाप्त घोषित करने की अपेक्षा उसका लोप ही कर देना अधिक सरल प्रतीत होता है । 'देवीगृहम्-मातृमण्डलम्' में सन्धि की संभावना होने के कारण उसके निरासार्थ “न व्यञ्जने स्वराः सन्धेयाः? (१।२।१८) यह परिभाषा बनाई गई
है। तदनुसार व्यञ्जनवर्ण के पर में रहने पर स्वरवर्णा में कोई सन्धि नहीं होती । इवर्ण के स्थान में यकार आदेश करने वाला सूत्र है- ““इवर्णो यमसवर्णे न च परो लोप्यः?? (१।२।८) । इसमें पठित “असवर्ण' शब्द का यदि-अर्थ किया जाएस्वभावतः विसदृश (विषम), तो ऐसी स्थिति में व्यञ्जनवर्ण के भी परवर्ती होने पर यकारादि आदेश प्राप्त होते है, परन्तु ऐसा अपेक्षित न होने से उसका समाधान करना आवश्यक था ।इसी उद्देश्य की पूर्ति उक्त परिभाषासूत्र से होती है । पाणिनीय व्याकरण में “इको यणचि” (६।१।७७) सूत्र में “अच्” पद का पाठ होने से उक्त प्रकार की संभावना ही नहीं होती, तथापि "पित्र्यम्, गव्यम्, गव्यूतिः” इत्यादि में व्यञ्जनवर्णो के भी परवर्ती होने पर स्वरसन्धि का विधान किया ही जाता है | अतः कलापव्याकरण में उक्त प्रकार की व्याख्या निराधार नहीं कही जा सकती है । इन कातन््र-सूत्रों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इसमें कार्यी का निर्देश प्रथमान्त, कार्य का द्वितीयान्त तथा निमित्त का सप्तम्यन्त किया गया है, जब कि पाणिनि ने कार्यी का षष्ठ्यन्त एवं कार्य का प्रथमान्त निर्देश किया
है |पाणिनीय व्याकरणमें प्त्याहारप्रक्रिया समादूत होने के कारण जहाँ गुण-अयादि आदेश एक-एक ही सूत्र-द्वारा निर्दिष्ट हैं, वहीं पर कातन्त्रकार ने ए-ओ-अर-अल्
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कातन्व्रव्याकरणम्
आदेशों के लिए तथा अय-अव-आय-आवू आदेशों के लिए पृधक्-पृथक् चार-चार सूत्र बनाए हैं, क्योंकि इसमें प्रत्याहारप्रक्रिया काआश्रय नहीं लिया गया है।यद्यपि
सूत्रों की संख्या अधिक हो जाने से अनपेक्षित शाब्दिक गौरव-सा प्रतीत होता है, तथापि अर्थज्ञान में सरलता से लाघव भी उपपन्न होता है । वस्तुतः समग्र कातन्त्रव्याकरण में अर्थलाघव को ही ध्यान में रखकर सूत्र बनाए गए हैं। तृतीय पाद में चार सूत्रों द्वारा प्रकृतिभाव या असन्धि का विधान है |पाणिनीय व्याकरण में अनेक सूत्रों द्वारा प्रगृह्यसंज्ञा तथा प्लुत का विधान किया गया है।
जिनमें प्रगृह्यसंज्ञा या प्छुत होता है, उनमें प्रकृतिभाव भी उपपन्न होता है । कातन्त्रव्याकरण में विना ही प्रगृह्यसंज्ञा तथा प्लुत का विधान किए सीधे ही उनमें प्रकृतिभावका निर्देश है ।संभवतः संक्षेप को ही ध्यान में रखकर ऐसी प्रक्रिया अपनाई गई है। प्रथम सूत्र द्वारा स्वरवर्ण के परवर्ती होने पर ओकारान्त तथा अ-आ-इउ चार निपातों का भी प्रकृतिभाव होता है |जैसे अहो आश्चर्यम्, अ अपेहि, आ एवं नु तत्, इ इन्द्रं पश्य, उ उत्तिष्ठ | द्वितीय सूत्र से स्वर वर्ण के पर में रहने पर उस द्विवचन का प्रकृतिभाव होता है, जो औ-रूप से भिन्न हो । अर्थात् द्विवचन “औ' रूपान्तर को प्राप्त हो गया हो । जैसे- “अग्नी एतौ, पटू इमौ, शाले एते?) यहाँ अग्नि-पटु-शाला आदि शब्दों से प्रथमाविभक्ति-द्विवचन *औ' प्रत्यय के आने पर 'इ-उ' आदेश तथा सवर्णदीर्घ या गुण आदेश प्रवृत्त होता है | उनसे पर में स्वरादि सर्वनामों के रहने पर पाणिनीय व्याकरण के अनुसार पहले प्रगृह्यसंज्ञा होगी - “ईदूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम्’? (पा० १।१।११) से और तब ““प्छुतप्रगृह्या अचि नित्यम्’? (पा? ६।१।१२५) से प्रकृतिभाव । कातन्त्र में सीधे प्रकृतिभाव के विधान से लाघव स्पष्ट है । प्रकृतिभाव की व्यवस्था न होने पर “अग्नी एतौ” में “इबर्णो यमसवर्णे न च परो लोप्यः”? (१।२।८) से ई को य् आदेश, 'पटू इमौ” में ““बमुबर्णः” (१।२।९) से ऊ को व्आदेश एवं 'शाले एते, माले इमे” में “ए अय्? (१।२।१२) सूत्र से ए को “अय्' आदेश हो जाता |
तृतीय सूत्र द्वारा 'अमी' रूप बहुवचन का प्रकृतिभाव होता है, यदि कोई स्वर पर में रहे तो। जैसे- 'अमी अश्वाः, अमी एडका:'। यहाँ कलापसूत्र
““बहुवचनममी” (१।३।३) में बहुवचन के निर्देश के साथ 'अमी' पद पठित है | अतः प्रकृत सूत्र केवल 'अमी' में ही प्रवृत्त होता है “अमू' में नहीं । पाणिनि ने “ईदूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम्’? (१1१1११) मेंद्विवचन का उल्लेख किया है, परन्तु “अदसो
प्रास्ताविकम्
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मात्” (१।१।१) में नहीं |फलतः उससे 'रामकृष्णावमू आसाते' में भी प्रगृह्यसंज्ञा करनी पड़ती है | 'अमुके5त्र' में प्रगृह्यसंज्ञा न हो- एतदर्थ 'मात्” पद भी पढ़ना पड़ता है |कलाप में द्विवचन तथा बहुवचन शब्द का स्पष्ट उल्लेख है एवं बहुवचन के साथ 'अमी' रूप भी पठित है, जिससे 'अमुकेऽत्र' में प्रकृतिभाव होने का अवसर
ही नहीं है। अन्तिम चतुर्थ सूत्र से वर्णसमाम्नाय में उपदिष्ट न होने वाले प्लुतों का स्वरों के परवर्ती होने पर प्रकृतिभाव होता है | जैसे - “आगच्छ भो देवदत्त अत्र, तिष्ठ
भो यज्ञदत्त इह'। यहाँ विशेष ज्ञातव्य है कि पाणिनि ने त्रिमात्रिक अच् की प्लुतसंज्ञा मानी है~“ ऊकालोऽज्झस्वदीर्घप्लुतः'? (पा० १।२ | २७), परन्तु कलापचन्द्रकार सुषेण विद्याभूषण के अनुसार कहीं पर भी प्लुत को त्रिमात्रिक नहीं दिखाया गया है | अतः दीर्घ को ही प्लुत मानना चाहिए ।
सामान्यतया पाणिनीय व्याकरण के अतिरिक्त भी प्रायः व्याकरणशास्त्र में प्लुत को त्रिमात्रिक ही माना जाता है । एक विवरण तो चतुर्मात्रिक भी मानने के पक्ष में है । विशेषतः ए, ऐ, ओ और औ जब प्छुत होते हैं तो उनके विषय में चतुर्मात्रिक प्छुत मानना उचित भी प्रतीत होता है | परन्तु वहाँ सिद्धान्त त्रिमात्रिक प्लुत का ही स्थापित किया जाता है (द्र, म० भा० - ए ओड, ऐ औच्, वृद्धिरादैच१।१।१)। कलापचन्द्रकार ने '्लुत के स्वरूपतः उपदेश को बात कहकर उसे स्वीकार नहीं किया है । वस्तुतः ऐसा होने पर भी क्रक्तन्त्र में जो स्वरूपतः त्रिमात्रिक के रूप में पढ़ा गया है, उसे देखकर तो कलापचन्द्रकार का वचन प्रमादपूर्ण ही कहा जा सकता है ।
चतुर्थ पाद में १६ सूत्र है । इनमें अनेक आदेश द्रष्टव्य हैं।प्रथम सूत्र में तृतीयवर्ण आदेश के रूप में विहित हैं |जैसे ~ “बागत्र, षड् गच्छन्ति' ।इसके अनुसार पद के अन्त में वर्तमान वर्गीय प्रथम वर्णो (कू च् ट् त् पू) के स्थान में तृतीय
वर्ण (गू जू डू द् ब्) क्रमशः हो जाते हैं, यदि स्वरसंज्ञक वर्ण अथवा घोष- संज्ञक वर्ण पर मेंरहेंतो ।पाणिनीय व्याकरण के अनुसार '“झलां जशोऽन्ते”? (पा०
८।२।३९)
सूत्र प्रवृत्त होता है । 'वाडूमती - बाग्मती, षणूमुखानि-षड् मुखानि, तन्नयनम्-तदूनयनम्'
आदि में वैकल्पिक पञ्चम - तृतीय वर्ण किए गए हैं । 'वाकूछूर:- वाकूशूरः इत्यादि में विकल्प से छकारादेश होता है। वार्त्तिककार “वाकूश्लक्ष्ण:, तच्श्मशानमू'
कातन्त्रव्याकरणमू
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इत्यादि प्रयोगों मेंभी छकारादेश करते हैं- “छानुनासिकेष्वपीचन्त्यन्ये””। पाणिनीय
व्याकरण में कात्यायन का भी (पा०८।४।६३-वा०)
एतादृश वचन है- “छत्वममीति वाच्यम्?”
।
'वाग्धीनः- वाग्हीनः, अज्ञलौ-अज्हलै' इत्यादि में विकल्प से हकार के स्थान
में पूर्वचतुर्थ वर्ण आदेश किया गया है | पाणिनि के “झयो होऽन्यतरस्याम्?” (पा०८।४।६२) निर्देश में झय् प्रत्याहार तथा सावर्ण्य के ज्ञान में असौकर्य ही होता है | “तल्लुनाति - तच्चरति-तट्टीकनम्? इत्यादि में तकार को पररूप होता है । 'तच्श्लक्ष्णः, तच्शमशानम् इत्यादि में पदान्तवर्ती तकार के स्थान में चकारादेश होता है, शकार के परवर्ती होने पर | यहाँ विशेष ज्ञातव्य है कि “'बर्गप्रथमेभ्यः शकारः स्वरयवरपरश्छकारं न वा”? (१।४।३) सूत्र से शकार को छकारादेश, “पररूपं तकारो लुचटबर्गेषु (१ ।४।५) से 'त्' को 'छ' आदेश तथा “अघोषे प्रथमः”? (२।३।६१)
से पदान्तवर्ती 'छू’ को 'च' आदेश करके भी 'तच्छूलक्ष्ण:, तच्छ्मशानम्' रूपों का साधुत्व दिखाया जा सकता है, ता फिर पदान्तवर्ती तकार के स्थान में चकारादेशविधायक प्रकृत सूत्र को बनाने की क्या आवश्यकता है ? इसका समाधान
इस प्रकार किया जाता हैशकार को छकारादेश विकल्प से होता है (१।४।३)। अतः छकारादेश न होने पर उक्त प्रक्रिया नहीं दिखाई जा सकती |इसी पक्ष को ध्यान में रखकर आचार्य शर्ववर्मा ने यह सूत्र बनाया है। प्रश्नोत्तर के रूप में यह चर्चा इस प्रकार निबद्ध
हुई हैचं शे सूत्रमिदं व्यर्थ यत् कृतं शर्ववर्मणा। तस्योत्तरपदं ब्रूहि यदि बेत्सि कलापकम्। मूदधीस्त्वं न जानासि छत्वं किल विभाषया। यत्र पक्षे न च एत्वं तत्र पक्षे त्विदं वचः॥
कुछ विद्वानों का विचार है कि यदि “पररूपं तकारो ल-च-टबर्गेषु (१।४।५) में शू को भी पढ़ दिया जाए तो 'त्” को पररूप “शू? होगा और उस शकार के स्थान में ““स्थानेऽन्तरतमः'” (कात० परि० सू० १७; का० परि० सू० २४) न्यायवचन के अनुसार ““पदान्ते धुटां प्रथमः” (३।८।१) से चकारादेश करके भी 'तच्छलक्ष्णः, तच्श्मशानम्'
रूप सिद्ध किए जा सकते हैं (द्र०- वं० भा०)।
प्रास्ताविकम्
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अग्रिम सूत्र द्वारा ङ, ण् तथा न् वर्ण के द्वित्व का विधान किया गया है | जैसे - 'क्रुङ्झत्र, सुगण्णत्र, पचन्नत्र' । कातन्त्रकार क्रुङ् + अत्र, सुगण् + अत्र,
पचन् + अत्र' इस अवस्था में हस्व उपधा वाले 'इ-णू-न्” वर्णो का द्वित्व करके
उक्त शब्दरूपो की सिद्धि करते हैं |पाणिनि के अनुसार यहाँ क्रमशः डुट्-णुट्-नुट् आगम होते हैं- “डमो हस्वादचि डमुण् नित्यम्’? (पा० ८।३।३२) | इन आगमों
के टितू होने के कारण ““आयन्तौ रकित?” (पा० १।१।४६) परिभाषासूत्र, इत्संज्ञाविधायक तथा लोपविधायक सूत्रों की भी आवश्यकता होती है। इसके परिणामस्वरूप पाणिनीयप्रक्रिया में दुरूहता और गौरव स्पष्ट है, जब कि कातन्त्रीय
प्रक्रिया में सरलता और लाघव । “भवांश्चरति, भवांश्छादयति” इत्यादि शब्दरूपों की सिद्धि के लिए पदान्तवर्ती नकार के स्थान में अनुस्वारपूर्वक शकारादेश किया है-
“'नोऽन्तश्चछयोः शकारमनुस्वारपूर्वम्’? (१।४।८) | उक्त रूपों की सिद्धि के लिए पाणिनीय प्रक्रिया विस्तृत तथा दुर्बोध प्रतीत होती है क्योंकि इसके अनुसार “भवान् + चरति, भवान् + छादयति’ इस अवस्था में “नश्छव्यप्रशान्”? (८।३।७) से नकार के स्थान में 'रुः आदेश, “अत्रानुनासिकः पूर्वस्य तु बा” (८।३।२) से वैकल्पिक
अनुनासिक, पक्ष में “अनुनासिकात् परोऽनुस्वारः”? (८।३।४) से अनुस्वारागम, *“खरबसानयोर्विसर्जनीयः?”? (८।३।१५) से विसगदिश,“*विसर्जनीयस्य सः”? (८।३।३४) से विसर्ग को सकार तथा ““स्तोः श्चुना श्चुः’? (८।४।४०) से शकारादेश होता
है | इस प्रकार कातन्त्रीय प्रक्रिया में संक्षेप और सरलता सन्निहित होने से लाघव स्पष्ट है | 'भवांष्टीकते, भवांष्ठकारेण 'मेंपदान्तवर्ती नकार के स्थान मेंअनुस्वारपूर्वक मूर्धन्य षकारादेश होता है |पाणिनि के अनुसार यहाँ भी नू को रु, रु को विसर्ग, विसर्ग को सू, सू को ष् आदेश तथा अनुस्वार - अनुनासिक प्रवृत्त होते हैं । अतः यहाँ की भी पाणिनीय प्रक्रिया गौरवपूर्ण है | "भवांस्तरति, भवांस्थुडंति' आदि की सिद्धि पदान्त नकार को अनुस्वारपूर्वक सकारादेश करके दिखाई गई है | यहाँ की भी पाणिनीय प्रक्रिया उक्त की तरह होने से गौरवपूर्ण है ।कातन्त्रकार ने “पुंस्कोकिलः, पुंञ्चकोरः' आदि की सिद्धि के लिए सूत्र नहीं बनाए हैं। इस पर दुर्गसिंह आदि व्याख्याकारों ने कहा है कि शिड्भिन्न अघोष के पर में रहने पर 'पुमन्सू' शब्द
में प्राप्त संयोगान्तलोप अनित्य माना जाता है । तदनुसार “पुमांश्चासौ कोकिलश्च' इस विग्रह तथा 'पुमन्स् + कोकिलः? इस अवस्था में ““व्यञ्जनान्तस्य यत्सुभोः'” (२।५।४) सूत्र द्वारा अतिदेश “पुंसो5न्शब्दलोपः?? (२।२।४०) से अन् का लोप,
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संयोगान्तलोप की अनित्यता से “संयोगान्तस्य लोपः”” (२।३।५४) सूत्र से संयोगान्त स् के लोप का निषेध, ““मनोरनुस्वारो धुटि” (२।४।४४) से म् को अनुस्वार, “रेफसोर्विसर्जनीयः” (२।३।६२) से स् को विसर्ग एवम् ““अनव्ययविसृष्टस्तु सकारं कपबर्गयोः” (२।५।२९) से विसर्ग को स् आदेश करने पर “पुंस्कोकिलः” रूप सिद्ध होता है ।'पुंश्चकोरः, पुंश्छत्रम्, सुपुंश्चरति” में“*विसर्जनीयश्चे छे बा शम्”? (१।५।१) सूत्र से विसर्ग के स्थान में शकारादेश, 'पुंष्टिट्टिभः” में “टे ढे बा षम्”? (१।५।२)
से मूर्धन्य षकारादेश प्रवृत्त होता है । “पुंस्कोकिलः” किसे कहते हैं- इस विषय में वड्गटीकाओं में एक श्लोक प्राप्त होता हैसंवर्धितः पितृभ्यां य॒एकः पुरुषशावकः। पुंस्कोकिलः स विज्ञेयः परपुष्टो न कर्हिचित् ॥ “भर्वाँल्लुनाति, भर्वाँल्छिखति' इत्यादि की सिद्धि के लिए “ले लम्” (१।४।११) सूत्र बनाया गया है |इससे लकार के पर मेंरहने पर पदान्तवर्ती नकार को लकारादेश होता है |पाणिनि ने ऐसे स्थलों में परसवणदिश का विधान किया है- “तोर्लि” (८।४।६०)। पाणिनीय और कातन्त्र दोनों में ही सानुनासिक आदेश साक्षात् विहित
नहीं है, व्याख्या के बल पर ही सानुनासिक लकारादेश उपपन्न होता है ।'भवाञ्जयति, भवाउशेते' इत्यादि उदाहरणों में पदान्तवर्ती नकार के स्थान में ञकारादेश प्रवृत्त होता है |यहाँ पाणिनि ने श्चुत्वविधान किया है - “स्तोः श्चुना श्चुः”? (८।४।४०)। ज्ञातव्य है कि चवर्ग के अन्तर्गत आने वाले 'च-छ-ज-झ-ञ' इन पाँचौं वर्णो के परवर्ती होने पर पदान्तवर्ती नकार के स्थान में जकारादेश के उदाहरण पाणिनीय व्याकरण में नहीं मिळते |अतः पाणिनीय निर्देश की अपेक्षा कातन्त्र. का निर्देश अधिक विशद कहा जा सकता है- ज-झ-ज-शकारेषु अकारम्'? (१।४।१२) | विशेष
कातन्त्रव्याकरण के कारकप्रकरण में एक सूत्र है- '*तवर्गश्चटवर्गयोगे चटवर्गी? (२।४।४६)। इस सूत्र से चवर्ग के परवर्ती होने पर तवर्ग के स्थान में चवगदिश होता है । इसी के निर्देशानुसार ज-झ एवं ज वर्ण के पर में रहने पर न् के स्थान में जू आदेश किया जा सकता है | यदि ऐसा स्वीकार कर लिया जाए तो फिर केवल शकार के परवर्ती होने पर ही नकार को अकारादेश करना अवशिष्ट रह जाता है |तदर्थ “शे जकारम्” इतना ही सूत्र करना आवश्यक है | इस पर वृत्तिकार
प्रास्ताविकम्
१५
दुर्गसिंह का समाधान इस प्रकार है- “पदमध्ये चटबगदिश इति जझ्नजशकारेषु अकारविधानम्”” (कात० वृ० १।४।१२) |अर्थात् कारकप्रकरणीय (२।४।४६) सूत्र की प्रवृत्ति पद के मध्य में होती है |मध्यवर्ती तवर्ग कै स्थान में चवगदिश उपपन्न होता है | जैसे - 'राज्ञः, मज्जति' इत्यादि | यहाँ पदान्तस्थ 'न्' के स्थान में 'ञ्! आदेशविधानार्थ प्रकृतसूत्र यथावत् रूप में ही बनाना उचित है । “भवाञ्छूरः, भवाञ्चूशूर:' इत्यादि के लिए 'नू' के स्थान में 'न्चू' आदेश विकल्प से किया गया है । पाणिनि के अनुसार तुगागम (८।३।३१), छत्व (८।४।६३),
श्चुत्व (८।४।४०), च् - लोप (८।४।६५) होकर चार-चार शब्दरूप सिद्ध किए जाते हैं। इन्हें लक्ष्य कर कहा गया हैअछौ अचछा अचशा अशाबिति चतुष्टयम् । रूपाणामिह तुकू-छत्ब-चलोपानां विकल्पनात् ॥ “भवाण्डीनम्, भवाण्डौकते, भवाण्णकारेण' इत्यादि में नकार को णकारादेश होता है | पाणिनि ने “छुना ष्टुः” (८।४।४१) सूत्र द्वारा यद्यपि णकारादेश का
ही विधान किया है, परन्तु निमित्त खवर्ग तथा स्थानी तवर्ग का सामान्य निर्देश सभी उदाहरणों के अभाव में अवश्य ही चिन्त्य प्रतीत होता है | कातन्त्र के प्रकृतसूत्र “इढणपरस्तु णकारम्’? (१।४।१४) में पठित 'डढणपरः' शब्द में 'डढणेभ्यः परः?
यह तत्पुरुष नहीं है, किं च 'डढणा: परे यस्मात्? यह बहुब्रीहि माना जाता है | किन्तु “षण्णवतिः, षण्णगरी’ आदि स्थलों में डकार से भी परवर्ती 'न्' को 'णु' आदेश अभीष्ट है |अतः तदर्थ तत्पुरुष भी व्याख्याकारों को अभीष्ट है | 'त्वं यासि,
त्वं रमसे’ इत्यादि में पदान्तवर्ती 'म्' को अनुस्वार आदेश होता है। ““मोऽनुस्वारं व्यञ्जने”? (१।४।१५) में अनुस्वारविधि का निर्देश संज्ञापूर्वक होने के कारण 'सप्राट्'
में अनुस्वारादेश प्रवृत्त नहीं होता है । 'त्वडकरोषि, त्वञ्वरसि' इत्यादि में किसी भी वर्गीय वर्ण के परवर्ती होने पर पदान्त अनुस्वार को उसी वर्ग का पञ्चम वर्णआदेश होता है । पाणिनीय व्याकरण में “मोऽनुस्वारः” (८।३।२३) से अनुस्वारादेश तथा “बा पदान्तस्य’? (८।४।५९) से वैकल्पिक परसवणदिश होकर उक्त रूप सिद्ध होते हैं |सामान्यतया किसी भी वर्ग के पञ्चम वर्ण को जानने की अपेक्षा परसवर्णविधि से पञ्चम वर्ण जानना अत्यन्त प्रयल-साध्य है |अतः पाणिनीय निर्देश की अपेक्षा कातन्त्रीय निर्देश सरल है ।
१६
कातन्त्रव्याकरणम्
पञ्चम पाद के १८ सूत्रों में प्रधानतया विसर्ग-सन्धि वर्णित है । जैसे विसर्ग को श-ष-स-जिह्ामूळीय-उपध्मानीय आदि आदेश किए गए हैं। 'कश्चरति, कश्छादयति” में विसर्ग को शकारादेश होता है | पाणिनि ने विसर्ग के स्थान में सकार तथा सकार के स्थान में शचुत्वद्वारा शकारादेश करके उक्त प्रयोगों की सिद्धि दिखाई है । 'कष्टीकते ~ कष्ठकारेण” इत्यादि में विसर्ग को मूर्धन्य 'ष्' आदेश किया गया है, पाणिनीय प्रक्रिया के अनुसार विसर्ग के स्थान में सकार तथा उस सकार को षकारादेश होता है । 'कस्तरति - कस्थुडति' प्रयोगों को विसर्ग के स्थान में सकारादेश करके सिद्ध किया गया है | यहाँ की पाणिनीय एवं कातन्त्रीय प्रक्रिया समान है ।'कारस्कर' आदि शब्दों की सिद्धि के लिए कातन्त्रकार ने सूत्र नहीं बनाया है |उनकी सिद्धि अन्य लोकप्रसिद्ध संज्ञाशव्दों की तरह समझ लेनी चाहिए |पाणिनि ने एतदर्थ १५ सूत्र (६।१।१४३-५७) बनाए हैं | 'क % करोति, क
खनति'
इत्यादि मे विसर्ग को जिह्वामूलीय आदेश होता है |कातन्त्र- व्याकरण में जिह्नामूलीय की आकृति वज्र की तरह होती है (द्र०- कात० १।१।१७)। पाणिनि मे न
तो जिह्वामूलीय संज्ञा ही की है और न विधिसूत्र “कुप्वो > क >< पौ च? (८।३।३७) में उसका पाठ ही किया है | उन्होंने इस स्थल में अर्धींचेसर्गसदृश आकृतिवाले वर्ण का विधान कियाहै | व्याख्याकारों ने उस अर्धविसर्गसदृश वर्ण को जिह्वामूलीय नाम दिया है |इसरो स्पष्ट है कि पाणिनीय निर्देश विशेष व्याख्यागम्य
है, जबकि कातन्त्रीय निर्देश अत्यन्त सरल है | “क ७० पचति, क ७ फलति' इत्यादि में विसर्ग को उपध्मानीय आदेश होता है। कातन्त्रव्याकरण मेंउपध्मानीय की आकृति गजकुम्भ की तरह बताई गई है । गजकुम्भ की आकृतियाँ अनेक देखी जाती हैं- ७५ , है ,०० , ९9, 0,5७5 | पाणिनीय व्याख्याकारों ने उपध्मानीय को अर्धविसर्ग के सदृश आकृतिवाला बताया है | पाणिनि ने उपध्मानीय शब्द का प्रयोग नहीं किया है और न ही इसका पाठ वर्णसमाम्नाय मेंदेखा जाता है, परन्तु व्यवहार किए जाने के कारण अनुस्वार-विसर्ग के साथ जिह्लामूलीय-उपध्मानीय को भी अयोगवाह माना जाता है | 'कशशेते, कष्षण्डः, कस्साधुः? में विसर्ग को पररूप आदेश निर्दिष्ट है | पाणिनि ने पहले विसर्ग को
सकारादेश करके तब ३चुत्व-ष्टुत्व किया है |इस प्रकार कातन्बकार का निर्देश लाघवबोधक है । कातन्त्र के प्रकृत सूत्र “शे बे से वा बा पररूपम्” (१।५।६) को लक्ष्य करके एक प्रश्नोत्तर - संवाद भी प्रचलित है-
प्रास्ताविकम्
क्य हरिः शेते
१७
का च निकृष्टा ? को बहुलार्थः ? किं रमणीयम् ?
बद कातन्त्रे कीद्रक् सूत्रम्? शे षे से वा वा पररूपम्॥
अर्थात् सूत्र है- “शे बे से वा बा पररूपम्?” (१।५।६) । श्लोकोक्त ४ प्रश्नों
के उत्तर सूत्र में इस प्रकार दिए गए हैं१. क्व हरिः शेते ? शेषे । २. का च निकृष्टा ?
सेवा ।
३. को बहुलार्थः ? ४. किं रमणीयम् ?
वा! पररूपम् ।
'कोऽत्र, कोऽर्थः’ में दो अकारों के मध्यवर्ती विसर्ग को उकारादेश किया गया है- "“उमकारयोर्मध्ये'”' (१।५।७) | पाणिनि ने 'स्' को 'रु' तथा 'रु को
'उ' आदेश करके ऐसे प्रयोगों की सिद्धि दिखाई है | प्रकृत सूत्रवठित “मध्ये पद व्यर्थ होकर ज्ञापित करता हैकि क्वचित् आकार के रहने पर भी उक्त कार्य सम्पन्न हो जाए ।इसी के फलस्वरूप 'कुरव: + आत्महितम्' इस स्थिति मेंविसर्ग को उकारादेश होकर 'कुरवोत्महितम्' रूप निष्पन्न होता है |टीकाकार दुर्गसिंह के अनुसार ऋषिवचन को प्रामाणिक मानकर इसे साधु माना जाता है या फिर युगभेद से व्याकरण भी भिन्न होते हैं । अत: उस युग के व्याकरण में उक्त की व्यवस्था को गई होगी । “को गच्छति, को धावति' इत्यादि में अकार तथा घोषवान् वर्णो के मध्यवर्ती विसर्ग को उकारादेश होता है | यहाँ भी पाणिनि ने 'स्' को 'रु' तथा “रु? को 'उ' आदेश किया है | 'क इह - कयिह, क उपरि - कयुपरि' इत्यादि प्रयोगों की सिद्धि के लिए विसर्ग का छोप अथवा यकारादेश किया गया है । पाणिनि के अनुसार स्' को 'रु', 'रु को 'य्' तथा उसका वैकल्पिक लोप करके उक्त प्रयोग सिद्ध किए जाते हैं । अतः पाणिनीय निर्देश में अनेक सूत्र तथा कार्य होने से गौरव स्पष्ट है |कातन्तरप्रक्रिया के अनुसार 'देवाय' की तंरह “कयिह' में भी दीर्घ आदेश प्राप्त होता है, परन्तु व्याख्याकारों ने उसे एक पद में ही माना है, भिन्न पदों में नहीं | आचार्य उमापति ने कहा भी हैदेवायेति कृते दीर्घ कयिहेति कथं नहि ? सत्यमेकपदे दीर्घो न तु भिन्नपदाश्रितः॥
१८
कातन्त्रव्याकरणमू
आकार तथा भो-शब्द से परवर्ती विसर्ग के स्थान में यकारादेश तथा उसका लोप किया है | जैसे - “देवा आहुः- देवायाहुः। भो अत्र-भोयत्र' । पाणिनि ने यहाँ
'स्' को रु', 'रु को 'य्' तथा 'य्' का वैकल्पिक लोप किया है, जिससे उनकी प्रक्रिया में गौरव स्पष्ट है | 'देवा गताः, भो यासि” इत्यादि में विसर्ग का लोप होता है |पाणिनि के अनुसार “स्? को 'र', रु को “यू? तथा उसका लोप किया जाता है | 'सुपीः, सुतूः' इत्यादि में विसर्ग को रकारादेश का विधान किया जाता है। 'ठुपिस + सि, सुरु + सि’ इस अवस्था में ““ब्यञ्जनाच्च (२।१।४९) से सि को लोप, “रेफ्सोर्विसर्जनीयः” (२।३।६३) से 'स्' को विसर्ग, “नामिपरो रम्” (१।५।१२) से विसर्ग को रेफ, इरुरोरीरूरी” (२।३।५२) से 'ईर्' आदेश एवं “'रकसोर्विसर्जनीयः'` (२।३।६३) से पुनः विसर्ग होने पर “सुपीः, सुतूः' प्रयोग सिद्ध होते है |पाणिनि के अनुसार यहाँ सुलोप, रेफ, उपधादीर्घ तथा विसर्ग आदेश होते है । इस प्रकार एक कार्य की न्यूनता होने से पाणिनीय प्रक्रिया संक्षिप्त कही जा सकती है | 'अग्निर्गच्छति, अग्निरत्र? इत्यादि की सिद्धि के लिए विसर्ग को रेफ आदेश किया गया है । पाणिनि ने एतदर्थ 'स् को 'रु' आदेश किया है । “गीर्पतिः, धूर्पतिः, पितात्र, पितर्यातः? आदि की सिद्धि के लिए भी विसर्ग को रेफ आदेश विहित है । पाणिनि ने अष्टाध्यायी में एतदर्थ कोई सूत्र नहीं बनाया है ।इसकी पूर्ति वार्त्तिककार ने की है -- “अहरादीनां पत्यादिषूपसंख्यानं कर्तव्यम्?’ (का० वृ० ८।२।७०-वा०} | कातन्त्र के व्याख्याकारों ने कहीं इस रकारादेश को नित्य और कहीं पर अनित्य दिखाया है ।जैसे - “'स्वरघोषबतोर्नित्यम्? (१।५।१४ - वा०) - पितरत्र, पितर्यातः |
“गीर्पतिः - गीःपतिः? इत्यादि में रेफादेश विकल्प से निर्दिष्ट है | व्याख्याकारों द्वारा इस विषय में अन्य व्याकरणवचनों पर किया गया विचार द्रष्टव्य है । 'एष चरति, स पचति' इत्यादि में विसर्ग का लोप होता है। पाणिनि ने यहाँ “सु' प्रत्यय का लोप किया है- ““एतत्तदोः सुलोपोऽकोरनञ् समासे हलि”' (पा० ६।१।१३२) | ““रप्रकृतिरनामिपरोऽपि’? (3।५।१४) सूत्रपठित 'अपि' शब्द का अधिकार यहाँ भी
माना जाता है |जिसके फलस्वरूप 'एषकः करोति, सकः करोति, अनेषो गच्छति असो गच्छति” रूपों में विसर्ग का लोप महीं होता है। | इस प्रकार १५ सूत्रों में यिसर्ग के स्थान में जो अनेक आदेश बताए गए हैं, तदबुतार 'क इह, देवा आहुः” आदि स्थलों में गुण-दीर्घ आदेश प्राप्त होते हैं। उनके समाधानार्थ कातन्त्रकार ने परिभाषासूत्र बनाया है-. “न विसर्जनीयलोपे पुनः
सूत्र की असिद्ध-विधि के अनुसार यहाँ सन्धि नहीं होती है । पाणिनीय प्रक्रिया में सूत्रों के पौर्वापर्य का परिज्ञान करना आवश्यक होने से ज्ञान-गौरव विद्यमान है । “अग्नी रथेन, पुना रात्रिः’ इत्यादि की सिद्धि के लिए रेफ के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती रकार का लोप तथा उस लुप्त रकार से पूर्ववर्ती स्वर को दीघदिश होता है । कातन्त्रकार ने यहाँ एक ही सूत्र द्वारा रेफलोप तथा दीर्घ का विधान किया है । पाणिनि ने रेफलोप के लिए “रो रि” (८।३।१४) तथा दीर्घ के लिए “द्रलोपे पूर्वस्य दीर्घो$णः?? (६।३।१११) सूत्र बनाया है । इस प्रकार पाणिनीय प्रक्रिया
को गौरवाधायक ही माना जाएगा | “रो रे लोपं स्वरश्च पूर्वो दीर्घ? (१।५।१७) इस प्रकृत सूत्र में पठित चकार को अन्वाचयशिष्ट मानने के फलस्वरूप 'उच्चै रौति” आदि स्थलों में केवल रेफ का लोप ही प्रवृत्त होता है, दीर्घ नहीं | क्योंकि 'एऐ-ओ-औ' ये चार सन्ध्यक्षरसंज्ञक वर्ण सदैव दीर्घ होते हैं, उन्हें दीर्घ करने की
कोई आवश्यकता नहीं होती है- "नित्यं सन्ध्यक्षराणि गुरूणि'। इस पञ्चम पाद के तथा सन्धिप्रकरण के अन्तिम सूत्र से छकार को द्वित्व होता है । जैसे - “वृक्षच्छाया, इच्छति, गच्छति’ । कातन्त्र में प्रकृतसूत्र से 'छ” को द्वित्व होने के बाद “अघोषे प्रथमः? (२।३।६१) सूत्र से 'छ' को 'च्' आदेश होकर उक्त शब्दरूप सिद्ध होते हैं | पाणिनि के अनुसार यहाँ संहिताधिकार भ “छे च” (अ० ६।१।७३) से तुगागम, “स्तोः श्चुना श्चुः’? (अ० ८।४।४०) से प्राप्त श्चुत्व के असिद्ध होने के कारण “'झलां जशोऽन्ते” (८।२।३९) से तू! को 'दू' , इस 'दू' को “खरि च” (८।४।५५) सूत्र से प्राप्त चर्च के असिद्ध
होने से शचुत्व 'जू' तथा 'ज्' को 'च्' आदेश होकर 'शिवच्छाया, स्वच्छाया' आदि शब्दरूप सिद्ध होते है । इस प्रकार पाणिनीय प्रक्रिया में गौरव स्पष्ट है | प्रकृत सूत्र में 'अपि' शब्द का अधिकार होने के कारण 'कुटीच्छाया-कुटीछाया' में वैकल्पिक तथा 'आच्छाया-माच्छिदतू' में नित्य द्विर्भाव होता है । व्याख्याकारों ने इस द्विर्भावविधान को संहिता में ही विधेय माना है |अतः हे छात्र ! छत्रं पश्य' में इसकी प्रवृत्ति नहीं होती है |
आचार्य शर्ववर्मकृत विषयविभाजन “मोदकं देहि' वचन के अनुसार आचार्य शर्ववर्मा ने सर्वप्रथम “मा + उदकम्' को आधार मानकर सन्धिप्रकरण की रचना की है | इस अध्याय के पाँच पादों
२०
-
कातन्तन्याकरणमू
तथा ७९ सूत्रों में स्वर-व्यञ्जन-प्रकृतिभाव-अनुस्वार तथा विसर्गसन्धिविषयक नियम बताए गए हैं । 'मोदकम्' स्याद्यन्त पद है,तदनुसार यहाँ द्वितीय अध्याय मेंनामचतुष्टय की रचना की गई है ।इसके प्रारम्भिक तीन पादों में षड्लिङ्गवाले शब्दों की सिद्धि दिखाई गई है | चतुर्थ पाद में कारकों का विवेचन है । पञ्चम पाद में तद्धित तथा षष्ठ पाद में समास का वर्णन किया गया है। कारक शब्द का न तो प्रयोग हुआ है और न ही उसकी कोई परिभाषा ही की गई है। एतदर्थ 'विभक्ति' शब्द का प्रयोग है । संभवतः इसी आधार पर तिब्बतीभाषा के भी व्याकरण में विभक्ति का ही प्रयोग मिलता है |तद्धित और समास पादों के सूत्र श्लोकबद्ध हैं ।इस नामचतुष्टय नामक द्वितीय अध्याय के ६ पादों में कुल ७७+६५+६४+५२+२९+५०=३३७
सूत्र हैं | व्याख्याकारों के अनुसार चतुर्थी- विधायक “तादर्ष्य”” (२।४।२७) सूत्र दुर्गसिंह ने चान्द्रव्याकरण से लेकर इसमें समाविष्ट कर दिया है। उक्त वचन में 'देहि' क्रियापद (आख्यात) है, इस अभिप्राय से नामचतुष्टय के बाद शर्ववर्मा नेआख्यात नामक तृतीय अध्याय की रचना की है, जिसमें ८ पाद तथा
३४+४७+४२+९३+४८+१०२+३८+३५=४३९
सूत्र हैं। प्रथम पाद
में परस्मैपद आदि आख्यात-प्रकरणोपयोगिनी कुछ संज्ञाएँ, द्वितीय पाद में वे प्रत्यय, जिनसे नामधातुएँ निष्पन्न होती हैं, तृतीय पाद मेंदविर्वचनविधि, चतुर्थ में संप्रसारणादि विधियाँ, पञ्चम में गुण आदि आदेश, षष्ठ मेंअनुषङ्गलोपादि, सप्तम में इडागमादि तथा अष्टम में प्रथम वर्ण आदि आदेश निर्दिष्ट हैं । इस प्रकार आचार्य शर्ववर्मा दारा रचित सूत्रों की कुछ संख्या ७९+३३७+४३९ = ८५५ है| इसमें दुर्गसिहद्वारा योजित किया गया भी एक सूत्र सम्मिलित है। 'वृक्ष' आदि शब्दों की तरह कृग्रत्ययसाधित अन्य शब्दों को भी आचार्य शर्ववर्मा रूढ मानते थे । अतः उन्होंने कृत् - सूत्र नहीं बनाए ।उनकी रचना वररुचि कात्यायन ने की है | इन सूत्रों की वृत्ति के प्रारम्भ में दुर्गसिंह ने कहा हैवृक्षादिवदमी रूढाः कृतिना न कृताः कृतः। कात्यायनेन
ते सृष्टा बिबुद्धिप्रतिबुद्धये ॥
इस चतुर्थ कृत् नामक अध्याय में ६ पाद तथा ८४+६६+९५+७२+ ११३+११६= ५४६ सूत्रहैं(इन दोनों आचार्यो द्वारा रचित कुल ८५५+५४६=१४०१ सूज कातन्त्रव्याकरण के मूल सूत्र माने जाते हैं। कातन्त्रव्याकरण के इन सूत्रों
प्रास्तादिकम्
३३
में २५ आगमों, १४३ प्रत्ययों (ति-तस् आदि १८० प्रत्यय इनसे भिन्न हैं), २०७ आदेशों तथा सूत्र-धातुपाठ आदि में ११००-१२०० अर्थो का विनियोग किया गया है | श्रीपतिदत्त ने कातन्त्रपरिशिष्ट तथा चन्द्रकान्ततर्कालंकार ने छन्दःसूत्रों की रचना इसे सर्वाङ्गपूर्ण बनाने के लिए को है | समरति इसके धातुपाठ में १३४७ धातुसात्न तथा लगभग १८०० धातुएँ प्राप्त हैं | गणपाठ केवल वृत्ति आदि ग्रन्थों में ही मिलता है । उणादिसूत्रों की रचना दुर्गसिंह ने की है । इसमें ६ पाद तथा ३९९ सूत्र है । उणादिसूत्रों का तिब्बती-अनुवाद के साथ एक उत्कृष्ट अध्ययन डॉ० धर्मदत्त चतुर्वेदी तथा आ० छोसङ् नोर्बू शास्त्री ने किया है। यह ग्रन्थ १९९३ में मुद्रित हो चुका है |८७ कारिकाओं में निबद्ध इसका लिङ्गानुशासन आचार्य दुर्गसिहरचित प्राप्त होता है । परिभाषापाठ पर दुर्गसिंह तथा भावशर्मा ने वृत्तियाँ ठिखी है! शिक्षासूत्र तथा उपसर्गसूत्र भी प्राप्त हो जाते हैं (द्र०, कलापव्याकरणम्- तिब्बतीसंस्धानम्, 9९८८),
इस व्याकरण के आधार पर बालशिक्षाव्याकरण तथा गान्थर्बकलापव्याकरण की रचना की गई है । इसका वाडमय अत्यन्त समृद्ध है, परन्तु अधिकांश अद्यावधि
मुद्रित नहीं हुआ है| मुद्रित ग्रन्थ बँगला तथा देवनागरी लिपियों में प्राप्त होते हैं | अमुद्रित अंश बँगला-शारदा-उत्कल-देवनागरी मैथिठी तथा नेवारी लिपियों वाळे हस्तलेखों में सुरक्षित है |भोटलिपि में इसके अनेक ग्रन्थों काअनुवाद किया गया
हैतथा भोटभाषा में २३ से भी अधिक टीकाएँ लिखी गई हैं |इसकी शब्दसाधनप्रक्रिया अत्यन्त संक्षिप्त तथा सरल है । संभवत: इसी कारण तिब्बतीय विद्वान् आनन्दध्वज
(कुङ्-गा-ग्यल्छन) ने अपने तिब्बती-ग्रन्थ अहमष्टक की व्याख्या में इसे संस्कृत" व्याकरणों में शिखामणि के समान कहा है| [ द्र०, The Complete works of Pandit Kun-d Ga-rGyal नागी गद.
