पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम्-काण्डम् १ (क्षेमकरणदास् त्रिवेदी).pdf/११

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अथर्ववेदभाष्यभूमिका । १-ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका। २-ऋग्वेदभाष्य [ जो मण्डल ७ सूक्त ६१ मन्त्र २ तक हुआ है ] । ३-यजुर्वेदभाष्य । ४-सत्यार्थप्रकाश। अन्य भी विद्वानों श्री सायणाचार्य आदि ने वेदों की रक्षा और व्याख्या के लिये अनेक प्रयत्न किये हैं, और अब भी विद्वान् लोग परिश्रम उठा रहे हैं । ३-अथर्ववेद ॥ ऊपर कह आये हैं कि ईश्वरकृत चारों वेदों में से अथववेद एक वेद है। उसके नाम छन्द (छन्दांसि), अथर्याद्विरा (अथर्वागिरसः) और ब्रह्म वेद हैं। इन शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं । (१) अथर्ववेद, यह अथर्व [अथर्वन् ] और वेद इन दो शब्दों का समुदाय है । थर्व धातु का अर्थ चलना और अथर्व का अर्थ निश्चल है, और वेद का अर्थ शान है, अर्थात् अथर्व, निश्चल, जो एक रस सर्वव्यापक परब्रह्म है, उस का ज्ञान अथर्ववेद है। (२) छन्द, इस का अर्थ आनन्ददायक है, अर्थात् उस में श्रानन्ददायक पदार्थों का वर्णन है। (३) अथर्वाङ्गिरा, इस पद का अर्थ यह है कि उस में अथर्व, निश्चल परब्रह्म योधक अङ्गिरा अर्थात् ज्ञान के मन्त्र है। (४) ब्रह्मवेद अर्थात् जिस में ब्रह्म जगदीश्वर का ज्ञान है, और जिसके मनन और साक्षात् करने से ब्रहाओं [ ब्राह्मणों, ब्रह्म- शानियों ] को मोक्ष सुख प्राप्त होता है। १) अथर्वाणोऽथनवन्तस्थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्प्रतिपेधः-निरु० ११ । १ । नामदिपर्तिपृशकिभ्यो वनिए । उ० ४ । ११३ । इति श्र+धर्व चरणे-बनिए । वकारलोपः। न थर्वति न चरतीति अथर्वा दृढ़स्वभावः। हलश्च । पा०३।३। १२१ । इति विद ज्ञाने-धनु । इति वेदो ज्ञानम् । अथर्वणो दृढ़वभावस्य परमेश्वरस्य वेदोऽथर्ववेदः॥ - (२) चन्देरादेश्च छः । उ०४।२१६ । इति चदि आलादे-असुन्, चस्य छ । चन्दयति अाहलादयतीति छन्दः॥ (३) अङ्गतेरसिरिरुडागमश्च । उ०४ । २२६ । इति अगि गतौ-असि, इरुट आगमः । अङ्गति गच्छति प्राप्नोति जानाति वा परब्रह्म येनेति अङ्गिराः,वेदः। अथर्वणोऽगिरसोऽथर्वाङ्गिरसः॥ (४) हेर्नोऽन्छ । उ०४ । १४६ । इति वृहि वृद्धौ-मनिन् । नकारस्य अकारः, रत्वं च । हतिं वर्धते सर्वेभ्योऽधिको भवतीति ब्रह्म परमेश्वरः । ब्रह्मणोवेदो ब्रह्मवेदः॥