<poem> आस्रवनिरोधः संवरः।।

स गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः।।

तपसा निर्जरा च।।

सम्यग्योग निग्रहो गुप्तिः।।

ईर्याभाषैषणा दान निक्षेपोत्सर्गा समितयः।।

उत्तमक्षमामार्दवार्जवसत्य शौचसंयम तपस्त्यागा किञ्चन्य ब्रह्मचर्याणि धर्मः।।

अनित्याशरण संसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवर निर्जरा लोकबोधि दुर्लभ धर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः।।

मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः।।

क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्री चर्यानिषद्याशय्या क्रोध वधयाचनालाभ रोग तृणस्पर्श मल सत्कार पुरस्कार प्रज्ञानां दर्शनानि।।

सूक्ष्मसांपरायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश।

एकादश जिने।।

बादरसांपराये सर्वे।।

ज्ञानवरणे प्रज्ञाज्ञाने।।

दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ।।

चारित्रमोह नाग्यानरतिस्त्रि निषद्याक्रोशयाननासत्कार पुरस्काराः।।

वेदनीये शेषाः।।

एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नै कोनविंशतेः।।

सामायिकच्छेदोपस्थापना परिहार विशुद्धिसूक्ष्म सांपराय यथाख्यातमितिचारित्रम्।।

अनशानावमोदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तसय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः।।

प्रायश्चिविनय वैया वृत्त्यस्वाध्याय व्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्।।

नवचतुर्दश पञ्चद्विभेदा यथाक्रमं प्रागध्यानात्।।

आलोचनप्रतिक्रमणतदुभय विवेक व्युतसर्गत पश्छेदपरिहारोपस्थापनाः।।

ज्ञानदर्शन चारित्रोपचाराः।।

आचार्योपाध्याय तपस्विशैक्ष ग्लानगण कुल संघ साधु मनोज्ञानाम्।।

वाचनापृच्छानानुप्रेक्षाऽऽम्नायधर्मोपदेशाः।।

बाह्याभ्यन्तरोपध्योः।।

उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्।।

आर्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि।

परे मोक्षहेतू।।

आर्तममनोज्ञस्य साप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः।।

विपरीतं मनोज्ञस्य।।

वेदनायाश्च।।

निदानं च।।

तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्।।

हिंसानृतस्तेय विषय संरक्षणेभ्यो रोद्रमविरतदेशविरतयोः।।

आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम्।।

शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः।।

परे केवलिनः।।

पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्म क्रियाप्रतिपा दिव्युपरत क्रियानिवर्तीनि।।

त्र्येक योग काययोगा योगानाम्।।

एकाश्रयेसवितर्कवीचारे पूर्वे।।

अवीचार द्वितीयम्।।

वितर्कः श्रुतम्।।

वीचारोऽर्थव्यञ्जन योग संक्रान्तिः।।

सम्यग्दृष्टि श्रावक विरतानन्त वियोजक दर्शन मोहक्षप कोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येय गुणनिर्जराः।।

पुलाकबकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकाः निर्गन्थाः।।

संयम श्रुतप्रतिसेवना तीर्थलिंगलेश्योपपादस्थान विकल्पतः साध्याः।।

इति नवमोऽध्यायः।।