The 1090 Bunko, Tokyo, 1968; Vol, 5; 9. 146, Gr. Nos 3-4 |
कातन्त्रव्याकरण का इतिहास संस्कृत - वाङ्मय में ८-९ प्रकार के व्याकरणों का उल्लेख मिलता है | उनमें भी दो धाराएँ प्रमुख रूप से प्रचरित रही है- माहेश्वर तथा ऐन्द्र व्याकरण की ।
२२
कातन्त्रव्याकरणम्
माहेश्वर व्याकरण की परम्परा में पाणिनीय-चान्द्र-सारस्वत आदि अनेक व्याकरणों की गणना की जा सकती है, जबकि ऐन्द्रपरम्परा का निर्वाह करने वाला केवल कातन्त्रव्याकरण ही माना जाता है | कुछ विद्वान् इसका सम्बन्ध बौद्ध तन्त्रों तथा श्रीविद्या के भी साथ जोड़ने का प्रयत्न करते है । पाणिनीय-परवर्ती लगभग ४०४५ व्याकरणौं में से कातन्त्रव्याकरण न केवळ कालक्रम को ही दृष्टि से प्रथम माना जाता है, किन्तु सरळता-संक्षेप आदि की भी दृष्टि से इसे प्रथम कोटि में रखा जा सकता है । इसकी शब्दसाधन-प्रक्रिया सरल तथा संक्षिप्त है ।इसके नामों की तरह रचना-प्रयोजन भी अनेक माने जाते हैं इसका अध्ययन - अध्यापन अङ्गवङ्ग-कलिङ्ग-कश्मीर-राजस्थान आदि प्रदेशों में तथा तिब्बत-श्रीलङ्का आदि देशों में भी प्रचलित रहा है । सम्प्रति यह आसाम-कलकत्ता-रीवाँ (म० प्र०) में अंशतः पढ़ाया जाता है ।जैनसमाज इसे जैनव्याकरण मानता रहा है, जब कि बौद्ध व्याकरण माने जामे के भी पक्ष में कुछ आधार प्राप्त होते हैं । इसके रचनाकार आदि का परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है -
कातन्त्रकार का देश-काल विद्वानों ने कातन्त्ररचनाकार के काल-विषयक विविध मत व्यक्त किए है । अत: सर्वसम्मत काल अद्यावधि निश्चित नहीं हो सका है । युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार यदि कातन्त्रकार शर्ववर्मा का काळ वि० पू० २००० वर्ष मान लिया जाए और सामान्य धारणा के अनुसार यीशवीय प्रथम शताब्दी, तो यहाँ दो सहस्राब्दियों का अन्तर आता है । यह अन्तर इतना अधिक है कि अनुमान से भी निश्चय के समीप पहुँच पाना अत्यन्त कठिन कार्य है | इस प्रकार काळ की निश्चित संख्या देना संभव न होने पर भी कुछ आधार
ऐसे अवश्य मिलते हैं, जिनका
विवेचन करने पर महाभाष्यकार पतञ्जलि से पूर्ववर्ती कातन्त्रकार को माना जा सकता है | जैसे १. कथासरित्सागर (6०१, त० ६-७) के अनुसार शर्ववर्मा ने राजा सातवाहन को व्याकरण का शीघ्र बोध कराने के लिए कातन्त्रव्याकरण की रचना की थी।
सुषेण विद्याभूषण ने कलापचन्द्र नामक व्याख्या में राजा का नाम शालिबाहन तथा A reader on the sanskrit grammarians (00.22) में J. F. ७४1 ने समलवाहन
लिखा है, जो उचित प्रतीत नहीं होता । सातवाहन को आन्ध्र का राजा माना जाता
प्रास्ताविकम्
२३
है । कुछ विद्वान् इन्हें विक्रम के बाद में तथा भगवदूदत्त एवं युधिष्ठिर मापांसक विक्रम से पूर्व रखते है ।
२. शूद्रक ने अपने पद्यप्राभुतक भाण में कातन्त्रव्याकरण जानने वालों की चर्चा की है। उन पर आक्षेप करते हुए कहा गया है कि वे वैयाकरण-पारशव हैं ।अतः उनमें मेरी आस्था नहीं हो सकती - “एषोऽस्मि बलिभुग्भिरिव संघातवलिभिः
कातम्त्रिकेरवरकन्दितः इति। इन्त! प्रवृत्तं काकोलूकम्। सखे ! दिष्ट्या त्वामलूनपक्ष पश्यामि। कि ब्रवीषि ? का चेदानी मम पैयाकरणपारशवेषु कातन्त्रिकेष्वास्था (प०१८ ) ! अस्तु, शूद्रक और हाल नामक आग्ध्रदेशीय राजा सातबाहन समकालिक थे, जिन्हे
युधिष्ठिर मीमांसक ४०० से ५०० वर्ष विक्रमपूर्व रखते हैं । ३. राजा सातवाहन का सम्बन्ध नागार्जुन से भी रहा है । कहा जाता है कि नागार्जुन की रसायनविद्या के बल पर सातवाहन की मृत्यु नहीं हो पा रही थी, इस कारण राजकुमार को राजा बनने का अवसर नहीं मिल पा रहा धा |इस प्रसङ्ग में नागार्जुन से वार्ता की गई । उन्होंने अपनी मृत्यु का उपाय बताया । उनकी मृत्यु हो जाने पर सातवाहन का भी प्राणान्त हो गया और इस प्रकार राजकुमार को अभीष्टलाभ हुआ ।इस सन्दर्भ से कातन्त्रकार का भी लगभग वही समय होना चाहिए,
जो आचार्य नागार्जुन का माना जाता है। ४. पाणिनीय व्याकरण के द्वितीय मुनि कात्यायन ने वार्तिको में तथा तृतीय मुनि पतञ्जलि ने महाभाष्य में पूर्वाचायाँ की अनेक संझाएँ उद्धृत की हैं । जैसेअद्यतनी, श्वस्तनी, भविष्यन्ती, परोक्षा, कारित, विकरण और समानाक्षर आदि | ये सभी संज्ञाएँ कलापव्याकरण में प्रयुक्त हैं |ह्यस्तनी, वर्तमाना तथा चेक्रीयित आदि अन्य भी प्राचीन संज्ञाएँ कातन्त्रव्याकरण में मिळती हैं । इससे कातन्त्रव्याकरण की पर्याप्त प्राचीनता सिद्ध होती है । ५. प्रदीपकार कैयट ने सिद्ध किया हैकि पूर्वाचार्य स्थानी = कार्यी का निर्देश प्रथमान्त करते थे, जबकि पाणिनि ने षष्ठ्यन्त किया है । कठापव्याकरण
में अधिकांश स्थानी प्रथमान्त ही पठित हैं।यद्यपि कुछ निर्देश पाणिनीय व्याकरण में भी प्रथमान्त ही प्राप्त हैं, तथापि व्याख्याकार उन्हें अविभक्तिक निर्देश स्वीकार करते हैं |जैसे - “अल्लोपोडनः”” (६।४।१३४) का अत् और “ति विंशतेर्डिति’? (६।४।१४२) का ति। कलापव्याकरण के कुछ स्थानी इस प्रकार है-“समानः
१।२।१,२, १२; ४।३; ५।१; २।१।१८, २४) आदि । इससे इसकी रचना-शैली पर्याप्त प्राचीन ही सिद्ध होती है। ६. कातन्त्रव्याकरण में कुछ ऐसे भी शब्दों का प्रयोग हुआ है , अर्थात् उनका साधुत्व बताया गया है, जिन्हें महाभाष्यकार पतञ्जलि आदि केवल वेद में ही प्रयुक्त मानते हैं | जैसे - "देवेभिः, अर्वन्तौ, अर्वन्तः, मघवन्तौ, मघवन्तः? इत्यादि | इसी प्रकार 'दीघी, वेवी, इन्धि, श्रन्थि, ग्रन्थि तथा दम्भि’ धातुओं को भी कातन्त्रव्याकरण में स्वीकार किया गया है | जब कि पाणिनीय व्याख्याकार इन्हें केवळ वैदिक धातुएँ ही मानते है । मूल कातन्त्रव्याकरण केवल लौकिक शब्दों का ही साधुत्व बतलाता है । अतः उसमें उक्त शब्दों तथा धातुओं का उल्लेख होने से उसको प्राचीनता ही सिद्ध होती है।. ७. “सूत्राच्च कोपधात्’? (पा० ४।२।६५) सूत्रद्वारा संख्याप्रकृतिक, सूत्रवाची
तथा ककारोपध शब्द से अध्येतृ-अर्थ में होने वाले प्रत्यय का छुकू होता है |इसके अनुसार “अष्टौ अध्यायाः एरिपाणम् अस्य' इस व्युत्पत्ति से निष्पन्न जो अष्टक’ शब्द, उससे "अध्येतृ - वेदितृ’ अर्थ (अष्टकम् अधीयते विदन्ति वा) में प्राप्त 'अण्' प्रत्यय का छुकू हो जाने पर 'अष्टकाः पाणिनीयाः” शब्दरूप सिद्ध होता है । इसी प्रकार 'त्रयोऽध्यायाः परिमाणमस्येति त्रिकं काशकृत्स्नम्, तदधीयते विदन्ति बा त्रिकाः काशकृत्स्नाः' का साधुत्व उपपन्न होता है ।यहाँ “अष्टक, त्रिक” शब्द संख्याप्रकृतिक, सूत्रवाची तथा कोपध है | अर्थात् “सूत्राच्य कोपधात्”? (पा० ४।२।६५) इस सूत्र में तथा कात्यायन के “संख्याप्रकृतेरिति बक्तव्यम्' इस वार्त्तिक में जो लक्षण निर्दिष्ट हैं, वे सभी यहाँ प्राप्त होते हैं । फलतः सूत्रनिर्दिष्ट कार्य भी प्रवृत्त हो जाता है, उसी प्रकार 'दशका वैयाघ्रपद्याः' भी निष्पन्न होगा | महाभाष्य में पतञ्जलि ने 'संख्याप्रकृतेरिति वक्तव्यम्’ इस वार्त्तिक के दो प्रत्युदाहरण भी दिए हैं- माहावात्तिकः, कालापकः | इनके मूल शब्द (प्रातिपदिक) है- महावार्त्तिं औरकलापक | इनमें 'महावार्त्तिक' शब्द सूत्रवाची और कोपध तो है, परन्तु संख्याप्रकृतिक नहीं है ।इसीलिए यहाँ 'अध्येतृ "प्रत्यय अण्’ का लुकू नहीं होता । 'कलापक' शब्द को भी इसी प्रकार सूत्रवाची तथा कोपध मानना ही पड़ेगा | केवल संख्याप्रकृतिक न होने के कारण. उससे होने वाले अध्येतृ-प्रत्यय का छुकू
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कार्य प्रवृत्त नहीं होगा और 'कालापकः' प्रयोग बनेगा | कलाप या कलापक शब्द कातन्त्र का ही एक नामान्तर है |महर्षि पतञ्जलि द्वारा दर्शित होने से इनका रचनाकाल पतञ्जलि से पूर्व ही मानना पड़ेगा |युधिष्ठिर मीमांसक का अभिमत है कि पतञ्जलि का काल विक्रम से २००० वर्ष पूर्व है। यह काल यदि वस्तुतः सिद्ध हो जाए तो कातन्त्र के रचयिता शर्ववर्मा का काल विक्रमपूर्व २००० वर्षो से भी पूर्ववर्ती मानना पड़ेगा | यदि अधिक प्रचलित काल = यीशुपूर्व १५० वर्ष भी मान्य हो तो भी कम से कम शर्ववर्मा का काल यीशुपूर्व लगभग २०० वर्ष तो मानना ही होगा ।सामान्य धारणा के अनुसार कातन्त्र का रचनाकाल यीशवीय सन् के प्रारम्भिक वर्षो में दिखाया जाता है | आन्ध्रदेशीय राजा सातवाहन के सभापण्डित होने के कारण शर्ववर्मा का देश आन्ध्र (या महाराष्ट्र) कहा जा सकता है | इस विषय में विशेष विवरण प्राप्त न
होने से यथार्थ जन्मस्थान और उनके द्वारा किए गए अन्य कार्यो के सम्बन्ध में
निश्चयेन कुछ भी कहना संभव नहीं है।
कृतू-सूत्रों की रचना और आचार्य वररुचि वररुचि कात्यायन ने कातन्त्र के अनुसार कृत्सूत्रो की रचना की थी । आचार्य शर्ववर्मा ने इनकी रचना इसलिए नहीं की थी कि उनके मत में 'वृक्ष' आदि शब्दों की ही तरह कृत्रत्ययान्त अन्य शब्द भी रूढ थे ।इसका स्पष्ट निर्देश दुर्गसिंह ने अपनी कृतूप्रकरणवृत्ति के प्रारम्भ में किया है| वृक्षादिवदमी रूढाः कृतिना न कृताः कृतः)
कात्यायनेन ते सृष्टा विबुद्धिप्रतिबुद्धये ॥ कात्यायन नाम के अनेक आचार्य संस्कृतसाहित्य मेंउपलब्ध होते हैं ।पाणिनीय व्याकरण के वार्तिककार तथा शुक्लयजु ग्रातिशाख्यकार भी कात्यायन ही थे |कविराज
सुषेणविद्याभूषण ने कातन्त्र कैएकदेशीय आचार्य को वररुचि कहा है ।अतः कृत्सूत्रो के रचयिता वररुचि कात्यायन कहे जा सकते हैं |कविराज ने 'कैश्चित्' शब्द की व्याख्या में कहा है कि कातन्त्र-व्याकरण को जानने वाले सभी विद्वान् 'कातन्त्र' शब्द
से ग्राह्य हैं। उसके एकदेशीय आचार्य वररुचि माने जाते हैं- “कैश्चित् कातन्त्रैकदेशीयैरिति पञ्जी । कातन्त्रशब्दोऽज सकलवैयाकरणपरः। कातन्त्रं ये विदन्ति सूरय इत्यर्थेऽण् -प्रत्ययविधानात् तदेकदेशीयैर्वररुचिप्रभृतिभिरित्यर्थः?? (क० च० २।१।४१) |
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कातन्त्रव्याकरणम्
एक अन्य स्थान में कलापचन्द्रकार ने 'तृन्' आदि कृग्रत्ययो के रचयिता का नाम
स्पष्ट रूप में 'वररुचि' ही लिया है और यह भी कहा है कि 'तृन्' आदि प्रत्ययों (विधिसूत्रों) के रचयिता वररुचि को तथा शर्ववर्मा को एक मानकर दुर्गसिंह ने उनकी व्याख्या की है । यहाँ 'एकबुद्धि' शब्द का तात्य प्रक्रियानिर्देशों की समानता से है- “बररुचिना तृनादिकं पृथगेवोक्तम्, ततश्च बररुचिशर्ववर्मणोरेकबुदूध्या दुर्गसिहेनोक्तम् इति’? (क० च० २।१।६८)। युधिष्ठिर मीमांसक ने संभावना की है कि महाराज विक्रम के पुरोहित कात्यायनगोत्रज वररुचि ने कृदन्त भाग की रचना की होगी | वररुचि नामक एक अन्य विद्वान् ने कृत्सूत्रो की वृत्ति लिखी है ।इस ग्रन्थ का हस्तलेख लालभाई-दलपतभाई भारतीसंस्कृतिविद्यामन्दिर, अहमदाबाद में उपलब्ध है | इस वृत्ति के अन्त में पाठ है~ “इति पण्डितवररुचिविरचितायां कृदूवृत्तौ षष्ठः पादः समाप्तः? |कृत्सूत्रकार वररुचि से इनका भिन्न होना इसलिए भी प्रमाणित होता है कि उन्होंने दुर्गसिंह की तरह वृत्ति के प्रारम्भ में 'वृक्षादिवदमी' आदि श्लोक को भी उद्धृत किया है ।
कातन्त्रपरिशिष्ट और आचार्य श्रीपतिदत्त लाघव अभिप्रेत होने के कारण शर्ववर्मा ने जिन शब्दों का साधुत्व नहीं दिखाया, परन्तु दुर्गसिह ने अपनी वृत्ति मेंतथा टीका में 'च-वा-तु-अपि' शब्दों के व्याख्यानबल से उन्हें सिद्ध किया है |उन शब्दों के तथा उनसे भिन्न भी कुछ शब्दों के साधनार्थ श्रीपतिदत्त ने जो सूत्र बनाए, उन्हें कातन्त्रषरिशिष्ट के नाम से जाना जाता है। इन सूत्रों पर ग्रन्थकार ने वृत्ति भी लिखी है । इसके प्रारम्भ में उन्होंने महेश विष्णु को नमस्कार किया है, जिससे उन्हें वैष्णवमतानुयायी कहना उचित होगा संसारतिमिरमिहिरं महेशमजमक्षरं हरिं नत्वः। विविधमुनितन्त्रदृष्टं ब्रूमः कातन्त्रपरिशिष्टम्॥
इस ग्रन्थ में केवल ७ प्रकरण और ७३०
सूत्र हैं- (१) सन्धिप्रकरण में
१४२, (२) नामप्रकरण में १०१, (३) कारकप्रकरण में ११२, (४) षत्वप्रकरण
में ५१, (५) णत्वप्रकरण में ३७, (६) स्त्रीत्वप्रकरण में १०५ तथा (७) समासप्रकरण में १८२ । ऐसी मान्यता है कि समासप्रकरण की रचना करने के बाद श्रीपतिदत्त का निधन हो गया, जिससे अग्निम प्रकरणों की रचना नहीं हो सकी ।
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कातन्त्रपरिशिष्ट के सम्पादक श्रीगुरुनाथ विद्यानिधि भट्टाचार्य के अनुसार श्रीपतिदत्त के संबन्ध में एक किंवदन्ती प्रचलित है कि किसी समय श्रीपतिदत्त ने कलापतन्त्र के परमज्ञाता दुर्गसिह के समीप जाकर अध्यापनार्थ उनसे आग्रह किया ।
दुर्गसिंह ने अब्राह्मण समझकर उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की । फिर भी गुरुभक्त श्रीपतिदत्त ने दुर्गसिंह की मृत्तिकामयी मूर्ति बनाकर प्रतिदिन एकान्त में उनका पूजन और उनके समक्ष अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया । जब उन्होंने इस प्रकार
कलापव्याकरण के रहस्य को समझ लिया तो इसकी सूचना दुर्गसिंह को दी |प्रसन्न होकर दुर्गसिंह ने कहा कि तुम अपने ग्रन्थ में कभी मेरे मत का खण्डन मत करना, नहीं तो व्याघ्र तुम्हें खा जायगा | श्रीपतिदत्त ने एक स्थान में “इति दुर्गमतं निरस्तम्” लिखा, इसके फलस्वरूप उन्हें व्याघ्र खा गया । इसके विपरीत जो विद्वान् श्रीपतिदत्त को ब्राह्मण मानते हैं, उनके अनुसार उक्त किवदन्ती निराधार है (द्र०- कात० परि० - भूमिका, पृ० २) |
यदि दुर्गसिंह के साथ कातन्त्रपरिशिष्टकार का कोई घनिष्ठ सम्बन्ध प्रमाणित हो जाए तो इन्हें दुर्गसिंह का समकालिक कहना होगा । दुर्गसिंह का समय ६-७ वीं शताब्दी माना जाता है (द्र०, संस्कृत के बौद्ध वैयाकरण, पृ० १५९-६६)।
कातन्त्रपरिशिष्ट की रीकाएँ परिशिष्ट-सूत्रौं पर श्रीपतिदत्त के अतिरिक्त भी कुछ आचार्यो ने वृत्तिग्रन्थ लिखे हैं । इनमें गोपीनाथ की प्रबोधनाम्नी वृत्ति मुद्रित है । रामचन्द्र ने कलापतन्त्रतत््तबोधिनी, शिवराम चक्रवर्ती ने परिशेषसिद्धान्तरलाङकुर, गोविन्द पण्डित ने परिशिष्टरीका तथा विद्यासागर ने भी कोई व्याख्यान लिखा था | रामचन्द्र ने अपनी व्याख्या विकृत = विरुद्ध या विरल मतिवालों के बोधनार्थं लिखी धी ।अतः उसका नाम तत्त्वबोधिनी रखा था | उन्होंने कहा भी हैप्रणम्य श्रीनाथपदारविन्दम् अज्ञानसंमोहतमोभिदापहम्।
करूापतन्त्रस्य च तत्त्वबोधिनीं कुर्वे कृती श्रीदिजरामचन्त्रः॥ विद्यासागर ने कातन्त्रपरिशिष्ट के पूर्ववर्ती व्याख्यानो को तारागण तथा अपने व्याख्यान को चन्द्र बताया है । अर्थात् उनका अभिमत है कि अन्धकार से व्याप्त आकाश में अगणित तारागणों के रहने पर भी चन्द्रमा को ही देखकर जैसे चकोर आनन्दित होता है, वैसे ही विद्वज्जन मेरे व्याख्यान से सन्तुष्ट होंगे-
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कातन्त्रे बहवो निबन्धनिवहाः सन्त्येव कि तैर्यतो
मद्वाक्यामृतमन्तरेण बिलसन्त्यस्मिन् न
विद्वण्जनाः।
ताराः किं शतशो न सन्ति गगने दोषान्धकारावली -
व्याकीर्णे तदपीन्दुनैव लभते मोदं चकोरावली ॥ कातन्त्रोत्तरपरिशिष्ट और आचार्य विजयानन्द (विद्यानन्द) आचार्य ।विजयानन्द अथवा विद्यानन्द ने कातन्त्रोत्तर या कातन्त्रोत्तरपरिशिष्ट नामक ग्रन्थ की रचना की थी | इसका दूसरा नाम लेखक के नाम पर विद्यानन्द भी था, कातन्त्रीय परिभाषाओं के व्याख्याकार भावशर्मा ने विद्यानन्द को प्रकीर्णकर्ता कहा है । चर्करीतरहस्य में कवि कण्ठहार ने त्रिलोचन को कातन्त्रोत्तरपरिशिष्ट का कर्ता लिखा है और संभवतः इसी आधार पर डॉ० बेलवलकर ने $४stems 01 Sanskrit grammar, 7p. 69 में त्रिलोचन को ही कातन्त्रोत्तरपरिशिष्ट का कर्ता
बताया है| ग्रन्थकार ने अन्त में कहा है- इसकी रचना से मुझे जो पुण्य मिला हो, उससे मनुष्यों के त्रिविध दुःख नष्ट हो जाएँ और उनकी भावना शिव कल्याणमयी हो जाएसहेतुकमिहाशेषं लिखितं साधुसङ्गतम्। अतः शृण्वन्तु धीमन्तः कौतुकोत्तालमानसाः ॥ कातन्त्रोत्तरनामायं विद्यानन्दापराह्वयः। मानं चास्य सहस्राणि स्वर्यैद्यगुणिता रसाः॥ निर्माय सतूग्रन्थमिमं प्रयासादासादितः पुण्यलवो मया यः। तेन ब्रिदुःखापहरो नराणां कुर्याद् विवेकं शिवभावनायाम् ॥
पाटनस्थ जैन ग्रन्थागारों के हस्तलिखित ग्रन्थों के सूचीपत्र, पृ २६१ पर कातन्त्रोत्तर का उल्लेख है |इसकी प्रतिलिपि सं० १२०८, पीषषष्ठी, शनिवार को
का समय उससे पूर्व ही होना चाहिए । कातन्त्र-धातुपाठ तृतीय आख्यात अध्याय में आचार्य शर्ववर्मा के कुछ सूत्र इस प्रकार है““दिवादेर्यन्, नुः ष्वादेः, तनादेरुः, ना क्रथादेः, कर्तरि रुचादिझानुबन्धेभ्यः, इन्-ञ्-
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यजादेसभयम्” (३ | २। ३३, ३४, ३७, ३८, ४२, ४५) | इनमें दिवादि-प्रभृति धातुगणों का तथा 'इ-ज्' अनुबन्धवाळी धातुओं का निर्देश है । इससे यह कहा जा सकता है कि शर्ववर्मा ने धातुपाठ की रचना अवश्य ही की होगी और उसमें गणों तथा अनुबन्धो का निर्धारण भी अवश्य ही किया होगा | अपने धातुपाठ कै अभाव में सूत्रपठित उक्त निर्देश सङ्गत नहीं हो सकते । पाणिनीय या काशकृत्स्नव्याकरण के धातुपाठ को आधार मानकर उक्त निर्देशों की सङ्गति नहीं लगाई जा सकती, क्योंकि उपलब्ध कातन्त्र-धातुपाठ की अपेक्षा पाणिनीय -काशकृत्स्न के धातुपाठ पर्याप्त भिन्न हैं। New Catalogus Catalogorum, 01. 7; में शर्ववर्मरचित धातुकोश नामक ग्रन्थ उद्धृत है, जिससे यह संभावना की जा सकती है कि दुर्गसिह-द्वारा परिष्कृत धातुपाठ का यह आधार रहा होगा | धातुकोश का विवरण इस प्रकार हैड धातुकोश्च, by sarvavarman
(C.P.B), catalogue of sanskrit &
Prakrit mss. in the Central provinces and Berar Rayabahadura Hiralala, Nagpur 1926, No 7469".
धाठुविषयक अनेक मत [दुर्ग-दौर्ग' नामों से उद्धृत मिळते है |जैसे क्षीरस्वामी ने 'क्लेश' धातु पर कहा है कि 'क्लेश भाषणे इति चान्द्रं सूत्रम्, क्लेश बाधने इति दौर्गम्' (क्षीरत० १।६३७-३८) | मन्थ विलोडने’ धातु को दुर्ग के मतानुसार स्वीकार्य कहा गया है- “अत्रायं धातुर्यद्यपि क्षीरस्वाम्यादिभिर्न पठ्यते, तथापि मैत्रेयचन्दर-दुर्गै: पठितत्वात् ' शमीगर्भादग्निं मन्थति’ इत्यादिदर्शनाच्चास्त्येव”! (मा० धा० वृ० १1३७) | इस प्रकार के अनेक उद्धरणों से दुर्गसिंह-द्वारा कलापधातुपाठ को परिष्कृत किया जाना प्रमाणित होता है ।इसमें १३४७ धातुसूत्र तथा लगभग १८०० धातुएँ हैं ।
धातुपाठ पर स्वयं आचार्य शर्ववर्मा ने कोई वृत्ति भी लिखी थी, इसमें कोई प्रामाणिक वचन प्राप्त नहीं होता | कातन्रैकदेशीय आचार्य वररुचि ने अवश्य ही इसका कोई व्याख्यान किया था | यह मनोरमारीकाकार रमानाथ के एक वचन से ज्ञात होता है - “हस्ववान् अयम्, उतोऽयुरुनु० (३।७। १५) इत्यत्रास्यापि ग्रहणमिति कात्यायनब्याख्यानातु” (मनोरमा, णु स्तवने-तु० १०४) । शर्ववर्मा ने “ज्वलादि, रधादि, ल्वादि' गों का निर्देश सूत्रों में नहीं किया है, किन्तु कात्यायन ने इन्हें कृत्सूत्रो
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में पढ़ा है| सम्प्रति उपलब्ध धातुपाठ में इन गणों की समाप्ति के अवबोधार्थ जो “वृत्” पाठ किया गया है, वह कात्यायन ने ही किया होगा ।
मनोरमा टीका के अनेक वचनों से यह भी सिद्ध होता है कि दुर्गसिंह ने शार्ववर्मिक धातुपाठ का परिष्कार किया था तथा अपनी वृत्ति भी लिखी थी ।जैसे ““दुर्गतिहस्त्वमूनेकयोगं कृत्वा वैक्लव्ये पठति, नाह्मानरोदनयोः'” (“कद-क्रद आह्वाने रोदने च” १।४९९) | ““दन्दशनमिह दन्तशूककर्तृका क्रियाऽभिधीयते इति दुर्गसिह-व्याख्यानाद् दन्दशन इति पाठोऽनुमीयते’? (मनोरमा, खर्द दशने १।२०) | तिब्बती विद्वान् इसे
कलापधातुसूत्र और धातुकाय कहते हैं। इस धातुपाठ पर दुर्गसिहद्वारा रचित वृत्ति को “गणवृत्ति” भी नाम दिया गया है । आचार्य त्रिलोचन ने भी इस पर कोई वृत्ति लिखी थी (द्र०, मनोरमा १।६०, १८०, ५२२; २।३५) । त्रिलोचनकृत वृत्ति को धातुपारायण कहते हैं | इसे कातन्त्रगणमाला भी नाम दिया गया है । रमानाथ शर्मा ने मनोरमा नामक वृत्ति लिखी है, परन्तु यह शर्ववर्मकृत धातुपाठ पर आधारित नहीं है, ऐसा रमानाथ के अनेक वचनों से ज्ञात होता है | जैसे &चुरादेश्च'” (३।२।११) सूत्र पर टीकाकार ने युजादिगण में 'युज्' से लेकर 'प्रीञ्' तक ४२ धातु मानी हैं, जबकि वर्तमान धातुपाठ में 'दूभ? सन्दर्भे यह एक धातु अधिक प्राप्त होती है। इससे प्रतीत होता है कि शार्ववर्मिक धातुपाठ में ४२ ही धातुएँ रही होंगी |उपलब्ध धातुपाठ में कुछ वचन ऐसे भी प्राप्त होते हैं, जिनसे यह कहा जा सकता है कि इसमें दुर्गसिंह के सभी मतों का यथार्थ पालन नहीं किया गया है। संभवतः परवर्ती व्याख्याकारों ने इसमें कुछ अपने निवेश-प्रवेश
किए होंगे | रमानाथ कै कथन से थह जाना जाता है कि उनसे पूर्व अनेक आचार्यो ने कलापधातुपाठ के व्याख्यान किए थे, परन्तु उनके व्याख्यानो में धातुओं का निश्चय नहीं किया जा सका।
इस धातुपाठ के हस्तलेख जम्मू-श्रीनगर तथा वाराणसी में सुरक्षित हैं। इस
धातुपाठ के अन्तर्गत अदादिगण में ह्वादि धातुओं को पढ़ दिए जाने से ९ ही धातुगण माने गए हैं। इन ९ गणों में २९ अन्तर्गण और २० अनुबन्ध हैं। मनोरमा टीका में लगभग ७६ विशेषताएँ देखी जाती हैं। विशेषताओं का विवरण कातन्त्रव्याकरणविमर्शः (पृ० १०९-२२) में द्रष्टव्य है | कातन्त्रगणपाठ प्रातिपदिक (छिङ्ग-) पाठ के रूप में कलापव्याकरण का गणपाठ स्वतन्त्ररूप में उपलब्ध नहीं होता, तथापि “स्वन्नादीनां च, त्यदादीनाम विभक्तौ, मुहादीनां वा, बाद्वादेश्च विधीयते’? (२।१।६९;३।२९,४९; ६।६) आदि सूत्रों में जिन गणों का नाम लिया गया है, उनके शब्द-समूह का विना निश्चय किए कोई भी आचार्य सूत्रों में निर्देश नहीं कर सकता | फलतः शर्ववर्मा ने जिन गणों का सूत्रों में निर्देश किया है, उनके शब्दसमूह का भी निश्चय अवश्य ही किया होगा | उनका निश्चय करने के बाद ही सूत्ररचना की होगी । वृत्ति-रीका आदि व्याख्यानं में गणपाठ दिया गया है । किन्हीं गणों की शब्दसंख्या में पर्याप्त विषमता है |
मैनें जो संग्रह किया है, उसमें अधिकतम शब्द आ गए हैं, जिन्हें परवर्ती आचार्यो ने अपनी ओर से भी जोड़ दिया है | गणों की कुछ संख्या २९ है। कलापव्याकरण के गणों का निर्देश केवल “आदि” शब्द को जोड़कर किया गया है, जब कि पाणिनीयव्याकरण में आदि-प्रभृति और बहुवचनान्त शब्दों द्वारा | “कपिलकादि-शिवादि-हरीतक्यादि’ गणों को व्याख्याकारों ने दिखाया है, सूत्रकार ने नहीं ।अतः उन गणों का संग्रह नहीं किया गया है, परन्तु कृत्रकरण के गणों का संग्रह इसलिए कर लिया गया है कि वररुचि कात्यायन-द्वारा प्रणीत कृद्भाग को दुर्गसिंह कातन्त्रव्याकरण से अभिन्न ही मानते हैं | गणों की यह संख्या शर्ववर्मा और आचार्य कात्यायन-द्वारा प्रणीत सूत्रों के अन्तर्गत समझनी चाहिए ।
उणादिसूत्र उणादिसूत्रों से निष्मन्न होने वाले शब्द प्रायः संज्ञाशब्द होते हैंऔर वे प्रायः
रूढ भी माने जाते हैं । अतः उणादि-प्रत्ययान्त शब्दों को व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न दोनों प्रकार का माना जाता है | महर्षि शाकटायन सभी शब्दों को व्युत्पन्न मानते थे, जबकि गार्ग्य किन्हीं शब्दों को अव्युत्पन्न भी स्वीकार करते थे । उणादि प्रत्यय
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कातन्त्रव्याकरणमू
यद्यपि कृतृप्रकरण के ही अन्तर्गत माने जाते हैं, तथापि उक्त वैशिष्ट्य के कारण उन्हें पृथक् पढ़ा जाता है। आचार्य शर्ववर्मा ने कृत्सूत्र नहीं बनाए, कृद्मत्ययान्त शब्दों को वृक्षादि शब्दवत् रूळ मानकर उनकी रचना वररुचि कात्यायन ने की है |इससे यह भी कहा जा सकता है कि शर्ववर्मा ने उणादिसूत्र भी नहीं बनाए थे | सम्प्रति दुर्गसिंहविरचित उणादिसूत्र प्राप्त होते हैं |इन सूत्रों परउनकी स्वोपज्ञ वृत्ति भी है ।मद्रास से प्रकाशित पुस्तक में ६ पाद तथा ३९९ सूत्र है और वङ्गसंस्करण में ५ पाद तथा केवल २६७ सूत्र ।सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालयीय सरस्वतीभवन वाले हस्तलेख में तो ४ ही पाद एवं २५३ सूत्र हैं। १विमछ सरस्वती के वचनानुसार उणादिसूत्रो के रचयिता वररुचि हैं, परन्तु यह कथन प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि दुर्गसिंह ने ग्रन्थारम्भ में किसी दूसरे कर्ता का नामोल्लेख नहीं किया है। उन्होंने केवल उणादि के अभिधान की ही बात कही हैनमस्कृत्य गिरं (शिवम्) भूरि शब्दसन्तानकारणम्। उणादयोऽ भिधास्यन्ते
बालव्युत्पत्तिहेतवे॥
१९८८ ई० में प्रकाशित कलापव्याकरणमू में मद्रास-संस्करण का ही अधिक
उपयोग किया गया है, लेकिन कुछ पाठ बँगला-संस्करण से भी लिए गए हैं | इन सूत्रों में आए २५५ प्रत्यय तथा प्रत्येक का एक-एक उदाहरण भी कातन्त्रव्याकरणविमर्शः तथा कलापव्याकरणम् (पृ० १४७-५४) में संकलित किया गया है | इसके अनेक हस्तलेख भी प्राप्त होते हैं 'कुलटा-तस्कर-छात्र-मुख' आदि शब्दों की असाधारण साधनप्रक्रिया द्रष्टव्य है । २५५ प्रत्ययो में १२ अनुबन्ध तथा २५ लिङ्गगणों की योजना की गई है । ११ सौत्र धातुएँ भी प्रयुक्त हुई हैं |उणादि के विस्तृत अध्ययन के लिए डॉ० धर्मदत्त चतुर्वेदी तथा आचार्य लोसङ् नोर्बू शास्त्री द्वारा सम्पादित कातन्त्रोणादिसूत्र द्रष्टव्य है | कातन्त्र- लिङ्गानुशासन जिससे पुंसत्व-स्त्रीत्व और नपुंसकत्व धर्म जाना जाए, उसे लिङ्ग कहते है । प्रत्येक शब्द के साथ पुंस्व आदि लिङ्ग का नान्तरीयक संबन्ध होता है। अतः १. उणादिस्फुटीकरणाय वररुचिना पृथगेव सूत्राणि प्रणीतानि (रूपमाला-कृदन्तमाला ३।४।७५)।
प्रास्ताविकम्
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लिङ्गविचार को शब्दानुशासनरूप व्याकरण का एक अवयव स्वीकार किया गया है | जैसे प्रकरण, देश और काल से किसी भी शब्द के अर्थ निश्चित करने में सहायता मिळती है, वैसे लिङ्ग से भी अर्थनिर्धारण में सुविधा होती है । कहा भी हैअर्थात् प्रकरणाल्लिङ्गादौचित्याद् देशकालतः। ब्दार्थास्तु विभज्यन्ते न रूपादेव केवलातू॥ (कवि०, कृत्० - मङ्गलाचरण) | (वाक्यात् प्रकरणादर्थात्- पाठा०- वा० प० २।३१४)। इस लिङ्ग का अनुशासन (बोधन, विचार) जिसमें या जिससे किया जाता है, उसे लिइ्गानुशासन कहते हैं ।कलापव्याकरण मेंलिङ्गानुशासन की रचना आचार्य दुर्गसिंह ने की है । बीकानेर तथा अहमदाबाद के हस्तलेखों में इस लिङ्गानुशासन की केवल ८६ कारिकाएँ मिलती हैं, उनमें वृत्ति नहीं है ।पुण्यपत्तन (पूना) से १९५२ ई० मैं जो कातन्त्रलिइ्गानुशासन प्रकाशित हुआ है, उसमें ८७ कारिकाएँ तथा दुर्गसिंह की वृत्ति भी है। इस लिङ्गानुशासन में ७ प्रमुख प्रकरण है१. स्त्रीलिङ्गप्रकरण | २. पुंल्लिङ्गप्रकरण। ३. नपुंसकलिङ्गप्रकरण । ४. उभयलिङ्गप्रकरण । ५. स्त्री-नरलिङ्गप्रकरण । ६. स्त्री-नपुंसकलिङ्गप्रकरण तथा ७. सर्वलिङ्गप्रकरण । गुरुपद हालदार के लेखानुसार इस लिङ्गानुशासन का उल्लेख कश्मीर के ग्रन्थों में पाया जाता है (द्र०, व्या० द० इति०, पृ० ४२६-२७) | आचार्य शर्ववर्मा या कात्यायन ने लिङ्गानुशासन लिखा था- इसमें कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता |कलापपञ्जिकाकार त्रिलोचन ने श्वशुर शब्द पर दुर्गसिंह का जो अभिमत लिखा है, उससे दुर्गसिंह-द्वारा लिङ्गानुशासन का बनाया जाना अवश्य ही प्रमाणित होता है । मुद्रित लिङ्गानुशासन के अन्त में एक श्लोक हैदुर्गसिंहोऽथ दुर्गात्मा दुर्गो दुर्गप इत्यपि।
यस्य नामानि तेनैव ठिड्गतृत्तिरियं कृता ॥ (पाठा० - तेनेदं चक्रे लिङ्गानुशासनम्) | इस आधार पर लिङ्गानुशासन तथा उसकी वृत्ति के रचयिता दुर्गसिंह माने जाते हैं |गुरुपद हालदार ने तीन दुर्गसिंह माने हैं -(१) वृत्तिकार । (२) टीकाकार
शड
कातन्त्रम्पाकरणम्
तथा (३) लिङ्गानुशासनकार । कुछ विद्वान् इन्हें अभिन्न भी मानते हैं ।इनका समय ६-७ वीं शताब्दी माना जाता है !इनका देश-कालादि-विस्तृत परिचय वृत्तिकारप्रकरण में प्रस्तुत किया जाएगा | इसके अतिरिक्त संस्कृत के बौद्ध वैयाकरण (पृ० १५९६६) ग्रन्थ भी एतदर्थ द्रष्टव्य है ।
कातन्त्रव्याकरण के वृत्तिकार गुरुपद हालदार मानते हैं कि शर्ववर्मा ने ही सर्वप्रथम अपने व्याकरण की वृत्ति बनाई थी (द्र०- व्या० द० इति०, पृ० ४३७) | इसमें अन्य प्रमाण प्राप्त नहीं हैं । इसके बाद वररुचि कात्यायन ने दुर्घट नामक वृत्ति की रचना की थी। इस वृत्ति का ही मङ्गलश्लोक माना जाता है, जिसे दुर्गसिंह ने अपनी वृत्ति के प्रारम्भ में पढ़ा हैदेवदेवं प्रणम्यादौ
हरिराम ने ब्याख्यासार नामक व्याख्या में इसका स्पष्टीकरण किया है (व्या० सा० - मङ्गलाचरण) ।कविराज सुषेण विद्याभूषण ने भी कलापचन्द्र में उक्त श्लोक को वररुचिकृत ही माना है। कविराज ने वररुचिवृत्ति के नाम से उसके अनेक अभिमत उद्धृत किए हैं, जिनसे असन्दिग्धरूप में यही कहा जा सकता है कि शर्ववर्म-रचित सूत्रों पर वररुचि ने वृत्ति अवश्य ही बनाई थी |एक अभिमत इस प्रकार है- “अर्थ: पदसैन्द्रा:, विभक्त्यन्तं पदमाहुरापिशलीयाः, सुप्तिङन्तं पदं पाणिनीयाः, इहार्थोपलब्धौ पदम् इति बररुचिः” (१।१।२०) | अन्य अभिमतों के लिए द्रष्टव्य
स्थल इस प्रकार हैं- १।१।९, २३; ३।२।३८; ५।८ ।सम्प्रति ये दोनों ही वृत्तियाँ अनुपलब्ध हैं । उपलब्ध वृत्तियों मेंप्राचीन और प्रौढ दुर्गसिंहकृत वृत्तिहै ।वररुचि एवं दुर्गसिह की वृत्तियों के मध्यकाल में भी अनेक वृत्तियों की रचना हुई होगी । दुर्गवृत्ति में केचित्-अन्ये’ शब्दों से उद्धृत आचार्यमतों के बल पर ऐसा कहा जा सकता है | गुरुपद हालदार ने कहा है कि दुर्गवृत्ति की रचना वररुचिवृत्ति की रचना से ३०० वर्षों बाद हुई थी - 'वाररुचिक वृत्तिर प्राय ३०० वत्सर परे दौगवृत्ति एवं काश्मीरे विच्छुवृत्ति रचित हइयाछे । वर्धमानेर कातन्त्रविस्तरवृत्ति चिच्छुवृत्तिर परवर्ती” (व्या द० इति०, पृ० ३९५)।
प्रास्ताविकम्
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वृत्तिकार दुर्गसिंह का परिचय कातन्त्र-वाड्मय में दुर्गसिंह का योगदान महान् और अविस्मरणीय है |कहा जाता है कि कातन्त्ररूपी दुर्ग में सिंह की तरह निर्भय होकर विचरण करने के कारण ही इन्हें दुर्गसिंह कहते थे | कातन्त्रलिइगानुशासन के अन्त में दुर्गसिंह के तीन नाम बताए गए हैं- दुर्गाला दुर्ग, दुर्गप' |
संस्कृतवाड्मय में दुर्ग अथवा दुर्गसिह-द्वारा रचित अनेक ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। गुरुपद हालदार ने कातन्त्रवृत्तिकार को नवम-दशम शताब्दी का माना है । युधिष्ठिर मीमांसक अनेक प्रमाण देकर निरुक्तवृत्तिकार तथा कातन्त्रवृत्तिकार को एक ही
व्यक्ति तथा उनका समय वि० सं० ६०० से ६८० के मध्य सिद्ध करते हैं। जैसे उन्होंने कहा है कि दुर्ाचार्यविरचित निरक्तवृत्ति के अनेक हस्तलेखो के अन्त में दुर्गसिंह अथवा दुर्गसिह्म नाम उपलब्ध होता है।दोनों ग्रन्थकारो ने अपने ग्रन्थ को वृत्ति कहा है ।दोनों ग्रन्थों के रचयिताओं के लिए 'भगवत्' शब्द का व्यवहार मिलता है | हरिस्वामी ने सं० ६९५ में शतपथ ब्राह्मण के प्रथम काण्ड का भाष्य लिखा था | उनके गुरु स्कन्दस्वामी ने अपनी निरुक्तरीका में दुर्गाचार्य का उल्लेख किया है | इस प्रकार निरुक्तवृत्तिकार से कातन्त्रवृत्तिकार अभिन्न व्यक्ति सिद्ध होते हैं ।
दुर्गसिंह का कोई निश्चित देश अभी तक ज्ञात नहीं है |“सिद्धो वर्णसमाम्नायः?” (कात० १।१।१)
सूत्र की व्याख्या में दुर्गसिंह ने तीन अर्थो के उदाहरण दिए
हैं- 'सिद्धमाकाशम्, सिद्ध ओदनः, सिद्धः काम्पिल्ठः' ।ज्ञातव्य है कि 'सिद्ध’ शब्द के नित्य, निष्पन्न और प्रसिद्ध ये तीन अर्थ होते हैं। इन्हीं अर्था के क्रमानुसार उदाहरण भी दिए गए हैं|प्रसिद्ध अर्थ का उदाहरण है- काम्पिल्ल: । इस शब्द की दो व्याख्याएँ मिळती हैं- १ .उत्तर देश में बहने वाली कम्पिला नदी के समीपवर्ती देश को काम्पिल्छ कहते हैं । २. विक्रमादित्य के मङ्गल हाथी का नाम काम्पिल्ल
था |प्रथम व्याख्या को प्रामाणिक मान छेने पर दुर्गसिंह को उत्तरभारतीय काम्पिल्ल देश से सम्बद्ध मानना पड़ेगा, क्योंकि साक्षात् उसी देश में या उसके समीप विना निवास किए काम्पिल्ल की प्रसिद्धि से वे सुपरिचित नहीं हो सकते और ऐसा न होने पर प्रसिद्ध अर्थ का वे यह उदाहरण भी नहीं देते । दूरारी व्याख्या के अनुसार दुर्गसिंह को उज्जयिनी-निवासी कहा जा सकता है| प्रो० के? वी० अभ्यङ्कर ने
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कातन्त्रव्याकरणम्
Dictionary of sanskrit grammar में कहा है कि कुछ विद्वान् अमरसिंह तथा
दुर्गसिह को अभिन्न मानते हैं ।कलापव्याकरण (वं० सं० १२९६ = शक सं० १८११= १८८९ ई०) के इतिवृत्त (पृ०६) में संपादक ने भी जो लिखा है, उससे उक्त का समर्थन होता है । उनके अनुसार पाणिनीय व्याकरण में असाधारण वैदुष्य प्राप्त कर दुर्गसिंह ने नामलिइगानुशासन की रचना की, इससे प्रसन्न होकर विक्रमादित्य ने उन्हें अमरसिंह की उपाधि दी थी | अतः दुर्गसिंह का ही परवर्ती नाम अमरसिंह हुआ था और वे विक्रमादित्य के नव रलों में भी अन्यतम रल थेदुर्गसिंहप्रचारिते नामलिङ्गानुशासने । लभते ह्यमरोपार्धि राजेन्द्रविक्रमेण सः॥ बद्याकीर्तिप्रभावेणामरत्वं
लभते
स रत्नं नवरत्नानां तद्गुणेन
नरः।
सुशोभितः॥
कलाप के वङ्गलिपिवाले ग्रन्थों मेंएक प्राचीन श्लोक उद्धृत मिलता है, जिसमें कहा गया है- शबरस्वामी की शूद्रजातीया पली से अमरसिंह का जन्म हुआ था। ये विक्रमादित्य के भाई थे |यह इतिहास से प्रमाणित न भी हो सके तो भी दुर्गसिह और अमरसिंह को अभिन्न मानकर उनका देश उज्जयिनी कहा जा सकता है, क्योंकि अमरसिंह विक्रमादित्य के अन्यतम सभारल थे और विक्रमादित्य की राजधानी उज्जयिनी अत्यन्त प्रसिद्ध है |इनके नामैकदेश 'सिंह' के स्थान पर कहीं-कहीं “सिह्म' पाठ मिळता है, जो कश्मीरीभाषा के अनुसार माना जाता है | इसलिए कुछ विद्वान् दुर्गसिंह को कश्मीर-देशीय मानना चाहते हैं । इन्हें बौद्ध और शैव दोनों ही सिद्ध किया जाता है |सीतानाथ सिद्धान्तवागीश के मतानुसार ये शैव थे (द्र०, नमस्कारसञ्जीवनी , पृ० २४२-४३ ) ।युधिष्ठिर मीमांसक के विवेचनानुसार इन्हें वैदिक भी कहा जा सकता है | इसके अतिरिक्त निम्नाड्डित कुछ वचन ऐसे हैं, जो इन्हें बौद्ध सिद्ध करते हैं। जैसे'देवदेवं प्रणम्यादौ सर्वज्ञं सर्वदर्शिनम्’ में “सर्वज्ञ पद तथा ““भग्नं मारबलं येन निर्जितं भवपञ्जरम्।
निर्वाणपदमारूढं तं बुद्धं प्रणमाम्यहम् ॥ शिवमेकमजं बुद्धमर्हदय्र्यं स्वयम्भुवम् । कातन्त्रवृत्तिटीकेयं नत्वा दुर्गेण रच्यते॥” में ‘बुद्ध’ पद |
प्रास्ताविकम्
३७
निरुक्तवृत्तिकार आदि को अभिन्न मान लेने पर इनको दश रचनाएँ कही जा सकती हैं- १. निरुक्तवृत्ति या निरुक्तभाष्य | २. कातन्त्रवृत्ति (नामान्तर सिद्धान्तकौमुदी) । ३. कातन्त्रवृत्तिटीका ।४. कातन्त्रधातुपाठ । ५. कातन्त्रोणादिवृत्ति । ६. कातन्त्र - लिङ्गानुशासन । ७. कातन्त्रपरिभाषावृत्ति। ८. षट्कारककारिका । ९, कारकरल या षट्कारकरल तथा १०. कलापरत्न |
वैदिक शब्दकोशात्मक निघण्टु में आए वैदिक शब्दों का महर्षि यास्क ने अपने निरुक्त में जो निर्वचन आदि किया है, वह संक्षिप्त होने के कारण सद्यः बोधगम्य नहीं हो पाता, दुर्गसिंह ने उस पर भाष्य या वृत्ति लिखकर उसै बोधगम्य बनाने का प्रयत्न किया है। प्रसङ्गतः विविध प्रकार की महत्त्वपूर्ण बातें भी कही हैं।
कातन्त्रदुर्गवृत्ति कापरिचय आचार्य शर्ववर्मा एवं वररुचि द्वारा रचित कातन्त्र के १४०० सूत्रों की यह प्रौढ व्याख्या है । इसमें पूर्ववर्ती अनेक शाब्दिक आचार्यो के मत उद्धृत है । चान्द्रव्याकरण का एक सूत्र “तादर्थ्ये” (चा० २।१।७९) भी दुर्गसिह ने कातन्त्रव्याकरण मेंस्वीकार कर लिया है, जिससे कातन्त्रव्याकरण मेंसूत्रसंख्या १४०१ हो जाती है | व्याकरण की उपलब्ध अनेक वृत्तियो में से यही वृत्ति प्राचीनतम है | इसके प्रारम्भ में जो मङ्गलश्छोक दिया गया है, उसे वररुचि ने अपनी दुर्घटवृत्ति में पहले ही कहा हैदेवदेवं प्रणम्यादौ सर्वज्ञं सर्वदर्शिनम् । कातन्त्रस्य प्रवक्ष्यामि व्याख्यानं शार्ववर्मिकम्॥ किसी-किसी हस्तलेख में एक दूसरा भी श्लोक उपलब्ध होता है, जिसमें ओडङ्काररूप देवविशेष को नमस्कार किया गया हैऊकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः। कामदं मोक्षदं देवमोडूकाराय नमो नमः॥
यह श्लोक दुर्गसिंहकर्तृक कहा जा सकता है | इस वृत्ति का अपर नाम सिद्धान्तकौमुदी भी मिलता है | (०, ^ descriptive Catalogue of sanskrit manuscripts; Gujarata Vidyasabha, Ahmedabad, part I, 1964, pp.
