पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम्-काण्डम् १ (क्षेमकरणदास् त्रिवेदी).pdf/१८४

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सू० ३२॥ प्रथमं काण्डम् । मेघ आदि रस रूप से सदा संसार में सृष्टि की उत्पचि और स्थिति का कारण है ॥३॥ टिप्पणी-सायणभाष्य में (रोदसी इति ) यह पद पाठ और उसका श्रर्थ [ हे धावापृथिव्यौ ] हे सूर्य और भूमि अशुद्ध है । यहां (रोदसी ) एक पचन और केवल सूर्य याची है पर्योकि (भूमिःच) [और भूमि ] यह पद मन्त्र में वर्तमान हैं । फिर (भूमिः च ) का भी अर्थ [भूमि और धुलोक] उक्त विश्वमन्यामभीवार तदन्यस्यामधि श्रुितम् । दिवे च विश्ववेदसे पृथिव्यै चोकर नमः ॥ ४ ॥ विश्वम् । अन्याम् । अभि-वार । तत् । अन्यस्याम् । अधि । श्रितस् । दिवे।च। विश्व-वेदसे । पृयिव्यै। चाकरम् । नमः॥४॥ भाषार्थ:-विश्वम् ) उस सर्व व्यापक [रस]ने (अन्याम्) एक [सूर्य वा भूमि] को (अभि) चारों ओर से (वार=वचार) घेर लिया, (तत्) वही [रस] (अन्यस्याम्) दूसरी में (अधिश्रितम्) आश्रित हुश्रा । (च) और (दिचे) सूर्य रूप या श्राकाश रूप (च) और (पृथिव्यै) पृथिवी रूप (विश्ववेदसे ) सब के जानने वाले [या सब धनों के रखने वाले,या सब में विद्यमान ब्रह्म] को (नमः) नमस्कार (अकरम्) मन किया है ॥४॥ भावार्य-सृष्टि का कारण रस अर्थात् जल, सूर्य की किरणों ले आकाश - ४-विश्वम् । १।१०।२। सचं व्याप्तं श्रामु । म०३ । अन्याम् । एकाम् द्या भूमिवाभि वाररावृञ् वरणे-लिटावकार लोपश्चान्दसः। सर्वतो धवार, श्राच्छादितं चकार । तत् । आर्द्रम् । अन्यस्यास् । अपरल्याम् । अधि+श्रितम् । आश्रितम् । दिवे । १।३०।३। आकाशाय । तद्रूपाय । विश्व-वेदसे । विद्ल लामे , वा विद् शाने सत्तायां च-असुन ॥ सर्वधन- युक्तायै, साधारभूतायै । पृथिव्यै । १।२।१। विस्तीर्णायै भूम्यै, तद्पाय परमेश्वराय । अकरम् । डुकृञ् करणे-लुङ । अहं कृतवानस्मि ॥ ___21 . . . .