( १५८) अथर्ववेदभाध्ये सू०३२। (दिवि) सूर्या लोक में है (येन) जिस के सहारे से (वीरुधः) यह उगती हुयीं जड़ी बूटी [लता रूप सृिष्ट के पदार्थ] (प्राणन्ति) श्वास लेती हैं ॥१॥ भावार्थ-यधपि वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् परब्रह्म भूमि या ‘सूर्य आदि किसी विशेष स्थान में वर्तमान नहीं है तो भी वह अपनी सत्ता मात्र से ओषधि मा आदि सब सृष्टि का नियम पूर्वक प्राणदाता है। प्रसवानी लोग , उस ब्रह्मका उपदेश करते हैं ॥१॥ केनोपनिषत् में वर्णन है , खंड.१ मन्त्र । न तत्र चक्षुर्गगच्छति न वाग् गच्छति नो मनो न विमो न विजानीमो यथैतदनु शिष्यादन्यदेव तद्वि- दितादथो अविदितादधि । इति शुशुम पूर्वेषां ये नस्तद् व्याचचक्षिरे॥१॥ . न वहां आंख जाती है, न पाणी जाती है, म मन, हम न जानते हैं न पहिचानते हैं कैसे वह इस जगत का अनुशासन करता है। वह जाने हुये से भिन्न है और न जाने हुये से ऊपर है। ऐसा हमने पूर्वजों से सुना है, जिन्हों ने हमें उसकी. शिक्षा दी थी॥ १६१०।४। पूजनीयम् ब्रह्म।।।४। परब्रह्म, परमात्मानम्, परमकारणम् । वदिष्यति । वद वाक्य-लुन् । कथयिष्यति । न । निषेधे। तत् । ब्रह्म। पृथिव्याम् । १।२।१ । प्रख्यातायां भूमौ । नो इति । न- । . मैष । दिवि १३०॥ ३ ॥धु लोके, सूर्यमण्डले । येन। ब्रह्मणा प्राणन्ति। प्र+अन जीवने, भदादिः। मीवन्ति, श्वसन्ति । वीरुधः । विशेषेण रुणद्धि वृक्षानन्यान् सा वीरुत् । विरुध आवारसे-क्विप, दीर्घश्च । अथवा । वि+रुह प्रादुर्भावे-क्रिप् । म्यङकादीनां च पा० ७।३।३५ । इति हस्य धः। विरोहण- शीलाः । विस्तता लतादयः । लतादिव विरोहिताः सृष्टिपदार्थाः ॥
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