734, $1. 1० 2391) इस वृत्ति पर अनेक आचार्यो ने टीकाएँ लिखी हैं ।
कातन्त्रव्याकरणम्
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दुर्गसिंह ने इसमें अनेक पूर्ववर्ती आचार्यों तथा ग्रन्थों के मतों की व्याख्या की है । कहीं-कहीं पूर्ववर्ती व्याख्याओं में दिए गए आक्षेपों का समाधान भी किया अपठित परन्तु अपेक्षित कुछ अंशों की पूर्ति की है | उन्होंने अद्यतन गया है। सूत्रों में की व्याख्या करते हुए कहा है कि गत रात्रि का अवशिष्ट प्रहर, आगामिनी रात्रि का प्रथम प्रहर तथा दिन के चार प्रहर, कुल मिलाकर ६ प्रहरों के काळ को अद्यतन कहते हैशेषो गतायाः प्रहरो निशाया आगामिनी या प्रहरश्च तस्याः।
दिनस्य चत्वार इमे च यामाः कालं बुधा ह्यद्यतनं बदन्ति॥ (३।१।२२)।
इसकी कुछ अन्य विशेषताओं के लिए व्याकरणदर्शनेर इतिहास पृ० २५९, २६४, ३०६, ३३२, ३४४, ३७६, ३९८, ४०७, ४१०, ५२१, ५२२, ५६३,
५६९, ५७० भी देखना चाहिए । स्वरचित कृत्सूत्रों पर भी स्वयं वररुचि कात्यायन ने चैत्रकूरी नामक वृत्ति बनाई थी |कविराज सुषेण विद्याभूषण ने “ बुंहेः स्वरेऽनिटि बा”? (कात० ४।१।६८) सूत्र की व्याख्या में वररुचि का एक मत प्रस्तुत किया है- “तथा च वररुचिः,
बृहबृह्योरमी
साध्या
बूंहबहदियो यदि।
तदा सूज्ेण वैयर्थ्यं न बर्हा भावके स्त्रियाम् ॥ गुरुपद हालदार ने व्याकरण दर्शनेर इतिहास (पृ० ५७९) में कृत्सूत्रों पर वररुचिविरचित टीका का नाम चैत्रकूरी लिखा है । संभवतः किसी हस्तलेख में टीका का नाम भी दिया गया हो | पण्डित वररुचिविरचित कृत्सूत्रवृत्ति का एक हस्तलेख 'लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृतिविद्यामन्दिर, अहमदाबाद मेंसुरक्षित है |परन्तु यह वृत्ति चैत्रकूरी वृत्ति से भिन्न प्रतीत होती है |इस प्रकार कातन्त्रसूत्रों के प्रमुख और प्राचीन वृत्तिकार शर्ववर्मा, वररुचि और दुर्गसिंह हैं, परन्तु वर्तमान में शर्ववर्मा और वररुचि की वृत्तियाँ प्राप्त नहीं होतीं, केवल दुर्गसिंह की ही वृत्ति देवनागरी तथा वङ्गलिपि में मुद्रित प्राप्त है | इसके अतिरिक्त कुछ अन्य वृत्तियाँ भी प्राप्त होती हैं | जैसे - कातन्त्रविस्तर । इसके रचयिता कणदिवोपाध्याय श्रीवर्धमान हैंऔर यह वड्ग-उत्कललिपियों में प्राप्त
प्रास्ताविकम्
३९
है | अद्यावधि इसका मुद्रण नहीं हुआ है, केवल कारकप्रकरण का कुछ अंश
मञ्जूषापत्रिका (व० १२, अं० ९) में छपा है | प्रतिज्ञावचन के अनुसार काव्यशास्त्र आदि में शिष्टजनों द्वारा प्रयुक्त सभी शब्दों का साधुत्व बताने के लिए वृत्तिकार ने प्रयल किया है । उनका वचन इस प्रकार है-
महेश्वरं नमस्कृत्य सुगमः
कुमारं
क्रियतेऽस्माभिरयं
तदनन्तरम्। कातन्त्रविस्तरः॥
अभियोगपराः पूर्व भाषायां यदू बभाषिरे। प्रायेण तदिहास्माभिः परित्यक्तं न किञ्चन ॥
इसके तातप्यार्थ को प्रकाशित करने के लिए बामदेव ने मनोरमा टीका लिखी थी । कातन्त्रविस्तर में टीकाकारों द्वारा किए गए आक्षेपों का समाधान रघुनाथदास ने वर्धमानप्रकाश नामक टीका में किया है। ग्रन्धारम्भ में नृसिंह से वाणी की सफलता
चाहते हुए उन्होंने प्रतिज्ञा की हैकातन्त्रविस्तराक्षेपनिगूदार्थ -प्रकाशनम् । कुरुते रघुनाथः श्रीवासुदेवाम्बिकासुतः॥ वर्धमान के मतों और विचारों का एक व्याख्यान बर्धमानसंग्रह नामक श्रीकृष्ण आचार्य ने लिखा था । वर्धमान का अनुसारी एक ऐसा भी प्रक्रियाग्रन्थ प्राप्त होता है, जिसमें ग्रन्थकार का नामोल्लेख नहीं किया गया है । संभवतः इसी प्रक्रियाग्रन्ध के सार का संग्रह श्रीगोविन्ददास ने बर्धमानसारव्याकरण में किया है । इसके अन्त में कहा गया है-
उद्धृत्य वर्धमानस्य प्रक्रियायाः प्रयत्नतः। रचितं
प्रक्रियासारं सर्वशास्त्रप्रयोगवत् ॥
२, व्याख्यासार इस वृत्तिग्रन्थ की रचना हरिराम आचार्य ने की है इसका चन्द्रिका भी नामा रर मिलता है। यद्यपि यह वृत्ति सम्प्रति कारक-समास-तद्धित .प्रकरणों पर
उपल
नहीं होती, तथापि अग्रिम आख्यात-कृत् प्रकरणों पर प्राप्त होने के कारण इन प्रकरणों पर भी उसे अवश्य ही लिखा गया होगा | इसमें कुछ सूत्रों की व्याख्या नहीं की गई है | प्राचीन वचन इस प्रकार है-
४०
कातन्त्रब्याकरणमू
विश्वनाथपदद्न्द्रं नत्वा
गुरुपदं मया।
तन्यते हरिरामेण व्याख्यातारः समासतः॥
३. बालबोधिनी स्तुतिकुसुमाञ्जलिकार जगद्ू्धरभट्ट ने अपने पुत्र यशोधर के अध्ययनार्थ कातन्त्रसूत्रों पर इस वृत्ति-ग्रन्थ को लिखा था | यह वृत्ति कश्मीर में प्रचलित रही है तथा सरल और संक्षिप्त भी है | अन्त में कहा गया हैइति
जगद्धरभट्ट का छघुललितवृत्ति नामक एक अन्य ग्रन्थ भी प्राप्त होता है, जो उक्त बालबोधिनी वृत्ति से भिन्न है | बालबोधिनी पर राजानक शितिकण्ठ ने १४७८ ई० में न्यास की रचना की थी।
४. कातन्त्रलघुवृत्ति इसके रचयिता छुच्छुकभट्ट हैं।इसका ३७८ पत्रों का एक देवनागरीलिपिबद्ध
हस्तलेख दिल्ली के प्राचीनग्रन्थ-संग्रहालय में सुरक्षित है । १९ वीं शताब्दी के अन्त तक कश्मीर की प्रत्येक पाठशाला में इसका अध्ययन होता था |
५. कातन्त्रकौमुदी कृपालु कोकिल गुरु नामक आचार्य ने इसे लिखा था । सुकुमारमति-बालकों को सरलता से व्याकरणज्ञानार्थ इसकी रचना की गई धी ।
कुछ अन्य वृत्तियो के नाम इस प्रकार हैं१. बालावबोधवृत्ति (मेरुतुझ्गसूरि) । २. कालापप्रक्रिया (आचार्य बलदेव) | ३. कातन्त्रमन्त्रप्रकाश
कातन्त्रवृत्तिटीका इसके भी रचयिता दुर्ग या दुर्गसिह ही हैं । प्रतिज्ञावचन में कहा गया हैशिवमेकमजं बुद्धमर्हदऱ्य॑ स्वयम्भुवम्।
कातन्त्रवृत्तिटीकेयं नत्वा दुर्गेण रच्यते॥ इससे इनका बौद्धमतावलम्बी होना सिद्ध होता है ।सामान्यतया वृत्तिकार और टीकाकार दुर्गसिंह को अभिन्न व्यक्ति नहीं माना जाता, क्योंकि टीकाकार दुर्गसिंह
ने वृत्तिकार के लिए 'भगवान्' विशेषण का प्रयोग किया है- “इति भगवान् वृत्तिकारः श्लोकमेकं कृतवान् ¬ देवदेवमित्यादि’?। “देवदेवम्” इत्यादि श्लोक दुर्गसिहद्वारा वृत्ति के प्रारम्भ में दिया गया है। अतः यहाँ वृत्तिकार पद से दुर्गसिंह का ग्रहण करने के कारण वृत्तिकार और टीकाकार में भेद माना जाता है, क्योंकि टीकाकार अपने ही लिए “भगवान्” शब्द-का व्यवहार कैसे करते ? ऐसा विचार वर्तमान समीक्षकों का है, परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि उक्त श्लोक दुर्गसिंह का नहीं, किं च उसे दुर्घटवृत्ति
के प्रारम्भ में वररुचि ने कहा है । अतः वररुचि के लिए “भगवान्” शब्द का व्यवहार मान लेने पर वृत्तिकार और टीकाकार में एकत्व स्थापित किया जा सकता है। टीका में वृत्ति के गूढ और प्रौढ अंशों को स्पष्ट किया गया है। विस्तार के लिए 'कातन्त्रव्याकरणविमर्शः' तथा “संस्कृत के बौद्ध वैयाकरण’ ग्रन्थ द्रष्टव्य है । श्रीगौतम पण्डित ने दुर्गसिंहवृत्ति पर कलापदीपिका, कुलचन्द्र मे दुर्गवाक्यप्रबोध, रामदासचक्रवर्ती ने कातन्त्रचन्द्रिका, गोवर्धन ने वृत्तिटिष्पणी, रामकिशोर ने मझ्गला,
प्रबोधमूर्तिगणि ने दुर्गपदप्रबोध तथा गोल्हण ने दुर्गवृत्तिटिप्पणी की रचना की है। इस टीका पर विजयानन्द नेएक कातनोत्तर (विद्यानन्द) नामक तथा विद्यासागर
ने आख्यातमञ्जरी व्याख्या लिखी है । कृत्सूत्रों पर शिवराम शर्मा ने एक मञ्जरी नामक टीका, रघुनन्दन भट्टाचार्य शिरोमणि ने कलापतत्त्वार्णव तथा कृतूशिरोमणि की रचना की है।
कातन्त्रवृत्तिपञ्जिका दुर्गवृत्तिगत शब्दों के तातर्यार्थ का स्पष्टीकरण करने के लिए त्रिलोचनदास ने इसकी रचना की है | ग्रन्थारम्भ में मङ्गलाचरण करते हुए उन्होंने प्रतिज्ञा की है-
एक त्रिलोचन ने कातन्त्रोत्तरपरिशिष्ट की रचना की थी । इन दोनों की एकता या भिन्नता के विषय में निश्चयेन कुछ नहीं कहा जा सकता । इस पर किए गए आक्षेपों का समाधान करने के लिए कविराज सुषेण विद्याभूषण ने कलापचन्द्र नामक एक विस्तृत व्याख्या लिखी है। इसमें 'वृत्तिकार-टीकाकार-हेमकर-कुलचन्द्र' आदि के
भी मत दिखाएं गए हैं। जिस अंश पर कलापचन्द्र उपलब्ध नहीं होता, उस पर आचार्य बिल्वेश्वर की टीका मुद्रित रूप में प्राप्त होती है । इसकी अनेक व्याख्याएँ उपलब्ध हैं । जैसे - कर्णोपाध्याय की उद्द्योत व्याख्या, मणिकण्ठ भट्टाचार्य की ब्रिलोचनचन्द्रिका, सीतानाथ सिद्धान्तवागीश को सञ्जीवनी टीका, पीताम्बर विद्याभूषण की पत्रिका, प्रबोधमूर्तिगणि की दुर्गपदप्रबोध और देशल की पञ्जिकाप्रदीप । अन्य उपयोगी ग्रन्थ
१. किसी अज्ञातनामा ग्रन्थकार ने कातन्त्रबिभ्रम नामक एक ग्रन्थ की रचना की थी । इसकी व्याख्या क्षेमेन्द्र, चारित्रसिंह तथा गोपालाचार्य ने लिखी है। क्षेमेन्द्रकृत व्याख्या की टीका मण्डन ने बनाई थी । कातन्त्रविभ्रम पर अबचूरि नामक टीका का उल्लेख प्राप्त होता है, परन्तु उसका रचयिता ज्ञात नहीं है । कातन्त्रविभ्रम मैं
मूल २१ कारिकाएँ तथा १५० शब्द हैं। जो शब्द किन्ही काव्यशास्त्रों में अर्थविशेष में प्रयुक्त रहे होंगे, परन्तु आज वे उन अर्थो में प्रसिद्ध नहीं रहे । ऐसे ही शब्दों को यहाँ प्रश्नोत्तररूप मेंप्रस्तुत किया गया है |श्रीजिनप्रभसूरि द्वारा रचित कातत्त्रवि श्रम नामक ग्रन्थ इससे भिन्न प्रतीत होता है |
२. यङ्लुकू की एक संज्ञा है- 'चर्करीत'। चर्कदीतान्त प्रयोगों की सिद्धि चर्करीतरहस्य की २० कारिकाओं मेंकबिकण्ठहार ने दिखाई है |इस पर उनकी स्वोपज्ञ टीका भी है । मङ्गलश्लोक इस प्रकार हैप्रणंनम्य
महादेवं चर्करीतरहस्यकम्।
श्रीकविकण्ठहारोऽहं वावद्मि बदतां वरः॥
प्रास्ताविकम्
४३
३. परिभाषासूत्रों से अतिरिक्त कातन्त्रव्याकरण में कुछ परिभाषाएँ भी हैं । ६५ परिभाषाओं की व्याख्या दुर्गसिंह ने तथा ६२ परिभाषाओं की भावशर्मा ने की
है। कवीन्दु जयदेव ने भी ५५ परिभाषाओं की व्याख्या करने का संकल्प किया था । प्रतापरुद्रीयपुर की यात्रा करते हुए उन्होंने इस संकल्प को पूरा भी कर लिया | परिभाषासंग्रह में६७ कातन्त्रपरिभाषासूत्र, २९ बलाबलसून्र तथा ११८ कालापपरिभाषासूत्र भी दिए गए हैं। इनके रचयिता का नाम उल्लिखित नहीं है! ४. हस्तलेखों में ११ कातन्त्रशिक्षासूत्र मिलते हैं |रचयिता का नाम नहीं दिया गया है | इसमें अवर्ण का केवल कण्ठस्थान ही नहीं, किन्तु मुखस्थित सभी स्थान बताए गए हैं- “अवर्णः सर्वमुखस्थानमित्येके'” । ५. कातन्त्र के सन्धिप्रकरण में ५ पाद तथा ७९ सूत्र हैं। इनके विकृतरूप राजस्थान की प्रारम्भिक पाठशालाओं में पढाए जाते रहे हैं | इन्हें सीदी पाटी कहा जाता है । जिसका मूलरूप सिद्धपाठ है। इनके अतिरिक्त विदित ग्रन्थ इस प्रकार है१. कातन्त्रोपसर्गसूत्र (पुरुषोत्तमदेव) ।२ . कलापव्याकरणोतत्तिप्रस्ताव (वनमाली) । ३. पादप्रकरणसङ्घति (जोगराज) | ४. दशबलकारिका (दुर्ग) । ५. बालशिक्षाव्याकरण (ठक्कुर संग्रामसिंह) | ६. शब्दरत्न (जनार्दनशर्मा)। ७. गान्धर्वकलापव्याकरण
. दुर्गवाक्यप्रबोधः- वङ्गाक्षरों में कुछ अंश मुद्रित । . पञ्जी - वड्गाक्षरों में मुद्रित, कलकत्ता | . पत्रिका - वङ्गाक्षरों में मुद्रित । ४ पादप्रकरणसङ्गति :- १९१४ ई०, Systems of Sanskrit grammar
(पृ० ११८-२०) ३५. बिल्वेशवरटीका - वं० अ० २६.
ग्रन्थ में प्रकाशित ।
१३१७, गोवर्धनयन्त्र, कलकत्ता ।
मड्गला टीका- श० अ० १८३२, गोवर्धनयन्त्र, कलकत्ता |
कातन्त्रव्याक्रणम्
४८
३७. मनोरमा रीका - कातन्त्रधातुटीका, वङ्गाक्षरो में मुद्रित । ३८. राजादिवृत्तिः - देवनागरी तथा वङ्ग अक्षरों में मुद्रित ।
३९. व्याख्यासारः- श० अ० १८३२ आदि, वड्जक्षरों में मुद्रित ।
४०. शिष्यहितान्यासः- १९९१ ई०, मौजपुर-दिल्ली । ४१. संजीवनी टीका- १९१२, आर्यविद्यालय, कलकत्ता | ४२. सन्धिचन्द्रिका- वङ्गाक्षरों में मुद्रित । इनके अतिरिक्त भी लगभग ७६ ग्रन्थों की कम से कम २९८ हस्तलिखित प्रतियाँ विविध संस्थाओं में सुरक्षित हैं, परन्तु वे ग्रन्थ अद्यावधि मुद्रित नहीं है ।
व्यञ्जन (हलू), शिट्, श्रद्धा, श्वस्तनी (लुट्), सन्ध्यक्षर, सप्तमी (लिङ्), समान, स्वर (अच्), ह्यस्तनी (लङ्) । कातन्त्रव्साकरणीय चार अध्यायों के २५ पादों को सूत्र -संख्या इस प्रकार हैअध्याय पाद पादनाम सूत्रसंख्या १.
सन्धि
प्रथम
संज्ञापाद
२३
सन्धि
द्वितीय
समानपाद
१८
सन्धि
तृतीय
ओदन्तपाद
०४
सन्धि
चतुर्थ पञ्चम
वर्गपाद विसर्जनीयपाद
१६ १८
सन्धि
(प्रक्षिप्त षष्ठ निपातपाद में ८ सूत्र हैं) २.
नामचतुष्टय नामचतुष्टय
प्रथम द्वितीय
लिङ्गपाद सखिपाद
७७ ६५
नामचतुष्टय
तृतीय
युष्मत्पाद
६४
नामचतुष्टय
चतुर्थ
कारकपाद
५२
नामचतुष्टय
पञ्चम
समासपाद
२९
नामचतुष्टय
षष्ठ
तद्धितपाद
५०
(प्रक्षिप्त सप्तम स्त्रीप्रत्ययपाद में ६३ सूत्र हैं)
उक्त के परिप्रेक्ष्य में कातन्त्रव्याकरण की कुछ प्रमुख विशेषताओं का परिगणन इस प्रकार किया जा सकता है-
१. बिविधनामकृत वैशिष्ट्य १. कातन्त्र |२. कलाप, कालाप, कलापक । ३. कौमार | ४. शार्ववर्मिक ।
५. दौर्गसिह, दुर्गसिंहीय । २, रचनाप्रयोजनयैशिष्ट्य
१. राजा सातवाहन को अल्प समय में व्याकरण का ज्ञान कराना |
प्रास्ताशिकम्
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२. वैदिक, अन्यशास्त्रनिरत, वणिकू, धनिक वर्ग आदि को सरलता से शब्दसाधुत्व का बोध कराना आदि | ३. वेदाङ्गत्वाड्गीकार-वैशिष्ट्य वैदिक शब्दों के साधुत्वहेतु नियम न बनाने मात्र से अर्थात् लौकिक शब्दों के ही साधनार्थ सूत्र बनाने से उस व्याकरण को वेदाङ्ग - बहिर्भूत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वैदिक शब्द अत्यन्त अल्प हैं, उनका ज्ञान तो शिष्ट जनों द्वारा किया जा सकता है, परन्तु लौकिक शब्द असंख्य हैं, उनके साधुत्वहेतु लक्षण बनाना अत्यन्त आवश्यक होता है ।
दूसरी बात यह कि वेदों में भी तो अधिकांश लौकिक शब्दों का ही प्रयोग हुआ है, ऐसे शब्दों की संख्या अत्यन्त न्यून है, जो केवल वेद में ही प्रयुक्त हुए हैं । इस प्रकार केवल लौकिक शब्दों का भी साधुत्व बताने वाले व्याकरण को वेदाङ्ग कहा ही जा सकता है | ४. सूत्रशैली-वैशिष्ट्य १. पूर्वाचार्यो की तरह कातन्त्रकार ने भी कार्यी का निर्देश प्रथमान्त, कार्य का द्वितीयान्त तथा निमित्त का सप्तम्यन्त किया है - अकारो दीर्घ घोषवति” (२।१।१४)।
२. अर्थकृत लाघव को ध्यान मेंरखते हुए स्पष्ट निर्देश किए गए हैं- “अवर्ण इवर्णे ए, उवर्णे ओ, ऋवर्णे अर्, ठृवर्णे अल्” (३।२।२-५)। ३. प्रत्याहारों के अभाव में स्वर-व्यञ्जन जैसे लोकप्रचलित शब्दों का प्रयोग किया गया है- ““स्वरेऽक्षरविपर्ययः, व्यञ्जने चैषां निः” (२।५।२३; २।३८)।
४. शप्-तिप्-सिप्-मिप् इत्यादि प्रत्ययों में पाणिनि ने प् अनुबन्ध पित्स्वरार्थ
किया है । कातन्त्रकार ने स्वरार्थ अनुबन्धो की योजना नहीं की है। ५. वर्णसमाम्नाय तथा लोकव्यवहार-ग्रयुक्त वैशिष्ट्य १. पाणिनि ने ९ स्वर माने हैं, जबकि कातन्त्रकार ने १४, क्योंकि कातन्त्रकार ने आ-ई-ऊ-क्र-लू इन दीर्घ वर्णो को भी वर्णसमाम्नाय में पढ़ा है |'अनुस्वार-विसर्ग-
५२
कातन्त्रन्याकरणम्
जिह्वामूछीय-उपध्मानीय-क्ष” को भी वर्ण माना है |अतः कातन्त्रीय वर्णसमाम्नाय में ५२ वर्ण हैं, जबकि पाणिनि ने केवल ४२ ही वर्ण माने हैं |पाणिनीय वर्णसमाम्नाय में 'ए-ओ-ऐ-औ-य-व्-र-ल” तथा 'ख्-फू-छ' आदि वर्णो का स्वैच्छिक क्रम से उथा हकार का दो बार पाठ किया गया है, इसके विपरीत कातन्त्रकार ने लोकव्यवहार के ही अनुसार सभी वर्णों के पाठ का क्रम अपनाया है | वर्ण-समाम्नाय के लिए सूत्र है- “सिद्धो वर्णसमाम्नाय:” (१।१।१)। २. जिन शब्दों की सिद्धि के ठिए सूत्र नहीं बनाए गए है, उनके साधुत्व का बोध लोक-व्यवहार से कर लेने का निर्देश है- “लोकोपचाराद् ग्रहणसिद्धि:” (१।१।२३) |पाणिनि ने इसके लिए सूत्र बनाया है- “पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम् (पा० ६।३।१०९) |
३. सूत्र-पठित 'वा-अपि' शब्दों के बल पर तथा कहीं-कहीं अनुवृत्ति से अनेक शब्दों की सिद्धि दिखाई गई है । इस प्रक्रिया से भी जो शब्द सिद्ध नहीं हो पाते, उन्हें शिष्टव्यवहार के अनुसार
साधु मान छेने का व्याख्याकारों ने
निर्देश किया हैबाशब्दैश्चापिशबदर्वा शब्दानां (सूत्राणाम्) चालनेस्तथा ।
एभिर्येऽत्र न सिध्यन्ति ते साध्या लोक सम्मताः॥ (क० च० १।१।२३) ६. लाघवप्रयुक्त वैशिष्ट्य
लाघव दो प्रकार का होता है- शब्दकृत तथा अर्थकृत । शब्दकृत लाघव में अर्थबोध प्रायः विलम्ब से होता है, जबकि अर्थकृत लाघव में शीघ्र हो जाता है । शब्दकृत लाघव में अल्प शब्दों का तथा अर्थकृत लाघव में अर्थबोध की सुगमता को ध्यान मेंरखकर अपेक्षाकृत अधिक शब्दों का प्रयोग होता है ।कातन्त्र- व्याकरण मेंअर्थलाघव विद्यमान हैऔर पाणिनीय व्याकरण मेंशब्दकृत लाघव ।कातन्त्रव्याकरण में प्रयुक्त स्वर-व्यञ्जन-वर्तमाना-श्वस्तनी-भविष्यन्ती जैसी संज्ञाओं से अर्थलाघव तथा पाणिनीय व्याकरण में अच्-हळू-लट्-लुट्-ळूट् जैसे प्रयोगों से शब्दलाघव का अनुमान किया जा सकता है |
प्रास्ताबिकम्
५३
७. शब्दसाधनप्रक्रिया का वैशिष्ट्य (सवर्णदीर्घविधि) -
'देव+अरिः, भानु+उदयः' आदि स्थलों में कातन्त्र के अनुसार वकारोत्तरवर्ती अकार तथा नकारोत्तरवर्ती उकार को दीर्घ आदेश एवं उत्तरवर्ती वर्णों का लोप होकर 'देवारिः, भानूदयः? प्रयोग सिद्ध होते हैं| पाणिनि यहाँ दो वर्णो के स्थान में दीर्घ आदेश करते हैं । कातन्त्र का सूत्र है- “समान: सवर्णे दीर्घीभवति परश्च लोपम्’? (१।२।१)। (पूर्वरूप) -
'ते+अत्र, परो+अत्र' इस अवस्था में पाणिनि दो वर्णो के स्थान में पूर्वरूप एकादेश करते हैं, जबकि कातन्त्रकार पदान्तस्थ एकार-ओकार के अनन्तर विद्यमान अकार का लोप करते हैं- “एदोत्पर: पदान्ते छोपमकार: (१।२।१७) ।इस प्रक्रिया से 'तेऽत्र, पटोऽत्र' रूप सरलता से सिद्ध होते है । (शकारादेश) -
“भवान+चरति, भवान्+छादयति’ इस स्थिति में पाणिनीय प्रक्रिया के अनुसार 'न्' ढी 'रु', 'रु' को विसर्ग, सकारादेश, $चुत्व से शकार, अनुनासिक तथा अनुस्वार होकर 'भवांश्चरति, भवांश्छादयति' रूप सिद्ध होते हैं |कातन्त्रकार ने तो 'न्' के
स्थः= मेंअनुस्वारपूर्वक शकारादेश करके उक्त प्रयोग सिद्ध किए हैं- “'नोऽन्तश्चछयोः शकारमनुस्वारपूर्वम्” (१।४।८)।
(स्वरादिधातुऔं में आदिवृद्धि) 'ऐत्-ऐधत्' आदि प्रयोगों में पाणिनि के अनुसार आदू आगम तथा पूर्वपर के स्थान में वृद्धिरूप एकादेश होता है। कातन्त्रकार ने ऐसे स्थलों में धात्वादिस्थ स्वर को वृद्धि करने का निर्देश किया है- “स्वरादीनां वृद्धिरादेः” (३।८।१७)। ८. व्यापक प्रचार-प्रसार-गत वैशिष्ट्य
कातन्त्रव्याकरण का प्रचार-प्रसार भारत के सीमावर्ती प्रदेशों में अधिक हुआ | वङ्ग और कश्मीर में कभी यही व्याकरण पठन-पाठन में प्रचलित
५४
कातन्त्रब्पाकरणमू
था । इसके अतिरिक्त अङ्ग-कलिङ्ग-उत्कल-राजस्थान-आन्ध्र आदि प्रदेश भी इसके प्रयोगस्थल रहे है ।
भारत से बाहर तिब्बत-नेपाल-श्रीलङ्खा आदि देशों मेंभी इसके प्रयोग के अनेक प्रमाण देखे जाते हैं। ९. विपुल वाइमय-लक्षित वैशिष्ट्य इसका वाङमय शारदा-वङ्गग-उत्कल-ग्रन्ध-देवनागरी लिपियों में उपलब्ध होता है | वडूग तथा देवनागरी लिपियों में अनेक ग्रन्थ मुद्रित हुए है । दुर्गवृत्ति कातन्त्ररूपमाला आदि ४० से भी अधिक मुद्रित ग्रन्थ प्राप्त होते है । अहमदाबादजयपुर-जोधपुर-उज्जैन-बीकानेर-वाराणसी आदि में तीन सौ से भी अधिक हस्तठेख सुरक्षित हैं । १२ ग्रन्थों का तिब्बतीभाषा में अनुवाद प्राप्त हैएवं २३ से भीअधिक टीकाएँ तिब्बतीभाषा में लिखी गई हैं। मूल अंशों की पूर्ति के लिए आचार्यों ने कातन्त्रपरिशिष्ट-कातत्रोत्तर-कातन्त्रच्छन्द प्रक्रिया आदि ग्रन्थों की बाद में रचना की है।
न चायं क्रमः प्रतीयते, अनुभयवेदिनां च स्त्रीशूद्राणां का वार्ता ? न हि तेषां शब्दव्यवहारो न सम्भवति | धर्महेतुत्वमिति ब्रूमः। कथम्, यदि ज्ञानाद् धर्मोऽपि
स्यात् | यो हि शब्दाञ्जानाति सोऽपशब्दानपि । न चायं नियमः, शब्दज्ञानाद् धर्मो. नापशब्दज्ञानादधर्म इति ।अथ प्रयोगात्, तथाऽधर्मोऽपि ।नहि शब्दप्रयोक्तृभिरपक्षब्दा न प्रयुज्यन्ते, शब्दप्रयोगस्य प्रतिपत्रपेक्षत्वात् |नहि सर्वे प्रतिपत्तारः साधुशब्दाञजानन्ति । न चायं नियमः। शब्दानां प्रयोगाद् धर्मो नापशब्दानामधर्म इत्युभयथाऽप्यदोषः। शब्दानां ज्ञानात् प्रयोगाच्च’ धर्म एव पठ्यते नापशब्दानामधर्म? इति । कथम्, यदि सत्यार्थानामसाधूनामपि शब्दानां सोऽस्तीति, अनर्थकोऽयं नियमः | अथ मिथ्यार्थानाम्, न तर्हि तस्यागमभावः ।न ह्यागमान्तरेण बाध्यमानं वचनम् आगमः, “आगमो विचक्षणवतीं बाचं बदेत्’ इति श्रुतैः । सत्यार्थानामेव धर्मसाधनत्वम् आगमः शास्ति, नैतदेवम् | धर्मनियमस्य विवक्षितत्वाद् असाधूनामपि सत्यार्धानामस्ति धर्मः | स पुनरनियतः । अन्तर्वाण्या (अन्तर्वेद्याम्) न म्लेच्छितव्यम्, नापभाषितव्यमिति श्रुतेः । न पुनरेवं साधूनामधर्मसाधनत्वं क्वचिदपि श्रूयते च |
*ते5पि द्विविधाः- लौकिका वैदिकाश्च ।तत्र वैदिका आम्नायत एव सिद्धाः | नहि तेषां सम्प्रदायो युगमन्वन्तरादिष्वपि विच्छिद्यते | न च ते शक्या व्युत्पादयितुम्, *अनन्तत्वाद् वेदशाखानाम् । न ह्यर्वाग्दर्शिनो वेदशाखान्तं गन्तुमर्हन्ति |लौकिकानां शब्दानां पुनर्नापर एव सम्प्रदायो व्याकरणाद् ऋते | व्याकरणेन हि प्रतिनियतार्थप्रतिपादनसामर्थ्यमेषां बुद्ध्वा प्रतिनियतान् शब्दान् प्रयुञ्जते जनाः] न १.
महाभाष्यानुसारं याज्ञे कर्मण्यपशब्दानां प्रयोगादधर्मो भवतीत्युच्यते - “ज्ञाने धर्म इति चेत्
तथाऽधर्मः। .......: यो हि शब्दाञ्जानाति अपशब्दानप्यसौ जानाति । यथैव शब्दज्ञाने धर्म एवमपशब्दज्ञानेऽप्यधर्मः। अथवा भूयानधर्मः प्राप्नोति । भूयांसो धपशब्दा अल्पीयांसः शब्द १5६ आचारे नियमः | .......शास्त्रपूर्वके प्रयोगेऽभ्युदयस्तततुल्यं वेदशब्देन | 2000, यदप्युच्यते आचारे नियम इति । याज्ञे कर्मणि स॒ नियमोऽन्यत्रानियमः | ..... तैः पुनरसुरैयज्ञि कर्मण्यपभाषितम्, ततस्ते पराभूताः (म० भा० - पस्पशा०, १० ५३-५८) | २.
द्र०- म० भा० पस्पशा० - प्रारम्भे ।
३.
महाभाष्यै
११३१ शाखा निर्दिष्टाः सन्ति - एकशतमध्वर्युशाखाः, सहस्रवर्त्मा सामवेदः,
चैषामुदात्तादिनियमेनार्थप्रतिपादनम् । न हि स्वरविशेषमजानन्तः शब्दार्थतया स्वार्थ (शब्दानुपलभमानानर्थम्) प्रतिपद्यन्ते । कः पुनः शब्दः? ? प्रतिनियतो वर्णानां व्यूहः | नियतव्यूहा हि वर्णाः श्रूयमाणा अर्थ गमयन्ति। ननु कालभेदाद् वर्णानां समुदायानुपपत्तिः ? सत्यम्, ूर्ववर्णकृतोऽतिशयोऽन्त्यवर्णेन सह सदृशं सङ्गच्छते, सोऽग्रं समूहार्थं प्रतिपादयति | कः पुनरसावतिशयः ? पूर्ववर्णस्मृतिकृतोऽन्त्यवर्णविषयानुसन्धिप्रत्ययः। नन्वन्त्यवर्णोपालम्भात् कथं पूर्ववर्णस्मृतिः ? न ह्यमीषां कश्चित् प्रतिबन्धोऽस्ति । नैतदेवम्, एकपदनिबन्धनो हि वर्णानां प्रतिबन्धः |यथैकग्रन्थनिबन्धनोऽर्धानाम् ।न पुनर्वर्णव्यतिरिक्तं पदमस्ति, न हि वर्णोच्चारणमन्तरेण तदुपलभ्यते । अथ वर्णैः पदं व्यज्यते, न तावदेते समुदिताः पदं व्यञ्जयितुमर्हन्ति | नहि भिन्नकालानां समुदाय उपलभ्यते | अधैकशः पदव्यक्तिस्तर्हि वर्णन्तिरेण वैयर्थ्यम् | अथ पदैकदेशा विद्यन्ते (व्यज्यन्ते) ते यटि पदात्मानः, प्रत्यक्षरमर्थव्यक्ति-
प्रसङ्गः । अथ विपरीताः, कथं पदैकदेशाः, न ह्यपदानां समूहः पदं भवितुमर्हति । भवतु वा, न हि तेषां यौगपद्यम्, न व तदन्तरेण पदोत्पत्तिः । अथ तेभ्योऽन्यत् पदम्, तर्हि किमात्मानस्ते, कि च कुर्वते |नहि एकदेशतः (एकशः) समुदायतो वा पदममी
व्यञ्जयितुं क्षमाः | यदि पुनरस्मत्परिकल्पनया वर्णेभ्यः पदव्यक्तिरङ्गीक्रियते, अर्थव्यक्तिरेव कि नाङ्गीक्रियते ? अथ व्यक्तिरेवाङ्गीक्रियते | नहि तत्रात्र वा कश्चिद् विशेषोऽस्ति | किञ्च विभक्त्यन्तं हि पदमिष्यते | न ह्यावर्णामनो वर्णलक्षणा विभक्ति-
कण्ठादीनां शब्दं व्यनक्ति ।व्यक्तिर्हि शब्दोपलब्धिः, न च श्रोत्रमन्तरेण शब्दप्रतिपत्तिर्भवितुमर्हति । नहि कण्ठादिदेशे श्रोत्रसम्भवो न च श्रोत्रदेशे शब्दव्यक्तिरभिघातासम्भवातू | न श्रोत्रदेशे कण्ठाद्यभिघातः शब्दव्यञ्जकः सम्भवति | वायुसंयोग इति चेद अथ मन्यसे कण्ठादिभिरभिहतो वायुर्बहिर्निःसृतो बाह्यानि वाय्वन्तराणि प्रतिबाधमानः त्रैः सह संयुज्यते । स संयोगः शब्दं व्यनक्तीति, तन्न । केवलस्या-
सामर्थ्यात् कण्ठादिभिरभिहतो हि वायुर्विभागान्निवृत्तः, न च तत्कृतोऽतिशयो वायोरस्ति । कथं केवलो वायुः प्रतिनियतवर्णव्यञ्जनसमर्थो भवति, कथं च वक्तृभिः प्रेरितो वायुर्बहिर्निस्सरति, श्रोत्रदेशं वा कथं गच्छति ? ते हि कण्ठाद्यभिघातानुसारेण
वर्णव्यक्तिमवलोक्य कण्ठादीन् प्रति वायुं प्रेरयन्ति । ततो हि शब्द उत्पन्नः सर्वतो दिक्कान् शब्दान् आरभते, ते च नियतदेशानेव शब्दानारभन्ते तावदेव, यावच्छोत्र-
६
कातन्त्रब्याकरणमू
देशसमवाय : । एवं च शब्दस्य व्यक्तिर्भवति, न च शब्दानां वितत्यावस्थितिरस्तीति । नहि वितत्यावस्थितानां शब्दानां प्रतिनियतदेशसम्बन्धितयोपलम्भः सम्भवति । सामान्यवदिति चेत्, अथ मन्यसे सामान्यमनियतमपि नियतमेवोपलभ्यते, एवं शब्द इति । नैतदेवम्, आधारनियमाभावात्। नहि शब्दस्य नानादेशात्मान आधाराः सन्ति, नापि तदुपालम्भनियमेनोपलब्धिः, तस्मात् स्वभावत एव कुम्भादीनामिव प्रदेशनियमः |
ननु प्रत्यभिज्ञया तद्भागे गृह्यते कथं प्रदेशनियमः ? नैवम्, भिन्नेष्वपि शरीरादिषु प्रत्यभिज्ञोपलम्भात् | ननु तत्र विशेषः प्रत्यक्षः, कथं प्रत्यभिज्ञा, किमिह विशेषो न प्रत्यक्षो येन प्रत्यभिज्ञा । तथाहि, उपात्तानुदात्तस्वरिततया षड्जादिस्वभावतया च परस्परविभक्तात्मानो वर्णाः श्रूयन्ते । न चासीमध्वनिधर्माणः, नहि वर्णव्यतिरिक्तो ध्वनिरस्ति | वर्णा एव हि नानास्वभावतयोपलभ्यन्ते | तदेवं नित्यानित्ययोरुभयोरपि न्यायो दर्शितो न पुनर्बलाबलालोचनया तत्त्वमवस्थापितम् ।किन्तु एतेन विचारणेनोभयधापि लक्षणं प्रवर्तते इति |
[समीक्षा] १. संस्कृतग्रन्थों में आशीर्वादात्मक, नमस्कारात्मक तथा वस्तुनिर्देशात्मक मङ्गलाचरण प्रसिद्ध हैं- “आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि मङ्गछम्'” {का० आ० १।१४) | यहाँ टीकाकार आदि ने इनसे भिन्न तीन प्रकार के मङ्गल माने हैंकायिक-वाचनिक- मानसिक और प्रकृत ग्रन्थ में वाचनिक नमस्कार को ही उचित सिद्ध किया है । शिशुपालवध ग्रन्थ की निर्विघ्न परिसमाप्ति में यज्ञ - यागादि धर्म को कारण माना गया है, क्योंकि इसमें मङ्गलाचरण नहीं किया गया है !
२. ग्रन्थ का विषय = शब्द, प्रयोजन या फल = शब्दव्युत्पत्ति या अर्थनिर्णय तथा सम्बन्ध = अभिधानाभिधेयभाव स्वीकार किया गया है |
३. व्याख्याकारों नेप्रसङ्गतः महाभाष्य, श्लोकवार्त्तिक, कादम्बरी , शिशुपालवध तथा वासवदत्ता आदि ग्रन्थों के कुछ वचन उद्धृत किए हैं। १.
भगवतः कुमारस्यानुग्रहेण कौमारम् ।
प्राप्तत्वात्, कुमार्या सरस्वत्या
सहास्य
सम्बन्धसत्वाच्च
२.
नैष स्थाणोरपराधो यदेनमन्धो न पश्यति | पुरुषापराधः स भवति | (नि०-अ०१ पा० ५)।
३०
कातन्त्रव्याकरणम्
४. श्रीपति, उमापति, भट्टमल्ल, कुलचन्द्र, जयादित्य तथा शङ्कराचार्य आदि के भी मतों का स्मरण किया गया है। ५. महान्, मूर्ख, आलङ्कारिक, केचित्, अन्ये, अपरे तथा साइख्यमत आदि
प्रतीकों द्वारा कुछ मतों की चर्चा की गई है। ६. अस्यायमर्थः, अयं भावः, वस्तुतस्तु, परमार्थतस्तु’ आदि वचनों द्वारा कुछ विषयों का स्पष्टीकरण किया गया है | ७. 'वाकू, देव, ताच्छील्य, सर्वज्ञ, तन्त्र, कातन्त्र’ प्रभृति कुछ शब्दों की व्युसत्तियाँ दिखाई गई है ८, कलापचन्द्रकार ने प्रसङ्गतः शब्द के अनित्यत्व की चर्चा की है तथा दुर्गसिंह से पूर्ववर्ती कातन्त्रवृत्तियों को केवल सूत्रव्याख्यानपरक माना है |
९. कलापचन्द्रकार सुषेण विद्याभूषण के अनुसार वृत्तिकार दुर्गसिंह को शैवमतानुयायी मानना होगा, जबकि वृत्तिकार-टीकाकार के अभेद से उन्हें बौद्धमतानुयायी तथा कुछ अन्य प्रमाणों के आधार पर वैदिकमतानुयायी भी माना जाता है (द्र०, संस्कृत के बौद्ध वैयाकरण, पृ० १५९-६६) | किंवदन्ती के अनुसार यदि दुर्गसिंह की ही उपाधि अमरसिंह मान ली जाए तो दुर्गसिंह तथा अमरसिंह को अभिन्न व्यक्ति स्वीकार किया जा सकेगा और उस स्थिति में इन्हें तिब्बती-वाइमय के अनुसार 'बौद्ध' तथा जैन-मान्यता के अनुसार 'जैन' भी कहना उचित होगा (द्र०, संस्कृत के बौद्ध वैयाकरण, पृ० १३७-५४) |
१०. कातन्त्रलिङ्गानुशासन के अन्तिम वचन के आधार पर दुर्गसिंह के अन्य भी तोन नाम हैं- दुर्गात्मा, दुर्ग, दुर्गप | 'दुर्गसिंहो5थ दुर्गात्मा दुर्गो दुर्गप इत्यपि' । ११. कलापचन्द्रकार ने दुर्गसिंह के मझ्गलवचन “देवदेवं प्रणम्यादौ” को वररुचिकृत माना है |
१. सिद्धो वर्णसमाम्नायः (१।१।१) [सूत्रार्थ] कलापव्याकरण (शास्त्र) में अकारादि वर्णो का पाठक्रम लोकव्यवहार के ही
`अधिकारो विधिः संज्ञा निषेधो नियमस्तथा। परिभाषा च शास्त्रस्य लक्षणं षड्विधं विदुः॥ १.
वर्ण क्रियाविस्तारगुणवचनेषु (कात० धा० पा० ९।२४३)।
२.
गोयीचन्द्रस्तु अतिदेशभेदं पृथक्त्वेन परिगणयति, न च निषेधम् संज्ञा च परिभाषा च विधिर्नियम एव च। अतिदेशोऽधिकारश्च षड्विधं सूत्रलक्षणम्॥ (संक्षिप्तसार - विवरणटीका १) ।
३६
कातन्त्रव्याकरणम्
तत्र नायमधिकार:- वर्णसमाम्नायो वेदितव्य इति वाक्यार्थसमाप्तावधिक्रियते इत्यनन्वयापत्ते: । नापि विधिः - वर्णसमाम्नायस्य प्रसिद्धत्वादत्यन्ताप्राप्तेरभावात् । तथा च “विधिरत्यन्तमप्राप्तौ ””(द्व०, व्या० द० इ०, पृ० ३७९) इति ।नापि संज्ञा -
प्रयोजनाभावात् । नापि निषेध:- नञो5नुपात्तत्वात् । यदि तात्पर्यार्थमादाय निषेधो भविष्यति, तदा तत्र चतुर्दश इत्यादिभिरपि निषेधः स्यात् ।तेषामपि अचूसंज्ञानिषेधार्थत्वात् । स्यादिति चेत्, न । व्यवहाराभावात् | नापि नियम:- वर्णसमाम्नाय: सिद्ध एव । नापि सिद्ध इति नियमः- सिद्धस्यापि वर्णसमाम्नायस्य 'अ-इ-उ-ऋ-कृ-कू' इत्यादिप्रत्याहाररूपेणाप्रसिद्धीकृतस्यापि वर्णसमाम्नायवाच्यत्वात् । नापि परिभाषा सिद्धान्तरम् अनूद्य नियमकारित्वाभावात् । अतः कुलचन्द्र उद्देशसूत्रमिदमित्याह | तदुक्तम् उद्देशोऽथ विभागश्च लक्षणं च त्रिधा मतम्। परीक्षा च चतुर्द्रा च क्वचित् केचित् प्रचक्षते ॥
एवं सति मङझ्गलमप्याविष्करोतीति विघ्नध्वंसं जनयतीत्यर्थः |तथा विष्नध्वंसकारणं मङ्गलं सिद्धशब्दः, स एवादौ येषां तानीति न दोषः | अस्मिन् पक्षे सिद्धशब्दो १.
: (विसर्ग), * (जिह्णामूलीय), ॥। - ९9 - ०० - ® (उपध्मानीय), कू खू ग् वणक) ्वूण्ण जून्या मादा दश शतुध्य बन्य नकम कोच ममम रछ व्, श् षु स् ह्,क्ष्। (पाणिनीय वर्णसमाम्नाय - १४ माहेश्वर सूत्र, ४२ वर्ण) १. अइ उण् | २. क्र ढुक्। ३. ए ओह । ४. ऐ औच्। ५.ह य व रट्।
६. लण ७. जम ङ ण नम्। ८. झ भज् | ९. घ ढ धष्।१०.जबगड दशू । 99. ख फ छठ थ चट तव् | १२. क पयू। १३. श ष सर् | १४. हल | कलापव्याकरण के कश्मीरी संस्करण में जिह्वामूलीय, उपध्मानीय तथा क्ष्वर्ण प्रायः नहीं देखे जाते । जिनमें जिह्वामूठीय तथा उपध्मानीय वर्णों की अनुपलब्धि प्रामादिक हो सकती है, क्योंकि मूल सूत्रों मेंइनका उल्लेख हुआ है । इस प्रकार इस संस्करण में ४९ या ५१ वर्ण ही पठित हैं, जबकि वड्गीय संस्करण में कक्षू' वर्ण भी समादृत है |इसे संयोगसंज्ञक वर्णो से मिलकर बनने वाले वर्णो के निदर्शनार्थ यहाँ प्रस्तुत किया गया है। अतः इस संस्करण के अनुसार ५२ वर्ण मान्य है । ये सभी वर्ण लोकव्यवहार में प्रसिद्ध पाठक्रम के ही अनुसार पढ़े गए हैं। इनमें १४ स्वर, ३४ व्यञ्जन तथा अनुस्वार - विसर्ग-जिह्वामूलीय-उपध्मानीय (४) प्राय: उभयविध माने जाते हैं | पाणिनीय व्याकरण में वर्णों का पाठ छोकव्यवहारानुसारी नहीं है। इसके वर्णक्रम में भी भिन्नता है । तथा 'ह' को दो बार पढ़ा गया है | पाणिनि ने इस कृत्रिमता का आश्रयण प्रत्याहारप्रक्रिया के निर्वाह-हेतु ही किया है | इनके वर्णसमाम्नाय में ९ अच् (स्वर) तथा ३३ हलू (व्यञ्जन) देखे जाते हैं । अनुस्वार- विसर्गजिह्घामूलीय-उपध्मानीय को वर्णसमाम्नाय में पठित न होने के कारण अयोगवाह कहा जाता है। कलाप में ये योगवाह हैं |
सन्धिप्रकरणे प्रथमः सञ्ज्ापाद :
४१
कातन्त्ररूपमालाकार भावसेन अ से ह तक ४७ वर्ण ही स्वीकार करते हैं“अकारादि हान्तं सप्तचत्वारिंशद् वर्णाः” (कात० रू० मा० १।१।१)।
परन्तु
सम्पादकीय टिप्पणी में ५३ वर्णों का परिगणन किया गया हैअ से औ तक = १४ स्वर
अस्तु, कलापव्याकरण के ४७, ४९, ५१, ५२ या ५३ वर्णो वारे पाठक्रम में अर्थकृत लाघव तथा पाणिनीय व्याकरण के ४२ वर्णो वाले पाठक्रम में शब्दकृत लाघव माना जा सकता है | यद्यपि ये दोनों ही वर्णसमाम्नाय बुधजनों द्वारा समादृत हैं, तथापि कलापीय वर्णसमाम्नाय शास्त्र तथा लोक दोनों में ही उपादेय है, जबकि पाणिनीय वर्णसमाम्नाय केवल पाणिनीय शास्त्र के लिए ही उपयोगी है। अतः उपयोगिता-बाहुल्य की दृष्टि से कलापव्याकरण के वर्णसमाम्नाय को ही प्रशस्त कहा जा सकता है |
व्याख्याकारों के अनुसार यह सूत्र सम्ज्ञासूत्र या नियमसूत्र है| कलाप के वर्णसमाम्नाय से यह स्पष्ट है कि इसमें प्रत्याहारप्रक्रिया नहीं अपनाई गई है, जिससे कहीं-कहीं सूत्रों में शब्दावली बड़ी हो गई है या एक से अधिक सूत्र बनाने पड़े हैं, परन्तु प्रत्याहारम्रक्रिया के ज्ञानार्थ प्राप्त क्लेश का अनावश्यक सामना भी नहीं करना पड़ता है |
४२
कातन्त्रव्याकरणम्
सूत्रपठित 'सिद्ध' शब्द के यद्यपि व्याख्याकार ३ अर्थ करते है- नित्य, निष्पन्न तथा प्रसिद्ध, परन्तु वर्णसमाम्नाय के सम्बन्ध में उन्हें प्रसिद्ध अर्थ ही मुख्यतः मान्य है, जबकि “सिद्धे शब्दार्थसम्बन्धे” (वा० सू० १) इस वार्त्तिक में पठित 'सिद्ध' शब्द के अर्थ महाभाष्यकार आदि नित्य-कार्य स्वीकार करते हैं (द्र०, म० भा०, पस्पशाल्लिक) | पञ्जिकाकार त्रिलोचन के अनुसार सिद्ध शब्द के उल्लिखित तीन अर्था का आधार है- व्याकरणशास्त्र का सर्वपारिषदरूप होना - 'सर्वपारिषदत्वाद् व्याकरण-
स्यार्थत्रयं घटते' | ज्ञातव्य है कि तैत्तिरीय प्रातिशाख्यकार आदि वर्णों को अनित्य मानते रहे हैं- “विनाशो लोपः” (तै० प्रा० १।५८) ।परन्तु वाजसनेविप्रातिशाख्यकार पाणिनि आदि वर्णनित्यतावादी है- ““बर्णस्यादर्शनं लोपः”? (वा० प्रा० १।१४१); “अदर्शनं लोपः”? (पा० १।१।६०) | इनके अतिरिक्त वर्णीविषयक तृतीय पक्ष रहा है- 'उनका छोकव्यवहार में प्रचलित तथा प्रसिद्ध होना।' इन्हीं तीन दृष्टियों से 'सिद्ध' शब्द के उक्त तीन अर्थ किए जाते है |
व्याख्याकारों ने “सिद्धो वर्णसमाम्नायः”- सूत्रपठित 'सिद्ध’ शब्द को ्रन्थारम्भ में मङ्गलार्थक माना है | पञ्जिकाकार के विचार से कातन्त्रसूत्रकार ने “अथ परस्मैपदानि” (३।१।१) सूत्रस्थ 'अथ' शब्द से मध्यमङ्गल तथा “आरुत्तरे च वृद्धिः” (३।८।३५) सूत्रस्थ वृद्धि’ शब्द से अन्तिम मङ्गल किया है |पाणिनीय व्याकरण में भी 'वृद्धि' शब्द से आदि मङ्गल (१।१।१), वकारागम (१।३।१) से मध्यमझ्गल तथा उदय या अकार से (८।४।६७, ६८) अन्तमङझ्गल किया
गया है। कलापचन्द्र के अनुसार विदुषी रानी-द्वारा किया गया राजा सातवाहन का उपहास ही कातन्त्रव्याकरण की रचना का प्रेरणासूत्र है और स्वामिकात्तिकेय के अनुग्रह से आचार्य शर्ववर्मा ने इसकी रचना की थी। प्रसङ्गतः व्याख्याओं में सूत्रों के ४ तथा ६ भेद, प्रत्येक सूत्र की व्याख्या के छह प्रकार, परिभाषा-नियम की व्याख्या एवं “समाम्नाय-सिद्ध-विधायि प्रभृति शब्दों की व्युत्पत्ति भी दी गई है। वर्णसमाम्नाय को अक्षरसमाम्नाय तथा वाक्समाम्नाय भी कहते हैं |ऋकूतन्त्र के अनुसार इसकी उपदेशपरम्परा इस प्रकार है- “ब्रह्मा-बृहस्पति-इन्द्र-भरद्वाजऋषिवृन्द-ब्राह्मण' | -
ऋषयो ब्राह्मणेभ्यस्तं खल्विममक्षरसमाम्नायमित्याचक्षते (ऋ० त० १।४)। पतञ्जलि के अनुसार यह वाकूसमाम्नाय शब्दज्ञान से पुष्पित तथा शब्दों के समुचित प्रयोग से फलित होता है ।अनादिकाल से सिद्ध चन्द्र-तारों केसमान सुशोभित यह ब्रह्मराशि है |इसके ज्ञान से सभी वेदों के अध्ययन का पुण्य प्राप्त होता है और ज्ञानसम्पन्न व्यक्ति के माता-पिता स्वर्गलोक में पूजनीय होते हैं“'सोऽयमक्षरसमाम्नायो वाकूसमाम्नायः पुष्पितः फलितश्चन्द्रतारकवत् प्रतिमण्डितो वेदितव्यो ब्रह्मराशिः | सर्ववेदपुण्यफलावाप्तिश्चास्य ज्ञाने भवति । मातापितरौ चास्य स्वर्गे लोके महीयेते” (म० भा०, आ० २- जन्ते) | ज्ञातव्य है कि शास्त्रकारों ने वर्णों की संख्या भिन्न-भिन्न रूप में स्वीकार की है। जैसे अहिर्बुध्यसंहिता - अ० १६ = १४ स्वर + ३४ व्यञ्जन = ४८ अहिर्बुध््यसंहिता - अ० १७ = १७ स्वर + ३४ व्यञ्जन = ५१ यजुग्रातिशाख्य- = २३ स्वर + ४२ व्यञ्जन = ६५ पाणिनीयशिक्षा - = ६३, ६४ वैदिकाभरण - = ५९ वशिष्ठशिक्षा = ६८
नन्दिकेश्वर ने २७ कारिकाओं में ४२ वर्णो का क्रम तथा उनके अर्थ पर विशेष विचार किया है। वर्णो के उच्चारणस्थान, प्रयल तथा करणों का विचार शिक्षाग्रन्थों में उपलब्ध होता है ।।१।
२. तत्र चतुर्दशादौ स्वराः (१।१।२) [सूत्रार्थ] वर्णसमाम्नाय के ५२ वर्णां में प्रारम्भिक १४ वर्णो की स्वरसञ्ज्ञा होती है ।।२।
[समीक्षा] १. स्वरसंज्ञाविधायक यह सञ्ज्ञासूत्र है । इसके अनुसार वर्णसमाम्नाय के प्रारम्भिक १४ वर्णों की स्वरसंज्ञा कलापव्याकरण में होती है- 'अ आ, इई, उ ऊ, ऋ करू, ढ़ हद, एऐ ओ औ'। 'स्वर' शब्द का अर्थ है- जो स्वयं उच्चरित या प्रकाशित होता है, जिसके उच्चारण में दूसरे की अपेक्षा नहीं होती- स्वयं राजन्ते इति स्वराः, एकाकिनोऽप्यर्थप्रतिपादने समर्थाः ।' (१।१।१९)। लोक में इन वर्णो के लिए “स्वर” संज्ञा का व्यवहार होता है । इस प्रकार कलापव्याकरण की यह संज्ञा अन्वर्थ है। पाणिनि ने इसके लिए 'अच्' संज्ञा का व्यवहार किया है और उनकी 'अच्' संज्ञा में केवल ९ ही वर्ण पढ़े गए हैं- 'अ इ उ ऋळू ए ओ ऐ औ'। दीर्घ
का बोध सवर्णसंज्ञा के बल पर होता है। पाणिनि की यह 'अच्” संज्ञा उनकी यादूच्छिकी प्रवृत्ति की द्योतक है। यह संज्ञा किसी भी प्रकार अन्वर्थ नहीं कही जा सकती है। कलापव्याकरण में ळू-वर्ण को दीर्घ भी माना गया है, जबकि पाणिनीय व्याकरण में यह दीर्घ नहीं है। २. इन वर्णों के लिए अक्षर तथा वर्ण संज्ञा का भी व्यवहार किया जाता है । ऋकूप्रातिशाख्य
३. दूसरों की अपेक्षा न रखने वाले सामर्थ्यसम्पन्न पुरुष भी स्वर कहे जाते हैं, परन्तु जो सामर्थ्यहीन होने के कारण दूसरों के साहाय्य की अपेक्षा रखते है, वे व्यञ्जनवत् आचरण करने के कारण व्यञ्जन कहे जाते हैंएकाकिनोऽपि राजन्ते सत्त्वसाराः स्वरा इव।
व्यञ्जनानीव
निःसत्त्वाः
परेषामनुयायिनः॥ (द्र०- रे० ट० दे०, पृ० १८६)
४. इस संज्ञा के प्रदेश (प्रयोगसूत्र) हैं“स्वरोऽवर्णवर्जो नामी” (१।१।७) आदि | प्रदेश = जिसमें प्रयोजन कहे जाते हैं- “प्रदिश्यन्ते कथ्यन्ते प्रयोजनानि यत्र स प्रदेशः” । ५. स्वर के इस्व-दीर्घ-'ुत-उदात्त-अनुदात्त-स्वरित-अनुनासिक-निरनुनासिक
भेद से १८ भेद माने जाते हैं। सन्ध्यक्षर वर्णों (ए, ऐ, ओ, औं) का हस्व भेद नहीं होता, अतः उनमें से प्रत्येक के १२ भेद होते है- अ = १८; इ = १८; क्र = १८; फू = १८; ए = १२; ऐ = १२; ओ = १२; औ = १२।
६. स्वरों का दीर्घ, गुण, वृद्धि, अयादि सन्धियों में विशेष उपयोग होता है | पाँच सन्धियों में स्वरसन्धि का विशेष महत्त्व हैस्वरसन्धि्व्यञ्जनसन्धिः
प्रकृतिसन्धिस्तयैव च।
अनुस्वारो विसर्गश्च सन्धिः स्यात् पञ्चलक्षणः॥ ७. कातन्त्रव्याकरण में स्वरसंज्ञक १४ वर्णो में से 'ए, ऐ, ओ, औ' इन चार वर्णो को छोड़कर शेष १० वर्णो की समानसंज्ञा, समानसंज्ञक १० वर्णो में
से २-२ वर्णो की सवर्णसंज्ञा, सवर्णसंज्ञक वर्णो में से पूर्ववर्ती वर्णों की हस्व, उत्तरवर्ती वर्णों की दीर्घ, स्वरसंज्ञक १४ वर्णों में से अ-आ को छोड़कर शेष १२ वर्णों की नामी तथा 'ए-ऐ-ओ-औ” इन ४ वर्णो की सन्ध्यक्षरसंज्ञा की गई है |
पाणिनि ने सवर्ण को छोड़कर अचों की अन्य कोई संज्ञा नहीं की है।
८. वैदिक शब्दों में जो उदात्त, अनुदात्त, स्वरित की योजना की गई है, उन्हें स्वर इसीलिए कहते हैं कि उनकी प्रवृत्ति स्वरसंज्ञक वर्णो में ही होती है, कूखू आदि व्यञ्जनों में नहीं ।।२।
कातन्त्रव्याकरणमू
५२
३. दश समानाः (१।१।३)
[सूत्रार्थ] वर्णसमाम्नाय के अन्तर्गत जिन प्रारम्भिक १४ वर्णो की स्वरसंज्ञा की गई है, उनमें प्राथमिक १० वर्णों की समानसंज्ञा होती है।।३।
येषामिति समूहसम्बन्धे षष्ठी, स च समूहः सवर्णद्वयात्मकः। तथा च द्वादशसमुदायान्तरापेक्षया येषां सवर्णसमुदायेऽष्टादशत्वसंख्या तुल्या तेषां समानत्वमिति (द्विरुक्तवादिनः उभयमेव ) विवक्षितम्, तथा चाष्टादशभेदभिन्नसवर्णसमुदायान्त-
निविष्टतया सर्वे समाना इति न दोषः।।३। [समीक्षा] समान परिमाणवाले १० वर्णो की यह समानसंज्ञा अन्वर्थ है ।क्रग्वेदप्रातिशाख्य मेंइसी अर्थ मेंआठ वर्णों की समानाक्षर संज्ञा की गई है- “अष्टौ समानाक्षराण्यादितः” (१।१)। इसमें ठृवर्ण को छोड़ दिया गया है। तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में ९ वर्णो, की समानाक्षर संज्ञा की गई है- “अथ नवादित: समानाक्षराणि” (१३) । यहाँ
५४
कातन्त्रव्याकरणम्
हस्व-दीर्घ-प्लुतसंज्ञक 'अ-इ-उ' ये तीन वर्ण ही अभिप्रेत हैं । ऋकूतन्त्र (१।२) तथा नाट्यशास्त्र (१४।२०) में उन्हीं १० वर्णो की समानसंज्ञा निर्दिष्ट है, जिनकी कलापव्याकरण में व्याख्यात है । समान परिमाण का तात्य है- उदात्त-अनुदात्तसमाहार (स्वरित) - सानुनासिक - निरनुनासिक भेदों से जो वर्ण ६ प्रकार के मान्य हैं । कलापव्याकरण के वर्णसमाम्नाय में अ आ, इई, उ ऊ, ऋ ऋ, ळू तथा
ळू ये १० वर्ण ऐसे हैं, जिनमें से प्रत्येक के ६-६
भेद ही होते हैं। पाणिनीय
व्याकरण में इन वर्णों के बोधार्थ 'अकू' प्रत्याहार का व्यवहार होता है, जो सर्वथा
कृत्रिम है । ३।
४. तेषां दौ द्वावन्योऽन्यस्य सवर्णो (१।१।४) [सूत्रार्थ] समानसंज्ञक १० वर्णो में से प्रति दो-दो वर्णो की परस्पर सवर्णसंज्ञा होती है ॥४| [दु० चु०]
इति चेदहो रे पाण्डित्यम् | यस्मादुभयस्मिन् विधीयमानं सवर्णत्वं द्वयोरेव प्रवर्तते,
दौ- ठौ-ग्रहणं च विद्यत एव तथापि द्विवचनानुपपत्तेः प्रति भावना इति। यत्तु ‘अग्नीषोमौ देवता’ इत्यत्रैकवचनं तत् पुनर्बहुष्वेकवाक्यप्रतिपादनार्थम् । तेन अग्नीषोमाभ्यामाहुतिरेकेति ज्ञायते न तु पृथगिति || ४।
[समीक्षा]
कलाप और पाणिनीय दोनों ही व्याकरणों में सवर्ण संज्ञा की गई है, परन्तु कलापव्याकरण में समानसंज्ञक १० वर्णो में से २-२ वर्णो की सवर्ण संज्ञा की गई है । वर्णसमाम्नाय के क्रम से हस्व की दीर्घ वर्ण के साथ तो सवर्ण संज्ञा होती ही है, इसके अतिरिक्त हस्व की हस्व के साथ, दीर्घ की दीर्घ के साथ तथा दीर्घ की हस्व के भी साथ सवर्णसंज्ञा सम्पन्न होती हैहस्वे हस्वे ततो दीर्घे दीर्घे हस्वे परस्परम्।
सवर्णत्वं विजानीयात् तेषां-ग्रहणहेतुना ॥
यह कार्य सूत्रपठित 'तेषाम्' पद से ज्ञापित किया गया है। पाणिनीय व्याकरण में सवर्णसंज्ञा करने वाला सूत्र है- “'तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम्” (१।१।९) | अर्थात् ताल्वादि स्थान तथा आभ्यन्तर प्रयल जिन वर्णो के तुल्य होते हैं, उनकी सवर्णसंज्ञा होती है । इसके अनुसार सवर्णसंज्ञा के ज्ञान के लिए स्थान-प्रयलों का जानना नितान्त आवश्यक है | केवल तुल्य स्थान वाले या केवल तुल्य प्रयत्न वाले वर्णो की सवर्ण संज्ञा नहीं होती | सवर्ण का अर्थ है सदृश । अतः सदृश = तुल्य स्थान - प्रयत्न वाले वर्णो की की गई यह संज्ञा अन्वर्थ मानी जाती है | जैसा कि तैत्तिरीयप्रातिशाख्य के त्रिभाष्यरल नामक भाष्य में कहा गया है- “इयमन्वर्थसंज्ञा | सवर्णत्वं नाम सादृश्यमुच्यते”” (१।३)। ऋकूप्रातिशाख्य आदि ग्रन्थों में भी यह संज्ञा की गई है। यथा कऋकूप्रातिशाख्य - “स्थानप्रश्छेषोपदेशे स्वराणां हृस्वादेशे हस्वदीर्घौ सवर्णौ” (१।५५)। तैत्तिरीयप्रातिशाख्य - “द्वे द्वे सवर्णे हस्वदीर्घे” (१।३) । वाजसनेयिप्रातिशाख्य- “'समानस्थानकरणास्यप्रयलः सवर्णः” (१।४३)। जैनेनद्रव्याकरण - “सस्थानक्रियं स्वम्” (१।१।२)। शाकटायनव्याकरण - “स्वः स्थानास्यैक्ये'” (१।१।६)।
[समीक्षा] कोई भी स्वर न्यूनतः एकमात्रिक अवश्य होता है । इसी एकमात्रिक स्वर वर्ण की हस्व संज्ञा की गई है | हसति = अल्पीभवति दीघधिपेक्षया इति हस्वः। अतः इसे अन्वर्थ माना जाता है । कलापव्याकरण में उसके वर्णसमाम्नाय के अनुसार सवर्णसंज्ञक दो-दो वर्णो (अ-आ, इ-ई, उ-ऊ, ऋ क्र, ळु-ळू) में से पूर्व वर्ण (अ, इ, उ, ऋ, छू) की हस्वसंज्ञा की गई है, जब कि पाणिनि का सूत्र है “ऊकालो5ज्झस्वदीर्घप्छुत:” (पा० १।२ 1२७) | अर्थात् एकमात्रिक वर्ण की हृस्वसंज्ञा होती है । इसके अनुसार शिक्षाशास्त्रीय वर्णोच्यारणसंबन्धी नियम जानने के बाद ही इस संज्ञा का ज्ञान हो सकता है | पूर्वाचार्यों ने भी इस संज्ञा का प्रयोग किया है | यथानिरुक्त- अहिरयनादेत्यन्तरिक्षे। अयमपीतरोऽहिरेतस्मादेव निर्हसितोपसर्ग आहन्तीति (२।१७।१)। अयं हन्तेनिर्हसितोपसर्ग आहन्तीति (६।११।3) | नि० भा०- “आइपूर्वस्य हन्तेः स पुनरयमुपसर्गं॑ निर्हस्य हस्वं कृत्वा अहिरुच्यते (२।१७।१)।
(२।४।१०) | इसके दो सूत्रों में हस्व के लिए एकदेश “स्व” शब्द का भी प्रयोग किया गया है- “स्पर्श; स्वे, भे स्वे मान्तस्थी” (२।३।५; ४।१।१०)। नाट्यशास्त्र- य इमे स्वराश्चतुर्दश निर्दिष्टास्तत्र वै दश समानाः | पूर्वो हस्वस्तेषां परश्च दीर्घो विधातव्यः; एकमात्र भवेद् हस्वम् (१४।२०; १६1१२३) |
सन्धिप्रकरणे प्रथमः सञ्जापादः
६३
कलाप से परवर्ती अधिकांश व्याकरणों में एकमात्रिक अच् की हस्व संज्ञा मानी गई है । जैसे, चान्द्रव्याकरण - अत्र चावर्णो हृस्वो दीर्घः प्छुत इति त्रिधा भिन्नः, एकमात्रिको हस्वः (वर्णसूत्र ३६; ४१) । जैनेन्द्रव्याकरण - आकालोऽच् प्रदीपः (१।१।१)। हेमशब्दानुशासन - एकद्वित्रिमात्रा हस्वदीर्घप्छुताः (१।१।५) | मुग्धबोधव्याकरण - आवत् स्वर्घप्डु (सू० ५) | इसमें एकदेश 'स्व' शब्द का ही व्यवहार किया गया है |
[विशेष] लोकव्यवहार में ऐसा देखा जाता है कि सज्जन पुरुषों का स्नेह प्रारम्भ में तो अल्प होता है तथा क्रमशः दीर्घ होता जाता है । इसके विपरीत असज्जन (दुष्ट) पुरुषों का स्नेह प्रारम्भ में तो अधिक होता है, परन्तु वह क्रमशः क्षीण (हस्व)
होता जाता है किसी कवि ने कलापव्याकरण के इन हस्व-दीर्घसंज्ञाविधायक सूत्रों को आधार मानकर ऐसा कहा भी हैपूर्वो हस्वः परो दीर्धः सतां स्नेहो निरन्तरम्। असतां विपरीतस्तु
हुण्डा' इत्यादौ “गुरोश्च निष्ठासेटः?? (४।५।८१) इति अप्रत्ययः ।। ६। [समीक्षा] दोनों ही व्याकरणों में यह संज्ञा की गई है। पाणिनि ने द्विमात्रिक अच् की तथा शर्ववर्मा ने सवर्णसंज्ञक दो-दो वर्णो में से परवर्ती वर्णो की दीर्घसंज्ञा की है | पाणिनि की दीर्घसंज्ञा ऊकालोऽज्झस्वदीर्घप्लुतः (१।२।२७) का बोध तभी हो सकता है जब शिक्षाग्रन्थों के अनुसार वर्णोच्चारणविधि का सम्यकू ज्ञान हो,
परन्तु कलाप-व्याकरण में ऐसी असुविधा नहीं है। 'द्राघू आयामे” (भू० ८०, ८१) धातु से निष्पन्न होने के कारण दीर्घसंज्ञा अन्वर्थ है | महर्षि यास्क ने भी कहा है- «दीर्घ द्राघतेः'? (नि० २।५) । पूर्वाचार्यो द्वारा प्रयुक्त होने के कारण यह संज्ञा प्राचीन है। जैसे, ऋक्प्रातिशाख्य - “अन्ये दीर्घाः” (१।१८)। बाजसनेयिप्रातिशाख्य - “'द्विस्तावान् दीर्घः” (१।५७)। तैत्तिरीयप्रातिशाख्य - “द्विस्तावान् दीर्घः” (१।३५)। अथर्ववेदप्रातिशाख्य- उपसर्गस्योत्तरपदे दीर्घः, अभ्यासस्य दीर्घश्छन्दसि”” (३।३।११,१३)। ऋकृतन्त्र - “द्वे दीर्घम्” (२।५।३) | इसके अनेक सूत्रों में एकदेश 'घ' का ही प्रयोग किय़ा गया है““घम्, रौ घम्, घाद् ग्रा, घे णः” (२।५।१०, ३।४।३; ६।३; ४।१।८)। काशकृत्स्नधातुव्याख्यान - “गुहो दीर्घः, यनि दीर्घश्च, शमादेदीर्घो यनि, नथादेरिनि दीर्घः” (सू ६४, ८४, ८७, १२०) |
कलाप के अतिरिक्त कुछ अन्य अर्वाचीन व्याकरणों में दीर्घ-संज्ञाविधायक सूत्र इस प्रकार हैंचान्रव्याकरण - अत्र चावर्णो हस्वो दीर्घः प्लुत इति त्रिधा भिन्नः; द्विमात्रिको दीर्घः” (वर्णसूत्र ३६, ४२) | जैनेन्दव्याकरण- आकालोऽच् प्रदीप: (१।१।१)। हेमचन्द्रशब्दानुशासन - “एकदित्रिमात्रा हस्वदीर्घप्छुताः” (१।१।५)।
मुग्धबोधव्याकरण - “आवत् स्वर्घप्लु (सूत्र ५) । उक्त के अनुसार देवनन्दी ने इसके लिए एकदेश “दी” का तथा बोपदेव ने घ’ का प्रयोग किया है ।
[विशेष] वृत्तिकार दुर्गसिंह ने हस्व को छघुसंज्ञा तथा दीर्घ की गुरु संज्ञा उच्चारण के आधार पर मानी है और इस प्रकार उन्होने शर्ववर्मा-द्वारा लघु-गुरु संज्ञाओं के लिए सूत्र न बनाया जाना उचित ठहराया है । संयोग-संज्ञक वर्ण के पर में रहने पर पूर्ववर्ती हस्व के भी उच्चारण में प्रायः द्विमात्रिक काळ अपेक्षित होता
है, अतः तादृश हस्व की भी संयोग संज्ञा स्वीकार की जा सकती है।तदर्थ पृथक् सूत्र की कोई आवश्यकता नहीं है । पाणिनीय व्याकरण में इन संज्ञाओं के लिए सूत्र पढ़े गए है- “हस्बं लघु, संयोगे गुरु, दीर्घ च” (१।४।१०, ११, १२) ।६।
७. स्वरोऽवर्णवर्जो नामी (१।५!७) [सूत्रार्थ] स्वरसंज्ञक १४ वर्णो में से अवर्ण (अ-आ) को छोड़कर शेष १२ स्वरों की नामी संज्ञा होती है | नामिसंज्ञक वर्ण- इई उ ऊ ऋ ऋ ढृ ळू ए ऐ ओ औ ॥ ७।
[समीक्षा] टीकाकार -- पञ्जिकाकार आदि व्याख्याकारों के अनुसार नामी का अर्थ है वे वर्ण (हस्व-दीर्घ), जिनके उच्चारण में ध्वनि का स्पर्श ऊपर की ओर न होता हो | ऐसा देखा जाता है कि अवर्ण के उच्चारण में तो ध्वनि का स्पर्श ऊपर की ओर होता है, परन्तु इ से लेकर औ तक के स्वर वर्णों की उच्चारणध्वनि नीचे की ओर ही होती है |इसीलिए अवर्ण को छोड़कर नामी संज्ञा की गई है |पाणिनि ने इसके लिए 'इचू प्रत्याहार का प्रयोग किया है | 'नमनमिति नामः सोऽस्यास्तीति नामी? इस व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ का इकारादि संज्ञियों में अन्वय होने केकारण यह
संज्ञा अन्वर्थ हैजबकि उक्त वर्णी केलिए पाणिनिद्वारा किया गया “इच्' प्रत्याहार का प्रयोग विशुद्ध यादृच्छिक ही है।
७०
कातन्त्रव्याकरणमू
काशकृत्स्नव्याकरण में इसका व्यवहार दृष्ट होने से इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है- “नामिनो गुणः सार्वधातुकार्धधातुकयो:, स्थूलदूरयुवहस्वक्षिप्रशुद्राणामन्त्यस्वरादेर्लोपो गुणश्च नामिनाम् (काश० धा० व्या०, सू० २२, १३६) | युधिष्ठिर मीमांसक ने प्रमादवश ८ ही स्वरों की नामिसंज्ञा का उल्लेख किया है (०, काश० धा० व्या०, पृ० ४४, टि० २) ॥।७।
८. एकारादीनि सन्ध्यक्षराणि (१।१।८)
[सूत्रार्थ स्वरसंज्ञक वर्णों मेंसे 'ए ऐ ओ औ' इन चार वर्णों की सन्ध्यक्षर संज्ञा होती है ।।८।
ननु तथा हि- इकारोकारयोर्ळुप्तत्वात् कथं परत्वमिति चेत्, न। सन्धी परत्वदृष्टत्वादिदानीमपि तथोच्यत इति न दोषः। न च “परनिमित्तादेशः पूर्वस्मिन् स एव’ (कलापव्या०, पृ० २२१) इति न्यायाद् एकारे ऐत्वं भविष्यतीति वाच्यम्, यतोऽनया परिभाषया व्यपदेशान्तरमेवारोप्य तेन तद्वर्णत्वम्, अत्र तु “यन्योकारस्य”' (३।६।३६) इत्यत्र नकारकरणमेव ज्ञापकं वर्णयिष्यामः । बस्तुतस्तु अमीषामुच्चारणदशायां पूर्वभागोऽकारः परश्च भाग इकार इति सूक्ष्मतया उच्चरति स्वभावादित्यर्थः | तथा चैकस्य स्थानद्वयं निबद्धम् |ए ऐ कण्ठ्यतालव्यौ, ओ औ कण्ठ्योष्ख्याविति दिक् ।।८।
[समीक्षा] सन्धौ यानि अक्षराणि तानि सन्ध्यक्षराणि । स्वर वर्णो की अक्षर संज्ञा भी पूर्वाचार्या ने की है | उनमें से पूर्ववर्ती अकार की इकार से सन्धि होने पर एकारऐकार, तथा उकार से सन्धि होने पर ओकार-औकार वर्ण निष्पन्न होते हैं। इस प्रकार दो स्वरवर्णो की सन्धि होने से निष्मन्न वर्णो की यह सन्ध्यक्षर संज्ञा अन्वर्थ है |अ+इ (गुण) = ए, अ+इ (वृद्धि) = ऐ, अ+उ = (गुण) = ओ, अ+उ
(वृद्धि) = औ। यहाँ 'अ' आदि से अवर्णादि अभिप्रेत है। पूर्वाचार्यो द्वारा प्रयुक्त होने के कारण यह संज्ञा प्राचीन भी है। जैसे ऋग्बेदप्रातिशाख्य में- ततश्चत्वारि सन्ध्यक्षराणि उत्तराणि” (१।२)। १. सन्ध्यानि सभ्ध्यक्षराण्याहुरेके द्विस्थानतैतेषु तथोभयेषु (ऋ० प्रा० १३।३८) | सन्ध्यक्षराणीत्यन्वर्था पूर्वाचार्यसंज्ञा, सन्धीयमानावयवत्वात् (म० भा० प्र० - द्विश आ०, पृ० ८०) |
[समीक्षा] कू से लेकर ह तक के वर्णो की व्यञ्जनसंज्ञा कलाप में तथा हळू” संज्ञा पाणिनीय व्याकरण में की गई है। स्वरवर्णो का अर्थ निश्चय करने में उपकारक होने के कारण, स्वरों का अनुसरण करने के कारण अथवा स्वरप्रतिपाद्य अर्थो को द्योतित करने के कारण इन वर्णो को व्यञ्जन कहते है । व्यज्यन्ते एभिरिति व्यञ्जनानि। इस प्रकार कलापव्याकरण की यह संज्ञा अन्वर्थ है और पाणिनि की सर्वथा कृत्रिम ।
सन्धिप्रकरणे प्रथमः सञ्ज्ञापादः
७७
कलाप के कुछ व्याख्याकार 'क्ष' को भी स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार संयोगसंज्ञक व्यञ्जनों के मिलने से निष्पन्न होने वाले वर्णो के निदर्शनार्थ 'क्ष' को मानना आवश्यक है। ज्ञातव्य है कि कू-ष् के संयोग से क्ष्, तर् के संयोग से त्र तथा जू-ञ् के संयोग से ज्ञ वर्ण निष्पन्न होता है। भगवत्पाद शङ्कराचार्य ने अन्नपूर्णास्तोत्र में अ से लेकर क्ष् तक वर्णो को स्वीकार किया है“‹ आदिक्षान्तसमस्तवर्णनकरी शम्भोरित्रभावाकरी” (अन्मपूर्णा०, श्लो० ८) | पूर्वाचार्यो द्वारा भी यह संज्ञा प्रयुक्त है। जैसे ऋकृप्रातिशाख्य- “सर्व: शेषो व्यञ्जनान्येव” (१।६) । (व्यञ्जयन्ति प्रकटान् कुर्वन्त्यर्धानिति व्यञ्जनानि- उ० भा० १॥६) |
गोपथब्राह्मण - अ-उ इत्यर्धचतस्रो मात्रा मकारे व्यञ्जनमाहुर्या सा प्रथमा मात्रा ब्रह्मदेवत्या रक्ता वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेद् ब्राह्म्यं पदम् (१।१।२५)। नाट्यशास्त्र - हकारान्तानि कादीनि व्यञ्जनानि विदुर्बुधाः (१४।८) |स्वरों को सत्त्वसम्पन्न (समर्थ) तथा व्यञ्जनों को दुर्बल माना जाता है। व्यञ्जनों की
दुर्बलता इसलिए सिद्ध है कि इनका उच्चारण भी विना स्वरों को सहायता के नहीं होता | इस विषय में कुछ प्रसिद्ध वचन इस प्रकार हैं“अन्वर्थं खल्वपि निर्वचनं स्वयं राजन्ते इति स्वराः, अन्वग् भवति व्यञ्जनम्” (म० भा० १।२।२९-३०)।
[सूत्रार्थ] कू से लेकर म् तक के २५ वर्णो में से क्रमशः पाँच-पाँच वर्णो की वर्गसंज्ञा होती है और ये वर्ग संख्या में पाँच ही होते हैं। जैसे- १. कवर्ग, २. चवर्ग, ३. टवर्ग, ४. तवर्ग तथा ५. पवर्ग ॥१०।
[समीक्षा] कातन्त्रकार के अनुसार क ख ग घ ङ" वर्णो की कवर्ग, 'च छ जझ ज'कीचवर्ग,'टठड़ढ़ण' कीटवर्ग,'तथदधन'की तवर्ग तथा 'प फ ब भ म' की पवर्ग संज्ञा होती है । पाणिनि ने इन पाँचौं वर्गो का व्यवहार “ अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः”? (१।१।६९) सूत्रस्थ ‘उदित् पद से किया है |तदनुसार “कु' से कवर्ग, 'चु' से चवर्ग, 'टु' से टवर्ग, 'तु' से तवर्ग तथा 'पु' से “पवर्ग” का ग्रहण होता है । पाणिनि का यह व्यवहार सर्वथा कृत्रिम ही कहा जा सकता है, क्योंकि लोकव्यवहार की दृष्टि से यह अपरिचित ही है | ूर्वाचार्यो द्वारा भी वर्ग संज्ञा का प्रयोग किया गया है | जैसे ऋक्प्रातिशाख्य - “पञ्च ते पञ्च वर्गाः” (१।८) |
ैत्तिरीयप्रातिशाख्य - “'स्पर्शानामानुपूर्व्येण पञ्च पञ्च वर्गाः” (१।१०)। बाजसनेविप्रातिशाख्य में यह भी कहा गया है कि वर्ग में ५-५ वर्णो में से प्रथम वर्ण से वर्ग का बोध होता है, अन्य वर्णो से नहीं। जैसे-'क खग घ इ” इन पाँच वर्णो का बोध 'क' के ही साथ वर्ग लगाने से होता है, ख-ग-घङ में से किसी वर्ण के साथ वर्ग शब्द का व्यवहार नहीं होता है- “'प्रथमग्रहणे वर्गम्”? (१।६४) |
ऋक्तन्त्र में वर्ग के लिए उसके एकदेश र्ग का प्रयोग हुआ है“स्पर्शे गस्य” (२।२।३) | काशकृत्स्नधातुव्याख्यान - सतवर्गयोः शचवर्गयोगे, षटवर्गयोगे षटवर्गौ, हस्वपूर्वयोर्हकारचवर्गयोः कवर्गः, कवर्गहकारयोश्चवर्गः” (सू० १९, २०, ७२, ७६) |
जिनके उच्चारण में अल्प ध्वनि होती है, उन्हें अघोष कहते हैं- “न विद्यते घोषो ध्वनिर्येषां ते अघोषाः। ईषदर्थेऽत्र नञ्” । कलापव्याकरण में अनुशासनसूत्र द्वारा इसे स्वीकार किया गया है, जब कि पाणिनीय व्याकरण में शिक्षा के अनुसार | शिक्षाग्रन्थों में बाह्य प्रयत्न के ११ भेदों में से एक अघोष भी बताया गया है । जिन वर्णों की अघोषसंज्ञा कलापव्याकरण में कही गई है, पाणिनि ने उनके लिए 'खर्' प्रत्याहार का प्रयोग किया है । अघोष- संज्ञक वर्ण १३हैं-'कखचछटठतथपफशषस'’। शिक्षाग्रन्थों में प्रयुक्त होने से उक्त १३ वर्णो की यह अघोष संज्ञा प्राचीन है तथा श्वास - उच्छ्वास मात्र के सुनाई पड़ने से किं च नाद - ईषन्नाद के सुनाई न पड़ने से (उच्चारण में वायु के अल्प होने के कारण) यह अन्वर्थ भी है-
“त्रयोदशाघोषास्ते
क-च-ट-त-पाः , ख-छ-ठ-थ-फाः,
शषसाश्चेति’”
(या० शि० ५।९३)। १. पाणिनीयसम्प्रदाये नञर्थाः षडू एवं पठ्यन्ते तत्सादृश्यमभावश्च
१२. घोषवन्तोऽन्ये (१।१।१२) [सूत्रार्थ] अघोषसंज्ञक वर्णो से अतिरिक्त २० व्यञ्जनों की घोषवान् संज्ञा होती है।जैसे-ग घङ,ज झज, डढ ण, द ध न, ब भम, य र ल व, ह ॥१२। [दु० १०]
[समीक्षा] “वर्गीय तृतीय - चतुर्थ - पञ्चम, य र ल व ह’ इन २० वर्णो की कलापकार ने घोष संज्ञा की है | जिन वर्णो के उच्चारण में वायु की अधिकता से नादईषन्नाद दोनों ही सुनाई पड़ते हैं, अर्थात् घोष = ध्वनि वाले वर्णो को घोषवान् कहते हैं । इस प्रकार यह संज्ञा अन्वर्थ है । इसी अर्थ में शिक्षा-ग्रन्थों में इसका प्रयोग हुआ है“'विंशतिर्धोषास्ते गजडदबाः, घझढधभाः, झञणनमाः, यरलूवाः, हकारश्चेति | (या० शि०, ५।९३)। (येषां वर्णानामुच्चारणे वायोराधिक्याद् नादेषन्नादौ श्रूयेते ते गजडदबादयो विंशतिसंख्याका घोषा भवन्तीति शेषः- शिक्षावल्लीविवृतिः)।
पाणिनि ने इन २० वर्णो के बोधार्थ 'हश्' प्रत्याहार का प्रयोग किया है, जो यादृच्छिक या कृत्रिम है ||१२।
१३. अनुनासिका इ-अ-ण-न-माः (१।१।१३) सूत्रार्थ] वर्गीय पञ्चम वर्ण, अर्थात् 'ङ-ज-ण-न-म' इन ५ वर्णो की अनुनासिक
[समीक्षा] 'अनुनासिक” शब्द के अनेक अर्थ किए गए हैं। जैसे- जिन वर्णो के उच्चारण में नासिका के साथ बाद में संयोग होता है, उनकी अनुनासिक संज्ञा होती है। मुख के साथ नासिका से अथवा मुख और नासिका से उच्चरित होने वाले वर्ण अनुनासिक कहे जाते हैं। कलापकार ने केवल वर्गीय पञ्चम वर्णो की ही यह संज्ञा मानी है जब कि पाणिनि के अनुसार (मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः १।१।८) यह संज्ञा वर्गीय पञ्चम वर्णो के अतिरिक्त उन सभी अज्चर्णों की भी होती है, जिनके उच्चारण में नासिका का भी संयोग होता है| 'अनु' ग्रहण से केवल नासिकास्थान वाले अनुस्वार की अनुनासिक संज्ञा नहीं होती है। पूर्वाचार्यो ने भी इस संज्ञा का प्रयोग किया है । जैसे ऋग्वेदप्रातिशाख्य - '“अनुनासिकोऽन्त्मः”
(१।१४)
। “'अष्टावाद्यान-
वसानेऽभ्रगृह्यानाचार्या आहुरनुनासिकान् स्वरान्” (१।६३)। उव्वर ने अपने भाष्य में अनुनासिक को अन्वर्थ बताते हुए उसे दो स्थानों वाला कहा है- इयमन्वर्था संज्ञा । नासिकामनु यो वर्णो निष्पद्यते स्वकीयस्थानमुपादाय स द्विस्थानोऽनुनासिक इत्युच्यते” (१।१४)। ैत्तिरीयप्रातिशाख्य - “अनुस्वारोत्तमा अनुनासिकाः” (२।३०)। बाजसनेयिप्रातिशाख्य - मुखनासिकाकरणोऽनुनासिकः” (१।७५) । ऋक्तन्त्र- “हुमित्यनुनासिकः, अन्त्योऽनुनासिकः, साक्षरं पदान्तोऽवसितः “(१।२;२।२।७, ८)। काशकृत्स्नधातुव्याख्यान ~ “अनुनासिको5नुषङ्ग:” (सूत्र ७) |यहाँ “अनुषङ्ग शब्द से वर्गीय पञ्चम वर्णो का ग्रहण होता है। अर्वाचीन व्याकरणों में भी इसे स्वीकार किया गया है । आचार्य देवनन्दी
ने 'इ* वर्ण को नासिक्य कहा है- “नासिक्यो ङः” (जै० १।१।७)। अग्निपुराण - “उपदेश इद्धळन्त्यं भवेदजनुनासिकः” (३४८।२) |
८८
कातन्त्रव्याकरण
नारदपुराण - “'पाठोऽनुनासिकानां च पारायणमिहोच्यते”
(५३।८५) ।।१३।
१४, अन्तस्था य-र-ल-वाः (१।१।१४) [सूत्रार्थ| 'य-र-ल-व' इन चार वर्णो की अन्तस्था संज्ञा होती है ।।१४। [दु० वृ०]
[समीक्षा] 'अन्तस्था' शब्द के २ अर्थ किए जाते हैं- १. मध्य में स्थित |तदनुसार वर्णसमाम्नाय में स्पर्शसंज्ञक (क से म तक) तथा ऊष्मसंज्ञक (श ष स ह) वर्णो के मध्य में पठित होने के कारण 'य-र-छ-व' की 'अन्तःस्था' संज्ञा होती है |
सन्धिप्रकरणे प्रथमः सञ्ज्ञापादः
८९
२. अपने अपने स्थानों के अन्त में स्थित । तदनुसार ताल्वादि स्थानो के अन्त में स्थित होने के कारण उक्त ४ वर्णो को अन्तस्था कहते है । पाणिनि ने इन वर्णो का बोध “यण्' प्रत्याहार से कराया है। शर्ववर्मा की अन्तस्था संज्ञा अन्वर्थं है और पाणिनि का यण् प्रत्याहार कृत्रिम | ूर्वाचार्यो द्वारा भी इसका व्यवहार किया गया है | यथा - शतपथब्राह्मण में प्राणों के मध्य में स्थित वाणी को अन्तःस्था वाणी कहा गया है- “प्राणानां मध्ये या तिष्ठति सैवान्तःस्था वागुच्यते” इति । (१।४।३।८)। ऋक्प्रातिशाख्य “चतस्रो5न्तस्थास्ततः” (१।९)। भाष्यकार उव्वट ने इसकी अन्वर्था दिखाते हुए कहा है- ““स्पर्शोष्मणामन्तर्मध्ये तिष्ठन्तीत्यन्तस्थाः'? (१।९) ।।१४।
ऋक्तन्त्र = “यिति रिति लिति विति अन्तस्थाः* (१।२) | ऋकूतन्त्रकार ने एकदेश 'स्था' शब्द का भी व्यवहार किया है- “रातू स्था जरे, रणमपि स्थायाम्”” (४।३।९,११) | नाट्यशास्त्र - “यरलववणस्तिथैव चान्तस्था:”
(१४।१९) |
१५, ऊष्माणः श-ष-स-हाः (१।१।१५) [सूत्रार्थ] व्यञ्जनसंज्ञक 'श-ष-स-ह' इन चार वर्णों की ऊष्म संज्ञा होती है॥१५।
[क० च०] ऊष्माणः। उष दाहे इत्यस्य निपात:। वररुचिना त्विदं सूत्रं न पठितम्, निष्फळत्वात् । ननु ऊष्मसंज्ञापि विपरीतनिर्देशात् कथं संज्ञापिका न भवति, नैवं ज्ञाप्येतिशब्दयोरभावात् । ननु ऊष्मसंज्ञामपनयन्ती शर्ववर्मसामर्ध्यं प्रतिपादयन्ती शिट्संज्ञा कथं न क्रियते ? ऊष्मसंज्ञैव व्यवहियतामिति चेत्, न । आचार्यसामर्थ्यप्रकाशनार्थमवश्यं शिट्संज्ञाया वक्ष्यमाणत्वात्, तर्हि एतदर्थमेव आचार्येण सर्वा एव छघुसंज्ञाः कथन्न कृता इत्याशङ्क्याह - एतदिहाकूतमिति ।अयमभिप्राय इत्यर्थः | ऊष्मधर्मयोगादिति उच्चारणे यो मुखं तपति स एव ऊष्मधर्म इति । अन्वर्था इत्यादि । उच्चारणादेवार्थः प्रतीयत इत्यर्थः ।| १५।
सन्धिप्रकरणे प्रथमः सउज्ञापादः
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[समीक्षा] जिन वर्णो के उच्चारण में वायु की अधिकता = महाप्राणता रहती है,
उन वर्णो की ऊष्मसंज्ञा की गई है । आख्यात प्रकरण में इन्हीं वर्णों की 'शिट्' संज्ञा भी शर्ववर्मा नेकी है- “शिडिति शादयः” (३।८।३२) | पाणिनि ने इन वर्णो का बोध 'शढ्' प्रत्याहार से कराया है | कातन्त्र व्याकरण में ऊष्मसंज्ञा का
कहीं भी उपयोग नहीं किया गया है। केवल पूर्वाचार्यकृत संज्ञा के स्मरणार्थ ही इसे शर्ववर्मा ने प्रस्तुत किया है । प्राचीन ग्रन्थों में कहीं कहीं पर ८ तथा ६ वर्णों की भी ऊष्मसंज्ञा की गई है । जैसे -
ऋक्प्रातिशाख्य - “उत्तरे अष्टावृष्माणः” (१।१०) ।इसके अनुसार शकारादि ४ वर्णो के अतिरिक्त अनुस्वार, विसर्ग, जिह्लामूलीय तथा उपध्मानीय वर्णो की भी यह संज्ञा अभीष्ट है | इन वर्णो को ऊष्म क्यों कहते हैं- इसका समाधान उव्वट ने अपने भाष्य में इस प्रकार किया है- ऊष्मा वायुस्तत्रधाना वर्णा ऊष्माणः”
आपिशलिशिक्षा- शादय ऊष्माणः; महति वायौ महाप्राणः, अल्पे वायावल्पप्राणः, साल्पप्राणमहाप्राणता ।महाप्राणत्वादूष्मत्वम्”' (४।७, ८।१६-१९) | इस प्रकार यह संज्ञा अन्वर्थ तथा प्राचीन है ।।१५।
१६. अः इति विसर्जनीयः (१।१।१६) [सूत्रार्थ] स्वरवर्णो के बाद आने वाले कुमारीस्तनयुगाकृति वर्ण की विसर्जनीय संज्ञा होती है ।॥१६।
९२
कातन्त्रव्याकरणमू
[दु० १०] अकार इहोच्चारणार्थ: |अः इति कुमारीस्तनयुगाकृतिर्वर्णो विसर्जनीयसंज्ञो भवति ।विसर्जनीयप्रदेशाः¬ बिसर्जनीयश्चे छेबाशम्” (१ | ५ १ )इत्येवमादयः ॥१६॥ [दु० दी०]
अः। विसृज्यते विरम्यते इति विसर्जनीयः |अनीय इति कर्मप्रत्ययोपलक्षणम्, तेन विसृष्टो विसर्ग इति च संज्ञा सिद्धेति ।।१६।
[समीक्षा] जो 'जिह्वामूलीय - उपध्मानीय - सत्व - षत्व’ आदि विविध रूप प्राप्त करता है, उसे विसर्ग या विसर्जनीय कहते हैं- विविधरूपेण सृज्यते संसृज्यते जिह्णामूलीयादिरूपैरिति विसर्जनीयः |यतः स्वरवर्णो के ही अनन्तर विसर्ग रहता है | अतः उसके उपलक्षणार्थ कलापसूत्रकार ने 'अ' स्वर का पाठ सूत्र में किया है ।
सन्धिप्रकरणे प्रथमः सञ्ज्ञापादः
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पाणिनि ने “विसर्जनीयस्य सः!” (अ० ८।३।३४) आदि. सूत्रों में विसर्जनीय का प्रयोग तो किया है, परन्तु उसकी कोई परिभाषा नहीं की है और न उनके द्वारा समादृत वर्णसमाम्नाय में विसर्ग का पाठ ही किया है |इससे कहा जा सकता
है कि पाणिनि पूर्वाचार्यो के सिद्धान्त से सहमत हैं, इसीलिए उन्होंने कोई संज्ञासूत्र नहीं बनाया | कलापव्याकरण के वर्णसमाम्नाय में विसर्ग का पाठ होने तथा उसके लिए संज्ञासूत्र किए जाने से यह सिद्ध है कि कलाप व्याकरण में विसर्ग को अयोगवाह के रूप में नहीं, अथ च योगवाह के रूप में ही माना गया है। ज्ञातव्य है कि पाणिनीय व्याकरण के वर्णसमाम्नाय में विसर्ग का पाठ नहीं है और न उसके लिए संज्ञासूत्र ही है, परन्तु सूत्रों में उसका उल्लेख हुआ है । फलतः उसे अयोगवाह के रूप में स्वीकार किया जाता है।
इसकी लिपि का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि ऊपर-नीचे स्थित दो बिन्दुओं को विसर्ग कहते है- “'ऊर्ध्वाध स्थं बिन्दुयुग्मं विसर्ग इति गीयते” (प्र० र० मा० १।२९) । लिपिस्वरूप का सादृश्य कुछ अन्य वस्तुओं के साथ भी बताया गया है । तदनुसार छोटे बछड़े के दो सींगों, कुमारी के दो स्तनों तथा काले सर्प के दो नेत्रों की तरह विसर्ग होता है। श्रृड़बद् बालवत्सस्य कुमार्याः स्तनयुग्मवत्। नेत्रवत् कृष्णसर्पस्य स विसर्गं इति स्मृतः॥ (विसर्गस्त्रिविधः स्मृतः - पाठा०) (टे० ट० टे०, भा० १, पृ० २२५) | विसर्ग तथा विसर्जनीय पर्याय शब्द हैं और पर्यायवावी शब्दों के प्रयोग में गौरव - लाघव का विचार नहीं होता । पूर्वाचार्यो द्वारा भी इसका व्यवहार किया गया है | जैसे-
१७. % क इति जिह्वामूलीयः (१।१।१७) [सूत्रार्थ] क - ख वर्णों से पूर्ववर्ती विसर्ग के स्थान में होने वाळे वज्राकृति वर्ण की जिह्वामूलीय संज्ञा होती है ।।१७।
[समीक्षा] आचार्य शर्ववर्मा ने वज्र («, +) की आकृति वाले वर्ण की जिह्वामूलीय संज्ञा की है। पाणिनीय व्याख्याकार उसे जिह्वामूलीय कहते हैं, जो विसर्ग के
सन्धिप्रकरणे प्रथमः सञ्ज्ञापादः
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स्थान में क-ख वर्णो के परवर्ती होने पर आदेश होता है और जो अर्ध विसर्गसदृश %< माना जाता है । पाणिनि ने इसका साक्षात् उल्लेख सूत्रों में नहीं किया है ।इससे यह सिद्ध होता है कि कलापकार के मत में जिह्वामूलीय एक अर्धमात्रिक व्यञ्जन है, जबकि पाणिनीय व्याख्याकार उसे अर्धविसर्गसदूृश कहकर उसकी
अर्धार्ध (*/,) मात्रा ही मानते हैं । इस संज्ञासूत्र का कातन्त्रव्याकरण में केवल एक ही विधिसूत्र है १।५।४; फिर 'इत्येवमादयः' यह वचन प्रवाहवश ही कहा गया मानना चाहिए । याज्ञवल्क्यशिक्षा में कवर्ग से पूर्ववर्ती ऊष्म वर्णो को जिह्वामूलीय कहा गया है। वे वज्री माने गए है । अर्थात् जैसे प्रहार किया गया वज्र शत्रु से आशश््छिष्ट होकर रहता है, वैसे ही 'इष्क्कृतिः इत्यादि में षकार अग्रिम ककार के साथ अत्यन्त संश्लिष्ट होकर रहता है । ““जि्घामूले तु बत्रिणः?? (या० शि० ५।९३) | इसमें ७ (९) वर्णो
को जिह्यामूलीय स्वीकार किया गया है - “सप्त जिक्लामूलीयाः- ऋ ऋ क्र ३ इत्यृवर्णः, >< क >< पौ च” (अ० ८।३।३७) सूत्र की व्याख्या में व्याख्याकार उपध्मानीय शब्द को स्वीकार करते हैं- “कवर्गे पवर्गे च परे विसर्जनीयस्य क्रमाज्जिह्णामूलीयोपध्मानीयौ स्तः" (सि० कौ०) | काप के इस संज्ञासूत्र में व्याख्याकारों ने 'प' से पूर्ववर्ती विसर्ग के स्थान में होने वाले गजकुम्भ-सदृश वर्ण को उपध्मानीय कहा है । सम्भवतः उपध्मानीय के उच्चारण में ओष्ठ्य की आकृति गजकुम्भसदृश प्रतीत होने के कारण व्याख्याकारों ने उसे गजकुम्भाकृति माना है । लिपि में इसके पाँच चिल्ल मिळते है | जैसे- ९9,001, , 3, ००० |
याज्ञवल्क्यशिक्षा में प्रकार के ओष्ठ्य वर्णों के अन्तर्गत उपध्मानीय वर्णों को भी गिनाया गया है- “नव ओष्ठ्याः:- उ ऊ ऊ ३ इत्युवर्णः, प-फ-ब-भ-मवकारोपध्मानीया ओकारश्वेति” (या? शि० ५।९३) ॥१८।
१९, अं इत्यनुस्वारः (१।१।१९) [सूत्रार्थ। एक बिन्दुरूप वर्ण की अनुस्वार संज्ञा होती है ||१९।
[दु० वृ०] अकार
इहोच्चारणार्थः। १ इति बिन्दुमात्रवर्णोऽनुस्वारसंज्ञो भवति ।
[समीक्षा] कलापकार ने स्वर वर्णो के बाद आने वाले एक बिः्दुमात्र की अनुस्वार संज्ञा की है |यह बिन्दु भी दो प्रकार का माना जाता है- १. तिलक (तिल) की तरह तथा २. अर्धचन्द्राकार |पाणिनि ने अनुस्वार का व्यवहार ““मोऽनुस्वारः' (पा० ८।३।२३) आदि सूत्रों में विधि के रूप में किया है, परन्तु संज्ञासूत्र नहीं
सन्धिप्रकरणे प्रथमः सज्ज्ञापादः
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बनाया है । अनुस्वार सर्वत्र स्वरवर्ण के ही बाद में आता है । अतः शर्ववर्मा ने सूत्र में 'अ' स्वर के साथ लगाकर इसे दिखाया है, जबकि पाणिनीय व्याख्याकार शिक्षावचन के अनुसार ऐसी व्याख्या करते हैंजिसका स्वतन्त्र उच्चारण न होकर स्वर के साथ मिलकर होता है उसे अनुस्वार कहते हैं । वर्णसमाम्नाय के क्रमानुसार सन्ध्यक्षर संज्ञा के ही पश्चात् इसे कहना चाहिए था, क्योंकि स्वरवर्णों के ही अनन्तर विसर्ग-अनुस्वार पढ़े गए हैं, तथापि व्यञ्जनादि संज्ञाओं के अनन्तर इसे रखकर यह ज्ञापित किया गया है कि अनुस्वार स्वरात्मक तथा व्यञ्जनात्मक उभयविध होता है॥१९।
२०. पूर्वपरयोरर्थोपलब्धौ पदम् (१।१।२०) [सूत्रार्थ] प्रकृति और विभक्ति से प्राप्त समुदाय रूप अर्थ की पदसंज्ञा होती है ॥२०।
[समीक्षा] आचार्य शर्ववर्मा ने प्रकृति-प्रत्यय के अर्थवान् समुदाय की पदसंज्ञा की है! यहाँ यद्यपि “विभक्त्यन्तं पदम्' इतना ही सूत्र बनाने से ईप्सित अर्थ की सिद्धि हो सकती है, तथापि आचार्य ने “'ूर्वपरयोरर्थोपलब्धौ पदम्” यह कहकर जो शब्दगौरव किया है, उससे उनका यह अभिप्राय व्यक्त होता है कि प्रकृति और प्रत्यय परस्पर सम्बद्ध होकर ही किसी विशिष्ट अर्थ का निष्पादन करते हैं। कलाप की यह पदसंज्ञा ऐद्रव्याकरण तथा वाजसनेविप्रातिशाख्य के आधार पर की गई है, क्योंकि उन दोनों में पदसंज्ञक सूत्र थे- “अर्थः पदम् |
पाणिनि ने नाम और आख्यात पदों के अनुसार, सुबन्त और तिङन्त शब्दों की पदसंज्ञा की है- “सुप्तिङन्तं पदम्?’ (१।४।१४; द्र० १।४।१५-१७) | इस प्रकार कलाप की संज्ञा में पूर्वाचायाँ का अनुसरण स्पष्ट रूप में दृष्ट है, जबकि पाणिनि ने सुबन्त-तिइन्त शब्दरूपो की यादृच्छिक कल्पना की है। गणरलमहोदधिकार वर्धमान के अनुसार सुपू-तिङ्रूप दो प्रकार के पद मानने वाले आचार्य है - पाणिनि, शाकटायन, चन्द्रगोमी, देवनन्दी, भर्तृहरि, वामन, भोज, शिवस्वामि, कात्यायन, पतञ्जलि, भद्रेशवरसूरि तथा दीपकव्याकरणकर्ता । पाणिनिपूर्व सुपू-तिङ् प्रत्याहारों का प्रयोग दृष्ट न होने से पाणिनि ही इसके प्रथम उदूभावक
१०६
कातन्त्रव्याकरणमू
कहे जा सकते हैं- “सुप्तिडन्तं पदम्” (अ० १।४।१४) | वर्धमान का वचन इस प्रकार हैशालातुरीयशकटाइजचन्द्रगोमिदिग्वस्त्र भर्तृतरिवामनभोजमुख्याः । मेधाविनः प्रवरदीपककर्तयुक्ताः प्राज्ञैर्निषिवितपदद्वितया जयन्ति ॥ (गण०, अ० १ शछो० २)। जिससे अर्थ का ज्ञान होता है,उसे पद कहते हैं- “पद्यते गम्यते ज्ञायतेऽ र्थो5नेनेति पदम्’। अतः अर्थवान् शब्द की की जाने वाली पदसंज्ञा अन्वर्थ है । लोक में देखा जाता है कि प्रामाणिकता या विश्वसनीयता के लिए सम्बद्ध विषयक पद पर आसीन व्यक्ति का ही ग्रहण होता है। संस्कृतभाषा में भी पदों का ही व्यवहार होता है, केवल प्रकृति या केवल प्रत्ययों का नहीं - “अपदं न प्रयुञ्जीत” । प्राचीन ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख हुआ है । जैसेऋग्वेद = “चत्वारि वाक्परिमिता पदानि” (१।१६४।४५) |
क्रकृतन्त्र - पदमेकोच्चम् ।प्रकृतिः” (३।१।२,३) इसमें एकदेश 'द' का भी प्रयोग किया गया है- “दमु” (३।१।९)। नाट्यशास्त्र - निबद्धाक्षरसंयुक्तं पदच्छेदसमन्वितम् | निबद्धं तु पदं ज्ञेयं प्रमाणनियताक्षरम्
कुछ अर्वाचीन व्याकरणों में पदसंज्ञासूत्र औैनेनद्रव्याकरण- “सुम्मिडन्तं पदम्, नःक्ये, सिति, स्यादावधे”(१।२।१०३-६)। शाकटायनव्याकरण - सुङ् पदम्, सिद्वल्यधातोः” (१।१।६२, ६४)। हैमशब्दानुशासन ~ तदन्तं पदम्, नाम सिद्व्यञ्जने, नं क्ये” (१।१।२०-२२)। मुग्धबोधव्याकरण- “'वत्यन्तान्यौ दली” (सू० १४) | नारदपुराण- ““सुपतिङन्तं पदं विप्र !” (५२।२) |
[विशेष] इन्द्र आदि पूर्वाचार्य एक प्रकार का पद मानते थे- “अर्थवान् शब्दविशेष' । पाणिनि आदि दो प्रकार के- सुबन्त, तिङन्त । तीन प्रकार के सुबन्त, तिङन्त, अव्यय; ४ प्रकार के - सुबन्त, तिङन्त, उपसर्ग, निपात; पाँच प्रकार के - सुबन्त,
१०८
कातन्त्रन्याक रणम्
तिङन्त, उपसर्ग, निपात, गति तथा ६ प्रकार के - उक्त पाँच तथा कर्मप्रवचनीय नाम वाले पदों का भी उल्लेख प्राप्त होता है । वाक्यपदीय में कहा गया है=-
द्विधा कैड्चित्पदंभिन्नं चतुर्धा पञ्चघाऽपि वा।
अपोद्धृत्यैव
बाक्येभ्यः
प्रकृतिप्रत्ययादिबत्॥(३।१।१)।।२०।
२१. व्यञ्जनमस्वरं परं वर्ण नयेत् (१।१।२१) [सूत्रार्थ] व्यञ्जन को परवर्ती वर्ण से सम्बद्ध करना चाहिए, परवर्ती वर्ण के साथ मिला देना चाहिए, स्वर को नहीं ॥२१।
[दु० बृ०] व्यञ्जनं परं वर्णं नयेत्, न तुस्वरम् ।व्यञ्जनमन्वकू, स्वरः स्वयं राजते हि । तद् गर्च्छति, षडत्र, क * खनति, क ५४ फलति' इति योगवाहत्वात् |स्वरूपमेतत् ।। २१।
[समीक्षा] आचार्य शर्ववर्मा ने वर्णो तथा वर्णसमूह की संज्ञाएँ करने के बाद व्यञ्जन वर्णों की स्वाभाविक स्थिति के लिए एक परिभाषासूत्र बनाकर यह स्पष्ट किया है, कि स्वररहित व्यञ्जन परवर्ती वर्ण के साथ मिलता है । जैसे “तद् गच्छति, षड् अत्र' आदि उदाहरणों में 'द्' वर्ण 'गू' के साथ तथा 'इ' वर्ण 'अ' स्वर के साथ मिलता है- “'व्यञ्जनमस्वरं परं वर्ण नयेत्”? (१।१।२१) |
पाणिनि ने ऐसे विषयों में लोक को प्रमाण मानकर इनके लिए सूत्र नहीं बनाए हैं । वस्तुतः ककारादि व्यञ्जनों का परवर्ती वर्ण सेमिलने का स्वभाव ही होता है, क्योंकि व्यञ्जन उसे ही कहते हैं जो पश्चादूवर्ती हो । अतः तदर्थ सूत्र बनाने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती, तथापि यहाँ सूत्र का बनाया जाना
सुखार्थ ही समझना चाहिए या केवल स्वरूपाख्यानपरक ही मानना चाहिए ।पश्चादूवर्ती होने के कारण व्यञ्जन परतन्त्र होते हैं |अर्थात् इनके उच्चारणार्थ स्वरों की सहायता लेनी पड़ती है ।।२१।
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कातन्त्रव्याकरणम्
२२. अनतिक्रमयन् विश्लेषयेत् (१।१।२२) [सूत्रार्थ] सम्मिलित वर्णो का विभाग विना ही अतिक्रमण किए करना चाहिए ।।२२।
“अवर्ण इवर्णे ए” (१।२।२) इत्यादिकं तु 'अ- इ' इत्यादौ केवलेऽपि चरितार्थम्, अतो न विश्लेषज्ञापकं भवितुमर्हति ।|२२। [समीक्षा] “सम्मिलित वर्णो का विश्लेषण क्रम से ही करना चाहिए, अतिक्रमण करके
नहीं - इस लोकप्रसिद्ध अर्थ का निर्देश कलापकार ने सूत्र द्वारा किया है““अनतिक्रमयन् विश्छेषयेत्’' । जैसे - “वैयाकरण' शब्द में व्और ऐ मिले हुए
हैं |यहाँ 'ऐ' वर्ण की उपस्थिति से पूर्व 'वू+याकरण' शब्दरूप था, “ऐ' का आगम होने पर 'वैयाकरण' शब्दरूप निष्पन्न हुआ ।इसी प्रकार “उच्चकैः” मेंभी 'उच्च्-ऐस्' इस प्रकार वर्णविश्लेषण करते हैं |इसके अनन्तर “अक्” आगम होने पर 'उच्चकैः” शब्द सिद्ध होता है । पाणिनि ने इस लोकप्रसिद्ध अर्थ को बताने के लिए सूत्रनिर्देश नहीं किया
है । उन्होंने अपनी सूत्ररचना में यही सिद्ध किया है कि लोकप्रसिद्ध अर्थो के लिए सूत्र बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है । व्याख्याकारों ने कहा है कि “न य्वोः पदाद्योर्वृद्धिरागमः” (२।६।५०) सूत्र में स्पष्ट निर्देश है कि यकार और वकार से पूर्व वृद्धि (ऐ, औ) आगम हो । इसी प्रकार “अव्ययसर्वनाम्नः स्वरादन्त्यात् पूर्वोऽकूकः” (२।२।६४) इस सूत्र में भी अन्त्य स्वर से पूर्व अकृप्रत्यय का स्पष्ट निर्देश है । अतः सूत्र बनाने का कोई मुख्य प्रयोजन तो सिद्ध नहीं किया जा सकता | केवर यही कहा जा सकता है कि मिले हुए वर्णों में वृद्धि आदि कार्य कहाँ हुए हैं- इस सन्देह के निरासार्थ यह सूत्र बनाया गया है ॥२२।
२३. लोकोपचाराद् ग्रहणसिद्विः (१।१।२३) [सूत्रार्थ] लोकव्यवहार के अनुसार उन शब्दों की भी सिद्धि इस व्याकरण में कर लेनी चाहिए, जो यहाँ सूत्रों में उक्त नहीं हुए हैं ।।२३।
[दु० वृ०] लोकानामुपचारो व्यवहारः, तस्मादनुक्तस्यापि ग्रहणस्य सिद्धिर्वेदितव्येति । निपाताव्ययोपसर्गकारककालसङ्ख्यालोपादय: | तथा बरणा इति नगरस्यापि संज्ञा |
नाप्यवयवोऽनारम्भकत्वात् |वृक्षे हि जाते खलु फलमुत्पद्यते तथा फलितावस्थामुपमर्दम् (उद्य) शाखाद्यवयवसहायमन्यमेव विशिष्टं वृक्षावयविनमारभमाणं फलं विकारोऽवयवो
[समीक्षा] शब्दों के अनन्त होने के कारण और उन सभी अनन्त शब्दों का साधुत्वान्वाख्यान किसी एक व्याकरण में सम्भव न हो सकने के कारण सभी शाब्दिक आचार्यो ने अपने-अपने ग्रन्थों में यह निर्देश अवश्य किया है कि जिन शब्दों की सिद्धि इसमें नहीं कही गई है, उनका साधुत्व शिष्टव्यवहार तथा अन्य व्याकरण ग्रन्थों से जान लेना चाहिए | जैसे- पाणिनि - “पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्?’ (अ० ६।३।१०१)। हेमचन्द्र- “सिद्विः स्यादूवादात्, लोकात?” (१।१।२, ३)। अनुभूतिस्वरूप - ““लोकाच्छेषस्य सिद्धिर्यथा मातरादेः” (सार०-ग्रन्थ के अन्त में) |
आचार्य शर्ववर्मा ने भी यही भाव इस सूत्र में व्यक्त किया है- '“लोकोपचाराद् ग्रहणसिद्धिः”” (१।१।२३) | व्याख्याकारों ने अनेक शब्द लोकव्यवहार के ही आधार पर साधु मानकर सिद्ध किए हैं। कुछ शब्दों की सिद्धि के लिए 'वा-अपि-च' आदि की अनुवृत्ति यहाँ मानी जाती है वररुचि का मत है कि उक्त प्रकार की अनुवृत्ति से भी जो शब्द सिद्ध न हो सकें, उनकी सिद्धि लोकव्यवहार के अनुसार समझ लेनी चाहिए वाशब्दैश्चापिशब्ैर्वा सूत्राणां (शब्दानाम्) चालनैस्तथा । एभिर्येऽत्र
न
सिध्यन्ति
ते साध्या लोकसम्मताः॥
सन्धिप्रकरणे प्रथमः सज्ज्ञापादः
११७
यह ज्ञातव्य है कि पाणिनिपूर्ववर्ती व्याकरण लौकिक - वैदिक उभयविध थे और पाणिनि से परवर्ती प्रायः सभी व्याकरण केवल लौकिक शब्दों का ही साधुत्व बताते हैं |कलाप व्याकरण में वैदिक शब्दों का साधुत्व क्यों नहीं दिखाया गया इस सम्बन्ध में वृत्तिकार दुर्गसिंह ने कहा हैवैदिका लौकिकञैश्च ये यथोक्तास्तथैव ते। निर्णीतार्थास्तु विज्ञेया लोकात् तेषामसंग्रहः॥
अर्थात् जो लौकिक शब्दों के साधुत्वज्ञान में पारक्गत शिष्टजन हैं, वे वैदिक
शब्दों का भी साधुत्व अवश्य जानते है । उन वैदिक शब्दों का साधुत्व-बोध उन्हीं शिष्टों से कर लेना चाहिए - यह समझकर ही आचार्य शर्ववर्मा ने वैदिक शब्दों के साधुत्वहेतु सूत्र नहीं बनाए | यहाँ यह आशङ्का की जाती है कि यदि वैदिक शब्दों का साधुत्व शिष्टव्यवहार से जाना जा सकता है तो लौकिक शब्दों का भी साधुत्व शिष्टव्यवहार से जाना ही जा सकता है और इस प्रकार यदि वैदिक शब्दों के साधुत्व के लिए सूत्र बनाने की कोई आवश्यकता नहीं हो सकती है तो ठौकिक शब्दों के साधुत्व
के लिए भी सूत्र बनाना आवश्यक नहीं है। इस प्रश्न का समाधान करते हुए व्याख्याकारों ने कहा है कि वैदिक शब्द अल्प हैं, अतः उनका साधुत्वबोध शब्दप्रमाणक शिष्टजनों से किया जा सकता है, परन्तु लौकिक शब्द अनन्त हैं, उनके साधुत्वज्ञान का सरल और लघु उपाय सूत्ररचना (छक्षणशास्त्र) ही हो सकती है । अतः लौकिक शब्दों के साधुत्व के लिए कलापकार ने सूत्र बनाए है | वैदिक शब्दों का साधुत्व न दिखाए जाने के कारण यह वेदाङ्ग नहीं हैऐसा नहीं कहा जा सकता | क्योंकि वेदों में भी अधिकांश बे ही शब्द प्रयुक्त हैं, जिनका प्रयोग लोक में भी होता है। केवल वेद में ही प्रयुक्त शब्दों की संख्या अपेक्षाकृत अत्यन्त अल्प है । दूसरे यह कि वैदिक - परम्परा युग-मन्वन्तर में भी अविच्छिन्न रूप से चलती रहती है, वह कभी सर्वथा विच्छिन्न नहीं होती | इसलिए वैदिक शब्दों का साधुत्वज्ञान भी वैदिक विद्वानों में सुरक्षित बना रहता है, उसे उनके सान्निध्य से प्राप्त किया जा सकता है । इस प्रकार केवळ लौकिक शब्दों का ही साधुत्व दिखाने वाले व्याकरण भी वेदाङ्ग सिद्ध होते हैं ।
११८
कातन्त्रव्याकरणम्
पाणिनि ने भी अनेक सूत्रों में लोकप्रामाण्य को स्पष्टरूप में स्वीकार किया है, फिर भी उन्होंने कुछ वैदिक शब्दों में भी प्रकृति-प्रत्यय तथा स्वरयोजना के लिए सूत्र बनाए हैं। यह प्रसिद्ध है कि पाणिनि ने कालविषयक परिभाषा नहीं की है | अर्थात् उनका व्याकरण कालपरिभाषारहित है, फलतः उसे अकालक कहा जाता है- “पाणिन्युपज्ञमकालकं व्याकरणम्? (का० वृ० २।४।२१) | काल की तरह ्रत्ययार्थप्राधान्य, उपसर्जन आदि विषयों में भी उनका यही मत है““प्रधानप्रत्ययार्थवचनमर्थस्यान्यप्रमाणत्वात्, कालोपसर्जने च तुल्यम्’? (अ० १।२।५६५७) ।परन्तु पाणिनि की भी अपेक्षा आचार्य शर्ववर्मा ने लोकव्यवहार की प्रामाणिकता अधिक स्वीकार की है | इनके दो प्रमुख सूत्र इस प्रकार हैं“सिद्बो बर्णसमाम्नायः; लोकोपचाराद् ग्रणसिद्धिः!?
अथ प्रथमे सन्धिप्रकरणे दितीयः समानपादः २४. समानः सवर्णे दीर्घीभवति परश्च लोपम् (१।२।१) [सूत्रार्थ] सवर्णसंज्ञक वर्ण के पर में रहने पर समानसंज्ञक वर्ण को दीर्घ होता है तथा उससे परवर्ती (सवर्णसंज्ञक) वर्ण का लोप हो जाता है ।२४।
[समीक्षा] पाणिनि ने 'दण्डाग्रम्, मधूदकम्’ आदि में दीर्घविधान “एकः पूर्वपरयोः” (पा० ६।१।७५) के अधिकार में किया है, जिसके कारण पूर्ववर्ती तथा परवर्ती दोनों अवर्णो के स्थान में एक दीर्घ आकारादेश, दो इवर्णो के स्थान में एक दीर्घ ईकारादेश, दो उवर्णो के स्थान में एक दीर्घ ऊकारादेश तथा दो ऋवर्णो के स्थान
सन्धिप्रकरणे द्वितीयः समानपादः
में एक
दीर्घ क्रकारादेश उपपन्न
होता है- “अकः
१२७
सवर्णे दीर्षः?”
(पा० ६।१॥१०१) |
शर्ववर्मा ने पूर्ववर्ती अवर्णादि के स्थान मेंदीर्घ आकारादि आदेश तथा परवर्ती अवर्णादि का लोप किया है । इस प्रकार पाणिनीय व्याकरण में दो स्वरों के स्थान में तथा कलापव्याकरण में एक ही स्वर के स्थान में दीर्घ आदेश निर्दिष्ट है। इन दो विधियों में कौन सी विधि प्रशस्त है- इसका निर्णय कर पाना यद्यपि अत्यन्त दुष्कर है तथापि इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि स्वर उसे कहते हैं जो उच्चारण में किसी अन्य की अपेक्षा न रखता हो । इससे उसे स्वयं समर्थ माना जाता है- “स्वयं राजते इति स्वरः’ स्वयं एकाकी समर्थ होने पर दो स्वरों के स्थान में एक स्वरादेश की अपेक्षा एक ही स्वर के स्थान में एक स्वरादेशविधान अधिक समीचीन प्रतीत होता है |यदि यह कहा जाए कि कलापव्याकरण में परवर्ती स्वर का लोप अधिक करना पड़ता है तो वह इसलिए समादरणीय नहीं हो सकता कि पाणिनीय व्याकरण में “एकः पूर्वपरयोः'” (पा० ६।१।७५) यह अधिकारसूत्र अतिरिक्त करना पड़ता है । कलापव्याकरण में परवर्ती स्वर का लोप करने के लिए अतिरिक्त सूत्र नहीं किया जाता, किन्तु एक ही सूत्र-द्वारा दीर्घ तथा लोप-कार्य निर्दिष्ट हुए है । व्याख्याकारों ने इस सवर्णदीर्घविधि को विकार तथा आदेश माने जाने के सम्बन्ध में कुलचन्द्र, हेमकर तथा श्रीपति आदि के मतों को प्रदर्शित किया है। एक वर्ण के स्थान में उपपन्न होने के कारण इसे कुछ विद्वान् विकार भी कहते हैं |एक वर्ण के स्थान में होने वाली विधि को विकार तथा अधिक वर्णो या धातु - पद आदि के स्थान में होने वाली विधिको आदेश माना गया है |आपिशलि का मत है-
:
आगमोऽनुपघातेन
विकारश्चोपमर्दनात्।
आदेशस्तु प्रसङ्गेन छोपः सर्वापकर्षणात्॥ कातन्त्रकार ने स्थानी को प्रथमान्त तथा आदेश को द्वितीयान्त रखा है, निमित्त का प्रयोग तो सप्तम्यन्त ही है । पाणिनि ने स्थानी का षष्ठ्यन्त तथा आदेश का
व्यवहार प्रथमान्त किया है । कातन्त्रकार की शैली पूर्वाचार्यसम्मत है |
१२८
कातन्त्रव्पाकरणमू
[रूपसिद्धि] १, दण्डाग्रम्। दण्ड? अग्रम् (अ + अ) । डकारोत्तरवर्ती एबं समानसञ्ज्ञक “अ' के स्थान में आ' आदेश तथा उत्तरवर्ती अ का लोप | २. सागता। सा + आगता (आ--आ) | सकारोत्तरवर्ती 'आ' के स्थान में 'आ' आदेश तथा परवर्ती आ का लोप | ३. दधीदम्। दधि+ इदम् (इ-- इ) । धकारोत्तरवर्ती तथा समानसंज्ञक 'इ' के स्थान में 'ई' आदेश एवं परवर्ती 'इ' का छोप।
४. नदीहते। नदी + ईहते (ई+ ई) | दकारोत्तरवर्ती ई के स्थान में 'ई” आदेश और परवर्ती ई का लोप | ५, मधूदकम्। मधु + उदकम् (उ+ उ) | धकारोत्तरवर्ती 'उ' के स्थान में "ऊ' आदेश एवं परवर्ती ऊ का लोप |
६. वधूढम्। वधू+ऊढम् (ऊ+ ऊ) | धकारोत्तरवर्ती ऊ के स्थान में 'ऊ आदेश, परवर्ती ऊ का लोप |
७, पितृषभः। पितृ + ऋषभः (ऋ+ऋ)। तकारोत्तरवर्ती ऋ को क्रू आदेश तथा परवर्ती ऋ का लोप |
८. कृकारः। कृ + क्रुकारः (क्रू + क्रू) | पूर्वककारोत्तरवर्ती कृ को क्र आदेश, अथ च परवर्ती क्र का लोप। ९. क्लूकारेण। क्लू + ढ्कारेण (ळू+ठू )।पूर्वककारोत्तरवर्ती छू के स्थान में लू आदेश तथा परवर्ती ठु का लोप | १०, होतृकारः। होतृ + ठकारः (ऋ + ठू) । तकारोत्तरवर्ती ऋ के स्थान में कू आदेश तथा परवर्ती लू का लोप। ऋवर्ण - ळृवर्ण की सवर्णसंज्ञा के लिए पाणिनीयादि व्याकरणों में वार्त्तिकादि-
वचन पढ़े गए हैं, परन्तु कातन्त्र में यह कार्य छोकव्यवहारानुसार ही स्वीकार कर लिया जाता है।
पाणिनीय व्याकरण में इस विधि के 'दैत्यारिः, श्रीशः, विष्णूदयः' आदि उदाहरण प्रसिद्ध हैं |
सन्धिप्रकरणे द्वितीयः समानपादः
१२९
२५. अवर्ण इवर्णे ए (१॥ २1२) [सूत्रार्थ] इवर्ण के पर में रहने पर अवर्ण के स्थान में 'ए' आदेश होता है तथा इवर्ण का लोप ।।२५।
[समीक्षा] पाणिनीय व्याकरण के अनुसार “एकः पूर्वपरयोः” (पा० ६।१।७५) के
अधिकार में “आदू गुणः” (पा० ६।१।८७) से गुणादेश प्रवृत्त होता है । जिससे 'रमा +ईशः' या “सुर ईश: इस स्थिति में पूर्ववर्ती अवर्ण तथा परवर्ती इवर्ण इन दोनों के ही स्थान में एक एकारादेश निष्पन्न होता है । शर्ववर्मा ने तो दीर्घविधि की तरह गुणविधि भी एक वर्ण के ही स्थान में निर्दिष्ट की है | तदनुसार 'तव+ईहा' तधा 'सा+इयम्' इस अवस्था में पूर्ववर्ती अवर्ण के ही स्थान में एकारादेश होमे के अनन्तर परवर्ती इवर्ण का लोप हो जाता है और इस प्रकार 'तवेहा, सेयम्? शब्दरूप निष्पन्न होते हैं |यहाँ पर भी सूत्र २४ की समीक्षा की तरह यह कहा जा सकता है कि स्वरों के स्वतन्त्र होने के कारण एक ही स्वर का आदेश किया जाना समीचीन है, दो स्वरों के स्थान में एक स्वरादेश करने की अपेक्षा ।
[विशेष]
|
सूत्रपठित “वर्ण' शब्द का अर्थ सवर्ण लिया जाता है । इसके लिए परिभाषावचन भी है- “बर्णग्रहणे सवर्णग्रहणम्' (सं० बौ० वै०, पृ० २२५) | सूत्र-संख्या २४ में पठित चकार का अधिकार इस सूत्र में भी अनुवृत्त होने केकारण यहाँ अनुक्त का भी समुच्चय अभीष्ट है | इससे कहीं कहीं पर पूर्ववर्ती अवर्ण का भी लोप हो जाता है |जैसे- हल +ईषा = हलीषा, लाङ्गल + ईषा = लाडलीषा, मनस् + ईषा = मनीषा । 'मनीषा' में सलोप भी करना पडता है |
[रूपसिद्धि] १. तवेहा। 'तव + ईहा’ इस अवस्था में वकारोत्तरवर्ती अकार से ईहाशब्दस्थ ईकार पर में उपस्थित है । अतः 'अ” के स्थान में इस सूत्र से 'ए' आदेश तथा परवर्ती “ई” वर्ण का लोप होकर 'तवेहा' शब्दरूप निष्पन्न होता है।
कातन्त्रव्याकरणम्
१३२
२. सेयम्। 'सा+इयम्” इस दशा में सकारोत्तरवर्ती आ के स्थान में 'ए'
आदेश तथा उत्तरवर्ती 'इ' का लोप करना पड़ता है । इस विधि के “रमेश:, सुरेशः, महेशः' आदि भी उदाहरण प्रसिद्ध है ॥२५|
२६. उवर्णे ओ (१।२।३) [सूत्रार्थ] उवर्ण के पर में होने पर पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में 'ओ' आदेश होता है तथा परवर्ती उवर्ण का छोप॥२६।
[समीक्षा] इस सूत्र पर दुर्गटीका, विवरणपञ्जिका तथा कलापचन्द्र नामक व्याख्याएँ नहीं हैं । पाणिनि ने 'ओ” रूप गुणविधि की व्यवस्था दो वर्णो के स्थान में की है, जबकि शर्ववर्मा ने केवल अवर्ण के स्थान में | इस विधि में परवर्ती उवर्ण का लोप हो जाता है। स्वरों के स्वतन्त्र होने के कारण दो स्वरों के स्थान में एक स्वरादेश की अपेक्षा एक ही स्वर के स्थान में ओ-आदेश अधिक समीचीन प्रतीत होता है |
[रूपसिद्धि] १. तवोहनम्। तव + ऊहनम् (अ+ ऊ) | वकारोत्तरवर्ती अके स्थान में ओ तथा परवर्ती ऊ का लोप |
२. गङ्गोदकम् । गङ्गा +उदकम् = (आ+ उ)। द्वितीय गकारोत्तरवर्ती आ के स्थान में ओ तथा परवर्ती उ का लोप। 'सहोदरः, मनोरथः? आदि उदाहरण भी
द्रष्टव्य है ।।२६।
सन्धिप्रकरणे दितीयः समानपादः
१३३
२७. ऋवर्णे अर् (१।२।४) [सूत्रार्थ] ऋवर्ण के पर में होने पर अवर्ण के स्थान में 'अर्' आदेश तथा परवर्ती ऋवर्ण का लोप होता है ॥२७।
[समीक्षा] पाणिनि के अनुसार अवर्ण और ऊऋवर्ण दोनों के स्थान में 'अ' गुण होता है | “उरण् रपरः” (पा० १।१।२१) से रपर करने के बाद कृष्ण + ऋद्धि: = कृष्णर्द्धिः
आदि शब्दरूप सिद्ध होते हैं। शर्ववर्मा के अनुसार पूर्ववर्ती अवर्ण के ही स्थान में 'अर्' आदेश तथा परवर्ती ऋवर्ण का लोप होकर 'तवर्कारः, सर्कारेण” आदि प्रयोग साधु माने जाते हैं | सूत्र-संख्या २५-२६ की ही तरह यहाँ भी दो स्वरों के स्थान में होने की अपेक्षा एक ही स्वर के स्थान मेंरेफसहित 'अर्' आदेश करना अधिक समीचीन प्रतीत होता है।
[विशेष] १. वृत्तिकार दुर्गसिह ने ऋणार्णम्, प्रार्णम्’ आदि की सिद्धि के लिए एक वार्त्तिक पढ़ा है- *'ऋण-प्र-बसन-वत्सतर-कम्बल-दशानामृणे क्वचिदरोऽपि दीर्घता” । इसके अनुसार पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में 'आर्' आदेश होता है, जिससे उक्त शब्दरूप निष्मन्न होते हैं । २. 'शीतार्तः” आदि की सिद्धि के लिए वार्त्तिक पढ़ा गया है- “ऋते च
तृतीयासमासे”'। कुछ व्याख्याकार “शीतेन ऋतः? यह व्युत्पत्ति न मानकर “शीतेन आर्तः” मानते हैं। इस प्रकार वार्तिक की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती | १.
तन्त्रान्तर - शब्देन प्रायः पाणिनीयं व्यार्करणं स्मर्यते ।
१३६
कातन्त्रव्याकरणम्
३. प्रार्च्छति’ के लिए वार्त्तिक है- “अति धातोरुपसर्गस्य दीर्घः”? तथा
“प्रार्षभीयति = प्रर्षभीयति' आदि की सिद्धि के लिए - “नामधातोर्वा” |इनके अनुसार 'अर्' आदेश -घटित “अ' को दीर्घ होकर आर् रूप हो जाता है। [रूपसिद्धि] १, तवर्कारः। तव + ऋकारः (अ+ ऋ) | वकारोत्तरवर्ती अ के स्थान में अर् आदेश तथा परवर्ती ऋ का लोप | २. सर्कारेण। सा + ऋकारेण (आ +ऋ) | पूर्ववर्ती आ के स्थान में अर् आदेश एवं परवर्ती ऋ का लोप | इस विधि के 'कृष्णर्द्धि आदि उदाहरण भी द्रष्टव्य है ॥२७|
२८. लूवर्णे अलू (१।२।५) [सूत्रार्थ] ढ्वर्ण के पर में रहने पर पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में 'अल् आदेश तथा परवर्ती ढुवर्ण का लोप होता है।।२८। [दु० वृ०]
सल्तकः' इति बररुचिः। तन्त्रान्तरे’ अदृष्टमिदमिति ।।२८। [समीक्षा] पाणिनि के अनुसार अवर्ण तथा कृवर्ण दोनों के स्थान में 'अ' रूप एक गुण आदेश होता है और “उरण् रपरः” (पा० १।१।५१) में पठित रपर से लपर १,
तन्रान्तरशब्देन प्रायः पाणिनीयं व्याकरणं स्मर्यते ।
सन्धिप्रकरणे दितीयः समानपादः
१३७
को भी स्वीकार कर 'तवल्कारः' आदि शब्दरूप निष्पन्न किए जाते हैं। आ शर्ववर्मा तो पूर्ववर्ती अवर्ण के ही स्थान में अळू आदेश तथा परवर्ती ढृवर्ण « लोपविधान करते है । तदनुसार 'तवल्कार:, सल्कारेण' आदि प्रयोग सिद्ध होते है । यहाँ पर भी दो स्वरवर्णों के स्थान में एक स्वरादेश करने की अपेक्षा एक ही स्वर के स्थान में ळ-सहित अ-आदेश करना अधिक समीचीन प्रतीत होता है।
[विशेष] उपसर्ग के बाद में यदि लृकारादि धातु हो तो उपसर्गस्थ अवर्ण के स्थान में होने वाले 'अछ” आदेश घटित 'अ' को विकल्प से दीर्घ हो जाता है । जैसे उपाल्कारीयति, उपल्कारीयति । वार्त्तिकवचन इस प्रकार है- ““उपसर्गस्य वा लृति धातोरलो दीर्घः?” |
[रूपसिद्धि] १, तबल्कारः। तव +ळूकारः (अ+ लू)|पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में 'अल्' आदेश तथा परवर्ती छृवर्ण का लोप । २. सल्कारेण। सा+ ठकारेण (आ+ क्)। पूर्ववर्ती (सकारोत्तरवर्ती) आकार के स्थान में अळू आदेश तथा परवर्ती ळुवर्ण का लोप ॥२८।
२९. एकारे ऐ ऐकारे च (१।२।६) । [सूत्रार्थ] एकार अथवा ऐकार के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में 'ए' आदेश तथा परवर्ती 'ए' या 'ऐ' का लोप होता है ।।२९।
[समीक्षा] पाणिनि के अनुसार 'ऐ” रूप वृद्धयादेश अवर्ण तथा ए या ऐ इन दो वर्णो
के स्थान में विहित है । जिससे “महैश्वर्यम्, खट्वैतिकायनः” आदि शब्द साधु होते
हैं ।कलाप के अनुसार एकार अथवा ऐकार के परवर्ती रहने पर पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में 'ऐ' आदेश तथा परवर्ती ए-ऐ का लोप हो जाता है । उक्त की तरह यहाँ भी कलाप की प्रक्रिया में समीचीनता कही जा सकती है, क्योंकि यहाँ एक ही स्वर के स्थान में एक स्वरादेश विहित है |
[विशेष] १. चकाराधिकार के बल से कहीं पर पूर्ववर्ती अवर्ण का ही लोप हो जाता है । जैसे अद्येव, इहेव |
२. 'स्व” शब्द के बाद 'ईर -ईरिन्' शब्दों के रहने पर स्व-घटक वकारोत्तरवर्ती 'अ' के भी स्थान में ऐ आदेश अभीष्ट है- “'स्वस्यादैत्वमीरेरिणोरपि वक्तव्यम् | जैसे - स्वैरम्, स्वैरिणी | ३. व्याख्याकारों द्वारा भगवद्-विशेषणविशिष्ट पाणिनि, चान्द्र-काश्मीरक श्रीपति - जयादित्य - न्यासकार आदि आचार्यो का उल्लेख द्रष्टव्य है | [रूपसिद्धि] १, तवैधा। तव + एषा (अ-- ए) | वकारोत्तरवर्ती अ के स्थान में ऐ आदेश तथा परवर्ती ए का लोप होता है। २. सैन्द्री। रा+ ऐन्द्री (आ--ऐ) | 'ऐ! के पर में रहने पर पूर्ववर्ती आ के स्थान में 'ऐ' आदेश एवं परवर्ती ऐ का लोप ॥२९।
३०. ओकारे औ औकारे च (१।२।७) [सूत्रार्थ ओकार या औकार के पर में रहने पर पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में 'औ' आदेश तथा परवर्ती ओ-औ का लोप होता है ।।३०।
शर्ववर्मा के निर्देशानुसार 'तवौदनम्, सौपगवी' आदि प्रयोगों की सिद्धि के लिए पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में 'औ' आदेश तथा परवर्ती ओ- औँ का लोप हो जाता है। पाणिनि ऐसे स्थलों में अवर्ण तथा ओ या औ दोनों के ही स्थान में औकार रूप वृद्ध्यादेश करते हैं | पूर्वोक्त सूत्रों की तरह यहाँ भी दो स्वरों के स्थान में एक स्वरादेश करने की अपेक्षा एक ही स्वर के स्थान में स्वरादेश करना अधिक युक्तियुक्त प्रतीत होता है |
[विशेष] 'परोखति, बिम्बोष्ठः, अद्योम्, सोम्, प्रोषधीयति' आदि शब्दों की सिद्धि के लिए वृत्तिकार ने अनेक वार्त्तिकवचन दिए हैं | जिनसे कहीं अवर्ण का लोप हो जाने के कारण औकारादेश नहीं हो पाता, तो 'अक्षौहिणी' में 'ओ-औ” के परवर्ती न रहने पर भी 'अ' के स्थान में औ आदेश हो जाता है । व्याख्याकारों ने अनेक वार्तिकवचन दिए हैं - 'इणेधत्योर्न, नामधातोर्वा, ओष्ठोत्वो: समासे वा” इत्यादि ।
[रूपसिद्धि] १. तबौदनम् । तव + ओदनम् (अ+ ओ)। वकारोत्तरवर्ती 'अ' के स्थान में औ आदेश तथा परवर्ती ओ का लोप | २. सौपगवी। सा+ औपगवी (आ+ औ)। सकारोत्तरवर्ती आ के स्थान में औं आदेश तथा परवर्ती औ का लोप |
इसके “गड्जौघः, सौत्कण्ठ्यम्' आदि भी उदाहरण प्रसिद्ध हैं ॥३०। १.
पतञ्जलिप्रणीते महाभाष्ये वचनमिदं नोपलभ्यते ।
सन्धिप्रकरणे दितीयः समानपादः
१४७
३१. इवर्णो यमसवर्ण न च परो लोप्यः (१।२।८) [सूत्रार्थ] इवर्ण के स्थान में यकारादेश होता है, यदि इवर्ण से परवर्ती स्वर सवर्णसंज्ञक
नं हो । परन्तु यहाँ परवर्ती वर्ण का लोप नहीं होता है।॥३१।
[समीक्षा] 'दधि+अत्र, नदी + एषा' आदि स्थिति में कलाप तथा पाणिनीय दोनों ही व्याकरणों के अनुसार असवर्ण स्वर के पर में रहने के कारण इवर्ण (इ-ई) के स्थान में यकारादेश उपपन्न होकर 'दध्यत्र, नद्येषा' शब्दरूप निष्पन्न होते है। इन दोनों व्याकरणों मेंअन्तर यह हैकि पाणिनि के सूत्र - “इको यणचि?? (पा० ६।१।७७) द्वारा इक् के स्थान में यण् आदेश विहित है । इकू चार है- 'इ-उ-ऋ-छू'। यणू भी चार है- 'य्-वू-र्-ल्' । इ के स्थान में यू, उ के स्थान में वू, ऋ के स्थान में र् तथा ठू के स्थान में ळू ही आदेश हो - एतदर्थ “यथासंख्यमनुदेशः समानाम्
(पा० १।३।२०; काला० परि० सू० २३) सूत्र बनाया गया है । अन्यथा किसी भी इकू के स्थान में कोई भी यणादेश प्रवृत्त हो सकता था । इवर्ण के १८, उवर्ण के १८, ऋवर्ण के १८ तथा ढुवर्ण के १२ भेद होने के कारण इक् ६६ होते हैं तथा यू के २, र का १, लू के २ एवं वू के २ भेद होने से यण् ७ ही है ।
सन्धिप्रकरणे दितीयः समानपादः
१५१
इस प्रकार इक् के स्थान में यण् आदेश का आन्तरतम्य सिद्ध नहीं हो पाता | इसके समाधानार्थ वर्णसमाम्नाय में पठित प्रत्येक वर्ण को हीआधार मानना पड़ता है | 'इको यण्' इस निर्देश में अल्पशब्दप्रयोग की दृष्टि से शब्दलाघव तो कहा जा सकता है, परन्तु उक्त समग्रबोध के लिए जो पर्याप्त आयास करना पड़ता है, उसकी अपेक्षा तो कलाप का ही सूत्रपाठ सरल कहा जा सकता है । जिसमें इवर्ण के स्थान में यकारादेश-हेतु एक स्वतन्त्र सूत्र है। इसी प्रकार उवर्ण के स्थान में वकारादेश-हेतु, ऋवर्ण के स्थान में रकारादेश-हेतु एवं ठूवर्ण के स्थान में लकारादेश-हेतु पृथकू-पृथक् सूत्र है।
[विशेष] सूत्र १।२।१ (२४) से सूत्र- सं० १।२।७ (३०) तक परवर्ती वर्ण का लोप भी करना पड़ता है, परन्तु इस सूत्र में उसका शब्दोल्लेखपुरस्सर निषेध किया गया है |
[रुपसिद्धि] १. दध्यत्र |दधि+अत्र (इ+अ)। परवर्ती असवर्ण स्वर अ के होने पर पूर्ववर्ती इ के स्थान में यूआदेश तथा परवर्ती अ के लोप का निषेध | २. नघेषा ।|नदी + एषा (ई+ ए) | असवर्ण स्वर एके पर में होनेसे पूर्ववर्ती ई के स्थान में यकारादेश तथा परवर्ती ए के लोप का निषेध | इस विधि के सुध्युपास्यः आदि कुछ उदाहरण पर्याप्त प्रसिद्ध हैं ॥३१|
३२. वमुवर्णः (१।२।९) [सूत्रार्थ] असवर्ण स्वर के पर में रहने पर पूर्ववर्ती उवर्ण के स्थान में वकारादेश होता है, परन्तु परवर्ती वर्ण का लोप नहीं होता ।।३२। [दु० वृ०]
उवर्णो वमापद्यते असवर्णे, न च परो लोप्य: | मध्वत्र, वध्वासनम् |।३२|
इति | यवौ पुनरीषत्पृष्टतरी ।। ३२। [समीक्षा] 'मधु+अत्र, वधू+ आसनम्’ इस स्थिति में कलाप तथा पाणिनीय दोनों ही व्याकरणों के अनुसार असवर्ण स्वर के परवर्ती होने से पूर्ववर्ती उवर्ण के स्थान में वकारादेश होता है। मुख्य अन्तर सूत्ररचना का है, क्योंकि पाणिनि ने एक ही “इको यणचि” (पा० ६।१।७७) सूत्र द्वारा चारों इकू के स्थान में यणादेश
किया है और कलापकार ने चार सूत्रों द्वारा |एकत्र शब्दलाघव है तो अन्यत्र अर्थलाघव | अधिक विवेचना के लिए सूत्र सं० ३१ की समीक्षा द्रष्टव्य है ।
[रूपसिद्धि] १. मध्वत्र। मधु + अत्र (उ+ अ) |असवर्ण स्वर अके पर में रहनेसे पूर्ववर्ती उ के स्थान में वू आदेश तथा परवर्ती वर्ण के लोप का निषेध | २. बध्वासनम्। वधू+आसनम् (ऊ+ आ) । असवर्ण स्वर आ के परवर्ती
होने पर पूर्ववर्ती ऊ के स्थान मेंवकारादेश तथा परवर्ती वर्ण के लोप का निषेध || ३२।
३३. रम् ऋवर्णः (१।२।१०) [सूत्रार्थ] असवर्ण स्वर के परवर्ती होने पर ऋवर्ण के स्थान में रकारादेश हो जाता है और परवर्ती वर्ण का लोप नहीं होता है।।३३।
[दु० वृ०] क्रवर्णो रम् आपद्यते असवर्णे, न च परो लोप्य: | पित्रर्थः, क्रर्थः || ३३ | [समीक्षा]
पाणिनि तथा शर्ववर्मा दोनों के ही अनुसार 'पितृ + अर्थः' इस स्थिति में ऋकार के स्थान में रकारादेश होता है, परन्तु शर्ववर्मा ने अर्थलाघव का अवलम्बन लिया है- पृथकू-पृथकू सूत्र बनाकर | ऋवर्ण के भी स्थान में रकारादेश-विधायक स्वतन्त्र सूत्र है, जबकि पाणिनि ने ऋकारादि चारों इकू के स्थान में यकारादि चारों
सन्धिप्रकरणे दितीयः समानपादः
१५३
यण् का विधान एक ही सूत्र में किया है । इससे पाणिनीय व्याकरण के निर्देश में शब्दलाघव अवश्य सन्निहित है, परन्तु अर्थबोध के लिए पर्याप्त प्रयल की अपेक्षा
होती है | अर्थबोध में सौकर्य की दृष्टि से कछाप का निर्देश अधिक उपयोगी कहा जा सकता है।
[रूपसिद्धि] १. पित्रर्थः | पितृ + अर्थः (ऋ+ अ) | असवर्ण स्वर अ के परवर्ती होने पर ऋ के स्थान में र् आदेश तथा परवर्ती अ के लोप का निषेध ।
२. क्रर्थः। कृ+अर्थः (क्ू+अ)। असवर्ण स्वर अ के पर में रहने पर पूर्ववर्ती क्रकार के स्थान में रकारादेश तथा परवर्ती वर्ण के लोप का निषेध । इसके धात्रशः आदि प्रसिद्ध उदाहरण द्रष्टव्य हैं।॥३३।
३४. छम् ठृवर्णः (१।२।११) [सूत्रार्थ] असवर्ण स्वर के पर में रहने पर ढुवर्ण के स्थान में लकारादेश होता है, परन्तु परवर्ती वर्ण का लोप नहीं होता ॥३४।
[दु० ३०] ठृवर्णो लम् आपद्यते असवर्णे, न च परो लोप्यः। छनुबन्धः, लाकृतिः || ३४। [वि० प०]
[समीक्षा] पाणिनि तथा शर्ववर्मा के अनुसार 'छू+ अनुबन्धः, छू + आकृतिः' इस दशा में छू के स्थान में लकारादेश होता है। परन्तु शर्ववर्माचार्य द्वारा इसके विधानार्थ
किए गए स्वतन्त्रसूत्रनिर्देश से अर्थावबोध में जो सरलता होती है, वह पाणिनि द्वारा किए गए इकारादि चार इकू के स्थान में यकारादि चार यणू-विधान से नहीं ।उसके सम्यकू अवबोधार्थ अतिरिक्त प्रयल करना पड़ता है ।अत : कलापव्याकरण की सूत्ररचना सरलतया अर्थावबोधिका होने के कारण अधिक उपयोगिनी कही
जा सकती है।
[रूपसिद्धि] १. लनुबन्धः। ठू+ अनुबन्धः (ठू + अ) असवर्ण अ के पर में होने के कारण पूर्ववर्ती ठू के स्थान में लकारादेश तथा परवर्ती अ-वर्ण कै लोप का निषेध | २. लाकृतिः |ठ + आकृतिः (ठु+ आ) | आ - वर्ण यहाँ असवर्ण तथा परवर्ती है । अतः पूर्ववर्ती छू के स्थान में लकारादेश तथा परवर्ती आ- के लोप का निषेध || ३४।
३५. ए अयू !१।२।१२) [सूत्रार्थ] असवर्ण स्वर के पर में रहने पर पूर्ववर्ती एकार के स्थान में 'अय्' आदेश होता है, परन्तु परवर्ती वर्ण का लोप नहीं होता है ॥३५|
सम्धिप्रकरणे दितीयः समानपादः
१५५
[दु० १०] एकारोऽय् भवति असवर्णे, न च परो लोप्यः | नयति, अग्नये ॥३५। [दु० री०]
[समीक्षा] 'ने+अति, अग्ने + ए' इस स्थिति मेंकलाप तथा पाणिनीय दोनों ही व्याकरणों के अनुसार 'ए” के स्थान में 'अय्' आदेश होता है, परन्तु दोनों की सूत्ररचनापद्धति में पर्याप्त अन्तर है । पाणिनीय व्याकरण में 'ए-ऐ-ओ-औ' इन चार वर्णो के स्थान
मेंक्रमश: 'अय्-आय्-अव्-आव्' आदेश एक ही सूत्र दवारा निर्दिष्ट हैं - ““एचोऽयवायाबः'” (पा० ६।१।७८) | इस निर्देश में शब्दराघव होने पर भी ज्ञानगौरव है, क्योंकि 'एच्' प्रत्याहार को तथा उसमें आने वाले 'ए-ओ-ऐ-औ' इन वर्णो के स्थान में क्रमशः अयादि आदेशों की उपपन्नता को समझने में कुछ कठिनाई अवश्य ही होती है |इसकी अपेक्षा कलाप में जो एकारादि चार वर्णो के स्थान में अयादि चार आदेश करने के लिए चार सूत्र बनाए गए हैं, उनमें शब्दलाधव न होने पर भी अर्थलाघव अवश्य है, क्योंकि इससे अर्थावबोध सरलतया उपपन्न हो जाता है ॥ ३५।
[रूपसिद्धि] १. नयति। ने+ अति (ए+अ)। असवर्ण अ के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती ए के स्थान में अयू आदेश तथा परवर्ती अ के लोप का निषेध होता है।
सन्धिप्रकरणे दितीयः समानपादः
१५७
२. अग्नये। अग्ने+ए (ए+ए)। यहाँ ए के पर में होने पर भी पूर्ववर्ती ए के स्थान में अय् आदेश होता है तथा परवर्ती ए का लोप नहीं होता है |
[विशेष] यहाँ 'असवर्ण' की अनुवृत्ति करने पर 'अग्नये' में सूत्र प्रवृत्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि पर में यहाँ ए ही हैऔर इसीलिए कुछ व्याख्याकार 'असवर्ण' शब्द की अनुवृत्ति नहीं भी मानते है । कुछ व्याख्याकार कहते हैं कि 'असवर्ण' की अनुवृत्ति न होने पर यह आदेश अनिमित्तक हो जाएगा | ऐसा न हो सके, अतः असवर्णानुवृत्ति करनी चाहिए | असवर्णानुवृत्ति करने पर 'अग्नये' में जो यह आशङ्का होती है कि यहाँ तो जिस ए को अयू आदेश करना है उससे परवर्ती वर्ण भी 'ए' ही है। इसके समाधानार्थं यह समझना चाहिए कि 'ए' आदि ४
सन्ध्यक्षर वर्णों की सवर्णसंज्ञा ही नहीं होती, क्योंकि सवर्णसंज्ञा तो समानसंज्ञक वर्णों की ही होती है और समानसंज्ञा अ से लेकर टू पर्यन्त दश वर्णो की ही निर्दिष्ट है- “दश समानाः” (१।१।३)।।३५।
३६. ऐ आय् (१।२।१३) [सूत्रार्थ] असवर्ण वर्ण के परवर्ती रहने पर पूर्ववर्ती 'ऐ' के स्थान में “आय्' आदेश होता है, परन्तु परवर्ती वर्ण का लोप नहीं होता |।३६।
दि० १०] ऐकार आय् भवति असवर्णे, न च परो लोप्यः। नायकः ! रायैन्द्री ॥ ३६।
[समीक्षा] “ठो -- अनम, पटो ओतुः' इस दशा में कलाप तथा पाणिनीय दोनों के ही अनुसार ओ के स्थान में अव् आदेश प्रवृत्त होता है, परन्तु कठापव्याकरण की सूत्ररचनापद्धति में जो सरलता सन्निहित है, तदर्थ सूत्र-सं० ३६ की समीक्षा द्रष्टव्य है || ३७।
[रूपसिद्धि] १. लवणम्। लो + अनम् (ओ-- अ) । परवर्ती अ के असवर्ण स्वर होने पर पूर्ववर्ती ओ के स्थान में अव् आदेश तथा परवर्ती वर्ण के लोप का अभाव | २. पटबोतुः। प्रटो + ओतुः (ओ + ओ) | असवर्ण स्वर ओ के पर में रहने पर पूर्ववर्ती ओ के स्थान में अव् आदेश, अथच परवर्ती ओ के लोप
का अभाव ॥३७|
सन्धिप्रकरणे द्वितीयः समानपादः
१५९
३८. औ आव् (१।२।१५)
[सूत्रार्थ] असवर्ण स्वर के पर में रहने परऔ को आव् आदेश होता है तथा परवर्ती वर्ण का लोप नहीं होता ॥३८।
[दु० बृ०] औकार आवू भवति असवर्णे, न च परो लोप्य: |गावौ, गावः ।एतेषु विसन्धिः
[समीक्षा] *गौ--औ' तथा 'गौ+अस्' ऐसी स्थिति में पाणिनि और शर्ववर्मा दोनों ही आचार्य औ के स्थान में 'आव्' आदेश करते हैं, परन्तु कछाप की सूत्ररचनापद्धति से जो सरलता उपपन्न होती है, उसका विवेचन उक्त सूत्रों की समीक्षा में द्रष्टव्य है |
[विशेष] वृत्तिकार दुर्गसिंह ने कहा है कि “अवर्ण इवर्णे ए- ए अयू-औ आव्” आदि सूत्रों को जो पृथक् रूप में पढ़ा गया है तथा उनमें सन्धि नहीं की गई है, वह १.
केवल स्पष्टावबोध के लिए ही समझना चाहिए ।यह भी ज्ञातव्य है कि सन्धि अनेकत्र विवक्षानुसार ही होती है |जैसे - गो" अजिनम्' इस स्थिति में 'गो$जिनमू' तथा “गवाजिनम्' ये दो रूप देखे जाते हैं |इसी प्रकार 'गो+अक्षः, गो + इन्द्र:' की दशा में गवाक्षः तथा गवेन्द्र: रूप निष्पन्न होते हैं । व्याख्याकारों केकुछ विचार अवश्यमननीय हैं । जैसे - त्रिमुनि में उत्तरोत्तर की प्रामाणिकता, संहिता की नित्य तथा वैकल्पिक प्रवृत्ति आदि ।
[रूपसिद्धि] १. गावौ । गौ + औ (औ+ औ) | असवर्ण औ के पर में रहने पर पूर्ववर्ती औ के स्थान में आव् आदेश होता है तथा परवर्ती औ का लोप नहीं होता । २. गावः | गौ+अस् (औ+अ)। यहाँ असवर्ण अ के बाद में रहने के कारण पूर्ववर्ती औ के स्थान में आवू आदेश तथा परवर्ती अके लोप का निषेध ।।३८।
३९. अयादीनां यवलोपः पदान्ते नवालोपे तु प्रकृतिः (१1 २1 १६) सूत्रार्थ] पदान्तवर्ती अय्-आय्-अव्-आव् आदेशों में विद्यमान यू तथा वू का विकल्प से लोप होता है । लोप होने पर पुनः उनमें कोई स्वरसन्धि नहीं होती । अर्थात् उनकी प्रकृति सुरक्षित रहती है ॥३९।
सति लोपे तु प्रकृतिरित्यत्रानुवृत्तावुत्तत्र अत एवानुवृत्तिरिति कथं तर्हि एवं न कृतमिति चेद् आस्तामेवं सुद्ददुपदेशः |यथा सन्निवेशे तु न वैयर्थ्यमिति ।
(काठा० परि० १५) इत्यतः अकारे लोपम् (२।१।१७) इत्यकारलोप इत्यपि बोद्धव्यम् ॥३९। [समीक्षा] 'तय्+आहुः, तस्माय्+आसनम्, असावू+इन्दुः’ इस स्थिति में दोनों ही व्याकरणों के अनुसार विकल्प से पदान्तवर्ती यू-व् वर्णों का लोप होता है । लोपपक्ष में दीर्घ-गुणादि कार्य नहीं होते |इस प्रकार “तयाहु:- त आहुः, तस्मायासनम्तस्मा आसनम्, असाविद्धु:- असा इन्दुः’ आदि दो-दो रूप सिद्ध होते हैं |इस प्रकार कार्य की दृष्टि से दोनों व्याकरणों में विषमता प्रतीत नहीं होती, परन्तु जहाँ कलापकार ने लोप का वैकल्पिक निर्देश किया है, वहीं पर पाणिनि ने शाकल्य के मत में लोप दिखाया है। कलापक्कार ने इस लोपविधायक सूत्र में ही लोपपक्ष में प्राप्त सन्धि के निषेधार्थ प्रकृतिभाव कहा है, परन्तु पाणिनि यू-वू का लोप हो जाने पर दीर्घादि सन्धि के वारणार्थ उन्हें असिद्ध मानते हैं- पूर्वत्रासिद्धम् (८।२।१),
सन्धिप्रकरणे द्वितीयः समानपादः
१६७
जिससे यू-व् का व्यवधान उपस्थित होता है और फलतः दीर्घादि सन्धि नहीं होती ।
[विशेष] सूत्र मेंयू-वू के लोप का कोई निमित्त नहीं बताया गया है |पाणिनीय व्याकरण मेंलोपविधायक '“छोपः शाकल्यस्य” (पा० ८।३।१९) सूत्र में “ भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि’? (पा० ८।३।१७) इस सूत्र से अशि' पद की अनुवृत्ति की जाती है, अतः निमित्त निश्चित हो जाता है। कलाप-सूत्रकार तथा वृत्तिकार आदि ने जो इसकी आवश्यकता नहीं समझी, उससे यह अनुमान किया जा सकता है कि पदान्त में 'यू-व्” आदिष्ट होकर तभी आते हैंजब स्वरवर्ण पर में होता है |किसी स्वर के परवर्ती न होने पर एकारादि के स्थान में अयादि आदेश नहीं होते और इस प्रकार पदान्त में यू-व् वर्ण नहीं मिल पाते । अतः “स्वरे? यह निमित्तबोधक पद न होने पर भी लोप करने में कोई कठिनाई प्रतीत नहीं होती ।
[रूपसिद्धि] १. त आहुः, तयाहुः। तय् + आहुः (य्+ आ) | पदान्तवर्ती य् का लोप होने पर प्रकृतिभाव हो जाने के कारण “त आहुः” रूप निष्पन्न होता है | लोपाभावपक्ष में “तयाहुः' । २. तस्मा आसनम्, तस्मायासनम् |तस्माय् + आसनम् (य्+ आ) |पदान्तवर्ती यू का लोप एवं उसका प्रकृतिभाव होने पर तस्मा आसनम् तथा लोपाभाव-पक्ष में तस्मायासनम् । पट इह, पटविह |पटवू + इह (व्+ इ) ।पदान्तवर्ती व्का लोप तथा प्रकृतिः भाव हो जाने पर पट इह | लोप न होने पर पटविह । ४. असा इन्दुः, असाविन्दुः |असाव्+इन्दुः (व्+ इ) ।पदान्तवर्ती व् का लोप एवं प्रकृतिभावपक्ष में असा इन्दु: ।लोप न होने पर 'असाविन्दुः' शब्दरूप सिद्ध होता है ॥३९।
४. एदोत्परः पदान्ते लोपमकारः (१।२।१७) [सूत्रार्थ] पदान्त ए-ओ सै परवर्ती अकार का लोप होता है ॥४०।
वृत्तिः। हे अम्ब ! इत्यत्रैव विवक्षितश्च सन्धिर्भवतीति वचनात् सन्धिर्भविष्यतीति हेमकरः । तन्न, तन्तरान्तरेष्वदृष्टत्वात् || ४०। [समीक्षा] 'ते+अत्र, परो +अत्र' इस स्थिति में कलाप के निर्देशानुसार पदान्तस्थ ए-
ओ से परवर्ती अकार का लोप हो जाता है | वर्तमान लेखनपद्धति के अनुसार उस लुप्त अकार के अवबोधार्थ रोमनलिपि के वर्ण 5 को वहाँ योजित कर लिखा जाता है- तेऽत्र ।इस चिह्न को सम्प्रति पूर्वरूपचिह्न कहते हैं ।पाणिनीयव्याकरण के अनुसार “एङः पदान्तादति” (पा० ६।१।१०९) सूत्र द्वारा पदान्तवर्ती ए-ओ तथा अग्रिम हस्व अकार के स्थान में पूर्वरूप एकादेश होता है । अर्थात् अकार वर्ण अपने से पूर्ववर्ती एकार अथवा ओकार में समाहित हो जाता है । उसके अवगमार्थ लगाए जाने वाले 5 चिह्न को पूर्वरूपचिह्न कहा जाता है| इस प्रकार लिपि में समानता होने पर भी साधन-पद्धति में जो अन्तर दृष्ट है, तदनुसार प्रक्रिया-बोध में सरलता की दृष्टि से कलाप-प्रक्रिया को ही सरल कहना होगा, क्योंकि वस्तुतः अकार का वहाँ दर्शनाभाव ही होता है, अतः उसका लोप करना ही अधिक समीचीन है । क्योंकि यहाँ अन्तादिवद्भाव करने की कोई आवश्यकता उपस्थित नहीं होती है“अन्तादिवच्च” (६।१।८५) ।
[रूपसिद्धि] १. तेऽन्र। ते+अत्र (ए+अ)। पदान्तवर्ती ए के बाद आने वाले अकार का लोप | २, पदोऽत्र। पटो +अत्र (ओ+अ)। पदान्तवर्ती ओ के पश्चात् पठित
अकार का लोप ॥४०।
४१, न व्यञ्जने स्वराः सन्धेयाः (१।२।१८) [सूत्रार्थ] व्यञ्जनवर्ण के पर में रहने पर स्वरवर्णो में कोई सन्धि नहीं होती है ॥४१।
[समीक्षा] “देवी + गृहम्, पडु + हस्तम्’ इत्यादि स्थलों में पाणिनीय व्याकरण के अनुसार इवर्णादि कै स्थान में यकारादि आदेश प्राप्त ही नहीं होते, क्योंकि “इको यणचि? (पा० ६।१।१७) सूत्र में स्पष्टतया 'अच्' शब्द का पाठ किया गया है | इसके अतिरिक्त “तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य, तस्मादितयुत्तरस्य’? (पा० १।१।६६, ६७) परिभाषासूत्र भी पठित हैं | कातन्त्रकार का सूत्र है- “इवर्णो यमसवर्णे न च परो ठोप्पः (१।२।८)। यहाँ 'स्वरे’ शब्द का पाठ नहीं है। ऐसा होने पर यदि १,
द्विवचनमनौ (१।३।२)।
सन्धिप्रकरणे दितीयः समानपादः
१७५
सवर्णव्यवहार स्वर के ठिए ही मान लिया जाए, क्योंकि सवर्णसंज्ञा स्वरवर्णो की ही होती है तो सवर्णसंज्ञक स्वरों से भिन्न अर्थात् असवर्ण स्वरों के परवर्ती होने
पर यकारादि आदेश होंगे और व्यञ्जनवर्णो के पर में रहने पर नहीं । इस स्थिति मेंतो प्रकृत सूत्र कीकोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती, परन्तु कुछ विद्वान् असवर्णशब्द का अर्थ करते हैं- स्वभावतः विसदृश (विषम) । इस अर्थ को स्वीकार कर लेने पर असवर्ण व्यञ्जनवर्ण के भी परवर्ती होने पर यकारादि आदेश प्राप्त हो सकते हैं, उनके वारणार्थ इस सूत्र को बनाना आवश्यक है । इस सूत्र के कारण 'देवी+ गृहम्' में “इबर्णो यमसवर्णे न च परो लोप्यः”! (१।२।८) सूत्र से ईकार का यकारादेश, 'पटु + हस्तम्” में “बमुवर्णः” (१।२।९) सूत्र से 'उ' को “व्” आदेश, “मातृ + मण्डलम्' में “रम् ऋवर्णः’? (१।२।१०) सूत्र से क्र को र् आदेश, 'जले+पद्मम्' में “ए अय्” (१।२।१२) सूत्र सेए को अयू आदेश, रै+धृति: में “ऐ आय” (१।२।१३) सूत्र से ऐ को आय् आदेश, वायो + गतिः” में “औ आबू” (१।२।१५) सूत्र से औ को आव् आदेश नहीं होता है । व्याख्याकारों के अनुसार आचार्य शर्ववर्मा ने इस सूत्र की रचना केवल मन्दबुद्धि वाले शिष्यों के ही अवबोधार्थ की है । अतः इस पर आक्षेप नहीं किया जा सकता । यह भी ध्यातव्य है कि “पित्र्यम्, गव्यम्, गव्यूतिः’ आदि ऐसे शब्दो में भी
सन्धि होती है, जिनमें व्यञ्जनवर्ण ही परवर्ती हैं |पाणिनीय व्याकरण में 'र्-अव्' आदेशों के विधानार्थं पृथक् सूत्र बनाए गए हैं। कलापव्याकरण में नञा निर्दिष्टमनित्यम्? (काला० परि० ३७) परिभाषा के बढ़ से इस विधि को अनित्य मानकर रकारादि आदेश किए गए हैं।
[रूपसिद्धि] समीक्षा के अन्तर्गत प्रस्तुत विवरण के अनुसार 'देवी+ गृहम्? आदि में स्वरसन्धि का निषेध हो जाता है तथा 'पित्र्यम्' (पितृ + यम्), गव्यूतिः (गो + यूतिः) में “नजा निर्दिष्टमनित्यम्'” (काला० परि० ३७) परिभाषा के अनुसार क्रमशः *रमृवर्णः' (१।२।१०) से रकारादेश तथा “ओ अबू” (१।२।१४) से अवादेश उपपन्न हो जाता है ||४१ | ॥ इति प्रथमे सन्धिप्रकरणे समीक्षात्मको दितीयः समानपादः समाप्तः॥
ख
अथ प्रथमे सन्धिप्रकरणे तृतीयः ओदन्तपादः ४२. ओदन्ता अ इ उ आ निपाताः स्वरे प्रकृत्या (१।३।१) [सूत्रार्थ] स्वरवर्ण के परवर्ती होने पर ओकारान्त निपात तथा अ, इ, उ, आ इन चार निपातों का भी प्रकृतिभाव होता है ||४२। [दु० वृ०]
ओदन्ता निपाता अ-इ-उ-आशच केवलाः स्वरे परे प्रकृत्या तिष्ठन्ति |नो अत्र, अहो आश्चर्यम्, अथो एवम्, अ अपेहि, इ इन्द्रं पश्य, उ उत्तिष्ठ, आ एवं कि मन्यसे, आ एवं नु तत् । एषामिति किम् ? नवाउ | अन्तग्रहणमकारादीनां केवलार्थम्,
तर्हि 'गीर्वाहीकोऽस्ति, गां वाहीकमानय' औत्वम् आत्वं च न स्यात्, अर्थाश्रयो हि शब्दानां गौणमुख्यव्यवहारो वाक्यव्यवस्थायामेव सम्भवति, शब्दमात्रा्रितम् औत्वम् आत्वं च स्यादेव । अ इ उ आ इति।
[समीक्षा] 'नो+अत्र, अहो + आश्चर्यम्, अ+ अपेहि, इ + इन्द्रं पश्य' आदि स्थलों में पाणिनीय व्याकरण के अनुसार ओकारान्त तथा एकाच् निपातों की प्रगृह्य संज्ञा होती है (अ० १।१।११-१५), तदनन्तर
“प्लुतप्रगृह्या अचि नित्यम्’? (पा०
६।१।१२५) से प्रगृह्यसंज्ञक का प्रकृतिभाव होता है |कातन्त्रकार विना ही प्रगृह्यसंज्ञा किए निपातों का प्रकृतिभाव करते हैं। इससे स्पष्टतः पाणिनीय-प्रक्रिया में गौरव तथा कलाप की प्रक्रिया में लाघव सन्निहित है ।
[विशेष] 9. “आ' निपात को भिन्न-भिन्न अर्थो में सानुबन्ध और निरनुबन्ध दो प्रकार का माना गया है |
[रूपसिद्धि] 'नो+अत्र, अहो + आश्चर्यम्, अथो +एवम्, अ+अपेहि, इ+इन्द्रं पश्य, उ +उत्तिष्ठ,+आ + एवम्' इन ७ स्थलों में प्रकृतसूत्र से प्रकृतिभाव होता है |अतः
'नो 4 अत्र, अहो + आश्चर्यम्, अथो + एवम्” में “ओ अव्” (१।२।१४) सूत्र से अव् आदेश 'अ+अपेहि, इ + इन्द्र पश्य, उ + उत्तिष्ठ’ में “समानः सवर्णे दीर्घीभवति,
परश्च लोपम्’? (१।२।१) से सवर्णदीर्घ - परलोप तथा 'आ+एवम्' में “एकारे ऐ ऐकारे च” (१।२।६) से ऐकारादेश - परलोप नहीं होने पाता ॥|४२॥।
१८२
कातन्वव्याकरणमू
४३. दिवचनमनौ (१।३।२) [सूत्रार्थ] स्वर वर्ण के पर में रहने पर उस द्विवचन का प्रकृतिभाव होता है जोऔरूप से भिन्न हो| अर्थात् द्विवचन “औ' रूपान्तर को प्राप्त हो गया हो ।।४३।
वर्तत एवेति | ततश्च स्वरः स्वरान्तं द्विवचनमित्यर्थः ||४३। [समीक्षा] “अग्नी एती, पटू इमौ, शाले एते, माले इमे’ आदि स्थलो में अग्नि-पटु-शाला और माला शब्दों से प्रथमा-विभक्तिद्विवचन 'औ प्रत्यय के आने पर 'इ-उ' आदेश तथा सवर्णदीर्घ या गुण प्रवृत्त होता है। उनसे पर में स्वरादि सर्वनामों के रहने पर पाणिनीय व्याकरण के अनुसार पहले इनकी प्रगृह्यसंज्ञा होती है- “ईहूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम्’? (पा० १।१।११) और तब ““प्हुतप्रगृह्या अचि नित्यम्’? (पा०
६।१।१२५) से प्रकृतिभाव | कातन्त्र के अनुसार किसी संज्ञा के विना सीधै ही जो प्रकृतिभाव करके उक्ती रूपों की सिद्धि की जाती है, उससे लाघवप्रतीति स्पष्ट है | प्रकृतिभाव की व्यवस्था न होने पर “अग्नी एतौ' में “इवर्णो यमतवर्णे न च परो लोप्यः” (१।२।८) से
सन्धिप्रकरणे तृतीयः ओदन्तपादः
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ई को य् आदेश, 'पटू इमौ' में “बमुबर्णःः (१।२।९) से ऊ को व् आदेश एवं “शाले एते, माले इमे' में “ए अय्” (१।२।१२) सूत्र से ए को 'अय्' आदेश हो जाता |
[विशेष]
सूत्रस्थ 'अनी' पद में नञ् को पर्युदास मानने के कारण और पर्युदास के तद्भिन्न-तत्सदृशग्राही होने से 'अयजावह्यावाम्’ तथा 'देवयोरत्र मेंप्रकृतिभाव नहीं होता है।ज्ञातव्य है कि 'वहि' एवं “ओस्” प्रत्यय द्विवचन में होते हैं, परन्तु 'औ'रूप नहीं हैं | अतः इनका औ से भिन्न सिद्ध होने पर भी 'औ' से सादृश्य उपपन्न नहीं होता |फलतः यहाँ प्रकृतिभाव की प्रवृत्ति भी नहीं होती । पर्युदास तथा प्रसज्यप्रतिषेध के क्रमिक लक्षण इस प्रकार हैं| प्राधान्यं तु विधेर्यत्र निषेधे चाप्रधानता। पर्युदासः स॒ विज्ञेयो यत्रोत्तरपदे न नज ॥ अप्राधान्यं
विधेर्यत्र प्रतिषेधे प्रधानता ।
प्रसज्यप्रतिषेधोऽसौ क्रियया सह यत्र नजू॥ ४३
[रूपसिद्धि] १. अग्नी एतौ | अग्नि+औ | “औकारः पूर्वम्” (२।१।५१) से औ को इ, “समानः सवर्णे दीर्घीभवति परश्च लोपम् से इ को दीर्घ ई, परवर्ती औ को लोप | तदनन्तर 'एतौ' के आने पर प्रकृत सूत्र से प्रकृतिभाव । २. पटूइमौ |पटु + औ !“औकारः पूर्वम् (२।१।५१) से औ को उ, “समानः सवर्णे दीर्घीभवति परश्च लोपम्” (१।२।१) से पूर्ववर्ती उ को ऊ तथा परवर्ती
औ का लोप | इमौ से सम्बन्ध किए जाने पर प्रकृतिभाव | ३. शाले एते | शाला + औ | “औरीम्” (२।२।९) से औ को ई, “अवर्ण इवर्णे ए” (१।२।२) से आ को ए तथा औ का छोप। 'एते' शब्द के पर में
आने पर प्रकृतिभाव । ४. माले इमे | माला + औ | “औरीम्” (२।२।९) से औ को ई, “अवर्ण इवर्णे ए” (१।२।२) से आ को ए तथा औ का लोप । 'इमे' शब्द के संबद्ध होने पर प्रकृतिभाव |
|
१८८
कातन्त्रव्याकरणम्
प्रकृतिभाव होने के कारण “अग्नी एतौ' में ई को य्, 'पटू इमौ' में ऊ को व्, 'शाले एते-माले इमे' में ए को अय् आदेश नहीं होता |
४४. बहुवचनममी (१।३।३) [सूत्रार्थ] किसी स्वर के परवर्ती होने पर बहुवचन 'अमी” रूप का प्रकृतिभाव होता
[समीक्षा] १. पाणिनि के अनुसार 'अमी ईशा: आदि स्थलों में “अदसो मातू” (१।१।१२) से प्रगृह्यसंज्ञा और उसका “प्लुतप्रगृह्या अचि नित्यम्’? (६।१।१२५) से प्रकृतिभाव होता है, जबकि कलाप के अनुसार विना ही प्रगृह्यसंज्ञा किए यहाँ प्रकृतिभाव निर्दिष्ट है । अतः प्रक्रिया की दृष्टि से कलापकार ने लाघव दिखाया है |
सन्धिप्रकरणे तृतीयः ओदन्तपादः
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२. कलाप के सूत्र में बहुवचन का निर्देश स्पष्ट है, अतः प्रकृत सूत्र केवल “अमी' में ही प्रवृत्त होता है, “अमू' में नहीं ।पाणिनि ने “ईदूदेदू द्विवचन प्रगृह्यम्?” (१।१।११) में द्विवचन का उल्लेख किया है ।परन्तु “अदसो मातू” (१।१।१२) में नहीं । फलतः उससे 'रामकृष्णावमू आसाते” में भी प्रगृह्यसंज्ञा करनी पड़ती है | ‘अमुकेऽत्र’ में प्रगृह्यसंज्ञा न हो- एतदर्थ 'मातू' पद भी पढ़ना पड़ता है। कलाप में द्विवचन तथा बहुवचन शब्द का स्पष्ट उल्लेख है एवं बहुवचन के साथ 'अमी' रूप भी पठित है । जिससे 'अमुकेऽत्र' में प्रकृतिभाव होने का अवसर ही नहीं है | प्रकृतिभाव का विधान न होने पर यहाँ “इवर्णो यमसबर्णे न च परो लोष्यः'” (१।२।८) से ई के स्थान में यूआदेश हो जाता ।'अम्यत्र” में'अमी' शब्द बहुवचनान्त नहीं है | 'अम” शब्द से “इन्' प्रत्यय होने पर निष्पन्न 'अमी” शब्द को 'अत्र' के साथ मिलाने पर उक्त सूत्र से यकारादेश हो जाता है।
[रूपसिद्धि] १. अमी अश्वाः |अदस् + जस् ।“'त्यदादीनाम विभक्तौ” (२।३।२९) से स् को अ, “जस् सर्व इ:” (२।१।३०) से जस् को इ, “अवर्ण इवर्णे’ ए” (१।२।४५) से दू को म् तथा “एद् बहुत्वे त्वी” (२।३।४२) से ए को ई | 'अमी+ अश्वाः’ में प्रकृतिभाव । २. अमी एडकाः | अदस्+जस् । "पूर्ववत् 'अमी' रूप सिद्ध | 'एडकाः' से सम्बन्ध होने पर प्रकृत सूत्र से प्रकृतिभाव ||४४।
४५, अनुपदिष्टाश्च (१।३।४) [सूत्रार्थ] वर्णसमाम्नाय में उपदिष्ट न होने वाले प्छुतों का स्वरों के परवर्ती होने पर प्रकृतिभाव होता है ।।४५।
[दु० वृ०]
|
ये चाक्षरसमाम्नायविषये व्यक्त्या नोपदिष्टाः, जात्या तु स्वरसंज्ञिताः प्छुतास्ते
७ [समीक्षा] पाणिनीय और कलाप दोनों ही व्याकरणों में प्छुत का प्रकृतिभाव किया गया
है, स्वर के पर में रहने पर | यहाँ विशेष ज्ञातव्य यह है कि पाणिनिने त्रिमात्रिक अच् की प्छुतसंज्ञा मानी है- *“ऊकालो$5ज्स्बदीर्धप्ठुतः!'? (पा० १।२।२७), परन्तु कलापचन्द्रकार सुषेण विद्याभूषण के अनुसार कहीं पर भी प्लुत को त्रिमात्रिक नहीं दिखाया गया है । अतः दीर्घ को ही प्लुत मानना चाहिए |
[विशेष] सामान्यतया पाणिनीय व्याकरण के अतिरिक्त भी प्रायः व्याकरणशास्त्र में प्लुत को त्रिमात्रिक ही माना जाता है । एक विवरण के अनुसार तो प्लुत को चतुर्मात्रिक भी मानने के लिए कहा गया है |विशेषतः ए और ओ जब प्लुत होते हैंतो उनके विषय में प्छुत को चतुर्मात्रिक भी मानना उचित हो सकता है , परन्तु वहाँ सिद्धान्त त्रिमात्रिक प्लुत का ही स्थापित किया जाता है। कलापचन्द्रकार ने प्लुत के स्वरूपत उपदेश की बात कहकर उसे स्वीकार नहीं किया है ।वस्तुतः ऐसा होने पर भी यजु प्रातिशाख्य आदि में उसे जो स्वरूपतः त्रिमात्रिक के रूप में पढ़ा गया है, उसे देखकर तो कलापचन्द्रकार का वचन प्रमादपूर्ण ही कहा जा सकता है ।।४५। ॥ इति प्रथमे सन्धिप्रकरणे समीक्षात्मकस्तृतीयः ओदन्तपादः समाप्तः ॥ छ १.
अथ प्रथमे सन्धिप्रकरणे चतुर्थो वर्गपादः ४६. वर्गप्रथमाः पदान्ताः स्वरघोषवत्सु तृतीयान् (१।४।१) [सुतार्थ] स्वर तथा घोषसंज्ञक वर्णो के परवर्ती होने पर पदान्त में वर्तमान वर्गीय प्रथम वर्णो के स्थान में तृतीय वर्ण हो जाते हैं ॥४६।
[समीक्षा] कलाप व्याकरण के अनुसार पद के अन्त में वर्तमान वर्गीय प्रथम वर्णों (कू च् ट् त् प्) के स्थान में क्रमशः तृतीय वर्ण (गू ज् डू दू ब्) हो जाते हैं, यदि स्वरसंज्ञक वर्ण (अ आ, इ ई, क्र क्रू, लू छू, ए ऐ, ओ औ) अथवा घोषसंज्ञक वर्ण (गू घू ड्,जूझू जू, इृढ णू, दू ध् नू, ब्भूम्,य्र॒ढ्वूह)परमें रहें तो । पाणिनीय व्याकरण के अनुसार “झढाँ जशोऽन्ते” (८।२।३९) सूत्र प्रवृत्त होता है |इसके अर्थ को जानने के लिए सर्वप्रथम झल-जश् 'प्रत्याहारों का सम्यग
ज्ञान तथा स्थान-प्रयल-`विवेक अपेक्षित होता है, और इस प्रकार पाणिनीय प्रक्रिया में अधिक कृत्रिमता के कारण दुर्बोधता अधिक प्रतीत होती है, जबकि कलापीय प्रक्रिया में लोकव्यवहार का आश्रय लिए जाने से सरलता हो सकती है।
[रूपसिद्धि] १. बागत्र | ‹वाक्+ अत्र! । यहाँ पदान्तस्थ 'क्' वर्ण कवर्गीय प्रथम वर्ण है, उससे पर में 'अ” स्वर विद्यमान है |अतः प्रकृत सूत्र से कू के स्थान में गू आदेश तथा गू का अ-स्वर के साथ सम्मेलन किए जाने पर 'वागत्र” प्रयोग निष्पन्न होता है | २. षटू गच्छन्ति | षट् + गच्छन्ति’ |यहाँ टवर्गीय प्रथम वर्ण “ट्' पद के अन्त में स्थित है और घोषसंज्ञक 'गू' परवर्ती है।अतः उसके निमित्त से 'ट्' के स्थान में डू आदेश उपपन्न होता है ।।४६।
४७. पञ्चमे पञ्चमांस्तृतीयान् नवा (१।४।२)
[सूत्रार्थ] पदान्तस्थ वर्गीय प्रथम वर्णो के स्थान में विकल्प से पञ्चम तथा तृतीय वर्ण होते हैं, वर्गीय पञ्चम वर्णो के परवर्ती होने पर ।।४७। १. वर्णसमाम्नाय सूत्र (१४), प्रत्याहारविधायक तथा इतू-छोप-विधायक सूत्रों के ज्ञान के
अनन्तर ही किसी प्रत्याहार का बोध होता है । २. झल् २४ वर्ण हैं जब कि जश् केवल ५ ही | स्थान किसी भी वर्ग के सभी वर्णों का एक ही होता है|स्पृष्ट प्रयल कू से लेकर मू तक के सभी वर्णो का है ।अतः बाह्य प्रयत्न अल्पप्राण
की समानता से प्रथम के स्थान में तथा संवार-नाद - घोष की समानता से चतुर्थ के स्थान में जशू होता है |
चतुर्थो भवतीत्यर्थः |यदू वा समीपलक्षणेयं षष्ठी । कृतस्यादिचतुर्थस्य समीपे प्रथमो भवतीत्यर्थः । व्यवस्थितबिभाषयेत्यादि |ननु कथं व्यवस्थितविभाषेयमुच्यते, तृतीयग्रहणबलादुभयोरपि विकल्प: कथन्न स्यात् ?सत्यम् ।तृतीयानिति भिन्नविभक्तिनिर्देशात् । प्रत्यय इति | प्रत्ययपञ्चमे तृतीयो न व्यवस्थितः इति न वर्तते इति भाव: | तेन प्रत्ययपञ्चमे चेति नित्यार्थं न वक्तव्यम् |ननु स्थितेऽपि तृतीयग्रहणे व्यवस्थितविभाष॑या वाग्मीति कथं प्रत्ययपञ्चमे नित्यं पञ्चमः। प्रशंसायां “बाचो ग्मिन् !” इति प्रत्यये गकार उच्चारणार्थ इति तस्मात् तृतीयग्रहणं न क्रियताम् |यथाभिधानमेवाश्रय इत्याह - यदीति ||४७।
[समीक्षा] . कलापकार ने 'वाकू+ मती' तथा “तत् + नयनम्’ इस अवस्था में कू के स्थान में गू तथा इ आदेश करके 'वाग्मती-वाङ्मती' एवं त् के स्थान में दू-न् आदेश करके 'तदूनयनम्-तन्नयनम्' शब्दरूप सिद्ध किए हैं। पाणिनि ने वैकल्पिक अनुनासिक-विधान से इन रूपों का साधुत्व बताया है- “*यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको बा” (अ० ८।४।४५) । पाणिनि का संज्ञापूर्वक यह निर्देश सुखार्थं माना जाता है । “अनुनासिक” एक महती संज्ञा है, जिससे उसकी अन्वर्थता सिद्ध होती है। फलतः वर्गीय पञ्चम वर्णो का स्थान कण्ठादि तथा नासिका भी सिद्ध होता है | सूत्रनिर्देश के अनुसार यर-प्रत्याहार तथा अनुनासिकसंज्ञा के अर्थावगम-हेतु अवश्य
ही कुछ अतिरिक्त प्रयत्न करना पड़ता है, जिससे पाणिनीय निर्देश गौरवाधायक कहा जा सकता है। १.
वाचो ग्मिनिः (पा० ५।२।१२४) |
सन्धिप्रकरणे चतुर्थो वर्गपादः
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[रूपसिद्धि] १-२. तथा पञ्चम ३-४. वर्ण डू तथा
बाङ्मती - वाग्मती | वाक्+ मती ।प्रकृत सूत्र से कू को तृतीय वर्ण ग् वर्ण ङ आदेश । षण्मुखानि = षड्मुखानि |षट् + मुखानि । प्रकृत सूत्र -द्वारा ट्को तृतीय पञ्चम वर्ण णू आदेश |
५-६. तन्नयनभ्-तद्नयनम् |तत् + नयनम् ।प्रकृत सूत्र सै त् को तृतीय वर्ण द् तथा पञ्चम वर्ण न् आदेश | ७-८. ब्रिष्टुम्मिनोति - त्रिष्टुबमिनोति |त्रिष्टुप्+मिनोति । प्रकृत सूत्र - द्वारा पू को तृतीय वर्ण बू तथा पञ्चम वर्ण म् आदेश ।।४७।
४८, वर्गप्रथमेभ्यः शकारः स्वरयवरपरश्छकारं नवा (१।४।३) [सूत्रार्थ] पदान्तस्थ वर्गीय प्रथम वर्णो से परवर्ती शकार के स्थान मेंछकारादेश विकल्प से होता है, यदि उस शकार के बाद मेंस्वर-य-व-र में से कोई वर्ण हो तो ।। ४८।
[समीक्षा] पाणिनि का एतद्विषयक सूत्र है - “शश्छोऽटि” (८।४।६३)। इसके अनुसार पदान्तस्थ झय रो परवर्ती शकार के स्थान में छकारादेश होता है यदि अदू प्रत्याहार पर में हो तो ।ज्ञातव्य है कि पाणिनि के अनुसार 'झयू' प्रत्याहार में वर्गीय प्रथममद्वितीय-तृतीय तथा चतुर्थ वर्ण (कुल २० वर्ण) सम्मिलित होते हैं,परन्तु “तच्छिवः रूप की सिद्धि के लिए प्रायः 'तद् + शिवः”स्थिति में श्चुत्व से दू के स्थान में ज्
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कातन्त्रब्याकरणम्
तथा “खरि च”
(८।४।५४) से चर्त्वविधि-द्वारा 'च् आदेश करने के बाद ही
“शश्छोडटि' (८।४।६३) से छकारादेश करना पड़ता है । यदि श्चुत्व के बाद ही (चर्च से पूर्व) छकारादेश कर लिया जाए, तो भी वर्गीय प्रथम - तृतीय वर्णों से परवर्ती शकार के स्थान में छकारादेश उपपन्न हो जाता है, झयू प्रत्याहारस्थ सभी वर्णो से परवर्ती शूकार के स्थान में नहीं । दूसरे यह कि 'अट्' प्रत्याहार में स्वर-य-व-र से अतिरिक्त 'ह' वर्ण भी पठित है । ह के निमित्त होने पर छकारादेश का कोई उदाहरण नहीं देखा जाता । इस प्रकार पाणिनि के सूत्रनिर्देश में स्पष्टता प्रतीत नहीं होती । उसके सम्यग् ज्ञानार्थ पर्याप्त व्याख्यान कीआवश्यकता होती है । इसके विपरीत कलापकार शर्ववर्मा के सूत्रनिर्देश में अधिक स्पष्टता के कारण उसमें अर्थराघव सन्निहित है, जिससे ज्ञानगौरव नहीं हो पाता ।
[विशेष] वाकृश्लक्ष्णः, तच्छमशानम्” आदि प्रयोगों में भी कुछ आचार्य शकार के स्थान में छकारादेश करना चाहते हैं | उसे ध्यान में रखकर वृत्तिकार दुर्गसिंह ने कहा है- ““लानुनासिकेष्वपीच्छन्त्यन्ये |तदनुसार 'वाकूछ्रूक्ष्णः, तच्छुमशानम्” भी शब्दरूप साधु माने जाएँगे |पाणिनीय व्याकरण में भी कात्यायन का एतादूश वचन है- “छत्वममीति वाच्यम्’ |
[रूपसिद्धि] १. बाकृछूरः - वाकुशूरः | वाक्+ शूरः । वर्गीय प्रथम वर्ण कू से परवर्ती तथा स्वर ऊसे पूर्ववर्ती श् को छ आदेश विकल्प से | २. षटू छूयामाः- षटू श्यामाः | षट् + श्यामाः ।वर्गीय प्रथम वर्ण ट् से परवर्ती तथा यू से पूर्ववर्ती शू को वैकल्पिक छ् आदेश । ३. तच्छूवेतम् - तच्श्वेतम् | तत्+श्वेतम् । वर्गीय प्रथम वर्ण त् से परवर्ती तथा वूसे पूर्ववर्ती शू को वैकल्पिक छ आदेश | ४. ब्रिष्ठुप् छुतम् - त्रिष्टुपृश्रुतम् | त्रिष्टुप् + श्रुतम् | वर्गीय प्रथम वर्ण प् से परवर्ती तथा र्से पूर्ववर्ती शू को वैकल्पिक छ् आदेश । ५. वाक्श्लक्ष्णः-बाक्छूलक्ष्णः। वाकू+ श्लक्ष्णः | वर्गीय प्रथम वर्ण कू से परवर्ती तथा ठू से पूर्ववर्ती शू को वैकल्पिक छ्आदेश- 'वाकूछलक्ष्णः' । “'लानुनासिकेष्वपीच्छन्त्यन्ये |
सन्धिप्रकरणे चतुर्थो वर्गपादः
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६. तच्छूमशानम्-तच्छमशानम् |तत् + श्मशानम् ।वर्गीय प्रथम वर्ण त्से परवर्ती श् को वैकल्पिक छू आदेश - तच्छूमशानम् । “लानुनासिकेष्वपीच्छन्त्यन्ये । वस्तुतः कातन्त्र के अनुसार लू- अनुनासिक के पर में रहने परे शूको छ्
आदेश नहीं होता है (द्र०, पञ्जी- १।४।६) ।।४८।
४९. तेभ्य एव हकारः पूर्वचतुर्थ नवा (१।४।४) [सूत्रार्थ] उन्हीं पदान्तवर्ती वर्गीय प्रथम वर्णो से परवर्ती हकार के स्थान में पूर्वचतुर्थ वर्ण आदेश विकल्प से होता है ||४९।
पूर्वश्रुतस्तस्यैव चतुर्थो भविष्यतीति चेत्, प्रतिपत्तिरियं गरीयसीति || ४९ | [समीक्षा] कलापकार के अनुसार 'वाकू+ हीनः, अच् + हलौ, षटू + हलानि , तत् + हितम्, ककुप् +हासः' इस स्थिति में हकार से पूर्ववर्ती कू, चू, टू, त् तथा प् वर्ण पठित हैं |इनके चतुर्थ वर्ण क्रमशः घ्, झू, ढू, ध् तथा भू होते हैं। ये ही वर्ण हकार
के स्थान में आदेशतः प्रवृत्त हो जाते हैं, जिससे 'वाग्धीनः, अज्झलौ, षड्ढलानि, तद्धितम्, ककुब्मासः' शब्दरूप सिद्ध होते हैं । पाणिनि के निर्देशानुसार हकार के स्थान में पूर्वसवर्णा देश प्रवृत्त होता है । सावर्ष्यज्ञान के लिए स्थान तथा प्रयलों को मिछाना पड़ता है । आभ्यन्तर प्रयलों
से कार्यसिद्धि न होने पर बाह्यप्रयलों का भी आश्रय लेना पड़ता है। इसीलिए “वाकू+ हरिः’ इस स्थिति में घोषवान्, नादवान्, महाप्राण तथा संवृत प्रयल वाले हकार का सवर्ण वर्गीय चतुर्थ वर्ण घ् सिद्ध होता है । फलतः 'वाग्घरिः? प्रयोग निष्पन्न हो पाता है ।इसी प्रकार अन्यवर्गीय वर्णो के भी संबन्ध मेंसमझना चाहिए ।
सन्धिप्रकरणे चतुर्थो वर्गपादः
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इससे पाणिनीय व्याकरण के अनुसार सावर्ण्यज्ञान का जो विशेष उद्यम करना पड़ता
है, उससे शब्दसिद्धि मेंकुछ कठिनाई ही उपस्थित होती है, सरलता नहीं |पाणिनीय सूत्रनिर्देश में झय् प्रत्याहार का पढ़ा जाना भी असौकर्य का बोधक है- “भझयो होऽन्यतरस्याम्’? (पा० ८/४/६२) ||
[रूपसिद्धि] १. बाग्धीनः | (वाकू+ हीनः) । प्रकृत सूत्र से ह् के स्थान में घ् आदेश तथा ““बर्गप्रथमाः पदान्ताः स्वरघोषवत्सु तृतीयान्?’ (१/४/१) सूत्र से कू के स्थान में वर्गीय तृतीय वर्ण गू होने पर 'वाग्धीनः” शब्दरूप निष्पन्न होता है | २-५. अज्झलौ (अच्+हलौ), षइढलानि (षट्+ हलानि), तद्वितम् (तत्+हितम्), ककुब्भासः (ककुप् + हासः) |
इनकी सिद्धि के लिए प्रकृत सूत्र से हू के स्थान में पूर्ववर्ती वर्गीय वर्णो के चतुर्थ वर्ण (झू, ढू, धू, भू) तथा (कात० १/४/१) सूत्र से वर्गीय प्रथम वर्णो के स्थान में तदूवर्गीय तृतीय वर्ण आदेश के रूप में करने पड़ते हैं || [विशेष] सूत्रकार ने सूत्र में 'एव' शब्द का उपादान किसी तृतीय मत के निरासार्थ किया है | तृतीय मत प्रायः पाणिनीय आदि व्याकरणों में देखा जाता है |कातन्त्रकार उसे स्पष्टरूप में स्वीकार नहीं करना चाहते |अतः “एव' पद से उसी का निषेध करना उन्हें अभीष्ट है- ऐसा वृत्तिकार के उल्लेख से समझना चाहिए । कुछ विद्वानों के विचार से 'अज्झलौ' प्रयोग में “चबर्गटूगादीनां च (२/३/ ४८) से चकार के स्थान में गकारादेश हो जाना चाहिए, क्योंकि उसकी प्राप्ति का कोई निषेधक नहीं है |इस प्रकार यदि गकारादेश हो जाए तो प्रकृत सूत्र (तेभ्य एव हकारः पूर्वचतुर्थं न वा - १/४/४) से 'ह' के स्थान में 'घ' आदेश उपपन्न होगा । ऐसी स्थिति में 'अज्झलौ' शब्दरूप सिद्ध नहीं किया जा सकता, उसका साधुत्व अक्षुण्ण रूप में बनाए रखने के लिए विद्वानों का यह उत्तर द्रष्टव्य हैसाहचर्याच्चवर्गस्य क्विबन्तेन द्रृगादिना। अज्झलादौ न गत्वं स्याजू ज्ञापकं च सिजाशिषोः॥ (द्र०, वं०, भा०)
२१०
कातन्यब्याकरणम्
अर्थात् ““चबर्गट्रयादीनां च”” (२/३/४८) सूत्र में 'दृग्' शब्द क्विबन्त है, उसके साहचर्य से ऐसे ही चवर्ग के स्थान में गकारादेश होगा जो क्विबन्त या तादृश अन्य शब्द हो | यहाँ 'अच्' शब्द क्विबन्त नहीं है।अतः गकारादेश भी नहीं होता है |फलतः 'अज्झलौ” का साधुत्व निर्बाध बना रहता है।
इस सूत्र में किए गए 'नवा' शब्दग्रहण के विषय में भी इस प्रकार विचार किया गया है कि पूर्व सूत्र सेही 'नवा' की अनुवृत्ति यहाँ सुलभ है, अतः इस सूत्र में नवा' शब्द नहीं पढ़ना चाहिए | यदि यह कहा जाए कि उत्तर सूत्र में “नवा” की अनुवृत्ति के निषेधार्थ नवा' पद पढ़ा गया है तो फिर यह शङ्का होती है कि “पञ्चमे पञ्चमांस्तृतीयान् नवा’ (१/४/२) इस सूत्र से 'नवा' पद की अनुवृत्ति निर्बाध होने पर भी पुनः अग्रिम सूत्र “ वर्गप्रथमेभ्यः शकारः स्वरयवरपरेश्छकार न वा”?
(१/४/३) में 'नवा' पद पढ़ने की क्या आवश्यकता है।
इस पर यह निर्णय किया जाता है कि यहाँ दो विभाषाओं के मध्य में पठित विधि को नित्य मानने के लिए ऐसा किया गया है-““उभयोर्विभाषयोर्मध्येयो विधिः स नित्यः’? (काला० परि० ७८) | फलतः “बर्गप्रथमेभ्यः शकारः स्वरयवरपरश्छकारं न बा! (१/४/३) यह विधि नित्य मानी जा सकती है ||४९ |
५, परूपं तकारो ल-च-टवर्गेषु (१।४।५) [सूत्रार्थ] पदान्तवर्ती तकार को पररूप होता है यदि उस तकार के बाद छू, चवर्गीय या टवर्गीय वर्ण विद्यमान हों ।।५०।
इति गत्वं न स्यात् ।न च 'असिद्वं बहिरङ्गम् अन्तरङ्गे’ (कात० परि० सू० ३५) इति न्यायादेव गत्वं न स्यादिति वाच्यम्, समासाश्रयत्वेन गत्वस्यैव बहिरङ्गत्वात् । यद्येवम्,
अत एव पररूपग्रहणातू 'तज्झासयति' इत्यत्र पदान्ते धुटां प्रथमोऽपि न स्यात् ।नैवम्, धुरामिति बहुवचनस्य व्यक्त्यवधारणार्थत्वात् । तथा च तत्र टीकायाम् उक्तम्, धुटामिति व्यक्तिरवशेषग्राहिणीत्याचष्टे | यद् वा लाक्षणिकत्वादेव गत्वाभावः सिद्धः। न च वर्णविधौ लक्षणप्रतिपदोक्तयोरिति
२१२
कातन्त्रन्याकरणसू
उपतिष्ठते इति वाच्यम्, तस्य प्रायिकत्वात्। तथा च हशषछान्तेजादीनां डः”?
(२।३।४६) इत्यत्र टीकायामुक्तं प्रायो वर्णविधिष्विति प्रायोग्रहणम् उक्तम् । न च नजिइप्रत्ययस्य लाक्षणिकत्वात् तृष्णगिति न सिध्यतीति वाच्यम्, दृगादिसाहचर्याच्चवर्गस्य लिङझ्झसंज्ञाकालीनस्य ग्रहणात्, तस्माद् गुरुकरणं स्पष्टार्थमिति वरम् उत्तरम् | ननु तकारम् अपहाय तवर्ग इति कृते “जझज०?” (१।४।१२) इत्यत्र जकारकरणं “इढणपर०'१ (१।४।१४) इत्यत्र णकारग्रहणं “हे लम्?” (१।४।११) इति च वचनम् अकरणीयं स्यात् । न च 'भवांश्चरति' इत्यादावपि पररूपं स्यादिति वाच्यम्, ““नोऽन्तः'? (१।४।८) इत्यादिभिराघ्रातत्वात् । अथ “प्रशान् चरति’ इत्यत्र पररूपप्रसङ्गः स्यादिति चेत्, न | व्यवस्थितवाधिकारात् । तर्हि सुखार्थम् इति न दोषः | सुखार्थम् इति न तुष्यतीति चेत्, अहो रे पाण्डित्यम्, सुखादन्यः कः पदार्थो गरीयानिति |। ५०।
[समीक्षा] “तत् + छुनाति, तत्+ चरति, तत्+ छादयति’ आदि स्थिति में कलापकार के निर्देशानुसार पदान्तवर्ती तकार को पररूप होता है | अतः यदि पर में छ् वर्ण होगा तो त् को भी ठ आदेश हो जाएगा । फलत: 'तल्छुनाति' आदि प्रयोग निष्पन्न होंगे ।
पाणिनीय व्याकरण के अनुसार चवर्ग के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती त् को चू आदेश (स्तोः श्चुना श्चुः ८।४।४०), टवर्ग के परवर्ती होने पर त् को ट् आदेश (ष्टुना ष्टुः ८।४।४१) तथा लकार के परवर्ती होने पर लकारादेश प्रवृत्त होता है (तोर्लि ८।४।६०) |
इस प्रकार पाणिनीय निर्देश में तीन सूत्रों के होने से शब्दगौरव स्पष्ट है । परन्तु इन शब्दों की साधुत्वप्रक्रिया के परिमाण में समानता इसलिए कही जा सकती है कि कलापकार के अनुसार 'तच्छादयति, तज्झासयति' इत्यादि प्रयोगों में तकार के स्थान में छकारादेश (पररूप) करने के बाद “*पदान्ते धुटां प्रथमः”? (३।८।१)
सूत्र से छु के स्थान में च् आदेश भी करना पड़ता है और पाणिनीय प्रक्रिया के अनुसार 'तज्जयति, तङ्डीनम्' इत्यादि स्थलों में तू के स्थान में ““झलां जशोऽन्ते?? (८।२।३९) सै द् आदेश करने के बाद ही श्चुत्व या ष्टुत्व होगा (स्तो: श्चुना श्चुः ८।४।४०, ष्टुना ष्टुः ८।४।४१}।
सन्धिप्रकरणे चतुर्थो बर्गपादः
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[रुपसिद्धि] १. तल्लुनाति | “तत्+लुनाति' इस अवस्था में प्रकृत सूत्र से त् के स्थान में छू आदेश होता है | इसी प्रकार 'तत्+चरति' में त् के स्थान में च् होने पर तच्चरति, 'तत् + जयति' में त् को ज् आदेश होकर “तज्जयति', 'तत् + अकारेण’ में तू को ञ् होकर “तञ्जकारेण' एवं “तत्+ टीकनम् मेंतू के स्थान में टू आदेश, 'तत्+डीनम्' में तू के स्थान में डू आदेश, 'तत्+ णकारेण” में तू के स्थान में ण् आदेश होने पर क्रमशः 'तट्टीकनम्, तड्डीनम्, तण्णकारेण' शब्दरूप सिद्ध होते हैं । परन्तु 'तत्+छादयति’ में तू को छू आदेश, “तत् - झासयति” में तू को झू आदेश 'ततू+ठकारेण' में त् को ठ् आदेश तथा 'तत्+ढौकते' में तू को ढू आदेश करने के बाद "पदान्ते धुटां प्रथमः” (३।८।१) से तत्तद्वर्गीय प्रथम वर्ण एवं वर्गीय चतुर्थ वर्णो के परवर्ती रहने पर “वर्गप्रथमाः पदान्ताः स्वरघोषवत्सु तृतीयान्” (१।४।१) से प्रथम वर्ण के स्थान में तृतीय वर्ण आदेश हो जाता है |
[विशेष] “तद् + जयः, दूशदू + लेखा, ज्ञानबुध्+ टीकनम्” में द् तथा ध् वर्णो के होने से यह आशङ्का हो सकती है कि यहाँ प्रथम वर्ण तकार की अनुपस्थिति होने पर पररूप कैसे हो सकता है | पररूप न होने पर अभीष्ट शब्दों की सिद्धि नहीं होगी । इसके समाधान में वृत्तिकार दुर्गसिंह ने कहा है कि ऐसे सभी स्थलों में सर्वप्रथम ““पदान्ते धुटां प्रथमः’? (३।८।१) से तकारादेश होगा और तब प्रकृत सूत्र से पररूप करने पर 'तज्जयः, दृशल्लेखा, ज्ञानभुट्टीकनम्” रूप निष्पन्न होंगे ||५०।
५१, चं शे (१।४।६) [सूत्रार्थ] पदान्तवर्ती तकार के स्थान में चकारादेश होता है शकार के परवर्ती होने पर || ५१ |
[समीक्षा] कातन्त्रव्याकरण तथा पाणिनीय व्याकरण के भी अनुसार 'तत् + श्लक्ष्ण:' तथा “तत् + श्मशानम्’ इस स्थिति में 'त्' के स्थान में 'चू' आदेश होकर 'तच्श्लक्ष्ण:' एवं 'तच्शमशानम्’ रूप निष्पन्न होते हैं |अन्तर यह है कि कळापव्याकरण में 'त्' के स्थान में 'च्' आदेश करने का निर्देश है, जब कि पाणिनीय व्याकरण में तवर्ग के स्थान में चवर्गा देश का विधान किया गया है (स्तो: श्चुना श्चुः ८।४।४०)। ज्ञातव्य है कि शकार के परवर्ती होने पर पूर्व में तवर्ग के सभी वर्ण किन्हीं उदाहरणं में यदि देखे जाएँ, तब तो तवर्ग के स्थान में चवर्गा देश का विधान समीचीन कहा जा सकता है, परन्तु व्याख्याकारों ने इस प्रकार के उदाहरण प्रस्तुत नहीं किए हैं । अतः ऐसे स्थलों में तो तू के स्थान में च् आदेश का ही विधान उचित कहा जाएगा, जैसा कि कलापकार का प्रकृत सूत्र है- “चं शे” |
[विशेष] “तत् + श्लक्ष्णः, तत्+ श्मशानम्’ आदि स्थलों में ““बर्गप्रथमेभ्यः शकारः स्वरयवरपरश्छकारं न वा” (१।४।३) सूत्र सेशकार को छकारादेश, ““पररूपं तकारो
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कातन्त्रव्याकरणम्
लचटवर्गेषु'’ (१।४।५) से तू को छ आदेश तथा “अघोषे प्रथमः’? (२।३।६१)
से पदान्तवर्ती छको च् आदेश करके भी 'तच्छ्लक्ष्ण:, तच्छूमशानम्' रूपों का साधुत्व दिखाया जा सकता है तो फिर पदान्तवर्ती तकार के स्थान में चकारादेश-विधायक प्रकृत सूत्र को बनाने की क्या आवश्यकता है ? इसका समाधान इस प्रकार किया जाता है - शकार को छकारादेश विकल्प से होता है (१।४।३) | अतः छकारादेश न होने पर उक्त प्रक्रिया भी नहीं दिखाई जा सकती |
इसी पक्ष को ध्यान मेंरखकर आचार्य शर्ववर्मा ने यह सूत्र बनाया है।प्रश्नोत्तर के रूप में यह चर्चा इस प्रकार निबद्ध हुई है-
चं शे सूत्रमिदं व्यर्थ यत् कृतं शर्ववर्मणा। तस्योत्तरपदं ब्रूहि यदि वेत्सि कलापकम् ॥ १। मूढधीस्त्वं न जानासि छत्वं किल विभाषया। यत्र पक्षे न च छत्वं तत्र पक्षे त्विदं बचः॥२। कुछ विद्वानों का यह भी विचार है कि यदि ““पररूपं तकारो ठ-च-टवर्गेषु”? (१।४।५) में 'श' को भी पढ़ दिया जाए तो तू को पररूप शू होगा और उस शकार के स्थान में “स्थानेऽन्तरतमः”? (कात० परि० सू० १७; का० परि० सू० २४) न्यायवचन के अनुसार “पदान्ते धुटां प्रथमः’? (३।८।१) से चकारादेश करके भी 'तच्छलक्ष्णः, तच्छमशानम्' रूप सिद्ध किए जा सकते हैं (द्र०, बं० भा०) ।
[रूपसिद्धि] १. तच्श्लक्ष्णः |तत्+ शलक्ष्णः। शकार को छकार आदेश न किए जाने पर प्रकृत सूत्र से तू को च् आदेश ।
२. तच्श्मशानम् | तत् + श्मशानम् । छकारादेश के अभाव पक्ष में प्रकृत सूत्र से त् को च् आदेश ॥ ५१ |
५२. इणना हस्वोपधाः स्वरे दिः (१।४।७) [सूत्रार्थ ङ्, णू तथा न्वर्णो का द्वित्व होता है, यदि वे पदान्तवर्ती हों |उनसे पूर्ववर्ती वर्ण हस्व स्वर हों एवं उनसे पर में स्वर वर्ण हों। यहाँ 'हस्वोपधा:' शब्द से इ-
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णू-न् जिन पदों के अन्त में हों उन पदों की उपधा में स्थित हस्व वर्ण लेना चाहिए, जो इ-ण-न् वर्णौ से पूर्ववर्ती ही होंगे ॥५२।
[समीक्षा] 'कुडू- अत्र, सुगण्+अत्र, पचन्-अत्र' इस अवस्था में कलापकार हस्व उपधा वाले 'इ-ण्-न् वर्णो का दित्व करके क्रुड्डत्र, सुगण्णत्र, तथा पचन्नत्र शब्दरूपों की सिद्धि करते हैं । पाणिनि के अनुसार यहाँ क्रमशः झुट्'णुटू-नुट् आगम् होते है- “डमो हस्वादचि उमुण नित्यम्” (८।३।३२) | इन आगमों के टित् होने के कारण “आदन्ती टकिती'” (१।१।४६) परिभाषासूत्र, इतूसंज्ञाविधायक तथा लोपविधायक सूत्रो की भीआवश्यकता होती है । इसके परिणामस्वरूप पाणिनीय प्रक्रिया में दुरूहता और गौरव सुस्पष्ट है, जब कि कातन्त्रीय प्रक्रिया में सरलता और लाघव | यदि सूत्ररचना पर ध्यान दिया जाए तो भी पाणिनि की शब्दावली क्लिष्ट प्रतीत होती है । क्योंकि पहले तो 'ङमू' प्रत्याहार का ज्ञान, तदनन्तर उसके अन्त में 'उटू' पठित होने से उसका डइ-ण्-न् के साथ अन्वय करके डुट्-णुटू-नुट् यह अर्थ करना सरलता का परिचायक नहीं हो सकता ।
[रूपसिद्धि] 'कुडू-- अत्र, सुगण् +अत्र, पचन् +अत्र’ इस स्थिति में पदान्तवर्ती 'इ्-णून्’ वर्णा काद्वित्व होनेपर क्रमशः क्रुङ्झत्र, सुगण्णत्र, पचन्नत्र” शब्द सिद्ध होते हैं। ५२॥
५३. नोऽन्तश्चछयोः शकारमनुस्वारपूर्वम् (१।४।८) [सूत्रार्थ] पदान्तवर्ती नकार के स्थान में अनुस्वारपूर्वक शकारादेश होता है यदि च-छ वर्ण पर में रहें तो ॥५३।
[समीक्षा] “भवानू+ चरति, भवान् +छादयति, भवान्+च्यवते, भवान्+छ्यति’ इस अवस्था में पाणिनीय प्रक्रिया के अनुसार "'नश्छब्यप्रश्ान्?? (८।३।७) से नकार के स्थान में रु आदेश, “अत्रानुनासिकः पूर्वस्य तु वा? (८।३।२) से वैकल्पिक अनुनासिक, पक्ष में "अनुनासिकात् परोऽनुस्वारः”” (८।३।४) से अनुस्वारागम, “खरबसानयोर्विसर्जनीयः” (८।३।१५) सेविसर्गा देश,“*विसर्जनीदस्य सः?” (८।३।३४) से विसर्ग को सकार तथा “स्तोः श्चुना श्चुः” (८।४।४०) से शकारादेश होने पर 'भवाँश्चरति, भवांश्चरति, भवाँश्छादयति , भवांश्छादयति' शब्दरूप सिद्ध होते हैं ।
कातन्त्रीय प्रक्रिया के अनुसार न्के स्थान में केवळ अनुस्वारपूर्वक श् आदेश किए जाने पर ही उक्त रूपों की निष्यत्ति मानी जाती है। दोनों प्रक्रियाओं में से पाणिनीय प्रक्रिया विस्तृत होने के कारण दुर्बोध भी हो सकती है, परन्तु कातन्त्रीय
प्रक्रिया में संक्षेप और सरलता सन्निहित होने से लाघव स्पष्ट है |
[विशेष] १. “तेभ्य एव हकारः पूर्वचतुर्थं न वा” (१।४।४) इस सूत्र में पठित 'वा' को व्यवस्थितविभाषा के रूप में माने जाने के कारण “प्रशान् चरति” इत्यादि में
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कातस्त्रव्याकरणभू
न्को अनुस्वारपूर्वक शकारादेश नहीं होता ।अग्रिम “टठयो: षकारम्, तथयोः सकारम्” (१।४।९,१०) सूत्रों में भी व्यवस्थितविभाषा के आश्रयण से 'प्रशाण्टीकते, प्रशान्तरति' में मूर्धन्य षकार तथा दन्त्य सकारादेश न् के स्थान में प्रवृत्त नहीं होते । २. प्रकृतसूत्रपठित “अन्त” शब्द का अर्थ ‘विरति’ या 'अवसान' माना जाता है, जिसके फलस्वरूप “त्वन्तरसि में न् के स्थान में अनुस्वारपूर्वक सकारादेश नहीं होता । वस्तुतः इसे तथयोः सकारम्” (१।४।१०) सूत्र की व्याख्या में दिखाया जाना चाहिए ॥।
[रूपसिद्धि] १ - ४. भवांश्चरति, भवांश्छादयति, भवांश्च्यवते, भवांश्छ्यति । भवान् + घरति, भवान्+छादयति, भवान्+च्यवते, भवानू+छ्यति’ स्थिति में न् के स्थान में अनुस्वारपूर्वक शू आदेश ।।५३।
५३. ठठयोः षकारम् (१।४।९) [सूत्रार्थ] पदान्तवर्ती नकार के स्थान में अनुस्वारपूर्वक मूर्धन्य षकारादेश होता है ट-ठ वर्णों के पर में रहने पर || ५४।
[समीक्षा] “भवान् + टीकते, भवान् + ठकारेण” इस अवस्था में कातन्त्रकार न्के स्थान में अनुस्वारपूर्वक षू आदेश करके 'भवांष्टीकते, भवांष्ठकारेण' आदि शब्दरूप सिद्ध “करते हैं। पाणिनि के अनुसार यहाँ भी न् को रु, रु को विसर्ग, विसर्ग को सू,
सन्धिप्रकरणे चतुर्थो चर्गपादः
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स् को ष् आदेश तथा अनुस्वार-अनुनासिक प्रवृत्त होते हैं ।अतः सं० ५३ की तरह यहाँ भी पाणिनीय प्रक्रिया गौरवपूर्ण है।॥ [रूपसिद्धि] १ , भवांष्टीकते |भवान् + टीकते ।पदान्तवर्ती नकार को अनुस्वारपूर्वक मूर्धन्य षकारादेश | २. भवांष्ठकारेण |भवान्+ठकारेण | ठकार के पर में रहने पर पदान्तवर्ती
नकार को अनुस्वारपूर्वक मूर्धन्य षकारादेश ।।५४।
५५. तथयोः सकारम् (१।४।१०) [सूत्रार्थ] त-ध के पर में रहने पर पदान्त नकार को अनुस्वारपूर्वक सकारादेश होता है॥ ५५।
[समीक्षा] 'भवान्+ तरति, भवान् + थुडति' आदि स्थलों में कलापकार न् के स्थान में ही साक्षात् अनुस्वारपूर्वक स्-आदेश करते हैं ।इसी प्रकार 'भवांस्तरति, भरवास्थुडति' प्रयोग सिद्ध होते है |पाणिनि के अनुसार न् के स्थान में रु आदेश, रु के स्थान में विसर्ग, विसर्ग के स्थान में सकारादेश तथा अनुस्वार-अनुनासिक होने पर उक्त रूप निष्पन्न होते हैं ।सं० ५३ की समीक्षा के अनुसार यहाँ भी पाणिनीय प्रक्रिया में गौरव स्पष्टतया परिलक्षित होता है॥
[विशेष] 'पुंस्कोकिलः, पुंस्खननम्, पुंश्चकोरः, पुंश्छत्रम्, पुष्टिट्टिभः, सुपुंश्चरति” इत्यादि प्रयोगों की सिद्धि के लिए पाणिनीय व्याकरण में सूत्र है- “पुमः खय्यम्परे?”
सन्धिप्रकरणे चतुर्थो बर्गपादः
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(पा० ८।३।६)। आचार्य शर्ववर्मा ने इसके लिए पृथक् सूत्र नहीं बनाया |अतः दुर्गसिंह आदि व्याख्याकारों का अभिमत यह है कि शिड्भिन्न अघोष के पर में
रहने पर 'पुमन्स्' शब्द में प्राप्त संयोगान्तकोप अनित्य माना जाता है । तदनुसार 'पुमांश्चासौ कोकिलश्व' इस विग्रह तथा 'पुमन्स्+कोकिलः' इस अवस्था में “'ब्यञ्जनान्तस्य यत्तुभोः” (२।५।४) सूत्र द्वारा अतिदेश, ““पुंसोऽनृशब्दलोपः” (२।२।४०) से अन् का लोप, संयोगान्तलोप की अनित्यता से “संयोगान्तस्य लोपः” (२।३।५४) सूत्रसेसंयोगान्त स्केलोप कानिषेध, “मनोरनुस्वारो धुटि?” (२।४।४४) से म् को अनुस्वार, “रेफसोर्विसर्जनीयः” (२।३।६३) से स् को विसर्ग एवं “अनय्ययबिसुष्टस्तु सकारं कपवर्गयोः” (२।५।२९) से विसर्ग को स् आदेश करने पर “पुंस्कोकिलः” रूप सिद्ध होता है । 'पुंश्चकोरः, पुंश्छत्रम्, सुपुंश्चरति” में ““बिसर्जनीयश्चे छे बा शम्”” (१।५।१) सूत्र से विसर्ग के स्थान में शकारादेश *पुंष्टिट्टिभः में “टे ठे बा षम्’? (१।५।२) से मूर्धन्य षकारादेश प्रवृत्त होता है । 'पुंसरः' मेंशिट्पर होने के कारण संयोगान्तलोप का निषेध नहीं होता |अतः सलोप तथा म् को अनुस्वारादेश होने पर 'पुंसर:' रूप साधु होता है । ऐसी मान्यता है कि वसन्त ऋतु में पुरुष-कोकिल के ही स्वर में विशेष माधुर्य रहता है। स्त्री-कोकिळ में नहीं । यह भी प्रसिद्धि है कि कोकिल अपने अण्डे काक-नीड में रख देते हैंऔर इस प्रकार कोकिळ-शावकों का पालन-पोषण काकों द्वारा किया जाता है। इसीलिए इनका 'परभूतः' यह भी एक नाम है। परन्तु पुरुषशावकों का पालन-पोषण स्वयं कोकिल माता-पिता ही करते हैं। या जिस पुरुषशावक का पालन-पोषण कोकिल माता-पिता द्वारा किया जाता है उसी के स्वर में विशेष माधुर्य उत्पन्न होता है |बँगला - टीकाओं में एतदूविषयक एक शलोक उपलब्ध होता हैसंवर्धितः पितृभ्यां य एकः पुरुषशावकः।
पुंस्कोकिलः स विज्ञेयः परपुष्टो न कर्हिचित् ॥
[रूपसिद्धि] १, भवांस्तरति |भवान्+तरति ! तकार के पर में रहने पर पदान्तवर्ती न् को अनुस्वारपूर्वक सकारादेश !
कातन्त्रव्याकरणम्
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२. भबांस्थुडति | भवान् + थुडति | थकार के पर में रहने पर पदान्तवर्ती न् को अनुस्वारपूर्वक सकारादेश || ५५।
५६. ले लम् (१।४।११) [सूत्रार्थ] लकार के पर में रहने पर पदान्तवर्ती नकार को लकारादेश होता है ॥५६।
कथं सानुनासिको न निर्दिश्यते ततश्चान्तरतमव्याख्या च परिहृता भवति ? सत्यम् । अन्तरतमपरिभाषाया अनुप्रवेशादनुस्वारपूर्वो लकार एव प्राप्नोतीति हेमकरः |तन्न । सूत्रे सानुनासिकनिर्देशेनापि सर्वात्मना आघ्रातत्वाद् अनुस्वारो न भवतीति वक्तु शक्यत्वात् । अथ पूर्वेषु योगेषु अन्तरतमतया प्रवृत्तिर्दृष्टा । तद्वद् अत्रापि भवति, तत् कथं सानुनासिको न निर्दिश्यते ? सत्यम् । सूत्रे “ले लम्’? (१।४।११) इति सानुनासिको न निर्दिष्टः, उच्चारणगौरवादिति हेमकरः । ननु कारशब्दे विद्यमानेऽपि “स्थानेऽन्तरतमः? (काला० परि० २४) इत्यस्य कथं नानुवृत्तिः ? सत्यम् |कारशब्दस्य यथाश्रुतवर्णग्रहणादन्तरतमस्य विवक्षा परिहृता , तदभावे च वर्तते इति ॥५६।
[समीक्षा] “भवान् + ठुनाति, भवान् + लिखति” इत्यादि स्थलों मेंकलापकार के निर्देशानुसार न् को सानुनासिक छ् आदेश होकर 'भवाँल्डुनाति, भवॉल्हिखति” आदि शब्दरूप निष्पन्न होते हैं । पाणिनि ने ऐसे स्थलों में परसवर्णादेश का विधान किया है“तोर्लि” (८।४।६०)।
पाणिनीय और कलाप दोनों में ही साक्षात् सानुनासिक आदेश विहित नहीं है, व्याख्या के बल पर ही सानुनासिक लकारादेश उपपन्न हो पाता है। पाणिनीय व्याख्याकार कहते हैं कि स्थानी नकार यतः अनुनासिक है- “मुखनासिकावचनो5नुनासिकः” (१।१।८), अतः परसवर्ण छकारादेश भी
कलाप के वृत्तिकार दुर्गसिंह ने कहा है कि उपर्युक्त सूत्रों में (१।४।८,९,१०) कार के साथ वर्णो का पाठ किया गया है, प्रकृत सूत्र में छ कै साथ 'कार' पठित नहीं है ।आचार्य का यह विशेष निर्देश ही अनुनासिक लू को सूचित करता है“'कारहीनत्वादनुनासिकम्'? (कात० वृ० १।४।११) | कलाप के अनुसार उच्चरित
वर्ण के स्वरूप का अवबोध कराने के लिए दो प्रत्यय निर्दिष्ट हैं- कार एवं तू । यदि आचार्य को ळ-वर्ण के अनुनासिकरहित स्वरूप का अवबोध कराना अभीष्ट होता तो वे छ के साथ कार का भी पाठ अवश्य ही करते | न करने का यही उद्देश्य हो सकता है कि उन्हें यहाँ सानुनासिक लकार करना अभीष्ट है, जैसा कि प्रयोगों में भी देखा जाता है | इन दो कार्यों कीउभयत्र समानता होने पर भी पाणिनि का सावर्णर्यज्ञान अवश्य ही गौरवाधायक कहा जा सकता है।
[रूपसिद्धि] १, भवाँल्लुनाति |भवान्+छुनाति |छकार के पर में रहने पर पदान्तवर्ती न् को अनुनासिक छू आदेश | २. भर्षाँल्लिखति | भवान्+लिखति । लकार के पर में रहने पर पदान्तवर्ती न् को सानुनासिक छ् आदेश ।।५६।
५७, ज-झ-ञ-शकारेषु अकारम् (१।४।१२) [सूत्रार्थ] पदान्तवर्ती नकार के स्थान में अकारादेश होता है |यदि नकार के बाद ज, झ, ञ या श वर्ण हो ॥५७।
[दु० बृ०] नकारः
पदान्तो ज-झ-ज-शकारेषु
परतो नकारमापद्यतै। भवाञ्जयति,
भवाञ्झासयति, भवाञ्ञकारेण, भवाञशेते । पदमध्ये चटवर्गा देश इति ज-झ-ज-
[क० च०] जझञ० | पदमध्य इति बृसिः !इदमेव अकारविधानं पदमध्ये घटवर्गा देश इति ज्ञापयतीत्यर्थः |डढणपरस्त्वित्यादिवचनं च ज्ञापकम् उन्नेयम् ।ननु “तबर्गश्चटबर्गयोगे
चटवर्गी” (२।४।४६) इति सूत्रमेकपदप्रस्तावे न क्रियताम्, किन्तु सामान्येन विधीयताम् । तदा तेनैव भवाञ्जयतीत्यादिकं भविष्यति, किमनेन ? नैवम् | यदि सामान्येन विधीयते तदा सूत्रत्रयं कर्तव्यं स्यात् |तथाहि “भवाउशेते' इति सिद्ध्यर्थं “शे अकारम्!! (१४१२) इत्येकं सूत्रम्, स्वोदाहरणसिद्धयर्थं ““तबर्यश्चटवर्गयोगे घटबर्गौ (२।४।४६) इत्यस्त्येव, “मधुलिट् तरति’ इति सिद्ध्यर्थम् अपरमपीति | अन्यथा अत्रापि तवर्गस्य टवर्गः स्यादिति हेमकरः ||५७। [समीक्षा] “भवान् + जयति, भवान् + झासयति, भवान् + ञकारेण, भवान् + शेते! इत्यादि स्थलों में कलापकार न् के स्थान में ज् आदेश करके 'भवाञ्जयति, भवाञ्झासयति, भवाञ्ञकारेण, भवाउशेते' आदि रूप सिद्ध करते हैं |यहाँ पाणिनि ने श्चुत्व-विधान किया है- “स्तोः श्चुना श्चुः” (८।४।४०)। ज्ञातव्य है कि चवर्ग के अन्तर्गत आने वाले 'च-छ-ज-झ-ज ' इन पाँचौं वर्णो के परवर्ती होने पर पदान्तवर्ती नकार के स्थान में अकारादेश के उदाहरण पाणिनीय व्याकरण में नहीं मिलते |अतः पाणिनीय निर्देश की अपेक्षा कलाप का निर्देश अधिक विशद कहा जा सकता है।
[विशेष] कलापव्याकरण के कारक-प्रकरण मेंएक सूत्र है- “तबर्गश्वटवर्गयोगे चटवर्गो”” (२।४।४६)। इस सूत्र से चवर्ग के परवर्ती होने पर तवर्ग के स्थान में चवर्गादेश होता है । इसी के निर्देशानुसार ज, झ एवं अ वर्णो के पर में रहने पर न् के स्थान में ज्आदेश किया जा सकता है । यदि ऐसा स्वीकार कर लिया जाए तो फिर केवल शकार के परवर्ती होने पर ही नकार को जकारादेश करना अवशिष्ट रह जाता है। तदर्थ “शे अकारम्” इतना ही सूत्र करना आवश्यक है ।
इस पर वृत्तिकार दुर्गसिंह ने समाधान दिया है- “पदमध्ये चटबर्गा देशइति जझअशकारेषु अकारविधानम्? (कात० वृ० १।४।१२)।
अर्थात् कारक-प्रकरणीय
(२।४।४६) सूत्र की प्रवृत्ति पद के मध्य में होती है । मध्यवर्ती तवर्ग केस्थान में
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कातन्त्रव्याकरणम्
चवर्गादेश उपपन्न होता है। जैसे - "राज्ञः, मज्जति' इत्यादि । यहाँ पदान्तस्थ न् के स्थान में ज्आदेशविधानार्थ प्रकृत सूत्र यथावत् रूप में बनाना उचित ही है ।
[रूपसिद्धि] १-४ , भवाञ्जयति, भवाञ्झासयति, भवाञ्ञकारेण, भवाञशेते |भवान्+जयति, भवान् + झासयति, भवान् + ञकारेण, भवान् + शेते ।यहाँ क्रमशः 'ज्-झ-अ-श्' वर्णो के परवर्ती होने पर पदान्तवर्ती न् को ञ् आदेश ।।५७।
५८, शिन्चौ वा (१।४।१३) [सूत्रार्थ] पदान्तवर्ती न् के स्थान में विकल्प से 'न्चू' आदेश होता है, श् वर्ण के पर में रहने पर । यह ज्ञातव्य है कि “न्व्' आदेश न होने पर उक्त सूत्र “जझजशकारेषु जकारम्” (१।४।१२) से अकारादेश होगा ।।५८। [दु० बृ०] नकारः पदान्तः शि परे न्चौ वा प्राप्नोति जकारं वा । भवाउ्छूरः, भवाञ्च्शूरः, भवाजशूर: | कुर्वञ्छूरः, कुर्वञ्चूशूरः, कुर्वज्शूरः। प्रशाञ्छयनम्, प्रशाञ्चूशयनम्, प्रशाञशयनम् ¦ णत्वं गत्वं च न स्यात् । अनुस्वारो वर्गान्तश्च स्यादेव । वात्र समुच्चये ।। ५८ | [दु० री०]
[समीक्षा] “भवानून शूरः, कुर्वन् + शूरः, प्रशान् #शयनम्” इस स्थिति में कलापकार के निर्देशानुसार “न्' को “न्च' आदेश, “बर्गप्रथमेभ्यः शकारः स्वरयवरपरश्छकारं न
वा” (१।४।३)
से छकारादेश, “'मनोरनुस्वारो घुटि”? (२/४/४४) से अनुस्वार,
“ब्ग वर्यान्तः'? (२/४/४५) से जकारादेश होने पर “भवाउ्चूछूर:” शब्द निष्पन्न होता
है । “धुटो धुस्थेकवर्गे”' (कात० परि०, सं० ७६) से च् के लोप-पक्ष में भवाञ्छूरः,
कातन्त्रव्याकरणम्
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छकारादेशाभाव में भवाञ्चशूरः एवं न् के स्थान में केवल “ज्” आदेश होने पर भवाउशूरः रूप भी बनते हैं । पाणिनि के अनुसार तुगागम (८।३।३१), छत्व (८।४।६३), श्चुत्व (८।२।४०), च्-लोप (८।४।६५) होकर उक्त प्रयोग सिद्ध होते है । जिन्हें लक्ष्य
कर कहा गया है ( द्र०, सि० कौ० इत्यादि)अछौ अचछा अचशा अशाविति चतुष्टयम्। रूपाणामिह तुक्-छत्व-चलोपानां विकल्पनात् ॥ प्रयुक्त होने वाले विधिसूत्रों की संख्या मेंसाम्य होने पर भी पाणिनीय व्याकरण में आदेश तथा आगम दो विधियाँ अवश्य ही गौरवाधायक सिद्ध हो सकती हैं। कातन्त्र में एक-एक ही सूत्रद्वारा नू के स्थान में “न्च' एवं 'ज्” आदेश का विधान लाघव-बोधक कहा जा सकता है |
[विशेष] 'कुर्वज्छूरः” आदि स्थलों में “रषुवर्णेभ्यो नो णमनन्त्यः'? (२।४।१८) से नकार को णकारादेश तथा 'भवान्चूशूरः” इत्यादि स्थलों में ““चवर्गदृगादीनां च” (२।३।४८) से च्' को 'गू' आदेश नहीं होता है, क्योंकि सूत्र (शि न्चौ वा) में द्विवचन के पाठ से आचार्य का यही अभिप्राय माना जाता है, कि यहाँ णकारादेश न हो। ““चवर्गदरगादीनां च”? (२।३।४८) सूत्र में‘दृग्’ शब्द क्विबन्त है |अतः उसके साहचर्य से यहाँ चकार को गकारादेश नहीं होगा, क्योंकि “भवान्चू' क्विबन्त नहीं है और गकारादेश क्विबन्त में ही होगा |यह आशङ्का नहीं करनी चाहिये कि णत्व न होने से नकार के स्थान मेंअनुस्वार एवं अकारादेश भी नहीं होंगे, क्योंकि अनुस्वारादेश व्यक्ति है और व्यक्ति सभी कार्यो की बाधिका मानी जाती है । इसीलिये वृत्तिकार दुर्गसिंह ने कहा है-““णत्वं गत्वं च न स्यात् । अनुस्वारो वरगन्तिश्च स्यादेव”” इति |
सूत्रपठित “वा” शब्द को यहाँ समुच्चयार्थक माना जाता है। यह ज्ञातव्य है कि कलापव्याकरण में विकल्पार्थं के अवबोध-हेतु प्रायः 'नवा' शब्द का ही प्रयोग किया गया है | प्रकृत सूत्र में नकाररहित “वा” के पाठ से व्याख्याकार उसे समुच्चयार्थक मानते हैं |फलतः न् के स्थान में 'नूच' तथा “जः दोनों ही आदेश प्रवृत्त होते हैं ।
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[रूपसिद्धि] १-३. भवाञ्छूरः, भवाज्यूशूरः, भवाञृशूरः। भवान्+ शूर: । प्रकृत सूत्र से न् को न्च् आदेश, “वर्गप्रथमेभ्यः शकारः स्वरयवरपरश्छकारं न वा” (१।४।३) से श् को छू, “मनोरनुस्वारो घुटि” (२।४।४४) से न् को अनुस्वार, “वर्गे वर्गन्त:” (२। ४।४५) से अनुस्वार को ज्, “धुटो धुट्येकवर्गे'” (धुटश्च धुटि ३ । ६।५१) से च् का लोप= भवाउछूर: | छकाराभावपक्ष में न् को अनुस्वार, अनुस्वार को ञ्= भवाञ्चूशूरः । 'न्व' आदेश न होने पर “जझञशकारेषु ञकारम्” (१।४।१२) से न् को ज"भवाजूशूर: । ४-६. कुर्वञ्छूरः, कुर्वञ्यूशूरः, कुर्वजशूरः। कुर्वन्+ शूर: | उक्त की तरह न् को न्च् आदेश, शू को छ्, न् को अनुस्वार, अनुस्वार को ज्, च् का लाप = कुर्वञ्छूरः । छकारादेश न होने पर न् को अनुस्वार, अनुस्वार को ञ्= कुर्वञ्चूशूर: । न्च् आदेश न होने पर न् को जू कुर्वञ्शूरः | ७-९. प्रशाञ्छयनम्, प्रशाञ्चृशयनम्, प्रशाञ्शयनम् । प्रशान्+शयनम् ।यहाँ पर भी न् को न्च् आदेश तथा छकारादेशपक्ष में “प्रशाञ्छयनम्' | छकाराभावपक्ष में “प्रशाउ्यूशयनम्” | “न्च्” आदेशाभावपक्ष में “प्रशाञ्शयनम्' शब्दरूप सिद्ध होता है |५८॥
५९, ड-ढ-णपरस्तु णकारम् [१।४।१४] [सूत्रार्थ] 'ङ्,ढू,ण्' वर्णो के परवर्ती होने पर नकार के स्थान में णकार आदेश होता है ॥५९।
[समीक्षा] “भवान्+ डीनम्, भवान् +ढौकते, भवान्+ णकारेण’ इस स्थिति में कलाप
एवं पाणिनीय दोनों ही व्याकरणों के अनुसार न् के स्थान में णकारादेश प्रवृत्त होता है । कलाप के अनुसार ड, ढू एवं ण् वर्ण पर में होने के कारण न् के स्थान में ण् आदेश एवं पाणिनीय व्याकरण में टवर्ग का योग होने के कारण तवर्ग के स्थान में टवगदिश का विधान किया जाता है । इस प्रकार प्रयोगसिद्धि में कोई
बाधा या जटिलता तो उपस्थित नहीं होती, परन्तु पाणिनि का तवर्ग-टवर्ग यह
सामान्यनिर्देश सभी उदाहरणों के अभाव में अवश्य ही चिन्त्य प्रतीत होता है ।
सन्धिप्रकरणे चहुर्थो वर्गपादः
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[विशेष] (१) 'डढणपर: शब्द का अर्थ 'इढणेभ्यः परः नहीं है, किन्तु 'डढणा: परे यस्मात्' यह माना जाता है | अर्थात् यहाँ तसुरुषसमास न होकर बहुव्रीहि समास
दिखाया गया है । यदि बहुब्रीहिसमास ही यहाँ इष्ट हो तो फिर “डढणेषु” ऐसा पाठ किया जाना चाहिये ।इस पर व्याख्याकारों ने अपना अभिमत स्पष्ट करते हुए कहा
है कि सूत्रकार ने ऐसा इसलिए किया है कि तत्पुरुष समास के अनुसार "षण्णवतिः, षण्णगरी' आदि स्थलों में भी णकारादेश सम्पन्न हो जाए, क्योंकि 'षड््+ नवतिः, षडू+नगरी' में नू से परवर्ती ड नहीं है, किन्तु ड से पर में नकार विद्यमान है |अतः केवल बहुव्रीहि समास मानने पर 'षण्णवतिः' आदि स्थलों मेंणकारादेश नहीं हो सकता | ऐसी स्थिति में भी णकारादेश प्रवृत्त हो जाए, अतः उभयसमासविहित 'डढणपर:' बह पद पढ़ा गया है। (२) सूत्रस्थ 'तु' शब्द का प्रयोजन वैकल्पिक विधान की निवृत्ति बताया गया है । अर्थात् पूर्ववर्ती सूत्र “शि न्चौँ बा '? (१।४।१३) में वा-शब्द पठित है । उसकी अनुवृत्ति प्रकृत सूत्र में आएगी, जिसके फलस्वरूप णकारादेश भी विकल्प से प्रवृत्त होगा, जो यहाँ अभीष्ट नही है। अतः उसके निरासहेतु 'तु' शब्द का पाठ किया है |
[रूपसिद्धि] १. भवाण्डीनम् ।भवान् + डीनम् ।प्रकृतसूत्र से ड के परवर्ती रहने पर पदान्तस्थ नू को णू आदेश । २. भवाण्डौकते। भवान्+ ढौकते | ढकार के पर में होने पर पदान्तवर्ती न् को ण् आदेश | ३, भवाण्णकारेण। भवान्+णकारेण | णकार के परवर्ती होने पर पदान्तवर्ती न् को णू आदेश ।।५९।
६०. मोऽनुस्वारं व्यञ्जने (१।४।१५) [सूत्रार्थ] व्यञ्जन के परवर्ती होने पर पदान्तवर्ती मकार के स्थान में अनुस्वारादेश होता है || ६० | [दु०बृ० ]
[समीक्षा] “त्वम्+ यासि, त्वम्+ रमसे' इस स्थिति में दोनों ही व्याकरणौं में मू के स्थान
में अनुस्वारादेश होता है, तथापि कलापव्याकरण के विधान में कार्यी मकार का प्रथमान्त तथा कार्य अनुस्वार का द्वितीयान्त निर्देश किया गया है । पूर्वाचार्यो की
यही पद्धति (शैली) थी | इसके विपरीत पाणिनि कार्यी का षध्यन्त तथा कार्य का प्रथमान्त निर्देश करते हैं |
[विशेष] ऐसा देखा जाता है कि सम्राट्, सम्राजौ” आदि स्थलों में म् के स्थान में अनुस्वारादेश प्रवृत्त नहीं होता है |एतदर्थ पाणिनीयव्याकरण में तो “मो राजि समः क्वौ? (पा०८। ३।२५) सूत्र बनाया गया है, जिसके अनुसार क्विप्प्रत्ययान्त राज्
कातन्त्रव्याकरणमू
२४२
शब्द के परवर्ती रहने पर सम् के मकार को मकार ही होता है; परन्तु कछापव्याकरण
में ऐसा सूत्र नहीं है, जिससे वृत्तिकार दुर्गसिंह ने इसका समाधान प्रकारान्तर से इस प्रकार किया है कि संज्ञापूर्वक की गई विधि अनित्य होती है- 'सञ्जञापूर्वको विधिरनित्यः’ (कालापपरि० सू० ३८) ।इस सूत्र में “अनुस्वार' यह निर्देश संज्ञापूर्वक है, अतः इस विधि के अनित्य होने के कारण 'सम्राट्' आदि रधलों में अनुस्वारादेश नहीं होगा |
[रूपसिद्धि] १. त्वं यासि । त्वम्+ मकार को अनुस्वार आदेश २. त्वं रमते! त्वम्+ मकार को अनुस्वार आदेश
यासि | व्यञ्जन वर्ण के पर में रहने पर पदान्तवर्ती । रमसे | व्यञ्जन वर्ण के पर में रहने पर पदान्तवर्ती || ६०।
६१. वर्गे तद्वर्गपञ्चमं वा (१।४।१६)
[सूत्रार्थ]
|
किसी भी वर्गीय वर्ण के पर में रहने पर पदान्त अनुस्वार को उसी वर्ग का पञ्चम वर्ण आदेश होता है || ६9 |
[समीक्षा] 'त्वम्+ करोषि, त्वम् +चरसि, पुम्+ भ्याम्’ इस स्थिति में म् के स्थान में “'मोऽनुस्वारं व्यञ्जने’? (१ ।४ ।१५) से अनुस्वार आदेश तथा प्रकृत सूत्र “वर्ग तद्वर्गपञ्चमं वा” (१।४।१६) से अनुस्वार के स्थान में परवर्ती वर्गीय वर्ण का वर्गीय पञ्चम वर्ण आदेश होकर 'त्वझ़करोषि, त्वञ्चरसि, पुम्भ्याम्’ शब्दरूप निष्पन्न होते हैं । पक्ष में वर्गीय पञ्चम वर्ण आदेश न होने पर “तं करोषि, त्वं चरसि, पुंभ्याम्? रूप भी साधु माने जाते हैं। पाणिनीय व्याकरण मेंभी “मोडनुस्वारः” (८।३।२३) से अनुस्वारादेश तथा “वा पदान्तस्य’? (८।४।५९ ) से वैकल्पिक परसवर्णा देश होकर उक्त रूप सिद्ध होतै हैं । कू, च् तथा भू वर्णौ के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती अनुस्वार के स्थान में यदि क्रमशः ङ्, ञ् तथा म् आदेश करना हो तो कवर्ग, चवर्ग एवं पवर्ग का पञ्चम वर्ण आदेश करना अधिक सुविधाजनक कहा जा सकता है, परसवर्णा देश विधान की अपेक्षा ।उदाहरणार्थ यदि 'त्वङ्करोषि' को लिया जाए, तो निम्नाड्टित के अनुसार स्थान-प्रयल मिलाने के बाद ही यह निश्चय किया जा सकता है कि कवर्ग के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती अनुस्वार के स्थान में 'इ” आदेश उपपन्न होगास्थान वर्ण नासिका अनुस्वार (म्-स्थानिक) कण्ठ क, ख, ग, घ, इ नासिका
ङ
प्रयत्न (आ०) स्पृष्ट (बा०) अल्पप्राण,
ना क, ख, ग, घ, ङ, म (अनुस्वार) | गू, ङ, म् (अनुस्वार)
संवार, नाद, घोष
सन्धिप्रकरणे चतुर्थो वर्गपादः
२४५
उपर्युक्त स्थिति में स्थान- प्रयलों को मिलाकर देखने पर यह विदित होता है कि बाह्य प्रत्यलों में भी प्रत्येक वर्ग के दो दो वर्ण समान प्रयल वाले रह जाते हैं| आभ्यन्तर प्रयल में तो वर्गीय पाँचों वर्णो का स्पृष्ट ही प्रयत्न होता है | बाह्य प्रयत्न के अनुसार गू को हटाने के लिए नासिकास्थान का आश्रय
लेना पड़ता है । यतः अनुस्वाररूप स्थानी वर्ण का स्थान नासिका है और वह कवर्गीय वर्णो में से केवल इङ् का ही होता है। अन्य प्रथम- द्वितीयादि
वर्णों का नहीं । अतः कवर्ग के परवर्ती होने पर अनुस्वार के स्थान में ङ् ही परसवर्ण होता है। यह विधि पाणिनीय व्याकरण की है। सामान्यतया किसी भी वर्ग के पञ्चम वर्ण को जानने की अपेक्षा परसवर्ण विधि से पञ्चम वर्ण जानना अत्यन्त प्रयलसाध्य है ।
[रूपसिद्धि] १, त्वङ्करोषि- त्वं करोषि | त्वम्+ करोषि । व्यञ्जनवर्ण के पर में रहने पर पदान्तवर्ती मू को “ मोऽनुस्वारं व्यञ्जने’' (१।४।१५) से अनुस्वार तथा विकल्प से प्रकृत सूत्र-द्वारा अनुस्वार को कवर्गीय पञ्चम वर्ण इ आदेश = त्वङ्करोषि | पञ्चमवर्णा देश के अभाव में= त्वं करोषि | २. बञ्चरसि- त्व॑ चरसि | त्वम्+ चरसि । व्यञ्जन वर्ण के परवर्ती होने पर पदान्त म् को अनुस्वार तथा उसको वैकल्पिक वर्गीय पञ्चम वर्ण आदेश= त्वञ्चरसि । वर्गीय पञ्चम वर्ण आदेश में अनुस्वारघटित रूपच त्वं चरसि | ३. पुम्भ्याम्- पुंभ्याम् | पुम्+भ्याम् | व्यञ्जन वर्ण के पर में रहने पर पदान्तवर्ती म् को अनुस्वार तथा उसको वैकल्पिक वर्गीय पञ्चम वर्ण आदेश = पुम्भ्याम् । वर्गीय पञ्चम वर्ण आदेश के अभाव में अनुस्वारघटित रूप = पुंभ्याम् || ६१। ॥ इति सम्धिप्रकरणे समीक्षात्मकश्चतुर्थो वर्गपादः समाप्तः ॥
छ
अथ सन्धिप्रकरणे पञ्चमो विसर्जनीयपादः ६२. विसर्जनीयश्चे छे वा शम् (१।५।१) [सूत्रार्थ] चू अथवा छ के पर में रहने पर पूर्ववर्ती विसर्ग 'श्” आदेश प्राप्त करता है | अर्थात् विसर्ग के स्थान में शकारादेश होता है। ६२।
दु०३०] विसर्जनीयश्चे वा छै वा परे शमापद्यते |कश्चरति, कश्छादयति ।॥६२ | [दु०टी ०]
[क०च०] बिसर्जनीयः | शमित्यस्वरो निर्देशः, श्रुतत्वाल्छुप्ते च प्रमाणाभावात् ।अत एव सूत्रनिर्देशाद् वा ॥६२।
[समीक्षा] 'कः + चरति, कः + छादयति’ इस स्थिति में कलाप-व्याकरण की प्रक्रिया के अनुसार विसर्ग के स्थान में साक्षात् हीशकारादेश होकर 'कश्चरति, कश्छादयति' रूप निष्पन्न होते हैं। जबकि पाणिनि विसर्ग के स्थान में सकारादेश (विसर्जनीयस्य सः ८।३।३४) करने के अनन्तर ही “स्तोः श्चुना श्चुः’? (८।४।४०) से श्चुत्वविधान
द्वारा उक्त रूपों की निष्पत्ति बताते है। यह भी ज्ञातव्य है कि पाणिनि तवर्ग के स्थान में चवर्ग का निर्देश करते हैं, परन्तु वस्तुतः अभीष्ट कार्य केवल 'चू-छ' वर्णो के परवर्ती होने पर प्रवृत्त होता है ।इससे भी कलापव्याकरण का प्रक्रियाछाघव स्पष्ट है |
सन्धिप्रकरणे पञ्चमो वितर्जनीयपादः
२४७
[रूपसिद्धि] १, कश्चरति । कः + चरति | प्रकृत सूत्र से चकार के पर में रहने पर विसर्ग को शकारादेश ।
२. कश्छादयति |कः + छादयति । छकार के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती विसर्ग के स्थान में छकारादेश ।। ६२।
६३. टे ठे वा षम् (१।५।२)
[सूत्रार्य ट्अथवा ठू केपर मेंरहने पर पूर्ववर्ती विसर्ग के स्थान मेंमूर्धन्य षकारादेश होता है ।। ६३।
[दु०्वू०] विसर्जनीयष्टे वा ठे वा परे षम् आपद्यते । कष्टीकते, कष्ठकारेण । प्रत्येकं वाऽत्र समुच्चये बालावबोधार्थम् ।। ६३।
[वि०प०] टे ठे० । प्रत्येकमित्यादि |विकल्पार्थं तु न भवति, प्रतिसूत्रम् उपादानात् |“बर्गे तदूवर्गपञ्चमं बा” (१ |४|१६) इति विभाषानुवृत्तेर्वा |ननु यदि प्रत्येकं वा समुच्चयो न स्यात् तदा किमिहाविस्पष्ट भवति ? सत्यम् । “टठयोः षम्’? इति कृते षष्ठीमपि प्रतिपद्येत, टठयोः स्थान इति | तदयुक्तम् |षमिति कर्मपदम्, तच्च कर्तारमन्तरेण न संभवतीति विसर्जनीयम्. उपेक्षते |ततो विसर्जनीयः षमापद्यते, टठयोः परयोरिति सप्तम्येव निश्चीयते | तथा पूर्वोत्तरयोरपि योगयोरिति ? सत्यम्, एवं तर्हि क्रियाकारकाकुशलानां बालानामवबोधार्थम् |न खलु ते कतरिमन्तेरण कर्मणः सम्भव इति प्रतिपत्तुं क्षमन्त इति ।। ६३।
२४८
कातन्त्रव्याकरणम्
[क०च०] टे ० |ननु अकारयुक्तयोरेव टठयोर्निमित्तता सप्तम्या प्रतिपाद्यते, ततश्च कथं 'कष्टीकते' इत्यादिषु षकारः स्यात्? सत्यम्, “'विसर्जनीयश्चे छे वाशम्’? (१।५।१) इति निर्देशाद् अकारयुक्तादन्यत्रापि भवतीत्यदोषः ।विकल्पार्थश्च न भवति, वा - शब्दः पुनरर्थे । अत्र हेतुमाह प्रतिसून्रमित्यादि । ननु कथं प्रतिसूत्रे वाशब्दोपादानं समुच्चये हेतुः स्यात्, तस्य स्पष्टार्थकत्वात् । सा हि स्पष्टार्थता समुच्चये विकल्पे च सम्भवति? सत्यम् । यदि वाशब्दो विकल्पार्थः स्यात् तदा वाग्रहणमपि न कृतं स्यात् । तर्हि कुतो विकल्पप्राप्तिर्भविष्यतीत्याह - बर्ग इत्यादि | तस्माद् वाग्रहणबलादेव विकल्पार्धो न भवतीति भावः। ननु वाऽनुवृत्त्या टकारस्य ठकारस्य च उभयोरेव विकल्पः क्रियते । अत्र तु ठकारसम्बन्धिना वाशब्देन ठकार एव विकल्पः साध्यते, तत् कथं वाऽधिकारे निर्वाहः स्यात् । तस्माद् विकल्प एव कथं न स्यात् । किं च यदि समुच्चयार्थ एव भविष्यति तदा नि:सन्देहार्थ चकारग्रहणं कृतं स्यात्? सत्यम्, यदि ठकारनिमित्तविकल्प एव
भविष्यति तदा व्यवस्थितविभाषयैव सिध्यति, किं पुनरत्र वा-ग्रहणेन ? किं च व्याप्तिन्यायादुभयोरेव विकल्पार्था भविष्यति | कि वा व्याप्तिन्यायात् समुच्चयार्थतैव युक्ता यदू वा यदीष्टो विकल्पः स्यात् तदा निःसन्देहार्थं नवा-ग्रहणमेव कृतं स्यात् ॥ ६३ |
[समीक्षा] 'कः + टीकते, कः+ ठकारेण' इस स्थिति में कातन्त्रकार सीधे ही विसर्ग को षकारादेश करके 'कट्टीकते, कष्टकारेण” शब्दरूप निष्पन्न करते है, परन्तु पाणिनि विसर्ग को सकारादेश करने के बाद ही सकार के स्थान में षकार का विधान करते हैं| क्योंकि उनके निर्देशानुसार स् के स्थान में शू आदेश प्रवृत्त होता है-“स्तोः श्चुना श्चुः” (८। ४। ४०)
[विशेष] सूत्रपठित 'वा' को रीकाकार- पञ्जीकार-कलापचन्द्रकार ने समुच्चयार्थक सिद्ध किया है |
सन्धिप्रकरणे पञ्चमो विसर्जनीयपादः
२४९
[रूपसिद्धि] १. कष्टीकते |कः + टीकते | टकार के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती विसर्ग के स्थान में प्रकृत सूत्र- द्वारा षकारादेश । २. कष्ठकारेण। कः + ठकारेण । ठकार के पर में रहने पर पूर्ववर्ती विसर्ग को प्रकृत सूत्र- द्वारा षकारादेश ॥६३॥।
६४. ते थे वा सम् (१।५।३) [सूत्रार्थ] त् एवं थ् वर्णों केपर में रहने पर विसर्ग के स्थान में सकारादेश होता है || ६४ |
[दु०वृ०] विसर्जनीयस्ते वा थे वा परे समापद्यते । कस्तरति, कस्थुडति ।कारस्करादय इति संज्ञाशब्दा इव लोकतः सिद्धाः ||६४। [दु०टी०]
ते धे० । कारस्करादय: संज्ञाशब्दा लोकतः सिद्धा इति न कारं करोतीति कारस्करो वृक्ष उच्यते, अन्वर्थाभावात् ।नापकरोतीति अपस्करः ।एवं न पारं करोतीति पारस्करो देश: । न तत् करोतीति तस्करश्चौरः। न रथं पातीति रथस्पा नदी। न
मा क्रियतेऽनेनेति मस्करो वेणुर्दण्डश्च, न मा कर्तु शीलमस्येति मस्करी परिव्राजकः, माकृतकर्माण्युपशास्ति वैश्रेयसीति |न ईषत् तीरमस्येति, अजस्येव तुन्दमस्येति कास्तीरम् अजस्तुन्दं च नगरम्, न बृहंश्चासौ पतिश्चेति ( न बृहतां पतिरिति) बृहस्पतिर्देवता ,न प्रगतं कण्वमस्येति प्रस्कण्वो नाम ऋषिः ।न हरेरिव चद््रो (रमणीयो हरेरिव चद्भौ दीप्तिरस्येति वा) यस्येति हरिश्चन्द्रो नाम राजर्षिः । प्रायश्चित्तिः, प्रायचित्तिः | प्रायश्त्तिम्, प्रायचित्तम् | प्रायप्रायसोश्चित्तौ चित्ते च रूपद्वयमिदम् | आस् - शब्दस्थाव्ययस्य चर्ये आश्चर्यमिति प्रतीतिविरुद्धे वर्तते तथा पदे प्रतिष्ठायां
वर्तते |क्वचिद् अव्ययविसृष्टस्यापि सकारः - आस्पदं प्रतिष्ठा | प्राणधारणाय यतू स्थानं कुस्तुम्बुरु च धन्याकमुच्यते, न कुत्सितं तुम्बुरु इत्यन्वर्थता । अपरस्परशब्दः क्रियासातत्ये वर्तते, न त्वपरे च परे चेति द्वन्द्वः ।अपरस्पराश्छात्रा गच्छन्ति, सततं गच्छन्तीत्यर्थः । न विकिरतीति विकिरो विस्किरो वा शकुनिरुच्यते ।
[बि० प०] ते थे० | कारस्करादय इति | ‘कारस्करो वृक्षः’ इति सूत्रं न वक्तव्यम् | एते हि संज्ञाशब्दा वृक्षादिवल्होके विशिष्टविषयतया प्रसिद्धाः। नहि कारं करोतीति कारस्करो वृक्ष इत्यन्वर्थो घटते | तस्माद् यस्तु लोकतः सिद्वस्तत्र कि यलेनेति ? यदि संज्ञाशब्दानामप्यमीषां प्रकृतिप्रत्ययविभागोपलम्भाद् यथाकथंचिदवश्यं कार्या व्युत्पत्तिः, तदा वर्णागमो वर्णविपर्ययश्चेति लोकत एव वेदितव्यमिति | ६४।
[समीक्षा] | 'कः + तरति, कः + थुडति' इस अवस्था में कातन्त्र और पाणिनीय दोनों ही व्याकरणों के अनुसार विसर्ग को सकारादैश होकर 'कस्तरति, कस्थुडति' शब्दरूप निष्पन्न होते हैं। अतः यहाँ उभयत्र साम्य है।
[विशेष] पाणिनि ने * “कुस्तुम्बुरूणि जातिः?? (६।१।१४३) सूत्र से लेकर “पारस्करप्रभृतीनि च संज्ञायाम्’? (६।१।१५७) तक १५ सूत्रों द्वारा 'जाति- क्रियासातत्य, प्रतिष्ठाअनित्य” आदि के विवक्षित या गम्यमान होने पर कुस्तुम्बुरूणि, अपरस्पराः सार्था गच्छन्ति, गोष्पदो देशः, आस्पदम्, आश्चर्यम्, मस्करो वेणुः, मस्करी परिव्राजकः, कास्तीरं नाम नगरम्, कारस्करो वृक्षः, पारस्करो देशः? आदि शब्दों को सिद्धि निपातनप्रक्रिया से बताई है, जिनमें सुडागम अवश्य देखा जाता है।वस्तुतः व्युत्पत्ति के बल से इन शब्दों का अर्थ - निश्चय नहीं किया जा सकता, बल्कि लोकप्रसिद्धि के अनुसार ही इनके अर्थ का अवधारण होता है। व्याकरणशास्त्र में भी आचार्यो ने लोक का प्रामाण्य माना है ।का- त्र व्याकरण का सूत्र है- “लोकोपचारादू ग्रहणसिद्वि?” (१।१।२३) । अर्थात् जिन शब्दों की सिद्धि के लिए इस व्याकरण में सूत्र नहीं बनाए गए हैं उनकी सिद्धि लोकव्यवहार या लोकप्रसिद्धि के अनुसार जान लेनी चाहिए | इसे ही ध्यान में रखकर दुर्गसिंह आदि व्याख्याकारों ने कहा
सन्धिप्रकरणे पञ्चमो विसर्जनीयपादः
३५१
है कि कातन्त्रकार ने 'कारस्कर' आदि शब्दों को संज्ञाशब्द मानकर उनके साधनार्थ
सूत्र नहीं बनाए । अतः उनकी सिद्धि अन्य लोकप्रसिद्ध संज्ञाशब्दों की तरह समझ लेनी चाहिए ।
[रूपसिद्धि] १. कस्तरति |कः + तरति | तकार के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती विसर्ग को प्रकृत सूत्र- द्वारा सकारादेश । २. कस्थुडति |कः + थुडति । थकार के पर में रहने पर पूर्ववर्ती विसर्ग को सकारादेश ॥ ६४!
६५. कखयोर्जिह्वामूलीयं नवा (१।५।४) [सूत्रार्थ] क - ख वर्णो के परवर्ती होने पर विसर्ग के स्थान में जिहवामूढीय (%) आदेश विकल्प से होता है ॥। ६५।
कखयोः | क » इति विदध्यात् । संज्ञापूर्वको व्यवहारः शिष्यावबोधार्थः । ककारस्यापि अत्राप्युच्चारणार्थत्वात् ।।६५ | [समीक्षा] 'कः + करोति, कः+ खनति’ इस अवस्था मेंदोनों ही व्याकरणों के अनुसार विसर्ग को जिह्वामूलीय आदेश होता है, परन्तु कातन्त्र व्याकरण में वज्र- सदृश
आकृति (२) वाले वर्ण की जिह्वामूलीय संज्ञा की गई है - “क » इति जिह्वामूलीयः" (१।१। १७), और इसीलिए प्रकृत विधिसूत्र में भी जिह्वामूलीय पद पठित है । पाणिनि ने अपने व्याकरण में न तो जिह्मामूलीय संज्ञा ही की है और न
विधिसूत्र “कुप्वो «क » क ५६ पौ च” ( ८।३।३७) यह विधिसूत्र बनाया है | उन्होंने न तो इस सूत्र में उपध्मानीय शब्द पढ़ा है और न कोई इस प्रकार की स्वतन्त्र संज्ञा ही |इसके विपरीत कातत्रकार ने उपध्मानीय संज्ञा की है- “ (प इत्युपध्मानीयः” (१।१।१८) तथा प्रकृत विधिसूत्र में भी उसका स्पष्ट पाठ है। [विशेष] पाणिनीय व्याख्याकारों ने उपाध्मानीय को अर्धविसर्ग के सदृश आकृति वाला बताया है, जब कि कातन्तरव्याख्याकार इसे गजकुम्भ के सदृश आकृतिवाला वर्ण कहते हैं ।अर्ध विसर्ग की आकृति तो जिह्यामूलीय जैसी ही है- ००८, परन्तु गजकुम्भ की अनेक आकृतियाँ भिन्न-भिन्न संस्करण वाले ग्रन्थों में देखी जाती हैं। जैसे-
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२५४
कातन्त्रव्याकरणयू
[रूपसिद्धि] १. क { पचति - कः पचति। कः +पचति । पकार के पर में रहने पर पूर्ववर्ती विसर्ग कोविकल्प से उपध्मानीय आदेश = क ६) पचति । उपध्मानीय के अभाव में कः पचति | २. क ७ फलति। कः+ फलति। फकार के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती विसर्ग को वैकल्पिक उपध्मानीय आदेश = क ! फलति | उपध्मानीय आदेश के अभाव में = कः फलति || ६६।
६७. शेषे से वा वा पररूपम् (१।५।६) [सूत्रार्थ] “श् - ष् - स् वर्णौ के परवर्ती होने पर विसर्ग के स्थान में पररूप आदेश
होता है ।। ६७।
[दु०बृ०] विसर्जनीयः शे वा षे वा से वा परे पररूपम् आपद्यते नवा | कश्शैते, कः शेते | कष्षण्डः, कः षण्डः | कस्साधुः, कः साधु: | चटतानित्यकरणाद् विसर्जनीयादेशस्याघोषे प्रथमो न स्यात् | कश्चरतीत्यादिष्वप्येवम् || ६७। [दु०्टी०]
[समीक्षा] 'कः + शेते, कः + षण्डः, कः + साधुः’ इस अवस्था में कातन्त्रकार विकल्प से विसर्ग को पररूप करके “कश्शेते, कष्षण्ड:, कस्साधुः' आदि शब्दरूप निष्पन्न करते हैं | परन्तु पाणिनि उक्त प्रयोगों की सिद्धि के लिए विसर्ग को सकारादेश (विसर्जनीयस्य सः ८ | ३ | ३४), सकार को शकार (स्तोः श्चुना श्चुः ८ ।४। ४०) तथा षकार आदेश का (ष्टुना ष्टुः ८।४।४१) विधान करते हैं |इस प्रकार पाणिनीय निर्देश में गौरव स्पष्ट है |
[विशेष] (१) कातन्त्र के प्रकृत सूत्र को लक्ष्य करके प्रशनोत्तरसंवाद कातन्त्रसम्प्रदाय में प्रचलित है | क्व हरिः शेते? का च निकृष्टा? को बहुलार्थः? कि रमणीयम्? वद कातन्त्रे कीद्रक् सूत्रं शे घे से बा बा पररुपमू॥ अर्थात् सूत्र है- “शे षे से वा वा पररूपम्” (१। ५। ६) |श्लोकोक्त चार प्रश्नों के उत्तर सूत्र में इस प्रकार दिए गए है१. कव हरिः शेते? शेषे । २. का च निकृ?
सेवा |
३. को बहुलार्थः? ४. किं रमणीयम्?
वा । पररूपम् ।
२५६
कातन्त्रव्याकरणमू
(२) व्याख्याकारों ने सिद्ध किया है कि 'कः शेते' स्थल में विसर्ग को
चकारादेश, 'कः षण्डः’ में विसर्ग को टकार तथा “क: साधुः' में तकार आदेश करना यदि अभीष्ट होता तो ग्रन्थकार ने “शषसेषु वा चटतान्” इस प्रकार की सूत्र रचना की होती । उन्होंने सूत्र बनाया है - ““पदान्ते धुटां प्रथमः!” (३।८।१) | अतः उक्त रूपों में विसर्ग के स्थान में क्रमशः शकार-षकार-सकार ही आदेश होते
हैं, चकार-टकार-तकार नहीं ।
[रूपसिद्धि] १, कश्शेते - कः शेते । कः + शेते। शकार के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती विसर्ग को विकल्प से शकारादेश = कश्शेते | शकारादेश के अभाव में = कः शेते |
२. कष्षण्डः - कः षण्डः |कः +षण्डः |षकार के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती विसर्ग को षकारादेशः = कष्पण्डः। षकारादेश के अभाव में = कः षण्डः | ३. कस्साधुः - कः साधुः |कः + साधुः |सकार के पर में रहने पर पूर्ववर्ती विसर्ग को सकारादेश= कस्साधुः | सकारादेश के अभाव में= कः साधुः ॥६७।
६८. उमकारयोर्मध्ये (१।५।७) [सूत्रार्थ] दो अकारों के मध्य में स्थित विसर्ग को उकारादेश होता है ।। ६८। [दु०्बृ० ]
[समीक्षा] ` 'कः + अत्र, कः + अर्थः’ इस स्थिति में कातन्त्रकार के अनुसार विसर्ग को उ तथा “'उबर्णे ओ” (१। २। ३) से ओकारादेश होकर “कोऽत्र, कोऽर्थः” आदि शब्दरूप सिद्ध होते हैं पाणिनि के अनुसार विसर्ग होने से पूर्वही सु- प्रत्ययस्थ स् को रु आदेश प्रवृत्त होता है । इस प्रकार पाणिनि के निर्देश में पदसिद्धि से पूर्व ही सन्धिविधान करना संगत प्रतीत नहीं होता ।
[विशेष] (१) “पुनः + अत्र’ इस स्थिति में विसर्ग के स्थान में उकारादेश न होकर “पूर्वपरयोः परविधिर्बलवानू? (कात० परि०सू० ७०) इस न्याय के अनुसार '“रप्रकृतिरनामिपरोऽपि’?
(१| ५। १४) सूत्र द्वारा रकारादेश होता है ।
(२) “उमकारयौः” इतने सूत्र से ही अभीष्टसिद्धि हौ सकती थी, फिर 'मध्ये' ग्रहण व्यर्थ होकर यह ज्ञापित करता है कि कहीं पर एकत्र दीर्घ आकार के रहने
२५८
कातन्त्रव्याकरणम्
पर भी उक्त कार्य सम्पन्न हो जाए | इसी के फलस्वरूप 'कुरवः + आत्महितम्' इस स्थिति में विसर्ग के स्थान में उकारादेश होकर 'कुरवोत्महितम्' रूप निष्पन्न
होता है ।टीकाकार के अनुसार ऋषिवचन को प्रामाणिक मानकर यह प्रयोग उपपन्न होता है या फिर युगभेद से व्याकरण भी भिन्न होते है ।अतः उस युग के व्याकरण में उक्त की व्यवस्था की गई होगी |
[रूपसिद्धि] १. कोऽन्र। कः "अत्र | ककारोत्तरवर्ती अकार तथा 'अत्र' के प्रारम्भिक अकार के मध्यवर्ती विसर्ग को प्रकृत सूत्र- द्वारा उकारादेश तथा “उबणें ओ? (१।२।३) से अ को 'ओ' आदेश (परवर्ती उ- वर्ण का लोप) = कोऽन्न |
२. कोऽर्थः। कः+ अर्थः |दो अकारों के मध्य मेंस्थित विसर्ग को उकारादेश तथा उससे पूर्ववर्ती अ को 'ओ' आदेश (परवर्ती 'उ' का लोप) = कोऽर्थः || ६८ |
६९. अघोषवतोश्च (१।५।८) [सूत्रार्थ] अकार तथा घोषवान् वर्णो के मध्य में स्थित विसर्ग के स्थान में उकार आदेश
होता है || ६९ |
[दु०वू०] अकार- घोषवतोर्मध्ये विसर्जनीय उमापद्यते । को गच्छति। को धावति अघोषवतोरिति किम्? कः शेते ॥६९। [दु०टी०]
को उकारादेश होता है |जबकि पाणिनीय प्रक्रिया के अनुसार विसर्गावस्था से पूर्व ही स् को रु तथा उस रु को “हशि च” (पा०६।१। ११४) से उत्त्व आदेश करके उक्त रूपों की निष्पत्ति की जाती है |
पदों का साधुत्व बताने वाले व्याकरणशास्त्र में शिवः, अर्च्यः, कः, धावति' आदि पदों के स्वतन्त्र रूप में सिद्ध हो जाने के बाद ही दो पदों में (पदस्थ वर्णो
में) सन्धिनियमों का प्रवृत्त होना अधिक संगत कहा जा सकता है |अतः कातन्त्र में जो विसर्ग को उकारादेश विहित है, वही अधिक संगत है, न कि 'शिव' प्रातिपादिक से प्रथमा-एकवचन “सु” प्रत्यय के प्रवृत्त होने पर ही पदान्तर 'अर्थः,
वन्य: आदि पर्दो के सन्निधान से सन्धिकार्य का होने ठगना संगत कहा जाएगा | अतः कातन्त्रकार का दृष्टिकोण उचित है ।
[रूपसिद्धि] १. को गच्छति। कः + गच्छति। ककारोत्तरवर्ती अ तथा घोषसंज्ञक वर्ण ग के मध्य में स्थित विसर्ग को 'उ' आदेश, “अवर्ण उवर्णे ओ” (१।२।२) से ककारोत्तरवर्ती अ' को ओ आदेश तथा उ का लोप |
२. को धावति |कः + धावति । ककारोत्तरवर्ती अ तथा घोषसंज्ञक ध् के मध्यवर्ती विसर्ग को 'उ' आदेश, “अवर्ण उवर्णे अ को ओ तथा परवर्ती उ का लोप ।।६९।
ओ' (१ ।२ ।२) से ककारोत्तरवर्ती
२६०
कातन्त्रव्याकरणम्
७०. अपरो लोप्योऽन्यस्वरे यं बा (१।५।९) [सूत्रार्थ] अकारभिन्न स्वर के पर में रहने पर अकार से परवर्ती विसर्ग का लोप होता है तथा विकल्प से यकारादेश भी होता है ।।७०।
परत्वादिति पञ्जी | यथा तस्य परत्वं तथाऽस्यापि अन्यस्वरमादाय विशेषः विहितत्वमस्तीति आशङ्क्यते, तस्यापि विशेषविहितत्वं नामिपरलमादाय इत्याहः बिशेषबिहितत्वादिति |एतेन विशेषविहितत्देनोभयमेव समानम्, किन्तु रेफस्य परलेनाधिकरणत्वमिति |अथोभयोः सावकाशत्वाभावात् कथं परत्वमिति चेत्, न |“ अन्यस्वरे यं बा”? (१ | ५ ।९ )इत्यस्य क इहेत्यादौ रेफस्य तु अग्निरिहेत्यादाविति ।नैवमित्यादि अथ भिन्नविभक्तिनिर्देशात् समुच्वयार्थत्वमुच्यते, तथा वाशब्दबलाद् विकल्पः कथं न
२६२
कातन्त्रव्याकरणम्
.
स्यात् |तथाहि यदि समुच्चयार्थौ भविष्यति तदा यलोप्याविति कृतं कि चरितार्थ वाशब्देन ? सत्यम् ।यथाश्रुतभिन्नविभिक्तनिर्देशे समुच्चयं विना वाक्यार्थपोष एव न स्यात्, समुच्चयस्यैव विकल्पनानौचित्यादित्याशयः ।तर्हि यलोप्याविति कथं न कृतम् इति चेत्, सूत्रस्य विचित्रा कृतिः ।।७०।
[समीक्षा] (१) 'कः + इह, कः + उपरि’ इस दशा में कातन्त्रकार एक ही सूत्र द्वारा विसर्गलेप तथा यकारादेश का विधान करते हैं। जिससे 'क इह, कयिह'
आदि प्रयोग निष्पन्न होतै है । पाणिनि के अनुसार सू को रु, रु को य् तथा उसका वैकल्पिक लोप करके उक्त प्रयोग सिद्ध किए जाते हैं। जिससे अनेक सूत्र तथा अनेक कार्य करने पडते हैं। अतः पाणिनीय निर्देश में गौरव स्पष्ट है।
(२) 'कः + इह' इस अवस्था में विसर्ग के स्थान में यकारादेश होने पर “अकारो दीर्घ घोषवति”” (२। १। १४) से ककारोत्तरवर्ती अकार को दीर्घ आदेश प्राप्त होता है । इसके समाधानार्थं “अकारो दीर्घ घोषवति” (२।१।१४) सूत्र का अर्थ किया जाता है- विभक्तिविषयक घोषवान् वर्ण के पर में रहने
पर अकार को दीर्घ होता है। न कि विभक्तिरूप घोषवान् वर्ण के पर में रहने पर । अतः 'देवाय' इत्यादि में दीर्घ हो जाता है । कयिह में नहीं | उमापति ने कहा भी है | देवायेति कृते दीर्घे कयिहेति कर्थं नहि। सत्यमेकपदे दीर्घो न तु भिन्नपदाश्रितः ॥ इति।
[रूपसिद्धि] १. क इह, कयिह | कः + इह । अकारोत्तरवर्ती विसर्ग का स्वर वर्ण इ के पर में रहने पर लोप तथा सन्धि का अभाव = क इह । विसर्ग को यकारादेश = कयिह |
२. क उपरि, कयुपरि। कः + उपरि | स्वर वर्ण उ के परवर्ती होने पर अकारोत्तरवर्ती विसर्ग का लोप तथा सन्धि का अभाव = क उपारे | विसर्ग का
विकल्प से यकारादेश = कयुपरि ।।७०।
सन्धिप्रकरणे पञ्चमो विसर्जनीयपादः
२६३
७१. आभोभ्यामेवमेव स्वरे (१।५।१०) [सूत्रार्थ] आकार तथा भो-शब्द से परवर्ती विसर्ग के स्थान में यकारादेश तथा विसर्ग का लोप होता है यदि विसर्ग से स्वरवर्ण पर में हो तो ।।७१।
[समीक्षा] (१) 'देवाः + आहुः, भोः+ अत्र’ इस अवस्था में कातन्त्रकार विसर्ग का लोप तथा यकारादेश करके (देवा आहुः, देवायाहुः। भो अत्र, भोयत्र’ शब्दरूप निष्पन्न करते हैं |पाणिनि के अनुसार तो यहाँ स् को रु, रु को यू तथा य् का वैकल्पिक लोप होता है | इस प्रकार पाणिनीय प्रक्रिया में गौरव स्पष्ट है |
(२) इस सूत्र मेंपठित 'भो' शब्द आमन्त्रणार्थक ओकारान्त शब्दों का उपलक्षण माना जाता है, जिससे 'भगो, अघो' शब्दों में भी निर्दिष्ट विधि प्रवृत्त होती है । (३) कुछ व्याख्याकारों या आचार्यो का मत संभवतः रहा होगा कि ओकारान्त
शब्दों से विसर्ग का लोप नित्य होता है उनके से सूत्र में 'एवमेव' शब्द पढ़ा गया है । जिसके यं बा” (१।५।९) इस पूर्वोक्त सूत्र में निर्दिष्ट अर्थाद् आकार- भोशब्दों से परवर्ती विसर्ग यकारादेश होता है |
मत का खण्डन करने के उद्देश्य फलस्वरूप “अपरो लोप्योऽन्यस्वरे दोनों विधियाँ यथावत् होती हैं। का वैकल्पिक लोप तथा पक्ष में
[रूपसिद्धि] १. देवा आहुः - देवायाहुः । देवाः + आहुः। आकार से परवर्ती तथा स्वर वर्ण आकार के पर में रहने पर विसर्ग का लोप = देवा आहुः | विसर्ग को यकारादेश = देवायाहुः । २. भो अत्र, भोयत्र। भोः + अत्र। भो से परवर्ती तथा स्वर वर्ण अकार के पर मेंरहने पर विसर्ग का लोप = भो अत्र । विसर्ग को यकारादेश = भोयत्र ।।७१।
७२. घोषवति लोपम् (१।५।११) [सूत्रार्थ] आकार तथा भोशब्द से परवर्ती विसर्ग का घोषवान् वर्ण के पर में रहने पर लोप होता है ।।७२।
[समीक्षा] “देवा: + गताः, भोः+ यासि, भगोः+ व्रज, अघोः+ यज' इत्यादि स्थलों में कातन्त्रकार विसर्ग का लोप करके 'देवा गताः, भो यासि” इत्यादि प्रयोगों की सिद्धि बताते हैं । यहाँ पाणिनि ने सकारस्थानिक रु को यू आदेश और उसका लोप विहित किया है । इससे कातन्त्रीय प्रक्रिया का लाघव और पाणिनीय प्रक्रिया का गौरव स्पष्ट है ||
[विशेष] विगत सूत्र “अपरो लोप्योऽन्यस्वरे यं बा”? (१।५।९ ) से लोप की अनुवृत्ति संभव होने पर भी प्रकृत सूत्र मेंलोप पद इसलिए पढ़ा गया है कि “*एकयोगनिर्दिष्टानां
सहैव वा प्रवृत्तिः सहैव वा निवृत्तिः”? (सं० बौ० वै०, पृ० २२०) इस न्यायवचन के अनुसार विगत सूत्र (१।५।९) से केवल “लोप्यः' पद की अनुवृत्ति नहीं की जा सकती, किन्तु 'लोप्यो यं वा” इतने अंश की अनुवृत्ति हो सकेगी | यदि इतने अंश की अनुवृत्ति होगी तो लोप के अतिरिक्त विसर्ग के स्थान में पाक्षिक यकारादेश भी होगा जो यहाँ अभीष्ट नहीं है । यहाँ तो लोममात्र ही अभीष्ट है । इसी के साधनार्थं लोप शब्द सूत्र में पढ़ा गया है | [रूपसिद्धि] १. देवा गताः | देवाः + गताः। आकार से परवर्ती तथा घोषसंज्ञक वर्ण ग के पर में रहने विसर्ग का लोप । २. भो यासि। भोः + यासि । 'भो’ से परवर्ती तथा घोषसंज्ञक वर्ण य् के पर में रहने पर विसर्ग का लोप |
२६८
कातन्त्रव्पाकरणम्
३. भगो ब्रज |भगोः + व्रज | 'भो' के उपलक्षण रूप 'भगो' से परवर्ती तथा घोषसंज्ञक वर्ण व के पर में रहने पर विसर्ग का लोप |
४, अधो यज | अघोः + यज । ‘भो’ के उपलक्षणरूप 'अघो से परवर्ती
तथा घोषसंज्ञक वर्ण य् के पर में रहने पर विसर्ग का लोप ।।७२।
७३. नामिपरो रम् (१।५।१२) [सूत्रार्थ] नामिसंज्ञक वर्ण से परवर्ती विसर्ग केस्थान में रकार आदेश होता है ।।७३ |
[समीक्षा] 'सुपिस् + सि, सुतुस् + सि’ इस अवस्था में कातन्त्रप्रक्रिया केअनुसार “ब्यञ्जनाच्च” (२। १| ४९) सूत्र-द्वारा तिप्रत्यय का लोप, “रेफसोर्विसर्जनीवः”” (२ | ३। ६३) से स् के स्थान में विसर्ग, “नामिपरो रम्”? (१। ५। १२) से विसर्ग
२७०
कोतन्त्रव्याकरणम्
को रेफ आदेश, इरुरोरीरूरौ (२।३। ५२) से ईर्आदेश तथा “'रेफसोर्विसर्जनीय :”!
(२। ३। ६३) से पुनः विसर्ग होने पर 'सुपीः, सुतू प्रयोग सिद्ध होते हैं । पाणिनि के अनुसार सुलोप, रेफ, उपधादीर्घ तथा विसर्ग आदेश करके इन रूपों को सिद्ध किया जाता है |इस प्रकार पाणिनीय मेंजो एक कार्य कम करके रूपसिद्धि हो जाती है, उससे यहाँ पाणिनीय प्रक्रिया को ही संक्षिप्त कहा जा सकता है | कातन्त्र-वृत्तिकार ने विसर्ग को रकारादेश करने का जो प्रयोजन ईर्-ऊर् आदेश बताया है, वह उपस्थित विरोध का एक समाधानमात्र है, सरलता - संक्षेप का द्योतक नहीं ।
[विशेष] वस्तुतः कातन्त्र व्याकरण मेंरेफ की उपधा को केवल दीर्घ-विधान न करके इर् के स्थान में ईर् तथा उर् के स्थान में ऊर् आदेश की व्यवस्था की गई है। ““इरुरोरीरुरौ!? (२ ।३ ।५२) |
[रूपसिद्धि] १, सुपीः |सुपिस् + सि । व्यञ्जनाच्च (२ ।१।४९ ) से सि-प्रत्यय का लोप “रेफसोर्विसर्जनीयः (२ । ३ ।६३ )से स् को विसर्ग, “नामिपरो रम् (१| ५ ।१२) सेविसर्ग कोरेफ, “इरुरोरीरूरौ” (२ ।३ ।५२) से ईर्आदेश तथा रेफसोर्वितर्जनीयः (२।३।६३) से र् को विसर्ग आदेश |
२. सुतूः | सुतुस् + सि | सि- प्रत्यय का लोप, स् को विसर्ग, विसर्ग को रेफ, रेफ को ऊर् तथा र् को विसर्ग || ७३ |
७४. घोषवत्स्वरपरः (१।५।१३) [सूत्रार्थ] नामिसंज्ञक वर्ण से परवर्ती विसर्ग के स्थान मेंरेफ आदेश होता है, यदि
विसर्ग के बाद घोषवान् वर्ण तथा उसके बाद स्वर वर्ण हो तो | घोषसंज्ञक वर्ण और स्वर वर्ण में विपर्यास भी अभीष्ट है ।।७४।
[समीक्षा] 'अग्निः+ गच्छति, अग्निः + अत्र , पटुः + अत्र’ इस अवस्था में कातन्त्रकार विसर्ग को रकारादेश करते हैं, परन्तु पाणिनि विसर्गा देशसे पूर्व ही सुप्रत्ययस्थ स् को रु आदेश करके 'अग्निर्गच्छति, अग्निरत्र, पटुरत्र' आदि शब्दरूप सिद्ध करते हैं ।इससे ऐसा कहा जा सकता है कि कातन्त्रकार को इस प्रकार की सन्धि पदनिष्यत्ति के बाद ही करनी अभीष्ट थी, जबकि पाणिनि को पदसिद्धि से पूर्व |
[रूपसिद्धि] १. अग्निर्गच्छति। अग्निः + गच्छति | नामिसंज्ञक वर्ण इ से परवर्ती तथा स्वर वर्ण अ है पर में जिसके ऐसे घोषसंज्ञक वर्ण ग् के पर में रहने पर विसर्ग को रेफ | २. अग्निरत्र। अग्निः. + अत्र । नामिसंज्ञक वर्ण इ से परवर्ती तथा स्वर घोषसंज्ञक वर्ण त्से पूर्ववर्ती विसर्ग को रेफ आदेश ।
३. पूटुर्वदति। पटुः + वदति | नामिसंज्ञक वर्ण उ से परवर्ती तथा स्वर वर्ण अ है पर में जिसके ऐसे घोषसंज्ञक वर्ण व्से पूर्ववर्ती विसर्ग को रेफ आदेश | ४. पटुरत्र। पटुः + अत्र । नामिसंज्ञक वर्ण उ से परवर्ती तथा स्वरवर्ण अ -घोषसंज्ञक वर्ण त्से पूर्ववर्ती विसर्ग को रेफ आदेश ।|७४।
७५.
रप्रकृतिरनामिपरोऽपि
(१) ५। १४)
[सूत्रार्थ] रेफ-प्रकृति वाला विसर्ग रकार को प्राप्त होता है, यदि वह नामिसंज्ञक या उनसे भिन्न वर्णो से परवर्ती हो और उस विसर्ग के बाद घोषसंज्ञक वर्ण, स्वर या अघोषसंज्ञक वर्ण हों तो ।।७५ ।
“गी:+पतिः, धूः+पतिः' इस अवस्था में कातन्त्रकार विसर्ग को वैकल्पिक
रेफ आदेश करके 'गीर्पतिः, धूर्पतिः' आदि शब्दरूप सिद्ध करते हैं। पाणिनि ने अष्टाध्यायी में एतदर्थ कोई सूत्र नहीं बनाया है। इसकी पूर्ति वार्तिककार ने की है- 'अहरादीनां पत्यादिषूपसंख्यानं कर्तव्यम्' (का० वृ० ८।२।७०-वा०)। कातन्त्र के व्याख्याकारों नेकहीं इस रकारादेश को नित्य और कहीं पर अनित्य दिखाया है । जैसे ““स्वरघोषबतोर्नित्यम्'? (१। ५| १४ - वा०) - 'पितरत्र,
पितर्यात:! | 'गीर्पतिः- गीःपतिः? इत्यादि में रेफादेश विकल्प से किया गया है। व्याख्याकारौं द्वारा इस विषय में अन्य व्याकरणवचनों पर किया गया विचार द्रव्य है |
[रूपसिद्धि] १. गीर्पतिः, गीःपतिः | गीः + पति: | नामिसंज्ञक वर्ण ई से परवर्ती तथा घोषसंज्ञक वर्ण प्से पूर्ववर्ती, रप्रकृतिक (गिर) विसर्ग को वैकल्पिक रेफ आदेश = गीर्पतिः । रेफाभावपक्ष में गीःपतिः |
२. धूर्पतिः, धूःपतिः | धूः + पतिः | नामिसंज्ञक वर्ण उ से परवर्ती तथा घोससंज्ञक वर्ण य्से पूर्ववर्ती रेफप्रकृतिक (धुर्) विसर्ग को वैकल्पिक रेफादेश = धूर्पतिः। रेफादेश के अभाव में धूःपतिः। ३. पितरत्र। पितः+ अत्र | नामिभिन्न वर्ण अ से परवर्ती तथा स्वरसंज्ञक वर्ण असे पूर्ववर्ती रेफप्रकृतिक (पितर्) विसर्ग को नित्य रेफादेश |
४. पितर्यातः। पितः+ यातः | नामिभिन्न वर्ण अ से परवर्ती तथा घोषसंज्ञक वर्ण यूसे पूर्ववर्ती रेफप्रकृतिक (पितर्) विसर्ग को नित्य रेफादेश ||७५।
२७६
कातन्त्रव्याकरणम्
७६. एष- सपरो व्यञ्जने लोप्यः (१।५।१५) [सूत्रार्थ] 'एष' तथा 'स” से परवर्ती विसर्ग का लोप हो जाता है यदि उस विसर्ग के बाद व्यञ्जन वर्ण हो तो || ७६।
द्र०-अजानत्तर्य न बहिरङ्गपरिभाषा (चा० परि०पा० ¬ ४६)।
२८०
कातन्त्रव्याकरणम्
(कात० परि० सू० ३५) इत्यस्ति, अतः असिद्ध इत्युच्यते |अन्यथा कोऽर्थः सिद्धो वर्ण इति कथं सिद्धयति ।अत एव “क इह” इत्यादौ विसर्जनीयलोपे सन्धिर्निषिध्यते ? सत्यम्, प्रक्रियागौरवनिरासार्थं लोप्यग्रहणमिति कुलचन्द्रः । परमार्थतस्तु लोप्यग्रहणात् क्वचित् स्वरानन्तर्येऽप्यसिद्धवद्भावस्तेन 'खेयम्' इति सिद्धम् ।।७६। [समीक्षा] 'एषः+ चरति, सः+ टीकते’ इस अवस्था में कातन्त्रकार विसर्ग का लोप करके
“एष चरति, स टीकते' आदि शब्दरूपो का साधुत्व ज्ञापित करते हैंजबकि पाणिनि विसर्गा देश की अवस्था से पूर्व ही सु-प्रत्यय का लोपविधान करते हैं-**एतत्तदोः सुलोपोऽकोरनञूसमासे हलि’? (६। १। १३२) |
यहाँ कातन्त्रकार की प्रक्रिया को इसलिए अधिक संगत कहा जा सकता है
कि पदों का साधुत्व बताने में प्रवृत्त व्याकरणशास्त्र में पृथकू-पृथकू पदों की सिद्धि हो जाने पर ही उनका पदान्तर से संबन्ध तथा उस पदान्तर के सान्निध्य से प्राप्त सन्धिकार्यो की प्रवृत्ति होनी चाहिए | इस प्रकार कातन्त्रकार द्वारा निर्दिष्ट विसर्ग का लोप अधिक युक्तियुक्त है । पाणिनि-द्वारा विहित सुलोप का निर्देश इसलिए अधिक युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता, क्योंकि 'एष -स्' इस अवस्था में ही 'चरति' की उपस्थिति मानना उचित नहीं कहा जा सकता है और ऐसा होने पर सुलोप का विधान करना भी सङ्गत नहीं होगा |
[विशेष] “रप्रकृतिरनामिपरोऽपि’? (१/५/१४)
सूत्रपठित “अपि' शब्द का अधिकार
(अनुवृत्ति) यहाँ भी माना जाता है, जिसके फलस्वरूप 'एषक: करोति, सकः करोति? इन अकूप्रत्ययघटित रूपों मेंतथा 'अनेषो गच्छति, असो गच्छति' इन नञूसमासघटित
रूपों में 'एष-स' के बाद वर्तमान विसर्ग का लोप नहीं होता | द्र० -दु० वृ० - “' अप्यथिकारात्....... अकि नञ्समासे न स्यात्! ॥
[रूपसिद्धि] १. एष चरति | एषः+ चरति । व्यञ्जन वर्ण च् के परवर्ती रहने पर एष - से उत्तरवर्ती विसर्ग का लोप |
सन्धिप्रकरणे पश्चमो विसर्जनीयपादः
२८१
२. स टीकते | सः+टीकते | स’ से परवर्ती विसर्ग का लोप, व्यञ्जन वर्ण
“ट्' के पर में रहने पर |
|
३. एष शेते |एष:-- शेते । शकार - व्यञ्जन वर्ण के पर में रहने पर 'एष' से परवर्ती विसर्ग का लोप |
४. स पचति | सः+ पचति । व्यञ्जन वर्ण 'पू के पर में रहने पर 'स' से परवर्ती विसर्ग का लोप ।।७६।
७७. न विसर्जनीयलोपे पुनः सन्धिः (१। ५। १६) [सूत्रार्थ] विसर्ग का लोप हो जाने पर प्राप्त होने वाला सच्थिकार्य प्रवृत्त नहीं होता है ।। ७७ |
[समीक्षा] 'कः+इह, देवाः+ आहुः’ इत्यादि अवस्थाओं में कातन्त्रकार के मतानुसार
विसर्ग का लोप होकर 'क इह, देवा आहुः' आदि शब्दरूप सिद्ध होते हैं। यहाँ क्रमशः 'अ' को ए (अवर्ण इवर्णे ए १। २। २)और आ को दीघदिश (“समानः सवर्णे दीर्घीभवति परश्च लोपम्’? -१।२।१) प्राप्त होता है |उसके वारणार्थ कातन्त्रकार परिभाषासूत्र द्वारा विसर्ग का लोप हो जाने पर सन्धि का अभाव निर्दिष्ट करते हैं । पाणिनीय व्याकरण में पठित “पूर्वज्रासिद्धम्”” (८। २। १) सूत्र की असिद्ध विधि के अनुसार यहाँ सन्धि नहीं होती । सिद्धान्तकौमुदी में कहा भी गया है (अचसन्धि० ८। ३। १९) - “पूर्वत्रासिद्धमिति लोपशास्त्रस्यासिद्वत्वान्त स्वरसन्धिः?”
इस प्रकार सूत्र - कार्य-संख्या में उभयत्र साम्य होते हुए भी कातन्त्रीय प्रक्रिया अधिक स्पष्ट और संक्षिप्त है । पाणिनीय प्रक्रिया में सूत्रों के पौर्वापर्य का परिज्ञान करना आवश्यक होने से ज्ञानगौरव विद्यमान है | १.
१. सन्धि (संहिता संज्ञा) को अनेक परिभाषाएँ- सन्निकर्षः सन्धिः ।सुसन्निकर्षः सन्धिः | सन्धिविधेयकार्य सन्धि: । सन्ध्याश्रयमपि कार्य सन्धि: ।
२. सूत्रोक्त नियमों से भिन्न कुछ उदाहरणो में जहाँ सन्धिकार्य नहीं होता है या प्रवृत्त होता है, उसमें अनेक आधारों, न्यायों का उल्लेख | जैसे - 'नजा निर्दिष्टस्यानित्यत्वात् । अपिशब्दस्य बहुलार्थत्वात् | ऋषिवचनाच्च' |
[रूपसिद्धि] १. क इह । कः+ इह | अकार रो परवर्ती तथा इ- स्वरवर्ण के पर में रहने
पर विसर्ग का “अपरो लोष्योऽन्यस्वरे य॑ बा”? (१। ५। ९) से लोप होने पर “अबर्ण इवर्ण ए” (१। २। २) से प्राप्त एकारादेश का प्रकृत परिभाषासूत्र से निषेध | २. देवा आहुः। देवाः+ आहुः। आकार से परवर्ती विसर्ग का आकार के पर में रहने पर '“आभोभ्यामेवमेव स्वरे”” (१। ५। १०) से लोप होने पर “समानः
सवर्णे दीर्घीभवति परश्च लोपम्” (१।२।१) सेप्राप्त सवर्णदीर्घ का प्रकृत परिभाषासूत्र से निषेध | ३. भो अत्र) भोः+अत्र | 'भो’ से परवर्ती विसर्ग का स्वर वर्ण 'अ' के पर में रहने पर आभोभ्यामेवमेव स्वरे” (१। ५। १०) से लोप हो जाने पर “ओ अव्” (१। २। १४) से प्राप्त 'अव्ः' आदेशरूप सन्धि का प्रकृत सूत्र
से निषेध ।। ७७।
७८. रो रे लोपं स्वरश्च पूर्वो दीर्घः (१। ५। १७) [सूत्रार्थ] रकार के पर में रहने पर पूर्ववर्ती रकार का लोप तथा उस लुप्त रकार से पूर्ववर्ती स्वर को दीघदिश होता है ||७८ |
[समीक्षा] ‘अग्निर् +रथेन, पुनर्+ रात्रिः, उच्चैर्+रौति’ इस अवस्था में कातन्त्रकार इस एक ही सूत्र द्वारा रेफ का लोप तथा पूर्ववर्ती स्वर को दीर्घ करते हैं । पाणिनि ने रेफ-लोप के लिए “रो रि” (८। ३। १४) तथा दीर्घ के लिए “ढूलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः”? (६। ३। १११) सूत्र बनाया है । इस प्रकार पाणिनीय रचना-प्रक्रिया को गौरवाभिधायक ही माना जाएगा |
[विशेष] व्याख्याकारोँ ने सूत्रपठित चकार को अन्वाचयशिष्ट माना है । किसी प्रधान के साथ अप्रधान के अन्वय को अन्वाचय कहते हैं- 'अन्यतरस्याऽऽनुषङ्गि-
सन्धिप्रकरणे पञ्चमो बिसर्जेनीयपादः
२८७
कत्वेनान्वयः = अन्बाचयः' | जैसे 'भिक्षाम् अट गां चानय’ =भिक्षा माँग लाञ्यो तथा
गाय को ले आओ | यहाँ भिक्षाटन मुख्य कार्य है तथा गाय ले आना गौण | यहाँ चकार को अन्वाचयशिष्ट मानने के फलस्वरूप 'उच्चै रीति” आदि स्थलों में केवल रेफ का लोप ही प्रवृत्त होता है, दीर्घ नहीं, क्योंकि 'ए-ऐ- ओ -औ? ये चार सभ्ध्यक्षरसंज्ञक वर्ण सदैव दीर्घ होते हैं, उन्हें दीर्घ करने की कोई आवश्यकता नहीँ - "नित्यं सन्ध्यक्षराणि गुरूणि’ |
[रूपसिद्धि] १. अग्नी रथेन। अग्निर् + रथेन । अव्यवहित दो रेफो में से पूर्ववर्ती रेफ का लोप तथा उससे पूर्ववर्ती इकार को दीर्घ । २. पुना राब्रिः। पुनर्+ रात्रि: । किसी भी स्वर वर्ण का व्यवधान न रहने पर दो रेफों मेंसे पूर्ववर्ती रेफ का लोप तथा उससे पूर्ववर्ती अकार को दीर्घ आदेश |
३. उच्चै रौति |उच्चैर् + रौति ।दो रेफों के अव्यवहितरूप में रहने पर पूर्ववर्ती रेफ का लोप । यहाँ लुप्त रेफसे पूर्ववर्ती ऐकार स्वतः दीर्घ है, अतः उसके दीर्घविधान की कोई आवश्यकता नहीं होती ।इसे व्याख्याकारों ने सूत्रस्थ “'च” को अन्वाचयशिष्ट मानकर सिद्ध किया है ।।७८।
७९, द्विभविं स्वरपरश्छकारः(१। ५। १८) [सूत्रार्थ] स्वर वर्णो से परवर्ती छकार को द्वित्व होता है ॥७९।
[समीक्षा] 'वृक्ष+छाया, इ+छति, ग+छति’ इस अवस्था में 'छ” वर्ण को द्वित्व तथा “अघोषे प्रथमः” (२। ३। ६१) सूत्र से छ को च् आदेश करके कातन्त्रकार ‘वृक्षच्छाया, इच्छति, गच्छति? इत्यादि शब्दरूप निष्पन्न करते हैं |पाणिनि के अनुसार यहाँ संहिताधिकार में “छे च” (६। १। ७३) से तुगागम, “'स्तोः श्चुना श्चुः? (८। ४। ४०) से प्राप्त श्चुत के असिद्ध होने के कारण “झलां जशोऽन्ते’? (८। २। ३९) से तू को द्, इस दू को "खरि च” (८! ४। ५५) सूत्र से प्राप्त चर्त्व के असिद्ध होने से “स्तोः श्चुना श्चुः? (८। ४। ४०) सूत्र द्वारा जू तथा “खरि च” (८। ४। ५५) से ज् को च् आदेश होकर 'शिवच्छाया, स्वच्छाया” आदि शब्दरूप सिद्ध होते हैं ।
इस प्रकार पाणिनीय प्रक्रिया में गौरव स्पष्ट है । यह भी ज्ञातव्य है कि पाणिनि ने तुगागम के लिए चार सूत्र बनाए हैं- “छे च, आइ्माडोश्च, दीर्घात्, पदान्ताद् बा” (६।१। ७३-७६) | परन्तु कातन्त्रकार ने तुगागम के लिए छकार के द्वित्वमात्र का विधान केवल एक सूत्र द्वारा करके सरलता तथा संक्षेप ही प्रदर्शित किया है ।
सन्धिप्रकरणे पश्चमों विसर्जनीयपादः
२९१
[विशेष] १. “पप्रकृतिरनामिपरो5पि”” (१ | ५।१४) सूत्रपठित “अपि” शब्द का अधिकार इस सूत्र में भी माने जाने के कारण दीर्घस्वर के बाद आने वाले छकार का द्विर्भाव
विकल्प से होता है- कुटीछाया, कुटीच्छाया | २. “उक्त के अनुसार आङ् तथा मा से परवर्ती छकार को द्विर्भाव नित्य होता है- आच्छाया, माच्छिदत् । ३. “स्वरात्’ न कहकर सूत्रकार ने जो 'स्वरपर:' कहा है, उसके कहने का
तात्पर्य यह है कि संहिता में ही छकार को द्विर्भाव होगा, असंहिता में नहीं । जैसे “हे छात्र ! छत्रं पश्य'। यहाँ छकार को दिर्भाव नहीं होता है ।
[रुपसिद्धि] १. वृक्षच्छाया | वृक्ष + छाया | क्षकारोत्तरवर्ती स्वर वर्ण 'अ' से पर में स्थित छकार को द्विभघ तथा “अधोषे प्रथमः” (२। ३। ६१) से पूर्ववर्ती छकार को चकारादेश । २. इच्छति |इ+ छति | “गमिष्यमाँ छः” (३। ६। ६९) से 'इष्' धातुस्थ षकार को छकार, प्रकृत सूत्र से छकार को द्वित्व तथा “अघोषे प्रथमः” (२। ३। ६१) से पूर्ववर्ती छकार को चकार । ३. गच्छति | ग + छति | ““गमिष्यमां छ?” (३। ६। ६९) से 'गम्' धातुस्थ मकार को छकार, प्रकृत सूत्र से छकार को द्विब्व तथा ““अघोषे प्रथमः” (२। ३। ६१) से पूर्ववर्ती छकार को चकारादेश ।!७९। ॥ इत्याचार्यशर्ववर्मप्रणीतस्य कातन्त्रव्पाकरणस्य प्रथमे सन्धिप्रकरणे समीक्षात्मकः पञ्चमो विसर्जनीयपादः समाप्तः ॥